शूद्र
मां और बेटी एक झोंपड़ी में गांव के उसे सिरे पर रहती थीं। बेटी बाग से
पत्तियां बटोर लाती,
मां भाड़-झोंकती। यही उनकी जीविका थी। सेर-दो सेर अनाज मिल जाता था,
खाकर पड़ रहती थीं। माता विधवा था,
बेटी क्वांरी,
घर में और कोई आदमी न था। मां का नाम गंगा था,
बेटी का गौरा!
गंगा को कई साल से यह चिन्ता लगी हुई थी कि कहीं गौरा की सगाई हो जाय,
लेकिन कहीं बात पक्की न होती थी। अपने पति के मर जाने के बाद गंगा ने कोई
दूसरा घर न किया था,
न कोई दूसरा धन्धा ही करती थी। इससे लोगों को संदेह हो गया था कि आखिर इसका
गुजर कैसे होता है! और लोग तो छाती फाड़-फाड़कर काम करते हैं,
फिर भी पेट-भर अन्न मयस्सर नहीं होता। यह स्त्री कोई धंधा नहीं करती,
फिर भी मां-बेटी आराम से रहती हैं,
किसी के सामने हाथ नहीं फैलातीं। इसमें कुछ-न-कुछ रहस्य अवश्य है।
धीरे-धीरे यह संदेह और भी द़ृढ़ हो गया और अब तक जीवित था। बिरादरी में कोई
गौरा से सगाई करने पर राजी न होता था। शूद्रों की बिरादरी बहुत छोटी होती
है। दस-पांच कोस से अधिक उसका क्षेत्र नहीं होता,
इसीलिए एक दूसरे के गुण-दोष किसी से छिपे नहीं रहते,
उन पर परदा ही डाला जा सकता है।
इस भ्रांति को शान्त करने के लिए मां ने बेटी के साथ कई तीर्थ-यात्राएं
कीं। उड़ीसा तक हो आयी,
लेकिन संदेह न मिटा। गौरा युवती थी,
सुन्दरी थी,
पर उसे किसी ने कुएं पर या खेतों में हंसते-बोलते नहीं देखा। उसकी निगाह
कभी ऊपर उठती ही न थी। लेकिन ये बातें भी संदेह को और पुष्ट करती थीं।
अवश्य कोई- न- कोई रहस्य है। कोई युवती इतनी सती नहीं हो सकती। कुछ गुप-चुप
की बात अवश्य है।
यों ही दिन गुजरते जाते थे। बुढ़िया दिनोंदिन चिन्ता से घुल रही थी। उधर
सुन्दरी की मुख-छवि दिनोंदिन निहरती जाती थी। कली खिल कर फूल हो रही थी।
२
एक दिन एक परदेशी गांव से होकर निकला। दस-बारह कोस से आ रहा था। नौकरी की
खोज में कलकत्ता जा रहा था। रात हो गयी। किसी कहार का घर पूछता हुआ गंगा के
घर आया। गंगा ने उसका खूब आदर-सत्कार किया,
उसके लिए गेहूं का आटा लायी,
घर से बरतन निकालकर दिये। कहार ने पकाया,
खाया,
लेटा,
बातें होने लगीं। सगाई की चर्चा छिड़ गयी। कहार जवान था,
गौरा पर निगाह पड़ी,
उसका रंग-ढंग देखा,
उसकी सजल छवि ऑंखों में खुब गयी। सगाई करने पर राजी हो गया। लौटकर घर चला
गया। दो-चार गहने अपनी बहन के यहां से लाया;
गांव के बजाज ने कपड़े उधार दे दिये। दो-चार भाईबंदों के साथ सगाई करने आ
पहुंचा। सगाई हो गयी,
यही रहने लगा। गंगा बेटी और दामाद को आंखों से दूर न कर सकती थी।
परन्तु दस ही पांच दिनों में मंगरु के कानों में इधर-उधर की बातें पड़ने
लगीं। सिर्फ बिरादरी ही के नहीं,
अन्य जाति वाले भी उनके कान भरने लगे। ये बातें सुन-सुन कर मंगरु पछताता था
कि नाहक यहां फंसा। पर गौरा को छोड़ने का ख्याल कर उसका दिल कांप उठता था।
एक महीने के बाद मं गरु अपनी बहन के गहने लौटाने गया। खाने के समय उसका
बहनोई उसके साथ भोजन करने न बैठा। मंगरु को कुछ संदेह हुआ,
बहनोई से बोला- तुम क्यों नहीं आते?
बहनोई ने कहा-तुम खा लो,
मैं फिर खा लूंगा।
मंगरु
–
बात क्या है?
तु खाने क्यों नहीं उठते?
बहनोई
–जब
तक पंचायत न होगी,
मैं तुम्हारे साथ कैसे खा सकता हूं?
तुम्हारे लिए बिरादरी भी नहीं छोड़ दूंगा। किसी से पूछा न गाछा,
जाकर एक हरजाई से सगाई कर ली।
मंगरु चौके पर उठ आया,
मिरजई पहनी और ससुराल चला आया। बहन खड़ी रोती रह गयी।
उसी रात को वह किसी वह किसी से कुछ कहे-सुने बगैर,
गौरा को छोड़कर कहीं चला गया। गौरा नींद में मग्न थी। उसे क्या खबर थी कि
वह रत्न,
जो मैंने इतनी तपस्या के बाद पाया है,
मुझे सदा के लिए छोड़े चला जा रहा है।
३
कई साल बीत गये। मंगरु का कुछ पता न चला। कोई पत्र तक न आया,
पर गौरा बहुत प्रसन्न थी। वह मांग में सेंदुर डालती,
रंग बिरंग के कपड़े पहनती और अधरों पर मिस्सी के धड़े जमाती। मंगरु भजनों
की एक पुरानी किताब छोड़ गया था। उसे कभी-कभी पढ़ती और गाती। मंगरु ने उसे
हिन्दी सिखा दी थी। टटोल-टटोल कर भजन पढ़ लेती थी।
पहले वह अकेली बैठली रहती। गांव की और स्त्रियों के साथ बोलते-चालते उसे
शर्म आती थी। उसके पास वह वस्तु न थी,
जिस पर दूसरी स्त्रियां गर्व करती थीं। सभी अपने-अपने पति की चर्चा करतीं।
गौरा के पति कहां था?
वह किसकी बातें करती! अब उसके भी पति था। अब वह अन्य स्त्रियों के साथ इस
विषय पर बातचीत करने की अधिकारिणी थी। वह भी मंगरु की चर्चा करती,
मंगरु कितना स्नेहशील है,
कितना सज्जन,
कितना वीर। पति चर्चा से उसे कभी तृप्ति ही न होती थी।
स्त्रियां- मंगरु तुम्हें छोड़कर क्यों चले गये?
गौरी कहती
–
क्या करते?
मर्द कभी ससुराल में पड़ा रहता है। देश
–परदेश
में निकलकर चार पैसे कमाना ही तो मर्दों का काम है,
नहीं तो मान-मरजादा का निर्वाह कैसे हो?
जब कोई पूछता,
चिट्ठ-पत्री क्यों नहीं भेजते?
तो हंसकर कहती- अपना पता-ठिकाना बताने में डरते हैं। जानते हैं न,
गौरा आकर सिर पर सवार हो जायेगी। सच कहती हूं उनका पता-ठिकाना मालूम हो
जाये,
तो यहां मुझसे एक दिन भी न रहा जाये। वह बहुत अच्छा करते हैं कि मेरे पास
चिट्ठी-पत्री नहीं भेजते। बेचारे परदेश में कहां घर गिरस्ती संभालते
फिरेंगे?
एक दिन किसी सहेली ने कहा- हम न मानेंगे,
तुझसे जरुर मंगरु से झगड़ा हो गया है,
नहीं तो बिना कुछ कहे-सुने क्यों चले जाते
?
गौरा ने हंसकर कहा- बहन,
अपने देवता से भी कोई झगड़ा करता है?
वह मेरे मालिक हैं,
भला मैं उनसे झगड़ा करुंगी?
जिस दिन झगड़े की नौबत आयेगी,
कहीं डूब मरुंगी। मुझसे कहकर जाने पाते?
मैं उनके पैरों से लिपट न जाती।
४
एक दिन कलकत्ता से एक आदमी आकर गंगा के घर ठहरा। पास ही के किसी गांव में
अपना घर बताया। कलकत्ता में वह मंगरु के पड़ोस ही में रहता था। मंगरु ने
उससे गौरा को अपने साथ लाने को कहा था। दो साड़ियां और राह-खर्च के लिये
रुपये भी भेजे थे। गौरा फूली न समायी। बूढ़े ब्राह्मण के साथ चलने को तैयार
हो गयी। चलते वक्त वह गांव की सब औरतों से गले मिली। गंगा उसे स्टेशन तक
पहुंचाने गयी। सब कहते थे,
बेचारी लड़की के भाग जग गये,
नहीं तो यहाँ कुढ़-कुढ़ कर मर जाती।
रास्ते-भर गौरा सोचती
–
न जाने वह कैसे हो गये होंगे
?
अब तो मूछें अच्छी तरह निकल आयी होंगी। परदेश में आदमी सुख से रहता है। देह
भर आयी होगी। बाबू साहब हो गये होंगे। मैं पहले दो-तीन दिन उनसे बोलूंगी
नहीं। फिर पूछूंगी-तुम मुझे छोड़कर क्यों चले गये?
अगर किसी ने मेरे बारें में कुछ बुरा-भला कहा ही था,
तो तुमने उसका विश्वास क्यों कर लिया?
तुम अपनी आंखों से न देखकर दूसरों के कहने पर क्यों गये?
मैं भली हूं या बूरी हूं,
हूं तो तुम्हारी,
तुमने मुझे इतने दिनों रुलाया क्यो?
तुम्हारे बारे में अगर इसी तरह कोई मुझसे कहता,
तो क्या मैं तुमको छोड़ देती?
जब तुमने मेरी बांह पकड़ ली,
तो तुम मेरे हो गये। फिर तुममें लाख एब हों,
मेरी बला से। चाहे तुम तुर्क ही क्यों न हो जाओ,
मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकती। तुम क्यों मुझे छोड़कर भागे?
क्या समझते थे,
भागना सहज है?
आखिर झख मारकर बुलाया कि नहीं?
कैसे न बुलाते?
मैंने तो तुम्हारे ऊपर दया की,
कि चली आयी,
नहीं तो कह देती कि मैं ऐसे निर्दयी के पास नहीं जाती,
तो तुम आप दौड़े आते। तप करने से देवता भी मिल जाते हैं,
आकर सामने खड़े हो जाते हैं,
तुम कैसे न आते?
वह धरती बार-बार उद्विग्न हो-होकर बूढ़े ब्राह्मण से पूछती,
अब कितनी दूर है?
धरती के छोर पर रहते हैं क्या?
और भी कितनी ही बातें वह पूछना चाहती थी,
लेकिन संकोच-वश न पूछ सकती थी। मन-ही-मन अनुमान करके अपने को सन्तुष्ट कर
लेती थी। उनका मकान बड़ा-सा होगा,
शहर में
लोग पक्के घरों में रहते हैं। जब उनका साहब इतना मानता है,
तो नौकर भी होगा। मैं नौकर को भगा दूंगी। मैं दिन-भर पड़े–पड़े
क्या किया करूंगी?
बीच-बीच में उसे घर की याद भी आ जाती थी। बेचारी अम्मा रोती होंगी। अब
उन्हें घर का सारा काम आप ही करना पड़ेगा। न जाने बकरियों को चराने ले जाती
है। या नहीं। बेचारी दिन-भर में-में करती होंगी। मैं अपनी बकरियों के लिए
महीने-महीने रुपये भेजूंगी। जब कलकत्ता से लौटूंगी तब सबके लिए साड़ियां
लाऊंगी। तब मैं इस तरह थोड़े लौटूंगी। मेरे साथ बहुत-सा असबाब होगा। सबके
लिए कोई-न-कोई सौगात लाऊंगी। तब तक तो बहुत-सी बकरियां हो जायेंगी।
यही सुख स्वप्न देखते-देखते गौरा ने सारा रास्ता काट दिया। पगली क्या जानती
थी कि मेरे मान कुछ और कर्त्ता के मन कुछ और। क्या जानती थी कि बूढ़े
ब्राह्मणों के भेष में पिशाच होते हैं। मन की मिठाई खाने में मग्न थी।
५
ती
सरे दिन गाड़ी कलकत्ता पहुंची। गौरा की छाती धड़-धड़ करने लगी। वह
यहीं-कहीं खड़े होंगें। अब आते हीं होंगे। यह सोचकर उसने घूंघट निकाल लिया
और संभल बैठी। मगर मगरु वहां न दिखाई दिया। बूढ़ा ब्राह्मण बोला-मंगरु तो
यहां नहीं दिखाई देता,
मैं चारों ओर छान आया। शायद किसी काम में लग गया होगा,
आने की छुट्टी न मिली होगी,
मालूम भी तो न था कि हम लोग किसी गाड़ी से आ रहे हैं। उनकी राह क्यों देखें,
चलो,
डेरे पर चलें।
दोनों गाड़ी पर बैठकर चले। गौरा कभी तांगे पर सवार न हुई थी। उसे गर्व हो
रहा था कि कितने ही बाबू लोग पैदल जा रहे हैं,
मैं तांगे पर बैठी हूं।
एक क्षण में गाड़ी मंगरु के डेरे पर पहुंच गयी। एक विशाल भवन था,
आहाता साफ-सुथरा,
सायबान में फूलों के गमले रखे हुए थे। ऊपर चढ़ने लगी,
विस्मय,
आनन्द और आशा से। उसे अपनी सुधि ही न थी। सीढ़ियों पर चढ़ते–चढ़ते
पैर दुखने लगे। यह सारा महल उनका है। किराया बहुत देना पड़ता होगा। रुपये
को तो वह कुछ समझते ही नहीं। उसका हृदय धड़क रहा था कि कहीं मंगरु ऊपर से
उतरते आ न रहें हों सीढ़ी पर भेंट हो गयी,
तो मैं क्या करुंगी?
भगवान करे वह पड़े सोते रहे हों,
तब मैं जगाऊं और वह मुझे देखते ही हड़बड़ा कर उठ बैठें। आखिर सीढ़ियों का
अन्त हुआ। ऊपर एक कमरें में गौरा को ले जाकर ब्राह्मण देवता ने बैठा दिया।
यही मंगरु का डेरा था। मगर मंगरु यहां भी नदारद! कोठरी में केवल एक खाट
पड़ी हुई थी। एक किनारे दो-चार बरतन रखे हुए थे। यही उनकी कोठरी है। तो
मकान किसी दूसरे का है,
उन्होंने यह कोठरी किराये पर ली होगी। मालूम होता है,
रात को बाजार में पूरियां खाकर सो रहे होंगे। यही उनके सोने की खाट है। एक
किनारे घड़ा रखा हुआ था। गौरा को मारे प्यास के तालू सूख रहा था। घड़े से
पानी उड़ेल कर पिया। एक किनारे पर एक झाडू रखा था। गौरा रास्ते की थकी थी,
पर प्रेम्मोल्लास में थकन कहां?
उसने कोठरी में झाडू लगाया,
बरतनों को धो-धोकर एक जगह रखा। कोठरी की एक-एक वस्तु यहां तक कि उसकी फर्श
और दीवारों में उसे आत्मीयता की झलक दिखायी देती थी। उस घर में भी,
जहां उसे अपने जीवन के २५ वर्ष काटे थे,
उसे अधिकार का ऐसा गौरव-युक्त आनन्द न प्राप्त हुआ था।
मगर उस कोठरी में बैठे-बैठे उसे संध्या हो गयी और मंगरु का कहीं पता नहीं।
अब छुट्टी मिली होगी। सांझ को सब जगह छुट्टी होती है। अब वह आ रहे होंगे।
मगर बूढ़े बाबा ने उनसे कह तो दिया ही होगा,
वह क्या अपने साहब से थोड़ी देर की छुट्टी न ले सकते थे?
कोई बात होगी,
तभी तो नहीं आये।
अंधेरा हो गया। कोठरी में दीपक न था। गौरा द्वार पर खड़ी पति की बाट देख
रहीं थी। जाने पर बहुत-से आदमियों के चढ़ते-उतरने की आहट मिलती थी,
बार-बार गौरा को मालूम होता था कि वह आ रहे हैं,
पर इधर कोई नहीं आता था।
नौ बजे बूढ़े बाबा आये। गौरी ने समझा,
मंगरु है। झटपट कोठरी के बाहर निकल आयी। देखा तो ब्राह्मण! बोली-वह कहां रह
गये?
बूढ़ा–उनकी
तो यहां से बदली हो गयी। दफ्तर में गया था तो मालूम हुआ कि वह अपने साहब के
साथ यहां से कोई आठ दिन की राह पर चले गये। उन्होंने साहब से बहुत हाथ-पैर
जोड़े कि मुझे दस दिन की मुहलत दे दीजिए,
लेकिन साहब ने एक न मानी। मंगरु यहां लोगों से कह गये हैं कि घर के लोग
आयें तो मेरे पास भेज देना। अपना पता दे गये हैं। कल मैं तुम्हें यहां से
जहाज पर बैठा दूंगा। उस जहाज पर हमारे देश के और भी बहुत से होंगे,
इसलिए मार्ग में कोई कष्ट न होगा।
गौरा ने पूछा- कै दिन में जहाज पहुंचेगा?
बूढ़ा- आठ-दस दिन से कम न लगेंगे,
मगर घबराने की कोई बात नहीं। तुम्हें किसी बात की तकलीफ न होगी।
६
अब तक गौरा को अपने गांव लौटने की आशा थी। कभी-न-कभी वह अपने पति को वहां
अवश्य खींच ले जायेगी। लेकिन जहाज पर बैठाकर उसे ऐसा मालूम हुआ कि अब फिर
माता को न देखूंगी,
फिर गांव के दर्शन न होंगे,
देश से सदा के लिए नाता टूट रहा है। देर तक घाट पर खड़ी रोती रही,
जहाज और समुद्र देखकर उसे भय हो रहा था। हृदय दहल जाता था।
शाम को जहाज खुला। उस समय गौरा का हृदय एक अक्षय भय से चंचल हो उठा। थोड़ी
देर के लिए नैराश्य न उस पर अपना आतंक जमा लिया। न-जाने किस देश जा रही हूं,
उनसे भेंट भी होगी या नहीं। उन्हें कहां खोजती फिरुंगी,
कोई पता-ठिकाना भी तो नहीं मालूम। बार-बार पछताती थी कि एक दिन पहिले क्यों
न चली आयी। कलकत्ता में भेंट हो जाती तो मैं उन्हें वहां कभी न जाने देती।
जहाज पर और कितने ही मुसाफिर थे,
कुछ स्त्रियां भी थीं। उनमें बराबर गाली-गलौज होती रहती थी। इसलिए गौरा को
उनसें बातें करने की इच्छा न होती थी। केवल एक स्त्री उदास दिखाई देती थी।
गौरा ने उससे पूछा-तुम कहां जाती हो बहन?
उस स्त्री की बड़ी-बड़ी आंखे सजल हो गयीं। बोलीं,
कहां बताऊं बहन कहां जा रहीं हूं?
जहां भाग्य लिये जाता है,
वहीं जा रहीं हूं। तुम कहां जाती हो?
गौरा- मैं तो अपने मालिक के पास जा रही हूं। जहां यह जहाज रुकेगा। वह वहीं
नौकर हैं। मैं कल आ जाती तो उनसे कलकत्ता में ही भेंट हो जाती। आने में देर
हो गयी। क्या जानती थी कि वह इतनी दूर चले जायेंगे,
नहीं तो क्यों देर करती!
स्त्री
–
अरे बहन,
कहीं तुम्हें भी तो कोई बहकाकर नहीं लाया है?
तुम घर से किसके साथ आयी हो?
गौरा
–
मेरे आदमी ने कलकत्ता से आदमी भेजकार मुझे बुलाया था।
स्त्री
–
वह आदमी तुम्हारा जान–पहचान
का था?
गौरा- नहीं,
उस तरफ का एक बूढ़ा ब्राह्मण था।
स्त्री
–
वही लम्बा-सा,
दुबला-पतला लकलक बूढ़ा,
जिसकी एक ऑंख में फूली पड़ी हुई है।
गौरा
–
हां,
हां,
वही। क्या तुम उसे जानती हो?
स्त्री
–
उसी दुष्ट ने तो मेरा भी सर्वनाश किया। ईश्वर करे,
उसकी सातों पुश्तें नरक भोगें,
उसका निर्वश हो जाये,
कोई पानी देनेवाला भी न रहे,
कोढ़ी होकर मरे। मैं अपना वृतान्त सुनाऊं तो तुम समझेगी कि झूठ है। किसी को
विश्वास न आयगा। क्या कहूं,
बस सही समझ लो कि इसके कारण मैं न घर की रह गयी,
न घाट की। किसी को मुंह नहीं दिखा सकती। मगर जान तो बड़ी प्यार होती है।
मिरिच के देश जा रही हूं कि वहीं मेहनत-मजदूरी करके जीवन के दिन काटूं।
गौरा के प्राण नहीं में समा गये। मालूम हुआ जहाज अथाह जल में डूबा जा रहा
है। समझ गयी बूढ़े ब्राह्मण ने दगा की। अपने गांव में सुना करती थी कि गरीब
लोग मिरिच में भरती होने के लिए जाया करते हैं। मगर जो वहां जाता है,
वह फिर नहीं लौटता। हे,
भगवान् तुमने मुझे किस पाप का यह दण्ड दिया?
बोली- यह सब क्यों लोगों को इस तरह छलकर मिरिच भेजते हैं?
स्त्री- रुपये के लोभ से और किसलिए?
सुनती हूं,
आदमी पीछे इन सभी को कुछ रुपये मिलते हैं।
गौरा
–
मजूरी
गौरा सोचने लगी
–
अब क्या करुं?
यह आशा
–नौका
जिस पर बैठी हुई वह चली जा रही थी,
टुट गयी थी और अब समुद्र की लहरों के सिवा उसकी रक्षा करने वाला कोई न था।
जिस आधार पर उसने अपना जीवन-भवन बनाया था,
वह जलमग्न हो गया। अब उसके लिए जल के सिवा और कहां आश्रय है?
उसकी अपनी माता की,
अपने घर की अपने गांव की,
सहेलियों की याद आती और ऐसी घोर मर्म वेदना होने लगी,
मानो कोई सर्प अन्तस्तल में बैठा हुआ,
बार-बार डस रहा हो। भगवान! अगर मुझे यही यातना देनी थी तो तुमने जन्म ही
क्यों दिया था?
तुम्हें दुखिया पर दया नहीं आती?
जो पिसे हुए हैं उन्हीं को पीसते हो! करुण स्वर से बोली
–
तो अब क्या करना होगा बहन?
स्त्री
–
यह तो वहां पहुंच कर मालूम होगा। अगर मजूरी ही करनी पड़ी तो कोई बात नहीं,
लेकिन अगर किसी ने कुदृष्टि से देखा तो मैंने निश्चय कर लिया है कि या तो
उसी के प्राण ले लूंगी या अपने प्राण दे दूंगी।
यह कहते-कहते उसे अपना वृतान्त सुनाने की वह उत्कट इच्छा हुई,
जो दुखियों को हुआ करती है। बोली
–
मैं बड़े घर की बेटी और उससे भी बड़े घर की बहूं हूं,
पर अभागिनी ! विवाह के तीसरे ही साल पतिदेव का देहान्त हो गया। चित्त की
कुछ ऐसी दशा हो गयी कि नित्य मालूम होता कि वह मुझे बुला रहे हैं। पहले तो
ऑंख झपकते ही उनकी मूर्ति सामने आ जाती थी,
लेकिन फिर तो यह दशा हो गयी कि जाग्रत दशा में भी रह-रह कर उनके दर्शन होने
लगे। बस यही जान पड़ता था कि वह साक्षात् खड़े बुला रहे हैं। किसी से शर्म
के मारे कहती न थी,
पर मन में यह शंका होती थी कि जब उनका देहावसान हो गया है तो वह मुझे दिखाई
कैसे देते हैं?
मैं इसे भ्रान्ति समझकर चित्त को शान्त न कर सकती। मन कहता था,
जो वस्तु प्रत्यक्ष दिखायी देती है,
वह मिल क्यों नहीं सकती?
केवल वह ज्ञान चाहिए। साधु-महात्माओं को सिवा ज्ञान और कौन दे सकता है?
मेरा तो अब भी विश्वास है कि अभी ऐसी क्रियाएं हैं,
जिनसे हम मरे हुए प्राणियों से बातचीत कर सकते हैं,
उनको स्थूल रुप में देख सकते हैं। महात्माओं की खोज में रहने लगी। मेरे
यहां अक्सर साधु-सन्त आते थे,
उनसे एकान्त में इस विषय में बातें किया करती थी,
पर वे लोग सदुपदेश देकर मुझे टाल देते थे। मुझे सदुपदेशों की जरुरत न थी।
मैं वैधव्य-धर्म खूब जानती थी। मैं तो वह ज्ञान चाहती थी जो जीवन और मरण के
बीच का परदा उठा दे। तीन साल तक मैं इसी खेल में लगी रही। दो महीने होते
हैं,
वही बूढ़ा ब्राह्मण संन्यासी बना हुआ मेरे यहां जा पहुंचा। मैंने इससे वही
भिक्षा मांगी। इस धूर्त ने कुछ ऐसा मायाजाल फैलाया कि मैं आंखे रहते हुए भी
फंस गयी। अब सोचती हूं तो अपने ऊपर आश्चर्य होता है कि मुझे उसकी बातों पर
इतना विश्वास क्यों हुआ?
मैं पति-दर्शन के लिए सब कुछ झेलने को,
सब कुछ करने को तैयार थी। इसने रात को अपने पास बुलाया। मैं घरवालों से
पड़ोसिन के घर जाने का बहाना करके इसके पास गयी। एक पीपल से इसकी धूईं जल
रही थी। उस विमल चांदनी में यह जटाधारी ज्ञान और योग का देवता-सा मालूम
होता था। मैं आकर धूईं के पास खड़ी हो गयी। उस समय यदि बाबाजी मुझे आग में
कुद पड़ने की आज्ञा देते,
तो मैं तुरन्त कूद पड़ती। इसने मुझे बड़े प्रेम से बैठाया और मेरे सिर पर
हाथ रखकर न जाने क्या कर दिया कि मैं बेसुध हो गयी। फिर मुझे कुछ नहीं
मालूम कि मैं कहां गयी,
क्या हुआ?
जब मुझे होश आया तो मैं रेल पर सवार थी। जी में आया कि चिल्लाऊं,
पर यह सोचकर कि अब गाड़ी रुक भी गयी और मैं उतर भी पड़ी तो घर में घुसने न
पाऊंगी,
मैं चुपचाप बैठी रह गई। मैं परमात्मा की दृष्टि से निर्दोष थी,
पर संसार की दृष्टि में कलंकित हो चुकी थी। रात को किसी युवती का घर से
निकल जाना कलंकित करने के लिए काफी था। जब मुझे मालूम हो गया कि सब मुझे
टापू में भेज रहें हैं तो मैंने जरा भी आपत्ति नहीं की। मेरे लिए अब सारा
संसार एक-सा है। जिसका संसार में कोई न हो,
उसके लिए देश-परदेश दोनों बराबर है। हां,
यह पक्का निश्चय कर चूकी हूं कि मरते दम तक अपने सत की रक्षा करुंगी। विधि
के हाथ में मृत्यु से बढ़ कर कोई यातना नहीं। विधवा के लिए मृत्यु का क्या
भय। उसका तो जीना और मरना दोनों बराबर हैं। बल्कि मर जाने से जीवन की
विपत्तियों का तो अन्त हो जाएगा।
गौरा ने सोचा
–
इस स्त्री में कितना धैर्य और साहस है। फिर मैं क्यों इतनी कातर और निराश
हो रही हूं?
जब जीवन की अभिलाषाओं का अन्त हो गया तो जीवन के अन्त का क्या डर?
बोली- बहन,
हम और तुम एक जगह रहेंगी। मुझे तो अब तुम्हारा ही भरोसा है।
स्त्री ने कहा- भगवान का भरोसा रखो और मरने से मत डरो।
सघन अन्धकार छाया हुआ था। ऊपर काला आकाश था,
नीचे काला जल। गौरा आकाश की ओर ताक रही थी। उसकी संगिनी जल की ओर। उसके
सामने आकाश के कुसुम थे,
इसके चारों ओर अनन्त,
अखण्ड,
अपार अन्धकार था।
जहाज से उतरते ही एक आदमी ने यात्रियों के नाम लिखने शुरु किये। इसका
पहनावा तो अंग्रेजी था,
पर बातचीत से हिन्दुस्तानी मालूम होता था। गौरा सिर झुकाये अपनी संगिनी के
पीछे खड़ी थी। उस आदमी की आवाज सुनकर वह चौंक पड़ी। उसने दबी आंखों से उसको
ओर देखा। उसके समस्त शरीर में सनसनी दौड़ गयी। क्या स्वप्न तो नहीं देख रही
हूं। आंखों पर विश्वास न आया,
फिर उस पर निगाह डाली। उसकी छाती वेग से धड़कने लगी। पैर थर-थर कांपने लगे।
ऐसा मालूम होने लगा,
मानो चारों ओर जल-ही-जल है और उसमें और उसमें बही जा रही हूं। उसने अपनी
संगिनी का हाथ पकड़ लिया,
नहीं तो जमीन में गिर पड़ती। उसके सम्मुख वहीं पुरुष खड़ा था,
जो उसका प्राणधार था और जिससे इस जीवन में भेंट होने की उसे लेशमात्र भी
आशा न थी। यह मंगरु था,
इसमें जरा भी सन्देह न था। हां उसकी सूरत बदल गयी थी। यौवन-काल का वह
कान्तिमय साहस,
सदय छवि,
नाम को भी न थी। बाल खिचड़ी हो गये थे,
गाल पिचके हुए,
लाल आंखों से कुवासना और कठोरता झलक रही थी। पर था वह मंगरु। गौरा के जी
में प्रबल इच्छा हुई कि स्वामी के पैरों से लिपट जाऊं। चिल्लाने का जी चाहा,
पर संकोच ने मन को रोका। बूढ़े ब्राह्मण ने बहुत ठीक कहा था। स्वामी ने
अवश्य मुझे बुलाया था और आने से पहले यहां चले आये। उसने अपनी संगिनी के
कान में कहा
–
बहन,
तुम उस ब्राह्मण को व्यर्थ ही बुरा कह रहीं थीं। यही तो वह हैं जो
यात्रियों के नाम लिख रहे हैं।
स्त्री
–
सच,
खूब पहचानी हो?
गौरा
–
बहन,
क्या इसमें भी हो सकता है?
स्त्री
–
तब तो तुम्हारे भाग जग गये,
मेरी भी सुधि लेना।
गौरा
–
भला,
बहन ऐसा भी हो सकता है कि यहां तुम्हें छोड़ दूं?
मंगरु यात्रियों से बात-बात पर बिगड़ता था,
बात-बात पर गालियां देता था,
कई आदमियों को ठोकर मारे और कई को केवल गांव का जिला न बता सकने के कारण
धक्का देकर गिरा दिया। गौरा मन-ही-मन गड़ी जाती थी। साथ ही अपने स्वामी के
अधिकार पर उसे गर्व भी हो रहा था। आखिर मंगरु उसके सामने आकर खड़ा हो गया
और कुचेष्टा-पूर्ण नेत्रों से देखकर बोला
–तुम्हारा
क्या नाम है?
गौरा ने कहा—गौरा।
मगरू चौंक पड़ा,
फिर बोला
–
घर कहां है?
मदनपुर,
जिला बनारस।
यह कहते-कहते हंसी आ गयी। मंगरु ने अबकी उसकी ओर ध्यान से देखा,
तब लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोला
–गौरा!
तुम यहां कहां?
मुझे पहचानती हो?
गौरा रो रही थी,
मुहसे बात न निकलती।
मंगरु फिर बोला—तुम
यहां कैसे आयीं?
गौरा खड़ी हो गयी,
आंसू पोंछ डाले और मंगरु की ओर देखकर बोली
–
तुम्हीं ने तो बुला भेजा था।
मंगरु
–मैंने
! मैं तो सात साल से यहां हूं।
गौरा
–तुमने
उसे बूढ़े ब्राह्मण से मुझे लाने को नहीं कहा था?
मंगरु
–
कह तो रहा हूं,
मैं सात साल से यहां हूं। मरने पर ही यहां से जाऊंगा। भला,
तुम्हें क्यों बुलाता?
गौरा को मंगरु से इस निष्ठुरता का आशा न थी। उसने सोचा,
अगर यह सत्य भी हो कि इन्होंने मुझे नहीं बुलाया,
तो भी इन्हें मेरा यों अपमान न करना चाहिए था। क्या वह समझते हैं कि मैं
इनकी रोटियों पर आयी हूं?
यह तो इतने ओछे स्वभाव के न थे। शायद दरजा पाकर इन्हें मद हो गया है।
नारीसुलभ अभिमान से गरदन उठाकर उसने कहा- तुम्हारी इच्छा हो,
तो अब यहां से लौट जाऊं,
तुम्हारे ऊपर भार बनना नहीं चाहती?
मंगरु कुछ लज्जित होकर बोला
–
अब तुम यहां से लौट नहीं सकतीं गौरा ! यहां आकर बिरला ही कोई लौटता है।
यह कहकर वह कुछ देर चिन्ता में मग्न खड़ा रहा,
मानो संकट में पड़ा हुआ हो कि क्या करना चाहिए। उसकी कठोर मुखाकृति पर
दीनता का रंग झलक पड़ा। तब कातर स्वर से बोला
–जब
आ ही गयी हो तो रहो। जैसी कुछ पड़ेगी,
देखी जायेगी।
गौरा
–
जहाज फिर कब लौटेगा।
मंगरु
–
तुम यहां से पांच बरस के पहले नहीं जा सकती।
गौरा
–क्यों,
क्या कुछ जबरदस्ती है?
मंगरु
–
हां,
यहां का यही हुक्म है।
गौरा
–
तो फिर मैं अलग मजूरी करके अपना पेट पालूंगी।
मंगरु ने सजल-नेत्र होकर कहा—जब
तक मैं जीता हूं,
तुम मुझसे अलग नहीं रह सकतीं।
गौरा- तुम्हारे ऊपर भार बनकर न रहूंगी।
मंगरु
–
मैं तुम्हें भार नहीं समझता गौरा,
लेकिन यह जगह तुम-जैसी देवियों के रहने लायक नहीं है,
नहीं तो अब तक मैंने तुम्हें कब का बुला लिया होता। वहीं बूढ़ा आदमी जिसने
तुम्हें बहकाया,
मुझे घर से आते समय पटने में मिल गया और झांसे देकर मुझे यहां भरती कर
दिया। तब से यहीं पड़ा हुआ हूं। चलो,
मेरे घर में रहो,
वहां बातें होंगी। यह दूसरी औरत कौन है?
गौरा
–
यह मेरी सखी है। इन्हें भी बूढ़ा बहका लाया।
मंगरु -यह तो किसी कोठी में जायेंगी?
इन सब आदमियों की बांट होगी। जिसके हिस्से में जितने आदमी आयेंगे,
उतने हर एक कोठी में भेजे जायेंगे।
गौरा
–
यह तो मेरे साथ रहना चाहती हैं।
मंगरु
–
अच्छी बात है इन्हें भी लेती चलो।
यत्रियों रके नाम तो लिखे ही जा चुके थे,
मंगरु ने उन्हें एक चपरासी को सौंपकर दोंनों औरतों के साथ घर की राह ली।
दोनों ओर सघन वृक्षों की कतारें थी। जहां तक निगाह जाती थी,
ऊख-ही-ऊख दिखायी देती थी। समुद्र की ओर से शीतल,
निर्मल वायु के झोंके आ रहे थे। अत्यन्त सुरम्य दृश्य था। पर मंगरु की
निगाह उस ओर न थी। वह भूमि की ओर ताकता,
सिर झुकाये,
सन्दिग्ध चवाल से चला जा रहा था,
मानो मन-ही-मन कोई समस्या हल कर रहा था।
थोड़ी ही दूर गये थे कि सामने से दो आदमी आते हुए दिखाई दिये। समीप आकर
दानों रुक गये और एक ने हंसकर कहा
–मंगरु,
इनमें से एक हमारी है।
दूसरा बोला- और दूसरा मेरी।
मंगरु का चेहरा तमतमा उठा था। भीषण क्रोध से कांपता हुआ बोला- यह दोनों
मेरे घर की औरतें है। समझ गये?
इन दोनों ने जोर से कहकहा मारा और एक ने गौरा के समीप आकर उसका हाथ पकड़ने
की चेष्टा करके कहा- यह मेरी हैं चाहे तुम्हारे घर की हो,
चाहे बाहर की। बचा,
हमें चकमा देते हो।
मंगरु
–
कासिम,
इन्हें मत छेड़ो,
नहीं तो अच्छा न होगा। मैंने कह दिया,
मेरे घर की औरतें हैं।
मंगरी की आंखों से अग्नि की ज्वाला-सी निकल रही थी। वह दानों के उसके मुख
का भाव देखकर कुछ सहम गये और समझ लेने की धमकी देकर आगे बढ़े। किन्तु मंगरु
के अधिकार-क्षेत्र से बाहर पहुंचते ही एक ने पीछे से ललकार कर कहा- देखें
कहां ले के जाते हो?
मंगरू ने उधर ध्यान नहीं दिया। जरा कदम बढ़ाकर चलने लगा,
जेसे सन्ध्या के एकान्त में हम कब्रिस्तान के पास से गुजरते हैं,
हमें पग-पग पर यह शंका होती है कि कोई शब्द कान में न पड़ जाय,
कोई सामने आकर खड़ा न हो जाय,
कोई जमीन के नीचे से कफन ओढ़े उठ न खड़ा हो।
गौरा ने कहा—ये
दानों बड़े शोहदे थे।
मंगरु
–
और मैं किसलिए कह रहा था कि यह जगह तुम-जैसी स्त्रियों के रहने लायक नहीं
है।
सहसा दाहिनी तरफ से एक अंग्रेज घोड़ा दौड़ाता आ पहुंचा और मंगरु से बोला-
वेल जमादार,
ये दोनों औरतें हमारी कोठी में रहेगा। हमारे कोठी में कोई औरत नहीं है।
मंगरु ने दोनों औरतों को अपने पीछे कर लिया और सामने खड़ा होकर बोला--साहब,
ये दोनों हमारे घर की औरतें हैं।
साहब- ओ हो ! तुम झूठा आदमी। हमारे कोठी में कोई औरत नहीं और तुम दो ले
जाएगा। ऐसा नहीं हो सकता। ( गौरा की ओर इशारा करके) इसको हमारी कोठी पर
पहुंचा दो।
मंगरु ने सिर से पैर तक कांपते हुए कहा- ऐसा नहीं हो सकता।
मगर साहब आगे बढ़ गया था,
उसके कान में बात न पहुंची। उसने हुक्म दे दिया था और उसकी तामील करना
जमादार का काम था।
शेष मार्ग निर्विघ्न समाप्त हुआ। आगे मजूरों के रहने के मिट्ठी के घर थे।
द्वारों पर स्त्री-पुरुष जहां-तहां बैठे हुए थे। सभी इन दोनों स्त्रियों की
ओर घूरते थे और आपस में इशारे करते हंसते थे। गौरा ने देखा,
उनमें छोटे-बड़े का लिहाज नहीं है,
न किसी के आंखों में शर्म है।
एक भदैसले और ने हाथ पर चिलम पीते हुए अपनी पडोसिन से कहा- चार दिन की
चांदनी,
फिर अंधेरी पाख !
दूसरी अपनी चोटी गूंथती हुई बोली
–
कलोर हैं न।
८
मंगरु दिन-भर द्वार पर बैठा रहा,
मानो कोई किसान अपने मटर के खेत की रखवाली कर रहा हो। कोठरी में दोनों
स्त्रियां बैठी अपने नसीबों को रही थी। इतनी देर में दोनों को यहां की दशा
का परिचय कराया गया था। दोनों भूखी-प्यासी बैठी थीं। यहां का रंग देखकर भूख
प्यास सब भाग गई थी।
रात के दस बजे होंगे कि एक सिपाही ने आकर मंगरु से कहा- चलो,
तुम्हें जण्ट साहब बुला रहे हैं।
मंगरु ने बैठे-बैठे कहा
–
देखो नब्बी,
तुम भी हमारे देश के आदमी हो। कोई मौका पड़े,
तो हमारी मदद करोगे न?
जाकर साहब से कह दो,
मंगरु कहीं गया है,
बहुत होगा जुरमाना कर देंगे।
नब्बी
–
न भैया,
गुस्से में भरा बैठा है,
पिये हुए हैं,
कहीं मार चले,
तो बस,
चमड़ा इतना मजबूत नहीं है।
मंगरु
–
अच्छा तो जाकर कह दो,
नहीं आता।
नब्बी- मुझे क्या,
जाकर कह दूंगा। पर तुम्हारी खैरियत नहीं है के बंगले पर चला। यही वही साहब
थे,
जिनसे आज मंगरु की भेंट हुई थी। मंगरु जानता था कि साहब से बिगाड़ करके
यहां एक क्षण भी निर्वाह नहीं हो सकता। जाकर साहब के सामने खड़ा हो गया।
साहब ने दूर से ही डांटा,
वह औरत कहां है?
तुमने उसे अपने घर में क्यों रखा है?
मंगरु
–
हजूर,
वह मेरी ब्याहता औरत है।
साहब
–
अच्छा,
वह दूसरा कौन है?
मंगरु
–
वह मेरी सगी बहन है हजूर !
साहब
–
हम कुछ नहीं जानता। तुमको लाना पड़ेगा। दो में से कोई,
दो में से कोई।
मंगरु पैरों पर गिर पड़ा और रो-रोकर अपनी सारी राम कहानी सुना गया। पर साहब
जरा भी न पसीजे! अन्त में वह बोला
–
हुजूर,
वह दूसरी औरतों की तरह नहीं है। अगर यहां आ भी गयी,
तो प्राण दे देंगी।
साहब ने हंसकर कहा
–
ओ ! जान देना इतना आसान नहीं है !
नब्बी
–
मंगरु अपनी दांव रोते क्यों हो?
तुम हमारे घर नहीं घुसते थे! अब भी जब घात पाते हो,
जा पहुंचते हो। अब क्यों रोते हो?
एजेण्ट
–
ओ,
यह बदमाश है। अभी जाकर लाओ,
नहीं तो हम तुमको हण्टरों से पीटेगा।
मंगरु
–
हुजूर जितना चाहे पीट लें,
मगर मुझसे यह काम करने को न कहें,
जो मैं जीते
–जी
नहीं कर सकता !
एजेण्ट- हम एक सौ हण्टर मारेगा।
मंगरु
–
हुजूर एक हजार हण्टर मार लें,
लेकिन मेरे घर की औरतों से न बोंले।
एजेण्ट नशे में चूर था। हण्टर लेकर मंगरु पर पिल पड़ा और लगा सड़ासड़
जमाने। दस बाहर कोड़े मंगरु ने धैर्य के साथ सहे,
फिर हाय-हाय करने लगा। देह की खाल फट गई थी और मांस पर चाबुक पड़ता था,
तो बहुत जब्त करने पर भी कण्ठ से आर्त्त-ध्वनि निकल आती थी टौर अभी एक सौं
में कुछ पन्द्रह चाबुक पड़े थें।
रात के दस बज गये थे। चारों ओर सन्नाटा छाया था और उस नीरव अंधकार में
मंगरु का करुण-विलाप किसी पक्ष की भांति आकाश में मुंडला रहा था। वृक्षों
के समूह भी हतबुद्धि से खड़े मौन रोन की मूर्ति बने हुए थे। यह पाषाणहृदय
लम्पट,
विवेक शून्य जमादार इस समय एक अपरिचित स्त्री के सतीत्व की रक्षा करने के
लिए अपने प्राण तक देने को तैयार था,
केवल इस नाते कि यह उसकी पत्नी की संगिनी थी। वह समस्त संसार की नजरों में
गिरना गंवारा कर सकता था,
पर अपनी पत्नी की भक्ति पर अखंड राज्य करना चाहता था। इसमें अणुमात्र की
कमी भी उसके लिए असह्य थी। उस अलौकिक भक्ति के सामने उसके जीवन का क्या
मूल्य था?
ब्राह्मणी तो जमीन पर ही सो गयी थी,
पर गौरा बैठी पति की बाट जोह रही थी। अभी तक वह उससे कोई बात नहीं कर सकी
थी। सात वर्षों की विपत्ति–कथा
कहने और सुनने के लिए बहुत समय की जरुरत थी और रात के सिवा वह समय फिर कब
मिल सकता था। उसे ब्राह्मणी पर कुछ क्रोध-सा आ रहा था कि यह क्यों मेरे गले
का हार हुई?
इसी के कारण तो वह घर में नहीं आ रहे हैं।
यकायक वह किसी का रोना सुनकर चौंक पड़ी। भगवान्,
इतनी रात गये कौन दु:ख का मारा रो रहा है। अवश्य कोई कहीं मर गया है। वह
उठकर द्वार पर आयी और यह अनुमान करके कि मंगरु यहां बैठा हुआ है,
बोली
–
वह कौन रो रहा है ! जरा देखो तो।
लेकिन जब कोई जवाब न मिला,
तो वह स्वयं कान लगाकर सुनने लगी। सहसा उसका कलेजा धक् से हो गया। तो यह
उन्हीं की आवाज है। अब आवाज साफ सुनायी दे रही थी। मंगरु की आवाज थी। वह
द्वार के बाहर निकल आयी। उसके सामने एक गोली के अम्पें पर एजेंट का बंगला
था। उसी तरफ से आवाज आ रही थी। कोई उन्हें मार रहा है। आदमी मार पड़ने पर
ही इस तरह रोता है। मालूम होता है,
वही साहब उन्हें मार रहा है। वह वहां खड़ी न रह सकी,
पूरी शक्ति से उस बंगले की ओर दौड़ी,
रास्ता साफ था। एक क्षण में वह फाटक पर पहुंच गयी। फाटक बंद था। उसने जोर
से फाटक पर धक्का दिया,
लेकिन वह फाटक न खुला और कई बार जोर-जोर से पुकारने पर भी कोई बाहर न निकला,
तो वह फाटक के जंगलों पर पैर रखकर भीतर कूद पड़ी और उस पार जाते हीं उसने
एक रोमांचकारी दृश्य देखा। मंगरु नंगे बदन बरामदे में खड़ा था और एक
अंग्रेज उसे हण्टरों से मार रहा था। गौरा की आंखों के सामने अंधेरा छा गया।
वह एक छलांग में साहब के सामने जाकर खड़ी हो गई और मंगरु को अपने अक्षय-
प्रेम-सबल हाथों से ढांककर बोली
–सरकार,
दया करो,
इनके बदले मुझे जितना मार लो,
पर इनको छोड़ दो।
एजेंट ने हाथ रोक लिया और उन्मत्त की भांति गौरा
की ओर कई कदम आकर बोला- हम इसको छोड़ दें,
तो तुम मेरे पास रहेगा।
मंगरु के नथने फड़कने लगे। यह पामर,
नीच,
अंग्रेज मेरी पत्नी से इस तरह की बातें कर रहा है। अब तक वह जिस अमूल्य
रत्न की रक्षा के लिए इतनी यातनांए सह रहा था,
वही वस्तु साहब के हाथ में चली जा रही है,
यह असह्य था। उसने चाहा कि लपककर साहब की गर्दन
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