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स्थान में और स्तान में

मानिक वन्द्योपाध्याय

(बांग्ला से अनुवाद : प्रबोधकुमार मजुमदार)

जान-पहचानी पूछता—''भाग रहे हैं न!''
दिल जिसका डर के मारे छोटा पड़ गया है, कोई तरकीब भिड़ती तो खुद ही कब का सपरिवार भाग गया होता, उसके सवाल में तमक होती, सवाल के साथ जो अपना मन्तव्य जोड़ता उसकी चरपराहट और भी ज्यादा।
''भागूँगा क्यों?'' नरहरि ने कहा, ''बीवी को लिवाने जा रहा हूं।''
दो-एक जने हैं जो उसको भली-भाँति जानते हैं, उसपर विश्वास करते हैं। ''यह क्या, अभी ले आएंगे? पन्द्रह अगस्त तो निकल जाने दीजिए। एकाध महीना देखिए भी क्या ठहरता है, अकेले रहते हैं, बात दीगर है, इस वक्त औरतों को लाना...''
''पेट के मारे जब रहना ही पड़ेगा तो देर करने से क्या फायदा! कुछ भी नहीं होगा, यही मान लेना बेहतर है, इससे दिल का हौसला बढ़ता है।'' नरहरि ने जवाब दिया।
स्टीमर में गजब की भीड़। भगोड़े भी हैं, सभी नहीं। भीड़ इस स्टीमर में बराबर ही रहती हैं, जीवन यात्रा के प्रयोजन से, फैले-बिखरे जीवन के साथ योगसूत्र की बिना पर, इसी प्रकार गाय-बकरियों जैसे ही लोग बराबर यातायात करते रहे हैं। उसमें भी मानो एक शान्ति, व्यवस्था और सामंजस्य था, नदी के विस्तार के साथ मेल खाती एक उदारती थी। आज सभी के चेहरों पर, बोलचाल के ढंग में, समवेत गुंजन में, एक दबी हुई उत्तेजना, प्रत्याशा और भय, दम्भ और पराजय, उद्वेग की चंचलता है। हालांकि असंख्य आचरणों में हर क्षण व्यक्ति व्यक्ति में सीमा संख्या शून्य अचेतन आदान-प्रदान में, सभी लोग पहले जैसे ही मनुष्य है। लगता है बाहर से आरोपित एक कृत्रिम चेतना मानो र्आवत्त और संघात का सर्जन कर रही है।
ट्रेन में एक दुर्घटना हो गयी। आधी रात को जनाने-डिब्बे में एक अधूरी डकैती हो गयी। दस-बारह डाकू, सभी हथियारों से लैस, दो के पास आग्नेय अस्त्र। गाड़ी में सिपाही व पुलिस थी या नहीं, डाकुओं के अ/धेरे में बिला जाने से पहले पता न चला। पीछे के स्टेशन से छूटने के बाद गाड़ी की रफ्तार एक बार धीमी हो आयी थी। उसी वक्त वे डिब्बे में आ धमके थे। दो स्टेशनों के बीचों-बीच ऐन उसी सुनसान जगह पर गाड़ी की रंफ्तार इस तरह कम क्यों हो गयी, इसका जवाब बाद में देना पड़ेगा, इतनी भी फिक्र नहीं उन लोगों को जो गाड़ी चलाते हैं। सारे जेवरात इकट्ठे कर एक युवती को साथी बनाकर निर्दिष्ट स्थान पर चेन खींचकर उतर जाने की व्यवस्था ही शायद उन लोगों ने की थी। लेकिन तने हुए छुरे-बन्दूक की परवाह किये बिना ही उस लड़की की मां ने चेन खींच लिया तो उसे घायल कर अपना काम अधूरा छोड़कर वे लोग उतरकर भाग गये। मुसांफिरों के एक दल ने हो-हल्ला मचाते हुए उतर कर उन पर धावा बोल दिया। बन्दूक की गोलियाँ उनको रोक नहीं सकीं—रोका था अनजान मैदान, जंगल और अँधेरे ने।
नरहरि को यह मालूम नहीं था, उसने और ही बात सुनी थी। यह सब रोजमर्रे की घटनाएं हैं और ऐसा छापा पड़ने पर, सुनते हैं कि, कोई मुसांफिर चूँ तक नहीं करता, सोने का बहाना किये पड़े रहते हैं या बैठे-बैठे ऊँघते हैं। तो फिर अन्त वाली बात सही नहीं।
स्यालदह गाड़ी पहुँची देर में, यह भी रोजमर्रा की बात है। बगल में बिस्तर और हाथ में बैग लेकर नरहरि ने इस अति-परिचित शहर के बाहरी हिस्से को देखा। हाल में इस शहर के प्रति उसमें जो आक्रोश भर आया है शायद वही उमड़कर उसके कदमों को रोक रहा है। छात्र-जीवन के आनन्द-उत्तेजना-स्वप्न के समारोह में, विवाह-गृह के प्रकाश और शहनाई की तान में, सुमित्रा को पीहर ले आने-ले जाने से विरह-मिलन के माधुर्य में यह शहर उसका कितना प्रिय था। चन्द रोज पहले भी था। प्रिय अैर रोमांचकर उस शहर का शानदार गौरव। ढाका में बैठे उसने अखबार में खबरे पढ़ी हैं और खुश होकर अपने खौलते ंखून की गरमाई का अनुभव किया है। छात्र-अभियान की विजय, लाखों नागरिकों के मिलन-अभियान की विजय, हड़ताल की कामयाबी, फौंजी अत्याचार को जलाकर खाक कर देने की विजय, विजय पर विजय। उसके बाद जिस लगातार लम्बी बीभत्सता में कलकत्ते के लोग मत्त हो गये हैं वह भी नरहरि के निकट शहर को अप्रिय और घिनौना बना सकी। क्षोभ, क्लेश और अभिमान से वह केवल मुरझा-सा गया है, मायूस हुआ है।
आज वह दिलोजान से कलकत्ते से घृणा करता है। इतने दिनों तक उसकी धारणा थी कि कम-से-कम अपने सम्प्रदाय का स्वार्थ लेकर इस शहर के हिन्दू-मुसलमान मारपीट करते हैं। आज उसका यह भ्रम टूट चुका है। इस शहर में न हिन्दू रहते हैं और न मुसलमान, यह तो बदजातों का अड्डा है।
सुमित्रा के पीहर तक शायद वह पहुंच न सके, रास्ते में ही घायल हो जाए। यह आतंक है। लेकिन अगर वह मरेगा तो जहरीले साँप के दंश से। कलकत्ता साँप-भोजी साँपों की बाँबी है। हिन्दू साँप-मुसलमान साँप नाम को तो कोई प्राणी हो ही नहीं सकता, निरे साँप हैं।
अतुलबाबू ने ही अपने जवांई की आवभगत की, ''आओ बेटा, आओ। तार मिलने के बाद से ही खौफ और फिक्र में था। समधिन जी कुशल से हैं? वैद्यजी की दवा लेकर कुछ बेहतर होंगी?''
''मां पिछले महीने पुरी गयी हैं।''
''ओ। खैर, खैरियत से तो हैं? पुरी भी कतई निरापद नहीं। अंखबार में जो पढ़ रहा हूं बेटाराम, दिमांग चकराने लग जाता है। सुनते हैं उड़ीसा के छोकरे गिरोह बनाकर बंगाली औरतों पर अत्याचार कर रहे हैं।''
''मां की उम्र तो करीब सत्तर की है।''
बड़े साले परिमल ने कहा, ''उनको कोई डर नहीं। लेकिन उड़ीसा में युवती बंगाली औरतें भी तो बहुत सारी हैं। इधर गुंडे बंगाली लड़कियों पर पंजे मार रहे हैं, उधर ओड़िया लोग जुल्म करने लगे हैं, जरा सोचो, कैसी मुसीबत है!''
मंझले साले श्यामल ने कहा, ''दो ओड़ियों को आज अच्छा-सा सबक दे दिया है, जिन्दगी भर नहीं भूलेंगे। लइया-चने वाली दुकान के अर्जुन और सतीश बाबू के नौकर को। सुधीन बाबू की नौकरानी और अर्जुन की बीवी को लड़कों ने पकड़ लिया था। लेकिन हम लोगों ने सोचकर देखा कि चाहे कुछ भी हो हम लोग शिक्षित भद्र लोग हैं, औरतों पर हाथ छोड़ देना ठीक नहीं होगा। जानते हो नरहरि, भद्र होने से ही हमलोग मुसीबत में पड़े हैं। उनकी औरतों पर अगर अत्याचार चला सकता होता तो वे ठंडे पड़ गये होते।''
नरहरि को भूख लगी थी। उबकाई भी आने लगी। आदर-सत्कार में कोई खोट नहीं। नरहरि का श्वसुर कोई धनी नहीं, लेकिन वेजिटेबल घी में तली हुई पूड़ी के साथ सन्देश उसे नाश्ते में दिया गया। घर में बनाया गया मोठा छेना नहीं, दुकान का दामी सन्देश। मिठाइयों की सारी दुकानें बन्द हैं फिर भी।
किसी का बच्चा गला फाड़कर रो रहा है, उसके बच्चे की जैसी आवांज लगती है। साली सुषमा उसे शान्त कर रही है, ''चुप, चुप, जल्दी चुप जा! मुसलमान पकड ले जाएगा।''
इसकी उल्टी लोरी भी सुनी है नरहरि ने, ''चुपा जा, सिख आ रहा है।''
दोमुंही क्रिया की दोमुंही प्रतिक्रिया तो होगी ही।
अतुल ने चेतावनी दी, ''काम न रहे तो बाहर निकलने की कोई ंजरूरत नहीं।''
श्यामल ने व्याख्या की, ''निकलने का मतलब ही है जान हथेली में लेकर जाना। यहाँ कोई हंगामा नहीं, जहाँ जा रहे हो वहाँ भी नहीं, लेकिन शायद ऐसे इलांके में से होकर जाना पड़े...।''
मुश्किल तो यही है, परिमल हामी भरते हुए बोला, ''कौन-सा इलांका सेफ है इसकी जानकारी भी हो, तो थोड़ा-सा...''
नरहरि का मुख देखकर छोटा साला अमल बोला, ''खैर, इतना सारा कहने की जरूरत नहीं, जीजा जी को भी अपने प्राणों का मोह है। जरूरत पड़े तो निकलिएगा, जहाँ-तहाँ न घूमते फिरिएगा, बस।''
तू तो कहकर ही छुटकारा पा गया—''तेरे जीजा जी को मालूम कैसे होगा? सालों ने चारों ओर ट्राम चालू रखी है। नरहरि को लग सकता है कि ट्राम जब चल रही है तो इधर कोई खतरा नहीं? सालों के एरिया में गलती से पहुँच गये तो साथ-ही-साथ घसीटकर उतारेंगे...।''
''गलती से तुम्हारे एरिया में आ जाने पर तुम लोग मिठाई खिला देते हो न?''
बाप-दादाओं के चेहरे गम्भीर हो गये। दैत्यकुल में प्रह्लाद जैसे इस छोकरे की वाहियात बातें तन-बदन में आग सुलगा देती हैं।
नरहरि ने सविनय कहा, ''निकलना भी कहाँ है! दो-चार सामान-बस्त ही खरीदना है। किसी के साथ भेंट करने की भी फुर्सत नहीं होगी। सरिया-संजोकर दिन-ही-दिन स्टेशन चला जाऊंगा सबको लेकर।''
''क्या वाकई सुमी को ले जाने को कह रहे हो?'' परिमल ने कहा।
''चिट्ठी तो मिली है, लेकिन भई तुम्हारी चिट्ठी का मतलब नहीं समझ सके।''
''दिमाग ंखराब न हो तो कोई...''
''खैर रहने दो।'' अतुल बोला, ''सारी बातें उस बेले कर लेंगे। नहा-खाकर सुस्ता लो, उस जून बैठकर सलाह-मशविरा कर लिया जाएगा। आज तुम लोगों का जाना नहीं हो सकता।''
''खाना-वाना खाकर आराम कर लो, पहले मेरी बेटी के साथ निबट-बूझ लो, दिमाग कुछ ठंडा पड़ जाए तुम्हारा, फिर उस बेला हमलोग तुमको छेंक लेंगे,'' नरहरि ऐसी राजनीति से वाकिफ है।
और भी ठंडे होकर नरहरि ने सविनय कहा, ''आज ही रवाना होना है। चिट्ठी लिखते वक्त खयाल था दो-एक दिन रह सकूंगा। पर उसका कोई चारा नहीं। हाल तो समझते ही होंगे।''
स्टेशन पर भी उसने तय नहीं किया था कि आज लौट चलेगा—सोच रखा था कल रहकर परसों रवाना हुआ जाएगा। राजपथ पर शहर को संत्रस्त रूप, बस से लम्हे भर के लिए देखी, बगल की गली से निकल आये कुछ लोगों द्वारा निडर बेलौस ढंग से एक पथिक को मृत्युदान देने की घटना, इस घर का हिंसक दम घोंटू वातावरण उसका दम घोटता आ रहा है। परम शुभेच्छु ये सारे सम्बन्धी शत्रु जैसे लग रहे हैं।
''भला बात क्या है बताओ जरा?'' बातचीत मुल्तवी रखने की उम्मीद छोड़ अतुल ने कहा, ''जिनसे बन पड़ा वे भागे आ रहे हैं, जिनसे नहीं बन पड़ा वे कम-से-कम औरतों को हटाए दे रहे हैं। और तुम कह रहे हो कि सुमी को ले जाओगे।''''जिनसे बन पड़ता वे ही भागे नहीं आ रहे हैं। ऐसे कितने ही लोग हैं जो अनायास चले आ सकते हैं पर वहीं रहना तय किये हुए हैं।''
''वे आंखिर कितने रोज रहेंगे।'' श्यामल ने हंसकर कहा, ''कौन-सी जल्दबांजी पड़ गयी तुम्हें? वे अगर टिकने दें, तो फिर आकर सुमी को ले जाना, अभी क्यों?''
''काम को कायम रखने के लिए ले जाना पड़ रहा है। चारों ओर बड़ी उलट-पुलट भी तो हो रही है, कुछ लोग रहेंगे, कुछ लोग नए आएंगे, कुछ लोगों की नौकरी चली जाएगी। इन लोगों को न ले जाने से मेरी नौकरी जा सकती है।''
''यह कैसे?''
''यही तो स्वाभाविक है। जो लोग घर-गिरस्ती जमाए बैठे हैं, बेशक उन्हीं को प्रिफरेन्स मिलेगी। मैं बीवी-बच्चों को कलकत्ता भिजवा दूंगा, भागने के लिए पैर बढ़ाए रहूंगा, तो क्यों वे मेरा लिहाज करेंगे?''
''कुछ कहा है क्या? तुम लोगों का तो हिन्दू दफ्तर है। हिन्दू होकर मालिक ने तुमसे ऐसी बात की?''
नरहरि ने थकान भरी आँखों से देखा, ''मालिक को तो वहीं रहना है, उसी देश का आदमी बनकर? जब मर्जी हो फेंक-फाँककर भाग आने के लिए तैयार रहूं फिर भी मालिक मेरी खुशामद कर वहाँ रखे रहेंगे? जो परिवार लेकर रहने को है, उसे छुड़ा देगा मुझे रखकर?''
''जाए तो जाने दो ऐसी नौकरी।'' श्यामल ने वीर की तरह कहा, ''नौकरी की खातिर बीवी को ऐसे ंखतरे में नहीं ले जाएा जा सकता। कम उम्रवाली किसी भी बेटी-बहू को वे नहीं बंख्शेंगे।''
''कई लाख कमसिन बेटी-बहुओं को वहाँ रहना ही पड़ेगा, श्यामल। तुम्हारी बहन अगर जाती है तो कुल एक ही उसमें जुड़ेगी।''
''यह सारी बातें रखो,'' विचक्षण अतुल बोला, ''डर तो है ही। नौकरी अगर चली जाए तो क्या किया जाए। कलकत्ता चले आओगे, कुछ ढूंढ-ढ़ांढ लोगे।''
''बूदावास छोड़कर चला आऊँगा? आप लोगों के हंजार-हंजार लोगों की तो नौकरियाँ जा रही हैं, नौकरी देगा कौन मुझे?''
''वह जो कुछ होना है, होगा, चारा ही क्या है इसलिए—''
''बताकर ही आपको छुट्टी मिल गयी।''
सुमी जैसी बहुतों को ही पूर्वी बंगाल भर में रहना पड़ेगा, इस बात को किसी ने तवज्जह ही नहीं दी, मजाक में उड़ा दी। शायद इनकी धारणा में ही नहीं आती। बाकी सारे लोगों को चाहे जो कुछ हो, इनकी बेटी और उन लोगों की बहन सुमित्रा बस हिफाजत से रहे। सुमित्रा उसकी बीवी भी तो है, सैकड़ों बीवियों का क्या होगा, या नहीं होगा यह बात क्यों वह अपनी बात के प्रसंग में ला रहा है, ये लोग समझ नहीं पा रहे हैं। वे लोग इसकी बातचीत से कुछ स्तम्भित-से हो गये हैं।
''तुम्हारा इरादा कोई भला नहीं, नरहरि,'' श्यामल ने गुस्से में कहा, ''बीवी की घूस देकर तुम अपनी नौकरी बनाए रखना चाहते हो।''
अतुल ने बड़ी मुश्किल से झगड़ा संभाला, अपनी स्त्री की सहायता से। सौभाग्य से ऊँची आवांज सुनते ही नरहरि की सास हल्दी-मिर्चा सने हाथ लेकर ही भागी आ गयी थी। औरत दरवाजे के आसपास ही ताक-झाँक रही थीं, बातचीत की संजीदगी समझकर उन्होंने कमरे में घुसने की हिम्मत नहीं की थीं, इस बार कमरे में घुसकर दूर खड़ी या बैठी रहीं। सुमित्रा ने पीठ पर पटक-पटक कर चाभी के रिंग की तीन-चार बार आवांज की।
फिर भी गुम्मी साधने से पूर्व नरहरि ने घोषणा की, ''हंजार-हंजार स्त्रियों पर अगर विपत्ति है तो मेरी भी स्त्री को रहेगी।''
चुप रहना उचित जानते हुए भी परिमल बोल पड़ा, ''पूर्वी बंगाल के हिन्दू डूम्ड हैं यह तो जानी हुई बात है।''
गुम्मी साध लेना तय करने के बाद भी नरहरि बोला, ''हमलोग अगर डूम्ड हुए आप ही लोगों के लिए होंगे। आप ही लोग हमारे सबसे बड़े दुश्मन हैं।''
अमल शुरू से आखिर तक चुप्पी साधे था। उसका मुंह खुलते ही दैत्यकुल में प्रह्लाद की बातों से भी अधिक उसकी बातों से घर भर के लोगों के तन-बदन में आग लग जाती है।
''पार्क सर्कस के मेरे परिचित एक व्यक्ति बता रहे थे,'' इस बार वह धीरे-धीरे बोला और ताज्जुब है कि उसकी बात सुनते ही तन-बदन सुलग उठेगा। जानते हुए भी सभी लोग मानो धीरज धर उसकी बात ध्यान से सुनने लगे—''इतने दिन हिन्दुओं को दुश्मन समझता था, इस बार देख रहा हूं हमारे स्वतन्त्र राष्ट्र के जात-बिरादरी वाले ही हम लोगों का खात्मा कर देंगे।''
''तू चुप रह!'' बात सुनने के बाद अतुल ने उसे घुड़की लगायी।
सुमित्रा सुमधुर ही है। मुद्दत से मुलाकात न होने की वजह से मिठास गाढ़ी होकर दाना बाँधने लगी है। आज रविवार है, दंफ्तर जाने की जल्दी नहीं। पकाना-खाना सभी कुछ ढीलमढाल चल रहा है। आज ही की गाड़ी में सुमित्रा को लेकर अगर नरहरि रवाना हो गया होता तो फिर हड़बड़ी की जरूरत पड़ गयी होती, लेकिन घर के लोग जानते हैं कि आंखिरकार नरहरि को अपना पागलपन छोड़ना ही पड़ेगा, सुमित्रा को वह यहीं छोड़ जाएगा और दो-एक दिन वह खुद यहाँ रहेगा। फिर भी सभी के मन में संशय बना हुआ है। मुंह से चाहे जो कुछ कहे, मन-ही-मन सभी लोग जानते हैं कि समस्या इतनी आसान नहीं, समस्या के सिर-पैर कुछ भी उनके अधीन नहीं। जैसा भी हो नरहरि ने एक सिद्धांत ले लिया है। भरसक भावावेश को त्यागकर अपने भले-बुरे का विचार करने के बाद ही सिध्दान्त लिया होगा। उसको टस-से-मस करना आसान नहीं होगा।
'हमेशा से जिद्दी और अड़ियल भी तो है वह—बांगाली जो है। उस बार उसके बड़े बेटे का इलाज कर रहा था इस परिवार का विश्वसनीय वैद्य, वह सभी लोगों की राय परे रखकर सीधे चार रुपए फीस वाला एलोपैथ डाक्टर बुला लाया था—ससुराल में पैर रखने के दो घंटे के अन्दर।'
बताया था, 'मेरा बेटा अगर मरता है तो मैं जिस चिकित्सा में विश्वास करता हूं उसी चिकित्सा में मरे।'
कैसी कटी-कटी बातें! हालाँकि वह लड़का भगवान की दया से बच गया, लेकिन, भगवान न करें, अगर उस लड़के का कुछ भला-बुरा हो गया होता, तो आज नरहरि की नाक क्या रह जाती? बड़े-बूढ़ों की बात न सुनने के कारण, बड़े-बूढ़ों की उपेक्षा करने के कारण कितना अफसोस करना पड़ा होता!
इसलिए जल्दी न रहने पर भी बारह बजे के अन्दर ही नरहरि को खाना खिला दिया गया। कमरा और बिस्तर दिये गये लेटने के लिए। एक बजे तक सुमित्रा कमरे में गयी। उसका बेटा और बच्ची बिटिया दीदी और मामियों की हिंफांजत में रहे।
जीवन-मरण समस्या की बातें घंटे-भर न ही छेड़ना चाहिए था, लेकिन सुमित्रा ने सोचा कि यह शख्स तो विरह के चरम पर चढा ही हुआ है, खाऊँ-खाऊँ कर रहा है, महत्त्वपूर्ण बात का ंफैसला करने में यह मौका हाथ से न जाने देना चाहिए। पहले निबटारा और सर-समझौता हो जाए, नरहरि मान ले कि अभी फिलहाल वह उसे पीहर में ही रखेगा फिर खुशी-खुशी वह अपने को सौंप देगी। व्याकुल हो बावली-सी उसके सीने पर टूट पड़ेगी। बेकली क्या उसे भी नहीं? लेकिन गर्म मिजाज वाले मर्द का पागलपन संभालने की खातिर औरत के बिना संयत हुए कैसे काम चल सकता है।
''आते ही झगड़ने लग पड़े? तुम भी खूब हो! पान चबाना बन्द कर पान से रंगे होंठ लिए सुमित्रा मुस्करायी, जरा तिरछी खड़ी होकर अधभीगे बालों को सूखे तौलिये से झाड़ने का आयोजन करने लगी।''
''मैंने झगड़ा किया?'' अचम्भे से नरहरि ने कहा, ''चिट्ठी लिखकर, तार भेजकर तुमको लिवा लेने आया, अब कह रह हैं कि जाने नहीं देंगे। तुमको मैं जहाँ खुशी हो ले जाऊँ, इसमें इनका क्या?''
सुमित्रा मन-ही-मन कुछ खफा हो गयी। ''वे मेरे बाप-मां, भाई-बहन जो हैं। उनको फिक्र क्यों नहीं होगी?''
''हँऽ...और मैं तुम्हारा कोई नहीं?''
''वाह-वाह, क्या कहते हो! तुम्हारे हाथों में मुझे सौंप दिया, तुम क्या रास्ते के आदमी हो? क्या बाप-भाई रास्ते के आदमी को घर में बुलाकर सुलाते हैं? मैं क्या रास्ते के आदमी की—''
जमती नहीं, बात बनती नहीं। कितनी ही हिंसा, कितने ही विवाद, कितनी ही भयंकर मृत्युओं की वास्तविकता ने सब-कुछ उलट-पलट दिया है, अर्गला लगे कमरे के निर्जन एकान्त माधुर्य की भूमिका तक वे करोड़ों जीवन की बोझिल समस्या से आक्रान्त हो गये।
''मैंने तो आज ही जाने को सोचा था।''
''मुझे लेकर?''
''नहीं तो क्या? तुमको लेने के लिए ही तो आया हूं।''
क्रमश: कलह और रुदन। यह सब पहले भी बहुत होता रहा है, आज जाने किस विष ने इस कलह और रुदन को विषैला बना दिया है, यह हथियार भी कारगर न होता देखकर फिर मिठास भरकर सुमित्रा ने नरहरि के सीने में आश्रय लिया। पति-पत्नी का प्रेम कितना निविड़ और आघातसह बन गया है बच्चों के पिता-माता का प्रेम बनकर! फिर भी मानों दरार पड़ने लगी। आज की चोट से चटखने लगा।
''अगर तुम कहो,'' नरहरि ने मानो देशरक्षा की प्रतिज्ञा लेने की तरह से कहा, ''आज न जाकर परसो जाने को तैयार हूं। लेकिन तुमको चलना ही पड़ेगा।''
''मैं मरने नहीं जा सकती।''
''मैं जो मरूंगा।''
सुमित्रा चुप किये रही।
''यहीं कोई बच्चों का खिलवाड़ नहीं,'' नरहरि ने कहा, ''रूठ-मनौव्वल की बात भी नहीं। अगर अभी मेरे साथ नहीं जाती हो तो बाकी जिन्दगी पीहर में ही बितानी पड़ेगी तुम्हें—विधवा की नाई।''
''बेहतर है कि तुम मुझे मार ही डालो।''—सुमित्रार् आर्त्तनाद कर उठी, ''रात-बिरात जाने कौन घसीट कर ले जाएगा मुझे, मुझे लेकर जो मर्जी होगी करेगा, उससे बेहतर है कि तुम मुझे अपने ही हाथों मार डालो।''
श्रान्त-कलान्त आँखों से नरहरि देखता रहा। विषण्ण और विपन्न। कहीं शायद एक छोटा-सा लड़का रो रहा है। इसी घर में शायद, उसके बेटे की जैसी ही आवांज है। दूसरे के पास रहने से इनकार कर मां के लिए ही शायद रो रहा है।


 

 

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