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कामायनी
ईर्ष्या सर्ग -
2
चमडे उनके आवरण रहे
ऊनों से चले मेरा काम,
वे जीवित हों मांसल बनकर
हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम।
जो पाले जा सकते सहेतु,
पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं
तो भव-जलनिधि में बनें सेतु।"
सुख-सहज लब्ध यों छूट जायँ,
जीवन का जो संघर्ष चले
वह विफल रहे हम चल जायँ।
मैं देखूँ अपना चित्र धन्य,
मेरा मानस का मुकुर रहे
प्रतिबिबित तुमसे ही अनन्य।
चलने का लघु जीवन अमोल,
मैं उसको निश्चय भोग चलूँ
जो सुख चलदल सा रहा डोल
स्वर्गीय सुखों पर प्रलय-नृत्य?
फिर नाश और चिर-निद्रा है
तब इतना क्यों विश्वास सत्य?
क्यों अभिलाषा इतनी जाग रही?
यह संचित क्यों हो रहा स्नेह
किस पर इतनी हो सानुराग?
दे दो रानी-अपना दुलार,
केवल मेरी ही चिता का
तव-चित्त वहन कर रहे भार।
हो मधुमय विश्व एक,
जिसमें बहती हो मधु-धारा
लहरें उठती हों एक-एक।"
चल कर देखो मेरा कुटीर,"
यों कहकर श्रद्धा हाथ पकड
मनु को वहाँ ले चली अधीर।
छाजन छोटी सी शांति-पुंज,
कोमल लतिकाओं की डालें
मिल सघन बनाती जहाँ कुमज।
प्राचीर पर्णमय रचित शुभ्र,
आवें क्षण भर तो चल जायँ-
रूक जायँ कहीं न समीर, अभ्र।
लता का सुरूचिपूर्ण,
बिछ रहा धरातल पर चिकना
सुमनों का कोमल सुरभि-चूर्ण।
उसमें चुपके से रहीं घूम
कितने मंगल के मधुर गान
उसके कानों को रहे चूम
गृहलक्ष्मी का गृह-विधान
पर कुछ अच्छा-सा नहीं लगा
'यह क्यों'? किसका सुख साभिमान?'
चुप थे पर श्रद्धा ही बोली-
"देखो यह तो बन गया नीड,
पर इसमें कलरव करने को
आकुल न हो रही अभी भीड।
तब लेकर तकली, यहाँ बैठ,
मैं उसे फिराती रहती हूँ
अपनी निर्जनता बीच पैठ।
प्रतिवर्त्तन में स्वर विभोर-
'चल रि तकली धीरे-धीरे
प्रिय गये खेलने को अहेर'।
तेरी ही मंजुलता समान,
चिर-नग्न प्राण उनमें लिपटे
सुंदरता का कुछ बढे मान।
मेरे मधु-जीवन का प्रभात,
जिसमें निर्वसना प्रकृति सरल ढँक
ले प्रकाश से नवल गात।
आवरण डाल दे कांतिमान,
जिसमें सौंदर्य निखर आवे
लतिका में फुल्ल-कुसुम-समान।
पशु सा न रहे निर्वसन-नग्न,
अपने अभाव की जडता में वह
रह न सकेगा कभी मग्न।
विश्व कभी जब रहोगे न,
मैं उसके लिये बिछाऊँगा
फूलों के रस का मृदुल फे।
दुलरा कर लूँगी बदन चूम,
मेरी छाती से लिपटा इस
घाटी में लेगा सहज घूम।
लहराता अपने मसृण बाल,
उसके अधरों से फैलेगी
नव मधुमय स्मिति-लतिका-प्रवाल।
बोलेगा ऐसे मधुर बोल,
मेरी पीडा पर छिडकेगी जो
कुसुम-धूलि मकरंद घोल।
तब बन जायेगा अमृत स्निग्ध
उन निर्विकार नयनों में जब
देखूँगी अपना चित्र मुग्ध"
कंपित कर सुख सौरभ तरंग,
मैं सुरभि खोजता भटकूँगा
वन-वन बन कस्तूरी कुरंग।
चाहिये मुझे मेरा ममत्व,
इस पंचभूत की रचना में मैं
रमण करूँ बन एक तत्त्व।
प्रेम बाँटने का प्रकार
भिक्षुक मैं ना, यह कभी नहीं-
मैं लोटा लूँगा निज विचार।
सजल जलद बितरो न विदु।
इस सुख-नभ में मैं विचरूँगा
बन सकल कलाधर शरद-इंदु।
आकर्षणमय हास एक,
मायाविनि मैं न उसे लूँगा
वरदान समझ कर-जानु टेक
तुम बोझ डालने में समर्थ-
अपने को मत समझो श्रद्धे
होगा प्रयास यह सदा व्यर्थ।
मुझको दुख पाने दो स्वतंत्र,
' मन की परवशता महा-दुख'
मैं यही जपूँगा महामंत्र
संचित संवेदन-भार-पुंज,
मुझको काँटे ही मिलें धन्य
हो सफल तुम्हें ही कुसुम-कुंज।"
चले गये, था शून्य प्रांत,
"रूक जा, सुन ले ओ निर्मोही"
वह कहती रही अधीर श्रांत। |
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