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अविस्मरणीय
कविताएँ - मैथिलीशरण गुप्त नर हो न निराश करो मन को नर हो न निराश करो मन को कुछ काम करो कुछ काम करो जग में रहके निज नाम करो यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो कुछ तो उपयुक्त करो तन को नर हो न निराश करो मन को । संभलो कि सुयोग न जाए चला कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला समझो जग को न निरा सपना पथ आप प्रशस्त करो अपना अखिलेश्वर है अवलम्बन को नर हो न निराश करो मन को । जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो उठके अमरत्व विधान करो दवरूप रहो भव कानन को नर हो न निराश करो मन को । निज गौरव का नित ज्ञान रहे हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे सब जाय अभी पर मान रहे मरणोत्तर गुंजित गान रहे कुछ हो न तजो निज साधन को नर हो न निराश करो मन को ।
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नहुष का पतन मत्त-सा नहुष चला बैठ ऋषियान में व्याकुल से देव चले साथ में, विमान में पिछड़े तो वाहक विशेषता से भार की अरोही अधीर हुआ प्रेरणा से मार की दिखता है मुझे तो कठिन मार्ग कटना अगर ये बढ़ना है तो कहूँ मैं किसे हटना? बस क्या यही है बस बैठ विधियाँ गढ़ो? अश्व से अडो ना अरे, कुछ तो बढ़ो, कुछ तो बढ़ो बार बार कन्धे फेरने को ऋषि अटके आतुर हो राजा ने सरौष पैर पटके क्षिप्त पद हाय! एक ऋषि को जा लगा सातों ऋषियों में महा क्षोभानल आ जगा भार बहे, बातें सुने, लातें भी सहे क्या हम तु ही कह क्रूर, मौन अब भी रहें क्या हम पैर था या सांप यह, डस गया संग ही पमर पतित हो तु होकर भुंजग ही राजा हतेज हुआ शाप सुनते ही काँप मानो डस गया हो उसे जैसे पिना साँप श्वास टुटने-सी मुख-मुद्रा हुई विकला "हा ! ये हुआ क्या?" यही व्यग्र वाक्य निकला जड़-सा सचिन्त वह नीचा सर करके पालकी का नाल डूबते का तृण धरके शून्य-पट-चित्र धुलता हुआ सा दृष्टि से देखा फिर उसने समक्ष शून्य दृष्टि से दीख पड़ा उसको न जाने क्या समीप सा चौंका एक साथ वह बुझता प्रदीप-सा - “संकट तो संकट, परन्तु यह भय क्या ? दूसरा सृजन नहीं मेरा एक लय क्या ?” सँभला अद्मय मानी वह खींचकर ढीले अंग - “कुछ नहीं स्वप्न था सो हो गया भला ही भंग. कठिन कठोर सत्य तो भी शिरोधार्य है शांत हो महर्षि मुझे, सांप अंगीकार्य है" दुख में भी राजा मुसकराया पूर्व दर्प से मानते हो तुम अपने को डसा सर्प से होते ही परन्तु पद स्पर्श भुल चुक से मैं भी क्या डसा नहीं गया हुँ दन्डशूक से मानता हुँ भुल हुई, खेद मुझे इसका सौंपे वही कार्य, उसे धार्य हो जो जिसका स्वर्ग से पतन, किन्तु गोत्रीणी की गोद में और जिस जोन में जो, सो उसी में मोद में काल गतिशील मुझे लेके नहीं बेठैगा किन्तु उस जीवन में विष घुस पैठेगा फिर भी खोजने का कुछ रास्ता तो उठायेगें विष में भी अमर्त छुपा वे कृति पायेगें मानता हुँ भुल गया नारद का कहना दैत्यों से बचाये भोग धाम रहना आप घुसा असुर हाय मेरे ही ह्रदय में मानता हुँ आप लज्जा पाप अविनय में मानता हुँ आड ही ली मेने स्वाधिकार की मुल में तो प्रेरणा थी काम के विकार की माँगता हुँ आज में शची से भी खुली क्षमा विधि से बहिर्गता में भी साधवी वह ज्यों रमा मानता हुँ और सब हार नहीं मानता अपनी अगाति आज भी मैं जानता आज मेरा भुकत्योजित हो गया है स्वर्ग भी लेके दिखा दूँगा कल मैं ही अपवर्ग भी तन जिसका हो मन और आत्मा मेरा है चिन्ता नहीं बाहर उजेला या अँधेरा है चलना मुझे है बस अंत तक चलना गिरना ही मुख्य नहीं, मुख्य है सँभलना गिरना क्या उसका उठा ही नहीं जो कभी मैं ही तो उठा था आप गिरता हुँ जो अभी फिर भी ऊठूँगा और बढ़के रहुँगा मैं नर हूँ, पुरुष हूँ, चढ़ के रहुँगा मैं चाहे जहाँ मेरे उठने के लिये ठौर है किन्तु लिया भार आज मेने कुछ और है उठना मुझे ही नहीं बस एक मात्र रीते हाथ मेरा देवता भी और ऊंचा उठे मेरे साथ मैथिलीशरण गुप्त |
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