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दिनेश कुमार शुक्ल/ नया अनहद
 

भीतर कवि थे

भीतर कवि थे
बाहर कविता

बाहर सड़कें पिघल रही थीं
कविता उन पर खेल रही थी
तारकोल में
जीवन जल के स्वप्न --
अभी यहाँ फिर वहाँ वहाँ फिर
लप-लप पानी चमक रहा था
तलवारों-सा

भीतर कवि थे
खण्डन-मण्डन और विखण्डन
के घनघोर चल रहे थे घन
नमस्कार थे पुरस्कार थे
शब्दों के मीना बज़ार थे
साँय-साँय चलते थे कूलर - शीतलता थी
तनी भृकुटि भंगिमा वक्र
कवि काँप रहे थे
किन्हीं सात पर्तों के भीतर
ढूँढ़ रहे थे वे जीवन को
कविता से आतंकित कवि थे
गोपनीय थी बहस

बाहर कविता खेल रही थी जीवन-जीवन
गुल्ली डंडा नोन-तेल की पदी-पदउवल
गा-गा कर आवाज लगाती
वीरानी सूनी गलियों में
घुस कर गूँज रही थी कविता
उमड़ रही थी वह जुलूस में
सूखी डालों पर कोंपल-सी फूट रही थी

भीतर कवि थे
आत्ममुग्ध गुट-गठित सुरक्षित --
बातें थीं बातों में जन थे
बाकी जो था सब निर्जन था
उस अनुकूलित समागार में
नपा-तुला उनका यथार्थ था
गद्द गद्य था पृथुल पद्य था
भीतर कवि थे
बाहर कविता
 
 

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