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कुमार अंबुज कविताएँ

 

कुमार अंबुज 

 

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जैसा समाज होगा वैसा परिवार
पूँजीवादी समाज में परिवार का स्वरूप
 

 


 

 

जन्म

:

13 अप्रैल 1957, गुना (मध्य प्रदेश)

भाषा

:

हिंदी

विधाएँ

:

कविता, आलोचना, वैचारिक लेख

प्रमुख कृतियाँ : कविता संग्रह : किवाड़, क्रूरता, अनंतिम, अतिक्रमण, अमीरी रेखा
कहानी संग्रह: इच्छाएँ
पुरस्कार/सम्मान : भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, श्रीकांत वर्मा सम्मान, केदार सम्मान, वागीश्वरी पुरस्कार, माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, गिरजाकुमार माथुर सम्मान

संपर्क

:

एचआईजी सी 10, तृतीय तल, गुलमोहर ब्‍लॉक, ग्रीन मीडोज, अरेरा हिल्‍स, पुरानी जेल रोड, भोपाल - 462011

मोबाइल

: 09424474678
ई-मेल   kumarambujbpl@gmail.com
वेबसाइट   kumarambuj.blogspot.com
खाना बनाती स्त्रियाँ
क्रूरता
उपकार
चाँद तुम्हारे साथ कुछ दूर तक
मुश्किल तो मेरी है
एक स्त्री पर कीजिए विश्वास
एक सुबह की डायरी
बीज
संगीत है
दृश्य
गोआ
कोई है माँजता हुआ मुझे
मेरा प्रिय कवि
मध्यमवर्गीय ओट
पर्यटन
मुर्गी
यह एक दिन
आत्म-संलाप
मोह
रेखागणित
अव्यक्त
अन्याय
इच्छा और जीवन
तानाशाह की पत्रकार वार्ता
नई सभ्यता की मुसीबत
पुश्तैनी गाँव के लोग
आकस्मिक मृत्यु
कहीं भी कोई कस्बा
सब तुम्हें नहीं कर सकते प्यार
वहाँ एक फूल खिला हुआ है
एक कम है
यह राख है
यहां पानी चाँदनी की तरह चमकता है
था बेसुरा लेकिन जीवन तो था
शीर्ष बैठक
कुछ समुच्चय
अमीरी रेखा

 

खाना बनाती स्त्रियाँ

जब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया
फिर हिरणी होकर
फिर फूलों की डाली होकर
जब नन्ही दूब भी झूम रही थी हवाओं के साथ
जब सब तरफ फैली हुई थी कुनकुनी धूप
उन्होंने अपने सपनों को गूँधा
हृदयाकाश के तारे तोड़कर डाले
भीतर की कलियों का रस मिलाया
लेकिन आखिर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज

आपने उन्हें सुंदर कहा तो उन्होंने खाना बनाया
और डायन कहा तब भी
उन्होंने बच्चे को गर्भ में रखकर उन्होंने खाना बनाया
फिर बच्चे को गोद में लेकर
उन्होंने अपने सपनों के ठीक बीच में खाना बनाया
तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना
पहले तन्वंगी थीं तो खाना बनाया
फिर बेडौल होकर

वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया
सितारों को छूकर आईं तब भी
उन्होंने कई बार सिर्फ एक आलू एक प्याज से खाना बनाया
और कितनी ही बार सिर्फ अपने सब्र से
दुखती कमर में चढ़ते बुखार में
बाहर के तूफान में
भीतर की बाढ़ में उन्होंने खाना बनाया
फिर वात्सल्य में भरकर
उन्होंने उमगकर खाना बनाया

आपने उनसे आधी रात में खाना बनवाया
बीस आदमियों का खाना बनवाया
ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों का उदाहरण
पेश करते हुए खाना बनवाया
कई बार आँखें दिखाकर
कई बार लात लगाकर
और फिर स्त्रियोचित ठहराकर
आप चीखे - उफ इतना नमक
और भूल गए उन आँसुओं को
जो जमीन पर गिरने से पहले
गिरते रहे तश्तरियों में कटोरियों में

कभी उनका पूरा सप्ताह इस खुशी में गुजर गया
कि पिछले बुधवार बिना चीखे-चिल्लाए
खा लिया गया था खाना
कि परसों दो बार वाह-वाह मिली
उस अतिथि का शुक्रिया
जिसने भरपेट खाया और धन्यवाद दिया
और उसका भी जिसने अभिनय के साथ ही सही
हाथ में कौर लेते ही तारीफ की

वे क्लर्क हुईं अफसर हुईं
उन्होंने फर्राटेदार दौड़ लगाई और सितार बजाया
लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई एक ही कसौटी

अब वे थकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी
रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियाँ
उनके गले से पीठ से
उनके अँधेरों से रिस रहा है पसीना
रेले बह निकले हैं पिंडलियों तक
और वे कह रही हैं यह रोटी लो
यह गरम है

उन्हें सुबह की नींद में खाना बनाना पड़ा
फिर दोपहर की नींद में
फिर रात की नींद में
और फिर नींद की नींद में उन्होंने खाना बनाया
उनके तलुओं में जमा हो गया है खून
झुकने लगी है रीढ़
घुटनों पर दस्तक दे रहा है गठिया

आपने शायद ध्यान नहीं दिया है
पिछले कई दिनों से उन्होंने
बैठकर खाना बनाना शुरू कर दिया है
हालाँकि उनसे ठीक तरह से बैठा भी नहीं जाता है।


क्रूरता

धीरे धीरे क्षमाभाव समाप्त हो जाएगा
प्रेम की आकांक्षा तो होगी मगर जरूरत न रह जाएगी
झर जाएगी पाने की बेचैनी और खो देने की पीड़ा
क्रोध अकेला न होगा वह संगठित हो जाएगा
एक अनंत प्रतियोगिता होगी जिसमें लोग
पराजित न होने के लिए नहीं
अपनी श्रेष्ठता के लिए युद्धरत होंगे

तब आएगी क्रूरता

पहले हृदय में आएगी और चेहरे पर न दीखेगी
फिर घटित होगी धर्मग्रंथों की व्याख्या में
फिर इतिहास में और फिर भविष्यवाणियों में
फिर वह जनता का आदर्श हो जाएगी
निरर्थक हो जाएगा विलाप
दूसरी मृत्यु थाम लेगी पहली मृत्यु से उपजे आँसू
पड़ोसी सांत्वना नहीं एक हथियार देगा

तब आएगी क्रूरता और आहत नहीं करेगी हमारी आत्मा को
फिर वह चेहरे पर भी दिखेगी
लेकिन अलग से पहचानी न जाएगी
सब तरफ होंगे एक जैसे चेहरे
सब अपनी-अपनी तरह से कर रहे होंगे क्रूरता
और सभी में गौरव भाव होगा

वह संस्कृति की तरह आएगी
उसका कोई विरोधी न होगा
कोशिश सिर्फ यह होगी कि किस तरह वह अधिक सभ्य
और अधिक ऐतिहासिक हो

वह भावी इतिहास की लज्जा की तरह आएगी
और सोख लेगी हमारी सारी करुणा
हमारा सारा श्रृंगार

यही ज्यादा संभव है कि वह आए
और लंबे समय तक हमें पता ही न चले उसका आना।


उपकार

मुसकराकर मिलता है एक अजनबी
हवा चलती है उमस की छाती चीरती हुई
एक रुपये में जूते चमका जाता है एक छोटा सा बच्चा
रिक्शेवाला चढ़ाई पर भी नहीं उतरने देता रिक्शे से
एक स्त्री अपनी गोद में रखने देती है उदास और थका हुआ सिर
फकीर गाता है सुबह का राग और भिक्षा नहीं देने पर भी गाता रहता है

अकेली भीगी कपास की तरह की रात में
एक अदृश्य पतवार डूबने नहीं देती जवानी में ही जर्जर हो गए हृदय को
देर रात तक मेरे साथ जागता रहता है एक अनजान पक्षी
बीमार सा देखकर अपनी बर्थ पर सुला लेता है सहयात्री
भूखा जानकर कोई खिला देता है अपने हिस्से का खाना
और कहता है वह खा चुका है

जब धमका रहा होता है चैराहे पर पुलिसवाला
एक न जाने कौन आदमी आता है कहता है
इन्हें कुछ न कहें ये ठीक आदमी हैं
बहुत तेजी से आ रही कार से बचाते हुए
एक तरफ खींच लेता है कोई राहगीर
जिससे कभी बहुत नाराज हुआ था वह मित्र
यकायक चला आता है घर

सड़क पर फिसलने के बाद सब हँसते हैं नहीं हँसती एक बच्ची

जब सूख रहा होता है निर्जर झरना
सारे समुद्रों, नदियों, तालाबों, झीलों और जलप्रपातों के
जल को छूता हुआ आता है कोई कहता है मुझे छुओ
बुखार के अँधेरे दर्रे में मोमबत्ती जलाये मिलती है बचपन की दोस्त

एक खटका होता है और जगा देता है ठीक उसी वक्त
जब दबोच रहा होता है नींद में कोई अपना ही
रुलाई जब कंठ से फूटने को ही होती है
अंतर के सुदूर कोने से आती है ढाढ़स देती हुई एक आवाज
और सोख लेती है कातर कर देनेवाली भर्राहट

इस जीवन में जीवन की ओर वापस लौटने के
इतने दृश्य हैं चमकदार
कि उनकी स्मृति भी देती है एक नया जीवन।

चाँद तुम्हारे साथ कुछ दूर तक

सिर के ऊपर अस्सी डिग्री पर खिला है चाँद
आसपास इक्के-दुक्के तारे हौसला रखते हैं
नीचे पसरे हुये खेत, दूर पहाड़ी, एक खण्डहर
बीच में से गुजरती सड़क जिसका कोलतार
चमकता है चाँदनी में स्निग्ध
पेड़ निश्चल हैं और पत्तियों में से हवा
ऐसे बहती है कि कहीं वे जाग न जायें

तुम्हें क्या याद आता है
आधी रात से ठीक पहले के इस दृश्य में ?
एक सुबह पर गिरती हुई दूसरी सुबह
एक रात पर दूसरी रात
जो घुलती जाती है चाँदनी की धूसर चमक में
अभी यह दृश्य है जो सबके लिए खुला है
इस पर नहीं है अभी किसी बिल्‍डर की कुटिल निगाह
यह जो हर बार आबादी से बस थोड़ी-सी दूरी पर है

मुझे यहाँ याद आता है अपना बचपन
और वह वक्त जिसमें कुछ सोचा जा सकता है
इस चाँदनी की, इतने खुले की जरूरत मुझे हमेशा रहेगी
इन सबके बीच, ठीक चाँद के नीचे, इस उजास में
झाड़ी किनारे पेशाब करना किस कदर आह्लादकारी है
तमाम दबावों से धीरे-धीरे मिलती है मुक्ति
फूटते हैं बुलबुले
भीगती मिट्टी से उठती है गंध
एक दूधिया रहस्य तुम्हें घेरता है
जिसे भेदने के लिए
तुम एक और कदम आगे बढ़ाते हो

चुप्पी दृश्यों को करती जाती है मुखर
हर चीज तुम्हें अपने पास बुलाती है
यह सड़क है, यह पत्थरों की मेड़
यह पगडंडी
ये सब तुम्हें तुम्हारा मनुष्य होना याद दिलाते हैं
चाँद तुम्हारे साथ चलता है कुछ दूर तक।

मुश्किल तो मेरी है

सड़कों पर, चौबारों में,
टी.वी. पर, ट्रेनों में, अखबारों में,
हर तरफ हैं धर्म की ध्वजाएँ

उनको क्या मुश्किल, मुश्किल तो मेरी है
मैं जो रिक्शा चलाता हूँ
मैं जो बीड़ी बनाता हूँ
मैं जो गन्ना उगाता हूँ
मैं जो ट्रैफिक में फँस जाता हूँ
मैं जो उधारी में पड़ जाता हूँ
मैं जो शहनाई बजाता हूँ
मैं जो भूख से बिलबिलाता हूँ

उनका क्या, मुश्किल तो मेरी है
मैं जो बच्चों की फीस नहीं चुका पाता हूँ
मैं जो कचहरी के चक्कर लगाता हूँ
मैं जो हाट-बाजार में घिर जाता हूँ
मैं जो ठंडे फर्श पर सो जाता हूँ
मैं जो निरगुनियाँ गाता हूँ
पड़ोसी से एक कटोरी शकर लाता हूँ
और आसपास के सुख-दुख में शामिल होते हुए
आखिर अपना हिन्दू मुस्लिम होना भूल जाता हूँ।

एक स्त्री पर कीजिए विश्वास

जब ढह रही हों आस्थाएँ
जब भटक रहे हों रास्ता
तो इस संसार में एक स्त्री पर कीजिए विश्वास
वह बताएगी सबसे छिपाकर रखा गया अनुभव
अपने अँधेरों में से निकालकर देगी वही एक कंदील

कितने निर्वासित, कितने शरणार्थी,
कितने टूटे हुए दुखों से, कितने गर्वीले
कितने पक्षी, कितने शिकारी
सब करते रहे हैं एक स्त्री की गोद पर भरोसा
जो पराजित हुए उन्हें एक स्त्री के स्पर्श ने ही बना दिया विजेता
जो कहते हैं कि छले गए हम स्त्रियों से
वे छले गए हैं अपनी ही कामनाओं से

अभी सब कुछ गुजर नहीं गया है
यह जो अमृत है यह जो अथाह है
यह जो अलभ्य दिखता है
उसे पा सकने के लिए एक स्त्री की उपस्थिति
उसकी हँसी, उसकी गंध
और उसके उफान पर कीजिए विश्वास

वह सबसे नयी कोंपल है
और वही धूल चट्टानों के बीच दबी हुई एक जीवाश्म की परछाईं।

एक सुबह की डायरी

वह अपनी धुन में किसी पक्षी के साथ नापता हुआ आकाश
उसकी आँखों में आसमान का रंग चमकता विस्तृत नीला
उसकी चाल को धरती का घर्षण जैसे रोकता-सा
काँच के टुकड़ों की आपसी रगड़ का रंगीन संगीत
उठता हुआ निक्कर की जेबों में से
गूँजता हुआ इस दिक् के सन्नाटे में
आँखों के आगे चाकलेट की पारदर्शी पन्नी लगाए
कूदता चलता वह करता खेल अनेक

दूध की लाइन में खड़े व्याकुल अधीर लोगों के बीच
वही था जो बेपरवाह था वह जो असीम था
और तैर रहा था अथाह बचपन की झील में
वही था जो आसपास को देखता हुआ इस तरह
मानो हर चीज़ पर उसका ही अधिकार
जो दूध वाले के मजाक पर देखता उसे क्षमा करता हुआ
थैली को निक्कर की दूसरी जेब में घुसाने के
एक बड़े नाट्य में व्यस्त

वह जो ट्रक की तेजी को परास्त करता
पार करता हुआ सड़क
गली के छोर पर दिखता चपल
एक कौंध
एक झोंका गायब होता हुआ हवाओं के साथ
वह जो इस पुरातन दुनिया को करता हुआ नवीन
और अद्यतन !
वह जो मेरे आज के दिन का प्रारंभ !

बीज

जो पराजित है वह धन है संसार का

यह हवा बहेगी
एक हारे हुए का जीवन सँभालने के लिए ही
जो जानती है कि पराजित होना जिंदगी से बाहर होना नहीं
दाखिल होना है एक विशाल दुनिया में

जिंदगी में दाखिल हो गए इस व्यक्ति को
ईर्ष्या और प्रशंसा और अचरज से
देखता है जीवन से बाहर खड़ा आदमी
वह समझ ही नहीं पाता है कि वह तो
फ्रेम से बाहर खड़ा हुआ प्रेक्षक है एक

जो पराजित है और टूट नहीं गया है
वह
नए संसार के होने के लिए
एक नया बीज है !

संगीत है

यह संगीत है जो अविराम है
यह भीड़ में है
जो अकेलेपन के कक्ष में
गूँजता है अलग बंदिश में

शब्द में
निःशब्द में हवा में
निर्वात में
संगीत है

यह जिजीविषा जो कभी सितार है
कभी बाँसुरी
कभी अनसुना वाद्ययंत्र
और यह दुःख के साथ-साथ
जो कातरता बज रही है शहनाई में
और यह दुराचारी का दर्प
जो भर गया है नगाड़े में

यह संगीत है
जो छिप नहीं सकता
यह है भीतर से बाहर आता हुआ
यह है बाहर से
भरता हुआ भीतर

यह संगीत है
कभी टिमटिमाता हुआ एक तार पर
कभी गुँजाता हुआ पूरी कायनात का सभागार ।

दृश्य

सामूहिक रुदन, विलाप, भूख, हाय-हाय
बेबसी और छाती कूटने के कोलाज का विशाल दृश्य
शून्य काल के ब्लैक-होल में
अनायास ही हो जाता है विलीन

अब सब तरफ सब कुछ ठीक है की साँय-साँय है
मानो यह लोकप्रिय सिनेमा का कोई गद्गद् करुण दृश्य है
जनपद के विशाल सिनेमा हॉल में बैठे हैं हम विमूढ़
कभी सुबकते हुए कभी बजाते हुए तालियाँ
और फिर हँसते हुए यह सोच कर कि अरे यह तो है फिल्मी दृश्य !

आगे पटकथा यह है कि एक विचारवान की अहिंसा से भी
नष्ट होता जा रहा है जरूरी जीवन

लेकिन अगले अंक में तो हास-परिहास है
विद्वान उछल रहे है सुविधाओं के स्प्रिंग पर उत्तेजित
संज्ञाएँ, विशेषण, सर्वनाम और क्रियाएँ
जैसे किसी हँसोड़ के संवाद और अभिनय

अब इस दृश्य में
भाषा के वृक्ष से झर रहे हैं विचार के पत्ते

चौराहे पर बज रहा है पराक्रम का खाली कनस्तर
हर आदमी एक दूसरे आदमी की जेब में पड़ा हुआ एक रिमोट
एक छोटा-सा बटन है किसी मनुष्य की हत्या
ऐसे में किसी-कवि नागरिक की राय का
भला क्या अर्थ हो सकता है ?

अब यह दो विलाप दृश्यों के अंतराल का दृश्य नहीं है
न यह काव्यात्मक प्रस्तुति है
न संगीत भरी पुकार
न ही किसी अवश के स्यापे का री-टेक
यह समय के छोटे-से तार पर
दोनों तरफ लटके हुए केंचुए के जीवित शव को
घूरे पर फेंके जाने का दृश्य है

अब यही एक दृश्य है जो इस महादेश में
एक क्षण में एक हजार बार फिल्माया जा रहा है।

गोआ : 1998

चित्रों में कितना कम जिंदगी में फैला विस्तार अटूट
देश के नक्शे में चमकता हुआ एक किडनी की तरह
ललचाने वाली बदनामियों और प्रसिद्धि के बीच
अपनी लापरवाही में मस्त

हर कदम पर मिलते नारियल के वृक्ष मौज में हिलते-डुलते
ईसाइयत के निशान हजारों जिनमें पुर्तगाली चमक का एहसास बराबर
जहाँ भी बैठो मस्ती में या थक कर वहीं पास कहीं दिखता एक क्रॉस
समुद्र की नमक घुली हवा में साँस लेते हम जिसमें रसायनों की गंध कम
लेकिन खाना परोसता हुआ आदमी कहता है -
अब नहीं रही पहले-सी हवा !

मीलों फैले बीचों पर पर्यटकों का उत्सव अनंत
मौज-मस्ती के दृश्यों के बीच अविस्मरणीय वह कृशकाय अधेड़ जोड़ा
लहरों के साथ आई सीपियों को भूख से चलित हाथों से बीनता
मछलियों की गंध के बीच विदेशी ग्राहकों को पटाते आदमी निरक्षर बोलते अंग्रेजी
रेत के मुलायम गद्दे में धँसे हम अवाक् देखते डूबते सूर्य की अरुण छटा
जो फिर एक बार शब्दातीत
पास में ही गीली बालू पर समुद्री कीट के रेंगने के निशान
जिन्हें अगले पल में ही मिटाने आ रही वह एक तेज लहर

सुबह छह बजे की उजास में धुली सड़कें चमकती गलियाँ
रात आठ बजे से ही फिर अपनी चुप्पी के रहस्य में डूबती हुईं
लोग घरों में बंद चुपचाप लेते चुस्कियाँ
और वहीं प्रकृति में पकते काजुओं की खुशबू
ज़मीन में दफ़न हाँडी में से उठती है होरॉक की गंध
शाम होते ही हर घर धीरे-धीरे तब्दील होता किसी शराबखाने में
रोशनी की जरा-सी दरार में मिल जाती पीने की गुंजाइश
फिर समुद्र की तरफ से आने वाली हवाओं में झूमता शहर पणजी
घरों की गुल बत्तियों से पैदा हलके अँधेरे में
सोता हुआ चैतन्य नींद में
पुल के किनारे जलती बत्तियों की लंबी कतार की परछाइयाँ
गिरकर चमकती हैं खाड़ी के हरे-नीले जल में

उन्नीस सौ इकसठ की याद अभी धूमिल नहीं
घर-घर में एक बुजुर्ग जैसे उत्सर्ग और लंबी यातना का किस्सा
नेहरू की गोआ-नीति को ले कर नाखुश लोग शहीदों के लिए भावुक
बस्तियाँ नष्ट होती हैं इतना नव-निर्माण
हर तरफ से आती हैं सरिए काटने और फरमों में कंक्रीट डालने की आवाजें
भीतर गाँवों में हरीतिमा से घिरा वही विपन्न जीवन
हिप्पियों और नशेलचियों के लिए एक मुफीद जगह
पर्यटन केंद्रों में श्रेष्ठता की होड़ ने सस्ती कर दी है शराब

एक पर्यटक की तरह भी देखते हुए कितना कम
लौटते हैं हम जुड़वाँ पुलों में से एक को पार करते हुए
जहाँ से रोशन जहाज की तरह चमकता हुआ
दिखता है विधान-सभा का श्वेत-भवन !

कोई है माँजता हुआ मुझे

कोई है जो माँजता है दिन-रात मुझे
चमकाता हुआ रोम-रोम
रगड़ता
ईंट के टुकड़े जैसे विचार कई
इतिहास की राख से
माँजता है कोई

मैं जैसे एक पुराना ताँबे का पात्र
माँजता है जिसे कोई अम्लीय कठोर
और सुंदर भी बहुत
एक स्वप्न कभी कोई स्मृति
एक तेज सीधी निगाह
एक वक्रता
एक हँसी माँजती है मुझे

कर्कश आवाजें
ज़मीन पर उलट-पलट कर रखे-पटके जाने की
और माँजते चले जाने की
अणु-अणु तक पहुँचती माँजने की यह धमक
दौड़ती है नसों में बिजलियाँ बन
चमकती है

धोता है कोई फिर
अपने समय के जल की धार से
एक शब्द माँजता है मुझे
एक पंक्ति माँजती रहती है
अपने खुरदरे तार से।

मेरा प्रिय कवि

वह हिचकिचाते हुए मंच तक आया
उसके कोट और पैंट पर शहर के रगड़ के निशान थे
वह कुछ परेशान था लेकिन सुनाना चाहता था अपनी कविता
लगभग हकलाते हुए शुरू किया उसने कविता का पाठ
मगर मुझे उसकी हकलाहट में एक सात्विक हिचकिचाहट सुनाई दी
एक ऐसी हिचकिचाहट जो इस वक्त में दुनिया से बात करते हुए
किसी भी संवेदनशील आदमी को हो सकती है
लेकिन उसने अपनी कविता में वह सब कहा
जो एक कवि को आखिर कहना ही चाहिए
वह हिचकिचाहट धीरे-धीरे एक अफसोस में बदल गई
और फिर उसमें एक शोक भरने लगा
उसकी कविता में फिर बारिश होने लगी
उसके चश्मे पर भी कुछ बूँदें आईं
जिन्हें मेरे प्यारे कवि ने उँगलियों से साफ करने की कोशिश की
लेकिन तब तक और तेज हो गई बारिश
फिर कविता में अचानक रात हो गई
अब उस गहरी होती रात में हो रही थी बारिश
बारिश दिख नहीं रही थी और बारिश में सब कुछ भीग रहा था
कवि के आधे घुँघराले आधे सफेद बालों पर फुहारें थीं
होंठों पर सिगरेट के धुँए की चहलकदमी के साँवले निशानों को छू कर
कविता बह रही थी अपनी धुन में
एक मनुष्य होने के गौरव के बीच संकोच झर रहा था उसमें से
वह एक आत्मदया थी वह एक झिझक थी
जो रोक रही थी उसकी कविता को शून्य में जाने से

कविता पढ़ते हुए वह बार-बार वजन रखता था अपने बाएँ पैर पर
बीच-बीच में किसी मूर्ति-शिल्प की तरह थिर होता हुआ
(एक शिल्प जो काव्य-पाठ कर सकता था)

उसके माथे पर साढ़े तीन सिलवटें आती थीं
और बनी रहती थीं देर तक
मैं अपने उस कवि से कुछ निशानी - जैसे उसका कोट माँगना चाहता था
लेकिन मैंने अचानक देखा उसने मुझे एक गिलास दिया
और मेरे साथ बैठ गया कोने में
उसने कहा तुम्हें मैं राग देस सुनाता हूँ
फिर उसने शुरू किया गाना -
वह एक कवि का गाना था
जिसे गा रही थी उसकी नाजुक और अतृप्त आत्मा
एक अतृप्त आत्मा जो बेचैन थी संसार भर के लिए
एक घूँट ले कर उसने कहा कि तुम देखना, मैं अगला आलाप लूँगा
और सुबह हो जाएगी

अचानक मेरा कवि मेरे करीब और करीब आया
कहने लगा कि मैं बहुत कुछ न कर सका इस दुनिया को बदलने के लिए
मैं शायद ज्यादादा कुछ कर सकता था
मुझे छलती रहीं मेरी ही आराम-तलब इच्छाएँ
जिम्मेवारी की निजी हरकतों ने भी मुझे कुछ कम नहीं फँसाया
दायीं आँख का कीचड़ पोंछते हुए वह फिर कुछ गुनगुनाने लगा
कोई करुण संगीत बज रहा था उसमें
मैंने कभी न सुनी थी ऐसी मारक धुन
मेरे भीतर एक लहर उमड़ी और मैं रोने लगा

उधर मेरा प्रिय कवि अपने अण्डाकार चेहरे में
एक भ्रूण को छिपाए
मंच से उतर कर चला आ रहा था अपनी ही चाल से।

मध्यमवर्गीय ओट

हमारे वर्तमान के टीले के पीछे है अभी भी वह समय
जब बहुत कम थीं घर में चीजें
और कहीं कोई कमी नहीं लगती थी

फिर तेजी से बदलते रहे चीजों के अर्थ
नए-नए मिलने वालों
और गरिष्ठ होते एक निजी संसार में
देखते हुए नए सामान
भूलते हुए बचपन
लगता है पीछे छूट गई है प्रत्यक्ष गरीबी

(जैसे सबसे पहले छूटता है साइकिल चलाना)

उधर लगभग एक-सा ही चला आता है दुनिया में
भूख और गरीबी का जीवन
बढ़ाता हुआ रोज अपना आकार
ओझल होता उन लोगों की निगाह से
जिन्होंने अभी-अभी पीछे छोड़ी है एक मटमैली दुनिया

थोड़ी-सी ही संपन्नता की ओट में
छिप जाता है
एक विशाल रोता-कलपता
दुःख भरा संसार।

पर्यटन

मेरे लिए संभव था किसी भी जगह जाना
इसमें कोई आश्चर्य नहीं और न ही चमत्कार क्योंकि मैं एक कवि
निर्वात और सघन पदार्थों में से गुजरना रोज का ही मेरा काम
सूर्य की सतह के छह हजार डिग्री सेल्सियस के तापक्रम में
और सुदूर परिधि पर चक्कर खा रहे
(अभी एक खोजे जा सकने वाले) ग्रह के
माइनस एक हजार डिग्री सेल्सियस के शीत में भी
मेरी इंद्रियाँ और अंग उसी तरह प्रसन्नचित्त
करते हुए अपने काम जैसे भूमध्यसागरीय प्रायद्वीप के
सुखद माने जाने वाले मौसमों में

एक कवि इतना सर्वव्यापी
इतना प्राचीन
जितना गुरुत्वाकर्षण

पृथ्वी के वायुमंडल में सैर करते-करते चल पड़ा मैं
सौर मंडल के हाईवे पर
पौ फटने में देर थी
और मुझे दिख रहा था शुक्र का चमकीला साइन बोर्ड
चला जा रहा था मैं अपनी मौज में टहलता हुआ
कुछ ही देर में जब पहुँचा शुक्र पर
तो बस थोड़े बड़े दिख रहे सूरज के साथ
होती जा रही थी सुबह

वह एक गर्म सुबह थी और गंधक के अम्ल की सघनता के बीच
अपनी उठान पर था ज्वालामुखियों का रोमांचक दृश्य
एक ज्वालामुखी के कगार पर बैठ कर
हँसते हुए मैंने कार्बन मोनॉक्साइड के बादलों से कहा
अभी जमा है मेरे फेफड़ों के सिलेण्डरों में
अनगिन सालों के लायक ऑक्सीजन !

देख कर खुशी हुई कि पृथ्वी एकदम पड़ोस में थी
दूर होते हुए पास में ही होने की खुशी
शुक्र के देदीप्यमान रूप से
बनाया मैंने एक मूर्ति शिल्प और उसे फेंक दिया पृथ्वी पर
सौर मंडल का एक सबसे लंबा और सबसे गर्म दिन बिता कर
शुक्र के चाँद-विहीन आकाश से विदा लेकर
चैन की ठंडक में सोने के लिए मैंने बुध की राह ली
यहाँ एक तिहाई वजन घट जाने से कुछ हलका महसूस किया
और थोड़े-बहुत वायुमंडल से चलाया अपना काम
फिर लंबी रात में खूब सोया मैं कि आगे के सफर के लिए हो सकूँ तैयार
चाँद यहाँ भी नहीं था और रह-रह कर मुझे
याद आया अपनी पृथ्वी का आकाश

पृथ्वी की कक्षा की पगडंडी से ही
मंगल का लाल परचम दीखता था लहराता
चलो, वहाँ कोई न कोई मिलेगा मुझे
सोचते हुए खरामा-खरामा पहुँचा मंगल ग्रह पर
वहाँ मुझे दो चंद्रमा मिले जिन्होंने किया स्वागत

मंगल पर कदम रखते ही मैं चिल्लाया -
लोहा ! लोहा ! कितना सारा लोहा !
मंगल ने मेरे खून में बसाया लोहा
और वहाँ मैंने पृथ्वी के दिन-रात के बराबर का
लालिमा भरा समय बिताया

''बेकार पड़ा है मेरा पूरा लोहा और अब देखो
इस लोहे में लग रही है जंग''
-मंगल ने कहा मुझसे
जैसे दे रहा हो चेतावनी कि लोहा है तो नहीं लगने देना चाहिए जंग
यह संदेश एक परा तरंग पर मैंने तुरंत ही भेजा
धरती पर अपने तमाम साथियों को

फिर चल दिया मैं ताराकार कॉलोनी पार करते हुए
सबसे विशाल ग्रह बृहस्पति की तरफ
अनंत और नित दीपावली का दृश्य वह जहाँ से
गुरु की असीम गुरुत्वाकर्षण भरी हजार आतुर बाँहों ने उठाया मुझे
कहा कि आओ !
सबसे पहले घूमो मेरे वलय में
जो मेरा सबसे दर्शनीय स्थल
बीच में बर्फ का विशाल स्केटिंग का मैदान वर्तुलाकार
इतने विशाल ग्रह को देख कर हुआ विस्मित
मैं एक पर्यटक घूमता बेतहाशा
थक कर सोया एक पूरा दिन और रात भर
एक थके हुए आदमी को
आठ-नौ घंटे की ठंड भरी नींद बहुत ज़्यादा तो नहीं !
सोने से पहले उतने तारे दिखे जितने जीवन में नहीं देखे कभी
और सोलह चंद्रमाओं को देख कर लगा कुछ अजीब
(अब किसको कहूँ अच्छा और किस-किससे किसकी दूँ उपमा !)
वहीं कुछ वे तारे भी थे जो कभी भ्रूण थे मेरी इच्छाओं के
अब उनकी चमक पूरे महीनों के जन्मे शिशुओं की तरह थी
उनके करीब ही उल्काएँ थीं दमकती हुईं
उनके टूट कर लुप्त होने के बाद का अँधेरा था
टूटने और बनने की वेदना की ऊर्जा के आलोक से
जो फिर-फिर प्रकाशित होता था
ठीक वहीं से दृष्टि के गवाक्ष से दिखता था अंतरिक्ष का विशाल कोना
विराट, असमाप्य, विलक्षण स्पेस का एक छोटा-सा उदाहरण
सब कुछ से भरा हुआ महाशून्य
जिसमें सबसे पहले समा कर ओझल होता है समय
'ब्लैक होल' में संगठित होता हुआ एक विशाल घनत्व
- घनसत्व !!

शनि तक पहुँचते हुए लगा कि अब चला आया हूँ वाकई कुछ ज़्यादा ही दूर
नीले-हरे ग्रह के भीतर भी गया मैं
उसके अनेक वलयों से खेलने में मजा आया बहुत
नीली बारिश होती रही
और उसने मेरे बचपन को एक बार फिर भर दिया बारिश से
वहीं शीत का एक काल बिताया मैंने
और दोपहरी के अनगिन पहर भी
वापस भी लौटना था इसलिए
यूरेनस, नेप्च्यून और प्लूटो की सैर करते हुए स्थगित -
(आह, नेप्च्यून का वह तेज नीला बुलाता हुआ रंग !)
झूलते हुए अपनी पंचबाहु नीहारिका की सबसे सुंदर बाँह में
लौटते हुए मुझे दिखीं अपनी अनेक रिश्तेदारियों की नीहारिकाएँ
क्या ये सब मौसियाँ हैं मेरी
और 'बिग बेंग' क्या मेरा नाना हुआ ?
वंशावली के बारे में कुछ भी निश्चित कहना ठीक नहीं
कितने गंधर्व विवाह हुए होंगे और कितने स्वयंवर
और यह सूर्य ही - मेरे सबसे निकट एक तारा - क्या कम विराट है
चला ही तो रखा है सबको इस रूपवान तेजवान रसिया ने
चक्कर लगाता है हर कोई बँधा हुआ आकर्षण में

चल रहा है रास
महारास ! !
जैसे यह पूरा सौर मंडल एक रास मंडल !

एक तारा भी नहीं रहना चाहता अकेला
समूह में रहना सीखा है हमने तारों से

सोच में लगाता हुआ अपनी छलाँगें
गुज़रता हुआ अदृष्ट प्रकाश रेखाओं के रास्तों में से
सुनता हुआ अश्रव्य ध्वनियाँ
बचता हुआ उल्काओं से
जब लौटा मैं अपने घर
बेटा साइकिल निकाल रहा था स्कूल जाने के लिए
और नल पर चल रहा था वही सनातन झगड़ा
पत्नी थी मशगूल चाय बनाने में

अखबार पढ़ते हुए
अवस्थित होते हुए अपने छोटे-से काल में
मैं सुड़कने लगा चाय।

मुर्गी

उसकी चाल में एथलीट की अकड़ और शान
गर्दन की कोमलता में गति का सौंदर्य अनुपम
इस सुबह में वह चुगती हुई दाना
कितनी संलग्न
कितनी समर्पित !

पंखों के डिजाइन का फ्रॉक पहने
वह एक किलकती हुई बच्ची
कूदती-फुदकती मोहल्ले की गलियों में

दूसरी मुद्रा में वह एक चिंतित स्त्री
दाना-पानी की खोज में भटकती
कभी निकली हुई सैर पर नन्हे बच्चों के साथ
जीवन की छोटी-सी स्पंदित उड़ान में प्रसन्न

सचेत निहारती गोल चमकदार आँखों से दुनिया को
हर आक्रमण के खिलाफ़ सजग दौड़ से भरी हुई
उसे छूना उत्साह भरी एक थकाऊ क्रिया

इस समय वह बेपरवाह अपने ऊपर लगी
स्वाद भरी हिंसक निगाह से
लचक से झुकाती हुई ग्रीवा
कचरे के ढेर में से उठाती छिपा हुआ अन्न कण

हवा में मिलाती हुई
अपनी तरह की खास और मीठी आवाज के गुल्ले !

यह एक दिन

एक दिन आता है जीवन में एकदम खाली
जिसमें करने के लिए कुछ भी नहीं
चाह कर भी जिसमें नहीं किया जा सकता कुछ
फ्रेम में जड़ा हुआ एक खाली दिन
दीवार पर तसवीर में मुस्कराते किसी भी ईश्वर की तरह व्यर्थ
खालीपन से लबालब भरा हुआ एक दिन

छीनता हुआ एक दिन का साहस
एक दिन की ताकत
एक दिन के समय की संपत्ति

बाहर पत्तियाँ भी नहीं गिर रही हैं
मौसम में मौसम की शिनाख्त नहीं है
दिन ढलान पर से लुढ़क नहीं रहा है
रात होकर गुज़रने में अभी कई बरस बाकी हैं

आवाजों से आने वाले की पहचान मुश्किल
हो सकता है यह धमाका किसी खुशी में किया गया हो
यह पदचाप मुमकिन है कि महज एक खयाल हो
और यह कराह
कोई हिस्सा हो बच्चों के किसी खेल का

जैसे यह दिन इस जीवन का ही हिस्सा है
एक खाली कैनवैस
कुछ बनाने के लिए यह फिर कभी न मिलेगा
मेरी संभव कूदों में से एक कूद को धूल-धूसरित करता
यह एक दिन जा रहा है
इस बीतते जा रहे दिन के सामने मैं एक असहाय दर्शक, बस !

फुटबॉल मैच से उठने वाला शोर भी इसमें नहीं भरा जा सका
एक बच्चे की किलकारी और एक स्त्री की मादक चेष्टा
इस दिन से टकरा कर लौट चुकी है
यह दिन तना हुआ पत्थर की किसी दीवार की तरह
अपने भीतर के खालीपन की रक्षा करता हुआ मुस्तैद

'एक दिन की अन्यमनस्कता भी बूढ़ा कर सकती है आदमी को'
न जाने किसका आप्त-वाक्य है यह -
या मेरा ही कोई सोच अटका हुआ जेहन में
लेकिन मैं इस दिन के खिलाफ मोर्चा नहीं ले पा रहा हँ
इस दिन के खालीपन से परास्त हुआ मैं
इसके नाकुछ वज़न के नीचे दबा पड़ा हूँ

यह दिन मेरी स्मृति में रहेगा इस तरह
कि जिसे न तो उम्र में से घटाया जा सकेगा
और जोड़ कर देखने में होगा एक अपराध!

आत्म-संलाप

मैं यहाँ तक चला आया हूँ महज आशा करते हुए
हँसते हुए गाना गाते हुए
अभिवादन, आइए - बैठिए, दुःख, तंगहाली
हम कुछ कर सकते हैं
या हम अब कुछ नहीं कर सकते
अजर स्त्रोत के जल की तरह बहता पैसा
और खाई विशाल जैसे अलंघ्य
जिसमें गिरते हुए अरबों कीट-पंतग मनुष्यों जैसे लगते
समुद्र में हर पल बनती लहर लौट कर आती किनारों से ही
फैलता हुआ नमक का झाग तटों पर
जिसकी तलहटी में किरकिराती बारीक रेत

मैं कोई घोंघा नहीं न ही मेढ़क
कभी होता कभी करता हुआ शिकार
अजब पहाड़ों असंख्य प्रजातियों के वृक्षों और प्राणियों से घिरा
समुद्रों के चिर यौवन की दहाड़ के बीच मैं एक मनुष्य हूँ
और अनुभव करना चाहता हूँ-
कि मनुष्य हूँ
इड़ा पिंगला सुषुम्ना के त्रिभुज में कसा हुआ
अपनी बहत्तर ग्रंथियों से राग-रागनियाँ गाता
मैं चला आता हूँ निढाल जीवन का साक्षी होते हुए

ये हाथीदाँत पर की गई पच्चीकारियाँ
चीते की अद्भुत दौड़ से भरी माँसपेशियों के ये आखिरी टुकड़े
शोकगीतों के बीच मैथुनरत हँसते हुए दर्जन भर चेहरे
चुटकुलों पर जीवन-यापन करते विदूषक तमाम
प्रार्थनाओं में छिपी वहशी पुकार
और अपनी आत्मा के गले से निकलने वाली गैंडे जैसी आवाज़
इन अजब-गजब चीजों की मार के बीच भी
हँसता चला आता हूँ देखो

गाँव उजड़े नगर हुए वैभवशाली दुरवस्था से भरे
जिनमें जीवित कितने कम
एक बना दी गई व्यवस्था का हामीदार होता हुआ
अपने लोभ के आगे परास्त टुकुर-टुकुर
एक अछोर गर्द भरे भीड़ से आह्लादित बाजार से गुजरता
होता हुआ हर रोज एक नए तानाशाह का उपनिवेश
नदियों को बाँधने वाली अजगर भुजाओं की
लपेट में तड़पते अपने सहोदरों की छटपटाहट से
कोटि-कोटि ईश्वरों से और उनसे भी ज़्यादा उनके भक्तों से
ज़मीन में दबाए गए इतिहास के हण्डों की दुर्गंध से व्याप्त
इस कब्रगाह में जीवित रहता हूँ

जबकि मेरी प्रतीक्षा में चमक रहे हैं तारे
पतझड़ के बाद वृक्ष हैं मेरी ही तरफ ताकते हुए
ज़मीन के भीतर और बाहर
कितना सारा जीवन है मेरी प्रतीक्षा में
जिनसे छूट चुका है उम्मीद की चिकनी रस्सी का आखिरी सिरा
वे भी जिए जा रहे हैं मेरी प्रतीक्षा में ही
अनंत जगहें हैं जो विकल हैं मेरे स्पर्श को
यात्राएँ हैं जो मेरे जाने से ही होंगी संभव
काम हैं जो सदैव करने से ही होते आए हैं -

और देखो
ओ मेरे शाश्वत पुरूष !
मैं यहाँ बैठे-बैठे ही बदल देना चाहता हूँ यह संसार।

मोह

जैसे यह जलाशय सुनील
प्रतिबिंबित जिसमें जड़-चेतन सभी
जिसकी गहराई में शामिल आकाश की ऊँचाई भी
-यह एक छोटा-सा विवरण है मेरे मोह का

धूल पर ध्वनि यह
लार से सनी किलकारी की
यह प्रगल्भ प्रत्यंचा तनी हुई
करती मेरे अरण्य में मेरा ही आखेट
वरण करती हुई मेरी वासना का

बाँस के झुरमुट को देखने से
हर बार होती यह अभूतपूर्व सनसनी
उठती हुई यह हूक
यह हाहाकार
यह पुकार
यही मेरा मोह है दुर्निवार !

यह हर पल कल की आशा मुग्धकारी
डोर यही इस जीवन की

रहस्य का मोह, ज्ञात का सम्मोह
जान लेने के बाद का मोह तो और भी गहन
यह मोह और संसार में मेरा होना
संबंध है नाभि-नाल का
जर्जर, पुरातन, शक्तिमान, सनातन !

मनुष्य होने की पहली दशा ही है
मोहित हो जाना।

रेखागणित

अंतरिक्ष के असीम में
क्षितिज के विस्तृत चाप पर
वह शुरू होता है हमारी निगाह के कोण से
और टिका रहता है अरबों बार छीली जा चुकी
एक पेंसिल की नोक पर

जटिल विचारों की रेखाएँ काटती एक-दूसरे को जीवन में
और कितना दुश्वार इस सीधे-सादे सच पर यकायक विश्वास कर पाना
कि एक सरल रेखा में छिपा हुआ है एक सौ अस्सी डिग्री का कोण
और यह कि वृत्त की असमाप्त गति में शामिल जीवन का पूरा चक्र
अलग-अलग दिशाओं में जाने वाली रेखाओं में प्रकट
असमान जिंदगियों के बीच की हर क्षण बढ़ती दूरी
और वहीं कहीं छिपे वर्ग-संघर्ष के बीज
समाज के स्वप्न में चीखता है स्वप्नद्रष्टा
बनाओ समबाहु समकोणीय चतुर्भुज -
शोषणमुक्त एक वर्ग !

याद करो सुदूर रह गए बचपन में
सुथरा षटकोण बनाने का वह प्रयास अथक
वह शंकु जिसको अलग अलग जगह से काटो तो मिलती आकृतियाँ नाना
पायथागोरस की हर जगह उपयोगी वह मजेदार थ्योरम
बस्ते में अभी तक बजता हुआ कम्पास बॉक्स
और संबंधों का वह त्रिकोण !
यह रेखागणित है जिसमें सबसे आसान बनाना डिग्री का निशान
और बहुत मुश्किल बना पाना
एक झटके में चंद्रमा की कोई भी निर्दोष कला

हर बार एक छोटी-सी अधूरी रही इच्छा
एक ऐसी सिद्धि
जिसे हमेशा ही सिद्ध किया जाना शेष
न्याय अन्याय की रेखाएँ चली जाती हैं समानांतर
कभी न मिलने के लिए अटल

व्यास, परिधि, त्रिज्या और पाई
इन औजारों से भी मुमकिन नहीं नाप सकना
जीवन के न्यून कोण और अधिक कोण के बीच की दुर्गम खाई
एक बिंदु में छिपे अणु हजार
और दबी-कुचली, टूटी-फूटी रेखाओं की पुकारों
आहों से भरा यह नया ग्लोबल संसार
वक्र रेखा की तरह अनिश्चित गति से भरा
जिसके आगे रेखागणित भी अचंभित खड़ा

हिरणी, सप्तऋषि, अलक्षित तारे
नदी तट पर चंद्रमा बाँका
रति की प्रणति, आकृतियाँ मिथुन और वह बाहुपाश
यह लिपि प्राचीन, उड़ती चिड़ियाँ, हजारों विचार
उत्तरायण-दक्षिणायन होते सूर्य देव
पिरामिड, झूलती मीनार
रोटी, कागज, बर्तन,
हिलता हुआ हाथ और वह चितवन
पहाड़ का नमस्कार, खजूर का कमर झुका कर हिलना
दिशाएँ तमाम जिनके असंख्य कोण पसरे ब्रह्मांड में
और यह अनंत में घूमती जरा-सी तिरछी पृथ्वी...

मैं यूक्लिड कहता हूँ देखो !
जिधर डालो निगाह
उधर ही तैर रही है एक रेखागणितीय आकृति
और वहीं कहीं छिपी हो सकती है
जिंदगी को आसान कर सकने वाली प्रमेय।
यूक्लिड- रेखागणित के पितामह, प्रसिद्ध गणितज्ञ

अव्यक्त

कुछ चीजें दफन ही रहती आएँगी
इतनी ही है भाषा की शक्ति
ओ मेरी प्रबल आकांक्षा !
अंत में बचा ही रहेगा
अगले मनुष्य के लिए थोड़ा-सा रहस्य

कपास के फूल को देखने के अनुभव
और कह पाने के बीच का अंतराल
चला जाएगा एक मनुष्य के साथ ही अव्यक्त
और यह कोई कृपणता नहीं होगी
यह व्यक्तिगत प्रकाश जिसे कोई न देख सकेगा
नसों और नाडि़यों के बीच बसा ईथर
इसे यदि ईश्वर कह दूँगा
तो गलत दिशा की तरफ चली जाएगी दुनिया
व्यक्त भले कुछ न हो
इशारा ठीक तरफ होना चाहिए सोचता हूँ
फिर अव्यक्त रह जाता है भीतर का उल्लास

नम चीजों पर गिरती हुई यह कार्तिक की धूप है
गिलहरी को देख कर बच्चे की यह हँसी
जो सर्प को देखते हुए भी हो सकती थी इतनी ही प्रफुल्ल
खाने की मेज पर बुलाया जा रहा है तुम्हें
तुम जो जाना चाहते हो मृत्यु के पास
इस व्याख्येय अतार्किकता के बीच भी
चला आता है कुछ अव्यक्त

गुब्बारों के रंगों को
उनके भीतर बसी हवा ही देती है सच्ची शकल
और उड़ाए चली जाती है जाने किधर
तुम कभी नहीं जान पाते हो
उस निगाह के भीतर क्या रह गया था शेष
जो आज भी चमकता है अँधेरों में रेडियम की तरह

हृदय दोपहरी में देखता है चकित
सुबह विलीन हो चुकी होती है अंतरिक्ष में
यह शाम का गुम्बद है
कई तरह की आवाजें आती हैं
आलस्य, दुःख और विफलता में डूबी
सुख का यह भी एक चेहरा है
जो बच जाता है उजागर होने से

गुहा के भीतर गुहा है
और उसके भीतर
जीवन की एक कोशा

ऐसा ही कुछ
कहना चाहता है कोई हजारों सालों से
जो हर बार चला आता है अनकहा
जिसके आसपास लगे हुए शब्दों के शर
जो बिंधा हुआ अपने सौंदर्य में अव्यक्त।

अन्याय

अन्याय की ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती
वह एक दिन होता ही है
याद करोगे तो याद आएगा कि वह रोज ही होता रहा है

कई बार इसलिए तुमने उस पर तवज्जो नहीं दी
कि वह किसी के द्वारा किसी और पर किया जाता रहा
कि तुम उसे एक साधारण खबर की तरह लेते रहे
कि उसे तुम देखते रहे और किसी मूर्ति की तरह देखते रहे
कि वह सब तरफ हो रहा होता है
तुम सोचते हो और चाय पीते हो कि यह भाग्य की बात है
और इसमें तुम्हारी कोई भूमिका नहीं है

फिर सोचोगे तो यह भी आएगा याद कि तुमने भी
लगातार किया है अन्याय
जो ताकत से किया या निरीह बन कर सिर्फ वह ही नहीं
जो तुम प्रेम की ओट ले कर करते रहे वह भी अन्याय ही था
और जो तुमने खिलते हुए फूल से मुँह फेर कर किया
और तब भी जब तुम अपनी आकांक्षाओं को अकेला छोड़ते रहे

और जब तुम चीजों पर अपना और सिर्फ अपना हक मानते रहे
घर में ही देखो तुमने पेड़,पानी,आकाश,बच्चों और स्त्री पर
और ऐसी कितनी ही चीजों पर कब्जा किया
इजारेदारी से बड़ा अन्याय और क्या हो सकता है!

और उस तथाकथित पवित्र आंतरिक कोने में भी देखो
जिसे कोई और नहीं देख सकता तुम्हारे अलावा
वहाँ अन्याय करते रहने के चिह्न अब भी हैं
तुमने एक बार दासता स्वीकार की थी
एक बार तुम बन बैठे थे न्यायाधीश
इस तरह भी तुमने अन्याय के कुछ बीज बोए
तुम एक बार चुप रहे थे, उसका निशान भी दिखेगा
और उस वक्त का भी जब तुम विजयी हुए थे

अन्याय से ही आखिर एक दिन अनुभव होता है
कि कुछ ऐसा होना चाहिए जो न हो अन्याय
और इस तरह तुम्हारे सामने
जीवन की सबसे बड़ी जरूरत की तरह आता है -
न्याय!


इच्छा और जीवन

अपनी इच्छा में मैं बाँस के झुरमुट के बीच एक मचान पर रहता हूँ
यों ही घूमता फिरता हूँ उड़ता हूँ कुलाँचें भरता हूँ
कभी चिड़िया बन जाता हूँ और कभी हिरण
पेड़ तो इतनी बार बना हूँ कि पेड़ मुझे अपने जैसा ही मानते हैं
संभ्रम में कई बार मुझ पर रात में रहने चले आते हैं तोते
नदी के किनारे पत्थर बन कर सेंकता हूँ धूप

अपने जीवन में मैं मोहल्ले की तीसरी गली में रहता हूँ
गमले में उगी मीठी नीम देखता हूँ
रोज दाढ़ी बनाता हूँ आहें भरता हूँ नौकरी करता हूँ
बुखार आने पर खाता हूँ खिचड़ी और पेरासिटामॉल
एक झाड़ू का पपीते का और प्लास्टिक की
बाल्टी का करता हूँ मोल भाव
खाने में पत्नी से माँगता हूँ हरी मिर्च
चंद्रमा को देखता हूँ सितारों को देखता हूँ
और इच्छाओं को इच्छा के ही जादू से
बना देता हूँ तारे।

तानाशाह की पत्रकार वार्ता

वह हत्या मानवता के लिए थी
और यह सुंदरता के लिए

वह हत्या अहिंसा के लिए थी
और यह इस महाद्वीप में शांति के लिए

वह हत्या अवज्ञाकारी नागरिक की थी
और यह जरूरी थी हमारे आत्मविश्वास के लिए

परसों की हत्या तो उसने खुद आमंत्रित की थी
और आज सुबह आत्मरक्षा के लिए करना पड़ी

और यह अभी ठीक आपके सामने
उदाहरण के लिए!

नई सभ्यता की मुसीबत

नई सभ्यता ज्यादा गोपनीयता नहीं बरत रही है
वह आसानी से दिखा देती है अपनी जंघाएँ और जबड़े
वह रौंद कर आई है कई सभ्यताओं को
लेकिन उसका मुकाबला बहुत पुरानी चीजों से है
जिन पर लोग अभी तक विश्वास करते चले आए हैं
उसकी थकान उसकी आक्रामकता समझी जा सकती है

कई चीजों के विकल्प नहीं हैं
जैसे पत्थर आग या बारिश
तो यह असफल होना नहीं है
हमें पूर्वजों के प्रति नतमस्तक होना चाहिए
उन्हें जीवित रहने की अधिक विधियाँ ज्ञात थीं
जैसे हमें मरते चले जाने की ज्यादा जानकारियाँ हैं

ताड़पत्रों और हिंसक पशुओं की आवाजों के बीच
या नदी किनारे घुड़साल में पुआल पर
जन्म लेना कोई पुरातन या असभ्य काम नहीं था
अपने दाँत मत भींचो और उस न्याय के बारे में सोचो
जो उसे भी मिलना चाहिए जो माँगने नहीं आता

गणतंत्र की वर्षगाँठ या निजी खुशी पर इनाम की तरह नहीं
मनुष्य के हक की तरह हर एक को थोड़ा आकाश चाहिए
और खाने-सोने लायक जमीन तो चाहिए ही चाहिए
माना कि लोग निरीह हैं लेकिन बहुत दिनों तक सह न सकेंगे
स्वतंत्रता सबसे पुराना विचार है सबसे पुरानी चाहत
तुम क्या क्या सिखा सकती हो हमें
जबकि थूकने तक के लिए जगह नहीं बची है

तुम अपनी चालाकियों में नई हो
लेकिन तुम्हारे पास भी एक दुकानदार की उदासी है
जितनी चीजों से तुमने घेर लिया है हमें
उनमें से कोई जरा-सा भी ज्यादा जीवन नहीं देती
सिवाय कुछ नई दवाइयों के
जो यों भी रोज-रोज दुर्लभ होती चली जाती हैं
और एक विशाल दुनिया को अधिक लाचार बनाती हैं
हँसो मत, यह मशीन की नहीं आदमी की चीख है
उसे मशीन में से निकालो
घर पर बच्चे उसका इंतजार कर रहे हैं

हम चाहते हैं तुम हमारे साथ कुछ बेहतर सलूक करो
लेकिन जानते है तुम्हारी भी मुसीबत
कि इस सदी तक आते आते तुमने
मनुष्यों के बजाय
वस्तुओं में बहुत अधिक निवेश कर दिया है।

पुश्तैनी गाँव के लोग

वहाँ वे किसान हैं जो अब सोचते हैं मजदूरी करना बेहतर है
जब कि मानसून भी ठीक-ठाक ही है

पार पाने के लिए उनके बच्चों में से कोई
गाँव से दो मील दूर मेन रोड पर
प्रधानमंत्री के नाम पर चालू योजना में दुकान खोलेगा
और बैंक के ब्याज और फिल्मी पोस्टरों से भर लेगा अपनी दुकान

कोई किसी अपराध के बारे में सोचेगा
और सोचेगा कि यह भी बहुत कठिन है
लेकिन मुमकिन है कि वह कुछ अंजाम दे ही दे

पुराने बाशिंदों में से कोई न कोई
कभी-कभार शहर की मंडी में मिलता है
सामने पड़ने पर कहता है तुम्हें सब याद करते हैं
कभी गाँव आओ अब तो जीप भी चलने लगी है
तुम्हारा घर गिर चुका है लेकिन हम लोग हैं

मैं उनसे कुछ नहीं कह पाता
यह भी कि घर चलो कम से कम चाय पी कर ही जाओ
कह भी दूँ तो वे चलेंगे नहीं
एक - दूरी बहुत है और शाम से पहले उन्हें लौटना ही होगा
दूसरे - वे जानते हैं कि शहर में उनका कोई घर हो नहीं सकता।

आकस्मिक मृत्यु

बच्चे साँप-सीढ़ी खेल रहे हैं
जब उन्हें भूख लगेगी वे रोटी माँगेंगे
उन्हें तुम्हारे भीतर से उठती रुलाई का पता नहीं
वे मृत्यु को उस तरह नहीं जानते जैसे वयस्क जानते हैं
जब वे जानेंगे इसे तो दुख की तरह नहीं
किसी टूटी-फूटी स्मृति की तरह ही

अभी तो उन्हें खेलना होगा, खेलेंगे
रोना होगा, रोयेंगे
अचानक खिलखिला उठेंगे या जिद करेंगे
तुम हर हाल में अपना रोना रोकोगे
और कभी-कभी नहीं रोक पाओगे।

कहीं भी कोई कस्बा

अभी वसंत नहीं आया है
पेड़ों पर डोलते हैं पुराने पत्ते
लगातार उड़ती धूल वहाँ कुछ आराम फरमाती है
एक लम्बी दुबली सड़क जिसके किनारे
जब-तब जम्हाइयाँ लेतीं दुकानें
यह बाजार है

आगे दो चौराहे
एक पर मूर्ति के लिए विवाद हुआ था
दूसरी किसी योद्धा की है
नहीं डाली जा सकती जिस पर टेढ़ी निगाह

नाई की दुकान पर चौदह घंटे बजता है रेडियो
पोस्ट-मास्टर और बैंक-मैनेजर के घर का पता
चलता-फिरता आदमी भी बता देगा

उधर पेशाब से गलती हुई लोकप्रिय दीवार
जिसके पार खंडहर, गुम्बद और मीनारें
ए.टी.एम. ने मंदिर के करीब बढ़ा दी है रौनक
आठ-दस ऑटो हैं रिेक्शेवालों को लतियाते
ताँगेवालों की यूनियन फेल हुई

ट्रैक्टरों, लारियों से बचकर पैदल गुजरते हैं आदमी खाँसते-खँखारते
अभी-अभी खतम हुए हैं चुनाव
दीवारों पर लिखत और फटे पोस्टर बाक़ी

गठित हुई हैं तीन नई धार्मिक सेनाएँ
जिनकी धमक है बेरोजगार लड़कों में

चिप्स, नमकीन और शीतल पेय की बहार है
पुस्तकालय तोड़कर निकाली हैं तीन दुकानें
अस्पताल और थाने में पुरानी दृश्यावलियाँ हैं
रात के ग्यारह बजने को हैं
आखिरी बस आ चुकी
चाय मिल सकती है टाकीज़ के पास

पुराना तालाब, बस स्टैंड, कान्वेंट स्कूल, नया पंचायत भवन,
एक किलोमीटर दूर ढाबा
और हनुमान जी की टेकरी दर्शनीय स्थल हैं।

सब तुम्हें नहीं कर सकते प्यार

यह मुमकिन ही नहीं कि सब तुम्हें करें ‍प्यार
यह जो तुम बार-बार नाक सिकोड़ते हो
और माथे पर जो बल आते हैं
हो सकता है कि किसी को इस पर आए ‍प्यार
लेकिन इसी बात पर कई लोग चले जाएँगे तुमसे दूर

सड़क पार करने की घबराहट खाना खाने में जल्दबाजी
या जरा-सी बात पर उदास होने की आदत
कई लोगों को एक साथ तुमसे ‍प्यार करने से रोक ही देगी
फिर किसी को पसंद नहीं आएगी तुम्हारी चाल
किसी को आँखों में आँखें डालकर बात करना गुजरेगा नागवार
चलते चलते रुककर इमली के पेड़ को देखना
एक बार फिर तुम्हारे खिलाफ जाएगा

फिर भी यदि बहुत से लोग एक साथ कहें
कि वे सब तुमको करते हैं ‍प्यार तो रुको और सोचो
यह बात जीवन की साधारणता के विरोध में जा रही है

तुम धीरे-धीरे अपनी तरह का जीवन जियोगे
और यह होगा ही तुम अपने ‍प्यार करने वालों को
मुश्किल में डालते चले जाओगे
जो उन्नीस सौ चौहत्तर में, उन्नीस सौ नवासी में
और दो हजार पॉंच में करते थे तुमसे प्यार
तुम्‍हारी जड़ों में देते थे पानी
और कुछ जगह छोडकर खडे होते थे कि तुम्हें मिले प्रकाश
वे भी एक दिन इसलिए दूर हो सकते हैं कि अब
तुम्हाए होने की परछाई उनकी जगह तक पहुँचती है

तुम्‍हारे पक्ष में सिर्फ यही बात हो सकती है
कि कुछ लोग तुम्हारे खुरदरेपन की वजह से भी
करने लगते हैं तुम्‍हें प्यार

जीवन उस रंगीन चिड़िया की तरफ देखो
जो कि किसी का मन मोह लेती है
और ठीक उसी वक़्त एक दूसरा उसे देखता है
शिकार की तरह ।


परचम

वहाँ एक फूल खिला हुआ है

अकेला
कोई उसे छू भी नहीं रहा है
किसी सुबह शाम में वह झर जाएगा
लेकिन देखो, वह खिला हुआ है

बारिश, धूल और यातनाओं को जज्ब करते हुए
एक पत्थर भी वहाँ किसी की प्रतीक्षा में है
आसपास की हर चीज इशारा करती है
तालाब के किनारे अँधेरी झाड़ियों में चमकते हैं जुगनू
दुर्दिनों के किनारे शब्द

मुझे प्यास लग आई है और यह सपना नहीं है
जैसे पेड़ की यह छाँह मंजिल नहीं
यह समाज जो आखिर एक दिन आजाद होगा
उसकी संभावना मरते हुए आदमी की आँखों में है
असफलता मृत्यु नहीं है

यह जीवन है, धोखेबाज पर भी मुझे विश्वास करना होगा
निराशाएँ अपनी गतिशीलता में आशाएँ हैं

'मैं रोज परास्त होता हूँ' -
इस बात के कम से कम बीस अर्थ हैं
यों भी एक-दो अर्थ देकर
टिप्पणीकार काफी कुछ नुकसान पहुँचा चुके हैं
गणनाएँ असंख्य को संख्या में न्यून करती चली जाती हैं

सतह पर जो चमकता है वह परावर्तन है
उसके नीचे कितना कुछ है अपार
शांत, चपल और भविष्य से लबालब भरा हुआ।

एक कम है

अब एक कम है तो एक की आवाज कम है
एक का अस्तित्व एक का प्रकाश
एक का विरोध
एक का उठा हुआ हाथ कम है
उसके मौसमों के वसंत कम हैं

एक रंग के कम होने से
अधूरी रह जाती है एक तस्वीर
एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश
एक फूल के कम होने से फैलता है उजाड़ सपनों के बागीचे में
एक के कम होने से कई चीजों पर फर्क पड़ता है एक साथ
उसके होने से हो सकनेवाली हजार बातें
यकायक हो जाती हैं कम
और जो चीजें पहले से ही कम हों
हादसा है उनमें से एक का भी कम हो जाना

मैं इस एक के लिए
मैं इस एक के विश्वास से
लड़ता हूँ हजारों से
खुश रह सकता हूँ कठिन दुःखों के बीच भी

मैं इस एक की परवाह करता हूँ।

यह राख है

इसका रंग राख का रंग है
इसका वजन राख का वजन है
जब सारी गंध उड़ जाती हैं
तो राख की गंध बची रहती है

इसे मुट्ठी में भरो
यह एक देह है
इसे छोड़ो, यह धीरे-धीरे झरेगी
और हथेली में, लकीरों में बची रहेगी

हर क्रूरता, अपमान, प्रेम और संपूर्णता के बाद
यही राख है जो उड़कर आँखों में भरती है

इसे नदी में फेंक दो या खेतों में
इसे पहाड़ों पर फेंक दो या समुद्र में
यह हमेशा बनी रहती है
खून में, हड्डिपयों में, नींद में।

यहां पानी चाँदनी की तरह चमकता है

मेरे पास प्रेमजन्य यह शरीर है
इसी में रोज खिलते हैं फूल और यहीं झर जाते हैं

बहती है नीली नदियाँ और वाष्पित होती हैं
जो मिलती हैं समुद्रों में फिर गिरती हैं बारिश के साथ
यहीं है उतना निर्जन जो जरूरी है सृष्टि के लिए
इसी में कोलाहल है, संगीत है और बिजलियाँ
पुकार है और चुप्पियाँ
यहीं है वे पत्थर जिन पर काई जमा होती है

यहीं घेर लेती हैं खुशियाँ
और एक दिन बदल जाती हैं बुखार में


आँधियाँ चलती हैं और मेरी रेत के ढूह
उड़कर मीलों दूर फिर से बन जाते हैं
यह मेरी अनश्वरता है

यह दिन की चट्टान है जिस पर मैं बैठता हूँ
प्रतीक्षा और अंधकार। उम्मीद और पश्चात्ताप
वासना और सड़क। वसंत और धुआँ
मैं हर एक के साथ कुछ देर रहता हूँ
तारों की तरह टूटते हैं प्रतिज्ञाओं के शब्द
अंतरिक्ष में गुम होते हुए उनकी चमक भर दिखती है
चंद्रमा को मैं प्रकट करता हूँ किसी ब्लैक होल में से
और इस तरह अपने को संसार में से गुजारता हूँ

यह सूर्यास्त की तस्वीर है
देखने वाला इसे सूर्योदय की भी समझ सकता है
प्रेम के वर्तुल हैं सब तरफ
इनका कोई पहला और आखिरी सिरा नहीं
जहाँ से थाम लो वहीं शुरूआत
जहाँ छोड़ दो वहीं अंत

रेत की रात के अछोर आकाश में ये तारे
चुंबनों की तरह टिमटिमाते हैं
और आकाशगंगा मादक मद्धिम चीख की तरह
इस छोर से उस छोर तक फैली है

रात के अंतिम पहर में यह किस पक्षी की व्याकुलता है
किस कीड़े की किर्र किर्र चीं चट
हर कोई इसी जनम में अपना प्रेम चाहता है
कई बार तो बिल्कुल अभी, ठीक इसी क्षण
आविष्कृत हैं इसीलिए सारी चेष्टाएँ, संकेत
और भाषाएँ

चारों तरफ चंचल हवा है वानस्पतिक गंध से भरी
प्रेम की स्मृति में ठहरा पानी चाँदनी की तरह चमकता है
और प्यास का वर्तमान पसरा है क्षितिज तक
तारों को देखते हुए याद आता है कि जो छूट गया
जो दूर है, अलभ्य है जो, वह भी प्रेम है
दूरी चीजों को टिमटिमाते नक्षत्रों में बदल देती है।

था बेसुरा लेकिन जीवन तो था

'ध'
दिनों में धूप थी और धूल
रातें भरी हुईं थी धुएँ से

दिनचर्या बाणरहित धनुष थी

धप् धप् थी और धक्का
धमकियाँ थीं और धीरज

इसी सबके बीच में से उठती थी
हरे धनिये की खुशबू!

'रे'
सबसे ज्यादा वह अरे! अरे! में था
फिर मरे! मरे! में

जितना पूरे में उससे कम अधूरे में नहीं

रंग भूरे में और घूरे में भी
ठहरे में कुछ गहरे में

अकसर ही वह मुट्ठी में से
रेत की तरह झरता था

'स'
वह सबमें था
समझ में, नासमझी में
इसलिए आदि में और अंत में भी

मुस्कराहट और हँसी में
समर्थ में, असहाय में, सत् में, असत् में
इस समय में

और हमारे आधे-अधूरे सपनों में.

'ग'
भगदड़ में से भागते हुए रास्ते में गाय थी
मण्डियों ने उसे गजब गाय बना दिया था

गमलों में फूल खिल रहे थे
और मुरझा रहे थे गमलों में ही गुमसुम

जो गया वह चला ही गया था
गुलजार थे गपशप के चौराहे

सबको अपना अपना गाना गाना था
लेकिन गला था कि भर आता था

इस तरह संगीत में गमक थी।

'म''प' नहीं थे
जैसे कभी कम्बल नहीं था
कभी पानी

बाजार में थे
मगर मेरे पास न थे

बच्चे थे मगर माँ-बाप नहीं थे

जीवन में संगीत था बेसुरा
लेकिन जीवन तो था

'नी'
वह नीड़ में था
जिसे पाना या बनाना सबसे मुश्किल था

फिर वह ऋण की किश्तों में था
फिर कहीं नहीं में

सुनसान में, वीरानी में
नीरवता में और नीरसता में

अंत में वह मुझे
थककर चूर हो गये शरीर की नींद में मिला

और फिर आधी रात में नींद तोड़ देनेवाली
चीख में।

अमीरी रेखा

मनुष्य होने की परंपरा है कि वह किसी कंधे पर सिर रख देता है
और अपनी पीठ पर टिकने देता है कोई दूसरी पीठ
ऐसा होता आया है, बावजूद इसके
कि कई चीजें इस बात को हमेशा कठिन बनाती रही हैं

और कई बार आदमी होने की शुरुआत
एक आधी अधूरी दीवार हो जाने से, पतंगा, ग्वारपाठा
या एक पोखर बन जाने से भी होती है
या जब सब रफ्तार में हों तब पीछे छूट जाना भी एक शुरुआत है
बशर्ते मनुष्यता में तुम्हारा विश्वास बाकी रह गया हो

नमस्कार, हाथ मिलाना, मुसकराना,
कहना कि मैं आपके क्या काम आ सकता हूँ -
ये अभिनय की सहज भंगिमाएँ हैं और इनसे अब
किसी को कोई खुशी नहीं मिलती
शब्दों के मानी इस तरह भी खत्म किए जाते हैं
तब अपने को और अपनी भाषा को बचाने के लिए
हो सकता है तुम्हें उस आदमी के पास जाना पड़े
जो इस वक्त नमक भी नहीं खरीद पा रहा है
या घर की ही उस स्त्री के पास
जो दिन रात काम करती है
और जिसे आज भी मजदूरी नहीं मिलती

बाजार में तो तुम्हारी छाया भी नजर नहीं आ सकती
उसे दूसरी तरफ से आती रोशनी दबोच लेती है
वसंत में तुम्हारी पत्तियाँ नहीं झरतीं
एक दिन तुम्हारी मुश्किल यह हो सकती है
कि तुम नश्वर नहीं रहे

तुम्हें यह देखने के लिए जीवित रहना पड़ सकता है
कि सिर्फ अपनी जान बचाने की खातिर
तुम कितनी तरह का जीवन जी सकते हो

जब लोगों को रोटी भी नसीब नहीं
और इसी वजह से साठ-सत्तर रुपए रोज पर तुम एक आदमी को
और सौ डेढ़ सौ रुपए रोज पर एक पूरे परिवार को गुलाम बनाते हो
और फिर रात की अगवानी में कुछ मदहोशी में सोचते हो
कभी-कभी घोषणा भी करते हो-
मैं अपनी मेहनत और काबलियत से ही यहाँ तक पहुँचा हूँ।

शीर्ष बैठक

वह एक मुस्कराहट के साथ सभागार में प्रवेश करता है
उसने आते ही हर शख़्स को कब्जे में ले लिया है

कक्ष में बार-बार उसकी सिर्फ उसकी आवाज गूँजती है
वह विनम्र है लेकिन हर बात का उत्तर हाँ में चाहता है
धीरे-धीरे उसे घेर लिया है आँकड़ों ने
गायब होने लगी है उसकी हँसी
वह चीखता है : मुझे यह काम दो दिन में चाहिए
और ठीक अगले ही पल तानता है मुट्ठियाँ
मानो अब मुक्केबाजी शुरू होने को है

अचानक वह गिड़गिड़ाने लगता हैः
देखिए, आप तो मरेंगे ही, मुझे भी ठीक से नहीं रहने देंगे
फिर वह तब्दील हो जाता है एक याचक में
वातानुकूलित कक्ष में सब उसके माथे पर पसीना देखते हैं
दोपहर हो चुकी है और वह गुस्से में है
अब वह किसी भी तरह का व्यवहार कर सकता है
उसके पास से विचार गायब होने लगे हैं
उसकी अभिव्यक्ति चार-पाँच वाक्यों में सिमट गई है
'मुझे परिणाम चाहिए'- एक मुख्य वाक्य है
उसकी कमीज पर चाय और दाल गिर गई है
लेकिन उसके पास इन बातों के लिए वक्त नहीं है

वह कहता है चाहे बारिश हो या भूकंप
मुझे व्यवसाय चाहिए और और और और और
और चाहिए
इतने भर से क्या होगा कहते हुए वह अफसोस प्रकट करता है
फिर दुख जताता है कि उसे ही हमेशा घोड़े नहीं दिए जाते
और जो दिए गए हैं वे दौड़ते नहीं

वह अगला वाक्य चाशनी में डुबोकर बोलता है
लेकिन सख्त हो चुकी हैं उसके चेहरे की माँसपेशियाँ
उसके शब्द पग चुके हैं अनश्वर कठोरता में
हालाँकि वह अपने विद्यार्थी जीवन में सुकोमल था
खुश होता था पतंगों को, चिड़ियों को देखते हुए
वह फुटबॉल भी खेलता था और दीवाना था क्रिकेट का
लेकिन अब उससे कृपया खेल, पतंग
या पक्षियों की बातें भूलकर भी न करें
उससे सिर्फ असंभव व्यवसाय के वायदे करें
और अब उस पर कुछ दया करें
हड़बड़ाहट में आज वह रक्तचाप की गोली खाना भूल गया है

वह आपसे इस तरह पेश नहीं आना चाहता
लेकिन बाजार और महत्वाकांक्षाओं ने
उसे एक अजीब आदमी में बदल दिया है
बाहर शाम हो चुकी है पश्चिम का आसमान हो रहा है गुलाबी
पक्षी लौट रहे हैं घोंसलों की तरफ और हवा में संगीत है
लेकिन वह अभी कुछ घंटे और इसी सभागार में रहेगा
जिसमें लटकी हैं पाँच सुंदर पेंटिग्स
मगर सब तरफ घबराहट फैली हुई है।

कुछ समुच्चय

स्मृति की नदी
वह दूर से बहती आती है गिरती है वेग से
उसीसे चलती हैं जीवन की पनचक्कियाँ।
वसंत-1
दिन और रात में नुकीलापन नहीं है
मगर कहीं कुछ गड़ता है।
वसंत-2
भूलती नहीं उड़ती सूखी पत्तियाँ
अमर है उनकी उड़ान।


वसंत-3
पीले, सूखे पत्तों के नीचे कुचला गया हूँ मैं।

इंटरमीडियेट परीक्षा परिणाम
बच्चे युवा दिखने लगे हैं
वे अज्ञात सफर के लिए बाँध रहे हैं सामान।

प्रार्थना
एक शरणस्थली
संभव अपराध के पहले या फिर उसके बाद।

राष्ट्रीयता
दीवार पर लगे बल्ब को देखता हूँ मैं
और सोचता हूँ एडीसन की राष्ट्रीयता के बारे में।

लोकतंत्र
आखिर एक आदमी
जनता को कर ही लेता है अपने नियंत्रण में।

बाँसुरी से
वक्त आये तो बीच में ही बाँसुरी बजाना छोड़कर
उस बाँसुरी से भगाना पड़ सकता है कुत्ते को।


कमाई
मैं उस तरह पाना चाहता हूँ तुम्हारा प्रेम
जैसे कभी प्यासे कौए ने कमाया था घड़े में रखा तलहटी का जल।

आमंत्रण
अमावस की तारों भरी रात में निष्कंप पोखर।

अधेड़ावस्था
दो बच्चे धूल में खेलते, गिरते-उठते
मैं उन्हें देखता हूँ, सिर्फ देखता हूँ।

कविता
वह तुम्हें मरुस्थल या सुरंग के पार ले जाती है
और अकसर छोड़ देती है किसी अज़ायबघर में।


दुख
(चेखव के एक सौ बरस बाद)
आदमी, गाय, बैल, घोड़ा, चिड़िया, मेरे आसपास कोई नहीं
इस मोटरसाइकिल से कैसे कहूँ अपना दुख।


विजेता
घर में घुसते ही गिरता हूँ बिस्तरे पर
यह एक दिन को जीत लेने की थकान है।

जाहिर सूचना
प्रिय नागरिक! न्याय मुमकिन नहीं
मुआवजे के लिए आवेदन बगल की खिड़की पर है।

जरावस्था
जब हमारी गवाही देने की ताकत कम होने लगती है।

बचपन की आवाज
टीन की चादरों पर बारिश की कर्कश आवाज
वर्षों बाद यकायक सुनाई देती है संगीत की तरह।

विकास
जो एक वर्ग किलोमीटर के दायरे में भी एक सरीखा नहीं है।

कवि का बीज
पाँवों, बालों, पूँछों, पक्षियों की बीट और पंखों के साथ
मैं महाद्वीपों को लाँघता हूँ।

 

 

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