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प्रयोगशाला में
 

अमूमन दुपहर के बाद वाले घण्टों में ही
प्रैक्टिकल की कक्षायें लगती हैं
जब दिन बह रहा होता है अनमनी मटमैली मंथर
नदी सा

लेकिन प्रयोगशाला में घुसते ही
ओज़ोन, बिजली और स्प्रिटलैम्प की सुगंध में
नदारद हो जाती हैं नींद ऊब जमुहाई
और शरारत भर जाती है बॉडी में -
कई मौलिक आविष्कार ऐसे ही शरारतन हो गये...
लेंस, चुम्बक, मैग्नेटोमीटर और तमाम दूसरे उपकरण
बाहर फैली बेकारी की छाया भी नहीं पड़ने देते
जब तक चलता है प्रैक्टिकल क्लास

थोड़ा-थोड़ा घर भी घुस आता है प्रयोगशाला में
कहीं कोने में फ्लास्क में उबलती रहती है
अध्यापकों की चाय, और वे लगते हैं ज्यादा निकट
कभी कभी अचानक ही प्रकट होते हैं
निकिल कोबाल्ट लोहे के हरे नीले लाल गाढ़े रंग
माँ की तहा कर धरी हुई साड़ियों की याद दिलाते,
कभी अमरूद-सी कभी खटमलों-सी फार्मेल्डिहाइड
की गंध
भर देती पूरे वातावरण को, तीखी गैस
आँखों में पानी भर आता
और ऐसे में ही कभी-कभी आँखें उलझ जातीं और फिर
उलझती चलीं जातीं जीवन भर...

प्रयोगशालाएँ यों भी अच्छी लगतीं कि उनके बाद
फिर और कक्षाएँ नहीं होती थीं -
सामने फैला खुला मैदान खेलों का
प्रयोगशाला का बड़ा-सा हॉल उनकी भी आज़ादी का
आंगन था
जिन्हें कॉलेज के बाद
रास्ते की फिकरेबाजियों में भीगते हुए वापस घर लौटना होता था
और घर पहुँचकर फिर ख़ातून-ए-ख़ाना बन जाना होता था...

फिर भी प्रयोगशाला की याद
अक्सर सालों बाद रसोई में सूखते होठों पर
आकर फैल जाती थी अकारण मुस्कान-सी


 

लालसा
 

क्या कहूँ
बस एक लालसा है
जैसे पानी में पानी का स्वाद
जैसे गेहूँ में बाली की चुभन
जैसे मेरी आँखों में तुम,
कोई इतनी बड़ी बात नहीं
बस एक लालसा है
कि अब रहूँ तुम्हारे ही साथ

रक्त ने उठा लिया शर-चाप
त्वचा पर दौड़ता है दावानल
ज्वर जैसी कैसी
कैसी यह लालसा है !

हँसी आती है
जब तुम इसे
समझती हो आत्मा की प्यास
यह तो सीधीसाधी
यूँ ही बस एक लालसा है
जो कभी-कभी
आँखों से भी छलक पड़ती है

आना भी चाहूँ अब
तो कुछ मिलेगा नहीं इस वक्त
निकल गई आखिरी बस भी
लिफ्ट कोई किसी को देता नहीं
अब इस जमाने में

इस अधबसी कालोनी में
बीच-बीच अब भी बचे हैं
दो चार खेत खरगोश लोमड़ी
बिजली कम आती है
कपड़े साफ़ धुलते नहीं पानी में
आकाश में तारे
आखों में स्वप्न देखे हुए
बीत गये कितने साल
देखा नहीं तुम्हें


हवा में अभी अभी आई
तुम्हारे खुले बालों की सुगंध
कोई बड़ी बात नहीं कि
मैं उड़ चलूँ इधर
और तुम भी उधर
इधर आने का
बना ही लो मन
हो न हो
इसी लिये है
है यह लालसा
उद्दीप्त
दीपक की अंतिम लौ-सी
देह और आत्मा को दीप्त करती हुई
 

 

                

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