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गोरख पांडेय की कविताएँ


 

गोरख पांडेय

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जन्म

:

1945, देवरिया, उत्तर प्रदेश

भाषा : हिंदी
विधाएँ :

कविता, वैचारिक लेख, नाटक

प्रमुख कृतियाँ :

कविता : भोजपुरी के नौ गीत, जागते रहो सोने वलो, स्वर्ग से बिदाई, समय का पहिया, लोहा गरम हो गया है वैचारिक गद्य : धर्म की मार्क्सवादी व्याख्या

निधन :

:

29 जनवरी 1989

 
 अमीरों का कोरस | आशा का गीत  | एक झीना सा पर्दा था | फूल और उम्मीद | हे भले आदमियो ! | रूमाल | बंद खिड़कियों से टकरा कर| उनका डर | सच्चाई  | समकालीन |आँखें देख कर  | समझदारों का गीत | तटस्थ के प्रति | हाथ | सात सुरों में पुकारता है प्यार | कुर्सीनामा | फूल | कला कला के लिए | समय का पहिया | वतन का गीत |अधिनायक वंदना | ऐलान | सुनो भाई साधो ! |  समाजवाद | हत्या-दर-हत्या | इन्कलाब का गीत | पैसे का गीत | सपना | वोट | गजल - 1 | गजल - 2

 

गोरख पांडेय की कविताएँ

 अमीरों का कोरस

जो हैं गरीब उनकी जरूरतें कम हैं
कम हैं जरूरतें तो मुसीबतें कम हैं
हम मिल-जुल के गाते गरीबों की महिमा
हम महज अमीरों के तो गम ही गम हैं

 

वे नंगे रहते हैं बड़े मजे में
वे भूखों रह लेते हैं बड़े मजे में
हमको कपड़ों पर और चाहिए कपड़े
खाते-खाते अपनी नाकों में दम है

वे कभी कभी कानून भंग करते हैं
पर भले लोग हैं, ईश्वर से डरते हैं
जिसमें श्रद्धा या निष्ठा नहीं बची है
वह पशुओं से भी नीचा और अधम है

अपनी श्रद्धा भी धर्म चलाने में है
अपनी निष्ठा तो लाभ कमाने में है
ईश्वर है तो शांति, व्यवस्था भी है
ईश्वर से कम कुछ भी विध्वंस परम है

करते हैं त्याग गरीब स्वर्ग जाएँगे
मिट्टी के तन से मुक्ति वहीं पाएँगे
हम जो अमीर हैं सुविधा के बंदी हैं
लालच से अपने बंधे हरेक कदम हैं

इतने दुख में हम जीते जैसे-तैसे
हम नहीं चाहते गरीब हों हम जैसे
लालच न करें, हिंसा पर कभी न उतरें
हिंसा करनी हो तो दंगे क्या कम हैं

जो गरीब हैं उनकी जरूरतें कम हैं
कम हैं मुसीबतें, अमन चैन हरदम है
हम मिल-जुल के गाते गरीबों की महिमा
हम महज अमीरों के तो गम ही गम हैं

 

कानून

लोहे के पैरों में भारी बूट
कंधों से लटकती बंदूक
कानून अपना रास्ता पकड़ेगा
हथकड़ियाँ डाल कर हाथों में
तमाम ताकत से उन्हें
जेलों की ओर खींचता हुआ
गुजरेगा विचार और श्रम के बीच से
श्रम से फल को अलग करता
रखता हुआ चीजों को
पहले से तय की हुई
जगहों पर
मसलन अपराधी को
न्यायाधीश की, गलत को सही की
और पूँजी के दलाल को
शासक की जगह पर
रखता हुआ
चलेगा
मजदूरों पर गोली की रफ्तार से
भुखमरी की रफ्तार से किसानों पर
विरोध की जुबान पर
चाकू की तरह चलेगा
व्याख्या नहीं देगा
बहते हुए खून की
व्याख्या कानून से परे कहा जाएगा
देखते-देखते
वह हमारी निगाहों और सपनों में
खौफ बन कर समा जाएगा
देश के नाम पर
जनता को गिरफ्तार करेगा
जनता के नाम पर
बेच देगा देश
सुरक्षा के नाम पर
असुरक्षित करेगा
अगर कभी वह आधी रात को
आपका दरवाजा खटखटाएगा
तो फिर समझिए कि आपका
पता नहीं चल पाएगा
खबरों से इसे मुठभेड़ कहा जाएगा
पैदा हो कर मिल्कियत की कोख से
बहसा जाएगा
संसद में और कचहरियों में
झूठ की सुनहली पालिश से
चमका कर
तब तक लोहे के पैरों
चलाया जाएगा कानून
जब तक तमाम ताकत से
तोड़ा नहीं जाएगा

 

आशा का गीत

आएँगे, अच्छे दिन आएँगे
गर्दिश के दिन ये कट जाएँगे
सूरज झोपड़ियों में चमकेगा
बच्चे सब दूध में नहाएँगे

जालिम के पुर्जे उड़ जाएँगे
मिल-जुल के प्यार सभी गाएँगे
मेहनत के फूल उगाने वाले   
दुनिया के मालिक बन जाएँगे

दुख की रेखाएँ मिट जाएँगी
खुशियों के होंठ मुस्कुराएँगे
सपनों की सतरंगी डोरी पर
मुक्ति के फरहरे लहराएँगे

 

एक झीना सा पर्दा था 

एक झीना-सा परदा था, परदा उठा
सामने थी दरख्तों की लहराती हरियालियाँ
झील में चाँद कश्ती चलाता हुआ
और खुशबू की बाँहों में लिपटे हुए फूल ही फूल थे

फिर तो सलमों-सितारों की साड़ी पहन
गोरी परियाँ कहीं से उतरने लगीं
उनकी पाजेब झन-झन झनकने लगी
हम बहकने लगे

अपनी नजरें नजारों में खोने लगीं
चाँदनी उँगलियों के पोरों पे खुलने लगी
उनके होंठ, अपने होठों में घुलने लगे
और पाजेब झन-झन झनकती रही
हम पीते रहे और बहकते रहे
जब तलक हर तरफ बेखुदी छा गई

हम न थे, तुम न थे
एक नगमा था पहलू में बजता हुआ
एक दरिया था सहरा में उमड़ा हुआ
बेखुदी थी कि अपने में डूबी हुई

एक परदा था झीना-सा, परदा गिरा
और आँखें खुलीं...
खुद के सूखे हलक में कसक-सी उठी
प्यास जोरों से महसूस होने लगी 

 

फूल और उम्मीद 

हमारी यादों में छटपटाते हैं
कारीगर के कटे हाथ
सच पर कटी जुबानें चीखती हैं हमारी यादों में
हमारी यादों में तड़पता है
दीवारों में चिना हुआ
प्यार

अत्याचारी के साथ लगातार
होनेवाली मुठभेड़ों से
भरे हैं हमारे अनुभव

यहीं पर
एक बूढ़ा माली
हमारे मृत्युग्रस्त सपनों में
फूल और उम्मीद
रख जाता है

 

हे भले आदमियो !

 

डबडबा गई है तारों-भरी

शरद से पहले की यह

अँधेरी नम

रात

उतर रही है नींद

सपनों के पंख फैलाए

छोटे-मोटे हजार दुखों से

जर्जर पंख फैलाए

उतर रही है नींद

हत्यारों के भी सिरहाने

हे भले आदमियो !

कब जागोगे

और हथियारों को

बेमतलब बना दोगे ?

हे भले आदमियो !

सपने भी सुखी और

आजाद होना चाहते हैं

  

रूमाल

नीले पीले सफेद चितकबरे लाल
रखते हैं राम लाल जी कई रूमाल
वे नहीं जानते किसने इन्हें बुना
जा कर कई दुकानों से खुद इन्हें चुना
तह-पर-तह करते खूब सँभाल-सँभाल
ऑफिस जाते जेबों में भर दो-चार
हैं नाक रगड़ते इनसे बारंबार
जब बॉस डाँटता लेते एक निकाल
सब्जी को ले कर बीवी पर बिगड़ें
या मुन्ने की माँगों पर बरस पड़ें
पलकों पर इन्हें फेरते हैं तत्काल
वे राजनीति से करते हैं परहेज
भावुक हैं, पारटियों को गाली तेज
दे देते हैं कोनों से पोंछ मलाल
गड़बड़ियों से आजिज भरते जब आह
रंगीन तहों से कोई तानाशाह
रच कर सुधार देते हैं हाल 

 

बंद खिड़कियों से टकरा कर

घर-घर में दीवारें हैं
दीवारों में बंद खिड़कियाँ हैं
बंद खिड़कियों से टकरा कर अपना सर
लहूलुहान गिर पड़ी है वह

नई बहू है, घर की लक्ष्मी है
इनके सपनों की रानी है
कुल की इज्जत है
आधी दुनिया है
जहाँ अर्चना होती उसकी
वहाँ देवता रमते हैं
वह सीता है, सावित्री है
वह जननी है
स्वर्गादपि गरीयसी है

लेकिन बंद खिड़कियों से टकरा कर
अपना सर
लहूलुहान गिर पड़ी है वह

कानूनन समान है
वह स्वतंत्र भी है
बड़े-बड़ों की नजरों में तो
धन का एक यंत्र भी है
भूल रहे हैं वे
सबके ऊपर वह मनुष्य है

उसे चाहिए प्यार
चाहिए खुली हवा
लेकिन बंद खिड़कियों से टकरा कर
अपना सर
लहूलुहान गिर पड़ी है वह

चाह रही है वह जीना
लेकिन घुट-घुट कर मरना भी
क्या जीना ?

घर-घर में शमशान-घाट है
घर-घर में फाँसी-घर है, घर-घर में दीवारें हैं
दीवारों से टकरा कर
गिरती है वह

गिरती है आधी दुनिया
सारी मनुष्यता गिरती है

हम जो जिंदा हैं
हम सब अपराधी हैं
हम दंडित हैं

 

उनका डर

 

वे डरते हैं

किस चीज से डरते हैं वे

तमाम धन-दौलत

गोला-बारूद पुलिस-फौज के बावजूद ?

वे डरते हैं

कि एक दिन

निहत्थे और गरीब लोग

उनसे डरना

बंद कर देंगे

 

सच्चाई

मेहनत से मिलती है
छिपाई जाती है स्वार्थ से
फिर, मेहनत से मिलती है

  

समकालीन

 

कहीं चीख उठी है अभी

कहीं नाच शुरू हुआ है अभी

कहीं बच्चा हुआ है अभी

कहीं फौजें चल पड़ी हैं अभी

 

आँखें देख कर


ये आँखें हैं तुम्हारी
तकलीफ का उमड़ता हुआ समुंदर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिए

  

समझदारों का गीत

हवा का रुख कैसा है, हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं
हम समझते हैं खून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं

चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझ कर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुँजिया नौकरी के लिए
आजादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोजगारी अन्याय से
तेज दर से बढ़ रही है
हम आजादी और बेरोजगारी दोनों के
खतरे समझते हैं
हम खतरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं,
यह भी हम समझते हैं।

हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधँसान होती है

हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहाँ विरोध ही बाजिब कदम है
हम समझते हैं
हम कदम-कदम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं, हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं

वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमजोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।

  

तटस्थ के प्रति

चैन की बाँसुरी बजाइए आप

शहर जलता है और गाइए आप

हैं तटस्थ या कि आप नीरो हैं

असली सूरत जरा दिखाइए आप

  

हाथ

रास्ते में उगे हैं काँटे

रास्ते में उगे हैं पहाड़

देह में उगे हैं हाथ

हाथों में उगे हैं औजार

  

सात सुरों में पुकारता है प्यार

(रामजी राय से एक लोकगीत सुन कर)

माँ, मैं जोगी के साथ जाऊँगी

जोगी शिरीष तले
मुझे मिला

सिर्फ एक बाँसुरी थी उसके हाथ में
आँखों में आकाश का सपना
पैरों में धूल और घाव

गाँव-गाँव वन-वन
भटकता है जोगी
जैसे ढूँढ़ रहा हो खोया हुआ प्यार
भूली-बिसरी सुधियों और
नामों को बाँसुरी पर टेरता

जोगी देखते ही भा गया मुझे
माँ, मैं जोगी के साथ जाऊँगी

नहीं उसका कोई ठौर ठिकाना
नहीं जात-पाँत
दर्द का एक राग
गाँवों और जंगलों को
गुँजाता भटकता है जोगी
कौन-सा दर्द है उसे माँ
क्या धरती पर उसे
कभी प्यार नहीं मिला?
माँ, मैं जोगी के साथ जाऊँगी

ससुरालवाले आएँगे
लिए डोली-कहार बाजा-गाजा
बेशकीमती कपड़ों में भरे
दूल्हा राजा
हाथी-घोड़ा शान-शौकत
तुम संकोच मत करना, माँ
अगर वे गुस्सा हों मुझे न पा कर

तुमने बहुत सहा है
तुमने जाना है किस तरह
स्त्री का कलेजा पत्थर हो जाता है
स्त्री पत्थर हो जाती है
महल अटारी में सजाने के लायक

मैं एक हाड़-माँस की स्त्री
नहीं हो पाऊँगी पत्थर
न ही माल-असबाब
तुम डोली सजा देना
उसमें काठ की पुतली रख देना
उसे चूनर भी ओढ़ा देना
और उनसे कहना -
लो, यह रही तुम्हारी दुलहन

मैं तो जोगी के साथ जाऊँगी, माँ
सुनो, वह फिर से बाँसुरी
बजा रहा है

सात सुरों में पुकार रहा है प्यार

भला मैं कैसे
मना कर सकती हूँ उसे 

 

कुर्सीनामा

 

1

जब तक वह जमीन पर था

कुर्सी बुरी थी

जा बैठा जब कुर्सी पर वह

जमीन बुरी हो गई  

 

2

उसकी नजर कुर्सी पर लगी थी

कुर्सी लग गई थी

उसकी नजर को

उसको नजरबंद करती है कुर्सी

जो औरों को

नजरबंद करता है  

 

3

महज ढाँचा नहीं है

लोहे या काठ का

कद है कुर्सी

कुर्सी के मुताबिक वह

बड़ा है छोटा है

स्वाधीन है या अधीन है

खुश है या गमगीन है

कुर्सी में जज्ब होता जाता है

एक अदद आदमी

 

4

फाइलें दबी रहती हैं

न्याय टाला जाता है

भूखों तक रोटी नहीं पहुँच पाती

नहीं मरीजों तक दवा

जिसने कोई जुर्म नहीं किया

उसे फाँसी दे दी जाती है

इस बीच

कुर्सी ही है

जो घूस और प्रजातंत्र का

हिसाब रखती है

 

5

कुर्सी खतरे में है तो प्रजातंत्र खतरे में है

कुर्सी खतरे में है तो देश खतरे में है

कुर्सी खतरे में है तो दुनिया खतरे में है

कुर्सी न बचे

तो भाड़ में जाए प्रजातंत्र

देश और दुनिया

 

6

खून के समंदर पर सिक्के रखे हैं

सिक्कों पर रखी है कुर्सी

कुर्सी पर रखा हुआ

तानाशाह

एक बार फिर

कत्ले-आम का आदेश देता है

 

7

अविचल रहती है कुर्सी

माँगों और शिकायतों के संसार में

आहों और आँसुओं के

संसार में अविचल रहती है कुर्सी

पायों में आग

लगने

तक

 

8

मदहोश लुढ़क कर गिरता है वह

नाली में आँख खुलती है

जब नशे की तरह

कुर्सी उतर जाती है

 

9

कुर्सी की महिमा

बखानने का

यह एक थोथा प्रयास है

चिपकनेवालों से पूछिए

कुर्सी भूगोल है

कुर्सी इतिहास है  

 

फूल

फूल हैं गोया मिट्टी के दिल हैं
धड़कते हुए
बादलों के गलीचों पे रंगीन बच्चे
मचलते हुए
प्यार के काँपते होंठ हैं
मौत पर खिलखिलाती हुई चंपई

 

जिंदगी
जो कभी मात खाए नहीं
और खुशबू है
जिसको कोई बाँध पाए नहीं

खूबसूरत हैं इतने
कि बरबस ही जीने की इच्छा जगा दें
कि दुनिया को और जीने लायक बनाने की
इच्छा जगा दें

 

कला कला के लिए

कला कला के लिए हो
जीवन को खूबसूरत बनाने के लिए
न हो
रोटी रोटी के लिए हो
खाने के लिए न हो

मजदूर मेहनत करने के लिए हों
सिर्फ मेहनत
पूँजीपति हों मेहनत की जमा-पूँजी के
मालिक बन जाने के लिए
यानी, जो हो जैसा हो वैसा ही रहे
कोई परिवर्तन न हो
मालिक हों
गुलाम हों
गुलाम बनाने के लिए युद्ध हो
युद्ध के लिए फौज हो
फौज के लिए फिर युद्ध हो

फिलहाल कला शुद्ध बनी रहे
और शुद्ध कला के
पावन प्रभामंडल में
बने रहें जल्लाद
आदमी को
फाँसी पर चढ़ाने लिए

 

समय का पहिया

समय का पहिया चले रे साथी
समय का पहिया चले
फौलादी घोड़ों की गति से आग बरफ में जले रे साथी
समय का पहिया चले
रात और दिन पल पल छिन
आगे बढ़ता जाए
तोड़ पुराना नए सिरे से
सब कुछ गढ़ता जाए
पर्वत पर्वत धारा फूटे लोहा मोम-सा गले रे साथी
समय का पहिया चले
उठा आदमी जब जंगल से
अपना सीना ताने
रफ्तारों को मुट्ठी में कर
पहिया लगा घुमाने
मेहनत के हाथों से
आजादी की सड़कें ढले रे साथी
समय का पहिया चले

 

वतन का गीत

हमारे वतन की नई जिंदगी हो
नई जिंदगी इक मुकम्मिल खुशी हो
नया हो गुलिस्ताँ नई बुलबुलें हों
मुहब्बत की कोई नई रागिनी हो
न हो कोई राजा न हो रंक कोई
सभी हों बराबर सभी आदमी हों
न ही हथकड़ी कोई फसलों को डाले
हमारे दिलों की न सौदागरी हो
जुबानों पे पाबंदियाँ हों न कोई
निगाहों में अपनी नई रोशनी हो
न अश्कों से नम हो किसी का भी दामन
न ही कोई भी कायदा हिटलरी हो
सभी होंठ आजाद हों मयकदे में
कि गंगो-जमन जैसी दरियादिली हो
नए फैसले हों नई कोशिशें हों
नई मंजिलों की कशिश भी नई हो

  

अधिनायक वंदना

 

जन गण मन अधिनायक जय हे !


जय हे हरित क्रांति निर्माता

जय गेहूँ हथियार प्रदाता

जय हे भारत भाग्य विधाता

अंग्रेजी के गायक जय हे !

 

जन गण मन अधिनायक जय हे !  


जय समाजवादी रंगवाली

जय हे शांतिसंधि विकराली

जय हे टैंक महाबलशाली

प्रभुता के परिचायक जय हे !

 

जन गण मन अधिनायक जय हे !  


जय हे जमींदार पूँजीपति

जय दलाल शोषण में सन्मति

जय हे लोकतंत्र की दुर्गति

भ्रष्टाचार विधायक जय हे !

 

जन गण मन अधिनायक जय हे

 

 


जय पाखंड और बर्बरता

जय तानाशाही सुंदरता

जय हे दमन भूख निर्भरता

सकल अमंगलदायक जय हे !

 

जन गण मन अधिनायक जय हे

  

ऐलान

 

फावड़ा उठाते हैं हम तो

मिट्टी सोना बन जाती है

हम छेनी और हथौड़े से

कुछ ऐसा जादू करते हैं

पानी बिजली हो जाता है

बिजली से हवा-रोशनी

' दूरी पर काबू करते हैं

हमने औजार उठाए तो

इनसान उठा

झुक गए पहाड़

हमारे कदमों के आगे

हमने आजादी की बुनियाद रखी

हम चाहें तो बंदूक भी उठा सकते हैं

बंदूक कि जो है

एक और औजार

मगर जिससे तुमने

आजादी छीनी है सबकी


हम नालिश नहीं

फैसला करते हैं

 

सुनो भाई साधो !

माया महाठगिनि हम जानी,
पुलिस फौज के बल पर राजे बोले मधुरी बानी
यह कठपुतली कौन नचावे पंडित भेद न पावें
सात समंदर पार बसें पिय डोर महीन घुमावें
रूबल के संग रास रचावे डालर हाथ बिकानी
जन-मन को बाँधे भरमावे जीवन मरन बनावे
अजगर को रस अमृत चखावे जंगल राज चलावे
बंधन करे करम के जग को अकरम मुक्त करानी
बिड़ला घर शुभ लाभ बने मँहगू घर खून-पसीना
कहत कबीर सुनो भाई साधो जब मानुष ने चीन्हा
लिया लुआठा हाथ भगी तब कंचनभृग की रानी
 

(विद्रोही संत कवि से क्षमा-याचना सहित)



समाजवाद

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

हाथी से आई, घोड़ा से आई
अँगरेजी बाजा बजाई

नोटवा से आई, बोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई

गांधी से आई, आँधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई

कांगरेस से आई, जनता से आई
झंडा से बदली हो आई

डालर से आई, रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई

वादा से आई, लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई

लाठी से आई, गोली से आई
लेकिन अहिंसा कहाई

महँगी ले आई, गरीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई

छोटका का छोटहन, बड़का का बड़हन
बखरा बराबर लगाई

परसों ले आई, बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई

धीरे-धीरे आई, चुपे-चुपे आई
अँखियन पर परदा लगाई

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

  

हत्या-दर-हत्या

हत्या की खबर फैली हुई है

अखबार पर,

पंजाब में हत्या

हत्या बिहार में

लंका में हत्या

लीबिया में हत्या

बीसवीं सदी हत्या से हो कर जा रही है

अपने अंत की ओर

इक्कीसवीं सदी

की सुबह

क्या होगा अखबार पर ?

खून के धब्बे

या कबूतर

क्या होगा

उन अगले सौ सालों की

शुरुआत पर

लिखा ?

 

इन्कलाब का गीत

हमारी ख्वाहिशों का नाम इन्कलाब है !
हमारी ख्वाहिशों का सर्वनाम इन्कलाब है !
हमारी कोशिशों का एक नाम इन्कलाब है !
हमारा आज एकमात्र काम इन्कलाब है !

खतम हो लूट किस तरह जवाब इन्कलाब है !
खतम हो भूख किस तरह जवाब इन्कलाब है !
खतम हो किस तरह सितम जवाब इन्कलाब है !
हमारे हर सवाल का जवाब इन्कलाब है !
        
सभी पुरानी ताकतों का नाश इन्कलाब है !
सभी विनाशकारियों का नाश इन्कलाब है !
हरेक नवीन सृष्टि का विकास इन्कलाब है !
विनाश इन्कलाब है, विकास इन्कलाब है !

सुनो कि हम दबे हुओं की आह इन्कलाब है,
खुलो कि मुक्ति की खुली निगाह इन्कलाब है,
उठो कि हम गिरे हुओं की राह इन्कलाब है,
चलो, बढ़े चलो कि युग प्रवाह इन्कलाब है ।

हमारी ख्वाहिशों का नाम इन्कलाब है !
हमारी ख्वाहिशों का सर्वनाम इन्कलाब है !
हमारी कोशिशों का एक नाम इन्कलाब है !
हमारा आज एकमात्र काम इन्कलाब है !

  

पैसे का गीत

पैसे की बाँहें हजार अजी पैसे की
महिमा है अपरंपार अजी पैसे की

पैसे में सब गुण, पैसा है निर्गुण
उल्लू पर देवी सवार अजी पैसे की

पैसे के पंडे, पैसे के झंडे
डंडे से टिकी सरकार अजी पैसे की

पैसे के गाने, पैसे की गजलें
सबसे मीठी झनकार अजी पैसे की

पैसे की अम्मा, पैसे के बप्पा
लपटों से बनी ससुराल अजी पैसे की

मेहनत से जिंसें, जिंसों के दुखड़े
दुखड़ों से आती बहार अजी पैसे की

सोने के लड्डू, चाँदी की रोटी
बढ़ जाए भूख हर बार अजी पैसे की

पैसे की लूटें, लूटों की फौजें
दुनिया है घायल शिकार अजी पैसे की

पैसे के बूते, इंसाफी जूते
खाए जा पंचों ! मार अजी पैसे की

 

सपना

सूतल रहलीं सपन एक देखलीं
सपन मनभावन हो सखिया,
फूटलि किरनिया पुरुब असमनवा
उजर घर आँगन हो सखिया,
अँखिया के नीरवा भइल खेत सोनवा
त खेत भइलें आपन हो सखिया,
गोसयाँ के लठिया मुरइआ अस तूरलीं
भगवलीं महाजन हो सखिया,
केहू नाहीं ऊँचा नीच केहू के न भय
नाहीं केहू बा भयावन हो सखिया,
मेहनति माटी चारों ओर चमकवली
ढहल इनरासन हो सखिया,
बैरी पैसवा के रजवा मेटवलीं
मिलल मोर साजन हो सखिया

 

वोट

पहिले-पहिल जब वोट माँगे अइले
तोहके खेतवा दिअइबो
ओमे फसली उगइबो
बजड़ा के रोटिया देई-देई नुनवा
सोचलीं कि अब त बदली कनुनवा
अब जमीनदरवा के पनही न सहबो,
अब ना अकारथ बहे पाई खूनवा

दुसरे चुनउवा में जब उपरैलें त बोले लगले ना
तोहके कुँइयाँ खोनइबो
सब पियसिया मेटैबो
ईहवा से उड़ी-उड़ी ऊँहा जब गैलें
सोंचलीं इहवा के बतिया भुलैले
हमनी के धीरे से जो मनवा परैलीं
जोर से कनुनिया-कनुनिया चिलैंले

तीसरे चुनउवा में चेहरा देखवलें त बोले लगले ना
तोहके महल उठैबो
ओमे बिजुरी लगैबों
चमकल बिजुरी त गोसैयाँ दुअरिया
हमरी झोपड़िया मे घहरे अन्हरिया
सोचलीं कि अब तक जेके चुनलीं
हमके बनावे सब काठ के पुतरिया

अबकी टपकिहें त कहबों कि देख तूँ बहुत कइल ना
तोहके अब ना थकइबो
अपने हथवा उठइबो
हथवा में हमरे फसलिया भरल बा
हथवा में हमरे लहरिया भरलि बा
एही हथवा से रूस औरी चीन देश में
लूट के किलन पर बिजुरिया गिरल बा
जब हम इहुँवो के किलवा ढहैबो त एही हाथें ना
तोहके मटिया मिलैबो
ललका झंडा फहरैबो
त एही हाथें ना
पहिले-पहिल जब वोट माँगे अइले ....

 

गजल - 1

कैसे अपने दिल को मनाऊँ मैं कैसे कह दूँ तुझसे कि प्यार है
तू सितम की अपनी मिसाल है तेरी जीत में मेरी हार है

तू तो बाँध रखने का आदी है मेरी साँस-साँस आजादी है
मैं जमीं से उठता वो नगमा हूँ जो हवाओं में अब शुमार है

मेरे कस्बे पर, मेरी उम्र पर, मेरे शीशे पर, मेरे ख्वाब पर
यूँ जो पर्त-पर्त है जम गया किन्हीं फाइलों का गुबार है

इस गहरे होते अँधेरे में मुझे दूर से जो बुला रही
वो हसीं सितारों के जादू से भरी झिलमिलाती कतार है

ये रगों में दौड़ के थम गया अब उमड़नेवाला है आँख से
ये लहू है जुल्म के मारों का या फिर इन्कलाब का ज्वार है

वो जगह जहाँ पे दिमाग से दिलों तक है खंजर उतर गया
वो है बस्ती यारो खुदाओं की वहाँ इंसां हरदम शिकार है

कहीं स्याहियाँ, कहीं रौशनी, कहीं दोजखें, कहीं जन्नतें
तेरे दोहरे आलम के लिए मेरे पास सिर्फ नकार है


गजल - 2

सुनना मेरी दास्तो अब तो जिगर के पास हो
तेरे लिए मैं क्या करूँ तुम भी तो इतने उदास हो

कहते हैं रहिए खमोश ही, चैन से जीना सीखिए
चाहे शहर हो जल रहा चाहे बगल में लाश हो

नगमों से खतरा है बढ़ रहा लागू करो पाबंदियाँ
इससे भी काम न बन सके तो इंतजाम और खास हो

खूँ का पसीना हम करें वो फिर जमाएँ महफिलें
उनके लिए तो जाम हो हमको तड़पती आस हो

जंग के सामां बढ़ाइए खूब कबूतर उड़ाइए
पंखों से मौत बरसेगी लहरों की जलती घास हो

धरती, समंदर, आस्मां, राहें जिधर चलें खुली
गम भी मिटाने की राह है सचमुच अगर तलाश हो

हाथों से जितना जुदा रहें उतने खयाल ही ठीक हैं
वरना बदलना चाहोगे मंजर-ए-बद हवास हो

हैं कम नहीं खराबियाँ फिर भी सनम दुआ करो
मरने की तुमपे ही चाह हो जीने की सबको आस हो
                                                                                                                              (शीर्ष पर वापस)

 

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