क्षितिज में नील जलधि और व्योम का चुम्बन हो रहा है। शान्त प्रदेश
में शोभा की लहरियाँ उठ रही है। गोधूली का करुण प्रतिबिम्ब, बेला की
बालुकामयी भूमि पर दिगन्त की तीक्षा का आवाहन कर रहा है।
नारिकेल के निभृत कुञ्जों में समुद्र का समीर अपना नीड़ खोज रहा था।
सूर्य लज्जा या क्रोध से नहीं, अनुराग से लाल, किरणों से शून्य,
अनन्त रसनिधि में डूबना चाहता है। लहरियाँ हट जाती हैं। अभी डूबने का
समय नहीं है, खेल चल रहा है।
सुदर्शन प्रकृति के उस महा अभिनय को चुपचाप देख रहा है। इस दृश्य में
सौन्दर्य का करुण संगीत था। कला का कोमल चित्र नील-धवल लहरों में
बनता-बिगड़ता था। सुदर्शन ने अनुभव किया कि लहरों में सौर-जगत् झोंके
खा रहा है। वह उसे नित्य देखने आता; परन्तु राजकुमार के वेष में
नहीं। उसके वैभव के उपकरण दूर रहते। वह अकेला साधारण मनुष्य के समान
इसे देखता, निरीह छात्र के सदृश इस गुरु दृश्य से कुछ अध्ययन करता।
सौरभ के समान चेतन परमाणुओं से उसका मस्तक भर उठता। वह अपने
राजमन्दिर को लौट जाता।
सुदर्शन बैठा था किसी की प्रतीक्षा में। उसे न देखते हुए, मछली
फँसाने का जाल लिये, एक धीवर-कुमारी समुद्र-तट के कगारों पर चढ़ रही
थी, जैसे पंख फैलाये तितली। नील भ्रमरी-सी उसकी दृष्टि एक क्षण के
लिए कहीं नहीं ठहरती थी। श्याम-सलोनी गोधूली-सी वह सुन्दरी सिकता में
अपने पद-चिह्न छोड़ती हुई चली जा रही थी।
राजकुमार की दृष्टि उधर फिरी। सायंकाल का समुद्र-तट उसकी आँखों में
दृश्य के उस पार की वस्तुओं का रेखा-चित्र खींच रहा था। जैसे; वह
जिसको नहीं जानता था, उसको कुछ-कुछ समझने लगा हो, और वही समझ, वही
चेतना एक रूप रखकर सामने आ गई हो। उसने पुकारा-‘‘सुन्दरी!’’
जाती हुई सुन्दरी धीवर-बाला लौट आई। उसके अधरों में मुस्कान, आँखों
में क्रीड़ा और कपोलों पर यौवन की आभा खेल रही थी, जैसे नील मेघ-खण्ड
के भीतर स्वर्ण-किरण अरुण का उदय।
धीवर-बाला आकर खड़ी हो गई। बोली-‘‘मुझे किसने पुकारा?’’
‘‘मैंने।’’
‘‘क्या कहकर पुकारा?’’
‘‘सुन्दरी!’’
‘‘क्यों, मुझमें क्या सौन्दर्य है? और है भी कुछ, तो क्या तुमसे
विशेष?’’
‘‘हाँ, मैं आज तक किसी को सुन्दरी कहकर नहीं पुकार सका था, क्योंकि
यह सौन्दर्य-विवेचना मुझमें अब तक नहीं थी।’’
‘‘आज अकस्मात् यह सौन्दर्य-विवेक तुम्हारे हृदय में कहाँ से आया?’’
‘‘तुम्हें देखकर मेरी सोई हुई सौन्दर्य-तृष्णा जाग गई।’’
‘‘परन्तु भाषा में जिसे सौन्दर्य कहते हैं, वह तो तुममें पूर्ण है।’’
‘‘मैं यह नहीं मानता, क्योंकि फिर सब मुझी को चाहते, सब मेरे पीछे
बावले बने घूमते। यह तो नहीं हुआ। मैं राजकुमार हूँ; मेरे वैभव का
प्रभाव चाहे सौन्दर्य का सृजन कर देता हो, पर मैं उसका स्वागत नहीं
करता। उस प्रेम-निमन्त्रण में वास्तविकता कुछ नहीं।’’
‘‘हाँ, तो तुम राजकुमार हो! इसी से तुम्हारा सौन्दर्य सापेक्ष है।’’
‘‘तुम कौन हो?’’
‘‘धीवर-बालिका।’’
‘‘क्या करती हो?’’
‘‘मछली फँसाती हूँ।’’-कहकर उसने जाल को लहरा दिया।
‘‘जब इस अनन्त एकान्त में लहरियों के मिस प्रकृति अपनी हँसी का चित्र
दत्तचित्त होकर बना रही, तब तुम उसके अञ्चल में ऐसा निष्ठुर काम करती
हो?’’
‘‘निष्ठुर है तो, पर मैं विवश हूँ। हमारे द्वीप के राजकुमार का परिणय
होने वाला है। उसी उत्सव के लिए सुनहली मछलियाँ फँसाती हूँ। ऐसी ही
आज्ञा है।’’
‘‘परन्तु वह ब्याह तो होगा नहीं।’’
‘‘तुम कौन हो?’’
‘‘मैं भी राजकुमार हूँ। राजकुमारों को अपने चक्र की बात विदित रहती
है, इसलिए कहता हूँ।’’
धीवर-बाला ने एक बार सुदर्शन
के मुख की ओर देखा, फिर कहा-
‘‘तब तो मैं इन निरीह जीवों को छोड़ देती हूँ।’’
सुदर्शन ने कुतूहल से देखा,
बालिका ने अपने अञ्चल से सुनहली मछलियों की भरी हुई मूठ समुद्र में
बिखेर दी; जैसे जल-बालिका वरुण के चरण में स्वर्ण-सुमनों का उपहार दे
रही हो। सुदर्शन ने प्रगल्भ होकर उसका हाथ पकड़ लिया, और कहा-
‘‘यदि मैंने झूठ कहा, तो?’’
‘‘तो कल फिर जाल डालूँगी।’’
‘‘तुम केवल सुन्दरी ही नहीं, सरल भी हो।’’
‘‘और तुम वञ्चक हो।’’-कहकर धीवर-बाला ने एक निश्वास ली, और सन्ध्या
के समय अपना मुख फेर लिया। उसकी अलकावली जाल के साथ मिलकर निशीथ का
नवीन अध्याय खोलने लगी। सुदर्शन सिर नीचा करके कुछ सोचने लगा।
धीवर-बालिका चली गई। एक मौन अन्धकार टहलने लगा। कुछ काल के अनन्तर दो
व्यक्ति एक अश्व लिये आये। सुदर्शन से बोले-‘‘श्रीमन्, विलम्ब हुआ।
बहुत-से निमन्त्रित लोग आ रहे हैं। महाराज ने आपको स्मरण किया है।’’
‘‘मेरा यहाँ पर कुछ खो गया है, उसे ढूँढ़ लूँगा, तब लौटूँगा।’’
‘‘श्रीमन्, रात्रि समीप है।’’
‘‘कुछ चिन्ता नहीं, चन्द्रोदय होगा।’’
‘‘हम लोगों को क्या आज्ञा है?’’
‘‘जाओ।
सब लोग गये। राजकुमार सुदर्शन बैठा रहा। चाँदी का थाल लिये रजनी
समुद्र से कुछ अमृत-भिक्षा लेने आई। उदार सिन्धु देने के लिए उमड़
उठा। लहरियाँ सुदर्शन के पैर चूमने लगीं। उसने देखा, दिगन्त-विस्तृत
जलराशि पर कोई गोल और धवल पाल उड़ाता हुआ अपनी सुन्दर तरणी लिए हुए आ
रहा है। उसका विषय-शून्य हृदय व्याकुल हो उठा। उत्कट
प्रतीक्षा-दिगन्त-गामिनी अभिलाषा-उसकी जन्मान्तर की स्मृति बनकर उस
निर्जन प्रकृति में रमणीयता की-समुद्र-गर्जन में संगीत की सृष्टि
करने लगी। धीरे-धीरे उसके कानों में एक कोमल अस्फुट नाद गूँजने लगा।
उस दूरागत स्वर्गीय संगीत ने उसे अभिभूत कर दिया। नक्षत्र-मालिनी
प्रकृति हीरे-नीलम से जड़ी पुतली के समान उसकी आँखों का खेल बन गई।
सुदर्शन ने देखा, सब सुन्दर है। आज तक जो प्रकृति उदास चित्र बनकर
सामने आती थी, वह उसे हँसती हुई मोहनी और मधुर सौन्दर्य से ओतप्रोत
दिखाई देने लगी। अपने में और सबमें फैली हुई उस सौन्दर्य की विभूति
को देखकर सुदर्शन की तन्मयता उत्कण्ठा में बदल गई। उसे उन्माद हो
चला। इच्छा होती थी कि वह समुद्र बन जाय। उसकी उद्वेलित लहरों से
चन्द्रमा की किरणें खेलें और वह हँसा करे। इतने में ध्यान आया उस
धीवर-बालिका का। इच्छा हुई कि वह भी वरुण-कन्या सी चन्द्रकिरणों से
लिपटी हुई उसके विशाल वक्षस्थल में विहार करे। उसकी आँखों में गोल
धवल पालवाली नाव समा गई, कानों में अस्फुट संगीत भर गया। सुदर्शन
उन्मत्त था। कुछ पद-शब्द सुनाई पड़े। उसे ध्यान आया कि मुझे लौटा ले
जाने के लिए कुछ लोग आ रहे हैं। वह चञ्चल हो उठा, फेनिल जलधि में
फाँद पड़ा। लहरों में तैर चला।
बेला से दूर-चारों ओर जल-आँखों में वही धवल पाल, कानों में अस्फुट
संगीत। सुदर्शन तैरते-तैरते थक चला था। संगीत और वंशी समीप जा रही
थी। एक छोटी मछली पकड़ने की नाव आ रही थी। पास जाने पर देखा,
धीवर-बाला वंशी बजा रही है और नाव अपने मन से चल रही है।
धीवर-बाला ने कहा-आओगे?
लहरों को चीरते हुए सुदर्शन ने पूछा-कहाँ ले चलोगी?
पृथ्वी से दूर जल-राज्य में; जहाँ कठोरता नहीं; केवल शीतल, कोमल और
तरल आलिंगन है; प्रवञ्चना नहीं, सीधा आत्मविश्वास है; वैभव नहीं, सरल
सौन्दर्य है।
धीरव-बाला ने हाथ पकड़कर सुदर्शन को नाव पर खींच लिया। दोनों हँसने
लगे। चन्द्रमा और जलनिधि भी।
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