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 फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ - 2

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जां अब त तेरी है
देख के आहंगर की दुका में
तुंद हैं शोले, सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्फ़लों के दहाने
फैला हर एक ज़न्जीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बा की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले

जब तेरी समन्दर आँखों में

ये धूप किनारा, शाम ढले
मिलते हैं दोंनो वक्त जहाँ
जो रात न दिन, जो आज न कल
पल भर में अमर, पल भर में धुंआँ
इस धूप किनारे, पल दो पल
होठों की लपक, बाँहों की खनक
ये मेल हमारा झूठ न सच
क्यों रार करो, क्यों दोष धरो
किस कारन झूठी बात करो
जब तेरी समन्दर आँखों में
इस शाम का सूरज डूबेगा
सुख सोयेंगे घर-दर वाले
और राही अपनी रह लेगा
 


(मख़दूम* की याद में)
आप की याद आती रही रात भर

''आप की याद आती रही रात भर
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भ''

गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई
शम-ए-ग़म झिलमिलाती रही रात भर

कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन
कोई तस्वीर गाती रही रात भर

फिर सबा साया-ए-शाख़े-गुल के तले
कोई किस्सा सुनाती रही रात भर

जो न आया उसे कोई ज़ंजीरे-दर
हर सदा पर बुलाती रही रात भर

एक उम्मीद से दिल बहलता रहा
इक तमन्ना सताती रही रात भर


चश्मे-मयगूँ ज़रा इधर कर दे

चश्मे-मयगूँ ज़रा इधर कर दे
दस्ते-कुदरत को बे-असर कर दे
तेज़ है आज दर्द-ए-दिल साक़ी
तल्ख़ी-ए-मय को तेज़तर कर दे
जोशे-वहशत है तिश्‍नाकाम अभी
चाक-दामन को ताज़िगार कर दे
मेरी क़िस्मत से खेलने वाले
मुझको क़िस्मत से बेख़बर कर दे
लुट रही है मेरी मता-ए-नियाज़
काश वो इस तरफ़ नज़र कर दे
'फ़ैज़' तक्मीले-आरज़ू मालूम
हो सके तो यूँ ही बसर कर दे


गीत

चलो फिर से मुस्कुराएं
चलो फिर से दिल जलाएं

जो गुज़र गयी हैं रातें
उन्हें फिर जगा के लाएं
जो बिसर गयी हैं बातें
उन्हें याद में बुलाएं
चलो फिर से दिल लगाएं
चलो फिर से मुस्कुराएं

किसी शह-नशीं पे झलकी
वो धनक किसी क़बा की
किसी रग में कसमसाई
वो कसक किसी अदा की
कोई हर्फे-बे-मुरव्वत
किसी कुंजे-लब से फूटा
वो छनक के शीशा-ए-दिल
तहे-बाम फिर से टूटा

ये मिलन की, नामिलन की
ये लगन की और जलन की
जो सही हैं वारदातें
जो गुज़र गयी हैं रातें
जो बिसर गयी हैं बातें
कोई इनकी धुन बनाएं
कोई इनका गीत गाएं
चलो फिर से मुस्कुराएं
चलो फिर से दिल लगाएं
 


चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास है माज़ूर हैं हम
जिस्म पर क़ैद है जज़्बात पे ज़ंजीरें है
फ़िक्र महबूस है गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिये जाते हैं
ज़िन्दगी क्या किसी मुफ़्लिस की क़बा है जिसमें
हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं
लेकिन अब ज़ुल्म की मीयाद के दिन थोड़े हैं
इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं
अर्सा-ए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में
हमको रहना है पर यूँ ही तो नहीं रहना है
अजनबी हाथों के बेनाम गराँबार सितम
आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है
ये तेरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द
अपनी दो रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल की बेसूद तड़प जिस्म की मायूस पुकार
चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़


ये शहर उदास इतना ज़ियादा तो नहीं था

गो सबको बहम साग़रो-बादा तो नहीं था
ये शहर उदास इतना ज़ियादा तो नहीं था
गलियों में फिरा करते थे दो चार दिवाने
हर शख्स का सद-चाक-लबादा तो नहीं था
वाइज़ से रह-ओ-रस्म रही रिंद से सोहबत
फ़र्क़ इन में कोई इतना ज़ियादा तो नहीं था
थक कर यूँ ही पल भर के लिए आँख लगी थी
सो कर ही न उट्ठें ये इरादा तो नहीं था


गुलों में रंग भरे, बादे-नौबहार चले

गुलों में रंग भरे, बादे-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
क़फ़स उदास है यारो, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहरे-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले
कभी तो सुब्ह तेरे कुंजे-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सरे-काकुल से मुश्के-बार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे ग़मगुसार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शबे-हिज्राँ
हमारे अश्क तेरी आक़बत सँवार चले
हुज़ूरे-ए-यार हुई दफ़्तरे-जुनूँ की तलब
गिरह में लेके गरेबाँ का तार तार चले
मक़ाम 'फैज़' कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले


गर्मी-ए-शौक़-ए-नज़्ज़ारा का असर तो देखो

गर्मी-ए-शौक़-ए-नज़्ज़ारा का असर तो देखो
गुल खिले जाते हैं वो साया-ए-दर तो देखो
ऐसे नादाँ तो न थे जां से गुज़रनेवाले
नासिहो, रहबर-ओ-राहगुज़र तो देखो
वो तो वो हैं तुम्हें हो जायेगी उल्फ़त मुझसे
एक नज़र तुम मेरा महबूबे-नज़र तो देखो
वो जो अब चाक गरेबाँ भी नहीं करते हैं
देखनेवालो कभी उनका जिगर तो देखो
दामने-दर्द को गुलज़ार बना रखा है
आओ एक दिन दिल-ए-पुरख़ूँ का हुनर तो देखो
सुबह की तरह झमकता है शबे-ग़म का उफ़क़
"फ़ैज़" ताबिंदगी-ए-दीदा-ए-तर तो देखो


गरानी-ए-शबे-हिज़्रां दुचंद क्या करते

गरानी-ए-शबे-हिज़्रां दुचंद क्या करते
इलाजे-दर्द तेरे दर्दमन्द क्या करते

वहीं लगी है जो नाज़ुक मुक़ाम थे दिल के
ये फ़र्क़ दस्ते-अदू के गज़ंद क्या करते

जगह-जगह पे थे नासेह तो कू-ब-कू दिलबर
इन्हें पसंद, उन्हें नापसंद क्या करते

हमीं ने रोक लिया पंजा-ए-जुनूं को वरना
हमें असीर ये कोताहकमन्द क्या करते

जिन्हें ख़बर थी कि शर्ते-नवागरी क्या है
वो ख़ुशनवा गिला-ए-क़ैदो-बंद क्या करते

गुलू-ए-इश्क़ को दारो-रसन पहुंच न सके
तो लौट आये तेरे सरबलंद, क्या करते


मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घड़ी है

इस वक़्त तो यूँ लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब न सूरज न अँधेरा न सवेरा
आँखों के दरीचे में किसी हुस्न की झलकन
और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा
मुमकिन है कोई वहम हो मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का एक आख़िरी फेरा
शाख़ों में ख़यालों के घने पेड़ की शायद
अब आके करेगा न कोई ख़्वाब बसेरा
इक बैर न इक महर न इक रब्त न रिश्ता
तेरा कोई अपना न पराया कोई मेरा
माना कि ये सुन-सान घड़ी सख़्त बड़ी है
लेकिन मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घड़ी  है
हिम्मत करो जीने को अभी उम्र पड़ी है


ख़ुदा वो वक़्त न लाये कि सोवार हो तू

ख़ुदा वो वक़्त न लाये कि सोवार हो तू
सुकूँ की नींद तुझे भी हराम हो जाये
तेरी मसर्रते-पैहम तमाम हो जाये
तेरी हयात तुझे तल्ख़ जाम हो जाये
ग़मों से आईना-ए-दिल गुदाज़ हो तेरा
हुजूमे-यास से बेताब होके रह जाये
वफ़ूरे-दर्द से सीमाब हो के रह जाये
तेरा शबाब फ़क़त ख़्वाब हो के रह जाये
ग़ुरूरे-हुस्न सरापा नियाज़ हो तेरा
तवील रातों में तू भी क़रार को तरसे
तेरी निगाह् किसी ग़मगुसार को तरसे
ख़िज़ाँरसीदा तमन्ना बहार को तरसे
कोई जबीं न तेरे संग-ए-आस्ताँ पे झुके
कि जिंसे-इज़्ज़ो-अक़ीदत से तुझको शाद करे
फ़रेबे-वादा-ए-फ़र्दा पे एतमाद करे
ख़ुदा वो वक़्त न लाये कि तुझको याद आये
वो दिल जो तेरे लिये बे-क़रार अब भी है
वो आँख जिसको तेरा इन्तज़ार अब भी है

मेरी तेरी निगाह में जो लाख इंतज़ार हैं
मेरी तेरी निगाह में जो लाख इंतज़ार हैं
जो मेरे तेरे तन-बदन में लाख दिल फ़िग़ार हैं
जो मेरी तेरी उंगलियों की बेहिसी से सब क़लम नज़ार हैं
जो मेरे तेरे शहर की हर इक गली में
मेरे तेरे नक़्श-ए-पाअ के बे-निशाँ मज़ार हैं
जो मेरी तेरी रात के सितारे ज़ख़्म ज़ख़्म हैं
जो मेरी तेरी सुबह के गुलाब चाक चाक हैं
ये ज़ख़्म सारे बे-दवा ये चाक सारे बे-रफ़ू
किसी पे राख चाँद की किसी पे ओस का लहू
ये हैं भी या नहीं बता
ये है कि महज़ जाल है
मेरे तुम्हारे अंकबूते-वहम का बुना हुआ
जो है तो इस का क्या करें
नहीं है तो भी क्या करें
बता, बता, बता, बता


कोई आशिक़ किसी महबूब से

याद की राहगुज़र जिसपे इसी सूरत से
मुद्दतें बीत गयीं हैं तुम्हें चलते-चलते
खत्म हो जाये जो दो-चार कदम और चलो
मोड़ पड़ता है जहाँ दश्ते-फ़रामोशी का
जिससे आगे न कोई मैं हूँ, न कोई तुम हो
साँस थामें हैं निग़ाहें, कि न जाने किस दम
तुम पलट आओ, गुज़र जाओ, या मुड़ का देखो
गरचे वाकिफ़ हैं निगाहें, के ये सब धोखा है
गर कहीं तुमसे हम-आग़ोश हुई फिर से नज़र
फूट निकलेगी वहाँ और कोई राहगुज़र
फिर इसी तरह जहां होगा मुकाबिल पैहम
साया-ए-ज़ुल्फ़ का और ज़ुंबिश-ए-बाजू का सफ़र
दूसरी बात भी झूठी है कि दिल जानता है
याँ कोई मोड़, कोई दश्त, कोई घात नहीं
जिसके परदे में मेरा माहे-रवां डूब सके
तुमसे चलती रहे ये राह, यूँ ही अच्छा है
तुमने मुड़ कर भी न देखा तो कोई बात नहीं!


तुम आये हो न शबे-इन्तज़ार गुज़री है

तुम आये हो न शबे-इन्तज़ार गुज़री है
तलाश में है सहर बार - बार गुज़री है
जुनूँ में जितनी भी गुज़री बकार गुज़री है
अगर्चे दिल पे ख़राबी हज़ार गुज़री है
हुई है हज़रते-नासेह से गुफ़्तगू जिस शब
वो शब ज़रूर सरे-कू-ए-यार गुज़री है
वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है
न गुल खिले हैं, न उनसे मिले, न मै पी है
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है
चमन पे ग़ारते-गुलचीं से जाने क्या गुज़री
क़फ़स से आज सबा बेक़रार गुज़री है


तुम जो पल को ठहर जाओ तो ये लम्हें भी

तुम जो पल को ठहर जाओ तो ये लम्हें भी
आनेवाले लम्हों की अमानत बन जायेँ
तुम जो ठहर जाओ तो ये रात, महताब
ये सब्ज़ा, ये गुलाब और हम दोनों के ख़्वाब
सब के सब ऐसे मुबहम हों कि हक़ीक़त हो जायेँ
तुम ठहर जाओ कि उनवान की तफ़सीर हो तुम
तुम से तल्ख़ी-ए-औक़ात का मौसम बदले
रात तो क्या बदलेगी, हालात तो क्या बदलेंगे
तुम जो ठहर जाओ तो मेरी ज़ात का मौसम बदले
मेहरबां हो के न ठहरो तो फिर यूँ ठहरो
जैसे पल भर को कोई ख़्वाबे-तमन्ना ठहरे
जैसे दरवेश-ए-मदा-नोश के प्याले में कभी
एक दो पल के लिये तल्ख़ी-ए-दुनिया ठहरे
ठहर जाओ के मदारत मैखाने से
चलते चलते कोई एक-आध सुबू हो जाये
इससे पहले के कोई लम्हा आइन्दा क तीर
इस तरह आये के पेस्त-ए-गुलू हो जाये

तुम मेरे पास रहो

तुम मेरे पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
जिस घड़ी रात चले
आसमानों का लहू पी के सियह रात चले
मर्हमे-मुश्क लिये नश्तरे-अल्मास लिये
बैन करती हुई, हँसती हुई, गाती निकले
दर्द की कासनी पाज़ेब बजाती निकले
जिस घड़ी सीनों में डूबते हुए दिल
आस्तीनों में निहाँ हाथों की रह तकने लगें
आस लिये
और बच्चों के बिलखने की तरह क़ुलक़ुले-मय
बहर-ए-नासूदगी मचले तो मनाये न मने
जब कोई बात बनाये न बने
जब न कोई बात चले
जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी मातमी, सुनसान, सियह रात चले
पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो





 

 


चाँद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का

चाँद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का
रंग बदले किसी सूरत शबे-तन्हाई का

दौलते-लब से फिर ऐ ख़ुसरवे-शीरींदहनां
आज अरज़ा हो कोई हर्फ़ शनासाई का

दीदा-ओ-दिल को संभालो कि सरे-शामे-फ़िराक़
साज़-ओ-सामान बहम पहुँचा है रुस्वाई का


दश्ते-तन्हाई में ऐ जाने-जहाँ लरज़ा हैं

दश्ते-तन्हाई में ऐ जाने-जहाँ लरज़ा हैं
तेरी आवाज़ के साये तेरे होंठों के सराब
दश्ते-तन्हाई में दूरी के ख़सो-ख़ाक तले
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन और गुलाब
उठ रही है कहीं क़ुरबत से तेरी साँस की आँच
अपनी ख़ुश्बू में सुलगती हुई मद्धम मद्धम
दूर उफ़क़ पार चमकती हुई क़तरा क़तरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम
स क़दर प्यार से, ऐ जाने जहाँ रक्खा है
दिल के रुख़सार पे इस वक़्त तेरी याद ने हाथ
यूँ गुमाँ होता है गर्चे है अभी सुबहे-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात


दिल में अब यूँ तेरे भूले हुए ग़म आते हैं

दिल में अब यूँ तेरे भूले हुए ग़म आते हैं
जैसे बिछड़े हुए काबे में सनम आते हैं
क कर के हुए जाते हैं तारे रौशन
मेरी मन्ज़िल की तरफ़ तेरे क़दम आते हैं
क्से-मय तेज़ करो, साज़ की लय तेज़ करो
सू-ए-मैख़ाना सफ़ीराने-हरम आते हैं
कुछ हमीं को नहीं एहसान उठाने का दिमाग
वो तो जब आते हैं माइल-ब-करम आते हैं
और कुछ देर न गुज़रे शबे-फ़ुरक़त से कहो
दिल भी कम दुखता है वो याद भी कम आते हैं


मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर

मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर
हुआ फिर से हुक्म सादिर
के वतन बदर हों हम तुम
दें गली गली सदायेँ
करें रुख़ नगर नगर का
के सुराग़ कोई पायेँ
किसी यार-ए-नामाबर का
हर एक अजनबी से पूछें
जो पता था अपने घर का
सर-ए-कू-ए-नाशनायाँ
हमें दिन से रात करना
कभी इस से बात करना
कभी उस से बात करना
तुम्हें क्या कहूँ के क्या है
शब-ए-ग़म बुरी बला है
हमें ये भी था ग़नीमत
जो कोई शुमार होता
हमें क्या बुरा था मरना
अगर एक बार होता


आइये हाथ उठायें हम भी

आइए हाथ उठायें हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़े-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत, कोई ख़ुदा याद नहीं
आइए अर्ज़ गुज़ारें कि निगारे-हस्ती
ज़हरे-इमरोज़ में शीरीनी-ए-फ़र्दाँ भर दे
वो जिंन्हें ताबे गराँबारी-ए-अय्याम नहीं
उनकी पलकों पे शब-ओ-रोज़ को हल्का कर दे
जिनकी आँखों को रुख़े सुब्हे का यारा भी नहीं
उनकी रातों में कोई शम्अ् मुनव्वर कर दे
जिनके क़दमों को किसी रह का सहारा भी नहीं
उनकी नज़रों पे कोई राह उजागर कर दे
जिनका दीं पैरवी-ए-कज़्बो-रिया है उनको
हिम्मते-कुफ़्र मिले, जुरअते-तहक़ीक़ मिले
जिनके सर मुंतज़िरे-तेग़े-जफ़ा हैं उनको
दस्ते-क़ातिल को झटक देने की तौफ़ीक़ मिले
इश्क़ का सर्रे-निहाँ जान-तपाँ है जिससे
आज इक़रार करें और तपिश मिट जाये
हर्फ़े-हक़ दिल में ख़टकता है जो काँटे की तरह
आज इज़हार करें और ख़लिश मिट जाये


दोनों जहान तेरी मोहब्बत मे हार के

दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के

वीरां है मयकदा ख़ुमो-सागर उदास है
तुम क्या गये कि रूठ गये दिन बहार के

इक फुर्सते-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखें हैं हमने हौसले परवरदिगार के

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुम से भी दिलफरेब हैं ग़म रोज़गार के

भूले से मुस्कुरा तो दिये थे वो आज फ़ैज़
मत पूछ वलवले दिले-नाकर्दाकार के


नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही
न तन में ख़ून फ़राहम न अश्क आँखों में
नमाज़े-शौक़ तो वाजिब है बे-वज़ू ही सही
किसी तरह तो जमे बज़्म मैकदे वालो
नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हा-ओ-हू ही सही
गर इन्तज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा की गुफ़्तगू ही सही
दयारे-ग़ैर में महरम अगर नहीं कोई
तो 'फ़ैज़' ज़िक्रे-वतन अपने रू-ब-रू ही सही

न गँवाओ नावके-नीमकश, दिले-रेज़ा रेज़ा गँवा दिया

न गँवाओ नावके-नीमकश, दिल-ए-रेज़ा रेज़ा गँवा दिया
जो बचे हैं संग समेट लो, तने-दाग़ दाग़ लुटा दिया
मेरे चारागर को नवेद हो, सफ़े-दुश्मनाँ को ख़बर करो
जो वो क़र्ज़ रखते थे जान पर, वो हिसाब आज चुका दिया
करो कज जबीं पे सरे-कफ़न, मेरे क़ातिलों को गुमाँ न हो
कि ग़ुरूरे-इश्क़ का बाँकपन, पसे-मर्ग हमने भुला दिया
उधर एक हर्फ़ कि कुश्तनी, यहाँ लाख उज़्र था गुफ़्तनी
जो कहा तो सुन के उड़ा दिया, जो लिखा तो पढ़ के मिटा दिया
जो रुके तो कोहे-गराँ थे हम, जो चले तो जाँ से गुज़र गये
रहे-यार हमने क़दम क़दम, तुझे यादगार बना दिया


फ़िक्रे-दिलदारी-ए-गुलज़ार करूं या न करूं

फ़िक्रे-दिलदारी-ए-गुलज़ार करूं या न करूं
ज़िक्रे-मुर्गाने-गिरफ़्तार करूं या न करूं

क़िस्सा-ए-साज़िशे-अग़यार कहूं या न कहूं
शिकवा-ए-यारे-तरहदार करूं या न करूं

जाने क्या वज़ा है अब रस्मे-वफ़ा की ऐ दिल
वज़ा-ए-दैरीना पे इसरार करूं या न करूं

जाने किस रंग में तफ़सीर करें अहले-हवस
मदहे-ज़ुल्फो-लबो-रुख़सार करूं या न करूं

यूं बहार आई है इमसाल कि गुलशन में सबा
पूछती है गुज़र इस बार करूं या न करूं

गोया इस सोच में है दिल में लहू भर के गुलाब
दामनो-जेब को गुलनार करूं या न करूं

है फक़त मुर्ग़े-ग़ज़लख़्वां कि जिसे फ़िक्र नहीं
मोतदिल गर्मी-ए-गुफ़्तार करूं या न करूं


नज़्रे ग़ालिब

किसी गुमां पे तवक़्क़ो ज़ियादा रखते हैं
फिर आज कू-ए-बुतां का इरादा रखते हैं

बहार आयेगी जब आयेगी, यह शर्त नहीं
कि
तश्‍नाकम रहें गर्चा बादा रखते हैं

तेरी नज़र का गिला क्या जो है गिला दिल को
तो हमसे है कि तमन्ना ज़ियादा रखते हैं

नहीं शराब से रंगी तो ग़र्क़े-ख़ूं हैं के हम
ख़याले-वज्एी-क़मीसो-लबादा रखते हैं

ग़मे-जहां हो, ग़मे-यार हो कि तीरे-सितम
जो आये, आये कि हम दिल कुशादा रखते हैं

जवाबे-वाइज़े-चाबुक-ज़बां में फ़ैज़ हमें
यही बहुत है जो दो हर्फ़े-सादा रखते हैं


नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं
नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं
क़रीब उनके आने के दिन आ रहे हैं
जो दिल से कहा है जो दिल से सुना है
सब उनको सुनाने के दिन आ रहे हैं
अभी से दिल-ओ-जाँ सरे-राह रख दो
के लुटने लुटाने के दिन आ रहे हैं
टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती
निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं
सबा फिर हमें पूछती फिर रही है
चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं
चलो "फ़ैज़" फिर से कहीं दिल लगायेँ
सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं


तनहाई

फिर कोई आया दिले-ज़ार, नहीं कोई नहीं
राहरौ होगा, कहीं और चला जाएगा
ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गुबार
लड़खड़ाने लगे एवानों में ख्वाबीदा चिराग़

सो गई रास्ता तक तक के हर इक राहगुज़र
अजनबी ख़ाक ने धुंधला दिए कदमों के सुराग़
गुल करो शम'एं, बढ़ाओ मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़
अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुकफ्फल कर लो
अब यहाँ कोई नहीं , कोई नहीं आयेगा...


फिर लौटा है ख़ुरशीदे-जहांताब सफ़र से

फिर लौटा है ख़ुरशीदे-जहांताब सफ़र से
फिर नूरे-सहर दस्तो-गरेबां है सहर से

फिर आग भड़कने लगी हर साजे-तरब में
फिर शोले लपकने लगे हर दीदा-ए-तर से

फिर निकला है दीवाना कोई फूंक के घर को
कुछ कहती है हर राह हर इक राहगुज़र से

वो रंग है इमसाल गुलिस्तां की फ़ज़ा का
ओझल हुई दीवारे-क़फ़स हद्दे-नज़र से

साग़र तो खनकते हैं शराब आये न आये
बादल तो गरजते हैं घटा बरसे न बरसे

पापोश की क्या फ़िक्र है, दस्तार संभालो
पायाब है जो मौज गुज़र जायेगी सर से


फिर हरीफ़े-बहार हो बैठे

फिर हरीफ़े-बहार हो बैठे
जाने किस-किस को आज रो बैठे

थी मगर इतनी रायगां भी न थी
आज कुछ ज़िन्दगी से खो बैठे

तेरे दर तक पहुंच के लौट आये
इश्क़ की आबरू डुबो बैठे

सारी दुनिया से दूर हो आये
जो ज़रा तेरे पास हो बैठे

न गयी तेरी बेरुखी न गयी
हम तेरी आरज़ू भी खो बैठे

’फ़ैज़’ होता रहे जो होना है
शेर लिखते रहा करो बैठे


बहुत मिला न मिला ज़िन्दगी से ग़म क्या है

बहुत मिला न मिला ज़िन्दगी से ग़म क्या है
मता-ए-दर्द बहम है तो बेश-ओ-कम क्या है
हम एक उम्र से वाक़िफ़ हैं अब न समझाओ
के लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबाँ सितम क्या है
करे न जग में अलाव तो शेर किस मक़सद
करे न शहर में जल-थल तो चश्म-ए-नम क्या है
अजल के हाथ कोई आ रहा है परवाना
न जाने आज की फ़ेहरिस्त में रक़म क्या है
सजाओ बज़्म ग़ज़ल गाओ जाम ताज़ा करो
बहुत सही ग़म-ए-गेती शराब कम क्या है
लिहाज़ में कोई कुछ दूर साथ चलता है
वरना दहर में अब ख़िज़्र का भरम क्या है


बात बस से निकल चली है

बात बस से निकल चली है
दिल की हालत संभल चली है

अब जुनूं हद से बढ़ चला है
अब तबीयत बहल चली है

अश्क़ ख़ूनाब हो चले हैं
ग़म की रंगत बदल चली है

या यूं ही बुझ रही है शम्एं
या शबे-हिज़्र टल चली है

लाख पैग़ाम हो गये हैं
जब सबा एक पल चली है

जाओ अब सो रहो सितारों
दर्द की रात ढल चली है


बेदम हुए बीमार दवा क्यों नही देते

बेदम हुए बीमार दवा क्यों नही देते
तुम अच्छे मसीहा हो शफा क्यों नहीं देते

दर्दे-शबे-हिज़्रां की जज़ा क्यों नहीं देते
खूने-दिले-वहशी का सिला क्यों नहीं देते

मिट जायेगी मखलूक़ तो इन्साफ करोगे
मुन्सिफ हो तो अब हश्र उठा क्यों नहीं देते

हां नुक्तावरों लाओ लबो-दिल की गवाही
हां नगमागरो साज़े-सदा क्यों नही देते

पैमाने-जुनूं हाथों को शरमाएगा कब तक
दिलवालो गरेबां का पता क्यों नहीं देते

बरबादिए-दिल जब्र नहीं फ़ैज़ किसी का
वो दुश्मने-जां है तो भुला क्यों नहीं देते


बहार आई

बहार आई तो जैसे एक बार
लौट आये हैं फिर अदम से
वो ख़्वाब सारे, शबाब सारे
जो तेरे होंठों पे मर मिटे थे
जो मिट के हर बार फिर जिये थे
निखर गये हैं गुलाब सारे
जो तेरी यादों से मुश्कबू हैं
जो तेरे उश्शाक़ का लहू हैं
उबल पड़े हैं अज़ाब सारे
मलाले-अहवाले-दोस्ताँ भी
ख़ुमारे-आग़ोशे-महवशाँ भी
ग़ुबारे-ख़ातिर के बाब सारे
तेरे हमारे
सवाल सारे, जवाब सारे
बहार आई तो खुल गये हैं
नये सिरे से हिसाब सारे
 

फ़ैज़ - भाग 1
 

 

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