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 दिनेश कुमार शुक्ल/ नया अनहद

जाग मछंदर

जाग मेरे मन
मछंदर

रमी है धूनी
सुलगती आग
मेरे मन
मछंदर,
जाग मेरे मन
मछंदर !


किन्तु मन की
तलहटी में
बहुत गहरी
औ अँधेरी
घाटियाँ हैं
रह चुकीं जो
डायनासर का बसेरा
वो भयानक
कंदराएँ हैं,
कंदराओं में भरे
कंकाल
मेरे मन, मछंदर
रेंगते भ्रम के
भयानक ब्याल
मेरे मन, मछंदर

क्षुद्रता के
और भ्रम के
इस भयानक
नाग का फन
ताग तू
फिर से मछंदर
जाग मेरे मन
मछंदर

सूखते हैं खेत
भरती रेत
जीवन हुआ निर्जल
किन्तु फिर भी
बह रहा कल-कल,
क्षीण सी जलधार ले कर
प्यार और दुलार ले कर
एक झरना फूटता
मन में मछंदर

सजल जीवन के लिये
अनुराग भरकर
जाग मेरे मन, मछंदर

रमी है धूनी
सुलगती आग
मेरे मन
मछंदर

भरा है सागर मेरे मन
जहाँ से उठ कर
मघा के
मेघ छाते हैं
और मन के गगन में घिर
गरजते हैं घन, मछंदर
वृष्टि का उल्लास
भर कर जाग
मेरे मन, मछंदर

रमी है धूनी
सुलगती आग
मेरे मन
मछंदर

सो रहा संसार
पूँजी का
विकट भ्रमजाल--
किन्तु फिर भी सर्जना के
एक छोटे-से नगर में
जागता है एक नुक्कड़
चिटकती चिंगारियाँ
उठता धआँ है
सुलगता है एक लक्कड़,
तिलमिलाते आज भी
कुछ लोग
सुन कर देख कर अन्याय
और लड़ने के लिये
अब भी बनाते मन, मछंदर

फिर नये संघर्ष का
उनवान ले कर
जाग मेरे मन
मछंदर

रमी है धूनी
सुलगती आग
मेरे मन
मछंदर

बिक रहे मन
बिक रहे तन
देश बिकते
दृष्टि बिकती
एक डालर पर
समूची सृष्टि बिकती
और
राजा ने लगाया
फिर हमें नीलाम पर
एक कौड़ी दाम पर
लो बिक रहा
जन-गन मछंदर

मुक्ति का
परचम उठाकर
जाग मेरे मन
मछंदर

रमी है धूनी
सुलगती आग
मेरे मन
मछंदर

गीत बिकते गान बिकते
मान और अभिमान बिकते
हर्ष और विषाद बिकते
नाद और निनाद बिकते
बिक रही हैं कल्पनायें
बिक रही हैं भावनायें
और, अपने बिक रहे हैं
और, सपने बिक रहे हैं
बिक रहे बाजार की
खिल्ली उड़ता
विश्व के बाजार के
तम्बू उड़ाता
आ गया गोरख
लिये नौ गीत अपने
सुन, मछंदर

रमी है धूनी
सुलगती आग
मेरे मन
मछंदर

सो रहे संसार में
नव जागरण का
ज्वार ले कर काँप
काँप रचना के
प्रबल उन्माद में
थर-थर मछंदर !

फिर चरम बलिदान का
उद्दाम निर्झर
बन मछंदर !

जाग जन-जन में मछंदर
जाग कन-कन में मछंदर
रमी है धूनी
सुलगती आग
मेरे मन, मछंदर !
 

 

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