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अविस्मरणीय
कविताएँ- सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' चुम्बन लहर रही शशिकिरण चूम निर्मल यमुनाजल, चूम सरित की सलिल राशि खिल रहे कुमुद दल कुमुदों के स्मिति-मन्द खुले वे अधर चूम कर, बही वायु स्वछन्द, सकल पथ घूम घूम कर है चूम रही इस रात को वही तुम्हारे मधु अधर जिनमें हैं भाव भरे हुए सकल-शोक-सन्तापहर !
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तुम हमारे हो नहीं मालूम क्यों यहाँ आया ठोकरें खाते हुए दिन बीते । उठा तो पर न सँभलने पाया गिरा व रह गया आँसू पीते । ताब बेताब हुई हठ भी हटी नाम अभिमान का भी छोड़ दिया । देखा तो थी माया की डोर कटी सुना व' कहते हैं, हाँ खूब किया । पर अहो पास छोड़ आते ही वह सब भूत फिर सवार हुए । मुझे गफलत में ज़रा पाते ही फिर वही पहले के से वार हुए । एक भी हाथ सँभाला न गया और कमज़ोरों का बस क्या है । कहा - निर्दय, कहाँ है तेरी दया, मुझे दुख देने में जस क्या है । रात को सोते य' सपना देखा कि व' कहते हैं "तुम हमारे हो भला अब तो मुझे अपना देखा, कौन कहता है कि तुम हारे हो । अब अगर कोई भी सताये तुम्हें तो मेरी याद वहीं कर लेना नज़र क्यों काल ही न आये तुम्हें प्रेम के भाव तुर्त भर लेना" । |
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