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अविस्मरणीय कविताएँ

भवानीप्रसाद मिश्र

 

दरिंदा |   चार कौए उर्फ चार हौए | जाहिल मेरे बाने | आराम से भाई ज़िन्दगी | बेदर्द

दरिंदा
 
 दरिंदा
 आदमी की आवाज़ में
 बोला
 
 स्वागत में मैंने
 अपना दरवाज़ा
 खोला
 
 और दरवाज़ा
 खोलते ही समझा
 कि देर हो गई
 
 मानवता
 थोडी बहुत जितनी भी थी
 ढेर हो गई !
 


  चार कौए उर्फ चार हौए
 

 बहुत नहीं थे सिर्फ चार कौए थे काले
 उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले
 उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खायें और गायें
 वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनायें ।
 
 कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया में
 दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
 ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये
 इनके नौकर चील, गरूड़ और बाज हो गये ।
 
 हंस मोर चातक गौरैयें किस गिनती में
 हाथ बांधकर खड़े हो गए सब विनती में
 हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें
 पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गायॆं ।
 
 बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
 खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को
 
 कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में
 बड़े-बड़े मनसूबे आये उनके जी में
 उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
 उड़ने वाले सिर्फ रह गये बैठे ठाले ।
 
 आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
 यह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है
 उत्सुकता जग जाये तो मेरे घर आ जाना
 लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना ।
 
जाहिल मेरे बाने

मैं असभ्य हूँ क्योंकि खुले नंगे पांवों चलता हूँ
मैं असभ्य हूँ क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूँ
मैं असभ्य हूँ क्योंकि चीरकर धरती धान उगाता हूँ
मैं असभ्य हूँ क्योंकि ढोल पर बहुत जोर से गाता हूँ

आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर
आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर
आप सभ्य हैं क्योंकि धान से भरी आपकी कोठी
आप सभ्य हैं क्योंकि ज़ोर से पढ़ पाते हैं पोथी
आप सभ्य हैं क्योंकि आपके कपड़े स्वयं बने हैं
आप सभ्य हैं क्योंकि जबड़े खून सने हैं

आप बड़े चिंतित हैं मेरे पिछड़ेपन के मारे
आप सोचते हैं कि सीखता यह भी ढंग हमारे
मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने
धोती-कुरता बहुत ज़ोर से लिपटाये हूँ याने !

आराम से भाई ज़िन्दगी

आराम से भाई ज़िन्दगी
ज़रा आराम से
तेज़ी तुम्हारे प्यार की बर्दाशत नहीं होती अब
इतना कसकर किया आलिंगन
ज़रा ज़्यादा है जर्जर इस शरीर को

आराम से भाई ज़िन्दगी
ज़रा आराम से
तुम्हारे साथ-साथ दौड़ता नहीं फिर सकता अब मैं
ऊँची-नीची घाटियों पहाड़ियों तो क्या
महल-अटारियों पर भी

न रात-भर नौका विहार न खुलकर बात-भर हँसना
बतिया सकता हूँ हौले-हल्के बिल्कुल ही पास बैठकर

और तुम चाहो तो बहला सकती हो मुझे
जब तक अँधेरा है तब तक सब्ज़ बाग दिखलाकर

जो हो जाएँगे राख
छूकर सवेरे की किरन

सुबह हुए जाना है मुझे
आराम से भाई ज़िन्दगी
ज़रा आराम से ।

बेदर्द

मैंने निचोड़कर दर्द
मन को
मानो सूखने के ख्याल से
रस्सी पर डाल दिया है

और मन
सूख रहा है

बचा-खुचा दर्द
जब उड़ जायेगा
तब फिर पहन लूँगा मैं उसे

माँग जो रहा है मेरा
बेवकूफ तन
बिना दर्द का मन !

(शीर्ष पर वापस)

 

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