| मीर तक़ी 'मीर' 
        ग़ज़लें 
 17.
 क़द्र रखती न थी मता-ए-दिल
 सारे आलम में मैं दिखा लाया
 
 दिल, कि इक क़तरा खूँ नहीं है बेश
 एक आलम के सर बला लाया
 
 सब पे जिस बार ने गिरानी की
 उस को ये नातवाँ उठा लाया
 
 दिल मुझे उस गली में ले जाकर
 और भी खाक में मिला लाया
 
 इब्तिदा ही में मर गए सब यार
 इश्क़ की कौन इंतिहा लाया
 
 अब तो जाते हैं बुतकदे से मीर
 फिर मिलेंगे अगर खुदा लाया
 
 
 18.
 काबे में जाँबलब थे हम दूरी-ए-बुताँ से
 आये हैं फिर के यारों अब के ख़ुदा के याँ से
 
 
 जब कौंधती है बिजली तब जानिब-ए-गुलिस्ताँ
 रखती है छेड़ मेरे ख़ाशाक-ए-आशियाँ से
 
 
 क्या ख़ूबी उसके मूँह की ए ग़ुन्चा नक़्ल करिये
 तू तो न बोल ज़ालिम बू आती है वहाँ से
 
 
 ख़ामोशी में ही हम ने देखी है मसलहत अब
 हर इक से हाल दिल का मुद्दत कहा ज़बाँ से
 
 
 इतनी भी बदमिज़ाजी हर लहज़ा 'मीर' तुम को
 उलझाव है ज़मीन से, झगड़ा है आसमाँ से
 
 
 19.
 कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की
 धूम है फिर बहार आने की
 
 वो जो फिरता है मुझ से दूर ही दूर
 है ये तरकीब जी के जाने की
 
 तेज़ यूँ ही न थी शबे-आतिशे-शौक़
 थी खबर गर्म उसके आने की
 
 जो है सो पाइमाले-ग़म है मीर
 चाल बेडोल है ज़माने की
 
 
 20.
 कोफ़्त से जान लब पे आई है
 हम ने क्या चोट दिल पे खाई है
 
 दीदनी है शिकस्तेगी दिल की
 क्या इमारत ग़मों ने ढाई है
 
 दिल से नज़दीक और इतना दूर
 किस से उसको कुछ आश्नाई है
 
 याँ हुए ख़ाक से बराबर हम
 वाँ वही नाज़-ए-ख़ुदनुमाई है
 
 मर्ग-ए-मजनूँ पे अक़्ल गुम है 'मीर'
 क्या दीवाने ने मौत पाई है
 
 
 21.
 
 क्या कहूँ तुम से मैं के क्या है इश्क़
 जान का रोग है, बला है इश्क़
 
 
 इश्क़ ही इश्क़ है जहाँ देखो
 सारे आलम में भर रहा है इश्क़
 
 
 इश्क़ माशूक़ इश्क़ आशिक़ है
 यानी अपना ही मुब्तिला है इश्क़
 
 
 इश्क़ है तर्ज़-ओ-तौर इश्क़ के तईं
 कहीं बंदा कहीं ख़ुदा है इश्क़
 
 
 कौन मक़्सद को इश्क़ बिन पहुँचा
 आरज़ू इश्क़ वा मुद्दा है इश्क़
 
 
 कोई ख़्वाहाँ नहीं मोहब्बत का
 तू कहे जिन्स-ए-नारवा है इश्क़
 
 
 मीर जी ज़र्द होते जाते हैं
 क्या कहीं तुम ने भी किया है इश्क़?
 
 22.
 
 गम रहा जब तक कि दम में दम रहा
 दिल के जाने का निहायत गम रहा
 
 हुस्न था तेरा बहुत आलम फरेब
 खत के आने पर भी इक आलम रहा
 
 मेरे रोने की हकीकत जिस में थी
 एक मुद्दत तक वो कागज नम रहा
 
 जामा-ऐ-एहराम-ऐ-ज़ाहिद पर न जा
 था हरम में लेकिन ना-महरम रहा
 
 23.
 गुल को महबूब में क़यास किया
 फ़र्क़ निकला बहोत जो बास किया
 
 दिल ने हमको मिसाल-ए-आईना
 एक आलम से रूशिनास किया
 
 कुछ नहीं सूझता हमें उस बिन
 शौक़ ने हम को बेहवास किया
 
 सुब्ह तक शम्अ सर को धुनती रही
 क्या पतंगे ने इल्तिमास किया
 
 ऐसे वहुशी कहाँ हैं अय ख़ूबाँ
 'मीर' को तुम अबस उदास किया
 
 24.ज़ख्म झेले दाग़ भी खाए बहुत
 दिल लगा कर हम तो पछताए बहुत
 
 दैर से सू-ए-हरम आया न टुक
 हम मिजाज अपना इधर लाये बहुत
 
 फूल, गुल, शम्स-ओ-क़मर सारे थे
 पर हमें उनमें तुम्ही, भाये बहुत
 
 
 मीर से पूछा जो मैं आशिक हो तुम
 हो के कुछ चुपके से शरमाये बहुत
 
 
 
 |       25.
 
 जिस सर को ग़रूर आज है याँ ताजवरी का
 कल जिस पे यहीं शोर है फिर नौहागरी का
 
 आफ़ाक़ की मंज़िल से गया कौन सलामात
 असबाब लुटा राह में याँ हर सफ़री का
 
 ज़िन्दाँ में भी शोरिशन गयी अपने जुनूँ की
 अब संग मदावा है इस आशुफ़्तासरी का
 
 हर ज़ख़्म-ए-जिगर दावर-ए-महशर से हमारा
 इंसाफ़ तलब है तेरी बेदादगरी का
 
 इस रंग से झमके है पलक पर के कहे तू
 टुकड़ा है मेरा अश्क अक़ीक़े-जिगरी का
 
 ले साँस भी आहिस्ता से नाज़ुक़ है बहुत काम
 आफ़ाक़ है इस कारगाहे-शीशागरी का
 
 टुक मीरे-जिगर सोख़्ता की जल्द ख़बर ले
 क्या यार भरोसा है चराग़े-सहरीका
 
 26.
 जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा
 तो हम-साया काहे को सोता रहेगा
 
 मैं वो रोनेवाला जहाँ से चला हूँ
 जिसे अब्र हर साल रोता रहेगा
 
 मुझे काम रोने से हरदम है नासेह
 तू कब तक मेरे मुँह को धोता रहेगा
 
 बसे गिरिया आंखें तेरी क्या नहीं हैं
 जहाँ को कहाँ तक डुबोता रहेगा
 
 मेरे दिल ने वो नाला पैदा किया है
 जरस के भी जो होश खोता रहेगा
 
 तू यूं गालियाँ गैर को शौक़ से दे
 हमें कुछ कहेगा तो होता रहेगा
 
 बस ऐ 'मीर' मिज़गां से पोंछ आंसुओं को
 तू कब तक ये मोती पिरोता रहेगा
 
 
 27.
 
 तुम नहीं फ़ितना-साज़ सच साहब
 शहर पुर-शोर इस ग़ुलाम से है
 
 कोई तुझसा भी काश तुझको मिले
 मुद्दा हमको इन्तक़ाम से है
 
 शेर मेरे हैं सब ख़्वास पसंद
 पर मुझे गुफ़्तगू आवाम से है
 
 सहल है 'मीर' का समझना क्या
 हर सुख़न उसका इक मक़ाम से है
 
 
 28.
 
 था मुस्तेआर हुस्न से उसके जो नूर था
 खुर्शीद में भी उस ही का ज़र्रा-ऐ-ज़हूर था
 
 पहुँचा जो आपको तो मैं पहुँचा खुदा के तईं
 मालूम अब हुआ कि बहोत मैं भी दूर था
 
 कल पाँव इक कासा-ऐ-सर पर जो आ गया
 यक-सर वो इस्ताख़्वान शिकस्तों में चूर था
 
 कहने लगा के देख के चल राह बे-ख़बर
 मैं भी कभी किसी का सर-ऐ-पुर-गुरूर था
 
 था वो तो रश्क-ऐ-हूर-ऐ-बहिश्ती हमीं में 'मीर'
 समझे न हम तो फ़हम का अपने कसूर था
 
 
 
 29.
 
 दम-ए-सुबह बज़्म-ए-ख़ुश जहाँ शब-ए-ग़म से कम न थी मेहरबाँ
 कि चिराग़ था सो तो दर्द था जो पतंग था सो ग़ुबार था
 
 
 दिल-ए-ख़स्ता जो लहू हो गया तो भला हुआ कि कहाँ तलक
 कभी सोज़्-ए-सीना से दाग़ था कभू दर्द-ओ-ग़म से फ़िग़ार था
 
 दिल-ए-मुज़तरिब से गुज़र गई शब-ए-वस्ल अपनी ही फ़िक्र में
 न दिमाग़ था न फ़राग़ था न शकेब था न क़रार था
 
 
 ये तुम्हारी इन दिनों दोस्ताँ मिज़्ह्ग़ाँ जिसके ग़म में है ख़ूँ-चकाँ
 वही आफ़त-ए-दिल-ए-आशिक़ाँ किसु वक़्त हमसे भी यार था
 
 
 कभू जायेगी उधर् सबा तो ये कहियो उससे कि बेवफ़ा
 मगर एक "मीर"-ए-शिकस्ता-पा तेरे बाग़-ए-ताज़ा में ख़ार था
 
 
 30.
 
 दिखाई दिये यूं कि बेख़ुद किया
 हमें आप से भी जुदा कर चले
 
 जबीं सजदा करते ही करते गई
 हक़-ए-बन्दगी हम अदा कर चले
 
 परस्तिश की यां तक कि अय बुत तुझे
 नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले
 
 बहुत आरज़ू थी गली की तेरी
 सो यां से लहू में नहा कर चले
 
 
 31.
 
 दिल की बात कही नहीं जाती, चुप के रहना ठाना है
 हाल अगर है ऐसा ही तो जी से जाना जाना है
 
 
 सुर्ख़ कभू है आँसू होके ज़र्द कभू है मुँह मेरा
 क्या क्या रंग मोहब्बत के हैं, ये भी एक ज़माना है
 
 
 फ़ुर्सत है यां कम रहने की, बात नहीं कुछ कहने की
 आँखें खोल के कान जो खोले बज़्म-ए-जहां अफ़साना है
 
 
 तेग़ तले ही उसके क्यूँ ना गर्दन डाल के जा बैठें
 सर तो आख़िरकार हमें भी हाथ की ओर झुकाना है
 
 मीर तक़ी 'मीर'-3 |