देव-मन्दिर के सिंहद्वार से कुछ दूर हट कर वह छोटी-सी दुकान थी।
सुपारी के घने कुञ्ज के नीचे एक मैले कपड़े पर सूखी हुई धार में
तीन-चार केले, चार कच्चे पपीते, दो हरे नारियल और छ: अण्डे थे।
मन्दिर से दर्शन करके लौटते हुए भक्त लोग दोनों पट्टी में सजी हुई
हरी-भरी दुकानों को देखकर उसकी ओर ध्यान देने की आवश्यकता ही नहीं
समझते थे।
अर्द्ध-नग्न वृद्धा
दूकानवाली भी किसी को अपनी वस्तु लेने के लिए नहीं बुलाती थी। वह
चुपचाप अपने केलों और पपीतों को देख लेती। मध्याह्न बीत चला। उसकी
कोई वस्तु न बिकी। मुँह की ही नहीं, उसके शरीर पर की भी झुर्रियाँ
रूखी होकर ऐंठी जा रही थीं। मूल्य देकर भात-दाल की हाँडिय़ाँ लिये लोग
चले जा रहे थे। मन्दिर में भगवान् के विश्राम का समय हो गया था। उन
हाँड़ियों को देखकर उसकी भूखी आँखों में लालच की चमक बढ़ी, किन्तु
पैसे कहाँ थे? आज तीसरा दिन था, उसे दो-एक केले खाकर बिताते हुए।
उसने एक बार भूख से भगवान् की भेंट कराकर क्षण-भर के लिए विश्राम
पाया; किन्तु भूख की वह पतली लहर अभी दबाने में पूरी तरह समर्थ न हो
सकी थी, कि राधे आकर उसे गुरेरने लगा। उसने भरपेट ताड़ी पी ली थी।
आँखे लाल, मुँह से बात करने में झाग निकल रहा था। हाथ नचाकर वह कहने
लगा-
‘‘सब लोग जाकर खा-पीकर सो रहे हैं। तू यहाँ बैठी हुई देवता का दर्शन
कर रही है। अच्छा, तो आज भी कुछ खाने को नहीं?’’
‘‘बेटा! एक पैसे का भी नहीं बिका, क्या करूँ? अरे, तो भी तू कितनी
ताड़ी पी आया है।’’
‘‘वह सामने तेरे ठाकुर दिखाई पड़ रहे हैं। तू भी पीकर देख न!’’
उस समय सिंहद्वार के सामने की विस्तृत भूमि निर्जन हो रही थी। केवल
जलती हुई धूप उस पर किलोल कर रही थी। बाजार बन्द था। राधे ने देखा,
दो-चार कौए काँव-काँव करते हुए सामने नारियल-कुँज की हरियाली में घुस
रहे थे। उसे अपना ताड़ीखाना स्मरण हो आया। उसने अण्डों को बटोर लिया।
बुढिय़ा ‘हाँ, हाँ’ करती ही रह गयी, वह चला गया। दुकानवाली ने अँगूठे
और तर्जनी से दोनों आँखों का कीचड़ साफ किया, और फिर मिट्टी के पात्र
से जल लेकर मुँह धोया।
बहुत सोच-विचार कर अधिक उतरा हुआ एक केला उसने छीलकर अपनी अञ्जलि में
रख उसे मन्दिर की ओर नैवेद्य लगाने के लिए बढ़ाकर आँख बन्द कर लीं।
भगवान् ने उस अछूत का नैवेद्य ग्रहण किया या नहीं, कौन जाने; किन्तु
बुढिय़ा ने उसे प्रसाद समझकर ही ग्रहण किया।
अपनी दुकान झोली में समेटे हुए, जिस कुँज में कौए घुसे थे, उसी में
वह भी घुसी। पुआल से छायी हुई टट्टरों की झोपड़ी में विश्राम लिया।
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उसकी स्थावर सम्पत्ति में वही नारियल का कुञ्ज, चार पेड़ पपीते और
छोटी-सी पोखरी के किनारे पर के कुछ केले के वृक्ष थे। उसकी पोखरी में
एक छोटा-सा झुण्ड बत्तखों का भी था, जो अण्डे देकर बुढिय़ा के आय में
वृद्धि करता। राधे अत्यन्त मद्यप था। उसकी स्त्री ने उसे बहुत दिन
हुए छोड़ दिया था।
बुढिय़ा को भगवान् का भरोसा था, उसी देव-मन्दिर के भगवान् का, जिसमें
वह कभी नहीं जाने पायी थी!
अभी वह विश्राम की झपकी ही लेती थी कि महन्तजी के जमादार कुँज ने
कड़े स्वर में पुकारा-‘‘राधे, अरे रधवा, बोलता क्यों नहीं रे!’’
बुढिय़ा ने आकर हाथ जोड़ते हुए कहा-‘‘क्या है महाराज?’’
‘‘सुना है कि कल तेरा लडक़ा कुछ अछूतों के साथ मन्दिर में घुसकर दर्शन
करने जायगा?’’
‘‘नहीं, नहीं, कौन कहता है महाराज! वह शराबी, भला मन्दिर में उसे कब
से भक्ति हुई है?’’
‘‘नहीं, मैं तुझसे कहे देता हूँ, अपनी खोपड़ी सँभालकर रखने के लिए
उसे समझा देना। नहीं तो तेरी और उसकी; दोनों की दुर्दशा हो जायगी।’’
राधे ने पीछे से आते हुए क्रूर स्वर में कहा-‘‘जाऊँगा, सब तेरे बाप
के भगवान् हैं! तू होता कौन है रे!’’
‘‘अरे, चुप रे राधे! ऐसा भी कोई कहता है रे। अरे, तू जायगा, मन्दिर
में? भगवान् का कोप कैसे रोकेगा, रे?’’ बुढिय़ा गिड़गिड़ा कर कहने
लगी। कुँजबिहारी जमादार ने राधे की लाठी देखते ही ढीली बोल दी। उसने
कहा-‘‘जाना राधे कल, देखा जायगा।’’-जमादार धीरे-धीरे खिसकने लगा।
‘‘अकेले-अकेले बैठकर भोग-प्रसाद खाते-खाते बच्चू लोगों को चरबी चढ़
गयी है। दरशन नहीं रे-तेरा भात छीनकर खाऊँगा। देखूँगा, कौन रोकता
है।’’-राधे गुर्राने लगा। कुञ्ज तो चला गया, बुढिय़ा ने कहा-‘‘राधे
बेटा, आज तक तूने कौन-से अच्छे काम किये हैं, जिनके बल पर मन्दिर में
जाने का साहस करता है? ना बेटा, यह काम कभी मत करना। अरे, ऐसा भी कोई
करता है।’’
‘‘तूने भात बनाया है आज?’’
‘‘नहीं बेटा! आज तीन दिन से पैसे नहीं मिले। चावल है नहीं।’’
‘‘इन मन्दिर वालों ने अपनी जूठन भी तुझे दी?’’
‘‘मैं क्यों लेती, उन्होंने दी भी नहीं।’’
‘‘तब भी तू कहती है कि मन्दिर में हम लोग न जायँ! जायँगे; सब अछूत
जायँगे।’’
‘‘न बेटा, किसी ने तुझको बहका दिया है। भगवान् के पवित्र मन्दिर में
हम लोग आज तक कभी नहीं गये। वहाँ जाने के लिए तपस्या करनी चाहिए।’’
‘‘हम लोग तो जायँगे।’’
‘‘ना, ऐसा कभी न होगा।’’
‘‘होगा, फिर होगा। जाता हूँ ताड़ीखाने, वहीं पर सबकी राय से कल क्या
होगा, यह देखना।’’-राधे ऐंठता हुआ चला गया। बुढिय़ा एकटक मन्दिर की ओर
विचारने लगी-
‘‘भगवान्, क्या होनेवाला है!’’
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दूसरे दिन मन्दिर के द्वार पर भारी जमघट था। आस्तिक भक्तों का झुण्ड
अपवित्रता से भगवान् की रक्षा करने के लिए दृढ़ होकर खड़ा था। उधर
सैकड़ों अछूतों के साथ राधे मन्दिर में प्रवेश करने के लिए तत्पर था।
लट्ठ चले, सिर फूटे। राधे आगे बढ़ ही रहा था। कुँजबिहारी ने बगल से
घूमकर राधे के सिर पर करारी चोट दी। वह लहू से लथपथ वहीं लोटने लगा।
प्रवेशार्थी भागे। उनका सरदार गिर गया था। पुलिस भी पहुँच गयी थी।
राधे के अन्तरंग मित्र गिनती में 10-12 थे। वे ही रह गये।
क्षण भर के लिए वहाँ शिथिलता छा गयी थी। सहसा बुढिय़ा भीड़ चीरकर वहीं
पहुँच गयी। उसने राधे को रक्त से सना हुआ देखा। उसकी आँखे लहू से भर
गयीं। उसने कहा-‘‘राधे की लोथ मन्दिर में जायगी।’’ वह अपने निर्बल
हाथों से राधे को उठाने लगी।।
उसके साथी बढ़े। मन्दिर का दल भी हुँकार करने लगा; किन्तु बुढिय़ा की
आँखों के सामने ठहरने का किसी को साहस न रहा। वह आगे बढ़ी; पर
सिंहद्वार की देहली पर जाकर सहसा रुक गयी। उसकी आँखों की पुतली में
जो मूर्ति-भञ्जक छायाचित्र था, वही गलकर बहने लगा।
राधे का शव देहली के समीप रख दिया गया। बुढिय़ा ने देहली पर सिर
झुकाया; पर वह सिर उठा न सकी। मन्दिर में घुसनेवाले अछूतों के आगे
बुढिय़ा विराम-चिह्न-सी पड़ी थी।
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