मिर्ज़ा ग़ालिब
कभी
नेकी
भी
उसके
जी
में
आ
जाये
है
मुझसे
कभी
नेकी
भी
उसके
जी
में
आ
जाये
है
मुझसे
जफ़ायें
करके
अपनी
याद
शर्मा
जाये
है
मुझसे
ख़ुदाया!
ज़ज़्बा-ए-दिल
की
मगर
तासीर
उलटी
है
कि
जितना
खेंचता
हूँ
और
खिंचता
जाये
है
मुझसे
वो
बद
ख़ूँ
और
मेरी
दास्तन-ए-इश्क़
तूलानी
इबारत
मुख़तसर,
क़ासिद
भी
घबरा
जाये
है
मुझसे
उधर
वो
बदगुमानी
है,
इधर
ये
नातवनी
है
ना
पूछा
जाये
है
उससे,
न
बोला
जाये
है
मुझसे
सँभलने
दे
मुझे
ए
नाउमीदी,
क्या
क़यामत
है
कि
दामाने
ख़्याले
यार
छूता
जाये
है
मुझसे
तकल्लुफ़
बर
तरफ़
नज़्ज़ारगी
में
भी
सही,
लेकिन
वो
देखा
जाये,
कब
ये
ज़ुल्म
देखा
जाये
है
मुझसे
हुए
हैं
पाँव
ही
पहले
नबर्द-ए-इश्क़
में
ज़ख़्मी
न
भागा
जाये
है
मुझसे,
न
ठहरा
जाये
है
मुझसे
क़यामत
है
कि
होवे
मुद्दई
का
हमसफ़र
'ग़ालिब'
वो
काफ़िर,
जो
ख़ुदा
को
भी
न
सौंपा
जाये
है
मुझसे
आईना
क्यूँ
न
दूँ
के
तमाशा
कहें
जिसे
आईना
क्यूँ
न
दूँ
के
तमाशा
कहें
जिसे
ऐसा
कहाँ
से
लाऊँ
के
तुझसा
कहें
जिसे
हसरत
ने
ला
रखा
तेरी
बज़्म-ए-ख़्याल
में
गुलदस्ता-ए-निगाह
सुवेदा
कहें
जिसे
फूँका
है
किसने
गोशे
मुहब्बत
में
ऐ
ख़ुदा
अफ़सून-ए-इन्तज़ार
तमन्ना
कहें
जिसे
सर
पर
हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी
से
डलिये
वो
एक
मुश्त-ए-ख़ाक
के
सहरा
कहें
जिसे
है
चश्म-ए-तर
में
हसरत-ए-दीदार
से
निहाँ
शौक़-ए-इनाँ
गुसेख़ता
दरिया
कहें
जिसे
दरकार
है
शिगुफ़्तन-ए-गुल
हाये
ऐश
को
सुबह-ए-बहार
पंबा-ए-मीना
कहें
जिसे
"ग़ालिब"
बुरा
न
मान
जो
वाइज़
बुरा
कहे
ऐसा
भी
कोई
है
के
सब
अच्छा
कहें
जिसे
दिया
है
दिल
अगर
उस
को,
बशर
है
क्या
कहिये
दिया
है
दिल
अगर
उस
को,
बशर
है
क्या
कहिये
हुआ
रक़ीब
तो
हो,
नामाबर
है,
क्या
कहिये
ये
ज़िद्,
कि
आज
न
आवे
और
आये
बिन
न
रहे
क़ज़ा
से
शिकवा
हमें
किस
क़दर
है,
क्या
कहिये
रहे
है
यूँ
गह-ओ-बेगह
के
कू-ए-दोस्त
को
अब
अगर
न
कहिये
कि
दुश्मन
का
घर
है,
क्या
कहिये
ज़िह-ए-करिश्म
के
यूँ
दे
रखा
है
हमको
फ़रेब
कि
बिन
कहे
ही
उंहें
सब
ख़बर
है,
क्या
कहिये
समझ
के
करते
हैं
बाज़ार
में
वो
पुर्सिश-ए-हाल
कि
ये
कहे
कि
सर-ए-रहगुज़र
है,
क्या
कहिये
तुम्हें
नहीं
है
सर-ए-रिश्ता-ए-वफ़ा
का
ख़्याल
हमारे
हाथ
में
कुछ
है,
मगर
है
क्या
कहिये
उंहें
सवाल
पे
ज़ओम-ए-जुनूँ
है,
क्यूँ
लड़िये
हमें
जवाब
से
क़तअ-ए-नज़र
है,
क्या
कहिये
हसद
सज़ा-ए-कमाल-ए-सुख़न
है,
क्या
कीजे
सितम,
बहा-ए-मतअ-ए-हुनर
है,
क्या
कहिये
कहा
है
किसने
कि
"ग़ालिब"
बुरा
नहीं
लेकिन
सिवाय
इसके
कि
आशुफ़्तासर
है
क्या
कहिये
दिल
से
तेरी
निगाह
जिगर
तक
उतर
गई
दिल
से
तेरी
निगाह
जिगर
तक
उतर
गई
दोनों
को
इक
अदा
में
रज़ामन्द
कर
गई
शक़
हो
गया
है
सीना
ख़ुशा
लज़्ज़त-ए-फ़राग़
तक्लेएफ़-ए-पर्दादारी-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर
गई
वो
बादा-ए-शबाना
की
सरमस्तियाँ
कहाँ
उठिये
बस
अब
के
लज़्ज़त-ए-ख़्वाब-ए-सहर
गई
उड़ती
फिरे
है
ख़ाक
मेरी
कू-ए-यार
में
बारे
अब
ऐ
हवा,
हवस-ए-बाल-ओ-पर
गई
देखो
तो
दिल
फ़रेबि-ए-अंदाज़-ए-नक़्श-ए-पा
मौज-ए-ख़िराम-ए-यार
भी
क्या
गुल
कतर
गई
हर
बुलहवस
ने
हुस्न
परस्ती
शिआर
की
अब
आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए-
नज़र
गई
नज़्ज़ारे
ने
भी
काम
किया
वाँ
नक़ाब
का
मस्ती
से
हर
निगह
तेरे
रुख़
पर
बिखर
गई
फ़र्दा-ओ-दीं
का
तफ़र्रूक़ा
यक
बार
मिट
गया
कल
तुम
गए
के
हम
पे
क़यामत
गुज़र
गई
मारा
ज़माने
ने
'असदुल्लह
ख़ाँ"
तुम्हें
वो
वलवले
कहाँ,
वो
जवानी
किधर
गई
बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल
है दुनिया मेरे आगे
बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल
है
दुनिया
मेरे
आगे
होता
है
शब-ओ-रोज़
तमाशा
मेरे
आगे
इक
खेल
है
औरंग-ए-सुलेमाँ
मेरे
नज़दीक
इक
बात
है
एजाज़-ए-मसीहा
मेरे
आगे
जुज़
नाम
नहीं
सूरत-ए-आलम
मुझे
मंज़ूर
जुज़
वहम
नहीं
हस्ती-ए-अशिया
मेरे
आगे
होता
है
निहाँ
गर्द
में
सेहरा
मेरे
होते
घिसता
है
जबीं
ख़ाक
पे
दरिया
मेरे
आगे
मत
पूछ
के
क्या
हाल
है
मेरा
तेरे
पीछे
तू
देख
के
क्या
रन्ग
है
तेरा
मेरे
आगे
सच
कहते
हो
ख़ुदबीन-ओ-ख़ुदआरा
हूँ
न
क्योँ
हूँ
बैठा
है
बुत-ए-आईना
सीमा
मेरे
आगे
फिर
देखिये
अन्दाज़-ए-गुलअफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
रख
दे
कोई
पैमाना-ए-सहबा
मेरे
आगे
नफ़्रत
क
गुमाँ
गुज़रे
है
मैं
रश्क
से
गुज़रा
क्योँ
कर
कहूँ
लो
नाम
ना
उस
का
मेरे
आगे
इमाँ
मुझे
रोके
है
जो
खींचे
है
मुझे
कुफ़्र
काबा
मेरे
पीछे
है
कलीसा
मेरे
आगे
आशिक़
हूँ
पे
माशूक़फ़रेबी
है
मेर
काम
मजनूँ
को
बुरा
कहती
है
लैला
मेरे
आगे
ख़ुश
होते
हैं
पर
वस्ल
में
यूँ
मर
नहीं
जाते
आई
शब-ए-हिजराँ
की
तमन्ना
मेरे
आगे
है
मौजज़न
इक
क़ुल्ज़ुम-ए-ख़ूँ
काश!
यही
हो
आता
है
अभी
देखिये
क्या-क्या
मेरे
आगे
गो
हाथ
को
जुम्बिश
नहीं
आँखों
में
तो
दम
है
रहने
दो
अभी
साग़र-ओ-मीना
मेरे
आगे
हमपेशा-ओ-हममशरब-ओ-हमराज़
है
मेरा
'गा़लिब'
को
बुरा
क्योँ
कहो
अच्छा
मेरे
आगे
आह
को
चाहिये
इक
उम्र
असर
होने
तक
आह
को
चाहिये
इक
उम्र
असर
होने
तक
कौन
जीता
है
तेरी
ज़ुल्फ़
के
सर
होने
तक
दामे-हर-मौज
में
हैं
हल्क़-ए-सदकामे-निहंग
देखें
क्या
गुज़रे
है
क़तरे
पे
गुहर
होने
तक
आशिक़ी
सब्र-तलब
और
तमन्ना
बेताब
दिल
का
क्या
रंग
करूँ
ख़ून-ए-जिगर
होने
तक
हम
ने
माना
के
तग़ाफ़ुल
न
करोगे
लेकिन
ख़ाक
हो
जायेंगे
हम
तुम
को
ख़बर
होने
तक
पर्तौ-ए-खुर
से
है
शबनम
को
फ़ना
की
तालीम
मैं
भी
हूँ
एक
इनायत
की
नज़र
होने
तक
यक
नज़र
बेश
नहीं
फ़ुर्सत-ए-हस्ती
ग़ाफ़िल
गर्मी-ए-बज़्म
है
इक
रक़्स-ए-शरर
होने
तक
ग़मे-हस्ती
का
'असद'
किस
से
हो
जुज़
मर्ग
इलाज
शम्म'अ
हर
रंग
में
जलती
है
सहर
होने
तक
|
बे-ऐतदालियों
से
सुबुक
सब
में
हम
हुए
बे-ऐतदालियों
से
सुबुक
सब
में
हम
हुए
जितने
ज़ियादा
हो
गये
उतने
ही
कम
हुए
पिन्हाँ
था
दाम
सख़्त
क़रीब
आशियाँ
के
उड़ने
न
पाये
थे
कि
गिरफ़्तार
हम
हुए
हस्ती
हमारी
अपनी
फ़ना
पर
दलील
है
याँ
तक
मिटे
के
आप
हम
अपनी
क़सम
हुए
सख़्तीकशान-ए-इश्क़
की
पूछे
है
क्या
ख़बर
वो
लोग
रफ़्ता-रफ़्ता
सरापा
अलम
हुए
तेरी
वफ़ा
से
क्या
हो
तलाफ़ी
कि
दहर
में
तेरे
सिवा
भी
हम
पे
बहुत
से
सितम
हुए
लिखते
रहे
जुनूँ
की
हिकायत-ए-ख़ूँचकाँ
हर्चंद
इस
में
हाथ
हमारे
क़लम
हुए
अल्लाह्
रे!
तेरी
तुन्दी-ए-ख़ू
जिस
के
बीम
से
अज़्ज़ा-ए-नाला
दिल
में
मेरे
रिज़्क़े-हम
हुए
अहल-ए-हवस
की
फ़तह
है
तर्क-ए-नबर्द-ए-इश्क़
जो
पाँव
उठ
गये
वो
ही
उन
के
अलम
हुए
नाल-ए-अदम
में
चंद
हमारे
सुपुर्द
थे
जो
वाँ
न
खिंच
सके
सो
वो
याँ
आके
दम
हुए
चोड़ी
'असद्'
न
हम
ने
गदाई
में
दिल्लगी
साइल
हुए
तो
आशिक़-ए-अहल-ए-करम
हुए
धोता
हूँ
जब
मैं
पीने
को
उस
सीमतन
के
पाँव
धोता
हूँ
जब
मैं
पीने
को
उस
सीमतन
के
पाँव
रखता
है
ज़िद
से
खेंच
कर
बाहर
लगन
के
पाँव
दी
सादगी
से
जान
पड़ूँ
कोहकन
के
पाँव
हैहात
क्यों
न
टूट
गए
पीरज़न
के
पाँव
भागे
थे
हम
बहुत
सो
उसी
की
सज़ा
है
ये
होकर
असीर
दाबते
हैं
राहज़न
के
पाँव
मरहम
की
जुस्तजू
में
फिरा
हूँ
जो
दूर-दूर
तन
से
सिवा
फ़िग़ार
हैं
इस
ख़स्ता
तन
के
पाँव
अल्लाह
रे
ज़ौक़-ए-दश्तनवर्दी
के
बादे-मर्ग
हिलते
हैं
ख़ुद-ब-ख़ुद
मेरे
अंदर
कफ़न
के
पाँव
है
जोश-ए-गुल
बहार
में
याँ
तक
कि
हर
तरफ़
उड़ते
हुए
उलझते
हैं
मुर्ग़-ए-चमन
के
पाँव
शब
को
किसी
के
ख़्वाब
में
आया
न
हो
कहीं
दुखते
हैं
आज
उस
बुते-नाज़ुकबदन
के
पाँव
'ग़ालिब'
मेरे
कलाम
में
क्यों
कर
मज़ा
न
हो
पीता
हूँ
धो
के
खुसरौ-ए-शीरींसुख़न
के
पाँव
बहुत
सही
ग़म-ए-गेती
शराब
कम
क्या
है
बहुत
सही
ग़म-ए-गेती
शराब
कम
क्या
है
ग़ुलाम-ए-साक़ी-ए-कौसर
हूँ
मुझको
ग़म
क्या
है
तुम्हारी
तर्ज़-ओ-रविश
जानते
हैं
हम
क्या
है
रक़ीब
पर
है
अगर
लुत्फ़
तो
सितम
क्या
है
सुख़न
में
ख़ामा-ए-ग़ालिब
की
आतशअफ़शानी
यक़ीं
है
हमको
भी
लेकिन
अब
उस
में
दम
क्या
है
ज़ुल्मत-कदे
में
मेरे
शब-ए
ग़म
का
जोश
है
ज़ुल्मत-कदे
में
मेरे
शब-ए
ग़म
का
जोश
है
इक
शम`अ
है
दलील-ए
सहर
सो
ख़मोश
है
ने
मुज़ह्दह-ए
विसाल
न
नज़्ज़ारह-ए
जमाल
मुद्दत
हुई
कि
आश्ती-ए
चश्म-ओ-गोश
है
मै
ने
किया
है
हुस्न-ए
ख़्वुद-आरा
को
बे-हिजाब
अय
शौक़
हां
इजाज़त-ए
तस्लीम-ए
होश
है
गौहर
को
`उक़्द-ए
गर्दन-ए
ख़ूबां
में
देख्ना
क्या
औज
पर
सितारह-ए
गौहर-फ़रोश
है
दीदार
बादह
हौस्लह
साक़ी
निगाह
मस्त
बज़्म-ए
ख़याल
मै-कदह-ए
बे-ख़रोश
है
अय
ताज़ह-वारिदान-ए
बिसात-ए
हवा-ए
दिल
ज़िन्हार
अगर
तुम्हें
हवस-ए
नै-ओ-नोश
है
देखो
मुझे
जो
दीदह-ए
`इब्रत-निगाह
हो
मेरी
सुनो
जो
गोश-ए
नसीहत-नियोश
है
साक़ी
ब
जल्वह
दुश्मन-ए
ईमान-ओ-आगही
मुत्रिब
ब
नग़्मह
रह्ज़न-ए
तम्कीन-ओ-होश
है
या
शब
को
देख्ते
थे
कि
हर
गोशह-ए
बिसात
दामान-ए
बाग़्बान-ओ-कफ़-ए
गुल-फ़रोश
है
लुत्फ़-ए
ख़िराम-ए
साक़ी-ओ-ज़ौक़-ए
सदा-ए
चन्ग
यह
जन्नत-ए
निगाह
वह
फ़िर्दौस-ए
गोश
है
या
सुब्ह-दम
जो
देखिये
आ
कर
तो
बज़्म
में
ने
वह
सुरूर-ओ-सोज़
न
जोश-ओ-ख़रोश
है
दाग़-ए
फ़िराक़-ए
सुह्बत-ए
शब
की
जलि
हुई
इक
शम`अ
रह
गई
है
सो
वह
भी
ख़मोश
है
आते
हैं
ग़ैब
से
यह
मज़ामीं
ख़याल
में
ग़ालिब
सरीर-ए
ख़ामह
नवा-ए
सरोश
है
आ
कि
मेरी
जान
को
क़रार
नहीं
है
आ
कि
मेरी
जान
को
क़रार
नहीं
है
ताक़ते-बेदादे-इन्तज़ार
नहीं
है
देते
हैं
जन्नत
हयात-ए-दहर
के
बदले
नश्शा
बअन्दाज़-ए-ख़ुमार
नहीं
है
गिरिया
निकाले
है
तेरी
बज़्म
से
मुझ
को
हाये!
कि
रोने
पे
इख़्तियार
नहीं
है
हम
से
अबस
है
गुमान-ए-रन्जिश-ए-ख़ातिर
ख़ाक
में
उश्शाक़
की
ग़ुब्बार
नहीं
है
दिल
से
उठा
लुत्फे-जल्वाहा-ए-म'आनी
ग़ैर-ए-गुल
आईना-ए-बहार
नहीं
है
क़त्ल
का
मेरे
किया
है
अहद
तो
बारे
वाये!
अगर
अहद
उस्तवार
नहीं
है
तू
ने
क़सम
मैकशी
की
खाई
है
"ग़ालिब"
तेरी
क़सम
का
कुछ
ऐतबार
नहीं
है
सब कहाँ कुछ
लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
सब
कहाँ
कुछ
लाला-ओ-गुल
में
नुमायाँ
हो
गईं
ख़ाक
में
क्या
सूरतें
होंगी
कि
पिन्हाँ
हो
गईं
याद
थी
हमको
भी
रन्गा
रन्ग
बज़्माराईयाँ
लेकिन
अब
नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निसियाँ
हो
गईं
थीं
बनातुन्नाश-ए-गर्दूँ
दिन
को
पर्दे
में
निहाँ
शब
को
उनके
जी
में
क्या
आई
कि
उरियाँ
हो
गईं
क़ैद
में
याक़ूब
ने
ली
गो
न
यूसुफ़
की
ख़बर
लेकिन
आँखें
रौज़न-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ
हो
गईं
सब
रक़ीबों
से
हों
नाख़ुश,
पर
ज़नान-ए-मिस्र
से
है
ज़ुलैख़ा
ख़ुश
के
मह्व-ए-माह-ए-कनाँ
हो
गईं
जू-ए-ख़ूँ
आँखों
से
बहने
दो
कि
है
शाम-ए-फ़िराक़
मैं
ये
समझूँगा
के
शमएं
हो
फ़रोज़ाँ
हो
गईं
इन
परीज़ादों
से
लेंगे
ख़ुल्द
में
हम
इन्तक़ाम
क़ुदरत-ए-हक़
से
यही
हूरें
अगर
वाँ
हो
गईं
नींद
उसकी
है,
दिमाग़
उसका
है,
रातें
उसकी
हैं
तेरी
ज़ुल्फ़ें
जिसके
बाज़ू
पर
परिशाँ
हो
गईं
मैं
चमन
में
क्या
गया,
गोया
दबिस्ताँ
खुल
गया
बुल-बुलें
सुन
कर
मेरे
नाले,
ग़ज़लख़्वाँ
हो
गईं
वो
निगाहें
क्यूँ
हुई
जाती
हैं
यारब
दिल
के
पार
जो
मेरी
कोताही-ए-क़िस्मत
से
मिज़्श्गाँ
हो
गईं
बस
कि
रोका
मैं
ने
और
सीने
में
उभरें
पै
ब
पै
मेरी
आहें
बख़िया-ए-चाक-ए-गरीबाँ
हो
गईं
वाँ
गया
भी
मैं
तो
उनकी
गालियों
का
क्या
जवाब
याद
थी
जितनी
दुआयें,
सर्फ़-ए-दर्बाँ
हो
गईं
जाँफ़िज़ा
है
बादा,
जिसके
हाथ
में
जाम
आ
गया
सब
लकीरें
हाथ
की
गोया
रग-ए-जाँ
हो
गईं
हम
मुवहिहद
हैं,
हमारा
केश
है
तर्क-ए-रूसूम
मिल्लतें
जब
मिट
गैइं,
अज्ज़ा-ए-ईमाँ
हो
गईं
रंज
से
ख़ूगर
हुआ
इन्साँ
तो
मिट
जाता
है
रंज
मुश्किलें
मुझ
पर
पड़ि
इतनी
के
आसाँ
हो
गईं
यूँ
ही
गर
रोता
रहा
"ग़ालिब",
तो
अए
अह्ल-ए-जहाँ
देखना
इन
बस्तियों
को
तुम
कि
वीराँ
हो
गईं
उनके
देखे
से
जो
आ
जाती
है
मुँह
पे
रौनक
वो
समझते
हैं
कि
बीमार
का
हाल
अच्छा
है।
देखिए
पाते
हैं
उशशाक़
बुतों
से
क्या
फ़ैज़
इक
बराह्मन
ने
कहा
है
कि
ये
साल
अच्छा
है।
हमको
मालूम
है
जन्नत
की
हक़ीकत
लेकिन
दिल
के
ख़ुश
रखने
को
‘ग़ालिब’
ये
ख़याल
अच्छा
है।
|