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कृष्ण बिहारी 'नूर'
(08.11.1925 - 30.05.2003)
 

अनुक्रम

1. बस एक वक़्त का खंजर मेरी तलाश में है
2. ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं

3. इक गज़ल उस पे लिखूँ
4. अपने होने का सुबूत
5. आग है, पानी है, मिट्टी है

 

बस एक वक़्त का खंजर मेरी तलाश में है

बस एक वक़्त का खंजर मेरी तलाश में है
जो रोज़ भेस बदल कर मेरी तलाश में है

मैं एक कतरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है

मैं देवता की तरह क़ैद अपने मंदिर में
वो मेरे जिस्म के बाहर मेरी तलाश में है

मैं जिसके हाथ में इक फूल देके आया था
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है

(शीर्ष पर वापस)

ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं

ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं

इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं

सच घटे या बढ़े तो सच न रहे
झूठ की कोई इन्तहा ही नहीं

जड़ दो चांदी में चाहे सोने में
आईना झूठ बोलता ही नहीं

(शीर्ष पर वापस)

इक गज़ल उस पे लिखूँ

इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तकाज़ा है बहुत
इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत

रात हो दिन हो ग़फ़लत हो कि बेदारी हो
उसको देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत

तश्नगी के भी मुक़ामात हैं क्या क्या यानी
कभी दरिया नहीं काफ़ी, कभी क़तरा है बहुत

मेरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह
मैं ने पत्थर की तरह ख़ुद को तराशा है बहुत

कोई आया है ज़रूर और यहाँ ठहरा भी है
घर की दहलीज़ पे ऐ 'नूर' उजाला है बहुत

(शीर्ष पर वापस)

अपने होने का सुबूत

अपने होने का सुबूत और निशाँ छोड़ती है
रास्ता कोई नदी यूँ ही कहाँ छोड़ती है

नशे में डूबे कोई, कोई जिए, कोई मरे
तीर क्या क्या तेरी आँखों की कमाँ छोड़ती है

बंद आँखों को नज़र आती है जाग उठती है
रौशनी ऐसी हर आवाज़-ए-अज़ाँ छोड़ती है

खुद भी खो जाती है, मिट जाती है, मर जाती है
जब कोई क़ौम कभी अपनी ज़बाँ छोड़ती है

आत्मा नाम ही रखती है न मज़हब कोई
वो तो मरती भी नहीं सिर्फ़ मकाँ छोड़ती है

एक दिन सब को चुकाना है अनासिर का हिसाब
ज़िन्दगी छोड़ भी दे मौत कहाँ छोड़ती है

ज़ब्त-ए-ग़म खेल नहीं है अब कैसे समझाऊँ
देखना मेरी चिता कितना धुआँ छोड़ती है

(शीर्ष पर वापस)

आग है, पानी है, मिट्टी है

आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है, मुझ में
और फिर मानना पड़ता है के ख़ुदा है मुझ में

अब तो ले-दे के वही शख़्स बचा है मुझ में
मुझ को मुझ से जुदा कर के जो छुपा है मुझ में

जितने मौसम हैं सभी जैसे कहीं मिल जायें
इन दिनों कैसे बताऊँ जो फ़ज़ा है मुझ में

आईना ये तो बताता है के मैं क्या हूँ लेकिन
आईना इस पे है ख़ामोश के क्या है मुझ में

अब तो बस जान ही देने की है बारी ऐ "नूर"
मैं कहाँ तक करूँ साबित के वफ़ा है मुझ में

(शीर्ष पर वापस)
 

 

 

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