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"कोमल किसलय के अंचल में नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी, गोधूली के धूमिल पट में दीपक के स्वर में दिपती-सी।
मन का उन्माद निखरता ज्यों- सुरभित लहरों की छाया में बुल्ले का विभव बिखरता ज्यों-
अधरों पर उँगली धरे हुए, माधव के सरस कुतूहल का आँखों में पानी भरे हुए।
तुम कौन आ रही हो बढ़ती? कोमल बाँहे फैलाये-सी आलिगंन का जादू पढ़ती?
लेकर सुहाग-कण-राग-भरे, सिर नीचा कर हो गूँथ माला जिससे मधु धार ढरे?
पहना देती हो अंतर में, झुक जाती है मन की डाली अपनी फल भरता के डर में।
नीली किरणों से बुना हुआ, यह अंचल कितना हलका-सा कितना सौरभ से सना हुआ।
कोमलता में बल खाती हूँ, मैं सिमिट रही-सी अपने में परिहास-गीत सुन पाती हूँ।
नयनों में भरकर बाँकपना, प्रत्यक्ष देखती हूँ सब जो वह बनता जाता है सपना।
आँख जब खोल रहा, अनुराग समीरों पर तिरता था इतराता-सा डोल रहा।
उठती उस सुख के स्वागत को, जीवन भर के बल-वैभव से सत्कृत करती दूरागत को।
जिसका अवलंबन ले चढ़ती, रस के निर्झर में धँस कर मैं आनन्द-शिखर के प्रति बढ़ती।
पलकें आँखों पर झुकती हैं, कलरव परिहास भरी गूजें अधरों तक सहसा रूकती हैं।
चुपचाप बरजती खड़ी रही, भाषा बन भौंहों की काली-रेखा-सी भ्रम में पड़ी रही।
सारी स्वतंत्रता छीन रही, स्वच्छंद सुमन जो खिले रहे जीवन-वन से हो बीन रही"
उसका ही आश्रय लेती-सी, छाया प्रतिमा गुनगुना उठी श्रद्धा का उत्तर देती-सी।
अपने मन का उपकार करो, मैं एक पकड़ हूँ जो कहती ठहरो कुछ सोच-विचार करो।
कलरव कोलाहल साथ लिये, विद्युत की प्राणमयी धारा बहती जिसमें उन्माद लिये।
निखरी हो ऊषा की लाली, भोला सुहाग इठलाता हो ऐसी हो जिसमें हरियाली।
आनन्द सुमन सा विकसा हो, वासंती के वन-वैभव में जिसका पंचम स्वर पिक-सा हो,
मूर्छना समान मचलता-सा, आँखों के साँचे में आकर रमणीय रूप बन ढलता-सा,
जिस रस घन से छा जाती हो, वह कौंध कि जिससे अंतर की शीतलता ठंडक पाती हो,
गोधूली की सी ममता हो, जागरण प्रात-सा हँसता हो जिसमें मध्याह्न निखरता हो,
सहसा जो अपने प्राची के घर से, उस नवल चंद्रिका-से बिछले जो मानस की लहरों पर-से, |
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