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पड़ोसी
(सिंधी कहानी : अनुवाद : गोविन्द पंजाबी)
खानू हज्जाम सैलून में बाल काट रहा था, तब नेशनल गार्ड परेड करते जा रहे
थे—चप रास्त...चप रास्त (लेफ्ट-राईट) चप-चप-चप-रास्त चप-रास्त...खाकी वर्दी
पहने अच्छे जवान, पसीने से तर, बेहपरवाह, मगरूर और मजबूत। बाल कटवाकर
शामदास सेठ ने उस तरफ देखा। उसके चेहरे पर भय, बेबसी और नफरत के चिह्न
दिखाई पड़े—खानू, वह जो चाँद-तारे का झंडा लेकर अगुआई कर रहा है, वह कौन
है? उसने बहुत ही डरते हुए पूछा। खानू था तो हज्जाम, पर शाम को जब वह पामाबीच की पैंट पहनकर लखी दरवा$जे पर घूमता था, तब उसको कोई हज्जाम नहीं कह सकता था। शिकारपुर के कई कालेज-छात्र इसकी दोस्ती चाहते, क्योंकि सिन्ध के सब कालेजों की तरह-तरह की पत्रिकाएँ उसकी दुकान में पढऩे को मिलती और उर्दू, हिंदी पत्रिकाएँ भी इसके पास आती थीं, अशोक कुमार और पृथ्वीराज के फोटो सैलून में लगे थे। खानू फिल्मों और साहित्य पर वाद-विवाद करता तो जान पड़ता, वह कोई बड़ा जानकार है। खानू की दुकान में फैंसी पाउडर और तेल भी रखे रहते थे, जिन पर मस्त होकर स्कूल के छात्र खानू से जान-पहचान बढ़ाते थे। खानू की मित्रता कालेज के लडक़ों से या अनपढ़ हिन्दू सेठों या मुसलमान ज़मींदारों के लडक़ों से होती थी जो पैंट पहनते और फ़िल्मी अदाकारों पर वाद-विवाद करते, या सैर और शिकार के शौकीन थे। दो-तीन साम्यवादी भी उसके सैलून में आते थे। लेकिन वे आपस में बातें करते थे और खानू की ओर ध्यान नहीं देते थे। कल भी वे बाल कटवाने आये थे। आपस में बोल रहे थे—सिन्ध तो सिन्धियों का है। आज हमारी सिंधी कौम की अलग हस्ती ख़तरे में है। ये पंजाबी, बिहारी, गुज़राती, हमारी संस्कृति भाषा, व्यापार और ज़मीन हमसे छीन लेना चाहते हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम सब इस बीमारी को अभी खतम कर दें। सिन्ध की कांगे्रस पर गुज़राती लोगों का नियन्त्रण है और मुस्लिम लीग वाले तो बिहारियों और पंजाबियों के लिए लंगर खोलकर बैठे हैं, सिंधी लोग भले ही भूखों मर जाएँ, उनमें से जो एक हिन्दू था, उसने कहा—मैं उदयपुर या जोधपुर में हिन्दुओं के साथ रहने से तो यहाँ सिन्ध में मुसलमान भाइयों के हाथों मरना पसन्द करूँगा। इस देश के साथ मेरी आत्मा जुड़ी हुई है। यहाँ के रास्ते, बाग़-बगीचे और लोग मेरी आत्मा में रच गये हैं। मेरी हस्ती सिन्ध के बिना मुर्दे के बराबर है।
खानू ने इससे पहले इतना विशाल हृदय रखने वाला और कोई हिन्दू नहीं देखा था।
इसलिए वह उसकी बातें बड़ी तन्मयता से सुन रहा था। उसने जोश में आकर बोला
था—‘जय सिन्ध’। पहले खानू ने ‘जय हिन्द’ सुना था तब उसको इसमें हिन्दूपन की
गन्ध आयी थी और खानू ऐसा महसूस करता था मानो किसी ने उसको रेजर से काट दिया
हो। लेकिन ‘जय सिन्ध’ सुनते ही उसने ऐसा महसूस किया जैसे किसी ने गुलाबजल
का फुहारा मार दिया हो और जिसने उसका दिमाग इत्तर से भर दिया हो। खानू अपने हिन्दू दोस्तों के साथ शाही बाग में भगत (लोकगीत, नृत्य, नाट्य का संगम) सुनने को जाता था, और जब महात कान पर हाथ रखकर शाह लतीफ की कविता गाता—‘थदो नसाईज थर जी, मिटी मुइअे मथां, जे पोयों थे पसाह, तबि निजादू मढ़ मतीर में।’ (अगर मैं मर जाऊँ तो मेरी लाश मेरे देश भली ले जाना) तब विस्मय से भरा ऐसा वातावरण पैदा हो जाता कि खानू का दिल चाहता कि वह वहीं मर जाएे। इसी तरह इस विशाल और शीतलता देने वाले बरगद वृक्ष के पत्ते फडफ़ड़ाते रहें। उसकी क़ब्र यहीं बने और हमेशा उसकी कब्र पर वे पत्ते झरते रहें और शाही बाग़ की ठंडी हवा उसकी कब्र को सहलाती रहे। और जब-जब भगत गाये तो उसकी लहराती आवाज़ और मोगरे की खुशबी उसकी रूह को गुदगुदाती रहे और वह क़ब्र में भी गाता रहे, लहराता रहे, और अगर फरिश्ते उसको स्वर्ग में ले जाएँ तो वह वहाँ से भी दामन छुड़ाकर भाग आये और यहाँ आकर भगत की आवाज़ में रम जाएे और मोगरे की बन्ध से छेड़खानी करे, ऐसे ज$ज्बात न केवल खानू के दिल में उभरते थे, पर सब हिन्दू-मुसलमान सुनने वालों के दिलों पर यही गुज़रती थी...ये हिन्दू सिन्ध छोड़ जाएँगे! कैसे ये लोग ‘मारुई’ का मुसक छोड़ेंगे? और कौन उनको वहाँ शाह लतीफ़ की कविता सुनाएगा। पर खानू ने जो गीत रेडियो पर सुने थे, उनसे उसको घृणा हुई थी और उसने स्टेशन बदल दिया था, जैसे वह भूतों की बोली हो। दूसरी भाषा में हमें वह रस कैसे मिलेगा। जिन भाषाओं से बाजरे की सूखी रोटी की गन्ध आती हो, उनमें हम गेहूँ खाने वालों को कैसे रस आएगा? हम सिन्ध शाह की कविता पर जान देने वाले सिन्ध नदी पर जीने वाले, सिन्ध से बाहर जाकर कैसे जीवन बिताएँगे? खानू को कई ऐसी, ज़िन्दगी में बुनी हुई स्थितियाँ नज़र आयीं, जिनमें आम हिन्दू और मुसलमान आपस में ताने-बाने की तरह जुड़े हुए थे और जिनमें सिन्ध की एक सभ्यता, एक राष्ट्रीयता झलकती थी। खानू सिन्ध से चले जाने के बारे में सोचता रहा, उसका दिमाग़ बाल काटने वाली मशीन की तरह काम करता था।
शाम को जब खानू दुकान बन्द करके घर जा रहा था, तो उसने देखा, लोगों और
सामान से भरी हुई बग्घियाँ रेलवे स्टेशन को लगातार जा रही थीं। उनमें ऐसे
लोग भी थे जो अपने पैदाइशी वतन को छोडक़र हमेशा के लिए जा रहे थे। दूर—जहाँ
पर न शाह लतीफ़ था, न सामी था, न साधुबेला, न जिन्दा पीर, न भगत, न लोगों का
दंगल, न बारहवीं का मेला था, न जहाँ चौदहवीं का राग होता था। दूर एक अनजाने
देश में वे लोग जा रहे हैं, जहाँ की रीत-रसम, भेस और भाषा, वह नहीं जानते
थे। दूसरे दिन सुबह खानू अपने घर के दरवा$जे पर खड़ा दातून कर रहा था तो गली में किसी ने हाँक मारी...‘पलो मछी-पलो मछी’ (सिन्ध नदी में पैदा होनेवाली मछली)। खानू की औरत ने घर से बाहर आकर मछली वाली को रोका और मछली माँगने लगी, मुझे आधा पला चाहिए—खानू की औरत ने कहा। इतने में साथ वाले घर से पेसूराम की माँ बाहर निकली और खानू की औरत से कहने लगी—बहन जीबल, पूरा पला ले लो। आधा मैं ले लूँगी। और दोनों ने पूरा पला (मछली) लेकर आधा-आधा कर लिया। तब पेसूराम की माँ ने कहा—बहन जीबल, सुनते हैं आपस की घिरना (घृणा) बहुत बढ़ गयी है, मुसलमान दंगा करने वाले हैं, ऐसा हुआ तो मैं तुम्हारे पास आकर रहूँगी। खानू वहाँ दातून कर रहा था; उसने मजाक करते हुए पेसूराम की माँ से कहा—‘‘मैं तो मुस्लिम लीगी हूँ और जिन्ना टोपी पहनता हूँ, तुम्हें तो मुझसे ही डरना चाहिए।’’
‘‘नहीं भया, क्या कहते हो!’’ पेसूराम की माँ ने सर हिलाते और नथ को झूलाते
कहा—‘‘आप लाख लीगी हो जाओ, हमारे लिए तो वही खानू भाई हो। हमको आप कैसे
मारेंगे? आप ही तो कहते हैं—पड़ोसी तो माता-पिता, बहन-भाई होते हैं। आप ईद
पर हमें फिरनियाँ देेते हैं, और शीतला के समय हमारे साथ मीठी रोटी खाते
हैं, फिर इसका लिहाज भी नहीं होगा? अगर फिर भी आपके हाथों से मरूँगी तो आप
पर कुर्बान हो जाऊँगी।’’ फिर पेसूराम की माँ ने एक कहावत सुना दी, ‘मर मार
नन्ढा भादड़ा सिसी अ दीदा लत’ (मार लो मेरे छोटे भाई, सर काट लो)। यह कहावत
माँ, भाई-बहन की लड़ाई होते समय कही जाती है।
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