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अविस्मरणीय
कविताएँ - गजानन माधव मुक्तिबोध नाश देवता घोर धनुर्धर, बाण तुम्हारा सब प्राणों को पार करेगा, तेरी प्रत्यंचा का कंपन सूनेपन का भार हरेगा हिमवत, जड़, निःस्पंद हृदय के अंधकार में जीवन-भय है तेरे तीक्ष्ण बाणों की नोकों पर जीवन-संचार करेगा । तेरे क्रुद्ध वचन बाणों की गति से अंतर में उतरेंगे, तेरे क्षुब्ध हृदय के शोले उर की पीड़ा में ठहरेंगे कोपुत तेरा अधर-संस्फुरण उर में होगा जीवन-वेदन रुष्ट दृगों की चमक बनेगी आत्म-ज्योति की किरण सचेतन । सभी उरों के अंधकार में एक तड़ित वेदना उठेगी, तभी सृजन की बीज-वृद्धि हित जड़ावरण की महि फटेगी शत-शत बाणों से घायल हो बढ़ा चलेगा जीवन-अंकुर दंशन की चेतन किरणों के द्वारा काली अमा हटेगी । हे रहस्यमय, ध्वंस-महाप्रभु, जो जीवन के तेज सनातन, तेरे अग्निकणों से जीवन, तीक्ष्ण बाण से नूतन सृजन हम घुटने पर, नाश-देवता ! बैठ तुझे करते हैं वंदन मेरे सर पर एक पैर रख नाप तीन जग तू असीम बन । ऐ इन्सानों आँधी के झूले पर झूलो आग बबूला बन कर फूलो कुरबानी करने को झूमो लाल सबेरे का मूँह चूमो ऐ इन्सानों ओस न चाटो अपने हाथों पर्वत काटो पथ की नदियाँ खींच निकालो जीवन पीकर प्यास बुझालो रोटी तुमको राम न देगा वेद तुम्हारा काम न देगा जो रोटी का युद्ध करेगा वह रोटी को आप वरेगा । |
मृत्यु और कवि घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, निस्तब्ध वनंतर व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोयी नर की बस्ती भयकर है निस्तब्ध गगन, रोती-सी सरिता-धार चली गहराती, जीवन-लीला को समाप्त कर मरण-सेज पर है कोई नर बहुत संकुचित छोटा घर है, दीपालोकित फिर भी धुंधला, वधू मूर्छिता, पिता अर्ध-मृत, दुखिता माता स्पंदन-हीन घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, कवि का मन गीला "ये सब क्षनिक, क्षनिक जीवन है, मानव जीवन है क्षण-भंगुर" । ऐसा मत कह मेरे कवि, इस क्षण संवेदन से हो आतुर जीवन चिंतन में निर्णय पर अकस्मात मत आ, ओ निर्मल ! इस वीभत्स प्रसंग में रहो तुम अत्यंत स्वतंत्र निराकुल भ्रष्ट ना होने दो युग-युग की सतत साधना महाआराधना इस क्षण-भर के दुख-भार से, रहो अविचिलित, रहो अचंचल अंतरदीपक के प्रकाश में विणत-प्रणत आत्मस्य रहो तुम जीवन के इस गहन अटल के लिये मृत्यु का अर्थ कहो तुम । क्षण-भंगुरता के इस क्षण में जीवन की गति, जीवन का स्वर दो सौ वर्ष आयु होती तो क्या अधिक सुखी होता नर? इसी अमर धारा के आगे बहने के हित ये सब नश्वर, सृजनशील जीवन के स्वर में गाओ मरण-गीत तुम सुंदर तुम कवि हो, यह फैल चले मृदु गीत निर्बल मानव के घर-घर ज्योतित हों मुख नवम आशा से, जीवन की गति, जीवन का स्वर । |
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