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दिल्ली का खजाना लुट रहा है। शाही महल पर पहरा है। कोई अंदर से बाहर
या बाहर से अंदर आ-जा नहीं सकता। बेगमें भी अपने महलों से बाहर बाग
में निकलने की हिम्मत नहीं कर सकतीं। महज खजाने पर ही आफत नहीं आयी
हुई है, सोने-चाँदी के बरतनों, बेशकीमत तसवीरों और आराइश की अन्य
सामग्रियों पर भी हाथ साफ किया जा रहा है। नादिरशाह तख्त पर बैठा हुआ
हीरे और जवाहरात के ढेरों को गौर से देख रहा है; पर वह चीज नजर नहीं
आती, जिसके लिए मुद्दत से उसका चित्त लालायित हो रहा था। उसने
मुगलेआजम नाम के हीरे की प्रशंसा, उसकी करामातों की चरचा सुनी थी-
उसको धारण करनेवाला मनुष्य दीर्घजीवी होता है, कोई रोग उसके निकट
नहीं आता, उस रत्न में पुत्रदायिनी शक्ति है, इत्यादि। दिल्ली पर
आक्रमण करने के जहाँ और अनेक कारण थे, वहाँ इस रत्न को प्राप्त करना
भी एक कारण था। सोने-चाँदी के ढेरों और बहुमूल्य रत्नों की चमक-दमक
से उसकी आँखें भले ही चौंधिया जायँ, पर हृदय उल्लसित न होता था। उसे
तो मुगलेआजम की धुन थी और मुगलेआजम का वहाँ कहीं पता न था। वह क्रोध
से उन्मत्त होकर शाही मंत्रियों की ओर देखता और अपने अफसरों को
झिड़कियाँ देता था। पर अपना अभिप्राय खोल कर न कह सकता था। किसी की
समझ में न आता था कि वह इतना आतुर क्यों हो रहा है। यह तो खुशी से
फूले न समाने का अवसर है। अतुल सम्पत्ति सामने पड़ी हुई है, संख्या
में इतनी सामर्थ्य नहीं कि उसकी गणना कर सके ! संसार का कोई भी
महीपति इस विपुल धन का एक अंश भी पाकर अपने को भाग्यशाली समझता;
परंतु यह पुरुष जिसने इस धनराशि का शतांश भी पहले कभी आँखों से न
देखा होगा, जिसकी उम्र भेड़ें चराने में ही गुजरी, क्यों इतना उदासीन
है ? आखिर जब रात हुई, बादशाह का खजाना खाली हो गया और उस रत्न के
दर्शन न हुए, तो नादिरशाह की क्रोधाग्नि फिर भड़क उठी। उसने बादशाह के
मंत्री को- उसी मंत्री को, जिसकी काव्य-मर्मज्ञता ने प्रजा के प्राण
बचाये थे- एकांत में बुलाया और कहा- मेरा गुस्सा तुम देख चुके हो !
अगर फिर उसे नहीं देखना चाहते तो लाजिम है कि मेरे साथ कामिल सफाई का
बरताव करो। वरना दोबारा यह शोला भड़का, तो दिल्ली की खैरियत नहीं।
वजीर- जहाँपनाह, गुलामों से तो कोई खता सरजद नहीं हुई। खजाने की सब
कुंजियाँ जनाबेआली के सिपहसालार के हवालेकर दी गयी हैं।
नादिर- तुमने मेरे साथ दगा की है।
वजीर- (त्योरी चढ़ाकर) आपके हाथ में तलवार है और हम कमजोर हैं, जो
चाहे फरमावें; पर इल्जाम के तसलीम करने में मुझे उज्र है।
नादिर- क्या उसके सबूत की जरूरत है ?
वजीर- जी हाँ, क्योंकि दगा की सजा कत्ल है और कोई बिला सबब अपने कत्ल
पर रजामंद न होगा।
नादिर- इसका सबूत मेरे पास है, हालाँकि नादिर ने कभी किसी को सबूत
नहीं दिया। वह अपनी मरजी का बादशाह है और किसी को सबूत देना अपनी शान
के खिलाफ समझता है। पर यहाँ जाती मुआमिला है। तुमने मुगलआजमे हीरा
क्यों छिपा दिया ?
वजीर के चेहरे का रंग उड़ गया। वह सोचने लगा- यह हीरा बादशाह को जान
से भी ज्यादा अजीज है। वह इसे एक क्षण भी अपने पास से जुदा नहीं
करते। उनसे क्योंकर कहूँ ? उन्हें कितना सदमा होगा ! मुल्क गया,
खजाना गया, इज्जत गयी। बादशाही की यही एक निशानी उनके पास रह गयी है।
उनसे कैसे कहूँ ? मुमकिन है वह गुस्से में आकर इसे कहीं फेंक दें, या
तुड़वा डालें। इन्सान की आदत है कि वह अपनी चीज दुश्मन को देने की
अपेक्षा उसे नष्ट कर देना अच्छा समझता है। बादशाह बादशाह हैं, मुल्क
न सही, अधिकार न सही, सेना न सही; पर जिंदगी भर की स्वेच्छाचारिता एक
दिन में नहीं मिट सकती। यदि नादिर को हीरा न मिला, तो वह न-जाने
दिल्ली पर क्या सितम ढाये। आह ! उसकी कल्पना ही से रोमांच हो जाता
है। खुदा न करे, दिल्ली को फिर यह दिन देखना पड़े।
सहसा नादिर ने पूछा- मैं तुम्हारे जवाब का मुंतजिर हूँ क्या यह
तुम्हारी दगा का काफी सबूत नहीं है ?
वजीर- जहाँपनाह, वह हीरा बादशाह सलामत को जान से ज्यादा अजीज है। वह
हमेशा अपने पास रखते हैं।
नादिर- झूठ मत बोलो, हीरा बादशाह के लिए है, बादशाह हीरे के लिए
नहीं। बादशाह को हीरा जान से ज्यादा अजीज है- का मतलब सिर्फ इतना है
कि वह बादशाह को बहुत अजीज है, और यह कोई वजह नहीं कि मैं उस हीरे को
उनसे न लूँ। अगर बादशाह यों न देंगे, तो मैं जानता हूँ कि मुझे क्या
करना होगा। तुम जाकर इस मुआमिले में नाजुकफ़हमी से काम लो, जो तुमने
कल दिखाई थी। आह, कितना ला-जवाब शेर था-
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मंत्री सोचता हुआ चला कि यह समस्या क्योंकर हल करूँ ? बादशाह के
दीवानखाने में पहुँचा तो देखा, बादशाह उसी हीरे को हाथ में लिये
चिंता में मग्न बैठे हुए हैं।
बादशाह को इस वक्त इसी हीरे की फिक्र थी। लुटे हुए पथिक की भाँति वह
अपनी वह लकड़ी हाथ से न देना चाहता था। वह जानता था कि नादिर को इस
हीरे की खबर है। वह यह भी जानता था कि खजाने में इसे न पा कर उसके
क्रोध की सीमा न रहेगी। लेकिन सबकुछ जानते हुए भी, वह हीरे को हाथ से
न जाने देना चाहता था। अंत को उसने निश्चय किया, मैं इसे न दूँगा,
चाहे मेरी जान ही पर क्यों न बन जाय। रोगी की इस अंतिम साँस को न
निकलने दूँगा। हाय कहाँ छिपाऊँ ? इतना बड़ा मकान है कि उसमें एक नगर
समा सकता है, पर इस नन्ही-सी चीज के लिए कहीं जगह नहीं, जैसे किसी
अभागे को इतनी बड़ी दुनिया में भी कहीं पनाह नहीं मिलती। किसी
सुरक्षित स्थान में न रखकर क्यों न इसे किसी ऐसी जगह रख दूँ, जहाँ
किसी का खयाल ही न पहुँचे। कौन अनुमान कर सकता है कि मैंने हीरे को
अपनी सुराही में रखा होगा ? अच्छा, हुक्के की फर्शी में क्यों न डाल
दूँ ? फरिश्तों को भी खबर न होगी।
यह निश्चय करके उसने हीरे को फर्शी में डाल दिया। पर तुरंत ही शंका
हुई कि ऐसे बहुमूल्य रत्न को इस जगह रखना उचित नहीं। कौन जाने, जालिम
को मेरी यह गुड़गुड़ी ही पसंद आ जाय। उसने तुरंत गुड़गुड़ी का पानी
तश्तरी में उँडेल दिया और हीरे को निकाल लिया। पानी की दुर्गन्ध उड़ी
पर इतनी हिम्मत न पड़ती थी कि खिदमतगार को बुलाकर पानी फिंकवा दे। भय
होता था, कहीं वह ताड़ न जाय।
वह इसी दुविधा में पड़ा हुआ था कि मंत्री ने आकर बंदगी की। बादशाह को
उस पर पूरा विश्वास था; किंतु उसे अपनी क्षुद्रता पर इतनी लज्जा आयी
कि वह इस रहस्य को उस पर भी प्रकट न कर सका। गुमशुम होकर उसकी ओर
ताकने लगा।
मंत्री ने बात छेड़ी- आज खजाने में हीरा न मिला, तो नादिर बहुत
झल्लाया। कहने लगा, तुमने मेरे साथ दगा की है; मैं शहर लुटवा दूँगा,
कत्लेआम करा दूँगा, सारे शहर को खाक सियाह कर डालूँगा। मैंने कहा,
जनाबेआली को अख्तियार है, जो चाहे करें। पर हमने खजाने की सब
कुंजियाँ आपके सिपहसालार को दे दी हैं। वह कुछ साफ-साफ तो कहता न था,
बस कनायों में बातें कर रहा था और भूले गीदड़ की तरह इधर-उधर बौखलाया
फिरता था कि किसे पाये, और नोच खाये।
मुहम्मदशाह- मुझे तो उसके सामने बैठते हुए ऐसा खौफ मालूम होता है,
गोया किसी शेर का सामना हो। जालिम की आँखें कितनी तुंद्र और गजबनाक
है। आदमी क्या है, शैतान है। खैर, मैं भी उधेड़बुन में पड़ा हुआ हूँ
फिर इसे क्योंकर छिपाऊँ। सल्तनत जाय गम नहीं; पर इस हीरे को मैं उस
वक्त तक न दूँगा, जब तक कोई गरदन पर सवार होकर इसे छीन न ले।
वजीर- खुदा न करे कि हुजूर के दुश्मनों को यह जिल्लत उठानी पड़े। मैं
एक तरकीब बतलाऊँ। हुजूर इसे अपने अमामे (पगड़ी) में रख लें। वहाँ तक
उसके फरिश्तों का भी खयाल न पहुँचेगा।
मुहम्मदशाह- (उछलकर) वल्लाह, तुमने खूब सोचा; वाकई तुम्हें खूब सूझी।
हजरत इधर-उधर टटोलने के बाद अपना-सा मुँह लेकर रह जायँगे। मेरे अमामे
को कौन देखेगा? इसी से तो मैंने तुम्हें लुकमान का खिताब दिया है।
बस, यही तय रहा। कहीं तुम जरा देर पहले आ जाते, तो मुझे इतना
दर्दे-सर न उठाना पड़ता।
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दूसरे ही दिन दोनों बादशाहों में सुलह हो गयी। वजीर नादिरशाह के
कदमों पर गिर पड़ा और अर्ज की- अब इस डूबती हुई किश्ती को आप ही पार
लगा सकते हैं; वरना इसका अल्लाह ही वली है ! हिंदुओं ने सिर उठाना
शुरू कर दिया है; मरहठे, राजपूत, सिख सभी अपनी-अपनी ताकतों को
मुकम्मिल कर रहे हैं। जिस दिन उनमें मेल-मिलाप हुआ उसी दिन यह नाव
भँवर में पड़ जायगी, और दो-चार चक्कर खाकर हमेशा के लिए नीचे बैठ
जायगी।
नादिरशाह को ईरान से चले अरसा हो गया था। वहाँ से रोजाना बागियों की
बगावत की खबरें आ रही थीं। नादिरशाह जल्द वहाँ लौट जाना चाहता था। इस
समय उसे दिल्ली में अपनी सल्तनत कायम करने का अवकाश न था। सुलह पर
राजी हो गया। संधि-पत्र पर दोनों बादशाहों ने हस्ताक्षर कर दिये।
दोनों बादशाहों ने एक ही साथ नमाज पढ़ी, एक ही दस्तरख्वान पर खाना
खाया, एक ही हुक्का पिया, और एक-दूसरे से गले मिलकर अपने-अपने स्थान
को चले।
मुहम्मदशाह खुश था। राज्य बच जाने की उतनी खुशी न थी, जितनी हीरे के
बच जाने की।
मगर नादिरशाह हीरा न पाकर भी दुःखी न था। सबसे हँस-हँसकर बातें करता
था, मानो शील और विनय का साक्षात् अवतार हो।
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प्रातःकाल; दिल्ली में नौबतें बज रही हैं। खुशी की महफिलें सजाई जा
रही हैं। तीन दिन पहले यहाँ रक्त की नदी बही थी। आज आनंद की लहरें उठ
रही हैं। आज नादिरशाह दिल्ली से रुखसत हो रहा है।
अशर्फियों से लदे हुए ऊँटों की कतार शाही महल के सामने रवाना होने को
तैयार खड़ी है। बहुमूल्य वस्तुएँ गाड़ियों में लदी हुई हैं। दोनों तरफ
की फौजें गले मिल रही हैं। अभी कल दोनों पक्ष एक-दूसरे के खून के
प्यासे थे। आज भाई-भाई हो रहे हैं।
नादिरशाह तख्त पर बैठा हुआ है। मुहम्मदशाह भी उसी तख्त पर उसकी बगल
में बैठे हुए हैं। यहाँ भी परस्पर प्रेम का व्यवहार है। नादिरशाह ने
मुस्कराकर कहा- खुदा करे, यह सुलह हमेशा कायम रहे और लोगों के दिलों
से इन खूनी दिनों की याद मिट जाय।
मुहम्मदशाह- मेरी तरफ से ऐसी कोई बात न होगी जो सुलह को खतरे में
डाले। मैं खुदा से यह दोस्ती कायम रखने के लिए हमेशा दुआकरता रहूँगा।
नादिरशाह- सुलह की जितनी शर्तें थीं, सब पूरी हो चुकीं। सिर्फ एक बात
बाकी है ! मेरे यहाँ दस्तूर है कि सुलह के वक्त अमामे बदल दिये जाते
हैं। इसके बगैर सुलह की कार्रवाई पूरी नहीं होती। आइए, हम लोग भी
अपने-अपने अमामे बदल लें। लीजिए, यह मेरा अमामा हाजिर है।
यह कह कर नादिर ने अपना अमामा उतारकर मुहम्मदशाह की तरफ बढ़ाया।
बादशाह के हाथों के तोते उड़ गये। समझ गया, मुझसे दगा की गयी, दोनों
तरफ के शूर-सामंत सामने खड़े थे। न कुछ कहते बनता था न सुनते। बचने का
कोई उपाय न था और न कोई उपाय सोच निकालने का अवसर ही। कोई जवाब न
सूझा। इनकार की गुंजाइश न थी। मन मसोसकर रह गया। चुपके से अमामा सिर
से उतारा, और नादिरशाह की तरफ बढ़ा दिया। हाथ काँप रहे थे, आँखों में
क्रोध और विषाद के आँसू भरे हुए थे। मुख पर हलकी-सी मुस्कराहट झलक
रही थी- वह मुस्कराहट, जो अश्रुपात से भी कहीं अधिक करुण और
व्यथा-पूर्ण होती है। कदाचित् अपने प्राण निकालकर देने में भी उसे
इससे अधिक पीड़ा न होती।
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नादिरशाह पहाड़ों और नदियों को लाँघता हुआ ईरान को चला जा रहा था। 77
ऊँटों और इतनी ही बैलगाड़ियों की कतार देख-देखकर उसका हृदय बाँसों उछल
रहा था। वह बार-बार खुदा को धन्यवाद देता था, जिसकी असीम कृपा ने आज
उसकी कीर्ति को उज्ज्वल बनाया था। अब वह केवल ईरान ही का बादशाह
नहीं, हिंदुस्तान जैसे विस्तृत प्रदेश का भी स्वामी था। पर सबसे
ज्यादा खुशी उसे मुगलेआजम हीरा पाने की थी, जिसे बार-बार देखकर भी
उसकी आँखें तृप्त न होती थीं। सोचता था, जिस समय मैं दरबार में यह
रत्न धारण करके आऊँगा सबकी आँखें झपक जायेंगी, लोग आश्चर्य से चकित
रह जायेंगे।
उसकी सेना अन्न-जल के कठिन कष्ट भोग रही थी। सरहदों की विद्रोही
सेनाएँ पीछे से उसको दिक कर रही थीं। नित्य दस-बीस आदमी मर जाते या
मारे जाते थे, पर नादिरशाह को ठहरने की फुरसत न थी। वह भागा-भागा चला
जा रहा था।
ईरान की स्थिति बड़ी भयंकर थी। शाहजादा खुद विद्रोह शांत करने के लिए
गया हुआ था; पर विद्रोह दिन-दिन उग्र रूप धारण करता जाता था। शाही
सेना कई युद्धों में परास्त हो चुकी थी। हर घड़ी यही भय होता था कि
कहीं वह स्वयं शत्रुओं के बीच घिर न जाय।
पर वाह रे प्रताप ! शत्रुओं ने ज्योही सुना कि नादिरशाह ईरान आ
पहुँचा, त्योही उनके हौसले पस्त हो गये। उसका सिंहनाद सुनते ही उनके
हाथ-पाँव फूल गये। इधर नादिरशाह ने तेहरान में प्रवेश किया उधर
विद्रोहियों ने शाहजादे से सुलह की प्रार्थना की, शरण में आ गये।
नादिरशाह ने यह शुभ समाचार सुना, तो उसे निश्चय हो गया कि सब उसी
हीरे की करामात है। यह उसी का चमत्कार है, जिसने शत्रुओं का सिर झुका
दिया, हारी हुई बाजी जिता दी।
शाहजादा विजयी होकर घर लौटा, तो प्रजा ने बड़े समारोह से उसका स्वागत
और अभिवादन किया। सारा तेहरान दीपावली की ज्योति से जगमगा उठा।
मंगलगान की ध्वनि से सब गली और कूचे गूँज उठे।
दरबार सजाया गया। शायरों ने कसीदे सुनाये। नादिरशाह ने गर्व से उठ कर
शाहजादे के ताज को मुगलेआजम हीरे से अलंकृत कर दिया। चारों ओर महरबा
! महरबा ! की आवाजें बुलंद हुईं। शाहजादे के मुख की कांति हीरे के
प्रकाश से दूनी चमक उठी। पितृस्नेह से हृदय पुलकित हो उठा। नादिर- वह
नादिर, जिसने दिल्ली में खून की नदी बहायी थी- पुत्र-प्रेम से फूला न
समाता था। उसकी आँखों से गर्व और हार्दिक उल्लास के आँसू बह रहे थे।
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सहसा बंदूक की आवाज आयी- धाँय ! धाँय ! दरबार हिल उठा। लोगों के
कलेजे धड़क उठे। हाय ! वज्रपात हो गया ! हाय रे दुर्भाग्य ! बंदूक की
आवाजे कानों में गूँज ही रही थी कि शाहजादा कटे हुए पेड़ की तरह गिर
पड़ा। साथ ही वह रत्नजटित मुकुट भी नादिरशाह के पैरों के पास आ गिरा।
नादिरशाह ने उन्मत्त की भाँति हाथ उठाकर कहा- कातिलों को पकड़ो ! साथ
ही शोक से विह्वल होकर वह शाहजादे के प्राणहीन शरीर पर गिर पड़ा। जीवन
की सारी अभिलाषाओं का अंत हो गया।
लोग कातिलों की तरफ दौड़े। फिर धाँय-धाँय की आवाज आयी और दोनों कातिल
गिर पड़े। उन्होंने आत्महत्या कर ली। दोनों विद्रोहीपक्ष के नेता थे।
हाय रे मनुष्य का मनोरथ, तेरी भित्ति कितनी अस्थिर है ! बालू पर की
दीवार तो वर्षा में गिरती है। पर तेरी दीवार बिना पानी-बूँद के ढह
जाती है। आँधी में दीपक का कुछ भरोसा किया जा सकता है, पर तेरा नहीं।
तेरी अस्थिरता के आगे बालकों का घरौंदा अचल पर्वत है, वेश्या का
प्रेम सती की प्रतिज्ञा की भाँति अटल !
नादिरशाह को लोगों ने लाश पर से उठाया। उसका करुण क्रंदन हृदयों को
हिलाये देता था। सभी की आँखों से आँसू बह रहे थे। होनहार कितना
प्रबल, कितना निष्ठुर, कितना निर्दय और कितना निर्मम है !
नादिरशाह ने हीरे को जमीन से उठा लिया। एक बार उसे विषादपूर्ण
नेत्रों से देखा। फिर मुकुट को शाहजादे के सिर पर रख दिया और वजीर से
कहा- यह हीरा इसी लाश के साथ दफन होगा।
रात का समय था। तेहरान में मातम छाया हुआ था। कहीं दीपक या अग्नि का
प्रकाश न था। न किसी ने दिया जलाया, और न भोजन बनाया। अफीमचियों की
चिलमें भी आज ठंडी हो रही थीं। मगर कब्रिस्तान में मशालें रोशन थीं-
शाहजादे की अंतिम क्रिया हो रही थी।
जब फातिहा खतम हुआ, नादिरशाह ने अपने हाथों से मुकुट को लाश के साथ
कब्र में रख दिया। राज और संगतराश हाजिर थे। उसी वक्त कब्र पर
ईंट-पत्थर और चूने का मजार बनने लगा।
नादिर एक महीने तक एक क्षण के लिए भी वहाँ से न हटा। वहीं सोता, वहीं
से राज्य करता। उसके दिल में यह बात बैठ गयी थी कि मेरा अहित इसी
हीरे के कारण हुआ। यही मेरे सर्वनाश और अचानक वज्रपात का कारण है।