1
नवल और विमल दोनों बात करते
हुए टहल रहे थे। विमल ने कहा-
‘‘साहित्य-सेवा भी एक व्यसन है।’’
‘‘नहीं मित्र! यह तो विश्व भर की एक मौन सेवा-समिति का सदस्य होना
है।’’
‘‘अच्छा तो फिर बताओ, तुमको क्या भला लगता है? कैसा साहित्य रुचता
है?’’
‘‘अतीत और करुणा का जो अंश साहित्य में हो, वह मेरे हृदय को आकर्षित
करता है।’’
नवल की गम्भीर हँसी कुछ तरल हो गयी। उन्होंने कहा-‘‘इससे विशेष और हम
भारतीयों के पास धरा क्या है! स्तुत्य अतीत की घोषणा और वर्तमान की
करुणा, इसी का गान हमें आता है। बस, यह भी एक भाँग-गाँजे की तरह नशा
है।’’ विमल का हृदय स्तब्ध हो गया। चिर प्रसन्न-वदन मित्र को अपनी
भावना पर इतना कठोर आघात करते हुए कभी भी उसने नहीं देखा था। वह कुछ
विरक्त हो गया। मित्र ने कहा-‘‘कहाँ चलोगे?’’ उसने कहा-‘‘चलो, मैं
थोड़ा घूम कर गंगा-तट पर मिलूँगा।’’ नवल भी एक ओर चला गया।
2
चिन्ता में मग्न विमल एक ओर
चला। नगर के एक सूने मुहल्ले की ओर जा निकला। एक टूटी चारपाई अपने
फूटे झिलँगे में लिपटी पड़ी है। उसी के बगल में दीन कुटी फूस से ढँकी
हुई, अपना दरिद्र मुख भिक्षा के लिए खोले हुए बैठी है। दो-एक ढाँकी
और हथौड़े, पानी की प्याली, कूची, दो काले शिलाखण्ड परिचारक की तरह
उस दीन कुटी को घेरे पड़े हैं। किसी को न देखकर एक शिलाखण्ड पर न
जाने किसके कहने से विमल बैठ गया। यह चुपचाप था। विदित हुआ कि दूसरा
पत्थर कुछ धीरे-धीरे कह रहा है। वह सुनने लगा-
‘‘मैं अपने सुखद शैल में संलग्न था। शिल्पी! तूने मुझे क्यों ला
पटका? यहाँ तो मानव की हिंसा का गर्जन मेरे कठोर वक्ष:स्थल का भेदन
कर रहा है। मैं तेरे प्रलोभन में पड़ कर यहाँ चला आया था, कुछ तेरे
बाहुबल से नहीं, क्योंकि मेरी प्रबल कामना थी कि मैं एक सुन्दर
मूर्ति में परिणत हो जाऊँ। उसके लिए अपने वक्ष:स्थल को क्षत-विक्षत
कराने को प्रस्तुत था। तेरी टाँकी से हृदय चिराने में प्रसन्न था! कि
कभी मेरी इस सहनशीलता का पुरस्कार, सराहना के रूप में मिलेगा और मेरी
मौन मूर्ति अनन्तकाल तक उस सराहना को चुपचाप गर्व से स्वीकार करती
रहेगी। किन्तु निष्ठुर! तूने अपने द्वार पर मुझे फूटे हुए ठीकरे की
तरह ला पटका। अब मैं यहीं पर पड़ा-पड़ा कब तक अपने भविष्य की गणना
करूँगा?’’
पत्थर की करुणामयी पुकार से विमल को क्रोध का सञ्चार हुआ। और वास्तव
में इस पुकार में अतीत और करुणा दोनों का मिश्रण था, जो कि उसके
चित्त का सरल विनोद था। विमल भावप्रवण होकर रोष से गर्जन करता हुआ
पत्थर की ओर से अनुरोध करने को शिल्पी के दरिद्र कुटीर में घुस पड़ा।
‘‘क्यों जी, तुमने इस पत्थर को कितने दिनों से यहाँ ला रक्खा है? भला
वह भी अपने मन में क्या समझता होगा? सुस्त होकर पड़े हो, उसकी कोई
सुन्दर मूर्ति क्यों न बना डाली?’’ विमल ने रुक्ष स्वर में कहा।
पुरानी गुदड़ी में ढँकी हुई जीर्ण-शीर्ण मूर्ति खाँसी से कँप कर
बोली-‘‘बाबू जी! आपने तो मुझे कोई आज्ञा नहीं दी थी।’’
‘‘अजी तुम बना लिये होते, फिर कोई-न-कोई तो इसे ले लेता। भला देखो तो
यह पत्थर कितने दिनों से पड़ा तुम्हारे नाम को रो रहा है।’’-विमल ने
कहा। शिल्पी ने कफ निकाल कर गला साफ करते हुए कहा-‘‘आप लोग अमीर आदमी
है। अपने कोमल श्रवणेन्द्रियों से पत्थर का रोना, लहरों का संगीत,
पवन की हँसी इत्यादि कितनी सूक्ष्म बातें सुन लेते हैं, और उसकी
पुकार में दत्तचित्त हो जाते हैं। करुणा से पुलकित होते हैं, किन्तु
क्या कभी दुखी हृदय के नीरव क्रन्दन को भी अन्तरात्मा की
श्रवणेन्द्रियों को सुनने देते हैं, जो करुणा का काल्पनिक नहीं,
किन्तु वास्तविक रूप है?’’
विमल के अतीत और करुणा-सम्बन्धी समस्त सद्भाव कठोर कर्मण्यता का
आवाहन करने के लिए उसी से विद्रोह करने लगे। वह स्तब्ध होकर उसी मलिन
भूमि पर बैठ गया।
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