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शिकार फटे वस्त्रों वाली मुनिया ने रानी वसुधा के चाँद से मुखड़े की ओर सम्मान भरी आँखो से देखकर राजकुमार को गोद में उठाते हुए कहा, हम गरीबों का इस तरह कैसे निबाह हो सकता है महारानी ! मेरी तो अपने आदमी से एक दिन न पटे, मैं उसे घर में पैठने न दूँ। ऐसी-ऐसी गालियाँ सुनाऊँ कि छठी का दूध याद आ जाय। रानी वसुधा ने गम्भीर विनोद के भाव से कहा, क्यों, वह कहेगा नहीं, तू मेरे बीच में बोलनेवाली कौन है ? मेरी जो इच्छा होगी वह करूँगा। तू अपना रोटी-कपड़ा मुझसे लिया कर। तुझे मेरी दूसरी बातों से क्या मतलब ? मैं तेरा गुलाम नहीं हूँ। मुनिया तीन ही दिन से यहाँ लड़कों को खेलाने के लिए नौकर हुई थी। पहले दो-चार घरों में चौका-बरतन कर चुकी थी; पर रानियों से अदब के साथ बातें करना अभी न सीख पाई थी। उसका सूखा हुआ साँवला चेहरा उत्तेजित हो उठा। कर्कश स्वर में बोली, ज़िस दिन ऐसी बातें मुँह से निकालेगा, मूँछें उखाड़ लूँगी सरकार ! वह मेरा गुलाम नहीं है, तो क्या मैं उसकी लौंडी हूँ ? अगर वह मेरा गुलाम है, तो मैं उसकी लौंडी हूँ। मैं आप नहीं खाती, उसे खिला देती हूँ; क्योंकि वह मर्द-बच्चा है। पल्लेदारी में उसे बहुत कसाला करना पड़ता है। आप चाहे फटे पहनूँ; पर उसे फटे-पुराने नहीं पहनने देती। जब मैं उसके लिए इतना करती हूँ, तो मजाल है, कि वह मुझे आँख दिखाये। अपने घर को आदमी इसलिए तो छाता-छोपता है, कि उससे बर्खा-बूँदी में बचाव हो। अगर यह डर लगा रहे, कि घर न जाने कब गिर पड़ेगा, तो ऐसे घर में कौन रहेगा। उससे तो ऊख की छांह ही कहीं अच्छी। कल न जाने कहाँ बैठा गाता-बजाता रहा। दस बजे रात को घर आया। मैं रात-भर उससे बोली, ही नहीं। लगा पैरों पड़ने, घिघियाने, तब मुझे दया आ गयी ! यही मुझमें एक बुराई है। मुझसे उसकी रोनी सूरत नहीं देखी जाती। इसी से वह कभी-कभी बहक जाता है; पर अब मैं पक्की हो गई हूँ। फिर किसी दिन झगड़ा किया, तो या वही रहेगा, या मैं ही रहूँगी। क्यों किसी की धौंस सहूँ सरकार ? जो बैठकर खाय, वह धौंस सहे ! यहाँ तो बराबर की कमाई करती हूँ। वसुधा ने उसी गम्भीर भाव से फिर पूछा अगर वह तुझे बैठाकर खिलाता तब उसकी धौंस सहती ? मुनिया जैसे लड़ने पर उतारू हो गयी। बोली, बैठाकर कोई क्या खिलायेगा सरकार ? मर्द बाहर काम करता है, तो हम भी घर में काम करती हैं कि घर के काम में कुछ लगता ही नहीं ? बाहर के काम से तो रात को छुट्टी मिल जाती है। घर के काम से तो रात को भी छुट्टी नहीं मिलती। पुरुष यह चाहे कि मुझे घर में बिठाकर आप सैर-सपाटा करे, तो मुझसे तो न सहा जाय यह कहती हुई मुनिया राजकुमार को लिये हुए बाहर चली गयी।
वसुधा ने थकी हुई, रुआँसी आँखो से खिड़की की ओर देखा। बाहर हरा-भरा बाग था, जिसके रंग-बिरंगे फूल यहाँ से साफ नजर आ रहे थे। और पीछे एक विशाल मंदिर आकाश में अपना सुनहला मस्तक उठाये, सूर्य से आँखें मिला रहा था। स्त्रियाँ रंग-बिरंगे वस्त्राभूषण पहने पूजन करने आ रही थीं। मन्दिर की दाहिनी तरफ तालाब में कमल प्रभात के सुनहले आनन्द से मुस्करा रहे थे और कार्तिक की शीत रवि-छवि-जीवन-ज्योति लुटाती फिरती थी; पर प्रकृति की यह सुरम्य शोभा वसुधा को कोई हर्ष न प्रदान कर सकी। उसे जान पड़ा प्रक़ृति उसकी दशा पर व्यंग्य से मुसकिरा रही
है। उसी सरोवर के तट पर केवट का एक टूटा-फूटा झोपड़ा किसी अभागिनी वृद्धा की
भाँति रो रहा था। वसुधा की आँखें सजल हो गयीं। पुष्प और उद्यान के मध्य में
खड़ा वह सूना झोपड़ा उसके विलास और ऐश्वर्य से घिरे हुए
मन का सजीव मित्र था। उसके जी में आया, जाकर झोपड़े के गले लिपट जाऊँ
! और खूब रोऊँ ! वसुधा को इस घर में आये पाँच वर्ष हो गये। पहले उसने अपने
भाग्य
को सराहा था। माता-पिता के छोटे-से कच्चे आनन्दहीन घर को छोड़कर, वह एक
विशाल भवन में आयी थी, जहाँ सम्पत्ति उसके पैरों को चूमती हुई जान
पड़ती थी। उस समय सम्पत्ति ही उसकी आँखो में सब कुछ थी। पति-प्रेम
गौण-सी वस्तु थी; पर उसका लोभी मन सम्पत्ति पर सन्तुष्ट न रह सका,
पति-प्रेम के लिए हाथ फैलाने लगा। कुछ दिनों में उसे मालूम हुआ, मुझे
परम-रत्न भी मिल गया; पर थोड़े ही दिनों में वह भ्रम जाता रहा। कुँवर
गजराजसिंह रूपवान थे, उदार थे, बलवान् थे, शिक्षित थे, विनोदप्रिय थे और
प्रेम का अभिनय भी करना जानते थे; उनके जीवन में प्रेम से कंपित होने
वाला तार न था। वसुधा का खिला हुआ यौवन और देवताओं को भी लुभाने
वाला रूप-रंग केवल विनोद का सामान था। घुड़दौड़ और शिकार, सट्टे और
मकार जैसे सनसनी पैदा करने वाले मनोरंजन में प्रेम दबकर पीला और निर्जीव हो
गया था। और प्रेम से वंचित होकर वुसधा की प्रेम-तृष्णा अब अपने भाग्य को
रोया करती थी। दो पुत्र-रत्न पाकर भी वह सुखी न थी।
वसुधा बड़ी देर तक बैठी उदास आँखो से यह दृश्य देखती रही। फिर टेलीफोन पर
आकर उसने रियासत के मैनेजर से पूछा, फोन ने जवाब दिया, "ज़ी हाँ, अभी खत आया है। कुँवर साहब ने एक बहुत बड़े शेर को मारा है।" वसुधा ने जलकर कहा, "मैं यह नहीं पूछती ! आने को कब लिखा है ?" ''आने के बारे में तो कुछ नहीं लिखा।'' ''यहाँ से उनका पड़ाव कितनी दूर है ?'' ''यहाँ से ! दो सौ मील से कम न होगा। पीलीभीत के जंगलों में शिकार हो रहा है।'' ''मेरे लिए दो मोटरों का इन्तजाम कर दीजिए। मैं आज वहाँ जाना चाहती हूँ।'' फोन ने कई मिनट बाद जवाब दिया, " एक मोटर तो वह साथ ले गये हैं। एक हाकिम जिला के बंगले पर भेज दी गयी, तीसरी बैंक के मैनेजर की सवारी में, चौथी की मरम्मत हो रही है।" वसुधा का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। बोली, "क़िसके हुक्म से बैंक के मैनेजर और हाकिम जिला को मोटरें भेजी गयीं ? आप दोनों मँगवा लीजिए। मैं आज जरूर जाऊँगी।" 'उन दोनों साहबों के पास हमेशा मोटरें भेजी जाती रही हैं; इसलिए मैंने भेज दीं। अब आप हुक्म दे रही हैं, तो मँगवा लूँगा !' वसुधा ने फोन से आकर सफर का सामान ठीक करना शुरू किया। उसने उसी आवेश में आकर अपना भाग्य-निर्णय करने का निश्चय कर लिया था। परित्यक्ता की भाँति पड़ी रहकर जीवन को समाप्त न करना चाहती थी। वह जाकर कुँवर साहब से कहेगी अगर आप समझते हैं कि मैं आपकी सम्पत्ति की लौंडी बनकर रहूँ, तो यह मुझसे न होगा। आपकी सम्पत्ति आपको मुबारक हो। मेरा अधिकार आपकी सम्पत्ति पर नहीं, आपके ऊपर है। अगर आप मुझसे जौ-भर हटना चाहते हैं, तो मैं आपसे हाथ-भर हट जाऊँगी ! इस तरह की और कितनी ही विराग-भरी बातें उसके मन में बगूलों की भाँति उठ रही थीं। डाक्टर साहब ने द्वार पर आकर पुकारा, " मैं अन्दर आऊँ ?" वसुधा ने नम्रता से कहा, "आज क्षमा कीजिए, मैं जरा पीलीभीत जा रही हूँ।" डाक्टर ने आश्चर्य से कहा, "आप पीलीभीत जा रही हैं ! आपका ज्वर चढ़ जायगा। इस दशा में मैं आपको जाने की सलाह न दूँगा।" वसुधा ने विरक्त स्वर में कहा, " बढ़ जायगा, बढ़ जाय; मुझे इसकी चिन्ता नहीं है ! वृद्ध डाक्टर परदा उठाकर आ गया और वसुधा के चेहरे की ओर ताकता हुआ बोला लाइए मैं टेम्परेचर ले लूँ। अगर टेम्परेचर बढ़ा होगा, तो मैं आपको हरगिज न जाने दूँगा। 'टेम्परेचर लेने की जरूरत नहीं। मेरा इरादा पक्का हो गया है।' 'स्वास्थ्य पर ध्यान रखना आपका पहला कर्तव्य है।' वसुधा ने मुस्कराकर कहा, "आप निश्चिन्त रहिए, मैं इतनी जल्द मरी नहीं जा रही हूँ ! फिर अगर किसी बीमारी की दवा मौत ही हो, तो आप क्या करेंगे ?" डाक्टर ने दो-एक बार आग्रह किया फिर विस्मय से सिर हिलाता चला गया ! रेलगाड़ी से जाने में आखिरी स्टेशन से दस कोस तक जंगली सुनसान रास्ता तय करना पड़ता था, इसलिए कुँवर साहब बराबर मोटर ही पर जाते थे। वसुधा ने उसी से जाने का निश्चय किया। दस बजते-बजते दोनों मोटरें आयीं। वसुधा ने डन्नाइवरों पर गुस्सा उतारा अब मेरे हुक्म के बगैर कहीं मोटर ले गये, तो मोटर का किराया तुम्हारी तलब से काट लूँगी। अच्छी दिल्लगी है ! घर को रोयें, बन की गायें ! हमने अपने आराम के लिए मोटरें रखी हैं, किसी की खुशामद करने के लिए नहीं। जिसे मोटर पर सवार होने का शौक हो, मोटर खरीदे। यह नहीं कि हलवाई की दुकान देखी और दादे का फातिहा पढ़ने बैठ गये ! वह चली, तो दोनों बच्चे कुनमुनाये, मगर जब मालूम हुआ, कि अम्माँ बड़ी दूर हौआ को मारने जा रही हैं तो उनका यात्रा-प्रेम ठण्डा पड़ा। वसुधा ने आज सुबह से उन्हें प्यार न किया था। उसने जलन में सोचा मैं ही क्यों इन्हें प्यार करूँ, मैंने ही इनका ठेका लिया है ! वह तो वहाँ जाकर चैन करें और मैं यहाँ इन्हें छाती से लगाये बैठी रहूँ। लेकिन चलते समय माता का ह्रदय पुलक उठा। दोनों को बारी-बारी से गोद में लिया, चूमा, प्यार किया और घण्टे भर में लौट आने का वचन देकर वह सजल नेत्रों के साथ घर से निकली। मार्ग में भी उसे बच्चों की याद बार-बार आती रही। रास्ते में कोई गाँव आ जाता और छोटे-छोटे बालक मोटर की दौड़ देखने के लिए घरों से निकल आते, और सड़क पर खड़े होकर तालियाँ बजाते हुए मोटर का स्वागत करते, तो वसुधा का जी चाहता, इन्हें गोद में उठाकर प्यार कर लूँ। मोटर जितने वेग से आगे जा रही थी, उतने ही वेग से उसका मन सामने के वृक्ष-समूहों के पीछे की ओर उड़ा जा रहा था। कई बार इच्छा हुई, घर लौट चलूँ। जब उन्हें मेरी रत्ती भर परवाह नहीं है, तो मैं ही क्यों उनकी फिक्र में प्राण दूँ ? जी चाहे आवें या न आवें; लेकिन एक बार पति से मिलकर उनसे खरी-खरी बात करने के प्रलोभन को वह न रोक सकी। सारी देह थककर चूर-चूर हो रही थी, ज्वर भी हो आया था, सिर पीड़ा से फटा पड़ता था; पर वह संकल्प से सारी बाधाओं को दबाये आगे बढ़ती जाती थी। यहाँ तक कि जब वह दस बजे रात को जंगल के उस डाक-बंगले में पहुँची, तो उसे तन-बदन की सुधि न थी। जोर का ज्वर चढ़ा हुआ था। शोर की आवाज सुनते ही कुँवर साहब निकल आये और पूछा, "तुम यहाँ कैसे आये जी ? कुशल तो है ?" शोफर ने समीप आकर कहा, "रानी साहब आयी हैं हुजूर ! रास्ते में बुखार हो आया। बेहोश पड़ी हुई हैं। कुँवर साहब ने वहीं खड़े कठोर स्वर में पूछा, तो तुम उन्हें वापस क्यों न ले गये ? क्या तुम्हें मालूम नहीं था, यहाँ कोई वैद्य-हकीम नहीं है। शोफर ने सिटपिटाकर जवाब दिया हुजूर, वह किसी तरह मानती ही न थीं, तो मैं क्या करता ? कुँवर साहब ने डाँ टा, चुप रहो जी, बातें न बनाओ। तुमने समझा होगा, शिकार की बहार देखेंगे और पड़े-पड़े सोयेंगे। तुमने वापस चलने को कहा, ही न होगा। शोफर -- वह मुझे डाँटती थीं हुजूर ! 'तुमने कहा, था ?' 'मैंने कहा तो नहीं हुजूर !' 'बस तो चुप रहो ! मैं तुमको भी पहचानता हूँ। तुम्हें मोटर लेकर इसी वक्त लौटना पड़ेगा। और कौन-कौन साथ हैं ?' शोफर ने दबी हुई आवाज में कहा, एक मोटर पर बिस्तर और कपड़े हैं एक पर खुद रानी साहब हैं। 'यानी और कोई साथ नहीं है ?' 'हुजूर ! मैं तो हुक्म का ताबेदार हूँ।' 'बस, चुप रहो !' यों झल्लाते हुए कुँवर साहब वसुधा के पास गये और आहिस्ता से पुकारा। जब कोई जवाब न मिला तो उन्होंने धीरे से उसके माथे पर हाथ रखा। सिर गर्म तवा हो रहा था। उस ताप ने मानो उनकी सारी क्रोध-ज्वाला को खींच लिया। लपककर बंगले में आये, सोये हुए आदमियों को जगाया,पलंग बिछवाया, अचेत वसुधा को गोद में उठाकर कमरे में लाये और पलंग पर लिटा दिया। फिर उसके सिरहाने खड़े होकर उसे व्यथित नेत्रों से देखने लगे। उस धुल से भरे मुखमंडल और बिखरे हुए रज-रंजित केशों में आज उन्होंने आग्रहमय प्रेम की झलक देखी। अब तक उन्होंने वसुधा को विलासिनी के रूप में देखा था, जिसे उनके प्रेम की परवाह न थी, जो अपने बनाव-सिंगार ही में मगन थी, आज धूल के पौडर और पोमेड में वह उसके
नारीत्व का दर्शन कर रहे थे। उसमें कितना आग्रह था,
कितनी लालसा थी ! अपनी उड़ान के आनन्द में डूबी हुई;
अब वह पिंजरे के द्वार पर आकर पंख फड़फड़ा रही थी। पिंजरे का द्वार
खुलकर क्या उसका स्वागत न करेगा
? रसोइये ने पूछा, क्या सरकार अकेले आयी हैं
? कुँवर साहब ने कोमल कण्ठ से कहा,
हाँ जी, और क्या। इतने आदमी हैं,
किसी को साथ न लिया। आराम से रेलगाड़ी से आ सकती थीं। यहाँ
से मोटर भेज दी जाती। मन ही तो है। कितने जोर का बुखार है कि हाथ
नहीं रखा जाता। जरा-सा पानी गर्म करो और देखो,
कुछ खाने को बना लो।
रसोइये ने सोचा, ठकुर-सोहाती की सौ कोस की दौड़ बहुत होती है सरकार ! सारा
दिन बैठे-बैठे बीत गया।
कुँवर साहब ने वसुधा के सिर के नीचे तकिया सीधा करके कहा,
यह कहते हुए उन्होंने एक शीशी से तेल निकाला और वसुधा के सिर में मलने लगे।
वसुधा का ज्वर इक्कीस दिन तक न उतरा। घर के डाक्टर आये। दोनों
बालक,
मुनिया, नौकर-चाकर, सभी आ गये। जंगल में मंगल हो गया। वसुधा खाट पर पड़ी-पड़ी कुँवर साहब की सुश्रुषाओं में अलौकिक आनन्द और सन्तोष का अनुभव किया करती। वह दोपहर दिन चढ़े तक सोने के आदी थे, कितने सबेरे उठते, उसके पथ्य और आराम की जरा-जरा सी बातों का कितना खयाल रखते। जरा देर के लिए स्नान और भोजन करते जाते, फिर आकर बैठ जाते। एक तपस्या-सी कर रहे थे। उसका स्वास्थ्य बिगड़ता जाता था, चेहरे पर स्वास्थ्य की लाली न थी। कुछ व्यस्त से रहते थे। एक दिन वसुधा ने कहा, तुम आजकल शिकार खेलने क्यों नहीं जाते ? मैं तो शिकार खेलने ही आयी थी, मगर न जाने किस बुरी साइत से चली कि तुम्हें इतनी तपस्या करनी पड़ गयी। अब मैं बिलकुल अच्छी हूँ। जरा आईने में अपनी सूरत तो देखो। कुँवर साहब को इतने दिनों शिकार का कभी ध्यान ही न आया था। इसकी चर्चा ही न होती थी। शिकारियों का आना-जाना, मिलना-जुलना बन्द था। एक बार साथ के एक शिकारी ने किसी शेर का जिक्र किया था। कुँवर साहब ने उसकी ओर कुछ ऐसी कड़वी आँखो से देखा कि वह सूख-सा गया। वसुधा के पास बैठने, उससे कुछ बातें करके उसका मन बहलाने, दवा और पथ्य बनाने में ही उन्हें आनन्द मिलता था। उनका भोग-विलास जीवन के इस कठोर व्रत में जैसे बुझ गया। वसुधा की एक हथेली पर अँगुलियों से रेखा खींचने में मग्न थे। शिकार की बात किसी और के मुँह से सुनी होती, तो फिर उसी आग्नेय नेत्रों से देखते। वसुधा के मुँह से यह चर्चा सुनकर उन्हें दु:ख हुआ। वह उन्हें इतना शिकार का आसक्त समझती है ! अमर्ष भरे स्वर में बोले हाँ, शिकार खेलने का इससे अच्छा और कौन अवसर मिलेगा ! वसुधा ने आग्रह किया मैं तो अब अच्छी हूँ, सच ! देखो (आईने की ओर दिखाकर) मेरे चेहरे पर वह पीलापन नहीं रहा। तुम अलबत्ता बीमार से हो जाते हो। जरा मन बहल जायगा। बीमार के पास बैठने से आदमी सचमुच बीमार हो जाता है। वसुधा ने साधारण-सी बात कही थी; पर कुँवर साहब के ह्रदय पर वह चिनगारी के समान लगी। इधर वह अपने शिकार के खब्त पर कई बार पछता चुके थे। अगर वह शिकार के पीछे यों न पड़ते, तो वसुधा यहाँ क्यों आती और क्यों बीमार पड़ती। उन्हें मन-ही-मन इसका बड़ा दु:ख था। इस वक्त कुछ न बोले। शायद कुछ बोला ही न गया। फिर वसुधा की हथेली पर रेखाएँ बनाने लगे। वसुधा ने उसी सरल भाव से कहा, अबकी तुमने क्या-क्या तोहफे जमा किये, जरा मँगाओ, देखूँ। उनमें से जो सबसे अच्छा होगा, उसे मैं ले लूँगी। अबकी मैं भी तुम्हारे साथ शिकार खेलने चलूँगी। बोलो, मुझे ले चलोगे न ? मैं मानूँगी नहीं। बहाने मत करने लगना। अपने शिकारी तोहफे दिखाने का कुँवर साहब को मरज था। सैकड़ों ही खालें जमा कर रखी थीं। उनके कई कमरों में फर्श-गद्दे, कोच, कुर्सियाँ, मोढ़े सब खालों ही के थे। ओढ़ना और बिछौना भी खालों ही का था ! बाघम्बरों के कई सूट बनवा रखे थे। शिकार में वही सूट पहनते थे। अबकी भी बहुत से सींग, सिर, पंजे, खालें जमा कर रखी थीं। वसुधा का इन चीजों से अवश्य मनोरंजन होगा। यह न समझे कि वसुधा ने सिंह-द्वार से प्रवेश न पाकर चोर दरवाजे से घुसने का प्रयत्न किया है। जाकर वह चीजें उठवा लाये; लेकिन आदमियों को परदे की आड़ में खड़ा करके पहले अकेले ही उसके पास गये ! डरते थे; कहीं मेरी उत्सकुता वसुधा को बुरी न लगे। वसुधा ने उत्सुक होकर पूछा, चीजें नहीं लाये ? 'लाया हूँ, मगर कहीं डाक्टर साहब न हों।' 'डाक्टर ने पढ़ने-लिखने को मना किया था।' तोहफे लाये गये। कुँवर साहब एक-एक चीज निकालकर दिखाने लगे। वसुधा के चेहरे पर हर्ष की ऐसी लाली हफ्तों से न दिखी थी, जैसे कोई बालक तमाशा देखकर मगन हो रहा हो। बीमारी के बाद हम बच्चों की तरह जिद्दी, उतने ही आतुर, उतने ही सरल हो जाते हैं। जिन किताबों में भी मन न लगा हो, वह बीमारी के बाद पढ़ी जाती हैं। वुसधा जैसे उल्लास की गोद में खेलने लगी। चीतों की खालें थीं, बाघों की, मृगों की, शेरों की। वसुधा हरेक खाल नयी उमंग से देखती, जैसे बायस्कोप के एक चित्र के बाद दूसरा चित्र आ रहा हो। कुँवर साहब एक-एक तोहफे का इतिहास सुनाने लगे। यह जानवर कैसे मारा गया, उसके मारने में क्या-क्या बाधाएँ पड़ीं, क्या-क्या उपाय करने पड़े, पहले कहाँ गोली लगी आदि। वसुधा हरेक की कथा आँखें फाड़-फाड़कर सुन रही थी। इतना सजीव, स्फूर्तिमय आनन्द उसे आज तक
किसी कविता,
संगीत या आमोद में भी न मिला था। सबसे सुन्दर एक सिंह
की खाल थी। वही उसने छांटी। कुँवर साहब की यह सबसे बहुमूल्य वस्तु थी। उसे
अपने कमरे में लटकाने को रखे हुए थे। बोले तुम बाघम्बरों में से कोई ले लो।
यह तो कोई अच्छी चीज नहीं।
वसुधा ने खाल को अपनी ओर खींचकर कहा,
रहने दीजिए अपनी
सलाह। मैं खराब ही लूँगी।
कुँवर साहब ने जैसे अपनी आँखो से आँसू पोंछकर कहा,
तुम वही ले लो,
मैं तो तुम्हारे खयाल से कह रहा था। मैं फिर वैसा ही मार लूँगा।
'चकमा कौन देता था ?'
'अच्छा, खाओ मेरे सिर की कसम, कि यह सबसे सुन्दर खाल नहीं
है
?' कुँवर साहब ने हार की हँसी हँस कर कहा, जब शिकारी सब खालें लेकर चला गया, तो कुँवर साहब ने कहा, मैं इस खाल पर काले ऊन से अपना समर्पण लिखूँगा। वसुधा ने थकान से पलंग पर लेटते हुए कहा, अब मैं भी शिकार खेलने चलूँगी। फिर वह सोचने लगी, वह भी कोई शेर मारेगी और उसकी खाल पतिदेव को भेंट करेगी। उस पर लाल ऊन से लिखा जायगा प्रियतम ! जिस ज्योति के मन्द पड़ जाने से हरेक व्यापार, हरेक व्यंजन पर अंधकार छा गया था, वह ज्योति अब प्रदीप्त होने लगी थी। शिकारों का वृत्तान्त सुनने की वसुधा को चाट-सी पड़ गयी। कुँवर साहब को कई-कई बार अपने अनुभव सुनाने पड़े। उसका सुनने से जी ही न भरता था। अब तक कुँवर साहब का संसार अलग था, जिसके दु:ख-सुख, हानि-लाभ, आशा-निराशा से वसुधा को कोई सरोकार न था। वसुधा को इस संसार के व्यापार से कोई रुचि न थी, बल्कि अरुचि थी। कुँवर साहब इस पृथक् संसार की बातें उससे छिपाते थे; पर अब वसुधा उनके इस संसार में एक उज्ज्वल प्रकाश, एक वरदानों वाली देवी के समान अवतरित हो गयी थी।
एक दिन वसुधा ने आग्रह किया "मुझे बन्दूक चलाना सिखा दो।" 'ज्यों ही भैसे पर आया, मैं उसका काम तमाम कर दूँगा। तुम्हारी गोली की नौबत ही न आने पावेगी।' वसुधा ने सिहरकर कहा, और जो कहीं निशाना चूक गया तो उछलेगा ? 'तो फिर दूसरी गोली चलेगी। तीनों बन्दूकें तो भरी तैयार रखी हैं। तुम्हारा जी घबड़ाता तो नहीं ?' 'बिलकुल नहीं। मैं तो चाहती हूँ, पहला मेरा निशाना होता।' पत्ते खड़खड़ा उठे। वसुधा चौंककर पति के कन्धों से लिपट गयी। कुँवर साहब ने उसकी गर्दन में हाथ डालकर कहा, दिल मजबूत करो प्रिये। वसुधा ने लज्जित होकर कहा, नहीं-नहीं, मैं डरती नहीं, जरा चौंक पड़ी थी।" सहसा भैंसे के पास दो चिनगारियाँ-सी चमक उठी। कुँवर साहब ने धीरे से वसुधा का हाथ दबाकर शेर के आने की सूचना दी और सतर्क हो गये। जब शेर भैंसे पर आ गया, तो उन्होंने निशाना मारा। खाली गया। दूसरा फैर किया। चीता जख्मी तो हुआ; पर गिरा नहीं। क्रोध से पागल होकर इतनी जोर से गरजा कि वसुधा का कलेजा दहल उठा। कुँवर साहब तीसरा फैर करने जा रहे थे कि चीते ने मचान पर जस्त मारी। उसके अगले पंजों के धक्के से मचान ऐसा हिला कि कुँवर साहब हाथ में बन्दूक लिये झोंके से नीचे गिर पड़े। कितना भीषण अवसर था ! अगर एक पल का भी विलम्ब होता, तो कुँवर साहब की खैरियत न थी। शेर की जलती हुई आँखें वसुधा के सामने चमक रही थीं। उसकी दुर्गन्धमय साँस देह में लग रही थी। हाथ-पाँव फूले हुए थे। आँखें भीतर को सिकुड़ी जा रही थीं; पर इस खतरे ने जैसे उसकी नाड़ियों में बिजली भर दी। उसने अपनी बन्दूक सॅभाली। शेर के और उसके बीच में दो हाथ से ज्यादा अन्तर न था। वह उचककर आना ही चाहता था कि वसुधा ने बन्दूक की नली उसकी आँखो में डालकर बन्दूक छोड़ी। धायें ! शेर के पंजे ढीले पड़े। नीचे गिर पड़ा। अब समस्या भीषण थी। शेर से तीन-चार कदम पर ही कुँवर साहब गिरे पड़े थे। शायद चोट ज्यादा आयी हो। शेर में अगर अभी दम है, तो वह उन पर जरूर वार करेगा। वसुधा के प्राण आँखो में थे और बल कलाइयों में। इस वक्त कोई उसकी देह में भाला भी चुभा देता, तो उसे खबर न होती ! वह अपने होश में न थी। उसकी मूर्च्छा ही चेतना का काम कर रही थी। उसने बिजली की बत्ती जलाई। देखा शेर उठने की चेष्टा कर रहा है। दूसरी गोली सिर पर मारी और उसके साथ ही रिवाल्वर लिये नीचे कूदी। शेर जोर से गुर्राया। वसुधा ने उसके मुँह के सामने रिवाल्वर खाली कर दिया। कुँवर साहब सॅभलकर खड़े हो गये। दौड़कर उसे छाती से चिपटा लिया। अरे ! यह क्या। वसुधा बेहोश थी। भय उसके प्राणों को मुट्ठी में लिये उसकी आत्म-रक्षा कर रहा था। भय के शांत होते ही मूर्च्छा आ गयी। तीन घंटों के बाद वसुधा की मूर्च्छा टूटी। उसकी चेतना अब भी उन्हीं भयप्रद
परिस्थितियों में विचर रही थी। उसने धीरे से डरते-डरते आँखें खोलीं।
कुँवर साहब ने हँसकर कहा,
"शेर कब का ठंडा हो गया। वह बरामदे
में पड़ा है। ऐसे डील-डौल का और इतना भयंकर सिंह मैंने नहीं देखा।
कुँवर -- बिलकुल नहीं। तुम कूद क्यों पड़ीं ? पैरों में बड़ी चोट आयी होगी। तुम जीती कैसे बचीं, यह आश्चर्य है। मैं तो इतनी ऊँचाई से कभी न कूद सकता। वसुधा ने चकित होकर कहा, मैं ! मैं कहाँ कूदी ? शेर मचान पर आया, इतना याद है। उसके बाद क्या हुआ, मुझे कुछ याद नहीं। कुँवर को भी विस्मय हुआ, वाह ! तुमने उस पर दो गोलियाँ चलाईं। जब वह नीचे गिरा, तो तुम भी कूद पड़ीं और उसके मुँह में रिवाल्वर की नली ठूंस दी। बस वहीं ठंडा हो गया। बड़ा बेहया जानवर था। अगर तुम चूक जातीं, तो वह नीचे आते ही मुझ पर जरूर चोट करता। मेरे पास तो छुरी भी न थी। बन्दूक हाथ से छूटकर दूसरी तरफ गिर गयी थी। अँधेरे में कुछ सुझाई न देता था। तुम्हारे ही प्रभाव से इस वक्त मैं यहाँ खड़ा हूँ, तुमने मुझे प्राण-दान दिया। दूसरे दिन प्रात:काल यहाँ से कूच हुआ। जो घर वसुधा को फाड़े खाता था, उसमें आज जाकर ऐसा आनन्द आया, जैसे किसी बिछुड़े मित्र से मिली हो। हरेक वस्तु उसका स्वागत करती हुई मालूम होती थी ! जिन नौकरों और लौंडियों से वह महीनों से सीधे मुँह न बोली, थी, उनसे वह आज हँस-हँसकर कुशल पूछती और गले मिलती थी, जैसे अपनी पिछली रुखाइयों की पटौती कर रही हो।
संध्या का सूर्य, आकाश के स्वर्ण सागर में अपनी नौका खेता हुआ चला जा रहा था ! वसुधा खिड़की के सामने कुरसी पर बैठकर सामने का दृश्य देखने लगी। उस दृश्य में आज जीवन था, विकास था, उन्माद था। केवट का वह सूना झोपड़ा भी आज कितना सुहावना लग रहा था। प्रकृति में मोहिनी भरी हुई थी। मन्दिर के सामने मुनिया राजकुमारों को खिला रही थी। वसुधा के मन में आज कुलदेव के प्रति श्रद्धा जागृत हुई, जो बरसों से पड़ी सो रही थी। उसने पूजा के सामान मँगवाये और पूजा करने चली। आनन्द से भरे भण्डार से अब वह कुछ दान भी कर सकती थी। जलते हुए ह्रदय से ज्वाला के सिवा और क्या निकलती। उसी वक्त कुँवर साहब आकर बोले "अच्छा, पूजा करने जा रही हो। मैं भी वहीं जा रहा था। मैंने एक मनौती मान रक्खी है।" वसुधा ने मुस्कराती हुई आँखो से पूछा, क़ैसी मनौती है ? कुँवर साहब ने हँसकर कहा, "यह न बताऊँगा।" |
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