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शेख़ सादी
 

आठवां ध्‍या 

 फ़ारसी साहित्‍य की पाठ्य पुस्‍तकों में गुलिस्‍तां के बाद बोस्‍तां का ही प्रचार है । यह कहने में कुछन होगी कि काव्यग्रंथों में बोस्तां का वही आदर है जो गद्य में गुलिस्तां का है। निज़मी का सिकन्दरनामा, फि़रदौसी का शाहनामा, मौलाना रूम की मसनवी, और दीवान हाफिज़ यह चारों ग्रंथ बोस्तां के ही समान गिने जाते हैं। निज़मी और फिदौसी वीर-रस में अद्वितीय हैं, मौलाना रूम की मसनवी भक्ति संबंधी ग्रंथों में अपना जवाब नहीं रखती और हाफिज़ प्रेम रस के राजा हैं। इन चारों काव्यों का आदर किसी न किसी अंश में उनके विषय पर निर्भर है। लेकिन बोस्तां एक नीतिग्रंथ है और नीति के ग्रंथ बहुधा जनता को प्रिय नहीं हुआ करते। अतएव बोस्तां का जो आदर और प्रचार है वह सर्वथा उसकी सरलता और विचारोंत्कर्षता पर निर्भर है। मौलाना रूम ने जीवन के गूढ़ तत्‍व का वर्णन किया है और धार्मिक विचार से मनुष्यों में उसका बड़ा मान है। भाषा की मधुरता, और प्रेम के भाव में हाफिज़ सादी से बहुत बढ़े हुए हैं। उनकी-सी मर्मस्पर्शिनी कविता फ़ारसी में और किसी ने नहीं की। उनकी गज़लों के कितने ही शेर जीवन की साधारण बातों पर ऐसे घटते हैं मानो उसी अवसर के लिये लिखे गये हों। धन्‍य है शीराज़ की वह पवित्र भूमि जिसने सादी और हाफिज़ जैसे दो ऐसे अमूल्य रत्‍न उत्पन्न किये। भाषा और भाव की सरलता में सादी सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। फि़रदौसी और निज़मी बहुधा अलौकिक बातों का वर्णन करते हैं। पर सादी ने कहीं अलौकिक घटनाओं का सहारा नहीं लिया है। यहाँ तक कि उनकी अत्युक्तियॉं भी अस्वाभाविक नहीं होतीं। उन्होंने समयानुसार सभी रसों का वर्णन किया है लेकिन करुणा-रस उनमें सर्वप्रधान है। दया के वर्णन में उनकी लेखनी बहुत ही करुण हो गयी है। सादी नमाज़ और रोज़े के पाबंद तो थे किन्तु सेवाधर्म को उससे भी श्रेष्ठ समझते थे। उन्होंने बार-बार सेवा पर जशेर दिया है। उनका दूसरा प्रिय विषय राजनीति है। बादशाहों को न्याय, धर्म, दीनपालन और क्षमा का उपदेश करने में वह कभी नहीं थकते। उनको राजनीति पर लायलटी (राजभक्ति) का ऐसा रंग नहीं चढ़ा था कि वह खरी-खरी बातों के कहने से चूक जायँ। उनके राजनीति विषयक विचारों की स्वतंत्रता पर आज भी आश्‍चर्य होता है। इस बीसवीं शताब्दि में भी हमारे यहाँ बेगार की प्रथा कायम है। लेकिन आज के कई सौ वर्ष पहले अपने ग्रंथों में सादी ने कई जगह इसका विरो किया है।

बोस्तां में दस अध्‍याय हैं। उनकी विषय सूची देखने से निदित होता है कि सादी की नीति शिक्षा कितनी विस्तीर्ण है।

प्रथम अध्‍याय       न्याय और राजनीति

द्वितीय अध्‍याय      दया

तृतीय अध्‍याय      प्रेम

चतुर्थ अध्‍याय       विनय

पंचम अध्‍याय       धौर्य

षष्ठ अध्‍याय         संतोष

सप्तम अघ्याय       शिक्षा

अष्टम अध्‍याय       कृतज्ञता

नवम अध्‍याय       प्रायश्चित

दशम अध्‍याय       ईश्‍वर प्रार्थना

नीतिग्रंथों की आवश्यकता यों तो जन्म भर रहती है लेकिन पढ़ने का सबसे उपयुक्त समय बाल्यावस्था है। उस समय उनके मानव चरित्र का आरम्भ होता है इसीलिए पाठय पुस्तकों में बोस्तां का इतना प्रचार है। संसार की कई प्रसिध्द भाषाओं में इसके अनुवाद हो चुके हैं। सर्वसाधारण में इसके जितने शेर लोकोक्ति के रूप में प्रचलित हैं उतने गुलिस्तां के नहीं। यहाँ हम उदाहरण की भांति कुछ कथायें देकर ही संतोष करेंगे।

बोस्तां की कथायें

सीरिया देश का एक बादशाह जिसका नाम 'सालेह' था कभी-कभी अपने एक गुलाम के साथ भेष बदलकर बाज़रों में निकला करता था। एक बार उसे एक मस्जिद में दो फ़कीर मिले। उनमें से एक दूसरे से कहता था कि अगर यह बादशाह लोग जो भोग-विलास में जीवन व्यतीत करते हैं स्वर्ग में आवेंगे, तो मैं उनकी तरआंख उठाकर भी न देखूंगा। स्वर्ग पर हमारा अधिकार है क्योंकि हम इस लोक में दु:ख भोग रहे हैं। अगर सालेह वहाँ बाग़ की दीवार के पास भी आया तो जूते से उसका भेजा निकाल लूंगा। सालेह यह बातें सुनकर वहाँ से चला आया। प्रात:काल उसने दोनों फ़कीरों को बुलाया और यथोचित्‍त आदर सत्कार करके उच्चासन पर बैठाया। उन्हें बहुत-सा धन दिया। तब उनमें से एक फ़कीर ने कहा, हे बादशाह, तू हमारी किस बात से ऐसा प्रसन्न हुआ? बादशाह हर्ष से गद्गद् होकर बोला, मैं वह मनुष्य नहीं हूं कि ऐश्‍वर्य के अभिमान में दुर्बलों को भूल जाऊं। तुम मेरी ओर से अपना हृदय साकर लो और स्वर्ग में मुझे ठोकर मारने का विचार मत करो। मैंने आज तुम्हारा सत्कार किया है, तुम कल मेरे सामने स्वर्ग का द्वार न बंद करना।

ईरान देश का बादशाह दारा एक दिन शिकार खेलने गया और अपने साथियों से छूट गया। कहीं खड़ा इधर-उधर ताक रहा था कि एक चरवाहा दौड़ता हुआ सामने आया। बादशाह ने इस भय से कि यह कोई शत्रु न हो तुरंत धनुष चढ़ाया। चरवाहे ने चिल्लाकर कहा, हे महाराज, मैं आपका बैरी नहीं हूं। मुझे मारने का विचार मत कीजिये। मैं आपके घोड़ों को इसी चारागाह में चराने लाया करता हूं। तब बादशाह को धीरज हुआ। बोला, तू बड़ा भाग्यवान था कि आज मरते-मरते बच गया। चरवाहा हंसकर बोला, महाराज, यह बड़े खेद की बात है कि राजा अपने मित्रों और शत्रुओं को न पहचान सके। मैं हज़रों बार आपके सामने गया हूं। आपने घोड़े के संबंमें मुझसे बातें की हैं। आज आप मुझे ऐसा भूल गये। मैं तो अपने घोड़ों को लाखों घोड़ों में पहचान सकता हूं। आपको आदमियों की पहचान होनी चाहिए।

बादशाह 'उमर' के पास एक ऐसी बहुमूल्य अंगूठी थी कि बड़े-बड़े जौहरी उसे देखकर दंग रह जाते। उसका नगीना रात को तारे की तरह चमकता था। संयोग से एक बार देश में अकाल पड़ा। बादशाह ने अंगूठी बेच दी और उसने एक सप्ताह तक अपनी भूखी प्रजा का उदर पालन किया। बेचने के पहले बादशाह के शुभचिंतकों ने उसे बहुत समझाया कि ऐसी अपूर्व अंगूठी मत बेचिये फिर न मिलेगी। उमर न माना। बोला, जिस राजा की प्रजा दु:ख में हो उसे यह अंगूठी शोभा नहीं देती। रत्‍न जटित आभूषणों को ऐसी दशा में पहिनना कब उचित कहा जा सकता है कि जब मेरी प्रजा दाने-दाने को तरसती हो।

दमिश्‍क में एक बार ऐसी अनावृष्टि हुई कि बड़ी-बड़ी नदियॉं और नाले सूख गये, पानी का कहीं नाम न रहा। कहीं था तो अनाथों की आंखों में। यदि किसी घर से धुआं उठता था तो वह चूल्हे का नहीं किसी विधवा, दीन की आह का धुआं था। उस समय मैंने अपने एक धनवान मित्र को देखा, जो उदासीन, सूखकर कांटा हो गया था। मैंने कहा, भाई तुम्हारी यह क्या दशा हो रही है, तुम्हारे घर में किस बात की कमी है? यह सुनते ही उसके नेत्र सजल हो गये। बोला मेरी यह दशा अपने दु:ख से नहीं, वरन् दूसरों के दु:ख से हुई है। अनाथों को क्षुधा से बिलखते देखकर मेरा हृदय फटा जाता है। वह मनुष्य पशु से भी नीच है जो अपने देशवासियों के दु:ख से व्यथित न हो।

एक दुष्ट सिपाही किसी कुएं में गिर पड़ा। सारी रात पड़ा रोता-चिल्लाता रहा। कोई सहायक न हुआ। एक आदमी ने उलटे यह निर्दयता की कि उसके सिर पर एक पत्थर मार कर बोला दुरात्मन, तूने भी कभी किसी के साथ नेकी की है जो आज दूसरों से सहायता की आशा रखता है। जब हज़रों हृदय तेरे अन्याय से तड़प रहे हैं, तो तेरी सुधि कौन लेगा। कांटे बोकर फूल की आशा मत रख।

एक अत्याचारी राजा देहातियों के गधे बेगार में पकड़ लिया करता था, एक बार वह शिकार खेलने गया और एक हिरन के पीछे घोड़ा दौड़ाता हुआ अपने आदमियों से बहुत आगे निकल गया। यहाँ तक कि संध्‍या हो गयी। इधर-उधर अपने साथियों को देखने लगा। लेकिन कोई दीख न पड़ा। विवश होकर निकट के एक गांव में रात काटने की ठानी। वहाँ क्या देखता है कि एक देहाती अपने मोटे ताज़े गधो को डंडों से मार-मारकर उसके धुर्रे उड़ा रहा है। राजा को उसकी यह कठोरता बुरी मालूम हुई। बोला, अरे भाई क्या तू इस दीन पशु को मार ही डालेगा! तेरी निर्दयता पराकाष्ठा को पहुंच गयी। यदि ईश्‍वर ने तुझे बल दिया है तो उसका ऐसा दुरुपयोग मत कर। देहाती ने बिगड़कर कहा, तुमसे क्या मतलब है? मैं जाने क्या समझकर इसे मारता हूं। राजा ने कहा, अच्छा बहुत बक-बक मत कर, तेरी बुध्दि भ्रष्ट हो गयी है, शराब तो नहीं पी ली? देहाती ने गंभीर भाव से कहा, मैंने न शराब पी है, न पागल हूं, मैं इसे केवल इसीलिये मारता हूं जिससे यह इस देश के अत्याचारी राजा के किसी काम का न रहे। लंगड़ा और बीमार होकर मेरे द्वार पर पड़ा रहे, यह मुझे स्वीकार है। लेकिन राजा को बेगार में देना स्वीकार नहीं। राजा यह उत्‍तर सुनकर चुप रह गया। रात तारे गिन-गिन कर काटी। प्रात:काल उसके आदमी खोजते हुए वहाँ आ पहुंचे। जब खा पीकर निश्चिन्त हुआ तो राजा को उस गंवार की याद आयी। उसे पकड़वा मंगाया और तलवार खींचकर उसका सिर काटने पर तैयार हुआ। देहाती जीवन से निराश हो गया और निर्भय होकर बोला, हे राजन्, तेरे अत्याचार से सारे देश में हाय-हाय मची हुई है। कुछ मैं ही नहीं बल्कि तेरी समस्त प्रजा तेरे अत्याचार से घबड़ा उठी है। यदि तुझे मेरी बात कड़ी लगती है तो न्याय कर कि फिर ऐसी बातें सुनने में न आवें। इसका उपाय मेरा सिर काटना नहीं, बल्कि अत्याचार को छोड़ देना है। राजा के हृदय में ज्ञान उत्पन्न हो गया। देहाती को क्षमा कर दिया और उस दिन से प्रजा पर अत्याचार करना छोड़ दिया।

 

सुना है कि एक फ़कीर ने किसी बादशाह से उसके अत्याचारों की निन्दा की। बादशाह को यह बात बुरी लगी और उसे कैद कर दिया। फ़कीर के एक मित्र ने उससे कहा, तुमने यह अच्छा नहीं किया। बादशाहों से ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए। फ़कीर बोला, मैंने जो कुछ कहा वह सत्य है। इस कैका क्या डर, दो-चार दिन की बात है। बादशाह के कान में यह बात पहुंची। फ़कीर को कहला भेजा, इस भूल में न रहना कि दो-चार दिन में छुट्टी हो जायगी, तुम इसी कैमें मरोगे। फ़कीर यह सुनकर बोला, जाकर बादशाह से कह दो कि मुझे यह धमकी न दें। यह जि़ंदगी दो-चार दिन से ज्‍यादा न रहेगी, मेरे लिए दु:ख-सुख दोनों बराबर हैं। तू ऊंचे आसन पर बैठा दे तो उसकी खुशी नहीं, सिर काट डाल तो उसका कुछ रंज नहीं। मरने पर हम और तुम दोनों बराबर हो जायेंगे। दयाहीन बादशाह यह सुनकर और भी बिगड़ा और हुक्म दिया कि इसकी ज़बान तालू से खींच ली जाय। फ़कीर बोला, मुझको इसका भी भय नहीं है। खुदा मेरे मन का हाल बिना कहे ही जानता है। तू अपने को रो कि जिस शुभ दिन मरेगा देश में आनंदोत्सव की तरंगें उठने लगेंगी।

एक कवि किसी सज्जन के पास जाकर बोला, मैं बड़ी विपत्ति में पड़ा हुआ हूं, एक नीच आदमी के मुझ पर कुछ रुपये आते हैं। इस ऋण के बोझ से मैं दबा जाता हूं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता कि वह मेरे द्वार का चक्कर न लगाता हो। उसकी बाण सरीखी बातों ने मेरे हृदय को चलनी बना दिया है। वह कौन-सा दिन होगा कि मैं इस ऋण से मुक्त हो जाऊंगा। सज्जन पुरुष ने यह सुनकर उसे एक अशरी दी। कवि अति प्रसन्न होकर चला गया। एक दूसरा मनुष्य वहाँ बैठा था। बोला, आप जानते हैं वह कौन है। वह ऐसा धूर्त है कि बड़े-बड़े दुष्टों के भी कान काटता है। वह अगर मर भी जाय तो रोना न चाहिए। सज्जन ने उससे कहा चुप रह, किसी की निंदा क्यों करता है। अगर उस पर वास्तव में ऋण है तब तो उसका गला छूट गया। लेकिन यदि उसने मुझसे धूर्तता की है तब भी मुझे पछताने की ज़रूरत नहीं क्योंकि रुपये न पाता तो वह मेरी निन्दा करने लगता।

मैंने सुना है कि हिजाज़ के रास्ते पर एक आदमी पग-पग पर नमाज़ पढ़ता जाता था। वह इस सद्मार्ग में इतना लीन हो रहा था कि पैरों से कांटे भी न निकालता था। निदान उसे अभिमान हुआ कि ऐसी कठिन तपस्या दूसरा कौन कर सकता है। तब आकाशवाणी हुई कि भले आदमी, तू अपनी तपस्या का अभिमान मत कर। किसी मनुष्य पर दया करना पग-पग पर नमाज़ पढ़ने से उत्‍तम है।

एक दीन मनुष्य किसी धनी के पास गया और कुछ मांगा। धनी मनुष्य ने देने के नाम नौकर से धक्‍के दिलवाकर उसे बाहर निकलवा दिया। कुछ काल उपरांत समय पलटा। धनी का धन नष्ट हो गया, सारा कारोबार बिगड़ गया। खाने तक का ठिकाना न रहा। उसका नौकर एक ऐसे सज्जन के हाथ पड़ा, जिसे किसी दीन को देखकर वही प्रसन्नता होती थी जो दरिद्र को धन से होती है। अन्य नौकर-चाकर छोड़ भागे। इस दुरवस्था में बहुत दिन बीत गये। एक दिन रात को इस धर्मात्मा के द्वार पर किसी साधु ने आकर भोजन मांगा। उसने नौकर से कहा उसे भोजन दे दो। नौकर जब भोजन देकर लौटा तो उसके नेत्रों से आंसू बह रहे थे। स्वामी ने पूछा, क्यों रोता है? बोला, इस साधु को देखकर मुझे बड़ा दु:ख हुआ। किसी समय मैं उसका सेवक था। उसके पास धन, धरती सब था। आज उसकी यह दशा है कि भीख मांगता फिरता है। स्वामी सुनकर हंसा और बोला, बेटा संसार का यही रहस्य है। मैं भी वही दीन मनुष्य हूं जिसे इसने तुझसे धक्‍के देकर बाहर निकलवा दिया था।

याद नहीं आता कि मुझसे किसने यह कथा कही थी कि किसी समय यमन में एक बड़ा दानी राजा था। वह धन को तृणवत समझता था, जैसे मेघ से जल की वर्षा होती है उसी तरह उसके हाथ से धन की वर्षा होती थी। हातिम का नाम भी कोई उसके सामने लेता तो चिढ़ जाता। कहा करता कि उसके पास न राज्य है न खज़ाना उसकी और मेरी क्या बराबरी? एक बार उसने किसी आनंदोत्सव में बहुत से मनुष्यों को निमंत्रण दिया। बातचीत में प्रसंगवश हातिम की भी चर्चा आ गयी और दो-चार मनुष्य उसकी प्रशंसा करने लगे। राजा के हृदय में ज्वाला-सी दहक उठी। तुरंत एक आदमी को आज्ञा दी कि हातिम का सिर काट लाओ। वह आदमी हातिम की खोज में निकला। कई दिन के बाद रास्ते में उसकी एक युवक से भेंट हुई। वह अति गुणी और शीलवान था। घातक को अपने घर ले गया, बड़ी उदारता से उसका आदर-सम्मान किया। जब प्रात:काल घातक ने विदा मांगी तो युवक ने अत्यंत विनीत भाव से कहा कि यह आप ही का घर है, इतनी जल्दी क्यों करते हैं। घातक ने उत्‍तर दिया कि मेरा जी तो बहुत चाहता है कि ठहरूं लेकिन एक कठिन कार्य करना है, उसमें विलम्ब हो जायगा। हातिम ने कहा, कोई हानि न हो तो मुझसे भी बतलाओ कौन-सा काम है, मैं भी तुम्हारी सहायता करूं। मनुष्य ने कहा, यमन के बादशाह ने मुझे हातिम का वकरने भेजा है। मालूम नहीं, उनमें क्यों विरोहै। तू हातिम को जानता हो तो उसका पता बता दे। युवक निर्भीकता से बोला, हातिम मैं ही हूं, तलवार निकाल और शीघ्र अपना काम पूरा कर। ऐसा न हो कि विलंब करने से तू कार्य सिध्द न कर सके। मेरे प्राण तेरे काम आवें तो इससे बढ़कर मुझे और क्या आनन्द होगा। यह सुनते ही घातक के हाथ से तलवार छूटकर ज़मीन पर गिर पड़ी। वह हातिम के पैरों पर गिर पड़ा और बड़ी दीनता से बोला, हातिम तू वास्तव में दानवीर है। तेरी जैसी प्रशंसा सुनता था उससे कहीं बढ़कर पाया। मेरे हाथ टूट जायँ अगर तुझ पर एक कंकरी भी फेंकूं। मैं तेरा दास हूं और सदैव रहूंगा। यह कहकर वह यमन लौट आया। बादशाह का मनोरथ पूरा न हुआ तो उसने उस मनुष्य का बहुत तिरस्कार किया और बोला, मालूम होता है कि तू हातिम से डरकर भाग आया। अथवा तुझे उसका पता न मिला। उस मनुष्य ने उत्‍तर दिया, राजन, हातिम से मेरी भेंट हुई लेकिन मैं उसका शील और आत्मसमर्पण देखकर उसके वशीभूत हो गया। इसके पश्चात् उसने सारा वृत्‍तांत कह सुनाया। बादशाह सुनकर चकित हो गया और स्वयं हातिम की प्रशंसा करते हुए बोला, वास्तव में वह दानियों का राजा है, उसकी जैसी कीर्ति है वैसे ही उसमें गुण हैं।

 

बायज़ीद के विषय में कहा जाता है कि वह अतिथि पालन में बहुत उदार था। एक बार उसके यहाँ एक बूढ़ा आदमी आया जो भूख-प्यास से बहुत दु:खी मालूम होता था। बायज़ीद ने तुरंत उसके सामने भोजन मंगवाया। वृध्द मनुष्य भोजन पर टूट पड़ा। उसकी जिह्ना से 'बिस्मिल्लाह' शब्द न निकला। बायज़ीद को निश्‍चय हो गया कि वह काफिर है। उसे अपने घर से निकलवा दिया। उसी समय आकाशवाणी हुई कि बायज़ीद मैंने इस काफिर का सौ वर्ष तक पालन किया और तुमसे एक दिन भी न करते बन पड़ा।

 

किसी भक्त ने सपने में एक साधु को नर्क में और एक राजा को स्वर्ग में देखकर अपने गुरु से पूछा कि यह उलटी बात क्योंकर हुई। गुरुजी बोले, उस राजा को साधुओं और सज्जनों के सत्संग से रुचि थी इसलिए उसने मरने के पीछे स्वर्ग में उन्हीं के संग वास पाया और उस साधु को राजाओं और अमीरों की संगत का शौक था सो वही वासना उसको नर्क में उनकी मुसाहबत के लिए खींच लाई।

 

कारूं बादशाह को हज़रत मूसा ने उपदेश किया कि भलाई वैसी ही गुप्त रीति से कर जैसे मालिक ने तेरे साथ की है। उदारता वही है जिसमें निहोरे का मेल न हो तभी उसका फल मिलता है। सच्चे उपकार के पेड़ की डालियॉं आकाश के परे पहुंचती हैं।

 

किसी ने सपने में प्रलय की लीला देखी कि एक भारी झुंड कुकर्मियों का भय और कष्ट से चिल्ला रहा है पर उनमें से एक आदमी मोती की माला पहने शीतल छांह में बैठा है। उससे पूछा, तेरा किस कारण ऐसा आदर हुआ है। जवाब दिया, मैंने अपने द्वार पर अंगूर की टट्टी लगाई थी जिसकी छांह में एक बार एक महात्मा ने विश्राम किया था।

 

एक बुध्दिमान अपने लड़कों को समझाया करते थे कि बेटा, विद्या सीखो, संसार के धन-धाम पर भरोसा न रक्खो, तुम्हारा अधिकार तुम्हारे देश के बाहर काम नहीं दे सकता और धन के चले जाने का सदा डर रहता है चाहे उसे एक बारगी चोर ले जाय या धीरे-धीरे खर्च हो जाय परन्तु विद्या धन का अटूट स्रोत है और यदि कोई विद्वान निर्धान हो जाय तो भी दु:खी न होगा क्योंकि उसके पास विद्यारूपी द्रव्य मौजूद है। एक समय दमिश्‍क नगर में ग़दर हुआ, सब लोग भाग गये तब किसानों के बुध्दिमान लड़के बादशाह के मंत्री हुए और पुराने मंत्रियों के मूर्ख लड़के गली-गली भीख मांगने लगे। अगर पिता का धन चाहते हो तो पिता के गुण सीखो क्योंकि धन तो चार-दिन में चला जा सकता है।

 

किसी ने हज़रत इमाम मुरशिद बिन गज़शली से पूछा कि आपमें ऐसी भारी योग्यता कहाँ से आयी। जवाब दिया, इस तरह कि जो बात मैं नहीं जानता था उसे दूसरों से पूछकर सीखने में मैंने लाज न की। यदि रोग से छूटा चाहते हो तो किसी गुनी वैद को नाड़ी दिखाओ। जो बात न जानते हो उसके पूछने में लाज या आलस न करो क्योंकि इस सहज जुगज से योग्यता की सीधी सड़क पर पहुंच जाओगे।

एक बादशाह ने मरते समय आज्ञा दी कि मेरे मरने के सबेरे पहला आदमी जो नगर के फाटक में घुसे वह बादशाह बनाया जाय। दैवगति से सबेरे एक भिखमंगा फाटक में घुसा। उसे लोगों ने लाकर राजगद्दी पर बिठा दिया। थोड़े ही दिनों में उसकी अयोग्यता और निर्बलता से कितने ही राजमंत्री और सूबे स्वतंत्र हो बैठे और आस-पास के बादशाहों ने चढ़ाई करके बहुत-सा हिस्सा उसके राज्य का छीन लिया। बेचारा भिक्षुक राजा इन उत्पातों से उदास और दु:खी था कि उसका एक पहला साथी जो बाहर गया हुआ था लौटकर आया और अपने पुराने मित्र को उसका अचरज भाग जगने पर बधाई दी। बादशाह बोला, भाई मेरे अभाग पर रोओ क्योंकि भीख मांगने के काल में तो मुझे केवल रोटी की चिंता थी और अब देशभर की झंझट और सम्हाल का बोझ मेरे सिर पर है और चूकने की दशा में असह दु:ख। संसार के जंजाल में जो फंसा सो मर मिटा, हाँ का सुख भी निपट दु:ख रूप है, अब मेरी आंखों के सामने सादरसता है कि संतोष के बराबर दूसरा धन संसार में नहीं है।

नवां अध्‍या    - सादीकी लोकोक्तियॉं

किसी लेखक की सर्वप्रियता इस बात से भी देखी जाती है कि उसके वाक्‍य और पद कहावतों के रूप में कहाँ तक प्रचलित हैं। मानवचरित्र, पारस्परिक व्यवहार आदि के संबंमें जब लेखक की लेखनी से कोई ऐसा सारगर्भित वाक्य निकल जाता है जो सर्व-व्यापक हो तो वह लोगों की ज़बान पर चढ़ जाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी की कितनी ही चौपाइयाकहावतों के रूप में प्रचलित हैं। अंग्रेज़ी में शेक्सपियर के वाक्यों से सारा साहित्य भरा पड़ा है। फ़ारसी में जनता ने यह गौरव शेखसादी को प्रदान किया है। इस क्षेत्र में वह फ़ारसी के समस्त कवियों से बढ़े-चढ़े हैं। यहाँ उदाहरण के लिए कुछ वाक्य दिये जाते हैं

       अगर हिन्जि़ल  खुरी अज़ दस्ते खुशखूय,

       बेह अज़  शरीनी  अज़ दस्ते तुरुशरूय।

कवि रहीम के इस दोहे में यही भाव इस तरह दर्शाया गया है

     अमी पियावत मान बिन, रहिम हमें न सुहाय।

     प्रेम सहित मरियो भलो, जो विषय देई बुलाय॥

 

     आनांकि ग़नी तरन्द मुहताज तरन्द।

(जो अधिक धनाडय हैं वही अधिक मोहताज है।)

हर ऐब कि सुल्तां बेपसन्दद हुनरस्त।

(यदि राजा किसी ऐब को भी पसंद करे तो वह हुनर हो जाता है।)

हाजमे मश्शाता नेस्त रूय दिलाराम रा।

(सुंदरता बिना शृंगार ही के मन को मोहती है।)

     स्वाभाविक सौंदर्य  जो सोहे  सब अंग माहिं।

     तो  कृत्रिम  आभरन की  आवश्यकता नाहिं।

     परतवे नेकां न गीरद हरकि बुनियादश बदस्त।

(जिसकी अस्ल खराब है उस पर सज्जनों के सत्संग का कुछ असर नहीं होता।)

दुश्मन न तवां हकीरो बेचारा शुमुर्द।

(शत्रु को कभी दुर्बल न समझना चाहिये।)

आकश्बत गुगज़दा गुर्ग शवद।

(भेड़िये का बच्चा भेड़िया ही होता है।)

दर बागलाला रोयदो दर शोर बूम ख़रा

(लाला फल बाग़ में उगता है, ख़स ज़ो घास है, ऊसर में।)

           तवंगरी  बदिलस्त  न बमाल,

           बुजुर्गी बअकलस्त न बसाल।

(धनी होना धन पर नहीं वरन् हृदय पर निर्भर है, बड़प्पन अवस्था पर नहीं वरन् बुध्दि पर निर्भर है।)

     सघन होन तैं होत नहिं, कोऊ लच्छ मीवान।

     मन  जाको  धनवान  है, सोई  धनी महान॥

 

     हसूद रा चे कुनम को ज़े खुद  बरंज दरस्त।

(ईष्यालु मनुष्य स्वयं ही ईष्या-अग्नि में जला करता है। उसे और सताना व्यर्थ है।)

क़द्रे आफित आंकसे दानद कि बमुसीबते गिरफ्तार आयद।

(दुख भोगने से सुख के मूल्य का ज्ञान होता है।)

     विपति भोग भोग गरू, जिन लोगनि बहुबार।

     सम्पति  के गुण  जानही, वे ही भले प्रकार।

       चु  अज़बे बदर्द आबुरद रोज़गार,

       दिगर अज़वहारा न मानद करार।

(जब शरीर के किसी अंग में पीड़ा होती है तो सारा शरीर व्याकुल हो जाता है।)

       हर कुजा चश्मए बुवद शीरीं,

       मरदुमों मुर्गों मोर गिर्दायन्द।

     विमल मधुर जल सों भरा, जहाँ  जलाशय होय।

     पशु  पक्षी अरु नारि नर, जात तहाँ  सब कोय॥

     आंरा कि हिसाब पाकस्त अज़ मुहासिबा चेबाक।

(जिसका लेखा साफ है उसे हिसाब समझाने वाले का क्या डर?)

       दोस्त आं बाशद गीरद दस्ते दोस्त।

       पर  परेशां  हालि  ओ दर मांदगी।

(मित्र वही है जो विपत्ति में काम आवे।)

       तोपाक बाश बिरादर! मदार अज़ कस बाक,

       ज़नन्द   जामये   नापाक   गाजुरां बरसंग।

(तू बुराइयों से पवित्र (दूर) रहे तो तेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। धोबी केवल मैले कपड़े को पत्थर पर पटकता है।)

     चु अज़   कशैमे  यके  बेदानिशी  कर्द,

       न केहरा मन्जिलत मानद न मेहरा।

(किसी जाति के एक आदमी से बुराई हो जाती है तो सारी की सारी जाति बदनाम हो जाती है। न छोटे की इज्जत रहती है न बड़े की।)

पाय दर ज़ोर पेशें दोस्ता,

बेह कि बा बेगानगां बोस्तां।

(मित्रों के साथ बन्दीगृह भी स्वर्ग है पर दूसरों के साथ उपवन नरक समान है।)

           नेक  बाशी  व बदत  गोयद ख़ल्‍क,

                बेह कि बद बाशी व नेकत गोयन्द।

(सन्मार्ग पर चलते हुए अगर लोग बुरा कहें तो यह उससे अच्छा है कि कुमार्ग पर चलते हुए लोग तुम्हारी प्रशंसा करें।)

बातिलस्त उद्बचे मुद्दई गोयद,

(विपक्षी की बात मिथ्या समझी जाती है।)

          मर्द बायद  कि गीरद अन्दर गोश,

           गर  नविश्तास्त पन्द  बर दीवार।

(मनुष्य को चाहिए कि यदि दीवार पर भी उपदेश लिखा हुआ मिले तो उसे ग्रहण करे।)

हमरह अगर शिताब कुनद हमरहे तो नेस्त।

(तेरा साथी जल्दी करता है तो वह तेरा साथी नहीं है।)

       हक्‍का  कि बा डकूबत दोज़ख बराबरस्त,

       रफतन ब पायमर्दी हमसाया दर बहिश्त।

(पड़ोसी की सिफारिश से स्वर्ग में जाना नरक में जाने के तुल्य है।)

       रिज्‍क हरचन्द  बेगुमां  बरसद,

       शर्ते अक्‍़लस्त जुस्तन अज़ दरहा।

(यद्यपि भूखों कोई नहीं मरता, ईश्‍वर सबकी सुधि लेता है, तथापि बुध्दिमान आदमी का धर्म है कि उसके लिए प्रयत्न करे।)

बदोजतमा दीदए होशमन्द।

(तृष्णा चतुर को भी अंधा बना देती है।)

गरदने बेतमा बुलन्द बुवद।

(निस्पृह मनुष्य का सिर सदा ऊंचा रहता है।)

       निकोई बा  बदां करदन चुनानस्त,

       कि बद करदन बजाए नेक मरदां।

(दुर्जनों के साथ भलाई करना सज्जनों के साथ बुराई करने के समान है।)

यके नुकसाने माया दीगर शुभातते हमसाया।

    (गांठ से धन जाय लोग हंसें।)

खश्ताये बजुर्गां गिरफ्तन ख़तास्त।

    (बड़ों का दोष दिखाना दोष है।)

़रे ईसा अगर बमक्का श्‍व,

चूं बयायद हनोज़ बाशद।

    (कौआ कभी हंस नहीं हो सकता।)

जौरे उस्ताद बेह ज़महरे पिदर।

    (गुरु की ताड़ना पिता के प्यार से अच्छी है।)

करीमांरा बदस्त अन्दर दिरम नेस्त,

खुदा बन्दा न्याम तरा करम नेस्त।

    (दानियों के पास धन नहीं होता और धनी दानी नहीं होते।)

परागन्दा रोज़ों परागन्दा हिल।

    (वृत्तिहीन मनुष्य का चित्‍त स्थिर नहीं रहता।)

पेशे  दीवार  उद्बचे गोई  होशदार,

ता न बाशद दर पसे दीवार गोश।

    (दीवार के भी कान होते हैं, इसका ध्‍यान रख।)

कि खुब्स नफ़श न गरदद ब सालहा मालूम।

    (स्वभाव की नीचता बरसों में भी नहीं मालूम होती।)

मुश्क आनस्त कि खुद बबूयद न कि अत्‍तर बगोयद।

    (कस्तूरी की पहचान उसकी सुगन्धि से होती है गान्धी के कहने से नहीं।)

कि बिसियार ख्वारस्त बिसियार ख्वार।

    (बहुत खानेवाले आदमी का कभी आदर नहीं होता।)

कुहन  जामए  खशेश   आ  रास्तन,

बेह अज़ जामए आरियत ख्‍़वास्तन।

    (अपने पुराने कपड़े मंगनी के कपड़ों से अच्छे हैं।)

चु सायल अज़ तो बज़री तलब कुनद चीज़,

बेदेह  बगर न  सितमगर बजशेर बसितानद।

    (दोनों को दे, वर्ना छीनकर ले लेंगे।)

सखुनश तल्ख न ख्‍़वाहो दहनश शीरीं कुन।

    (अगर किसी की कड़वी बात नहीं सुनना चाहे तो उसका मुंह मीठा कर।)

 मोरचगांरा चु बुवद इत्तफ़ा,

शेरेजि़या रा बदरारूद पोस्त।

    (अगर चिउटियॉं एका कर लें, तो शेर की खाल खींच सकती हैं।)

हुनर बकार न आयद चु बख्‍़त बदशाह।

    (भाग्यहीन मनुष्य के गुण भी काम नहीं आते।)

हरकि सुखन न संजद अज़ जवाब बरंजदा।

    (जो आदमी तौलकर बात नहीं करता उसे कठोर बातें सुननी पड़ती हैं।)

अन्दक अन्दक बहम शवद बिसियार।

(एक-एक दाना मिलकर ढेर हो जाता है।)

यद्यपि सादी ने जो उपदेश किये हैं वह अन्य लेखकों के यहाँ भी पाये जाते हैं, लेकिन फ़ारसी में सादी की सी ख्याति किसी ने नहीं पाई थी। इससे विदित होता है कि लोकप्रियता बहुत कुछ भाषा सौंदर्य पर अवलंबित होती है। यहाँ हमने सादी के कुछ वाक्य दिये हैं लेकिन यह समझना भूल होगी कि केवल यही प्रसिध्द हैं। सारी गुलिस्तां ऐसे ही मार्मिक वाक्यों से परिपूर्ण है। संसार में ऐसा एक भी ग्रंथ नहीं है जिसमें ऐसे वाक्यों का इतना आधिक्य हो जो कहावत बन सकते हो।

गोस्वामी तुलसीदास पर यह दोषारोपण किया जाता है कि उन्होंने कई भ्रमोत्पादक चौपाइयॉं लिखकर समाज को बड़ी हानि पहुंचाई है। कुछ लोग सादी पर भी यही दोष लगाते हैं और यह वाक्य अपने पक्ष की पुष्टि में पेश करते हैं

अगर शहरोज़ रा गोयद  शबस्त इं,

बबायद  गुफ़त ईनक माहो परवीं।

(अगर बादशाह दिन को रात कहे तो कहना चाहिए कि हाँ, हुजूर, देखिये चांद निकला हुआ है।)

इस पर यह आक्षेप किया जाता है कि सादी ने बादशाहों को झूठी खुशामद करने का परामर्श दिया है। लेकिन जिस निर्भयता और स्वतंत्रता से उन्होंने बादशाहों को ज्ञानोपदेश किया है उस पर विचार करते हुए सादी पर यह आक्षेप करना बिल्कुल न्याय संगत नहीं मालूम होता। इसका अभिप्राय केवल यह है कि खुशामदी लोग ऐसा करते हैं।

इसी तरह लोग इस वाक्य पर भी एतराज करते हैं

दरोग़े मसलहत आमेज़ बेह,

ज़ रास्ती फि़तना अंगेज़

(वह झूठ जिससे किसी की जान बचे उस सच से उत्‍तम है जिससे किसी की जान जाय।)

कहा जाता है कि असत्य सर्वथा अक्षम्य है और सादी का यह वाक्य झूठ के लिए रास्ता खोल देता है। लेकिन विवाद के लिए इस वाक्य की उपेक्षा चाहे की जाय और आदर्श के उपासक चाहे इसे निन्द्य समझें, पर कोई सहृदय मनुष्य इसकी उपेक्षा न करेगा। इसके साथ ही सादी ने आगे चलकर एक और वाक्य लिखा है जिससे विदित होता है कि वह स्वार्थ के लिए किसी हालत में भी झूठ बोलना उचित नहीं समझते थे

गर यस्त सुख़न गोई ब दर बन्द ब मानी,

बेह जशंकि दरोग़त देहद अज़ बन्द रिहाई।

(यदि सच बोलने से तुम कैद हो जाओ तो यह उस झूठ से अच्छा है जो कैद से मुक्त कर दे।)

इससे जान पड़ता है कि पहला वाक्य केवल दूसरों की विपत्ति के पक्ष में है, अपने लिये नहीं।

दसवां अध्‍या
ज़लें

ग़जल फारसी कविता का प्रधान अंग है । कोई कवि, जब तक व‍ह गज़ल कहने में निपुर्ण न होज़लें समाज में आदर का स्थान नहीं पाता। यों तो गज़ल शृंगार का विषय है, किन्तु कवियों ने इसके द्वारा सभी रसों का वर्णन किया है, जिसमें भक्ति, बैराग्य, संसार की असारता आदि विषय बड़े महत्तव के हैं। गज़लों के संग्रह को फ़ारसी में दीवान कहते हैं। सादी की सम्पूर्ण गज़लों े  चार दीवान हैं, जिनके नाम लिखने की कोई ज़रूरत नहीं मालूम होती। इन चारों दीवानों में कोई तो युवाकाल में, कोई प्रौढ़ावस्था में लिखा गया है किन्तु उनमें कहीं भाव का वह अन्तर नहीं पाया जाता जो बहुधा भिन्न-भिन्न अवस्था की कविताओं में मिला करता है। उनकी सभी गज़लें सरलता और वाक्य निपुणता में समतुल्य हैं। और यह कवि की रचना-शक्ति का बहुत बड़ा प्रमाण है।

यद्यपि शेखसादी के पूर्वकालीन कविगण भी गज़लें कहते थे, किन्तु उस समय क़सीदे और मसनवी की प्रधानता थी। गज़लों में साधारण भाव प्रकट किये जाते थे और शृंगार को छोड़कर दूसरे रसों का उसमें प्राय: अभाव था। सादी ने गज़लों में ऐसे गूढ़ रहस्यों और मर्मस्पर्शी भावों को व्यक्त किया कि लोग क़सीदे तथा मसनवियों को छोड़कर गज़लों पर टूट पड़े और गज़ल फ़ारसी कविता का प्रधान अंग बन गई। इसी से समालोचकों ने सादी को गज़ल में प्रधान माना है। सादी के पहले के दो कवियों ने क़सीदे कहने में विशेष प्रतिभा दिखाई है अनवर और खशकानी ये दोनों कवि इस विषय में अद्वितीय हैं। लेकिन उनकी गज़लों में वह मार्मिकता नहीं पाई जाती जो सादी ने अपनी गज़लों में कूट-कूटकर भर दी। बात यह है कि गज़ल कहने के लिए हृदय में नाना प्रकार के भावों का होना अत्यावश्यक है, केवल इतना ही नहीं, उन भावों को कुछ ऐसे अनूठे ढंग से वर्णन करना चाहिए कि उनसे सुनने वाला तुरंत मुग्धा हो जाय।

अनवरी का एक शेर है

       हमा बामन जफ़ा कुनद लेकिन,

       वज़फ़ा  हेच अजशे नया ज़रम।

भावार्थ - वह (प्रियतम) मेरे ऊपर सदैव जुल्म किया करता है, किन्तु मैं इनकी जरा भी शिकायत नहीं करती।

भाव के सुंदर होने में संदेह नहीं, क्योंकि दुखड़ा आशिकों की पुरानी बात है। किन्तु कवि ने उसे स्पष्ट रूप से वर्णन करके उसकी मिट्टी खराब कर दी। देखिये इसी भाव को सादी साहब किस ढंग से दर्शाते हैं

कादिर  बर  हरचेमी ख्‍़वाही बजुज़  आ ज़रे मन,

़ाँकिगर शमशीर बर फ़रक़म ़नी ज़र नेस्त।

भावार्थ - तू सब कुछ कर सकता है किन्तु मुझ पर जुल्म नहीं कर सकता, क्योंकि यदि तू मेरे सिर पर तलवार मारे तो उससे मुझे कष्ट नहीं होता।

यह स्मरण रखना चाहिये कि गज़ल प्रधानत: शृंगार का विषय है, इसलिए कविगण जब इसके द्वार भक्ति, वैराग्य, वंदना आदि का वर्णन करते हैं तो उनको रसिकता की ही आड़ लेनी पड़ती है। अतएव शराब की मस्ती से ईश्‍वर प्रेम, शराब से ज्ञान, आत्म-दर्शन, शराब पिलाने वाले साकी से गुरु, ज्ञानी, माशूक (प्रियतमा) से ईश्‍वर का बो कराते हैं। इसी प्रकार वह बुलबुल से प्रेमी, उसके पिंजरे से दुखमय संसार और माली से विपत्ति का आशय प्रकट करते हैं। यह प्रणाली इतनी सर्ब प्रसिध्द हो गई है कि किसी को कवि के आंतरिक भावों के जानने में सन्देह नहीं हो सकता। भक्ति के लिए हृदय की स्वच्छता तथा निर्मलता का होना आवश्यक है। कपट के साथ भक्ति का मेल नहीं हो सकता, इसलिए कविगण भगवे बाने की निंदा करने से कभी नहीं थकते। मस्जिद के आविद की अपेक्षा जो संसार को दिखाने के लिये यह स्वांग रचे हुए हैं वह वासनाओं में फंसा हुआ मनुष्य कहीं सहृदय है जिसके हृदय में कपट नहीं। विद्वता और धर्म तथा कर्तव्‍य-परायणता आदि गुणों से जो मनुष्य में बहुधा अभिमान का उद्भव करते हैं, अज्ञान, मूर्खता तथा भ्रष्टता कहीं उत्‍तम है जो मानव हृदय में विनय, दीनता तथा नम्रता उत्पन्न करती है।

इसलिए कविगण साधुवेष, विद्वता, धार्मिकता, विवेक आदि की खूब दिल खोलकर हंसी उड़ाते हैं और भ्रष्टता, मूर्खता, रसिकता को खूब सराहते हैं, वे पीतवसनधारी महात्माओं को लताड़ते हैं, और शराबियों तथा शृंगारियों के आगे शीश झुकाते हैं, वे ज्ञानियों को मूर्ख और मूर्खों को ज्ञानी कहते हैं। शेखसादी के पहले भी यह प्रणाली संस्कृत हो चुकी थी पर सादी ने इसके प्रभाव और चमत्कार को उज्ज्वल कर दिया। और यह प्रणाली कुछ ऐसी सर्वप्रिय सिध्द हुई कि बाद वाले कवियों ने तो इन्हीं विषयों को गज़ल का मुख्य अंग बना दिया और हाफिज़ ने सादी को भी पीछे कर दिया।

अब हम सादी की गज़लों के कुछ शेर उध्दृत करते हैं जिनको देखकर रसिक-वृन्द स्वयं यह निर्णय कर सकेंगे कि इन गज़लों में कितना लालित्य और रस भरा हुआ है।

अय कि गुफ़ती हेच मुशकिल चूं फिरा के यार नेस्त,

गर  उमीदे  वस्ल  बाशद  आंचुनां  दुशवार  नेस्त।

भावार्थ - यद्यपि प्रियतम का वियोग बहुत कष्टजनक है, तथापित मिलाप की आशा हो तो उसका सहना कुछ कठिन नहीं है।

हरको ब हमा उमरश  सौदाय गुले बूदस्त,

दानद कि चरा बुलबुल दीवाना हमी बाशद।

भावार्थ - जिस मनुष्य ने सारा जीवन किसी फल के प्रेम में व्यतीत किया है वहीं जानता है कि बुलबुल क्यों दीवाना रहता है।

दिलों ज़नम ब तो मश ग़ूलो निगह बट चपो रास्त,

ता  न  दानन्द   रकशीबां   कि  तू  मंजूर   मनी।

भावार्थ - मैं तो तेरी ओर तन्मय हूं पर आंखें दाहिने-बायें फेरता रहता हूं जिसमें प्रतिद्वन्द्वियों को यह न ज्ञात हो सके कि तू मेरा प्रियतम है।

इस शेर में कितना लालित्य है इसे रसिकजन स्वयं अनुभव कर सकते हैं।

दीगरां चूं ब रवन्द अज़  नज ज़ दिल ब रवन्द,

तो चुनां  दर दिले मन  रफश्ता  कि  जो दर बनी।

भावार्थ - साधारणत: जब कोई नज़रों से दूर हो जाता है तो उसकी याद भी मिट जाती है, किन्तु तूने मेरे हृदय में इस प्रकार प्रवेश किया है, जैसा प्राण शरीर में।

कितनी मनोरम उक्ति है!

शर्बते तल्ख तर अज दर्दे फिराबायद,

ता कुनद लज्ज़ते वस्ले तो फरामोश मरा।

भावार्थ - तुझसे प्रेमालिंगन के आनंद को भुलाने के लिये तेरे वियोग से भी दारुण दु:ख चाहिये।

अन्य कवियों ने वियोग दुख वर्णन में खूब आंसू बहाए हैं, पर सादी प्रेमालाप के स्मरण में विरह के दु:ख को भूल जाता है। वियोग विस्मृति का कितना अच्छा उपाय, कैसी अक्सीर दवा निकलती है।

बर अन्दली बे आशिक गर विषकनी करा

अज़ं  जौकशे अन्दररूनश परवायद दर न बाशद।

भावार्थ - प्रेममग्न बुलबुल के पिंजरे को यदि तू तोड़ डाले तो भी अपने हृदयानुराग के कारण उसे दरवाज़े की सुधि भी न रहेगी। कितना प्यारा लाजबाव शेर है! बुल बुल प्रेमानुराग में ऐसी तन्मय हो रही थी कि यदि कोई उसके पिंजरे को तोड़ डाले तो भी वह उसमें से न निकले। अन्य कवियों के आशिक कपड़े फाड़ते हैं, जंगलों में मारे-मारे फिरते हैं, विरह कल्पना में आठों पहर आंसू की धारा बहाया करते हैं, मौका पाते ही कैखाने से भाग खड़े होते हैं, जंजीरों को तोड़ डालते हैं, दीवारों की फांद जाते हैं और यदि इतना साहस न हुआ तो बहार और गुल और चमन की याद में तड़पते रहते हैं, पर सादी प्रेम में इतने मग्न हैं कि उन्हें किसी बात की चिंता ही नहीं। प्रेम का कितना ऊंचा आदर्श है, उसके गहरे रहस्य को कितने मुग्धाकारी आनंदमय शब्दों में वर्णन किया है।

बूद  हमेश:  पेश अज़ीं रस्मे  तो  बेगुन:  कुशी

ज़ चे मरा नमीं कुशी मन चे गुनाह करदा अम।

भावार्थ - इसके पहले तू बेगुनाहों को कत्ल किया करता था। मैंने क्या गुनाह किया है कि मुझे कत्‍ल नहीं करता।

जों  न दारद हरकि जानानेश नेस्त

तंग ऐशस्त आं कि बुस्तानेश नेस्त।

भावार्थ - वह प्राण शून्य है जिसका कोई प्राणेश्‍वर नहीं, वह भागयहीन है जिसके कोई बाग़ नहीं।

इस शेर में भक्ति रस का कैसा गंभीर स्वाद भरा हुआ है।

चुनां  बमूए  तो  आशुफत:  अम   बबूए  मस्त,

कि नेस्तम ख़बर अज़ हर चे दर दो आलम हस्त।

भावार्थ - मैं तेरे केशों में ऐसा उलझा और उनकी सुगन्धि में ऐसा मस्त हूं कि मुझे लोक, परलोक की कुछ सुधि ही नहीं।

गुलामे  हिम्मते  आनम  कि  पायबन्द य केस्त,

ब जानिबे मुत अल्लिक शुद अज़ हज़ार बरूस्त।

भावार्थ - मैं उसी का सेवक हूं जो केवल एक का अनुरागी है, जो एक का होकर हजारों से मुक्त हो जाता है।

निगाहे मन  बतो वो  दीगरां ब तो मशगूल,

मुआशिरां ज़े मयो आरिफशं ज़े साकशी मस्त।

भावार्थ - मेरी आंखें तेरी ओर हैं तुझसे अन्य लोग बातें कर रहे हैं। भोगियों के लिये शराब चाहिये, ज्ञानी शराब पिलाने वालों को देखकर ही मस्त हो जाता है।

बड़े मार्के का शेर है, प्रेमानुराग के एक नाजुक पहलू को अत्यंत भावपूर्ण रूप से वर्णन किया है। भक्तों को ईशचिंतन ही सबसे बड़ा पदार्थ है, उसके दर्शन करने की उन्हें अभिलाषा नहीं। शराब पीकर मस्त हुए तो क्या बात रही, ज़ तो जब है कि साकशी (शराब पिलाने वाले) के दर्शन ही से आत्मा तृप्त हो जाय।

दिले कि आशिकशे साबिर बुबद मगर संगस्त,

ज़े  इश्‍क  ता  ब  सबूरी  हज़ार  फ़र्सगस्त।

भावार्थ - जिस हृदय में प्रेम के साथ धौर्य भी है वह परस्पर है। प्रेम और धर्म में सौ कोस का अंतर है।

चे  तरबियत  शुनवम या  मसलहत  बीनम

मरा कि चश्म ब साकशी व गोश बर चंगस्त।

भावार्थ - मैं किसी का उपदेश क्या सुनूं और क्या उचित-अनुचित का विचार करूं, मेरी आंखें तो साकशी की ओर और कान चंग की ओर लगे हुए हैं। आशय स्पष्ट है।

खल्क मी गोयद कि जाहो  फ़ज्‍ल  दर फ़र्जानगीस्त

गो मुवाश ईंहाकि मा  रंदाने ना  फज़ीना एम।

भावार्थ - अगर प्राण के बदले में भी शराब मिले तो सस्ती है, ले ले, क्योंकि शराब खाने की मिट्टी भी अमृत से उत्‍तम है।

रूएस्त  माह   पैकरो  मूएस्त   मुश्कबू,

हर लालएं कि मी दमद अज़ खशको संबुले।

भावार्थ - मिट्टी से जो लाले (एक प्रकार का फल) या सैबुल (एक प्रकार की घास) निकलते हैं, वास्तव में प्रत्येक किसी का चन्द्रमुख या सुगंसे भरे हुए केश हैं।

सैबुल की केश से उपमा दी जाती है। वेदान्त का सार एक शेर में निकालकर रख दिया है।

ज़लों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ा इसके विषय में कुछ कहना अनुपयुक्त न होगा। शृंगार रस की कविता विलासिता को उत्तोजित करती है, यह एक सर्वसिध्द बात है और जब शृंगार के साथ कविता में विद्या, धर्म, आचार, नियम, संयम, और सिध्दान्त का अपमान भी किया जाय, तो उसकी विकारक शक्ति और भी बढ़ जाती है। इसमें संदेह नहीं कि सादी और अन्य कवियों ने कबीर साहब की भांति ढोंग, ढकोसला, नुमाइश का अनादर करने ही के निमित्‍त यह रचनाशैली ग्रहण की है और आचार, नीति तथा ज्ञान के बड़े-बड़े जटिल और मर्मस्पर्शी विषय रूपक द्वारा दर्शाये हैं पर जनता इन गज़लों के आशय को अपने चित्‍त और मन की वृत्तियों के अनुसार ही समझती है। कीर्त्‍तन में जो स्वर्गीय आनंद एक भक्त को होगा वह विलासान्धा मनुष्य को कदापि नहीं हो सकता। वह अपने चरित्र और स्वभाव की दुर्बलता के कारण ऊपरी आशय ही का आनंद उठाता है। मर्म तक उसकी स्थूल बुध्दि पहुंच ही नहीं सकती। यह शैली कुछ ऐसी सर्वप्रिय हो गई है कि अब फ़ारसी या उर्दू कवियों को उसका त्याग या संशोधन करने का साहस ही नहीं हो सकता। श्रोताओं को उन गज़लों में कुछ आनन्द ही न आयेगा जो इस शैली के अनुकूल न हों। इस विषय में सादी के उर्दू जीवनकार मौलाना अलता हुसेन। हाली ने बड़ी उपयुक्त बातें लिखी हैं, जिन्हें पढकर पाठक स्वयं जान जायँगे कि उर्दू ही के कवि और लेखक इस विषय में क्या सम्मति रखते हैं

इन गज़लों के विषय में प्राय: लोग परिचित हैं। यह सर्वदा बुध्दि और ज्ञान, मान और मर्यादा, धर्म और सिध्दान्त, धन और अधिकार की उपेक्षा करती है तथा दरिद्रता और अपमान, अविद्या और अज्ञान को सर्वश्रेष्ठ बतलाती है। संसार पर लात मारना, बुध्दि से कभी काम न लेना, संतोष और विरति के नशे में अपने जीवन को नष्ट और मनुष्यत्व का पतन करना, संसार को असार और अनित्य समझते रहना, किसी वस्तु के तत्तव के जानने की चेष्टा न करना, सुप्रबंतथा मितव्यता को अवगुण समझना, जो कुछ हाथ लगे उसे तुरंत व्यर्थ खो देना और इसी प्रकार की और कितनी ही बातें उनसे प्रकट होती हैं। विदित ही है कि यह विषय बेफिक्रों और नवयुवकों को स्वभावत: रुचिकर प्रतीत होते हैं....यद्यपि यह सिध्द करना कठिन है कि हमारा वर्तमान नैतिक पतन इन्हीं गज़लों का परिणाम  है, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि शृंगार और वैराग्य की कविता ने इस दशा को पुष्ट करने में विशेष भाग लिया है।

ग्यारहवां अध्‍या

क़सीदे

कसीदा फ़ारसी कविता के उस अंग को कहते हैं जिसमें कवि किसी महान पुरुष या किसी विशेष वस्तु की प्रशंसा करता है। जिस प्रकार भूषण, मतिराम, केशव आदि कविजन अपने समकालीन महीपतियों या पदाधिकारियों की प्रशंसा करके नाम, धन तथा यश प्राप्त करते थे, उसी प्रकार मुसलमान बादशाहों के दरबार में भी इसी विशेष काम के लिये कवियों को सम्मान का स्थान मिलता था। उनका काम यही था कि कतिपय अवसरों पर अपने बादशाह का गुणगाणा करे। इसके लिए कवियों की बड़ी-बड़ी जागीरें मिलती थीं, हाँ तक कि एक-एक शेर का पारितोषिक एक-एक लाख दीनार (जो पच्चीस रुपये के बराबर होता है) तक जा पहुंचता था। शिवाजी ने भूषण का जैसा सत्कार किया था, यदि यह अत्युक्ति न हो तो ईरानी कवियों के संबंमें भी उनके अलौकिक सत्कार की कथायें सच्ची मानने में कोई बाधा न होनी चाहिए। यह प्रथा ऐसी अधिक हो गई थी कि किसी बादशाह का दर्बार कवियों से खशली न होता था। इसके अतिरिक्त हज़रों कवि भ्रमण करके बादशाहों को क़सीदे सुनाते फिरते थे। विद्वानों की एक बड़ी संख्या इसी झूठी सराहना पर अपनी आत्मा का बलिदान किया करती थी। और कसीदों की रचना शैली ऐसी विकृत हो गयी थी कि खुदा की पनाह। शायर लोग प्रशंसा में ज़श्मीन और आसमान के कुल्लावे मिलाते थे। प्रशंसा क्या, वह एक प्रकार की अप्रशंसा हो जाती थी। किसी के दानव्रत का बखान करते तो समुद्र के मोती और संसार की समस्त खनिज सम्पदा उसके लिए थोड़ी हो जाती थी। उसकी वीरता को बखानते तो सूर्य और चन्द्र उसके घोड़ों के टाप बन जाते थे। जो कवि जितना ही लंबा और बेसिर पैर की बातों से भरा हुआ कश्सीदा कहे उसका उतना ही सम्मान होता था। इन कसीदों में अत्युक्ति ही नहीं, बड़ा पांडित्य भरा जाता था; वेदान्त दर्शन तथा शास्त्राों के बड़े-बड़े गहन विषयों का उनमें समावेश होता था। उनका एक-एक शब्द अलंकारों से विभूषित किया जाता था। आज उन कसीदों को पढ़िये तो रचने वाली की विद्या, बुध्दि तथा काव्य चमत्कार का कायल होना पड़ता है। शेखसादी के पूर्व इस प्रथा का बड़ा जशेर था। अनवरी, खशकानी आदि कवि सम्राट सादी के पहले ही अपने क़सीदे लिख चुके थे जिन्हें देखकर आज हम चकित हो जाते हैं। पर सादी ने उस प्रचलित पध्दति को ग्रहण न किया। उनका निर्भय, निस्पृह, निवक्त जीवन इस काम के लिये न बना था। उन्हें स्वभावत: इस भाटपने से घृणा होती थी और सर्वोच्य कवियों को सांसारिक लाभ के लिए अपनी योग्यता का इस भांति दुरुपयोग करते देखकर हार्दिक दुख होता था। एक स्थान पर उन्होंने लिखा हैलोग मुझसे कहते हैं कि हे सादी तू क्यों कष्ट उठाता है और क्यों अपनी कवित्व शक्ति से लाभ नहीं उठाता? यदि तू क़सीदे कहे तो निहाल हो जाय। मगर मुझसे यह नहीं हो सकता कि किसी रईस या अमीर के द्वार पर अपना स्वार्थ लेकर भिक्षुकों की भांति जाऊं। यदि कोई एक जौ भर गुण के बदले मुझको सौ कोष प्रदान कर दे तो वह चाहे कितना ही प्रशंसनीय हो पर मैं घृणित हो जाऊंगा।

लेकिन मनुष्य पर अपने समय का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है अतएव सादी ने भी क़सीदे कहे हैं, लेकिन उन्हें धन-सम्पत्ति की लालसा तो थी नहीं कि वह झूठी तारीफों के पुल बांध्‍ता। अपने कसीदों को उसने प्राय: महीधारों तथा अधिकारियों को न्याय, दया, नम्रता आदि के सदुपदेश का साधन मात्र बनाया है। इन महानुभावों को वह सामान्य रीति से उपदेश न दे सकता था, इसलिए कसीदों के द्वारा इसर् कर्तव्‍य का प्रतिपादन किया है। जब किसी की प्रशंसा भी की है तो सरल और स्वाभाविक रीति से। उनमें अलंकारों और उक्तियों की भरमार नहीं। और न वह केवल स्वार्थ सिध्दि के अभिप्राय से लिखे गये हैं, वरन् उनमें सच्ची सहृदयता और आत्मीयता झलकती है क्योंकि उन्होंने ऐसे ही लोगों की ऐसी प्रशंसा की है जो प्रशंसा के पात्र थे। उनके सरल कसीदों को देखकर बहुत लोग अनुमान करते हैं कि सादी उनके रचने में कुशल न थे। पर वास्तव में ऐसा नहीं है। वह सरल स्वभाव मनुष्य थे; एक साधारण-सी बात को घुमा-फिरा कर शब्दों के व्यर्थ आडंबर के साथ वर्णन करने की उन्हें आदत न थी। और यद्यपि उनके कसीदों में ओज और गुरुत्व नहीं हैं पर माधुर्य और सरलता कूट-कूटकर भरी हुई है। इतना ही नहीं उनको पढ़कर हृदय पर एक पवित्र प्रभाव पड़ता है। यहाँ हम सादी के दो कसीदों के कुछ शेरों का भावार्थ देते हैं जिससे उनकी रचना शैली का प्रमाण मिल जायगा

1

फ़ारस के बादशाह अताबक अबूबक्र की शान में

इस मुल्क में बड़े-बड़े बादशाहों ने राज्य किया लेकिन जीवन का अंत हो जाने पर ठोकरें खाने लगे।

तुझे ईश्‍वरीय आज्ञा का पालन करना चाहिये। विभव और सम्पत्ति की जरूरत
नहीं, ढोल के सदृश गरजने की क्या आवश्यकता है। जब भीतर बिल्कुल खाली है। र्
कर्तव्‍य पालना सीख, यही स्वर्ग मार्ग की सामग्री है, उस दिन ऊदसीज़ (बर्तन जिसमें
अगर जलाते हैं) और अंबरसाय (वह बर्तन जिसमें अंबर घिसते हैं) कुछ काम न
आयेंगे।

जो मनुष्य प्रजा को दुख दे वह देश का द्रोही है, उसके मारे जाने का हुक्म दे।

पूर्व तक पश्चिम तक अपना राज्य बढ़ा, पर रणभूमि में मत जा, यह इस प्रकार हो सकता है कि दिलों को अपने हाथ में ले, और उनकी मैल धो। मैं मिष्ट भाषी कवियों की भांति यह न कहूंगा कि तू कस्तूरी की वर्षा करने वाला मेघ है।

जितनी आयु लिखी हुई है वह घट-बढ़ नहीं सकती तो यह कहने से क्या फ़ायदा कि तू कश्यामत तक जिश्न्दा और सलामत रह।

2

फ़कीरों का काम बादशाहों की बड़ाई करना नहीं है, जो मैं कहूं कि तू समुद्र के समान अगाऔर मेघ के समान दानशील है।

मैं यह न कहूंगा कि दया में तू औलिया से बढ़ा हुआ है, न यह कि न्याय में तू बादशाहों का नेता है।

और यदि यह सब गुण तुझ में हैं तो तुझे उपदेश करना और भी उत्‍तम है क्योंकि सच्चे प्रेम और श्रध्दा के प्रकट करने का यही मार्ग है।

खुदा ने यूसुफ को इसलिए सम्मानित नहीं किया कि वह रूपवान था, बल्कि इसलिये कि वह सत्कर्मी था।

सेना, धन, श्‍वर्य, एक भी सुकीर्ति के सिवाय तेरे काम न आयेंगे।

तेरे आधिपत्य के स्थिर रहने का बस एक ही मन्त्रा है, कि किसी सबल का हाथ किसी निर्बल पर न उठने पाये।

मैं यह आशीर्वाद न दूंगा कि तू सहस्र वर्षों तक जीवित रहे क्योंकि मैं जानता हूं कि तू इस अत्युक्ति समझेगा।

तुझे कीर्ति और यश लाभ करने में अधिक सामर्थ्य हो कि न्याय का पालन करे और अन्याय की ताड़ना करे।

बारहवां अध्‍या   

प्रमोदमिलती हैं जिनमें कुछ सुरुचि के पद से इतनी गिर गई हैं कि उन्हें अश्‍लील कहा जा सकता है। हमने इस पुस्तक के पहले संस्करण में पृष्ठ सतासी पर यह लिखा था कि यह कविताएं सादी की कदापि नहीं हो सकती, लेकिन इस विषय में विशेष छानबीन करने पर यह ज्ञात हुआ कि वास्तव में सादी ही उनके कर्त्‍ता हैं। और यह सादी के प्रतिभा रूपी चन्द्र पर ऐसा धब्‍बा है जो किसी तरह नहीं मिट सकता। जब विचार करते हैं कि शेखसादी कितने नीतिवान, कितने सदाचारी, कितने सद्गुणी महान पुरुष थे तो इन अश्‍लील कविताओं को देखकर बड़ा खेद होता है। इस भाग में सादी ने अपनी नीतेज्ञता और गांभी को त्याग कर खूब गंदी बातें लिखी हैं। इसमें तो कोई संदेह नहीं कि सादी विनोदशील पुरुष थे और विनोदशीलता स्वभाव का दूषण नहीं, वरन गुण है, विशेष करके नीत्युपदेश में वहाँ उसकी बड़ी आवश्यकता होती है, हाँ उपदेश का दुष्चार और दुष्टता की आलोचना करनी पड़ती है। यह गुण बहुधा उपदेश को रुचिकर बना दिया करता है, पर वही बात जब औचित्य से आगे बढ़ जाती है तो अश्‍लील हो जाती है। देखना यह है कि शेखसादी ने यह रचना विनोदार्थ की या किसी और कारण से। यह बात उनकी पंक्तियों से स्पष्ट विदित हो जाती है जो उन्होंने इस भाग के आदि में क्षमा प्रार्थना के भाव से लिखी हैं

''एक बादशाह ने मुझे बाध्‍य किया कि मैं कुछ अश्‍लील बातें लिखूं। जब मैंने इंकार किया तो उसने मुझे मार डालने की धमकी दी। इसलिए विवश होकर मुझे यह कविताएं लिखनी पड़ीं और मैं इसके लिए परमात्मा से क्षमा मांगता हूं।''

इससे यह पूर्णत: सिध्द हो जाता है कि सादी ने ये कविताएं विवश होकर रचीं और वह उनके लिए लज्जित हैं। वह स्वयं इसे अनुचित्‍त समझते हैं। यद्यपि इससे सादी की निर्ममता पर कुठाराघात होता है पर उस समय की रुचि तथा सभ्यता को देखते हुए यही बहुत है कि सादी ने इस रचना पर खेद तो प्रकट किया। उस समय कविगण बादशाहों के आमोद-प्रमोद के निमित्‍त प्राय: गंदी कविताएं लिखा करते थे। यह प्रथा ऐसी प्रचलित हो गई थी कि बड़े-बड़े विद्वानों और पंडितों को भी उनके लिखने में लेशमात्र संकोच न होता था। विद्वज्जन इन रचनाओं का आनंद उठाते थे। रसिकगण उनकी सराहना करते थे। ऐसी दशा में सादी ने भी यदि इन कविताओं की रचना को बहुत आपत्तिजनक न समझा हो तो आश्‍चर्य की बात नहीं। उन्होंने लज्जा तथा खेद प्रकट किया, इसी पर संतोष करना चाहिए। इन कविताओं में वह प्रफुल्लता और आनंद प्रदायिनी विनोदशीलता नहीं है जो उनका एक प्रधान गुण है। इससे विदित होता है कि शेख ने अवश्य उनकी रचना दुराग्रह से की, अपनी रुचि से नहीं।

प्रथम भाग- शेख़ सादी- 1

 

 

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