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कुछ ग़ज़लें-

मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक़
(1789 – 1854)

1.अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे
2.आज उनसे मुद्दई कुछ मुद्दआ कहने को है
3.लायी हयात, आये, क़ज़ा ले चली, चले
4.तेरे कूचे को वो बीमारे-ग़म दारुश्शफ़ा समझे

5.तेरा बीमार न सँभला जो सँभाला लेकर
6.जान के जी में सदा जीने का ही अरमाँ रहा
7.क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले
8.उसे हमने बहुत ढूँढा न पाया

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जायेंगे


सामने-चश्मे-गुहरबार[1] के, कह दो, दरिया
चढ़ के गर आये तो नज़रों से उतर जायेंगे

ख़ाली ऐ चारागरों
[2] होंगे बहुत मरहमदां
पर मेरे ज़ख्म नहीं ऐसे कि भर जायेंगे

पहुँचेंगे रहगुज़र-ए-यार तलक हम क्योंकर
पहले जब तक न दो-आलम
[3] से गुज़र जायेंगे

आग दोजख़ की भी हो आयेगी पानी-पानी
जब ये आसी
[4] अरक़-ए-शर्म[5] से तर जायेंगे

हम नहीं वह जो करें ख़ून का दावा तुझपर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जायेंगे

रुख़े-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहरो-मह
[6] नज़रों से यारों के उतर जायेंगे

'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उनको मैख़ाने में ले आओ, सँवर जायेंगे


शब्दार्थ:
1. मोती के समान आँसू बहाने वाली आँखें
2. चिकित्सकों
3. लोक-परलोक
4. पाप करने वाला
5. शर्म का पसीना
6. सूरज और चन्द्रमा

(शीर्ष पर वापस)

आज उनसे मुद्दई कुछ मुद्दआ कहने को है

आज उनसे मुद्दई कुछ मुद्दआ कहने को है
यह नहीं मालूम क्या कहवेंगे क्या कहने को है

देखे आईने बहुत, बिन ख़ाक़ हैं नासाफ़ सब
हैं कहाँ अहले-सफ़ा, अहले-सफ़ा कहने को हैं

दम-बदम रूक-रुक के है मुँह से निकल पड़ती ज़बाँ
वस्फ़ उसका कह चुके फ़व्वारे या कहने को है

देख ले तू पहुँचे किस आलम से किस आलम में है
नालाहाए-दिल
[1] हमारे नारसा[2] कहने को है

बेसबब सूफ़ार
[3] उनके मुँह नहीं खोले है 'ज़ौक़'
आये पैके-मर्ग
[4] पैग़ामे-क़ज़ा कहने को है

शब्दार्थ:
1. दिल का रोना
2. लक्ष्य तक न पहुँचने वाले
3. तीर का मुँह
4. मृत्यु का दूत

(शीर्ष पर वापस)

लायी हयात, आये, क़ज़ा ले चली, चले

लायी हयात[1], आये, क़ज़ा[2] ले चली, चले
अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल्लगी चले

कम होंगे इस बिसात
[3] पे हम जैसे बद-क़िमार[4]
जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले

हो उम्रे-ख़िज़्र
[5] तो भी कहेंगे ब-वक़्ते-मर्ग[6]
हम क्या रहे यहाँ अभी आये अभी चले

दुनिया ने किसका राहे-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो युँ ही जब तक चली चले

नाज़ाँ
[7] न हो ख़िरद[8] पे जो होना है वो ही हो
दानिश
[9] तेरी न कुछ मेरी दानिशवरी चले

जा कि हवा-ए-शौक़
[10] में हैं इस चमन से 'ज़ौक़'
अपनी बला से बादे-सबा
[11] अब कहीं चले

शब्दार्थ:
1. ज़िन्दगी
2. मौत
3. जुए के खेल में
4. कच्चे जुआरी
5. अमरता
6. मृत्यु के समय
7. घमंडी
8. बुद्धि
9. समझदार
10. प्रेम की हवा
11. सुबह की शीतल वायु

(शीर्ष पर वापस)

तेरे कूचे को वो बीमारे-ग़म दारुश्शफ़ा समझे

तेरे कूचे को वो बीमारे-ग़म दारुश्शफ़ा समझे
अज़ल को जो तबीब और मर्ग को अपनी दवा समझे

सितम को हम करम समझे जफ़ा को हम वफ़ा समझे
और इस पर भी न समझे वो तो उस बुत से ख़ुदा समझे

समझ ही में नहीं आती है कोई बात ‘ज़ौक़’ उसकी
कोई जाने तो क्या जाने,कोई समझे तो क्या समझे

(शीर्ष पर वापस)

तेरा बीमार न सँभला जो सँभाला लेकर

तेरा बीमार न सँभला जो सँभाला लेकर
चुपके ही बैठे रहे दम को मसीहा लेकर

शर्ते-हिम्मत नहीं मुज़रिम हो गिरफ्तारे-अज़ाब
तूने क्या छोड़ा अगर छोड़ेगा बदला लेकर

मुझसा मुश्ताक़े-जमाल एक न पाओगे कहीं
गर्चे ढूँढ़ोगे चिराग़े-रुखे-ज़ेबा लेकर

तेरे क़दमों में ही रह जायेंगे, जायेंगे कहाँ
दश्त में मेरे क़दम आबलाए-पा लेकर

वाँ से याँ आये थे ऐ 'ज़ौक़' तो क्या लाये थे
याँ से तो जायेंगे हम लाख तमन्ना लेकर

(शीर्ष पर वापस)

जान के जी में सदा जीने का ही अरमाँ रहा

जान के जी में सदा जीने का ही अरमाँ रहा
दिल को भी देखा किये यह भी परेशाँ ही रहा

कब लिबासे-दुनयवी में छूपते हैं रौशन-ज़मीर
ख़ानाए-फ़ानूस में भी शोला उरियाँ ही रहा

आदमीयत और शै है, इल्म है कुछ और शै
कितना तोते को पढ़ाया पर वो हैवाँ ही रहा

मुद्दतों दिल और पैकाँ दोनों सीने में रहे
आख़िरश दिल बह गया ख़ूँ होके, पैकाँ ही रहा

दीनो-ईमाँ ढूँढ़ता है 'ज़ौक़' क्या इस वक़्त में
अब न कुछ दीं ही रहा बाक़ी न ईमाँ ही रहा

(शीर्ष पर वापस)

क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले

क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले
उनका बन्दा हूँ जो बन्दे हैं मुहब्बत वाले

गए जन्नत में अगर सोज़े महब्बत वाले
तो ये जानो रहे दोज़ख़ ही में जन्नत वाले

न सितम का कभी शिकवा न करम की ख़्वाहिश
देख तो हम भी हैं क्या सब्र-ओ-क़नाअ़त वाले

नाज़ है गुल को नज़ाक़त पै चमन में ऐ ‘ज़ौक़’
इसने देखे ही नहीं नाज़-ओ-नज़ाक़त वाले

(शीर्ष पर वापस)

उसे हमने बहुत ढूँढा न पाया

उसे हमने बहुत ढूँढा न पाया
अगर पाया तो खोज अपना न पाया

जिस इन्साँ को सगे-दुनिया न पाया
फ़रिश्ता उसका हमपाया न पाया

मुक़द्दर से ही गर सूदो-ज़ियाँ है
तो हमने याँ न कुछ खोया न पाया

अहाते से फ़लक़ के हम तो कब के
निकल जाते मगर रस्ता न पाया

जहाँ देखा किसी के साथ देखा
कहीं हमने तुझे तन्हा न पाया

किया हमने सलामे- इश्क़ तुझको
कि अपना हौसला इतना न पाया

न मारा तूने पूरा हाथ क़ातिल!
सितम में भी तुझे पूरा न पाया

लहद में भी तेरे मुज़तर ने आराम
ख़ुदा जाने कि पाया या न पाया

कहे क्या हाय ज़ख़्मे-दिल हमारा
ज़ेहन पाया लबे-गोया न पाया

(शीर्ष पर वापस)

                    

 

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