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इकतीस
उसी दिन
शव काशी लाया गया। यहीं उसकी दाह-क्रिया हुई। वकील साहब के एक भतीजे मालवे
में रहते थे। उन्हें तार देकर बुला लिया गया। दाह-क्रिया उन्होंने की। रतन
को चिता के दृश्य की कल्पना ही से रोमांच होता था। वहां पहुंचकर शायद वह
बेहोश हो जाती। जालपा आजकल प्रायद्य सारे दिन उसी के साथ रहती। शोकातुर रतन
को न घर-बार की सुधि थी,
न खाने-पीने की। नित्य ही कोई-न-कोई ऐसी बात याद आ जाती
जिस पर वह घंटों रोती। पति के साथ उसका जो धर्म था,
उसके एक अंश का भी उसने पालन किया होता, तो उसे बोध
होता। अपनी कर्तव्यहीनता, अपनी निष्ठुरता,
अपनी श्रृंगार-लोलुपता की चर्चा करके वह इतना रोती कि
हिचकियां बंध जातीं। वकील साहब के सदगुणों की चर्चा करके ही वह अपनी आत्मा
को शांति देती थी। जब तक जीवन के द्वार पर एक रक्षक बैठा हुआ था,
उसे कुत्तों या बिल्ली या चोर-चकार की चिंता न थी,
लेकिन अब द्वार पर कोई रक्षक न था, इसलिए वह सजग
रहती थी,पति
का गुणगान किया करती। जीवन का निर्वाह कैसे होगा,
नौकरों-चाकरों में किन-किन को जवाब देना होगा,
घर का कौन-कौनसा ख़र्च कम करना होगा,
इन प्रश्नों के विषय में दोनों में कोई बात न होती। मानो
यह चिंता म!त आत्मा के प्रति अभक्ति होगी। भोजन करना,
साफ वस्त्र पहनना और मन को कुछ पढ़कर बहलाना भी उसे अनुचित जान पड़ता था।
श्राद्ध के दिन उसने अपने सारे वस्त्र और आभूषण महापात्र को दान कर दिए।
इन्हें लेकर अब वह क्या करेगी? इनका व्यवहार करके
क्या वह अपने जीवन को कलंकित करेगी! इसके विरुद्ध पति की छोटी से छोटी
वस्तु को भी स्मृतिचिन्ह समझकर वह देखती – भालती रहती थी। उसका स्वभाव इतना
कोमल हो गया था कि कितनी ही बडी हानि हो जाय, उसे
क्रोध न आता था। टीमल के हाथ से चाय का सेट छूटकर फिर पडा, पर रतन के माथे
पर बल तक न आया। पहले एक दवात टूट जाने पर इसी टीमल को उसने बुरी डांट बताई
थी, निकाले देती थी, पर आज
उससे कई गुने नुकसान पर उसने ज़बान तक न खोली। कठोर भाव उसके ह्रदय में आते
हुए मानो डरते थे कि कहीं आघात न पहुंचे या शायद पति-शोक और पति-गुणगान के
सिवा और किसी भाव या विचार को मन में लाना वह पाप समझती थी। वकील साहब के
भतीजे का नाम था मणिभूषणब बडा ही मिलनसार, हंसमुख,
कार्य-कुशलब इसी एक महीने में उसने अपने सैकड़ों मित्र बना
लिए।
शहर में
जिन-जिन वकीलों और रईसों से वकील साहब का परिचय था,
उन सबसे उसने ऐसा मेल-जोल बढ़ाया,
ऐसी बेतकल्लुफी पैदा की कि रतन को ख़बर नहीं और उसने बैंक का लेन-देन अपने
नाम से शुरू कर दिया। इलाहाबाद बैंक में वकील साहब के बीस हज़ार रूपये जमा
थे। उस पर तो उसने कब्ज़ा कर ही लिया, मकानों के
किराए भी वसूल करने लगा। गांवों की तहसील भी ख़ुद ही शुरू कर दी,
मानो रतन से कोई मतलब नहीं है। एक दिन टीमल ने आकर रतन से
कहा,
‘बहूजी,
जाने वाला तो चला गया, अब घर-द्वार
की भी कुछ ख़बर लीजिए। मैंने सुना, भैयाजी ने बैंक
का सब रूपया अपने नाम करा लिया।’
रतन ने
उसकी ओर ऐसे कठोर कुपित नजरों से देखा कि उसे फिर कुछ कहने की हिम्मत न
पड़ी। उस दिन शाम को मणिभूषण ने टीमल को निकाल दिया,चोरी
का इलज़ाम लगाकर निकाला जिससे रतन कुछ कह भी न सके। अब केवल महराज रह गए।
उन्हें मणिभूषण ने भंग पिला-पिलाकर ऐसा मिलाया कि वह उन्हीं का दम भरने
लगे। महरी से कहते,
बाबूजी का बडा रईसाना मिज़ाज है। कोई सौदा लाओ,
कभी नहीं पूछते, कितने का लाए।
बड़ों के घर में बडे ही होते हैं। बहूजी बाल की खाल निकाला करती थीं,
यह बेचारे कुछ नहीं बोलते। महरी का मुंह पहले ही सी दिया
गया था। उसके अधेड़ यौवन ने नए मालिक की रसिकता को चंचल कर दिया था। वह एक न
एक बहाने से बाहर की बैठक में ही मंडलाया करती। रतन को ज़रा भी ख़बर न थी,
किस तरह उसके लिए व्यूह रचा जा रहा है।
एक दिन
मणिभूषण ने रतन से कहा,
‘काकीजी,
अब तो मुझे यहां रहना व्यर्थ मालूम होता है। मैं सोचता हूं,
अब आपको लेकर घर चला जाऊं। वहां आपकी बहू आपकी सेवा करेगी,
बाल-बच्चों में आपका जी बहल जायगा और ख़र्च भी कम हो जाएगा।
आप कहें तो यह बंगला बेच दिया जाय। अच्छे दाम मिल जायंगे।’
रतन इस
तरह चौंकी,
मानो उसकी मूर्छा भंग हो गई हो,
मानो किसी ने उसे झंझोड़कर जगा दिया हो सकपकाई हुई आंखों से उसकी ओर देखकर
बोली,
‘क्या
मुझसे कुछ कह रहे हो?’
मणिभूषण—‘जी
हां,
कह रहा था कि अब हम लोगों का यहां रहना व्यर्थ है। आपको
लेकर चला जाऊं, तो कैसा हो?’
रतन ने
उदासीनता से कहा,
‘हां,
अच्छा तो होगा।’
मणिभूषण—‘काकाजी
ने कोई वसीयतनामा लिखा हो,
तो लाइए देखूं, उनको इच्छाओं के
आगे सिर झुकाना हमारा धर्म है।’
रतन ने
उसी भांति आकाश पर बैठे हुए,
जैसे संसार की बातों से अब उसे कोई सरोकार ही न रहा हो,
जवाब दिया,
‘वसीयत
तो नहीं लिखी,
और क्या जरूरत थी?’
मणिभूषण
ने फिर पूछा,
‘शायद
कहीं लिखकर रख गए हों?’
रतन—‘मुझे
तो कुछ मालूम नहीं। कभी ज़िक्र नहीं किया।’
मणिभूषण
ने मन में प्रसन्न होकर कहा,मेरी
इच्छा है कि उनकी कोई यादगार बनवा दी जाय।
रतन ने
उत्सुकता से कहा,
‘हां-हां,
मैं भी चाहती हूं।’
मणिभूषण—‘गांव
की आमदनी कोई तीन हज़ार साल की है,
यह आपको मालूम है। इतना ही उनका वार्षिक दान होता था।
मैंने उनके हिसाब की किताब देखी है। दो सौ-ढाई सौ से किसी महीने में कम
नहीं है। मेरी सलाह है कि वह सब ज्यों-का-त्यों बना रहे।’
रतन ने
प्रसन्न होकर कहा,
हां,
और क्या! ’
मणिभूषण—‘तो
गांव की आमदनी तो धार्मार्थ पर अर्पण कर दी जाए। मकानों का किराया कोई दो
सौ रूपये महीना है। इससे उनके नाम पर एक छोटीसी संस्कृत पाठशाला खोल दी
जाए।
रतन—‘बहुत
अच्छा होगा।’
मणिभूषण—‘और
यह बंगला बेच दिया जाए। इस रूपये को बैंक में रख दिया जाय।’
रतन—‘बहुत
अच्छा होगा। मुझे रूपये-पैसे की अब क्या जरूरत है।’
मणिभूषण—‘आपकी
सेवा के लिए तो हम सब हाज़िर हैं। मोटर भी अलग कर दी जाय। अभी से यह फिक्र
की जाएगी, तब जाकर कहीं दो-तीन महीने में फुरसत
मिलेगी।’
रतन ने
लापरवाही से कहा,
‘अभी
जल्दी क्या है। कुछ रूपये बैंक में तो हैं।’
मणिभूषण—‘बैंक
में कुछ रूपये थे, मगर महीने-भर से ख़र्च भी तो
होरहे हैं। हज़ार-पांच सौ पड़े होंगे। यहां तो रूपये जैसे हवा में उड़ जाते
हैं। मुझसे तो इस शहर में एक महीना भी न रहा जाय। मोटर को तो जल्द ही निकाल
देना चाहिए।’
रतन ने
इसके जवाब में भी यही कह दिया,
‘अच्छा
तो होगा।’
वह उस
मानसिक दुर्बलता की दशा में थी,
जब मनुष्य को छोटे-छोटे काम भी असूझ मालूम होने लगते हैं।
मणिभूषण की कार्य-कुशलता ने एक प्रकार से उसे पराभूत कर दिया था। इस समय जो
उसके साथ थोड़ी-सी भी सहानुभूति दिखा देता, उसी को
वह अपना शुभचिंतक समझने लगती। शोक और मनस्ताप ने उसके मन को इतना कोमल और
नर्म बना दिया था कि उस पर किसी की भी छाप पड़ सकती थी। उसकी सारी मलिनता और
भिकैता मानो भस्म हो गई थी, वह सभी को अपना समझती
थी। उसे किसी पर संदेह न था, किसी से शंका न थी।
कदाचित उसके सामने कोई चोर भी उसकी संपत्ति का अपहरण करता तो वह शोर न
मचाती।
बत्तीस
षोडशी के
बाद से जालपा ने रतन के घर आना-जाना कम कर दिया था। केवल एक बार घंटे-दो
घंटे के लिए चली जाया करती थी। इधर कई दिनों से मुंशी दयानाथ को ज्वर आने
लगा था। उन्हें ज्वर में छोड़कर कैसे जाती। मुंशीजी को ज़रा भी ज्वर आता,
तो वह बक-झक करने लगते थे। कभी गाते,
कभी रोते, कभी यमदूतों को अपने
सामने नाचते देखते। उनका जी चाहता कि सारा घर मेरे पास बैठा रहे,
संबंधियों को भी बुला लिया जाय,
जिसमें वह सबसे अंतिम भेंट कर लें। क्योंकि इस बीमारी से बचने की उन्हें
आशा न थी। यमराज स्वयं उनके सामने विमान लिये खड़े थे। जागेयेश्वरी और सब
कुछ कर सकती थी, उनकी बक-झक न सुन सकती थी। ज्योंही
वह रोने लगते, वह कमरे से निकल जाती। उसे भूत-बाधा
का भ्रम होता था। मुंशीजी के कमरे में कई समाचार-पत्रों के गाइल थे। यही
उन्हें एक व्यसन था। जालपा का जी वहां बैठे-बैठे घबडाने लगता,
तो इन गाइलों को उलटपलटकर देखने लगती। एक दिन उसने एक
पुराने पत्र में शतरंज का एक नक्शा देखा, जिसे हल
कर देने के लिए किसी सज्जन ने पुरस्कार भी रक्खा था। उसे
ख़याल आया
कि जिस ताक पर रमानाथ की बिसात और मुहरे रक्खे हुए हैं उस पर एक किताब में
कई नक्शे भी दिए हुए हैं। वह तुरंत दौड़ी हुई ऊपर गई और वह कापी उठा लाईब यह
नक्शा उस कापी में मौजूद था,
और नक्शा ही न था, उसका हल भी दिया
हुआ था। जालपा के मन में सहसा यह विचार चमक पडा, इस
नक्शे को किसी पत्र में छपा दूं तो कैसा हो! शायद उनकी
निगाह पड़
जाय। यह नक्शा इतना सरल तो नहीं है कि आसानी से हल हो जाय। इस नगर में जब
कोई उनका सानी नहीं है,
तो ऐसे लोगों की संख्या बहुत नहीं हो सकती,
जो यह नक्शा हल कर सकेंब कुछ भी हो,
जब उन्होंने यह नक्शा हल किया है,
तो इसे देखते ही फिर हल कर लेंगे। जो लोग पहली बार देखेंगे,
उन्हें दो-एक दिन सोचने में लग जायंगे। मैं लिख दूंगी कि जो सबसे पहले हल
कर ले, उसी को पुरस्कार दिया जाय। जुआ तो है ही।
उन्हें रूपये न भी मिलें, तो भी इतना तो संभव है ही
कि हल करने वालों में उनका नाम भी हो कुछ पता लग जायगा। कुछ भी न हो,
तो रूपये ही तो जायंगे। दस रूपये का पुरस्कार रख दूं।
पुरस्कार कम होगा, तो कोई बडा खिलाड़ी इधर ध्यान न
देगा। यह बात भी रमा के हित की ही होगी। इसी उधेड़-बुन में वह आज रतन से न
मिल सकी। रतन दिनभर तो उसकी राह देखती रही। जब वह शाम को भी न गई,
तो उससे न रहा गया।
जालपा ने
उसे देखते ही कहा,
‘क्षमा
करना बहन,
आज मैं न आ सकी। दादाजी को कई दिन से ज्वर आ रहा है।’
रतन ने
तुरंत मुंशीजी के कमरे की ओर कदम उठाया और पूछा,
‘यहीं
हैं न?
तुमने मुझसे न कहा।’
मुंशीजी
का ज्वर इस समय कुछ उतरा हुआ था। रतन को देखते ही बोले,
‘बडा
दुःख हुआ देवीजी,
मगर यह तो संसार है। आज एक की बारी है,
कल दूसरे की बारी है। यही चल-चलाव लगा हुआ है। अब मैं भी
चला। नहीं बच सकता बडी प्यास है, जैसे छाती में कोई
भटठी जल रही हो फुंका जाता हूं। कोई अपना नहीं होता। बाईजी,
संसार के नाते सब स्वार्थ के नाते हैं। आदमी अकेला हाथ
पसारे एक दिन चला जाता है। हाय-हाय! लड़का था वह भी हाथ से निकल गया! न जाने
कहां गया। आज होता, तो एक पानी देने वाला तो होता।
यह दो लौंडे हैं, इन्हें कोई फिक्र ही नहीं,
मैं मर जाऊं या जी जाऊं। इन्हें तीन वक्त खाने को चाहिए,
तीन दट्ठ पानी पीने को, बस और किसी काम के नहीं। यहां
बैठते दोनों का दम घुटता है। क्या करूं। अबकी न बचूंगा।’
रतन ने
तस्कीन दी,
‘यह
मलेरिया है,
दो-चार दिन में आप अच्छे हो जायंगे। घबडाने की कोई बात
नहीं।’
मुंशीजी
ने दीन नजरों से देखकर कहा,
‘बैठ
जाइए बहूजी,
आप कहती हैं, आपका आशीर्वाद है,
तो शायद बच जाऊं, लेकिन मुझे तो
आशा नहीं है। मैं भी ताल ठोके यमराज से लड़ने को तैयार बैठा हूं। अब उनके घर
मेहमानी खाऊंगा। अब कहां जाते हैं बचकर बचा! ऐसा-ऐसा रगेदूं,
कि वह भी याद करें। लोग कहते हैं,
वहां भी आत्माएं इसी तरह रहती हैं। इसी तरह वहां भी कचहरियां हैं,
हाकिम हैं, राजा हैं,
रंक हैं। व्याख्यान होते हैं,
समाचार-पत्र छपते हैं। फिर क्या चिंता है। वहां भी अहलमद हो जाऊंगा। मज़े
से अख़बार पढ़ा करूंगा।’
रतन को
ऐसी हंसी छूटी कि वहां खड़ी न रह सकी। मुंशीजी विनोद के भाव से वे बातें
नहीं कर रहे थे। उनके चेहरे पर गंभीर विचार की रेखा थी। आज डेढ़-दो महीने
के बाद रतन हंसी,
और इस असामयिक हंसी को छिपाने के लिए कमरे से निकल आई।
उसके साथ ही जालपा भी बाहर आ गई। रतन ने अपराधी नजरों से उसकी ओर देखकर कहा,
‘दादाजी
ने मन में क्या समझा होगा। सोचते होंगे,
मैं तो जान से मर रहा हूं और इसे हंसी सूझती है। अब वहां न
जाऊंगी, नहीं ऐसी ही कोई बात फिर कहेंगे,
तो मैं बिना हंसे न रह सकूंगी। देखो तो आज कितनी बे-मौका
हंसी आई है। वह अपने मन को इस उच्छृंखलता के लिए धिक्कारने लगी। जालपा ने
उसके मन
का भाव ताड़कर कहा,मुझे
भी अक्सर इनकी बातों पर हंसी आ जाती है,
बहन! इस वक्त तो इनका ज्वर कुछ हल्का है। जब ज़ोर का ज्वर
होता है तब तो यह और भी ऊल-जलूल बकने लगते हैं। उस वक्त हंसी रोकनी मुश्किल
हो जाती है। आज सबेरे कहने लगे,मेरा
पेट भक हो गया,मेरा
पेट भक हो गया। इसकी रट लगा दी। इसका आशय क्या था,
न मैं समझ सकी,
न अम्मां
समझ सकीं,
पर वह बराबर यही रटे जाते थे,पेट
भक हो गया! पेट भक हो गया! आओ कमरे में चलें।‘
रतन—‘मेरे
साथ न चलोगी?’
जालपा—‘आज
तो न चल सयंगी, बहन।‘
‘कल आओगी?’
‘कह नहीं
सकती। दादा का जी कुछ हल्का रहा,
तो आऊंगी।’
‘नहीं भाई,
जरूर आना। तुमसे एक सलाह करनी है।’
‘क्या
सलाह है?’
‘मन्नी
कहते हैं,
यहां अब रहकर क्या करना है, घर
चलो। बंगले को बेच देने को कहते हैं।’
जालपा ने
एकाएक ठिठककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली,
‘यह
तो तुमने बुरी ख़बर सुनाई,
बहन! मुझे इस दशा में तुम छोड़कर चली जाओगी?
मैं न जाने दूंगी! मन्नी से कह दो,
बंगला बेच दें, मगर जब तक उनका कुछ पता न चल जायगा।
मैं तुम्हें न छोड़ूंगी। तुम कुल एक हफ्ते बाहर रहीं,
मुझे एक-एक पल पहाड़ हो गया। मैं न जानती थी कि मुझे तुमसे
इतना प्रेम हो गया है। अब तो शायद मैं मर ही जाऊं। नहीं बहन,
तुम्हारे पैरों पड़ती हूं, अभी जाने
का नाम न
लेना।‘
रतन की भी
आंखें भर आई। बोली,
‘मुझसे
भी वहां न रहा जायगा,
सच कहती हूं। मैं तो कह दूंगी,
मुझे नहीं जाना है।‘
जालपा उसका हाथ पकड़े हुए ऊपर अपने कमरे में ले गई और उसके गले में हाथ
डालकर बोली,
‘कसम
खाओ कि मुझे छोड़कर न जाओगी।‘
रतन ने
उसे अंकवार में लेकर कहा,
‘लो,
कसम खाती हूं, न जाऊंगी। चाहे इधर
की दुनिया उधार हो जाय। मेरे लिए वहां क्या रक्खा है। बंगला भी क्यों
बेचूं, दो-ढाई सौ मकानों का किराया है। हम दोनों के गुज़र के लिए काफी है।
मैं आज ही मन्नी से कह दूंगी,मैं
न जाऊंगी।‘
सहसा फर्श
पर शतरंज के मुहरे और नक्शे देखकर उसने पूछा,यह
शतरंज किसके साथ खेल रही थीं?
जालपा ने
शतरंज के नक्शे पर अपने भाग्य का पांसा फेंकने की जो बात सोची थी,
वह सब उससे कह सुनाई,मन में डर रही
थी कि यह कहीं इस प्रस्ताव को व्यर्थ न समझे, पागलपन
न ख़याल करे, लेकिन रतन सुनते ही बाग़-बाग़ हो गई। बोली,दस
रूपये तो बहुत कम पुरस्कार है। पचास रूपये कर दो। रूपये मैं देती हूं।
जालपा ने
शंका की,
‘लेकिन
इतने पुरस्कार के लोभ से कहीं अच्छे शतरंजबाज़ों ने मैदान में कदम रक्खा तो?’
रतन ने
दृढ़ता से कहा,कोई
हरज नहीं। बाबूजी की निगाह पड़ गई,
तो वह इसे जरूर हल कर लेंगे और मुझे आशा है कि सबसे पहले
उन्हीं का नाम आवेगा। कुछ न होगा, तो पता तो लग ही
जायगा। अख़बार के दफ्तर में तो उनका पता आ ही जायगा। तुमने बहुत अच्छा
उपाय सोच निकाला है। मेरा मन कहता है, इसका अच्छा
फल होगा, मैं अब मन की प्रेरणा की कायल हो गई हूं।
जब मैं इन्हें लेकर कलकत्ता चली थी, उस वक्त मेरा
मन कह रहा था, यहां
जाना
अच्छा न होगा।‘
जालपा—‘तो
तुम्हें आशा है?‘
‘पूरी!
मैं कल सबेरे रूपये लेकर आऊंगी।’
‘तो मैं
आज ख़त लिख रक्खूंगी। किसके पास भेजूं?
वहां का कोई प्रसिद्ध पत्र होना चाहिए।’
‘वहां तो
‘प्रजा-मित्र’ की बडी चर्चा थी। पुस्तकालयों में अक्सर लोग उसी को पढ़ते नज़र
आते थे। ‘
‘तो
‘प्रजा-मित्र’ ही को लिखूंगी,
लेकिन रूपये हड़प कर जाय और नक्शा न छापे तो क्या हो?’
‘होगा
क्या,
पचास रूपये ही तो ले जाएगा। दमड़ी की हंडिया खोकर कुत्तों
की जात तो पहचान ली जायगी, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता
जो लोग देशहित के लिए जेल जाते हैं, तरह-तरह की
धौंस सहते हैं, वे इतने नीच नहीं हो सकते। मेरे साथ
आधा घंटे के लिए चलो तो तुम्हें इसी वक्त रूपये दे दूं।’
जालपा ने
नीमराजी होकर कहा,
‘इस
वक्त क़हां चलूं। कल ही आऊंगी।’
उसी वक्त
मुंशीजी पुकार उठे,
‘बहू!
बहू!’
जालपा तो
लपकी हुई उनके कमरे की ओर चली। रतन बाहर जा रही थी कि जागेश्वरी पंखा लिये
अपने को झलती हुई दिखाई पड़ गई। रतन ने पूछा,
‘तुम्हें
गर्मी लग रही है अम्मांजी?
मैं तो ठंड के मारे कांप रही हूं। अरे! तुम्हारे पांवों में यह क्या
उजला-उजला लगा हुआ है? क्या आटा पीस रही थीं?’
जागेश्वरी
ने लज्जित होकर कहा,
‘हां,
वैद्य जी ने इन्हें हाथ के आटे की रोटी खाने को कहा है।
बाज़ार में हाथ का आटा कहां मयस्सर- मुहल्ले में कोई पिसनहारी नहीं मिलती।
मजूरिनें तक चक्की से आटा पिसवा लेती हैं। मैं तो एक आना सेर देने को राज़ी
हूं, पर कोई मिलती ही नहीं।’
रतन ने
अचंभे से कहा,
‘तुमसे
चक्की चल जाती है?’
जागेश्वरी
ने झेंप से मुस्कराकर कहा,’कौन
बहुत था। पाव-भर तो दो दिन के लिए हो जाता है। खाते नहीं एक कौर भी,
बहू पीसने जा रही थी, लेकिन फिर मुझे उनके पास
बैठना पड़ता। मुझे रात-भर चक्की पीसना गौं है, उनके
पास घड़ी-भर बैठना गौं नहीं।
रतन जाकर
जांत के पास एक मिनट खड़ी रही,
फिर मुस्कराकर माची पर बैठ गई और
बोली,
‘तुमसे
तो अब जांत न चलता होगा,
मांजी! लाओ थोडासा गेहूं मुझे दो,
देखूं तो।’
जागेश्वरी
ने कानों पर हाथ रखकर कहा,
‘अरे
नहीं बहू,
तुम क्या पीसोगी!चलो यहां से।’
रतन ने
प्रमाण दिया,
‘मैंने
बहुत दिनों तक पीसा है,
मांजीब जब मैं अपने घर थी, तो रोज़
पीसती थी। मेरी अम्मां, लाओ थोडा-सा गेहूं।’
‘हाथ
दुखने लगेगा। छाले पड़ जाएंगे।’
‘कुछ नहीं
होगा मांजी,
आप गेहूं तो लाइए।’
जागेश्वरी
ने उसका हाथ पकड़कर उठाने की कोशिश करके कहा,
‘गेहूं
घर में नहीं हैं। अब इस वक्त बाज़ार से कौन लावे।’
‘अच्छा
चलिए,
मैं भंडारे में देखूं। गेहूं होगा कैसे नहीं।’
रसोई की
बगल वाली कोठरी में सब खाने-पीने का सामान रहता था। रतन अंदर चली गई और
हांडियों में टटोल-टटोलकर देखने लगी। एक हांडी में गेहूं निकल आए। बडी खुश
हुई। बोली,देखो
मांजी,
निकले कि नहीं, तुम मुझसे बहाना कर
रही थीं। उसने एक टोकरी में थोडा-सा गेहूं निकाल लिया और ख़ुश-ख़ुश चक्की पर
जाकर पीसने लगी। जागेश्वरी ने जाकर जालपा से कहा,
‘बहू,
वह जांत पर बैठी गेहूं पीस रही हैं। उठाती हूं,
उठतीं ही नहीं। कोई देख ले तो क्या कहे।
जालपा ने
मुंशीजी के कमरे से निकलकर सास की घबराहट का आनंद उठाने के लिए कहा,
‘यह
तुमने क्या ग़ज़ब किया,
अम्मांजी! सचमुच, कोई देख ले तो
नाक ही कट जाय! चलिए, ज़रा देखूं।’
जागेश्वरी
ने विवशता से कहा,
‘क्या
करूं,
मैं तो समझा के हार गई, मानतीं ही
नहीं।’
जालपा ने
जाकर देखा,
तो रतन गेहूं पीसने में मग्न थी। विनोद के स्वाभाविक आनंद
से उसका चेहरा खिला हुआ था। इतनी ही देर में उसके माथे पर पसीने की बूंदें
आ गई थीं। उसके बलिष्ठ हाथों में जांत लट्टू के समान नाच रहा था।
जालपा ने
हंसकर कहा,
‘ओ
री,
आटा महीन हो, नहीं पैसे न मिलेंगे।’
रतन को
सुनाई न दिया। बहरों की भांति अनिश्चित भाव से मुस्कराई।
जालपा ने
और ज़ोर से कहा,
‘आटा
खूब महीन पीसना,
नहीं पैसे न पाएगी।’
रतन ने भी हंसकर कहा,
जितना महीन कहिए उतना महीन पीस दूं,
बहूजी। पिसाई अच्छी मिलनी चाहिए।
जालपा—‘मोले
सेर।’
रतन—‘मोले
सेर सही।’
जालपा—‘मुंह
धो आओ। धोले सेर मिलेंगे।’
रतन—‘मैं
यह सब पीसकर उठूंगी। तुम यहां क्यों खड़ी हो?’
जालपा—‘आ
जाऊं, मैं भी खिंचा दूं।‘
रतन—‘जी
चाहता है, कोई जांत का गीत गाऊं!’
जालपा—‘अकेले
कैसे गाओगी! (जागेश्वरी से)
अम्मां आप ज़रा दादाजी के पास बैठ जायं, मैं अभी आती
हूं।’
जालपा भी
जांत पर जा बैठी और दोनों जांत का यह गीत गाने लगीं।
‘मोहि
जोगिन बनाके कहां गए रे जोगिया।’
दोनों के
स्वर मधुर थे। जांत की घुमुर-घुमुर उनके स्वर के साथ साज़ का काम कर रही
थी। जब दोनों एक कड़ी गाकर चुप हो जातीं,
तो जांत का स्वर माना कंठ-ध्वनि से रंजित होकर और भी मनोहर
हो जाता था। दोनों के ह्रदय इस समय जीवन के स्वाभाविक आनंद से पूर्ण थे?
न शोक का भार था, न वियोग का दुःख। जैसे दो चिडियां
प्रभात की अपूर्व शोभा से मग्न होकर चहक रही हों।
तैंतीस
रमानाथ की
चाय की दूकान खुल तो गई,
पर केवल रात को खुलती थी। दिन-भर
बंद रहती थी। रात को भी अधिकतर देवीदीन ही दुकान पर बैठता,
पर बिक्री अच्छी हो जाती थी। पहले ही दिन तीन रूपये के
पैसे आए, दूसरे दिन से चारपांच रूपये का औसत पड़ने
लगा। चाय इतनी स्वादिष्ट होती थी कि जो एक बार यहां चाय पी लेता फिर दूसरी
दूकान पर न जाता। रमा ने मनोरंजन की भी कुछ सामग्री जमा कर दी। कुछ रूपये
जमा हो गए, तो उसने एक सुंदर मेज़ ली। चिराग़ जलने के
बाद साफ-भाजी की बिक्री ज्यादा न होती थी। वह उन टोकरों को उठाकर अंदर रख
देता और बरामदे में वह मेज़ लगा देता। उस पर ताश के सेट रख देता। दो
दैनिक-पत्र भी मंगाने लगा। दुकान चल निकली। उन्हीं तीन-चार
घंटों में छः-सात रूपये आ जाते थे और सब ख़र्च निकालकर तीनचार रूपये बच रहते
थे।
इन चार
महीनों की तपस्या ने रमा की भोग-लालसा को और भी प्रचंड कर दिया था। जब तक
हाथ में रूपये न थे,
वह मजबूर था। रूपये आते ही सैरसपाटे की धुन सवार हो गई।
सिनेमा की याद भी आई। रोज़ के व्यवहार की मामूली चीजें,
ज़िन्हें अब तक वह टालता आया था, अब
अबाधा रूप से आने लगीं। देवीदीन के लिए वह एक सुंदर रेशमी चादर लाया। जग्गो
के सिर में पीडा होती रहती थी। एक दिन सुगंधित तेल की शीशियां लाकर उसे दे
दीं। दोनों निहाल हो गए। अब बुढिया कभी अपने सिर पर बोझ लाती तो डांटता,
‘काकी,
अब तो मैं भी चार पैसे कमाने लगा हूं,
अब तू क्यों जान देती है? अगर फिर
कभी तेरे सिर पर टोकरी देखी तो कहे देता हूं, दूकान
उठाकर फेंक दूंगा। फिर मुझे जो सज़ा चाहे दे देना। बुढिया बेटे की डांट
सुनकर गदगद हो जाती। मंडी से बोझ लाती तो पहले चुपके से देखती,
रमा दुकान पर नहीं है। अगर वह बैठा
होता तो
किसी द्दली को एक-दो पैसा देकर उसके सिर पर रख देती। वह न होता तो लपकी हुई
आती और जल्दी से बोझ उतारकर शांत बैठ जाती,
जिससे रमा भांप न सके।
एक दिन
‘मनोरमा थियेटर’ में राधेश्याम का कोई नया ड्रामा होने वाला था। इस ड्रामे
की बडी धूम थी। एक दिन पहले से ही लोग अपनी जगहें रक्षित करा रहे थे। रमा
को भी अपनी जगह रक्षित करा लेने की धुन सवार हुई। सोचा,
कहीं रात को टिकट न मिला तो टापते रह जायंगे। तमाशे की बडी तारीफ है। उस
वक्त एक के दो देने पर भी जगह न मिलेगी। इसी उत्सुकता ने पुलिस के भय को भी
पीछे डाल दिया। ऐसी आफत नहीं आई है कि घर से निकलते ही पुलिस पकड़ लेगी। दिन
को न सही, रात को तो निकलता ही हूं। पुलिस चाहती तो
क्या रात को न पकड़ लेती। फिर मेरा वह हुलिया भी नहीं रहा। पगड़ी चेहरा बदल
देने के लिए काफी है। यों मन को समझाकर वह दस बजे घर से निकला। देवीदीन
कहीं गया हुआ था। बुढिया ने पूछा,कहां
जाते हो,
बेटा- रमा ने कहा,
‘कहीं
नहीं काकी,
अभी आता हूं।’
रमा सड़क
पर आया,
तो उसका साहस हिम की भांति पिघलने लगा। उसे पग-पग पर शंका
होती थी, कोई कांस्टेबल न आ रहा हो उसे विश्वास था
कि पुलिस का एक-एक चौकीदार भी उसका हुलिया पहचानता है और उसके चेहरे पर
निगाह पड़ते ही पहचान लेगा। इसलिए वह नीचे सिर झुकाए चल रहा था। सहसा उसे
ख़याल आया, गुप्त पुलिस वाले सादे कपड़े पहने इधर-उधर
घूमा
करते हैं।
कौन जाने,
जो आदमी मेरे बग़ल में आ रहा है,
कोई जासूस ही हो मेरी ओर ध्यान से देख रहा है। यों सिर झुकाकर चलने से ही
तो नहीं उसे संदेह हो रहा है। यहां और सभी सामने ताक रहे हैं। कोई यों सिर
झुकाकर नहीं चल रहा है। मोटरों की इस रेल-पेल में सिर झुकाकर चलना मौत को
नेवता देना है। पार्क में कोई इस तरह चहलकदमी करे,
तो कर सकता है। यहां तो सामने देखना चाहिए। लेकिन बग़लवाला आदमी अभी तक मेरी
ही तरफ ताक रहा है। है शायद कोई खुफिया ही। उसका साथ छोड़ने के लिए वह एक
तंबोली की दूकान पर पान खाने लगा। वह आदमी आगे निकल गया। रमा ने आराम की
लंबी सांस ली।
अब उसने
सिर उठा लिया और दिल मज़बूत करके चलने लगा। इस वक्त ट्राम का भी कहीं पता न
था,
नहीं उसी पर बैठ लेता। थोड़ी ही दूर चला होगा कि तीन
कांस्टेबल आते दिखाई दिए। रमा ने सड़क छोड़ दी और पटरी पर चलने लगा।
ख्वामख्वाह सांप के बिल में उंगली डालना कौनसी बहादुरी है। दुर्भाग्य की
बात, तीनों कांस्टेबलों ने भी सड़क छोड़कर वही पटरी
ले ली। मोटरों के आने-जाने से बार-बार इधर-उधर दौड़ना पड़ता था। रमा का कलेजा
धक-
धक करने
लगा। दूसरी पटरी पर जाना तो संदेह को और भी बढ़ा देगा। कोई ऐसी गली भी नहीं
जिसमें घुस जाऊं। अब तो सब बहुत समीप आ गए। क्या बात है,
सब मेरी ही तरफ देख रहे हैं। मैंने बडी हिमाकत की कि यह
पग्गड़ बांध लिया और बंधी भी कितनी बेतुकी। एक टीले-सा ऊपर उठ गया है। यह
पगड़ी आज मुझे पकडावेगी। बांधी थी कि इससे सूरत बदल जाएगी। यह उल्टे और
तमाशा बन गई। हां, तीनों मेरी ही ओर ताक रहे हैं।
आपस में कुछ बातें भी कर रहे हैं। रमा को ऐसा जान पडा,
पैरों में शक्ति नहीं है।ब शायद सब मन में मेरा हुलिया
मिला रहे हैं। अब नहीं बच सकता घर वालों को मेरे पकड़े जाने की ख़बर मिलेगी,
तो कितने लज्जित होंगे। जालपा तो रो-रोकर प्राण ही दे
देगी। पांच साल से कम सज़ा न होगी। आज इस जीवन का अंत हो रहा है। इस कल्पना
ने उसके ऊपर कुछ ऐसा आतंक जमाया कि उसके औसान
जाते रहे।
जब सिपाहियों का दल समीप आ गया,
तो उसका चेहरा भय से कुछ ऐसा विकृत हो गया,
उसकी आंखें कुछ ऐसी सशंक हो गई और अपने को उनकी आंखों से
बचाने के लिए वह कुछ इस तरह दूसरे आदमियों की आड़ खोजने लगा कि मामूली आदमी
को भी उस पर संदेह होना स्वाभाविक था, फिर पुलिस
वालों की मंजी हुई आंखें क्यों चूकतीं। एक ने अपने साथी से कहा,
‘यो
मनई चोर न होय,
तो तुमरी टांगन ते निकर जाईब कस चोरन की नाई ताकत है।’
दूसरा बोला,
‘कुछ
संदेह तो हमऊ का हुय रहा है। फुरै कह पांडे,
असली चोर है।‘
तीसरा
आदमी मुसलमान था,
उसने रमानाथ को ललकारा,
‘ओ
जी ओ पगड़ी,
ज़रा इधर आना, तुम्हारा क्या नाम है?’
रमानाथ ने
सीनाजोरी के भाव से कहा,’हमारा
नाम पूछकर क्या करोगे?
मैं क्या चोर हूं?’
‘चोर नहीं,
तुम साह हो, नाम क्यों नहीं बताते?’
रमा ने एक
क्षण आगा-पीछा में पड़कर कहा,
‘हीरालाल।’
‘घर कहां
है?’
‘घर!’
‘हां,
घर ही पूछते हैं।’
‘शाहजहांपुर।’
‘कौन
मुहल्ला-’
रमा
शाहजहांपुर न गया था,
न कोई कल्पित नाम ही उसे याद आया कि बता दे। दुस्साहस के
साथ बोला,
‘तुम
तो मेरा हुलिया लिख रहे हो!’
कांस्टेबल
ने भभकी दी,’तुम्हारा
हुलिया पहले से ही लिखा हुआ है! नाम झूठ बताया,
सयनत झूठ बताई, मुहल्ला पूछा तो
बगलें झांकने लगे। महीनों से तुम्हारी तलाश हो रही है,
आज जाकर मिले हो चलो थाने पर।’
यह कहते हुए उसने रमानाथ का हाथ पकड़ लिया। रमा ने हाथ
छुडाने की चेष्टा करके कहा,
‘वारंट
लाओ तब हम चलेंगे। क्या मुझे कोई देहाती समझ लिया है?’
कांस्टेबल
ने एक सिपाही से कहा,
‘पकड़
लो जी इनका हाथ,
वहीं थाने पर वारंट दिखाया जाएगा।’
शहरों में
ऐसी घटनाएं मदारियों के तमाशों से भी ज्यादा मनोरंजक होती हैं। सैकड़ों आदमी
जमा हो गए। देवीदीन इसी समय अफीम लेकर लौटा आ रहा था,
यह जमाव देखकर वह भी आ गया। देखा कि तीन कांस्टेबल रमानाथ
को घसीटे लिये जा रहे हैं। आगे बढ़कर बोला,
‘हैं?हैं,
जमादार! यह क्या करते हो? यह
पंडितजी तो हमारे मिहमान हैं, कहां पकड़े लिये जाते
हो? ‘
तीनों
कांस्टेबल देवीदीन से परिचित थे। रूक गए। एक ने कहा,
‘तुम्हारे मिहमान हैं यह,
कब से? ‘
देवीदीन
ने मन में हिसाब लगाकर कहा,
‘चार महीने से कुछ बेशी हुए होंगे। मुझे प्रयाग में मिल गए थे। रहने वाले
भी वहीं के हैं। मेरे साथ ही तो आए थे।‘
मुसलमान
सिपाही ने मन में प्रसन्न होकर कहा,
‘इनका नाम क्या है?‘
देवीदीन
ने सिटपिटाकर कहा,
‘नाम इन्होंने बताया न होगा?
‘
सिपाहियों
का संदेह दृढ़ हो गया। पांडे ने आंखें निकालकर कहा,
‘जान परत है तुमहू मिले हौ,
नांव काहे नाहीं बतावत हो इनका? ‘
देवीदीन
ने आधारहीन साहस के भाव से कहा,
?
‘मुझसे रोब न जमाना पांडे, समझे! यहां धमकियों में
नहीं आने के।‘
मुसलमान
सिपाही ने मानो मध्यस्थ बनकर कहा,
‘बूढ़े बाबा,
तुम तो ख्वामख्वाह बिगड़ रहे हो इनका नाम क्यों नहीं बतला
देते?’
देवीदीन
ने कातर नजरों से रमा की ओर देखकर कहा,
‘हम
लोग तो रमानाथ कहते हैं। असली नाम यही है या कुछ और,
यह हम नहीं जानते। ‘
पांडे ने
आंखें निकालकर हथेली को सामने करके कहा,
‘बोलो पंडितजी, क्या नाम है
तुम्हारा? रमानाथ या हीरालाल?
या दोनों,एक
घर का एक ससुराल का?
‘
तीसरे
सिपाही ने दर्शकों को संबोधित करके कहा,
‘नांव
है रमानाथ,
बतावत है हीरालाल? सबूत हुय गवा।‘
दर्शकों में कानाफसी होने लगी। शुबहे की बात तो है।
‘साफ है,
नाम और पता दोनों ग़लत बता दिया।’
एक
मारवाड़ी सज्जन बोले,
‘उचक्को सो है।‘
एक मौलवी
साहब ने कहा,
‘कोई
इश्तिहारी मुलज़िम है।’
जनता को
अपने साथ देखकर सिपाहियों को और भी ज़ोर हो गया। रमा को भी अब उनके साथ
चुपचाप चले जाने ही में अपनी कुशल दिखाई दी। इस तरह सिर झुका लिया,
मानो उसे इसकी बिलकुल परवा नहीं है कि उस पर लाठी पड़ती है
या तलवार। इतना अपमानित वह कभी न हुआ था। जेल की कठोरतम यातना भी इतनी
ग्लानि न उत्पन्न करती। थोड़ी देर में पुलिस स्टेशन दिखाई दिया। दर्शकों की
भीड़ बहुत कम हो गई थी। रमा ने एक बार उनकी ओर लज्जित आशा के भाव से ताका,
देवीदीन का पता न था। रमा के मुंह से एक लंबी सांस निकल गई। इस विपत्ति में
क्या यह सहारा भी हाथ से निकल गया?
चौंतीस
पुलिस
स्टेशन के दफ्तर में इस समय बडी मेज़ के सामने चार आदमी बैठे हुए थे। एक
दारोग़ा थे,
गोरे से, शौकीन,
जिनकी बडी-बडी आंखों में कोमलता की झलक थी। उनकी बग़ल में
नायब दारोग़ा थे। यह सिक्ख थे, बहुत हंसमुख,
सजीवता के पुतले, गेहुंआं रंग,
सुडौल, सुगठित शरीरब सिर पर केश था,
हाथों में कड़ेऋ पर सिगार से परहेज न करते थे। मेज़ की
दूसरी तरफ इंस्पेक्टर और डिप्टी सुपरिंटेंडेंट बैठे हुए थे। इंस्पेक्टर
अधेड़, सांवला, लंबा आदमी था,
कौड़ी
की-सी
आंखें,
फले हुए गाल और ठिगना कदब डिप्टी सुपरिटेंडेंट लंबा छरहरा
जवान था, बहुत ही विचारशील और अल्पभाषीब इसकी लंबी
नाक और ऊंचा मस्तक उसकी कुलीनता के साक्षी थे।
डिप्टी ने
सिगार का एक कश लेकर कहा,
‘बाहरी
गवाहों से काम नहीं चल सकेगा। इनमें से किसी को एप्रूवर बनना होगा। और
कोई अल्टरनेटिव नहीं है।’
इंस्पेक्टर ने दारोग़ा की ओर देखकर कहा,
‘हम
लोगों ने कोई बात उठा तो नहीं रक्खी,
हलफ से कहता हूं। सभी तरह के लालच देकर हार गए। सबों ने
ऐसी गुट कर रक्खी है कि कोई टूटता ही नहीं। हमने बाहर के गवाहों को भी
आजमाया, पर सब कानों पर हाथ रखते हैं।’
डिप्टी,
‘उस
मारवाड़ी को फिर आजमाना होगा। उसके बाप को बुलाकर खूब धमकाइए। शायद इसका
कुछ दबाव पड़े।’
इंस्पेक्टर—‘हलफ
से कहता हूं,
आज सुबह से हम लोग यही कर रहे हैं। बेचारा बाप लङके के
पैरों पर गिरा, पर लड़का किसी तरह राज़ी नहीं होता।’
कुछ देर
तक चारों आदमी विचारों में मग्न बैठे रहे। अंत में डिप्टी ने निराशा के भाव
से कहा,मुकदमा
नहीं चल सकता मुफ्त का बदनामी हुआ। इंस्पेक्टर,एक
हर्तिे की मुहलत और लीजिए,
शायद कोई टूट जाय। यह निश्चय करके दोनों आदमी यहां से
रवाना हुए। छोटे दारोग़ा भी उसके साथ ही चले गए। दारोग़ाजी ने हुक्का मंगवाया
कि सहसा एक मुसलमान सिपाही
ने आकर
कहा,
‘दारोग़ाजी,
लाइए कुछ इनाम दिलवाइए। एक मुलजिम को शुबहे पर गिरफ्तार
किया है। इलाहाबाद का रहने वाला है, नाम है रमानाथ,
पहले नाम और सयनत दोनों ग़लत बतलाई थीं। देवीदीन खटिक जो नुक्कड़ पर रहता है,
उसी के घर ठहरा हुआ है। ज़रा डांट बताइएगा तो सब कुछ उगल
देगा।’
दारोग़ा—‘वही
है न जिसके दोनों लङके---ब’
सिपाही—‘जी
हां,
वही है।’
इतने में
रमानाथ भी दारोग़ा के सामने हाज़िर किया गया। दारोग़ा ने उसे सिर से पांव तक
देखा,
मानो मन में उसका हुलिया मिला रहे हों। तब कठोर दृष्टि से
देखकर बोले,
‘अच्छा,
यह इलाहाबाद का रमानाथ है। खूब मिले भाई। छः महीने से
परेशान कर रहे हो कैसा साफ हुलिया है कि अंधा भी पहचान ले। यहां कब से आए
हो?’
कांस्टेबल ने रमा को परामर्श दिया,
‘सब
हाल सच-सच कह दो,
तो तुम्हारे साथ कोई सख्ती न की जाएगी।
’
रमा ने
प्रसन्नचित्त बनने की चेष्टा करके कहा,
‘अब
तो आपके हाथ में हूं,
रियायत कीजिए या सख्ती कीजिए। इलाहाबाद की म्युनिसिपैलिटी
में नौकर था। हिमाकत कहिए या बदनसीबी, चुंगी के चार
सौ रूपये मुझसे ख़र्च हो गए।
मैं वक्त पर रूपये जमा न कर सका। शर्म के मारे घर के आदमियों से कुछ न कहा,
नहीं तो इतने रूपये इंतजाम हो जाना कोई मुश्किल न था। जब
कुछ बस न चला, तो वहां से भागकर यहां चला आया।
इसमें एक हर्फ भी ग़लत नहीं है।’
दारोग़ा ने
गंभीर भाव से कहा,
‘मामला
कुछ संगीन है,क्या
कुछ शराब का चस्का पड़ गया
‘मुझसे
कसम ले लीजिए,
जो कभी शराब मुंह से लगाई हो।’
कांस्टेबल
ने विनोद करके कहा,मुहब्बत
के बाज़ार में लुट गए होंगे,
हुजूर।’
रमा ने
मुस्कराकर कहा,
‘मुझसे
फाकेमस्तों का वहां कहां गुजर?’
दारोग़ा
–‘तो
क्या जुआ खेल डाला?
या, बीवी के लिए जेवर बनवा डाले!’
रमा
झेंपकर रह गया। अपराधी मुस्कराहट उसके मुख पर रो पड़ी।
एकाएक
बूढ़ा देवीदीन आकर खडाहो गया। दारोग़ा ने कठोर स्वर में कहा,
‘क्या
काम है यहां?’
देवीदीन—‘हुजूर
को सलाम करने चला आया। इन बेचारों पर दया की नज़र रहे हुजूर,
बेचारे बडे सीधे आदमी हैं।‘
दारोग़ा
–‘बचा
सरकारी मुलज़िम को घर में छिपाते हो,
उस पर सिफारिश करने आए हो!’
देवीदीन—‘मैं
क्या सिफारिस करूंगा हुजूर,
दो कौड़ी का आदमी।’
दारोग़ा—‘जानता
है,
इन पर वारंट है, सरकारी रूपये ग़बन
कर गए हैं।’
देवीदीन—‘हुजूर,
भूल-चूक आदमी से ही तो होती है। जवानी की उम्र है ही,
ख़र्च हो गए होंगे।
यह कहते
हुए देवीदीन ने पांच गिन्नियां कमर से निकालकर मेज़ पर रख दीं।
दारोग़ा ने
तड़पकर कहा,
‘यह
क्या है?’
देवीदीन—‘कुछ
नहीं है,
हुजूर को पान खाने को।’
दारोग़ा
–‘रिश्वत
देना चाहता है! क्यों?
कहो तो बचा, इसी इल्ज़ाम में भेज दूं।’
देवीदीन—‘भेज
दीजिए सरकार। घरवाली लकड़ी-कफन की फिकर से छूट जाएगी। वहीं बैठा आपको दुआ
दूंगा।‘
दारोग़ा
–‘अबे
इन्हें छुडाना है तो पचास गिन्नियां लाकर सामने रक्खो। जानते हो इनकी
गिरफ्तारी पर पांच सौ रूपये का इनाम है!’
देवीदीन—‘आप
लोगों के लिए इतना इनाम हुजूर क्या है। यह ग़रीब परदेसी आदमी हैं,
जब तक जिएंगे आपको याद करेंगे।’
दारोग़ा
–‘बक-बक
मत कर,
यहां धरम कमाने नहीं आया हूं।’
देवीदीन—‘बहुत
तंग हूं हुजूर।दुकानदारी तो नाम की है।’
कांस्टेबल—‘बुढिया
से मांग जाके।’
दारोग़ा
–‘तो
अपनी गिन्नियां उठा ले। इसे बाहर निकाल दो जी।’
देवीदीन—‘आपका
हुकुम है,
तो लीजिए जाता हूं। धक्का क्यों दिलवाइएगा।’
दारोग़ा –‘कांस्टेबल
सेध्द इन्हें हिरासत में रखो। मुंशी से कहो इनका बयान लिख लें।’
देवीदीन
के होंठ आवेश से कांप रहे थे। उसके चेहरे पर इतनी व्यग्रता रमा ने कभी
नहीं देखी,
जैसे कोई चिडिया अपने घोंसले में कौवे को घुसते देखकर
विह्नल हो गई हो वह एक मिनट तक थाने के द्वार पर खडारहा,
फिर पीछे गिरा और एक सिपाही से कुछ कहा,
तब लपका हुआ सड़क पर चला गया, मगर
एक ही पल में फिर लौटा और दारोग़ा से बोला,
‘हुजूर,
दो घंटे की मुहलत
न दीजिएगा?’
रमा अभी
वहीं खडाथा। उसकी यह ममता देखकर रो पड़ा। बोला,
‘दादा,
अब तुम हैरान न हो, मेरे भाग्य में
जो कुछ लिखा है, वह होने दो। मेरे भी यहां होते,
तो इससे ज्यादा और क्या करते! मैं मरते दम तक तुम्हारा
उपकार ---’
देवीदीन
ने आंखें पोंछते हुए कहा,
‘कैसी
बातें कर रहे हो,
भैया! जब रूपये पर आई तो देवीदीन पीछे हटने वाला आदमी नहीं
है। इतने रूपये तो एक-एक दिन जुए में हार-जीत गया हूं। अभी घर बेच दूं,
तो दस हज़ार की मालियत है। क्या सिर पर लाद कर ले जाऊंगा।
दारोग़ाजी, अभी भैया को हिरासत में न भेजो,
मैं रूपये की गिकर करके थोड़ी देर में आता हूं।’
देवीदीन
चला गया तो दारोग़ाजी ने सह्रदयता से भरे स्वर में कहा,
‘है
तो खुर्राट,
मगर बडा नेक।तुमने इसे कौनसी बूटी सुंघा दी?’
रमा ने
कहा,
‘गरीबों
पर सभी को रहम आता है।’
दारोग़ा ने
मुस्कराकर कहा,
‘पुलिस
को छोड़कर,
इतना और कहिए। मुझे तो यकीन नहीं कि पचास गिन्नियां लावे।’
दारोग़ा
–‘मुझे
पांच सौ के बदले साढ़े छः सौ मिल रहे हैं,
क्यों छोड़ूं। तुम्हारी गिरफ्तारी का इनाम मेरे किसी दूसरे
भाई को मिल जाय, तो क्या बुराई है।
दारोग़ाजी
को एकाएक जैसे कोई भूली हुई बात याद आ गई। मेज़ के दराज़ से एक मिसल निकाली,
उसके पन्ने इधर-उधर उल्टे, तब
नम्रता से बोले,अगर
मैं कोई ऐसी तरकीब बतलाऊं कि देवीदीन के रूपये भी बच जाएं और तुम्हारे ऊपर
भी आंच न आए तो कैसा?’
रमा ने
अविश्वास के भाव से कहा,
ऐसी तरकीब कोई है,
मुझे तो आशा नहीं।’
दारोग़ा—‘अभी
साई के सौ खेल हैं। इसका इंतज़ाम मैं कर सकता हूं। आपको महज़ एक मुकदमे में
शहादत देनी पड़ेगी?’
रमानाथ—‘झूठी
शहादत होगी।’
दारोग़ाजी
ने डकैती का वृत्तांत कह सुनाया। रमा ऐसे कई मुकदमे समाचारपत्रों में पढ़
चुका था। संशय के भाव से बोला,
‘तो
मुझे मुख़बिर बनना पड़ेगा और यह कहना पड़ेगा कि मैं भी इन डकैतियों में शरीक
था। यह तो झूठी शहादत हुई।’
दारोग़ा—‘मुआमला
बिलकुल सच्चा है। आप बेगुनाहों को न फंसाएंगे। वही लोग जेल जाएंगे जिन्हें
जाना चाहिए। फिर झूठ कहां रहा- डाकुओं के डर से यहां के लोग शहादत देने पर
राज़ी नहीं होते। बस और कोई बात नहीं। यह मैं मानता हूं कि आपको कुछ झूठ
बोलना पड़ेगा,
लेकिन आपकी जिंदगी बनी जा रही है,
इसके लिहाज़ से तो इतना झूठ कोई चीज़ नहीं। ख़ूब सोच लीजिए। शाम तक जवाब
दीजिएगा।’
रमा के मन
में बात बैठ गई। अगर एक बार झूठ बोलकर वह अपने पिछले कर्मों का
प्रायश्चित्त कर सके और भविष्य भी सुधार ले,
तो पूछना ही क्या जेल से तो बच जायगा। इसमें बहुत
आगा-पीछा की जरूरत ही न थी। हां, इसका निश्चय हो
जाना चाहिए कि उस पर फिर म्युनिसिपैलिटी अभियोग न चलाएगी और उसे कोई जगह
अच्छी मिल जायगी। वह जानता था, पुलिस की ग़रज़ है और
वह मेरी कोई वाजिब शर्त अस्वीकार न करेगी। इस तरह बोला,
मानो उसकी आत्मा धर्म और अधर्म के संकट में पड़ी हुई है,
‘मुझे
यही डर है कि कहीं मेरी
गवाही से
बेगुनाह लोग न फंस जाएं।’
रमानाथ—‘लेकिन
कल को म्युनिसिपैलिटी मेरी गर्दन नापे तो मैं किसे पुकारूंगा?’
दारोग़ा
–‘मजाल
है, म्युनिसिपैलिटी चूं कर सके। गौजदारी के मुकदमे
में मुददई तो सरकार ही होगी। जब सरकार आपको मुआफ कर देगी,
तो मुकदमा कैसे चलाएगी। आपको तहरीरी मुआफीनामा दे दिया
जायगा, साहब।’
दारोग़ा
–‘वह
सरकार आप इंतज़ाम करेगी। ऐसे आदमियों को सरकार ख़ुद अपना दोस्त बनाए रखना
चाहती है। अगर आपकी शहादत बढिया हुई और उस फ्री की जिरहों के जाल से आप
निकल गए, तो फिर आप पारस हो जाएंगे!’
दारोग़ा ने उसी वक्त मोटर मंगवाई और रमा को साथ लेकर डिप्टी साहब से मिलने
चल दिए। इतनी बडी कारगुज़ारी दिखाने में विलंब क्यों करते?डिप्टी
से एकांत में ख़ूब ज़ीट उडाई। इस आदमी का यों पता लगाया। इसकी सूरत
देखते ही
भांप गया कि मगरूर है,
बस गिरफ्तार ही तो कर लिया! बात सोलहों आने सच निकली।
निगाह कहीं चूक सकती है! हुजूर, मुज़रिम की आंखें
पहचानता हूं। इलाहाबाद की म्युनिसिपैलिटी के रूपये ग़बन करके भागा है। इस
मामले में शहादत देने को तैयार है। आदमी पढ़ा-लिखा,
सूरत का शरीफ और ज़हीन है।’
डिप्टी ने
संदिग्ध भाव से कहा,
‘हां,
आदमी तो होशियार मालूम होता है।’
‘मगर
मुआफीनामा लिये बग़ैर इसे हमारा एतबार न होगा। कहीं इसे यह शुबहा हुआ कि हम
लोग इसके साथ कोई चाल चल रहे हैं,
तो साफ निकल जाएगा। ‘
डिप्टी—‘यह
तो होगा ही। गवर्नमेंट से इसके बारे में बातचीत करना होगा। आप टेलीफोन
मिलाकर इलाहाबाद पुलिस से पूछिए कि इस आदमी पर कैसा मुकदमा है। यह सब तो
गवर्नमेंट को बताना होगा। दारोग़ाजी ने टेलीफोन डाइरेक्टरी देखी,
नंबर मिलाया और बातचीत शुरू हुई।
डिप्टी—‘क्या
बोला?’
दारोग़ा
–‘कहता
है, यहां इस नाम के किसी आदमी पर मुकदमा नहीं है।’
डिप्टी—‘यह
कैसा है भाई,
कुछ समझ में नहीं आता। इसने नाम तो नहीं बदल दिया?’
दारोग़ा
–‘कहता
है, म्युनिसिपैलिटी में किसी ने रूपये ग़बन नहीं
किए। कोई मामला नहीं है।’
डिप्टी—‘ये
तो बडा ताज्जुब का बात है। आदमी बोलता है हम रूपया लेकर भागा,
निसिपैलिटी बोलता है कोई रूपया ग़बन नहीं किया। यह आदमी
पागल तो नहीं है?’
दारोग़ा
–‘मेरी
समझ में कोई बात नहीं आती, अगर कह दें कि तुम्हारे
ऊपर कोई इल्ज़ाम नहीं है, तो फिर उसकी गर्द भी न
मिलेगी।’
‘अच्छा,
म्युनिसिपैलिटी के दफ्तर से पूछिए।’
दारोग़ा ने
फिर नंबर मिलाया। सवाल-जवाब होने लगा।
दारोग़ा
–‘आपके
यहां रमानाथ कोई क्लर्क था?
जवाब,
‘जी
हां,
था।
दारोग़ा
–‘वह
कुछ रूपये ग़बन करके भागा है?
जवाब,’नहीं।
वह घर से भागा है,
पर ग़बन नहीं किया। क्या वह आपके यहां है?’
दारोग़ा
–‘जी
हां, हमने उसे गिरफ्तार किया है। वह ख़ुद कहता है कि
मैंने रूपये ग़बन किए। बात क्या है?’
जवाब,
‘पुलिस
तो लाल बुझक्कड़ है। ज़रा दिमाग़ लडाइए।’
दारोग़ा
–‘यहां
तो अक्ल काम नहीं करती।’
जवाब,
‘यहीं
क्या,
कहीं भी काम नहीं करती। सुनिए,
रमानाथ ने मीज़ान लगाने में ग़लती की, डरकर भागा।
बाद को मालूम हुआ कि तहबील में कोई कमी न थी। आई समझ में बात।’
डिप्टी—‘अब
क्या करना होगा खां साहबब चिडिया हाथ से निकल गया!’
दारोग़ा
–‘निकल
कैसे जाएगी हुजूरब रमानाथ से यह बात कही ही क्यों जाए?
बस उसे किसी ऐसे आदमी से मिलने न दिया जाय जो बाहर की ख़बरें
पहुंचा सके। घरवालों को उसका पता अब लग जावेगा ही,
कोई न कोई जरूर उसकी तलाश में आवेगा। किसी को न आने दें।
तहरीर में कोई बात न लाई जाए। ज़बानी इत्मीनान दिला दिया जाय। कह दिया जाय,
कमिश्नर साहब को मुआफीनामा के लिए रिपोर्ट की गई है।
इंस्पेक्टर साहब से भी राय ले ली जाय। इधर तो यह लोग सुपरिंटेंडेंट से
परामर्श कर रहे थे, उधर एक घंटे में देवीदीन लौटकर
थाने आया तो कांस्टेबल ने कहा,
‘दारोग़ाजी
तो साहब के पास गए।’
देवीदीन
ने घबडाकर कहा,
‘तो
बाबूजी को हिरासत में डाल दिया?’
कांस्टेबल,
‘नहीं,
उन्हें भी साथ ले गये।’
देवीदीन
ने सिर पीटकर कहा,
‘पुलिस
वालों की बात का कोई भरोसा नहीं। कह गया कि एक घंटे में रूपये लेकर आता हूं,
मगर इतना भी सबर न हुआ। सरकार से पांच ही सौ तो मिलेंगे।
मैं छः सौ देने को तैयार हूं। हां, सरकार में
कारगुज़ारी हो जायगी और क्या वहीं से उन्हें परागराज भेज देंगे। मुझसे भेटं
भी न होगी। बुढिया रो-रोकर मर जायगी। यह कहता हुआ देवीदीन वहीं ज़मीन
पर बैठ
गया।’
कांस्टेबल
ने पूछा,
‘तो
यहां कब तक बैठे रहोगे?’
देवीदीन
ने मानो कोड़े की काट से आहत होकर कहा,’अब
तो दारोग़ाजी से दो-दो बातें करके ही जाऊंगा। चाहे जेहल ही जाना पड़े,
पर फटकारूंगा जरूर, बुरी तरह
फटकारूंगा। आख़िर उनके भी तो बाल-बच्चे होंगे! क्या भगवान से ज़रा भी नहीं
डरते! तुमने बाबूजी को जाती बार देखा था?बहुत
रंजीदा थे? ’
देवीदीन
ने अविश्वास के भाव से कहा,
‘हंस
क्या रहे होंगे बेचारे। मुंह से चाहे हंस लें,
दिल तो रोता ही होगा।
’
देवीदीन
को यहां बैठे एक घंटा भी न हुआ था कि सहसा जग्गो आ खड़ी हुई। देवीदीन को
द्वार पर बैठे देखकर बोली,
‘तुम
यहां क्या करने लगे?भैया
कहां हैं?’
देवीदीन
ने मर्माहत होकर कहा,
‘भैया
को ले गए सुपरीडंट के पास,
न जाने भेंट होती है कि ऊपर ही ऊपर परागराज भेज दिए जाते हैं।
’
जग्गो—‘दारोग़ाजी
भी बडे वह हैं। कहां तो कहा था कि इतना लेंगे,
कहां लेकर चल दिए!’
देवीदीन—‘इसीलिए
तो बैठा हूं कि आवें तो दो-दो बातें कर लूं।’
जग्गो—‘हां,
फटकारना जरूर,जो अपनी बात का नहीं,
वह अपने बाप का क्या होगा। मैं तो खरी कहूंगी। मेरा क्या
कर लेंगे!’
देवीदीन—‘दूकान
पर कौन है?’
जग्गो—‘बंद
कर आई हूं। अभी बेचारे ने कुछ खाया भी नहीं। सबेरे से
वैसे ही
हैं। चूल्हे में जाय वह तमासाब उसी के टिकट लेने तो जाते थे। न घर
से निकलते
तो काहे को यह बला सिर पड़ती।
देवीदीन—‘जो
उधार ही से पराग भेज दिया तो?’
जग्गो—‘तो
चिट्ठी तो आवेगी ही। चलकर वहीं देख आवेंगे?’
देवीदीन—‘(आंखों
में आंसू भरकर) सज़ा हो जायगी?
जग्गो—‘रूपया
जमा कर देंगे तब काहे को होगी। सरकार अपने रूपये ही तो लेगी?
देवीदीन—‘नहीं
पगली, ऐसा नहीं होता। चोर माल लौटा दे तो वह छोड़
थोड़े ही दिया जाएगा।’
जग्गो ने
परिस्थिति की कठोरता अनुभव करके कहा,
‘दारोग़ाजी,
’
वह अभी
बात भी पूरी न करने पाई थी कि दारोग़ाजी की मोटर सामने आ पहुंची। इंस्पेक्टर
साहब भी थे। रमा इन दोनों को देखते ही मोटर से उतरकर आया और प्रसन्न मुख
से बोला,
‘तुम
यहां देर से बैठे हो क्या दादा?
आओ, कमरे में चलो। अम्मां,
तुम कब आइ?’
दारोग़ाजी
ने विनोद करके कहा,
‘कहो
चौधारी,
लाए रूपये?’
देवीदीन—‘जब
कह गया कि मैं थोड़ी देर में आता हूं, तो आपको मेरी
राह देख लेनी चाहिए थी। चलिए, अपने रूपये लीजिए।’
दारोग़ा
–‘खोदकर
निकाले होंगे?’
देवीदीन—‘आपके
अकबाल से हज़ार-पांच सौ अभी ऊपर ही निकल सकते हैं। ज़मीन खोदने की जरूरत नहीं
पड़ी। चलो भैया, बुढिया कब से खड़ी है। मैं रूपये
चुकाकर आता हूं। यह तो इसपिकटर साहब थे न? पहले इसी
थाने में थे।‘
दारोग़ा
–‘तो
भाई, अपने रूपये ले जाकर उसी हांड़ी में रख दो।
अफसरों की सलाह हुई कि इन्हें छोड़ना न चाहिए। मेरे बस की बात नहीं है।’
इंस्पेक्टर साहब तो पहले ही दफ्तर में चले गए थे। ये तीनों आदमी बातें
करते उसके बग़ल वाले कमरे में गए। देवीदीन ने दारोग़ा की बात सुनी,
तो भौंहें तिरछी हो गई।
लाया हूं।
आपको अपना कौल पूरा करना पड़ेगा। कहके मुकर जाना नीचों का काम है।’
इतने कठोर
शब्द सुनकर दारोग़ाजी को भन्ना जाना चाहिए था,
पर उन्होंने ज़रा भी बुरा न माना। हंसते हुए बोले,भई
अब चाहे,
नीच कहो, चाहे दग़ाबाज़ कहो,
पर हम इन्हें छोड़ नहीं सकते। ऐसे शिकार रोज़ नहीं मिलते।
कौल के पीछे अपनी तरक्की नहीं छोड़ सकता दारोग़ा के हंसने पर देवीदीन और भी
तेज़ हुआ,
‘तो
आपने कहा किस मुंह से था?
’
दारोग़ा
–‘कहा
तो इसी मुंह से था, लेकिन मुंह हमेशा एक-सा तो नहीं
रहता। इसी मुंह से जिसे गाली देता हूं, उसकी इसी
मुंह से तारीफ भी करता हूं।’
देवीदीन—‘(तिनककर)
यह मूंछें मुड़वा डालिए।’
दारोग़ा
–‘मुझे
बडी ख़ुशी से मंजूर है। नीयत तो मेरी पहले ही थी, पर
शर्म के मारे न मुड़वाता था। अब तुमने दिल मज़बूत कर दिया।’
देवीदीन—‘हंसिए
मत दारोग़ाजी, आप हंसते हैं और मेरा ख़ून जला जाता
है। मुझे चाहे जेहल ही क्यों न हो जाए, लेकिन मैं
कप्तान साहब से जरूर कह दूंगा। हूं तो टके का आदमी पर आपके अकबाल से बडे
अफसरों तक पहुंच है।’
दारोग़ा
–‘अरे,
यार तो क्या सचमुच कप्तान साहब से मेरी शिकायत कर दोगे?’
देवीदीन
ने समझा कि धमकी कारगर हुई। अकड़कर बोला,
‘आप
जब किसी की नहीं सुनते,
बात कहकर मुकर जाते हैं, तो दूसरे
भी अपने-सी करेंगे ही। मेम साहब तो रोज़ ही दुकान पर आती हैं।’
दारोग़ा
–‘कौन,
देवी? अगर तुमने साहब या मेम साहब
से मेरी कुछ शिकायत की, तो कसम खाकर कहता हूं,
कि घर खुदवाकर फेंक दूंगा!’
देवीदीन—‘जिस
दिन मेरा घर खुदेगा, उस दिन यह पगड़ी और चपरास भी न
रहेगी, हुजूर।’
दारोग़ा
–‘अच्छा
तो मारो हाथ पर हाथ, हमारी तुम्हारी दो-दो चोटें हो
जायं,यही सही।’
देवीदीन—‘पछताओगे
सरकार, कहे देता हूं पछताओगे।’
रमा अब
जब्त न कर सका। अब तक वह देवीदीन के बिगड़ने का तमाशा देखने के लिए भीगी
बिल्ली बना खडाथा। कहकहा मारकर बोला,
‘दादा,
दारोग़ाजी तुम्हें चिढ़ा रहे हैं। हम लोगों में ऐसी सलाह हो
गई है कि मैं बिना कुछ लिए-दिए ही छूट जाऊंगा,
ऊपर से नौकरी भी मिल जायगी। साहब ने पक्का वादा किया है।
मुझे अब यहीं रहना होगा।’
देवीदीन
ने रास्ता भटके हुए आदमी की भांति कहा,
‘कैसी
बात है भैया,
क्या कहते हो! क्या पुलिस वालों के चकमे में आ गए?
इसमें कोई न कोई चाल जरूर छिपी होगी।’
रमा ने
इत्मीनान के साथ कहा,
‘और
बात नहीं,
एक मुकदमे में शहादत देनी पड़ेगी।’
देवीदीन
ने संशय से सिर हिलाकर कहा,
‘झूठा
मुकदमा होगा?’
रमानाथ—‘नहीं
दादा, बिलकुल सच्चा मामला है। मैंने पहले ही पूछ
लिया है।’
देवीदीन
की शंका शांत न हुई। बोला,
‘मैं
इस बारे में और कुछ नहीं कह सकता भैया,
ज़रा सोच-समझकर काम करना। अगर मेरे रूपयों को डरते हो,
तो यही समझ लो कि देवीदीन ने अगर रूपयों की परवा की होती,
तो आज लखपति होता। इन्हीं हाथों से सौ-सौ रूपये रोज़ कमाए
और सब-के-सब उडादिए हैं। किस मुकदमे में सहादत देनी है?
कुछ मालूम हुआ?’
दारोग़ाजी
ने रमा को जवाब देने का अवसर न देकर कहा,
‘वही
डकैतियों वाला मुआमला है जिसमें कई ग़रीब आदमियों की जान गई थी। इन डाकुओं
ने सूबे-भर में हंगामा मचा रक्खा था। उनके डर के मारे कोई आदमी गवाही देने
पर राज़ी नहीं होता।’
देवीदीन
ने उपेक्षा के भाव से कहा,
‘अच्छा
तो यह मुख़बिर बन गए?यह
बात है। इसमें तो जो पुलिस सिखाएगी वही तुम्हें कहना पड़ेगा,
भैया! मैं छोटी समझ का आदमी हूं,
इन बातों का मर्म क्या जानूं, पर मुझसे मुख़बिर बनने
को कहा जाता, तो मैं न बनता,
चाहे कोई लाख रूपया देता। बाहर के आदमी को क्या मालूम कौन
अपराधी है, कौन बेकसूर है। दो-चार अपराधियों के साथ
दो-चार बेकसूर भी जरूर ही होंगे।’
दारोग़ा
–‘हरगिज़
नहीं। जितने आदमी पकड़े गए हैं, सब पक्के डाकू हैं।
’
देवीदीन—‘यह
तो आप कहते हैं न, हमें क्या मालूम।’
दारोग़ा
–‘हम
लोग बेगुनाहों को फंसाएंगे ही क्यों? यह तो सोचो।’
देवीदीन—‘यह
सब भुगते बैठा हूं, दारोग़ाजी! इससे तो यही अच्छा है
कि आप इनका चालान कर दें। साल-दो साल का जेहल ही तो होगा। एक अधरम के दंड
से बचने के लिए बेगुनाहों का ख़ून तो सिर पर न चढ़ेगा!
’
रमा ने
भीरूता से कहा,
‘मैंने
ख़ूब सोच लिया है दादा,
सब काग़ज़ देख लिए हैं, इसमें कोई
बेगुनाह नहीं है।’
देवीदीन
ने उदास होकर कहा,’होगा
भाई! जान भी तो प्यारी होती है!’यह
कहकर वह पीछे घूम पड़ा। अपने मनोभावों को इससे स्पष्ट रूप से
वह
प्रकट न कर सकता था। एकाएक उसे एक बात याद आ गई। मुड़कर बोला,
‘तुम्हें
कुछ रूपये देता जाऊं।’
रमा ने
खिसियाकर कहा,
‘क्या
जरूरत है?’
दारोग़ा
–‘आज
से इन्हें यहीं रहना पड़ेगा।’
देवीदीन
ने कर्कश स्वर में कहा,’हां
हुजूर,
इतना जानता हूं। इनकी दावत होगी,
बंगला रहने को मिलेगा, नौकर मिलेंगे,
मोटर मिलेगी। यह सब जानता हूं। कोई बाहर का आदमी इनसे
मिलने न पावेगा, न यह अकेले आ-जा सकेंगे,
यह सब देख चुका हूं।’
यह कहता
हुआ देवीदीन तेज़ी से कदम उठाता हुआ चल दिया,
मानो वहां उसका दम घुट रहा हो दारोग़ा ने उसे पुकारा,
पर उसने फिरकर न देखा। उसके मुख पर पराभूत वेदना छाई हुई
थी।
जग्गो ने
पूछा,
‘भैया
नहीं आ रहे हैं?’
देवीदीन
ने सड़क की ओर ताकते हुए कहा,
‘भैया
अब नहीं आवेंगे। जब अपने ही अपने न हुए तो बेगाने तो बेगाने हैं ही!’
वह चला गया। बुढिया भी पीछे-पीछे भुनभुनाती चली।
पैंतीस
रूदन में
कितना उल्लास,
कितनी शांति, कितना बल है। जो कभी
एकांत में बैठकर, किसी की स्मृति में,
किसी के वियोग में, सिसक-सिसक और
बिलखबिलख नहीं रोया, वह जीवन के ऐसे सुख से वंचित
है, जिस पर सैकड़ों हंसियां न्योछावर हैं। उस मीठी
वेदना का आनंद उन्हीं से पूछो, जिन्होंने यह
सौभाग्य प्राप्त किया है। हंसी के बाद मन खिकै हो जाता है,
आत्मा क्षुब्धा हो जाती है, मानो
हम थक गए हों, पराभूत हो गए हों। रूदन के पश्चात एक
नवीन स्फूर्ति,
एक नवीन
जीवन,
एक नवीन उत्साह का अनुभव होता है। जालपा के पास
‘प्रजा-मित्र’ कार्यालय का पत्र पहुंचा, तो उसे
पढ़कर वह रो पड़ी। पत्र एक हाथ में लिये, दूसरे हाथ
से चौखट पकड़े, वह खूब रोई।क्या सोचकर रोई,
वह कौन कह सकता है। कदाचित अपने उपाय की इस आशातीत सफलता
ने उसकी आत्मा को विह्नल कर दिया, आनंद की उस गहराई
पर पहुंचा दिया जहां पानी
है,
या उस ऊंचाई पर जहां उष्णता हिम बन जाती है। आज छः महीने
के बाद यह सुख-संवाद मिला। इतने दिनों वह छलमयी आशा और कठोर दुराशा का
खिलौना बनी रही। आह! कितनी बार उसके मन में तरंग उठी कि इस जीवन का क्यों न
अंत कर दूं! कहीं मैंने सचमुच प्राण त्याग दिए होते तो उनके दर्शन भी न
पाती! पर उनका हिया कितना कठोर है। छः महीने से वहां बैठे हैं,
एक पत्र भी न लिखा, ख़बर तक नहीं
ली। आख़िर यही न समझ लिया होगा कि
बहुत होगा
रो-रोकर मर जायगी। उन्होंने मेरी परवाह ही कब की! दस-बीस रूपये तो आदमी
यार-दोस्तों पर भी ख़र्च कर देता है। वह प्रेम नहीं है। प्रेम ह्रदय की
वस्तु है,
रूपये की नहीं। जब तक रमा का कुछ पता न था,
जालपा सारा इलज़ाम अपने सिर रखती थी,,
पर आज उनका पता पाते ही उसका मन अकस्मात कठोर हो गया। तरह-तरह के शिकवे
पैदा होने लगे। वहां क्या समझकर बैठे हैं?इसीलिए तो
कि वह स्वाधीन हैं, आज़ाद हैं,
किसी का दिया नहीं खाते।
इसी तरह
मैं कहीं बिना कहे-सुने चली जाती,
तो वह मेरे साथ किस तरह पेश आते?शायद
तलवार लेकर गर्दन पर सवार हो जाते या जिंदगी-भर
मुंह न देखते। वहीं खड़े-खड़े जालपा ने मन-ही-मन
शिकायतों का दफ्तर खोल दिया।
सहसा रमेश
बाबू ने द्वार पर पुकारा,
‘गोपी,
गोपी, ज़रा इधर आना।’
रमेश बाबू
ने कृत्रिम संवेदना दिखाते हुए कहा,
‘आप
इतने बीमार हो गए और मुझे ख़बर तक न हुई। मेरे यहां रहते आपको इतना कष्ट
हुआ! बहू ने भी मुझे एक पुर्ज़ा न लिख दिया। छुट्टी लेनी पड़ी होगी?’
मुंशी—‘छुट्टी
के लिए दरख्वास्त तो भेज दी थी,
मगर साहब मैंने डाक्टरी सर्टिफिकेट नहीं भेजी। सोलह रूपये
किसके घर से लाता। एक दिन सिविल सर्जन के पास गया,
मगर उन्होंने चिट्ठी लिखने से इनकार किया। आप तो जानते हैं वह बिना फीस
लिये बात नहीं करते। मैं चला आया और दरख्वास्त भेज दी। मालूम नहीं मंजूर
हुई या नहीं। यह तो डाक्टरों का हाल है। देख रहे हैं
कि आदमी
मर रहा है,
पर बिना भेंट लिये कदम न उठावेंगे!
’
रमेश बाबू
ने चिंतित होकर कहा,
‘यह
तो आपने बुरी ख़बर सुनाई,
मगर आपकी छुट्टी नामंजूर हुई तो क्या होगा?’
मुंशीजी
ने माथा ठोंकर कहा,’होगा
क्या,
घर बैठ रहूंगा। साहब पूछेंगे तो साफ कह दूंगा,
मैं सर्जन के पास गया था, उसने
छुट्टी नहीं दी। आख़िर इन्हें क्यों सरकार ने नौकर रक्खा है। महज़ कुर्सी की
शोभा बढ़ाने के लिए? मुझे डिसमिस हो जाना मंज़ूर है,
पर सर्टिगिष्धट न दूंगा। लौंडे ग़ायब हैं। आपके लिए पान तक
लाने वाला कोई नहीं। क्या करूं?’
रमेश ने
मुस्कराकर कहा,
‘मेरे
लिए आप तरददुद न करें। मैं आज पान खाने नहीं,
भरपेट मिठाई खाने आया हूं। (जालपा
को पुकारकर) बहूजी,
तुम्हारे लिए ख़ुशख़बरी लाया हूं। मिठाई मंगवा लो।’
जालपा ने
पान की तश्तरी उनके सामने रखकर कहा,
‘पहले
वह ख़बर सुनाइए। शायद आप जिस ख़बर को नई-नई समझ रहे हों,
वह पुरानी हो गई हो’
रमेश—‘जी
कहीं हो न! रमानाथ का पता चल गया। कलकत्ता में हैं।’
जालपा—‘मुझे
पहले ही मालूम हो चुका है।’
मुंशीजी
झपटकर उठ बैठे। उनका ज्वर मानो भागकर उत्सुकता की आड़ में जा छिपा,
रमेश का हाथ पकड़कर बोले,
‘मालूम
हो गया कलकत्ता में हैं?
कोई ख़त आया था?’
रमेश—‘खत
नहीं था, एक पुलिस इंक्वायरी थी। मैंने कह दिया,
उन पर किसी तरह का इलज़ाम नहीं है। तुम्हें कैसे मालूम हुआ,
बहूजी?’
जालपा ने
अपनी स्कीम बयान की। ‘प्रजा-मित्र’ कार्यालय का पत्र भी दिखाया। पत्र के
साथ रूपयों की एक रसीद थी जिस पर रमा का हस्ताक्षर था।
से निकली
और उसके गले से लिपटकर बोली,
‘बहन
कलकत्ता से पत्र आ गया। वहीं हैं।’रतन—‘मेरे
सिर की कसम?’
जालपा—‘हां,
सच कहती हूं। ख़त देखो न!’
रतन—‘तो
आज ही चली जाओ।’
जालपा—‘यही
तो मैं भी सोच रही हूं। तुम चलोगी?’
रतन—‘चलने
को तो मैं तैयार हूं, लेकिन अकेला घर किस पर छोड़ूं!
बहन, मुझे मणिभूषण पर कुछ शुबहा होने लगा है। उसकी
नीयत अच्छी नहीं मालूम होती। बैंक में बीस हज़ार रूपये से कम न थे। सब न
जाने कहां उडादिए। कहता है, क्रिया-कर्म में ख़र्च
हो गए। हिसाब मांगती हूं, तो आंखें दिखाता है।
दफ्तर की कुंजी अपने पास रखे हुए है। मांगती हूं,
तो टाल जाता है। मेरे साथ कोई कानूनी चाल चल रहा है। डरती हूं,
मैं उधार जाऊं, इधर वह सब कुछ
ले-देकर
चलता बने।
बंगले के गाहक आ रहे हैं। मैं भी सोचती हूं,
गांव में जाकर शांति से पड़ी रहूं। बंगला बिक जायगा,
तो नकद रूपये हाथ आ जाएंगे। मैं न रहूंगी,तो
शायद ये रूपये मुझे देखने को भी न मिलें। गोपी को साथ लेकर आज ही चली जाओ।
रूपये का इंतजाम मैं कर दूंगी।‘
जालपा—‘गोपीनाथ
तो शायद न जा सकें,
दादा की दवा-दारू के लिए भी तो कोई चाहिए।
रतन—‘वह
मैं कर दूंगी। मैं रोज़ सबेरे आ जाऊंगी और दवा देकर चली जाऊंगी। शाम को भी
एक बार आ जाया करूंगी। ‘
रतन—‘मैं
थोड़ी देर बैठी भी रहा करूंगी, मगर तुम आज ही जाओ। बेचारे वहां न जाने किस
दशा में होंगे। तो यही तय रही न?
‘
रतन
मुंशीजी के कमरे में गई,
तो रमेश बाबू उठकर खड़े हो गए और बोले,
‘आइए
देवीजी,
रमा बाबू का पता चल गया!
‘
रतन—‘इसमें
आधा श्रेय मेरा है।‘
रमेश—‘आपकी
सलाह से तो हुआ ही होगा। अब उन्हें यहां लाने की फिक्र करनी है।‘
रतन—‘जालपा
चली जाएं और पकड़ लाएं। गोपी को साथ लेती जावें, आपको इसमें कोई आपत्ति तो
नहीं है, दादाजी?’
मुंशीजी
को आपत्ति तो थी,
उनका बस चलता तो इस अवसर पर दसपांच आदमियों को और जमा कर
लेते, फिर घर के आदमियों के चले जाने पर क्यों
आपत्ति न होती, मगर समस्या ऐसी आ पड़ी थी कि कुछ बोल
न सके। गोपी कलकत्ता की सैर का ऐसा अच्छा अवसर पाकर क्यों न ख़ुश होता।
विशम्भर दिल में ऐंठकर रह गया। विधाता ने उसे छोटा न बनाया होता,
तो आज
उसकी यह
हकतलफी न होती। गोपी ऐसे कहां के बडे होशियार हैं,
जहां जाते हैं कोई-न-कोई चीज़ खो आते हैं। हां,
मुझसे बडे हैं। इस दैवी विधान ने उसे मजबूर कर दिया।
रात को नौ
बजे जालपा चलने को तैयार हुई। सास-ससुर के चरणों पर सिर झुकाकर आशीर्वाद
लिया,
विशम्भर रो रहा था, उसे गले लगा कर
प्यार किया और मोटर पर बैठी। रतन स्टेशन तक पहुंचाने के लिए आई थी। मोटर
चली तो जालपा ने कहा,
‘बहन,
कलकत्ता तो बहुत बडा शहर होगा। वहां कैसे पता चलेगा?’
रतन—‘पहले
‘प्रजा-मित्र’ के कार्यालय में जाना। वहां से पता चल जाएगा। गोपी बाबू तो
हैं ही।’
जालपा—‘ठहरूंगी
कहां? ’
रतन—‘कई
धर्मशाले हैं। नहीं होटल में ठहर जाना। देखो रूपये की जरूरत पड़े,
तो मुझे तार देना। कोई-न कोई इंतज़ाम करके भेजूंगी। बाबूजी
आ जाएं,तो मेरा बडा उपकार हो यह मणिभूषण मुझे तबाह
कर देगा।’
जालपा—‘होटल
वाले बदमाश तो न होंगे? ’
रतन—‘कोई
ज़रा भी शरारत करे, तो ठोकर मारना। बस,
कुछ पूछना मत, ठोकर जमाकर तब बात करना। (कमर से एक छुरी
निकालकर) इसे अपने पास रख लो। कमर में छिपाए रखना। मैं जब कभी बाहर निकलती
हूं, तो इसे अपने पास रख लेती हूं। इससे दिल बडा
मज़बूत रहता है। जो मर्द किसी स्त्री को छेड़ता है,
उसे समझ लो कि पल्ले सिरे का कायर, नीच और लंपट है।
तुम्हारी छुरी की चमक और तुम्हारे तेवर देखकर ही उसकी ईह गष्ना हो जायगी।
सीधा दुम
दबाकर
भागेगा, लेकिन अगर ऐसा मौका आ ही पड़े जब तुम्हें छुरी से काम लेने के लिए
मजबूर हो जाना पड़े,
तो ज़रा भी मत झिझकना। छुरी लेकर पिल पड़ना। इसकी बिलकुल
फिक्र मत करना कि क्या होगा, क्या न होगा। जो कुछ
होना होगा, हो जायगा।
’
जालपा ने
छुरी ले ली, पर कुछ बोली नहीं। उसका दिल भारी हो रहा था। इतनी बातें सोचने
और पूछने की थीं कि उनके विचार से ही उसका दिल बैठा जाता था।
स्टेशन आ
गया। द्दलियों ने असबाब उतारा, गोपी टिकट लाया। जालपा पत्थर की मूर्ति की
भांति प्लेटफार्म पर खड़ी रही,
मानो चेतना शून्य हो गई हो किसी बडी परीक्षा के पहले हम
मौन हो जाते हैं। हमारी सारी शक्तियां उस संग्राम की तैयारी में लग जाती
हैं। रतन ने गोपी से कहा,
‘होशियार
रहना।’
गोपी इधर
कई महीनों से कसरत करता था। चलता तो मुडढे और छाती को देखा करता। देखने
वालों को तो वह ज्यों का त्यों मालूम होता है,
पर अपनी नज़र में वह कुछ और हो गया था। शायद उसे आश्चर्य
होता था कि उसे आते देखकर क्यों लोग रास्ते से नहीं हट जाते,
क्यों उसके डील-डौल से भयभीत नहीं हो जाते। अकड़कर बोला,
‘किसी
ने ज़रा चीं-चपड़ की तो तोड़ दूंगा।’
रतन
मुस्कराई,
‘यह
तो मुझे मालूम है। सो मत जाना।’
गोपी,
‘पलक
तक तो झपकेगी नहीं। मजाल है नींद आ जाय।’
गाड़ी आ
गई। गोपी ने एक डिब्बे में घुसकर कब्जा जमाया। जालपा की आंखों में आंसू भरे
हुए थे। बोली,
बहन,
‘आशीर्वाद
दो कि उन्हें लेकर कुशल से लौट आऊं।‘
इस समय
उसका दुर्बल मन कोई आश्रय,
कोई सहारा, कोई बल ढूंढ रहा था और
आशीर्वाद और प्रार्थना के सिवा वह बल उसे कौन प्रदान करता। यही बल और शांति
का वह अक्षय भंडार है जो किसी को निराश नहीं करता,
जो सबकी बांह पकड़ता है, सबका बेडापार लगाता है।
इंजन ने सीटी दी। दोनों सहेलियां गले मिलीं। जालपा गाड़ी में जा बैठी।
रतन ने
कहा,
‘जाते
ही जाते ख़त भेजना।‘
जालपा ने सिर हिलाया।
‘अगर मेरी
जरूरत मालूम हो,
तो तुरंत लिखना। मैं सब कुछ छोड़कर चली आऊंगी।’
जालपा ने
सिर हिला दिया।
‘रास्ते
में रोना मत।’ जालपा हंस पड़ी। गाड़ी चल दी।
छत्तीस
देवीदीन
ने चाय की दूकान उसी दिन से बंद कर दी थी और दिन-भर उस अदालत की खाक छानता
फिरता था जिसमें डकैती का मुकदमा पेश था और रमानाथ की शहादत हो रही थी। तीन
दिन रमा की शहादात बराबर होती रही और तीनों दिन देवीदीन ने न कुछ खाया और न
सोया। आज भी उसने घर आते ही आते कुरता उतार दिया और एक पंखिया लेकर झलने
लगा। फागुन लग गया था और कुछ-कुछ गर्मी शुरू हो गई थी,
पर इतनी गर्मी न थी कि पसीना बहे या पंखे
की जरूरत
हो अफसर लोग तो जाड़ों के कपड़े पहने हुए थे,
लेकिन देवीदीन पसीने में तर था। उसका चेहरा,
जिस पर निष्कपट बुढ़ापा हंसता रहता था,
खिसियाया हुआ था, मानो बेगार से लौटा हो जग्गो ने
लोटे में पानी लाकर रख दिया और बोली,चिलम
रख दूं?
देवीदीन की आज तीन दिन से यह ख़ातिर हो रही थी। इसके पहले बुढिया कभी चिलम
रखने को न पूछती थी। देवीदीन इसका मतलब समझता था। बुढिया को सदय नजरों से
देखकर बोला,नहीं,
रहने दो, चिलम न पिऊंगा।
‘तो
मुंह-हाथ तो धो लो। गर्द पड़ी हुई है।’
‘धो लूंगा,
जल्दी क्या है।’
बुढिया आज
का हाल जानने को उत्सुक थी,
पर डर रही थी कहीं देवीदीन झुंझला न पड़े। वह उसकी थकान
मिटा देना चाहती थी, जिससे देवीदीन प्रसन्न होकर
आप-ही-आप सारा वृत्तांत कह चले।
‘तो कुछ
जलपान तो कर लो। दोपहर को भी तो कुछ नहीं खाया था,
मिठाई
लाऊं- लाओ,
पंखी मुझे दे दो।’
देवीदीन
ने पंखिया दे दी। बुढिया झलने लगी। दो-तीन मिनट तक आंखें बंद करके बैठे
रहने के बाद देवीदीन ने कहा,
‘आज
भैया की गवाही खत्म हो गई!
बुढिया का
हाथ रूक गया। बोली,
‘तो
कल से वह घर आ जाएंगे?’
देवीदीन—‘अभी
नहीं छुट्टी मिली जाती, यही बयान दीवानी में देना
पड़ेगा। और अब वह यहां आने ही क्यों लगे! कोई अच्छी जगह मिल जायगी,
घोड़े पर चढ़े-चढ़े घूमेंगे, मगर है
।डा पक्का मतलबीब पंद्रह बेगुनाहों को फंसा दिया। पांच-छः को तो फांसी हो
जाएगी। औरों को दस-दस बारह-बारह साल की सज़ा मिली रक्खी है। इसी के बयान से
मुकदमा सबूत हो गया। कोई कितनी ही जिरह करे, क्या
मजाल ज़रा भी हिचकिचाए। अब एक भी न बचेगा। किसने कर्म किया,
किसने नहीं किया इसका हाल दैव जाने,
पर मारे सब जाएंगे। घर से भी तो सरकारी रूपया खाकर भागा
था। हमें बडा धोखा हुआ। जग्गो ने मीठे तिरस्कार से देखकर कहा,
‘अपनी
नेकी-बदी अपने साथ है। मतलबी तो संसार है,
कौन किसके लिए मरता है।’
देवीदीन
ने तीव्र स्वर में कहा,’अपने
मतलब के लिए जो दूसरों का गला काटे उसको ज़हर दे देना भी पाप नहीं है।’
सहसा दो
प्राणी आकर खड़े हो गए। एक गोरा,
खूबसूरत लड़का था, जिसकी उम्र
पंद्रह-सोलह साल से ज्यादा न थी। दूसरा अधेड़ था और सूरत से चपरासी मालूम
होता था। देवीदीन ने पूछा,
‘किसे
खोजते हो?’
चपरासी ने
कहा,’तुम्हारा
ही नाम देवीदीन है न?
मैं ‘प्रजा-मित्र’ के दफ्तर से आया हूं। यह बाबू उन्हीं रमानाथ के भाई हैं
जिन्हें सतरंज का इनाम मिला था। यह उन्हीं की खोज में दफ्तर गए थे।
संपादकजी ने तुम्हारे पास भेज दिया। तो मैं जाऊं न?’
यह कहता हुआ वह चला गया। देवीदीन ने गोपी को सिर से पांव
तक देखा। आकृति रमा से मिलती थी। बोला,
‘आओ
बेटा,
बैठो। कब आए घर से?’गोपी
ने एक खटिक की दूकान पर बैठना शान के ख़िलाफ समझा,
खडा-खडा बोला,
‘आज
ही तो आया हूं। भाभी भी साथ हैं। धर्मशाले में ठहरा हुआ हूं।’
देवीदीन
ने खड़े होकर कहा,
‘तो
जाकर बहू को यहां लाओ नब ऊपर तो रमा बाबू का कमरा है ही,
आराम से रहो धरमसाले में क्यों पड़े रहोगे। नहीं चलो,
मैं भी चलता हूं। यहां सब तरह का आराम है।’
उसने
जग्गो को यह ख़बर सुनाई और ऊपर झाडू लगाने को कहकर गोपी के साथ धर्मशाले चल
दिया। बुढिया ने तुरंत ऊपर जाकर झाडू। लगाया,
लपककर हलवाई की दूकान से मिठाई और दही लाई,
सुराही में पानी भरकर रख दिया। फिर अपना हाथ-मुंह धोया,
एक रंगीन साड़ी निकाली, गहने पहने
और बन-ठनकर बहू की राह देखने लगी।
इतने में
फिटन भी आ पहुंची। बुढिया ने जाकर जालपा को उतारा। जालपा पहले तो साफ-भाजी
की दूकान देखकर कुछ झिझकी, पर बुढिया का स्नेह-स्वागत देखकर उसकी झिझक दूर
हो गई। उसके साथ ऊपर गई,
तो हर एक चीज़ इसी तरह अपनी जगह पर पाई मानो अपना ही घर हो
जग्गो ने
लोटे में पानी रखकर कहा,
‘इसी
घर में भैया रहते थे,
बेटी! आज पंद्रह रोज़ से घर सूना पडाहुआ है। हाथ-मुंह धोकर
दही-चीनी खा लो न, बेटी!
भैया का हाल तो अभी तुम्हें न मालूम हुआ होगा।
‘
जालपा ने
सिर हिलाकर कहा,
‘कुछ
ठीक-ठीक नहीं मालूम हुआ। वह जो पत्र छपता है,
वहां मालूम हुआ था कि पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है।‘
देवीदीन
भी ऊपर आ गया था। बोला,
‘गिरफ्तार
तो किया था,
पर अब तो वह एक मुकदमे में सरकारी गवाह हो गए हैं। परागराज
में अब उन पर कोई मुकदमा न चलेगा और साइत नौकरी-चाकरी भी मिल जाए। जालपा ने
गर्व से कहा,
‘क्या
इसी डर से वह सरकारी गवाह हो गए हैं?
वहां तो
उन पर कोई मामला ही नहीं है। मुकदमा क्यों चलेगा?’
देवीदीन
ने डरते-डरते कहा,
‘कुछ
रूपये-पैसे का मुआमला था न?’
जालपा ने
मानो आहत होकर कहा,
‘वह
कोई बात न थी। ज्योंही हम लोगों को मालूम हुआ कि कुछ सरकारी रकम इनसे खर्च
हो गई है,
उसी वक्त पहुंचा दी। यह व्यर्थ घबडाकर चले आए और फिर ऐसी
चुप्पी साधी कि अपनी ख़बर तक न दी।’
देवीदीन
का चेहरा जगमगा उठा,
मानो किसी व्यथा से आराम मिल गया हो बोला,
‘तो
यह हम लोगों को क्या मालूम! बार-बार समझाया कि घर पर खत-पत्तर भेज दो,
लोग घबडाते होंगे, पर मारे शर्म के
लिखते ही न थे। इसी धोखे में पड़े रहे कि परागराज में मुकदमा चल गया होगा।
जानते तो सरकारी गवाह क्यों बनते?’
‘सरकारी
गवाह’ का आशय जालपा से छिपा न था। समाज में उनकी जो निंदा और अपकीर्ति होती
है,
यह भी उससे छिपी न थी। सरकारी गवाह क्यों बनाए जाते हैं,
किस तरह प्रलोभन दिया जाता है, किस
भांति वह पुलिस के पुतले बनकर अपने ही मित्रों का गला घोंटते हैं,
यह उसे मालूम था। मगर कोई आदमी अपने बुरे आचरण पर लज्जित
होकर भी सत्य का उदघाटन करे,
छल और कपट
का आवरण हटा दे,
तो वह सज्जन है, उसके साहस की
जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। मगर शर्त यही है कि
वह अपनी गोष्ठी के साथ किए का फल भोगने को तैयार रहे। हंसता-खेलता फांसी पर
चढ़जाए तो वह सच्चा वीर है, लेकिन अपने प्राणों की रक्षा के लिए स्वार्थ के
नीच विचार से, दंड की कठोरता से भयभीत होकर अपने
साथियों से दगा करे, आस्तीन का सांप बन जाए तो वह
कायर है, पतित है, बेहया
है। विश्वासघात डाकुओं और समाज
के
शत्रुओं में भी उतना ही हेय है जितना किसी अन्य क्षो मेंब ऐसे प्राणी को
समाज कभी क्षमा नहीं करता,
कभी नहीं,जालपा
इसे ख़ूब समझती थी। यहां तो समस्या और भी जटिल हो गई थी। रमा ने दंड के भय
से अपने किए हुए पापों का परदा नहीं खोला था। उसमें कम-से-कम सच्चाई तो
होती। निंदा होने पर भी आंशिक सच्चाई का एक गुण तो होता। यहां तो उन पापों
का परदा खोला गया था,
जिनकी हवा तक उसे न लगी थी। जालपा को सहसा इसका विश्वास
न आया।
अवश्य कोई-न?कोई
बात हुई होगी, जिसने रमा को सरकारी गवाह बनने पर
मज़बूर कर दिया होगा। सद्दचाती हुई बोली,’क्या
यहां भी कोई---कोई बात हो गई थी?’
देवीदीन
उसकी मनोव्यथा का अनुभव करता हुआ बोला,
‘कोई
बात नहीं। यहां वह मेरे साथ ही परागराज से आए। जब से आए यहां से कहीं गए
नहीं। बाहर निकलते ही न थे। बस एक दिन निकले और उसी दिन पुलिस ने पकड़
लिया। एक सिपाही को आते देखकर डरे कि मुझी को पकड़ने आ रहा है,
भाग खड़े हुए। उस सिपाही को खटका हुआ। उसने शुबहे में
गिरफ्तार कर लिया। मैं भी इनके पीछे थाने में पहुंचा। दारोग़ा पहले तो रिसवत
मांगते थे, मगर जब मैं घर से रूपये लेकर गया,
तो वहां और ही गुल खिल चुका था। अफसरों में न जाने क्या
बातचीत हुई। उन्हें सरकारी गवाह बना लिया। मुझसे तो भैया ने कहा कि इस
मुआमले में बिलकुल झूठ न बोलना पड़ेगा। पुलिस का मुकदमा सच्चा है। सच्ची बात
कह देने में क्या हरज है। मैं चुप हो रहा। क्या करता।’
‘हां,
तीन दिन बराबर होता रहा। आज खतम हो गया।’
जालपा ने
उद्विग्न होकर कहा,
‘तो
अब कुछ नहीं हो सकता?
मैं उनसे मिल सकती हूं?’
देवीदीन
जालपा के इस प्रश्न पर मुस्करा पड़ा। बोला,
‘हां,
और क्या, जिसमें जाकर भंडागोड़ कर
दो, सारा खेल बिगाड़ दो! पुलिस ऐसी गधी नहीं है।
आजकल कोई भी उनसे नहीं मिलने पाता। कडा पहरा रहता है।’
इस प्रश्न
पर इस समय और कोई बातचीत न हो सकती थी। इस गुत्थी को सुलझाना आसान न था।
जालपा ने गोपी को बुलाया। वह छज्जे पर खडा सड़क का तमाशा देख रहा था। ऐसा
शरमा रहा था,
मानो ससुराल आया हो धीरे-धीरे आकर खडा हो गया। जालपा ने
कहा,
‘मुंह-हाथ
धोकर कुछ खा तो लो। दही तो तुम्हें बहुत अच्छा लगता है।’गोपी
लजा कर फिर बाहर चला गया।
देवीदीन
ने मुस्कराकर कहा,
‘हमारे
सामने न खाएंगे। हम दोनों चले जाते हैं। तुम्हें जिस चीज़ की जरूरत हो,
हमसे कह देना, बहूजी! तुम्हारा ही
घर है।’
‘भैया
को तो हम अपना ही समझते थे। और हमारे कौन बैठा हुआ है।’जग्गो
ने गर्व से कहा,
‘वह
तो मेरे हाथ का बनाया खा लेते थे।’
जालपा ने
मुस्कराकर कहा,
‘अब
तुम्हें भोजन न बनाना पड़ेगा,
मांजी, मैं बना दिया करूंगी।’
जग्गो ने
आपत्ति की,
‘हमारी
बिरादरी में दूसरों के हाथ का खाना मना है,
बहू, अब चार दिन के लिए बिरादरी
में नक्य क्या बनूं!’
जालपा—‘हमारी
बिरादरी में भी तो दूसरों का खाना मना है।’
जग्गो—‘यहां
तुम्हें कौन देखने आता है। फिर पढ़े-लिखे आदमी इन बातों का विचार भी तो नहीं
करते। हमारी बिरादरी तो मूरख लोगों की है।
’
देवीदीन
ने जग्गो की ओर प्रशंसा-सूचक नजरों से देखकर कहा,
‘बहू
ने बात पते की कह दी। इसका जवाब सोचकर देना। अभी चलो। इन लोगों को ज़रा आराम
करने दो।’
दोनों
नीचे चले गए,
तो गोपी ने आकर कहा,
‘भैया
इसी खटिक के यहां रहते थे क्या?
खटिक ही तो मालूम होते हैं।’
जालपा ने
फटकारकर कहा,
‘खटिक
हों या चमार हों,
लेकिन हमसे और तुमसे सौगुने अच्छे हैं। एक परदेशी आदमी को
छः महीने तक अपने घर में ठहराया, खिलाया,
पिलाया। हममें है इतनी हिम्मत! यहां तो कोई मेहमान आ जाता
है, तो वह भी भारी हो जाता है। अगर यह नीचे हैं,
तो हम इनसे कहीं नीचे हैं।’
गोपी
मुंह-हाथ धो चुका था। मिठाई खाता हुआ बोला,
किसी को ठहरा लेने से कोई ऊंचा नहीं हो जाता। चमार कितना ही दानपुण्य करे,
पर रहेगा तो चमार ही।’
जालपा—‘मैं
उस चमार को उस पंडित से अच्छा समझूंगी, जो हमेशा
दूसरों का धन खाया करता है।’
जलपान
करके गोपी नीचे चला गया। शहर घूमने की उसकी बडी इच्छा थी। जालपा की इच्छा
कुछ खाने की न हुई। उसके सामने एक जटिल समस्या खड़ी थी,रमा
को कैसे इस दलदल से निकाले। उस निंदा और उपहास की कल्पना ही से उसका अभिमान
आहत हो उठता था। हमेशा के लिए वह सबकी आंखों से फिर जाएंगे,
किसी को मुंह न दिखा सकेंगे। फिर,
बेगुनाहों का ख़ून किसकी गर्दन पर होगा। अभियुक्तों में न जाने कौन अपराधी
है, कौन निरपराध है, कितने
द्वेष के शिकार हैं, कितने लोभ के, सभी सज़ा पा
जाएंगे। शायद दो-चार को फांसी भी हो जाय। किस पर यह हत्या पड़ेगी?
उसने फिर सोचा, माना किसी पर हत्या न पड़ेगी। कौन
जानता है, हत्या पड़ती है या नहीं,
लेकिन अपने स्वार्थ के लिए,ओह!
कितनी बडी नीचता है। यह कैसे इस बात पर राज़ी हुए! अगर म्युनिसिपैलिटी के
मुकदमा चलाने का भय भी था,
तो दो-चार साल की कैद के सिवा और क्या होता, उससे बचने के
लिए इतनी घोर नीचता पर उतर आए! अब अगर मालूम भी हो जाए कि म्युनिसिपैलिटी
कुछ नहीं कर सकती, तो अब हो ही क्या सकता है। इनकी
शहादत तो हो ही गई। सहसा एक बात किसी भारी कील की तरह उसके ह्रदय में चुभ
गई।
क्यों न
यह अपना बयान बदल दें। उन्हें मालूम हो जाए कि म्युनिसिपैलिटी उनका कुछ
नहीं कर सकती,
तो शायद वह ख़ुद ही अपना बयान बदल दें। यह बात उन्हें कैसे
बताई जाए? किसी तरह संभव है। वह अधीर होकर नीचे उतर
आई और देवीदीन को इशारे से बुलाकर बोली,’क्यों
दादा,
उनके पास कोई खत भी नहीं पहुंच सकता?
पहरे वालों को दस-पांच रूपये देने से तो शायद ख़त पहुंच जाय।’
‘उस बंगले
के आसपास क्या है?’
‘एक ओर तो
दूसरा बंगला है। एक ओर एक कलमी आम का बाग़ है और सामने सड़क है।’
‘हां,
शाम को घूमने-घामने तो निकलते ही होंगे?’
‘हां,
बाहर द्दरसी डालकर बैठते हैं। पुलिस के दो-एक अफसर भी साथ
रहते हैं।’
‘अगर कोई
उस बाग़ में छिपकर बैठे,
तो कैसा हो! जब उन्हें अकेले देखे,
ख़त फेंक दे। वह जरूर उठा लेंगे।’
देवीदीन
ने चकित होकर कहा,
‘हां,
हो तो सकता है, लेकिन अकेले मिलें
तब तो!’
ज़रा और
अंधेरा हुआ,
तो जालपा ने देवीदीन को साथ लिया और रमानाथ का बंगला देखने
चली। एक पत्र लिखकर जेब में रख लिया था। बार-बार देवीदीन से पूछती,
अब कितनी दूर है? अच्छा! अभी इतनी
ही दूर और! वहां हाते में रोशनी तो होगी ही। उसके दिल में लहरें-सी उठने
लगीं। रमा अकेले टहलते हुए मिल जाएं, तो क्या
पूछना। ईमाल में बांधकर ख़त को उनके सामने फेंक दूं। उनकी सूरत बदल गई
होगी। सहसा उसे शंका हो गई,कहीं
वह पत्र पढ़कर भी अपना बयान न बदलें,
तब क्या होगा? कौन जाने अब मेरी
याद भी उन्हें है या नहीं। कहीं मुझे देखकर वह मुंह उधर लें तो- इस शंका से
वह सहम उठी। देवीदीन से बोली,
‘क्यों
दादा,
वह कभी घर
की चर्चा करते थे?’
देवीदीन
ने सिर हिलाकर कहा,’कभी
नहीं। मुझसे तो कभी नहीं की। उदास बहुत रहते थे।
’
इन शब्दों
ने जालपा की शंका को और भी सजीव कर दिया। शहर की घनी बस्ती से ये लोग दूर
निकल आए थे। चारों ओर सन्नाटा था। दिनभर वेग से चलने के बाद इस समय पवन भी
विश्राम कर रहा था। सड़क के किनारे के वृक्ष और मैदान चन्द्रमा के मंद
प्रकाश में हतोत्साह,
निर्जीव-से मालूम होते थे। जालपा को ऐसा आभास होने लगा कि
उसके प्रयास का कोई फल नहीं है, उसकी यात्रा का कोई
लक्ष्य नहीं है, इस अनंत मार्ग में उसकी दशा उस
अनाथ की-सी है जो मुत्तीभर अकै के लिए द्वार-द्वार फिरता हो वह जानता है,
अगले द्वार पर उसे अकै न मिलेगा,
गालियां ही मिलेंगी, फिर भी वह हाथ फैलाता है,
बढ़ती मनाता है। उसे आशा का अवलंब नहीं निराशा ही का अवलंब
है।
एकाएक सड़क
के दाहनी तरफ बिजली का प्रकाश दिखाई दिया। देवीदीन ने एक बंगले की ओर उंगली
उठाकर कहा,
‘यही
उनका बंगला है।’
जालपा ने
डरते-डरते उधर देखा,
मगर बिलकुल सन्नाटा छाया हुआ था। कोई आदमी न था। फाटक पर ताला पडाहुआ था।
जालपा
बोली,’यहां
तो कोई नहीं है।’
देवीदीन
ने फाटक के अंदर झांककर कहा,
‘हां,
शायद यह बंगला छोड़ दिया।’
‘कहीं
घूमने गए होंगे?’
‘घूमने
जाते तो द्वार पर पहरा होता। यह बंगला छोड़ दिया।’
‘तो लौट
चलें।’
‘नहीं,
ज़रा पता लगाना चाहिए, गए कहां?’
बंगले की
दाहनी तरफ आमों के बाग़ में प्रकाश दिखाई दिया। शायद खटिक बाग़ की रखवाली कर
रहा था। देवीदीन ने बाग में आकर पुकारा,
‘कौन
है यहां?
किसने यह बाग़ लिया है?’
एक आदमी
आमों के झुरमुट से निकल आया। देवीदीन ने उसे पहचानकर कहा
,
‘अरे!
तुम हो जंगली?
तुमने यह बाग़ लिया है?’
जगंली
ठिगना-सा गठीला आदमी था,
बोला,’हां
दादा,
ले लिया, पर कुछ है नहीं। डंड ही
भरना पड़ेगा। तुम यहां कैसे आ गए?’
‘कुछ नहीं,
यों ही चला आया था। इस बंगले वाले आदमी क्या हुए?’
जंगली ने
इधर-उधर देखकर कनबतियों में कहा,
‘इसमें
वही मुखबर टिका हुआ था। आज सब चले गए। सुनते हैं,
पंद्रह-बीस दिन में आएंगे, जब फिर
हाईकोर्ट में मुकदमा पेस होगा। पढ़े-लिखे आदमी भी ऐसे दगाबाज होते हैं,
दादा! सरासर झूठी गवाही दी। न जाने इसके बाल-बच्चे हैं या
नहीं, भगवान को भी नहीं डरा!’
जालपा
वहीं खड़ी थी। देवीदीन ने जंगली को और ज़हर उगलने का अवसर न दिया। बोला,
जंगली—‘हां,
वही पहरे वाले कह रहे थे।’
‘कुछ
मालूम हुआ,
कहां गए हैं?’
‘वही मौका
देखने गए हैं जहां वारदात हुई थी।’
देवीदीन
चिलम पीने लगा और जालपा सड़क पर आकर टहलने लगी। रमा की यह निंदा सुनकर उसका
ह्रदय टुकड़े-टुकड़े हुआ जाता था। उसे रमा पर क्रोध न आया,
ग्लानि न आई, उसे हाथों का सहारा
देकर इस दलदल से निकालने के लिए उसका मन विकल हो उठा। रमा चाहे उसे दुत्कार
ही क्यों न दे, उसे ठुकरा ही क्यों न दे,
वह उसे अपयश के अंधेरे खडड में न फिरने
देगी। जब
दोनों यहां से चले तो जालपा ने पूछा,
‘इस
आदमी से कह दिया न कि जब वह आ जायं तो हमें ख़बर दे दे?’
‘हां,
कह दिया।’
सैंतीस
एक महीना
गुज़र गया। गोपीनाथ पहले तो कई दिन कलकत्ता की सैर करता रहा,
मगर चार-पांच दिन में ही यहां से उसका जी ऐसा उचाट हुआ कि घर की रट लगानी
शुरू की। आख़िर जालपा ने उसे लौटा देना ही अच्छा समझा,
यहां तो वह छिप-छिप कर रोया करता था।
जालपा कई
बार रमा के बंगले तक हो आई। वह जानती थी कि अभी रमा नहीं आए हैं। फिर भी
वहां का एक चक्कर लगा आने में उसको एक विचित्र संतोष होता था। जालपा कुछ
पढ़ते-पढ़ते या लेटे-लेटे थक जाती,
तो एक क्षण के लिए खिड़की के सामने आ खड़ी होती थी। एक दिन
शाम को वह खिड़की के सामने आई, तो सड़क पर मोटरों की
एक कतार नज़र आई। कौतूहल हुआ, इतनी मोटरें कहां जा
रही हैं! ग़ौर से देखने लगी। छः मोटरें थीं। उनमें पुलिस के अफसर बैठे हुए
थे। एक में सब सिपाही थे। आख़िरी मोटर पर जब उसकी निगाह पड़ी
तो,
मानो उसके सारे शरीर में बिजली की लहर दौड़ गई। वह ऐसी
तन्मय हुई कि खिड़की से जीने तक दौड़ी आई, मानो मोटर
को रोक लेना चाहती हो, पर इसी एक पल में उसे मालूम
हो गया कि मेरे नीचे उतरते-उतरते मोटरें निकल जाएंगी। वह फिर खिड़की के
सामने आयी, रमा अब बिलकुल सामने आ गया था। उसकी
आंखें खिड़की की ओर लगी हुई थीं। जालपा ने इशारे से कुछ कहना चाहा,
पर संकोच ने रोक दिया। ऐसा मालूम हुआ कि रमा की मोटर कुछ
धीमी
हो गई है।
देवीदीन की आवाज़ भी सुनाई दी,
मगर मोटर रूकी नहीं। एक ही क्षण में वह आगे बढ़गई,
पर रमा अब भी रह-रहकर खिड़की की ओर ताकता जाता था।
जालपा ने
जीने पर आकर कहा,
‘दादा!’
देवीदीन
ने सामने आकर कहा,
‘भैया
आ गए! वह क्या मोटर जा रही है!’
यह कहता
हुआ वह ऊपर आ गया। जालपा ने उत्सुकता को संकोच से
दबाते हुए कहा,
‘तुमसे
कुछ कहा?’
देवीदीन—‘और
क्या कहते, खाली राम-राम की। मैंने कुसल पूछी। हाथ
से दिलासा देते चले गए। तुमने देखा कि नहीं?’
जालपा ने
सिर झुकाकर कहा,देखा
क्यों नहीं?
खिड़की पर ज़रा खड़ी थी।ट
‘उन्होंने भी तुम्हें देखा होगा?’
‘खिड़की की
ओर ताकते तो थे। ‘
‘बहुत
चकराए होंगे कि यह कौन है!’
‘कुछ
मालूम हुआ मुकदमा कब पेश होगा?’
‘कल ही
तो।’
‘कल ही!
इतनी जल्द, तब तो जो कुछ करना है आज ही करना होगा। किसी तरह मेरा ख़त उन्हें
मिल जाता,
तो काम बन जाता।’
देवीदीन
ने इस तरह ताका मानो कह रहा है,
तुम इस काम को जितना आसान समझती हो उतना आसान नहीं है।
देवीदीन
को अब इसे स्वीकार करने के सिवा और कोई उपाय न सूझा,
बोला,हां,
बहूजी, मुझे इसका बहुत अंदेसा है।
और सच पूछो तो है भी जोखिम, अगर वह बयान बदल भी दें,
तो पुलिस के पंजे से नहीं छूट सकते। वह कोई दूसरा इलज़ाम
लगा कर उन्हें पकड़ लेगी और फिर नया मुकदमा चलावेगी।’
जालपा ने
ऐसी नज़रों से देखा,
मानो वह इस बात से ज़रा भी नहीं डरती। फिर बोली,
‘दादा,
मैं उन्हें पुलिस के पंजे से बचाने का ठेका नहीं लेती। मैं
केवल यह चाहती हूं कि हो सके तो अपयश से उन्हें बचा लूं। उनके हाथों इतने
घरों की बरबादी होते नहीं देख सकती। अगर वह सचमुच डकैतियों में शरीक होते,
तब भी मैं यही चाहती कि वह अंत तक अपने साथियों के साथ
रहें और जो सिर पर पड़े उसे ख़ुशी से झेलें। मैं यह कभी न पसंद करती कि वह
दूसरों को दग़ा देकर मुख़बिर बन जायं, लेकिन यह मामला
तो बिलकुल झूठ है। मैं यह किसी तरह नहीं बरदाश्त कर सकती कि वह अपने
स्वार्थ के लिए झूठी गवाही दें। अगर उन्होंने ख़ुद अपना बयान न बदला,
तो मैं अदालत में जाकर सारा कच्चा चित्ता खोल दूंगी,
चाहे नतीजा कुछ भी हो वह हमेशा के लिए मुझे त्याग दें,
मेरी सूरत न देखें, यह मंजूर है,
पर यह नहीं हो सकता कि वह इतना बडा कलंक माथे पर लगावें।
मैंने अपने पत्र में सब लिख दिया है। देवीदीन ने उसे आदर की दृष्टि से
देखकर कहा,
‘तुम
सब कर लोगी बहू,
अब मुझे विश्वास हो गया। जब तुमने कलेजा इतना मजबूत कर
लिया है, तो तुम सब कुछ कर सकती हो।’
‘तो यहां
से नौ बजे चलें?’
‘हां,
मैं तैयार हूं।’
अड़तीस
वह रमानाथ—,जो
पुलिस के भय से बाहर न निकलता था, जो देवीदीन के घर
में चोरों की तरह पडा जिंदगी के दिन पूरे कर रहा था,
आज दो महीनों से राजसी भोग-विलास में डूबा हुआ है। रहने को
सुंदर सजा हुआ बंगला है, सेवा-टहल के लिए चौकीदारों
का एक दल, सवारी के लिए मोटरब भोजन पकाने के लिए एक
काश्मीरी बावरची है। बड़े-बडे अफसर उसका मुंह ताकष करते हैं। उसके मुंह से
बात निकली नहीं कि पूरी हुई! इतने ही दिनों में उसके मिज़ाज में इतनी
नफासत आ
गई है,
मानो वह ख़ानदानी रईस हो विलास ने उसकी विवेक- बुद्धिको
सम्मोहित-सा कर दिया है। उसे कभी इसका ख़याल भी नहीं आता कि मैं क्या कर रहा
हूं और मेरे हाथों कितने बेगुनाहों का ख़ून हो रहा है। उसे एकांत-विचार का
अवसर ही नहीं दिया जाता। रात को वह अधिकारियों के साथ सिनेमा या थिएटर
देखने जाता है, शाम को मोटरों की सैर होती है।
मनोरंजन के नित्य नए सामान होते रहते हैं। जिस दिन अभियुक्तों को
मैजिस्ट्रेट ने सेशन
सुपुर्द
किया,
सबसे ज्यादा ख़ुशी उसी को हुई। उसे अपना सौभाग्य-सूर्य उदय
होता हुआ मालूम होता था।
पुलिस को
मालूम था कि सेशन जज के इजलास में यह बहार न होगी। संयोग से जज
हिन्दुस्तानी थे और निष्पक्षता के लिए बदनाम, पुलिस हो या चोर,
उनकी निगाह में बराबर था। वह किसी के साथ रिआयत न करते थे। इसलिए पुलिस ने
रमा को एक बार उन स्थानों की सैर कराना ज़रूरी समझा,
जहां वारदातें हुई थीं। एक ज़मींदार की सजी-सजाई कोठी में डेरा पड़ा। दिन?भर
लोग शिकार खेलते, रात को ग्रामोफोन सुनते,
ताश खेलते और बज़रों पर नदियों की सैर करते। ऐसा जान पड़ता
था कि कोई राजकुमार शिकार खेलने निकला है। इस भोग-विलास में रमा को अगर कोई
अभिलाषा थी, तो यह कि जालपा भी यहां होती। जब तक वह
पराश्रित था, दरिद्र था,
उसकी विलासेंद्रियां मानो मूच्र्छित हो रही थीं। इन शीतल झोंकों ने उन्हें
फिर सचेत कर दिया। वह इस कल्पना में मग्न था कि यह मुकदमा ख़त्म होते ही उसे
अच्छी जगह मिल जायगी। तब वह जाकर जालपा को मना लावेगा और आनंद से जीवनसुख
भोगेगा।
हां,
वह नए प्रकार का जीवन होगा, उसकी
मर्यादा कुछ और होगी, सिद्धान्त कुछ और होंगे।
उसमें कठोर संयम होगा और पक्का नियांण! अब उसके जीवन का कुछ उद्देश्य होगा,
कुछ आदर्श होगा। केवल खाना, सोना
और रूपये के लिए हाय-हाय करना ही जीवन का व्यापार न होगा। इसी मुकदमे के
साथ इस मार्गहीन जीवन का अंत हो जायगा। दुर्बल इच्छा ने उसे यह दिन दिखाया
था और अब एक नए और संस्कृत जीवन का स्वप्न दिखा रही थी। शराबियों की तरह
ऐसे मनुष्य रोज़ ही संकल्प करते हैं, लेकिन उन
संकल्पों का अंत क्या होता है? नए-नए प्रलोभन सामने
आते रहते हैं और संकल्प की अवधि भी बढ़ती चली जाती है। नए प्रभात का उदय कभी
नहीं होता।
एक महीना
देहात की सैर के बाद रमा पुलिस के सहयोगियों के साथ अपने बंगले पर जा रहा
था। रास्ता देवीदीन के घर के सामने से था,
कुछ दूर ही से उसे अपना कमरा दिखाई दिया। अनायास ही उसकी
निगाह ऊपर उठ गई। खिड़की के सामने कोई खडाथा। इस वक्त देवीदीन वहां क्या कर
रहा है? उसने ज़रा ध्यान से देखा। यह तो कोई औरत है!
मगर औरत कहां से आई-
क्या
देवीदीन ने वह कमरा किराए पर तो नहीं उठा दिया, ऐसा तो उसने कभी नहीं किया।
मोटर ज़रा
और समीप आई तो उस औरत का चेहरा साफ नज़र आने लगा। रमा चौंक पड़ा। यह तो जालपा
है! बेशक जालपा है! मगर नहीं,
जालपा यहां कैसे आयगी? मेरा
पता-ठिकाना उसे कहां मालूम! कहीं बुडढे ने उसे ख़त तो नहीं लिख दिया?
जालपा ही है। नायब दारोग़ा मोटर चला रहा था। रमा ने बडी
मित्रता के साथ कहा,सरदार
साहब,
एक मिनट के लिए रूक जाइए। मैं ज़रा देवीदीन से एक बात कर
लूं। नायब ने मोटर ज़रा धीमी कर दी, लेकिन फिर कुछ
सोचकर उसे आगे बढ़ा दिया।
रमा ने
तेज़ होकर कहा,
‘आप
तो मुझे कैदी बनाए हुए हैं।’
नायब ने
खिसियाकर कहा,
‘आप
तो जानते हैं,
डिप्टी साहब कितनी जल्द जामे से बाहर हो जाते हैं।’
बंगले पर
पहुंचकर रमा सोचने लगा,
जालपा से कैसे मिलूं। वहां जालपा ही थी,
इसमें अब उसे कोई शुबहा न था। आंखों को कैसे धोखा देता।
ह्रदय में एक ज्वाला-सी उठी हुई थी, क्या करूं?
कैसे जाऊं?’ उसे कपड़े उतारने की सुधि भी न रही।
पंद्रह मिनट तक वह कमरे के द्वार पर खडारहा। कोई हिकमत न सूझी। लाचार पलंग
पर लेटा रहा। ज़रा ही देर में वह फिर उठा और सामने सहन में निकल आया। सडक पर
उसी वक्त बिजली रोशन हो गई। फाटक पर चौकीदार खडा था। रमा को उस पर इस समय
इतना क्रोध आया, कि गोली मार दे। अगर मुझे कोई
अच्छी जगह मिल गई, तो एक-एक से समझूंगा। तुम्हें
तो डिसमिस कराके छोड़ूंगा। कैसा शैतान की तरह सिर पर सवार है। मुंह तो देखो
ज़राब मालूम होता है ।करी की दुम है। वाह रे आपकी पगड़ी,
कोई टोकरी ढोने वाला कुली है। अभी कुत्ता भूंक पड़े,
तो आप दुम दबाकर भागेंगे, मगर यहां ऐसे डटे खड़े हैं
मानो किसी किले के द्वार की रक्षा कर रहे हैं।
एक
चौकीदार ने आकर कहा,
‘इसपिक्टर
साहब ने बुलाया है। कुछ नए तवे मंगवाए हैं।
रमा ने
झल्लाकर कहा,
‘मुझे
इस वक्त फुरसत नहीं है।’
फिर सोचने
लगा। जालपा यहां कैसे आई, अकेले ही आई है या और कोई साथ है?
जालिम ने बुडढे से एक मिनट भी बात नहीं करने दिया। जालपा पूछेगी तो जरूर,
कि क्यों भागे थे। साफ-साफ कह दूंगा,
उस समय और कर ही क्या सकता था। पर इन थोड़े दिनों के कष्ट
ने जीवन का प्रश्न तो हल कर दिया। अब आनंद से जिंदगी कटेगी। कोशिश करके उसी
तरफ अपना तबादला करवा लूंगा। यह सोचते-सोचते रमा को ख़याल आया कि जालपा भी
यहां मेरे साथ रहे, तो क्या हरज है। बाहर वालों से
मिलने की रोक-टोक है। जालपा के लिए क्या रूकावट हो सकती है। लेकिन इस वक्त
इस प्रश्न को छेड़ना उचित नहीं। कल इसे तय करूंगा। देवीदीन भी विचित्र जीव
है। पहले तो कई बार आया, पर आज उसने भी सन्नाटा खींच लिया। कम-से-कम इतना
तो हो सकता था कि आकर पहरे वाले कांस्टेबल से जालपा के आने की ख़बर मुझे
देता। फिर मैं देखता कि कौन जालपा को नहीं आने देता। पहले इस तरह की कैद
ज़रूरी थी, पर अब तो मेरी परीक्षा पूरी हो चुकी।
शायद सब लोग ख़ुशी से राजी हो जाएंगे।
रसोइया
थाली लाया। मांस एक ही तरह का था। रमा थाली देखते ही झल्ला गया। इन दिनों
रूचिकर भोजन देखकर ही उसे भूख लगती थी। जब तक चार-पांच प्रकार का मांस न हो,
चटनी-अचार न हो, उसकी तृप्ति न
होती थी। बिगड़कर बोला,
‘क्या
खाऊं तुम्हारा सिर- थाली उठा ले जाओ।‘
रसोइए ने
डरते-डरते कहा,’हुजूर,
इतनी जल्द और चीजें कैसे बनाता! अभी कुल दो घंटे तो आए हुए
हैं।’
‘दो घंटे
तुम्हारे लिए थोड़े होते हैं!’
‘अब हुजूर
से क्या कहूं!’
‘मत बको।’
‘हुजूर’
‘मत बको -
डैम!’
रसोइए ने
फिर कुछ न कहा। बोतल लाया,
बर्फ तोड़कर ग्लास में डाली और पीछे हटकर खडाहो गया। रमा को
इतना क्रोध आ रहा था कि रसोइए को नोच खाए। उसका मिज़ाज इन दिनों बहुत तेज़ हो
गया था। शराब का दौर शुरू हुआ, तो रमा का गुस्सा और
भी तेज़ हो गया। लाल – लाल आंखों से देखकर बोला,
‘चाहूं
तो अभी तुम्हारा कान पकड़कर निकाल दूं। अभी,
इसी दम! तुमने समझा क्या है!’
उसका
क्रोध बढ़ता देखकर रसोइया चुपके-से सरक गया। रमा ने ग्लास लिया और दो-चार
लुकमे खाकर बाहर सहन में टहलने लगा। यही धुन सवार थी,
कैसे यहां से निकल जाऊं। एकाएक उसे ऐसा जान पडाकि तार के
बाहर वृक्षों की आड़ में कोई है। हां, कोई खडा उसकी
तरफ ताक रहा है। शायद इशारे से अपनी तरफ बुला रहा है। रमानाथ का दिल धड़कने
लगा। कहीं षडयंत्रकारियों ने उसके प्राण लेने की तो नहीं ठानी है! यह शंका
उसे सदैव बनी रहती थी। इसी ख़याल से वह
रात को
बंगले के बाहर बहुत कम निकलता था। आत्म-रक्षा के भाव ने उसे अंदर चले जाने
की प्रेरणा की। उसी वक्त एक मोटर सड़क पर निकली। उसके प्रकाश में रमा ने
देखा,
वह अंधेरी छाया स्त्री है। उसकी साड़ी साफ नज़र आ रही है।
फिर उसे ऐसा मालूम हुआ कि वह स्त्री उसकी ओर आ रही है। उसे फिर शंका हुई,
कोई मर्द यह वेश बदलकर मेरे साथ छल तो नहीं कर रहा है। वह
ज्यों-ज्यों पीछे हटता गया, वह छाया उसकी ओर बढ़ती
गई, यहां तक कि तार के पास आकर उसने कोई चीज़ रमा की
तरफ गेंकी। रमा चीख मारकर पीछे हट गया, मगर वह केवल एक लिफाफा था। उसे कुछ
तस्कीन हुई। उसने फिर जो सामने देखा, तो वह छाया
अंधकारमें विलीन हो गई थी। रमा ने लपककर वह लिफाफा उठा लिया। भय भी था और
कौतूहल भी। भय कम था, कौतूहल अधिक। लिफाफे को हाथ
में लेकर देखने लगा। सिरनामा देखते ही उसके ह्रदय
में
फुरहरियां-सी उड़ने लगीं। लिखावट जालपा की थी। उसने फौरन लिफाफा खोला। जालपा
ही की लिखावट थी। उसने एक ही सांस में पत्र पढ़ डाला और तब एक लंबी सांस ली।
उसी सांस के साथ चिंता का वह भीषण भार जिसने आज छः महीने से उसकी आत्मा को
दबाकर रक्खा था,
वह सारी मनोव्यथा जो उसका जीवनरक्त चूस रही थी,
वह सारी दुर्बलता, लज्जा,
ग्लानि मानो
उड़ गई,
छू मंतर हो गई। इतनी स्फूर्ति,
इतना गर्व, इतना आत्म-विश्वास उसे कभी न हुआ था।
पहली सनक यह सवार हुई, अभी चलकर दारोग़ा से कह दूं,
मुझे इस मुकदमे से कोई सरोकार नहीं है,
लेकिन फिर ख़याल आया, बयान तो अब हो
ही चुका, जितना अपयश मिलना था,
मिल ही चुका, अब उसके फल से क्यों
हाथ धोऊं। मगर इन सबों ने मुझे कैसा चकमा दिया है! और अभी तक मुगालते में
डाले हुए हैं। सब-के-सब मेरी दोस्ती का दम भरते हैं,
मगर अभी तक असली बात मुझसे छिपाए हुए हैं। अब भी इन्हें
मुझ पर विश्वास नहीं। अभी इसी बात पर अपना बयान बदल दूं,
तो आटे-दाल का भाव मालूम हो यही न होगा,
मुझे कोई जगह न मिलेगी। बला से, इन
लोगों के मनसूबे तो ख़ाक में मिल जाएंगे। इस दग़ाबाज़ी की सज़ा तो मिल जायगी।
और, यह कुछ न सही, इतनी बडी
बदनामी से तो बच जाऊंगा। यह सब शरारत जरूर
करेंगे,
लेकिन झूठा इलज़ाम लगाने के सिवा और कर ही क्या सकते हैं।
जब मेरा यहां रहना साबित ही नहीं तो मुझ पर दोष ही क्या लग सकता है। सबों
के मुंह में कालिख लग जायगी। मुंह तो दिखाया न जाएगा,
मुकदमा क्या चलाएंगे।
मगर नहीं,
इन्होंने मुझसे चाल चली है, तो मैं
भी इनसे वही चाल चलूंगा। कह दूंगा, अगर मुझे आज कोई
अच्छी जगह मिल जाएगी, तो मैं शहादत दूंगा,
वरना साफ कह दूंगा, इस मामले से मेरा कोई संबंध
नहीं। नहीं तो पीछे से किसी छोटे-मोटे थाने में नायब दारोग़ा बनाकर भेज दें
और वहां सडा करूं। लूंगा इंस्पेक्टरी और कल दस बजे मेरे पास नियुक्ति का
परवाना आ जाना चाहिए।
पार कैसे
जाऊं?’
शायद अभी जालपा बग़ीचे में हो देवीदीन जरूर उसके साथ होगा। केवल यही तार
उसकी राह रोके हुए था। उसे गांद जाना असंभव था। उसने तारों के बीच से होकर
निकल जाने का निश्चय किया। अपने सब कपड़े समेट लिए और कांटों को बचाता हुआ
सिर और कंधो को तार के बीच में डाला, पर न जाने
कैसे कपड़े फंस गए। उसने हाथ से कपड़ों को छुडाना चाहा,
तो आस्तीन कांटों में फंस गई। धोती भी उलझी हुई थी। बेचारा
बडे संकट में पड़ा। न इस पार जा सकता था, न उस पारब
ज़रा भी असावधानी हुई और कांटे उसकी देह में चुभ जाएंगे।
मगर इस
वक्त उसे कपड़ों की परवा न थी। उसने गर्दन और आगे बढ़ाई और कपड़ों में लंबा
चीरा लगाता उस पार निकल गया। सारे कपड़े तार-तार हो गए। पीठ में भी कुछ
खरोंचे लगेऋ पर इस समय कोई बंदूक का निशाना बांधकर भी उसके सामने खडा हो
जाता,
तो भी वह पीछे न हटता। फटे हुए कुरते को उसने वहीं फेंक
दिया, गले की चादर फट जाने पर भी काम दे सकती थी,
उसे उसने ओढ़लिया, धोती समेट ली और
बग़ीचे में घूमने लगा। सन्नाटा था। शायद रखवाला खटिक खाना खाने गया हुआ था।
उसने दो-तीन बार धीरेधीरे जालपा का नाम लेकर पुकारा भी। किसी की आहट न
मिली, पर निराशा होने पर भी मोह ने उसका गला न छोडा। उसने एक पेड़ के नीचे
जाकर देखा। समझ गया, जालपा चली गई। वह उन्हीं पैरों
देवीदीन के घर की ओर चला।
उसे ज़रा
भी शोक न था। बला से किसी को मालूम हो जाय कि मैं बंगले से निकल आया हूं,
पुलिस मेरा कर ही क्या सकती है। मैं कैदी नहीं हूं,
गुलामी नहीं लिखाई है।
आधी रात
हो गई थी। देवीदीन भी आधा घंटा पहले लौटा था और खाना खाने जा रहा था कि एक
नंगे-धड़ंगे आदमी को देखकर चौंक पड़ा। रमा ने चादर सिर पर बांधा ली थी और
देवीदीन को डराना चाहता था। देवीदीन ने सशंक होकर कहा,
‘कौन है? ‘
सहसा
पहचान गया और झपटकर उसका हाथ पकड़ता हुआ बोला,
‘तुमने
तो भैया खूब भेस बनाया है? कपड़े क्या हुए? ‘
रमानाथ—‘तार
से निकल रहा था। सब उसके कांटों में उलझकर फट गए।‘
देवीदीन—‘राम
राम! देह में तो कांटे नहीं चुभे? ‘
रमानाथ—‘कुछ
नहीं, दो-एक खरोंचे लग गए। मैं बहुत बचाकर निकला।‘
देवीदीन—‘बहू
की चिट्ठी मिल गई न? ‘
रमानाथ—‘हां,
उसी वक्त मिल गई थी। क्या वह भी तुम्हारे साथ थी? ‘
देवीदीन—‘वह
मेरे साथ नहीं थीं, मैं उनके साथ था। जब से तुम्हें
मोटर पर आते देखा, तभी से जाने-जाने लगाए हुए थीं।‘
रमानाथ—‘तुमने
कोई ख़त लिखा था? ‘
देवीदीन—‘मैंने
कोई ख़त-पत्तर नहीं लिखा भैया। जब वह आई तो मुझे आप ही अचंभा हुआ कि बिना
जाने-बूझे कैसे आ गई। पीछे से उन्होंने बताया। वह सतरंज वाला नकसा उन्हीं
ने पराग से भेजा था और इनाम भी वहीं से आया था।‘
रमा की
आंखें फैल गई। जालपा की चतुराई ने उसे विस्मय में डाल दिया। इसके साथ ही
पराजय के भाव ने उसे कुछ खिकै कर दिया। यहां भी उसकी हार हुई! इस बुरी तरह!
बुढिया
ऊपर गई हुई थी। देवीदीन ने जीने के पास जाकर कहा,
‘अरे क्या करती है? बहू से कह दे।
एक आदमी उनसे मिलने आया है।‘
यह कहकर
देवीदीन ने फिर रमा का हाथ पकड़ लिया और बोला,
‘चलो,अब
सरकार में तुम्हारी पेसी होगी। बहुत भागे थे। बिना वारंट के पकड़े गए। इतनी
आसानी से पुलिस भी न पकड़ सकती! ‘
रमा का
मनोल्लास क्रवित हो गया था। लज्जा से गडा जाता था। जालपा के प्रश्नों का
उसके पास क्या जवाब था। जिस भय से वह भागा था,
उसने अंत में उसका पीछा करके उसे परास्त ही कर दिया। वह
जालपा के सामने सीधी आंखें भी तो न कर सकता था। उसने हाथ छुडा लिया और जीने
के पास ठिठक गया। देवीदीन ने पूछा,
‘क्यों
रूक गए? ‘
रमा ने
सिर खुजलाते हुए कहा,
‘चलो,
मैं आता हूं।‘
बुढिया ने
ऊपर ही से कहा,
‘पूछो,
कौन आदमी है, कहां से आया है?
‘
देवीदीन
ने विनोद किया,
‘कहता
है, मैं जो कुछ कहूंगा, बहू
से ही कहूंगा।‘
‘कोई
चिट्ठी लाया है?’
‘नहीं!’’
सन्नाटा
हो गया। देवीदीन ने एक क्षण के बाद पूछा,
‘कह
दूं, लौट जाय? ‘
जालपा
जीने पर आकर बोली,
‘कौन
आदमी है, पूछती तो हूं!‘
‘कहता है,
बडी दूर से आया हूं!’
‘है कहां?’
‘यह
क्या खडाहै!’
‘अच्छा,
बुला लो!’
रमा चादर
ओढ़े,
कुछ झिझकता, कुछ झेंपता,
कुछ डरता, जीने पर चढ़ा। जालपा ने
उसे देखते ही पहचान लिया। तुरंत दो कदम पीछे हट गई। देवीदीन वहां न होता तो
वह दो कदम और आगे बढ़ी होती। उसकी आंखों में कभी इतना नशा न था,
अंगों में कभी इतनी चपलता
न थी,
कपोल कभी इतने न दमके थे, ह्रदय
में कभी इतना मृदु कंपन न हुआ था। आज उसकी तपस्या सफल हुई!
उनतालीस
वियोगियों
के मिलन की रात बटोहियों के पडाव की रात है,
जो बातों में कट जाती है। रमा और जालपा,दोनों ही को अपनी
छः महीने की कथा कहनी थी। रमा ने अपना गौरव बढ़ाने के लिए अपने कष्टों को
ख़ूब बढ़ा-चढ़ाकर बयान किया। जालपा ने अपनी कथा में कष्टों की चर्चा तक न आने
दी। वह डरती थी इन्हें दुःख होगा, लेकिन रमा को उसे रूलाने में विशेष आनंद
आ रहा था। वह क्यों भागा, किसलिए भागा,
कैसे भागा, यह सारी गाथा उसने करूण
शब्दों में कही और जालपा ने सिसक-सिसककर सुनीब वह अपनी बातों से उसे
प्रभावित करना चाहता था। अब तक सभी बातों में उसे परास्त होना पडाथा। जो
बात उसे असूझ मालूम हुई, उसे जालपा ने चुटकियों में
पूरा कर दिखाया। शतरंज वाली बात को वह ख़ूब नमक-मिर्च लगाकर बयान कर सकता था,
लेकिन
वहां भी जालपा ही ने नीचा दिखाया। फिर उसकी कीर्ति-लालसा को इसके सिवा और
क्या उपाय था कि अपने कष्टों की राई को पर्वत बनाकर दिखाए।
जालपा ने
सिसककर कहा,
‘तुमने यह सारी आफतें झेंली,
पर हमें एक पत्र तक न लिखा। क्यों लिखते,
हमसे नाता ही क्या था! मुंह देखे की प्रीति थी! आंख ओट
पहाड़ ओट।‘
रमा ने
हसरत से कहा,
‘यह बात नहीं थी जालपा, दिल पर जो कुछ गुज़रती थी दिल ही जानता है,
लेकिन लिखने का मुंह भी तो हो जब मुंह छिपाकर घर से भागा,
तो अपनी विपत्ति-कथा क्या लिखने बैठता! मैंने तो सोच लिया
था, जब तक ख़ूब रूपये न कमा लूंगा,
एक शब्द भी न लिखूंगा। ‘
जालपा ने
आंसू-भरी आंखों में व्यंग्य भरकर कहा,
‘ठीक ही था,
रूपये आदमी से ज्यादा प्यारे होते ही हैं! हम तो रूपये के
यार हैं, तुम चाहे चोरी करो,
डाका मारो, जाली नोट बनाओ,
झूठी गवाही दो या भीख मांगो, किसी उपाय से रूपये
लाओ। तुमने हमारे स्वभाव को कितना ठीक समझा है, कि
वाह! गोसाई जी भी तो कह गए हैं,स्वारथ
लाइ करहिं सब प्रीति।‘
रमा ने
झेंपते हुए कहा,
‘नहीं-नहीं प्रिये,
यह बात न थी। मैं यही सोचता था कि इन फटे-हालों जाऊंगा
कैसे। सच कहता हूं, मुझे सबसे ज्यादा डर तुम्हीं से
लगता था। सोचता था, तुम मुझे कितना कपटी,
झूठा, कायर समझ रही होगी। शायद
मेरे मन में यह भाव था कि रूपये की थैली देखकर तुम्हारा ह्रदय कुछ तो नर्म
होगा।‘
जालपा ने
व्यथित कंठ से कहा,
‘मैं शायद उस थैली को हाथ से छूती भी नहीं। आज मालूम हो गया,
तुम मुझे कितनी नीच, कितनी
स्वार्थिनी, कितनी लोभिन समझते हो! इसमें तुम्हारा
कोई दोष नहीं, सरासर मेरा दोष है। अगर मैं भली होती,
तो आज यह दिन ही क्यों आता। जो पुरूष तीस-चालीस रूपये का
नौकर हो, उसकी स्त्री अगर दो-चार रूपये रोज़ ख़र्च
करे, हज़ार-दो हज़ार के गहने पहनने की नीयत रक्खे,
तो वह अपनी और उसकी तबाही का सामान कर रही है। अगर तुमने
मुझे इतना धनलोलुप समझा, तो कोई अन्याय नहीं किया।
मगर एक बार जिस आग में जल चुकी, उसमें फिर न
यदूंगी। इन महीनों में मैंने उन पापों का कुछ प्रायश्चित्त किया है और शेष
जीवन के अंत समय तक करूंगी। यह मैं नहीं कहती कि भोग-विलास से मेरा जी भर
गया, या गहने-कपड़े से मैं ऊब गई,
या सैर-तमाशे से मुझे घृणा हो गई। यह सब अभिलाषाएं ज्यों
की त्यों हैं। अगर तुम अपने पुरूषार्थ से, अपने
परिश्रम से, अपने सदुद्योग से उन्हें पूरा कर सको
तो क्या कहनाऋ लेकिन नीयत खोटी करके, आत्मा को
कलुषित करके एक लाख भी लाओ, तो मैं उसे ठुकरा
दूंगी। जिस वक्त मुझे मालूम हुआ कि तुम पुलिस के गवाह बन गए हो,
मुझे इतना दुःख हुआ कि मैं उसी वक्त दादा को साथ लेकर
तुम्हारे बंगले तक गई, मगर उसी दिन तुम
बाहर चले
गए थे और आज लौटे हो मैं इतने आदमियों का ख़ून अपनी गर्दन पर नहीं लेना
चाहती। तुम अदालत में साफ-साफ कह दो कि मैंने पुलिस के चकमे में आकर गवाही
दी थी,
मेरा इस मुआमले से कोई संबंध नहीं है। रमा ने चिंतित होकर
कहा,
‘जब से तुम्हारा ख़त मिला,
तभी से मैं इस प्रश्न पर विचार कर रहा हूं,
लेकिन समझ में नहीं आता क्या करूं। एक बात
कहकर मुकर
जाने का साहस मुझमें नहीं है।‘
‘बयान तो
बदलना ही पड़ेगा।’
‘आख़िर
कैसे ?’
‘मुश्किल
क्या है। जब तुम्हें मालूम हो गया कि म्युनिसिपैलिटी तुम्हारे ऊपर कोई
मुकदमा नहीं चला सकती,
तो फिर किस बात का डर?’
‘डर न हो,
झेंप भी तो कोई चीज़ है। जिस मुंह से एक बात कही,
उसी मुंह से मुकर जाऊं, यह तो
मुझसे न होगा। फिर मुझे कोई अच्छी जगह मिल जाएगी। आराम से जिंदगी बसर
होगी। मुझमें गली-गली ठोकर खाने का बूता नहीं है।’
जालपा ने
कोई जवाब न दिया। वह सोच रही थी,
आदमी में स्वार्थ की मात्रा कितनी अधिक होती है। रमा ने
फिर धृष्टता से कहा,
’ और कुछ मेरी ही गवाही पर तो सारा फैसला नहीं हुआ जाता। मैं बदल भी जाऊं,
तो पुलिस कोई दूसरा आदमी खडाकर देगी। अपराधियों की जान तो
किसी तरह नहीं बच सकती। हां, मैं मुफ्त में मारा
जाऊंगा।’
जालपा ने
त्योरी चढ़ाकर कहा,
’ कैसी बेशर्मी की बातें करते हो जी! क्या तुम इतने गए-बीते हो कि अपनी
रोटियों के लिए दूसरों का गला काटो। मैं इसे नहीं सह सकती। मुझे मजदूरी
करना,
भूखों मर जाना मंजूर है,
बडी-से-बडी विपत्ति जो संसार में है, वह सिर पर ले
सकती हूं, लेकिन किसी का बुरा करके स्वर्ग का राज
भी नहीं ले सकती।’
रमा इस
आदर्शवाद से चिढ़कर बोला,
’ तो क्या तुम चाहती कि मैं यहां कुलीगीरी करूं?
’
जालपा—‘नहीं,
मैं यह नहीं चाहतीऋ लेकिन अगर कुलीगीरी भी करनी पड़े तो वह
ख़ून से तर रोटियां खाने से कहीं बढ़कर है।’
रमा ने
शांत भाव से कहा,
’ जालपा, तुम मुझे जितना नीच समझ रही हो,
मैं उतना नीच नहीं हूं। बुरी बात सभी को बुरी लगती है। इसका दुःख मुझे भी
है कि मेरे हाथों इतने आदमियों का ख़ून हो रहा है,
लेकिन परिस्थिति ने मुझे लाचार कर दिया है। मुझमें अब ठोकरें खाने की शक्ति
नहीं है। न मैं पुलिस से रार मोल ले सकता हूं। दुनिया में सभी थोड़े ही
आदर्श पर चलते हैं। मुझे क्यों उस ऊंचाई पर चढ़ाना चाहती हो,
जहां पहुंचने की शक्ति मुझमें नहीं है।’
रमा सिर
झुकाए हुए सुनता रहा।
जालपा ने
और आवेश में आकर कहा,
’ अगर तुम्हें यह पाप की खेती करनी है,
तो मुझे आज ही यहां से विदा कर दो। मैं मुंह में कालिख
लगाकर यहां से चली जाऊंगी और फिर तुम्हें दिक करने न आऊंगी। तुम आनंद से
रहना। मैं अपना पेट मेहनत-मजूरी करके भर लूंगी। अभी प्रायश्चित्त पूरा नहीं
हुआ है, इसीलिए यह दुर्बलता हमारे पीछे पड़ी हुई है।
मैं देख रही हूं, यह हमारा सर्वनाश करके छोड़ेगी।’
रमा के
दिल पर कुछ चोट लगी। सिर खुजलाकर बोला,
’ चाहता तो मैं भी हूं कि किसी तरह इस मुसीबत से जान बचे।’
‘तो बचाते
क्यों नहीं। अगर तुम्हें कहते शर्म आती हो,
तो मैं चलूं। यही अच्छा होगा। मैं भी चली चलूंगी और
तुम्हारे सुपरंडंट साहब से सारा वृत्तांत साफ- साफ कह दूंगी।’
रमा का
सारा पसोपेश गायब हो गया। अपनी इतनी दुर्गति वह न कराना चाहता था कि उसकी
स्त्री जाकर उसकी वकालत करे। बोला,
’ तुम्हारे चलने की जरूरत नहीं है जालपा, मैं उन लोगों को समझा दूंगा। ’
जालपा ने
ज़ोर देकर कहा,
’ साफ बताओ,
अपना बयान बदलोगे या नहीं? ’
रमा ने
मानो कोने में दबकर कहा,कहता
तो हूं,
बदल दूंगा। ’
‘मेरे
कहने से या अपने दिल से?’
‘तुम्हारे
कहने से नहीं,
अपने दिल सेब मुझे ख़ुद ही ऐसी बातों से घृणा है। सिर्फ ज़रा
हिचक थी, वह तुमने निकाल दी।’
फिर और
बातें होने लगीं। कैसे पता चला कि रमा ने रूपये उडा दिए हैं?
रूपये अदा कैसे हो गए? और लोगों को ग़बन की ख़बर हुई
या घर ही में दबकर रह गई?रतन पर क्या गुज़री- गोपी
क्यों इतनी जल्द चला गया? दोनों कुछ पढ़ रहे हैं या
उसी तरह आवारा फिरा करते हैं?आख़िर में अम्मां और
दादा का ज़िक्र आया। फिर जीवन के मनसूबे बांधो जाने लगे। जालपा ने कहा,
‘घर चलकर रतन से थोड़ी-सी ज़मीन ले लें और आनंद से खेती-बारी करें।‘
चालीस
रमा
मुंह-अंधेरे अपने बंगले जा पहुंचा। किसी को कानों-कान ख़बर न हुई। नाश्ता
करके रमा ने ख़त साफ किया,
कपड़े पहने और दारोग़ा के पास जा पहुंचा। त्योरियां चढ़ी हुई
थीं। दारोग़ा ने पूछा,
‘ख़ैरियत तो है,
नौकरों ने कोई शरारत तो नहीं की।‘
रमा ने
खड़े-खड़े कहा,
‘नौकरों ने नहीं,
आपने शरारत की है, आपके मातहतों,
अफसरों और सब ने मिलकर मुझे उल्लू बनाया है।‘
दारोग़ा ने
कुछ घबडाकर पूछा,
आख़िर बात क्या है,
कहिए तो? ‘
रमानाथ—‘बात
यही है कि इस मुआमले में अब कोई शहादत न दूंगा। उससे मेरा ताल्लुक नहीं।
आप ने मेरे साथ चाल चली और वारंट की धमकी देकर मुझे शहादत देने पर मजबूर
किया। अब मुझे मालूम हो गया कि मेरे ऊपर कोई इलज़ाम नहीं। आप लोगों का चकमा
था। पुलिस की तरफ से शहादत नहीं देना चाहता, मैं आज
जज साहब से साफ कह दूंगा। बेगुनाहों का ख़ून अपनी गर्दन पर न लूंगा।
‘
दारोग़ा ने
तेज़ होकर कहा,
‘आपने
खुद गबन तस्लीम किया था।‘
रमानाथ—‘मीजान
की ग़लती थी। ग़बन न था। म्युनिसिपैलिटी ने मुझ पर कोई मुकदमा नहीं चलाया।‘
‘यह
आपको मालूम कैसे हुआ? ‘
‘इससे
आपको कोई बहस नहीं। मै ं शहादत न दूंगा। साफ-साफ कह दूंगा,
पुलिस ने मुझे धोखा देकर शहादत दिलवाई है। जिन तारीख़ों का वह वाकया है,
उन तारीख़ों में मैं इलाहाबाद में था। म्युनिसिपल आफिस में
मेरी हाजिरी मौजूद है।’
दारोग़ा ने
इस आपत्ति को हंसी में उडाने की चेष्टा करके कहा,
‘अच्छा
साहब, पुलिस ने धोखा ही दिया,
लेकिन उसका ख़ातिरख्वाह इनाम देने को भी तो हाज़िर है। कोई
अच्छी जगह मिल जाएगी, मोटर पर बैठे हुए सैर करोगे।
खुगिया पुलिस में कोई जगह मिल गई, तो चैन ही चैन
है। सरकार की नज़रों में इज्जत और रूसूख कितना बढ़गया,
यों मारे-मारे फिरते। शायद किसी दफ्तर में क्लर्की मिल
जाती, वह भी बडी मुश्किल सेब यहां तो बैठे-बिठाए
तरक्की
का दरवाज़ा
खुल गया। अच्छी तरह कारगुज़ारी होगी,
तो एक दिन रायबहादुर
मुंशी
रमानाथ डिप्टी सुपरिंटेंडेंट हो जाओगे। तुम्हें हमारा एहसान मानना चाहिए
और आप
उल्टे ख़फा होते हैं।
‘
रमा पर इस
प्रलोभन का कुछ असर न हुआ। बोला,
‘मुझे
क्लर्क बनना मंजूर है, इस तरह की तरक्की नहीं
चाहता। यह आप ही को मुबारक रहे। इतने में डिप्टी साहब और इंस्पेक्टर भी आ
पहुंचे। रमा को देखकर इंस्पेक्टर साहब ने गरमाया,
‘हमारे
बाबू साहब तो पहले ही से तैयार बैठे हैं। बस इसी की कारगुज़ारी पर
वारा-न्यारा है। ‘
रमा ने इस
भाव से कहा,
‘मानो मैं भी अपना नफा-नुकसान समझता हूं,जी।
हां,
आज वारा-न्यारा कर दूंगा। इतने दिनों तक आप लोगों के
इशारे पर चला, अब अपनी आंखों से देखकर चलूंगा।
‘
इंस्पेक्टर ने दारोग़ा का मुंह देखा,
दारोग़ा ने डिप्टी का मुंह देखा,
डिप्टी ने इंस्पेक्टर का मुंह देखा। यह कहता क्या है?
इंस्पेक्टर साहब विस्मित होकर बोले,
‘क्या
बात है? हलफ से कहता हूं,
आप कुछ नाराज मालूम होते हैं! ‘
रमानाथ—‘मैंने
फैसला किया है कि आज अपना बयान बदल दूंगा। बेगुनाहों का ख़ून नहीं कर सकता
।‘
इंस्पेक्टर ने दया-भाव से उसकी तरफ देखकर कहा,
‘आप
बेगुनाहों का ख़ून नहीं कर रहे हैं, अपनी तकष्दीर की
इमारत खड़ी कर रहे हैं। हलफ से कहता हूं, ऐसे मौके
बहुत कम आदमियों को मिलते हैं। आज क्या बात हुई कि आप इतने खफा हो गए?
आपको कुछ मालूम है, दारोग़ा साहब, आदमियों ने तो कोई
शोखी नहीं की- अगर किसी ने आपके मिज़ाज़ के ख़िलाफ कोई काम किया हो,
तो उसे गोली मार दीजिए, हलफ से
कहता हूं!
दारोग़ा
–‘मैं
अभी जाकर पता लगाता हूं। ‘
रमानाथ—‘आप
तकलीफ न करें। मुझे किसी से शिकायत नहीं है। मैं थोड़े से फायदे के लिए अपने
ईमान का ख़ून नहीं कर सकता। ‘
एक मिनट
सन्नाटा रहा। किसी को कोई बात न सूझी। दारोग़ा कोई दूसरा चकमा सोच रहे थे,
इंस्पेक्टर कोई दूसरा प्रलोभन। डिप्टी एक दूसरी ही फिक्र
में था। रूखेपन से बोला,
‘रमा
बाबू, यह अच्छा बात न होगा। ‘
रमा ने भी
गर्म होकर कहा,
‘आपके
लिए न होगी। मेरे लिए तो सबसे अच्छी यही बात है। ‘
डिप्टी,
‘नहीं, आपका वास्ते इससे बुरा
दोसरा बात नहीं है। हम तुमको छोड़ेगा नहीं, हमारा
मुकदमा चाहे बिगड़ जाय, लेकिन हम तुमको ऐसा लेसन दे
देगा कि तुम उमिर भर न भूलेगा। आपको वही गवाही देना होगा जो आप दिया। अगर
तुम कुछ गड़बड़ करेगा, कुछ भी गोलमाल किया तो हम
तोमारे साथ दोसरा बर्ताव करेगा। एक रिपोर्ट में तुम यों (कलाइयों को
ऊपर-नीचे
रखकर) चला
जायगा। ‘
यह कहते
हुए उसने आंखें निकालकर रमा को देखा,
मानो कच्चा ही खा जाएगा। रमा सहम उठा। इन आतंक से भरे
शब्दों ने उसे विचलित कर दिया। यह सब कोई झूठा मुकदमा चलाकर उसे फंसा दें,
तो उसकी कौन रक्षा करेगा। उसे यह आशा न थी कि डिप्टी साहब
जो शील और विनय के पुतले बने हुए थे, एकबारगी यह
रूद्र रूप धारणा कर लेंगे, मगर वह इतनी आसानी से
दबने वाला न था। तेज़ होकर बोला,
‘आप
मुझसे ज़बरदस्ती शहादत दिलाएंगे
?’
डिप्टी ने
पैर पटकते हुए कहा,
‘हां,
ज़बरदस्ती दिलाएगा!’
रमानाथ—‘यह
अच्छी दिल्लगी है!’
डिप्टी—‘तोम
पुलिस को धोखा देना दिल्लगी समझता है। अभी दो गवाह देकर साबित कर सकता है
कि तुम राजक्रोह की बात कर रहा था। बस चला जायगा सात साल के लिए। चक्की
पीसते-पीसते हाथ में घड्डा पड़ जायगा। यह चिकना-चिकना गाल नहीं रहेगा।
‘
रमा जेल
से डरता था। जेल-जीवन की कल्पना ही से उसके रोएं खड़े होते थे। जेल ही के
भय से उसने यह गवाही देनी स्वीकार की थी। वही भय इस वक्त भी उसे कातर करने
लगा। डिप्टी भाव-विज्ञान का ज्ञाता था। आसन का पता पा गया। बोला,
‘वहां हलवा पूरी नहीं पायगा। धूल मिला हुआ आटा का रोटी,
गोभी के सड़े हुए पत्तों का रसा, और
अरहर के दाल का पानी खाने
को
पावेगा। काल-कोठरी का चार महीना भी हो गया,
तो तुम बच नहीं सकता वहीं मर जायगा। बात-बात पर वार्डर
गाली देगा, जूतों से पीटेगा,
तुम समझता क्या है! ‘
रमा का
चेहरा फीका पड़ने लगा। मालूम होता था,
प्रतिक्षण उसका ख़ून सूखता चला जाता है। अपनी दुर्बलता पर
उसे इतनी ग्लानि हुई कि वह रो पड़ा। कांपती हुई आवाज़ से बोला,
‘आप
लोगों की यह इच्छा है, तो यही सही! भेज दीजिए जेल।
मर ही जाऊंगा न, फिर तो आप लोगों से मेरा गला छूट
जायगा। जब आप यहां तक मुझे तबाह करने पर आमादा हैं,
तो मैं भी मरने को तैयार हूं। जो कुछ होना होगा,
होगा। ‘
उसका मन
दुर्बलता की उस दशा को पहुंच गया था,
जब ज़रा-सी सहानुभूति, ज़रा-सी
सह्रदयता सैकड़ों धामकियों से कहीं कारगर हो जाती है। इंस्पेक्टर साहब ने
मौका ताड़ लिया। उसका पक्ष लेकर डिप्टी से बोले,हलफ
से कहता हूं,
‘आप लोग आदमी को पहचानते तो हैं नहीं,
लगते हैं रोब जमाने। इस तरह गवाही देना हर एक समझदार आदमी
को बुरा मालूम होगा। यह द्ददरती
बात है।
जिसे ज़रा भी इज्जत का खयाल है,
वह पुलिस के हाथों की कठपुतली बनना पसंद न करेगा। बाबू
साहब की जगह मैं होता तो मैं भी ऐसा ही करता, लेकिन
इसका मतलब यह नहीं है कि यह हमारे खिलाफ शहादत देंगे। आप लोग अपना काम
कीजिए, बाबू साहब की तरफ से बेफिक्र रहिए,
हलफ से कहता हूं। ‘
उसने रमा
का हाथ पकड़ लिया और बोला,
‘आप मेरे साथ चलिए, बाबूजी! आपको
अच्छे-अच्छे रिकार्ड सुनाऊं। ‘
रमा ने
रूठे हुए बालक की तरह हाथ छुडाकर कहा,
‘मुझे
दिक न कीजिए। इंस्पेक्टर साहबब अब तो मुझे जेलखाने में मरना है। ‘
इंस्पेक्टर ने उसके कंधो पर हाथ रखकर कहा,
‘आप
क्यों ऐसी बातें मुंह से निकालते हैं साहबब जेलखाने में मरें आपके दुश्मन।
‘
डिप्टी ने
तसमा भी बाकी न छोड़ना चाहाब बडे कठोर स्वर में बोला,
मानो रमा से कभी का परिचय नहीं है,
‘साहब,
यों हम बाबू साहब के साथ सब तरह का सलूक करने को तैयार हैं,
लेकिन जब वह हमारा ख़िलाफ गवाही देगा, हमारा जड़
खोदेगा, तो हम भी कार्रवाई करेगा। जरूर से करेगा।
कभी छोड़ नहीं सकता। ‘
इसी वक्त
सरकारी एडवोकेट और बैरिस्टर मोटर से उतरे।
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