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बेली डांसर

बमाको शहर के
खण्डहरों में मेरा जन्म हुआ
माली के प्राचीन परास्त राजकुल में ...
माँ के सूखते स्तनों से
मिला मुझे मज्जा का स्वाद,
जब गोद में ही थी मैं
सुनी मैंने मृत्यु की पहली पदचाप
क्षयग्रस्त माँ की मंद होती धड़कन में,
गोद में ही लग गई लत मुझे
जिन्दा बने रहने की

सूखी हुई घास, कटीली नागफनी और
ठुर्राई झाड़ियों की मिट्टी ने पाला पोसा मुझे
सीखा मैंने जहरीले साँपों को भून कर खाना
चट्टानों से पाया मैंने नमक
सहारा की रेत से बनी मेरी हड्डियाँ
ओ हड्डी-की-खाद के सौदागर
तुम मुझे क्यों घूरते हो इस तरह!

दास प्रथा का तो अन्त हुए
बीत गये कितने साल
कहते हैं अफ्रीका भी
अब बिल्कुल आज़ाद है
अब मुझे भी गिनती आती है
ओ पेट्रोल के सौदागर
तुम्हारी आँखों में क्यों इतनी आग है
कि हमारी दुनिया ही ख़ाक हुई जाती है
मुझे अपनी सिगरेट के धुएँ में डुबाते हुए
मेरे भाइयों से तुम्हें क्यों नहीं लगता डर !

कोई हिरनी क्या दौड़ेगी मुझसे तेज
चने-सा चबा सकती हूँ बंदूक के छर्रे
तड़ित् को तो रोज चकित करती हूँ
अपने चपल नृत्य से
दरअस्ल तुम्हें चीर सकती हूँ मैं शेरनी की तरह
फिर भी तुम
अपनी जन्मांध आँखों से
मुझे निर्वस्त्र किये जाते हो
क्या तुम्हें अपनी जिन्दगी प्यारी नहीं
ओ सभ्यताओं के सौदागर ।

कैसे, कैसे हुए तुम इतने निर्द्वन्द !
एक के बाद एक सीमा लाँघते
पृथ्वी और स्त्रियों को
करते हुए पयर्टित पद्दलित
देखते हुए मेरा निर्वस्त्र नाच
पेट के लिए पेट-का-नाच
मेरी देह की थिरकती माँसपेशियाँ
मछलियाँ हैं
जिनकी हलक में धँस गया लोहे का काँटा,
खून के कीचड़ से
भर गया है रंगमंच लथपथ
जुगुप्सा के इतने व्यंजनों के बीच
तुम्हारे सिवा और कौन हो सकता था इतना लोलुप
ओ लोहे बारूद और मृत्यु के सौदागर !

* अफ्रीकी देशों - मिश्र, सेनेगल और मोरक्को की
यात्रा (वर्ष 2005 और 2006) के समय लिखी गयी कविता।


 

ये रंग हैं क्या?

हवा के शीशों में हमने देखा कि दृश्य कैसे बदल रहे हैं
ये अक्स आता वो अक्स जाता इसी में दर्पण दहल रहे हैं
तभी तो पथरा गई हैं आँखें तभी तो सपने पिघल रहे हैं
ज़मी पे रहते तो डूब जाते अभी तो पानी पे चल रहे हैं

बहुत से रंग हैं उधेड़बुन के उन्हीं में दुनिया उलझ रही है
कहीं जो साबुन का बुलबुला है उसी को सूरज समझ रही है
बस एक गंदली-सी धूप भर है उसी में अब सब लगे हैं तपने
विचित्र भाषा का मंत्र है यह उसी को हम सब लगे हैं जपने

सभी ने जादू का जल पिया है कृतार्थ जीवन सफल किया है
तो रंग फिर क्यों दहक रहे हैं छली ने छल से भी छल किया है
समय के गिरगिट ने रंग बदला रंगों के रंग भी बदल गए हैं
गुफा से आकर पुराने अजगर तमाम इतिहास निगल गए हैं

चलो चलें तब उधर जिधर रंग हज़ारहाँ मुस्कुरा रहे हैं
ये रंग ही है मरुस्थली में जो हँस रहे खिलखिला रहे हैं
हँसी में उनकी गज़ब का जादू मरे हुओं को जिला रहे हैं
ये रंग बिजली पहन के आये सभी को झटके खिला रहे हैं

बुरा भी मानो तो क्या करोगे छुओगे बिजली का तार कैसे
बुझे पुराने वो रंग सातों, नये हैं बिल्कुल अँगार जैसे
थे पहले गिनती में सात ही रंग नये तो हैं बेशुमार जैसे
हवा जो चलती तो बहने लगती रंगों की धारा अपार जैसे

समय की गति जब कभी बदलती तभी छिटकते हैं रंग इतने
उतार में या चढ़ाव में ही उभरते जीने के ढंग इतने
ये रंग ही हैं अमूर्त की लय, पदार्थ में चेतना की रिमझिम
अपार रचना की वर्णमाला, ये रंग हैं रौशनी का सरगम

वो कौन है जो हरी-सी सलवट सपाट ऊसर में डालता है
हरीतिमा में मगर है काँटा घुसा जो आत्मा को सालता है
ये रंग न होते तो कुछ न होता कहाँ पे टिकता प्रकाश आ कर
तो छन्द की लय कहाँ से आती जिसे बुलाता वो गुनगुना कर

न होता जीवन का चक्र भी तब, कोई प्रतिध्वनि कहीं न होती
अकेला होता जो कुछ भी होता न जीत होती न हार होती
ये रंग ही हैं जो द्वन्द्व भरते वहीं से रचना का तार आता
वहीं से राजा वहीं से परजा वहीं से माया-बज़ार आता

वहीं से उठते हैं भेद सारे वहीं से फिर भी अभेद आता
वहीं से आते हैं अपने साथी वहीं से तगड़ा विरोध आता
वहीं से आती है रश्मि रेखा वहीं से घिर अंधकार आता
वहीं से उठती है भ्रम की आँधी दिया वहीं फिर भी टिमटिमाता


 

                

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