मेरी कक्षा में सूर्यप्रकाश से ज्यादा ऊधामी कोई लड़का न था, बल्कि यों कहो
कि अध्यापन-काल के दस वर्षों में मुझे ऐसी विषम प्रकृति के शिष्य से साबका
न पड़ा था। कपट-क्रीड़ा में उसकी जान बसती थी। अध्यापकों को बनाने और चिढ़ाने,
उद्योगी बालकों को छेड़ने और रुलाने में ही उसे आनन्द आता था। ऐसे-ऐसे
षडयंत्र रचता, ऐसे-ऐसे फंदे डालता, ऐसे-ऐसे बंधन बाँधता कि देखकर आश्चर्य
होता था। गिरोहबंदी में अभ्यस्त था। खुदाई फौजदारों की एक फौज बना ली थी और
उसके आतंक से शाला पर शासन करता था। मुख्य अधिष्ठाता की आज्ञा टल जाय, मगर
क्या मजाल कि कोई उसके हुक्म की अवज्ञा कर सके। स्कूल के चपरासी और अर्दली
उससे थर-थर काँपते थे। इन्स्पेक्टर का मुआइना होने वाला था, मुख्य
अधिष्ठाता ने हुक्म दिया कि लड़के निर्दिष्ट समय से आधा घंटा पहले आ जायँ।
मतलब यह था कि लड़कों को मुआइने के बारे में कुछ जरूरी बातें बता दी जायँ,
मगर दस बज गये, इन्स्पेक्टर साहब आकर बैठ गये, और मदरसे में एक लड़का भी
नहीं। ग्यारह बजे सब छात्र इस तरह निकल पड़े, जैसे कोई पिंजरा खोल दिया गया
हो। इन्स्पेक्टर साहब ने कैफियत में लिखा ड़िसिप्लिन बहुत खराब है।
प्रिंसिपल साहब की किरकिरी हुई, अध्यापक बदनाम हुए और यह सारी शरारत
सूर्यप्रकाश की थी, मगर बहुत पूछ-ताछ करने पर भी किसी ने सूर्यप्रकाश का
नाम तक न लिया। मुझे अपनी संचालन-विधि पर गर्व था। ट्रेनिंग कालेज में इस
विषय में मैंने ख्याति प्राप्त की थी, मगर यहाँ मेरा सारा संचालन-कौशल जैसे
मोर्चा खा गया था। कुछ अक्ल ही काम न करती कि शैतान को कैसे सन्मार्ग पर
लायें।
कई बार अध्यापकों की बैठक हुई, पर यह गिरह न खुली। नई शिक्षा-विधि के
अनुसार मैं दंडनीति का पक्षपाती न था, मगर यहाँ हम इस नीति से केवल इसलिए
विरक्त थे कि कहीं उपचार से भी रोग असाधय न हो जाय। सूर्यप्रकाश को स्कूल
से निकाल देने का प्रस्ताव भी किया गया, पर इसे अपनी अयोग्यता का प्रमाण
समझकर हम इस नीति का व्यवहार करने का साहस न कर सके। बीस-बाईस अनुभवी और
शिक्षाशास्त्र के आचार्य एक बारह-तेरह साल के उद्दंड बालक का सुधार न कर
सकें, यह विचार बहुत ही निराशाजनक था। यों तो सारा स्कूल उससे
त्राहि-त्राहि करता था, मगर सबसे ज्यादा संकट में मैं था, क्योंकि वह मेरी
कक्षा का छात्र था और उसकी शरारतों का कुफल मुझे भोगना पड़ता था। मैं स्कूल
आता, तो हरदम यही खटका लगा रहता था कि देखें आज क्या विपत्ति आती है। एक
दिन मैंने अपनी मेज की दराज खोली, तो उसमें से एक बड़ा-सा मेंढक निकल पड़ा।
मैं चौंककर पीछे हटा तो क्लास में एक शोर मच गया। उसकी ओर सरोष नेत्रों से
देखकर रह गया। सारा घंटा उपदेश में बीत गया और वह पट्ठा सिर झुकाये नीचे
मुस्करा रहा था। मुझे आश्चर्य होता था कि यह नीचे की कक्षाओं में कैसे पास
हुआ था।
एक दिन मैंने गुस्से से कहा, ‘तुम इस कक्षा से उम्र भर नहीं पास हो सकते।‘
सूर्यप्रकाश ने अविचलित भाव से कहा, ‘आप मेरे पास होने की चिन्ता न करें।
मैं हमेशा पास हुआ हूँ और अबकी भी हूँगा।‘
'असम्भव !'
'असम्भव सम्भव हो जायगा !'
मैं आश्चर्य से उसका मुँह देखने लगा। जहीन से जहीन लड़का भी अपनी सफलता का
दावा इतने निर्विवाद रूप से न कर सकता था। मैंने सोचा, वह प्रश्न-पत्र उड़ा
लेता होगा। मैंने प्रतिज्ञा की, अबकी इसकी एक चाल भी न चलने दूँगा। देखूँ,
कितने दिन इस कक्षा में पड़ा रहता है। आप घबड़ाकर निकल जायगा।
वार्षिक परीक्षा के अवसर पर मैंने असाधारण देखभाल से काम लिया; मगर जब
सूर्यप्रकाश का उत्तर-पत्र देखा, तो मेरे विस्मय की सीमा न रही। मेरे दो
पर्चे थे, दोनों ही में उसके नम्बर कक्षा में सबसे अधिक थे। मुझे खूब मालूम
था कि वह मेरे किसी पर्चे का कोई प्रश्न भी हल नहीं कर सकता। मैं इसे सिद्ध
कर सकता था; मगर उसके उत्तर-पत्रों को क्या करता ! लिपि में इतना भेद न था
जो कोई संदेह उत्पन्न कर सकता। मैंने प्रिंसिपल से कहा,तो वह भी चकरा गये;
मगर उन्हें भी जान-बूझकर मक्खी निगलनी पड़ी। मैं कदाचित् स्वभाव ही से
निराशावादी हूँ। अन्य अध्यापकों को मैं सूर्यप्रकाश के विषय में जरा भी
चिंतित न पाता था। मानो ऐसे लड़कों का स्कूल में आना कोई नई बात नहीं, मगर
मेरे लिए वह एक विकट रहस्य था। अगर यही ढंग रहे, तो एक दिन या तो जेल में
होगा, या पागलखाने में।
उसी साल मेरा तबादला हो गया। यद्यपि यहाँ का जलवायु मेरे अनुकूल था,
प्रिंसिपल और अन्य अध्यापकों से मैत्री हो गई थी, मगर मैं अपने तबादले से
खुश हुआ; क्योंकि सूर्यप्रकाश मेरे मार्ग का काँटा न रहेगा। लड़कों ने मुझे
बिदाई की दावत दी और सब-के-सब स्टेशन तक पहुँचाने आये। उस वक्त सभी लड़के
आँखों में आँसू भरे हुए थे। मैं भी अपने आँसुओं को न रोक सका। सहसा मेरी
निगाह सूर्यप्रकाश पर पड़ी, जो सबसे पीछे लज्जित खड़ा था। मुझे ऐसा मालूम हुआ
कि उसकी आँखें भी भीगी थीं। मेरा जी बार-बारचाहता था कि चलते-चलते उससे
दो-चार बातें कर लूँ। शायद वह भी मुझसे कुछ कहना चाहता था, मगर न मैंने
पहले बातें कीं, न उसने; हालाँकि मुझे बहुत दिनों तक इसका खेद रहा। उसकी
झिझक तो क्षमा के योग्य थी; पर मेरा अवरोध अक्षम्य था। संभव था, उस करुणा
और ग्लानि की दशा में मेरी दो-चार निष्कपट बातें उसके दिल पर असर कर जातीं;
मगर इन्हीं खोये
हुए अवसरों का नाम तो जीवन है। गाड़ी मंदगति से चली। लड़के कई कदम तक उसके
साथ दौड़े। मैं खिड़की के बाहर सिर निकाले खड़ा था। कुछ देर मुझे उनके हिलते
हुए रूमाल नजर आये। फिर वे रेखाएं आकाश में विलीन हो गईं : मगर एक अल्पकाय
मूर्ति अब भी प्लेटफार्म पर खड़ी थी। मैंने अनुमान किया, वह सूर्यप्रकाश है।
उस समय मेरा ह्रदय किसी विकल कैदी की भाँति घृणा, मालिन्य और उदासीनता के
बंधनों को तोड़-तोड़कर उसके गले मिलने के लिए तड़प उठा।
नये स्थान की नई चिंताओं ने बहुत जल्द मुझे अपनी ओर आकर्षित कर लिया। पिछले
दिनों की याद एक हसरत बनकर रह गई। न किसी का कोई खत आया, न मैंने कोई खत
लिखा। शायद दुनिया का यही दस्तूर है। वर्षा के बाद वर्षा की हरियाली कितने
दिनों रहती है। संयोग से मुझे इंगलैण्ड में विद्याभ्यास करने का अवसर मिल
गया। वहाँ तीन साल लग गये। वहाँ से लौटा तो एक कालेज का प्रिंसिपल बना दिया
गया। यह सिध्दि मेरे लिए बिलकुल आशातीत थी। मेरी भावना स्वप्न में भी इतनी
दूर न उड़ी थी; किन्तु पदलिप्सा अब किसी और भी ऊँची डाली पर आश्रय लेना
चाहती थी।
शिक्षामंत्री से रब्त-जब्त पैदा किया। मंत्री महोदय मुझ पर कृपा रखते थे;
मगर वास्तव में शिक्षा के मौलिक सिध्दांतों का उन्हें ज्ञान न था। मुझे
पाकर उन्होंने सारा भार मेरे ऊपर डाल दिया। घोड़े पर वह सवार थे, लगाम मेरे
हाथ में थी। फल यह हुआ कि उनके राजनैतिक विपक्षियों से मेरा विरोध हो गया।
मुझ पर जा-बेजा आक्रमण होने लगे। मैं सिद्धान्त रूप से अनिवार्य शिक्षा का
विरोधी हूँ। मेरा विचार है कि हर एक मनुष्य की उन विषयों में ज्यादा
स्वाधीनता होनी चाहिए, जिनका उससे निज का संबंध है। मेरा विचार है कि यूरोप
में अनिवार्य शिक्षा की जरूरत है, भारत में नहीं। भौतिकता पश्चिमी सभ्यता
का मूल तत्त्व है। वहाँ किसी काम की प्रेरणा, आर्थिक लाभ के आधार पर होती
है। जिन्दगी की जरूरत ज्यादा है; इसलिए जीवन-संग्राम भी अधिक भीषण है।
माता-पिता भोग के दास होकर बच्चों को जल्द-से-जल्द कुछ कमाने पर मजबूर करते
हैं। इसकी जगह कि वह मद का त्याग करके एक शिलिंग रोज की बचत कर लें, वे
अपने कमसिन बच्चे को एक शिलिंग की मजदूरी करने के लिए दबायेंगे। भारतीय
जीवन में सात्विक सरलता है। हम उस वक्त तक अपने बच्चों से मजदूरी नहीं
कराते, जब तक कि परिस्थिति हमें विवश न कर दे। दरिद्र से दरिद्र
हिंदुस्तानी मजदूर भी शिक्षा के उपकारों का कायल है। उसके मन में यह
अभिलाषा होती है कि मेरा बच्चा चार अक्षर पढ़ जाय। इसलिए नहीं कि उसे कोई
अधिकार मिलेगा; बल्कि केवल इसलिए कि विद्या मानवी शील का एक श्रृंगार है।
अगर यह जानकर भी वह अपने बच्चे को मदरसे नहीं भेजता, तो समझ लेना चाहिए कि
वह मजबूर है। ऐसी दशा में उस पर कानून का प्रहार करना मेरी दृष्टि में
न्याय-संगत नहीं है। इसके सिवाय मेरे विचार में अभी हमारे देश में योग्य
शिक्षकों का अभाव है। अर्ध्द-शिक्षित और अल्पवेतन पानेवाले अध्यापकों से आप
यह आशा नहीं रख सकते कि वह कोई ऊँचा आदर्श अपने सामने रख सकें।
अधिक-से-अधिक इतना ही होगा कि चार-पाँच वर्ष में बालक को अक्षर-ज्ञान हो
जायगा। मैं इसे पर्वत खोदकर चुहिया निकालने के तुल्य समझता हूँ। वयस
प्राप्त हो जाने पर यह मसला एक महीने में आसानी से तय किया जा सकता है।
मैं अनुभव से कह सकता हूँ कि युवावस्था में हम जितना ज्ञान एक महीने में
प्राप्त कर सकते हैं, उतना बाल्यावस्था में तीन साल में भी नहीं कर सकते,
फिर खामख्वाह बच्चों को मदरसे में कैद करने से क्या लाभ ? मदरसे के बाहर
रहकर उसे स्वच्छ वायु तो मिलती, प्राकृतिक अनुभव तो होते। पाठशाला में बन्द
करके तो आप उसके मानसिक और शारीरिक दोनों विधानों की जड़ काट देते हैं।
इसलिए जब प्रान्तीय व्यवस्थापक-सभा में अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव पेश
हुआ, तो मेरी प्रेरणा से मिनिस्टर साहब ने उसका विरोध किया। नतीजा यह हुआ
कि प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया। फिर क्या था। मिनिस्टर साहब की और मेरी वह
ले-दे शुरू हुई कि कुछ न पूछिए। व्यक्तगित आक्षेप किए जाने लगे। मैं गरीब
की बीवी था, मुझे ही सबकी भाभी बनना पड़ा। मुझे देशद्रोही, उन्नति का शत्रु
और नौकरशाही का गुलाम कहा, गया। मेरे कालेज में जरा-सी भी कोई बात होती तो
कौंसिल में मुझ पर वर्षा होने लगती। मैंने एक चपरासी को पृथक् किया। सारी
कौंसिल पंजे झाड़कर मेरे पीछे पड़ गई। आखिर मिनिस्टर साहब को मजबूर होकर उस
चपरासी को बहाल करना पड़ा। यह अपमान मेरे लिए असह्य था। शायद कोई भी इसे सहन
न कर सकता। मिनिस्टर साहब से मुझे शिकायत नहीं। वह मजबूर थे। हाँ, इस
वातावरण में काम करना मेरे लिए दुस्साधय हो गया। मुझे अपने कालेज के
आन्तरिक संगठन का भी अधिकार नहीं। अमुक क्यों नहीं परीक्षा में भेजा गया,
अमुक के बदले अमुक को क्यों नहीं छात्रवृत्ति दी गई, अमुक अध्यापक को अमुक
कक्षा क्यों नहीं दी जाती, इस तरह के सारहीन आक्षेपों ने मेरी नाक में दम
कर दिया था। इस नई चोट ने कमर तोड़ दी। मैंने इस्तीफा दे दिया।
मुझे मिनिस्टर साहब से इतनी आशा अवश्य थी कि वह कम-से-कम इस विषय में
न्याय-परायणता से काम लेंगे; मगर उन्होंने न्याय की जगह नीति को मान्य समझा
और मुझे कई साल की भक्त िका यह फल मिला कि मैं पदच्युत कर दिया गया। संसार
का ऐसा कटु अनुभव मुझे अब तक न हुआ था। ग्रह भी कुछ बुरे आ गये थे, उन्हीं
दिनों पत्नी का देहान्त हो गया। अन्तिम दर्शन भी न कर सका। सन्ध्या-समय
नदी-तट पर सैर करने गया था। वह कुछ अस्वस्थ थीं। लौटा, तो उनकी लाश मिली।
कदाचित् ह्रदय की गति बन्द हो गई थी। इस आघात ने कमर तोड़ दी। माता के
प्रसाद और आशीर्वाद से बड़े-बड़े महान् पुरुष कृतार्थ हो गये हैं। मैं जो कुछ
हुआ, पत्नी के प्रसाद और आशीर्वाद से हुआ; वह मेरे भाग्य की विधात्री थीं।
कितना अलौकिक त्याग था, कितना विशाल धैर्य। उनके माधुर्य में तीक्ष्णता का
नाम भी न था। मुझे याद नहीं आता कि मैंने कभी उनकी भृकुटी संकुचित देखी हो,
वह निराश होना तो जानती ही न थीं। मैं कई बार सख्त बीमार पड़ा हूँ। वैद्य
निराश हो गये हैं, पर वह अपने धैर्य और शांति से अणु-मात्र भी विचलित नहीं
हुईं। उन्हें विश्वास था कि मैं अपने पति के जीवन-काल में मरूँगी और वही
हुआ भी। मैं जीवन में अब तक उन्हीं के सहारे खड़ा था ! जब वह अवलम्ब ही न
रहा, तो जीवन कहाँ रहता। खाने और सोने का नाम जीवन नहीं है। जीवन नाम है,
सदैव आगे बढ़ते रहने की लगन का। यह लगन गायब हो गई। मैं संसार से विरक्त हो
गया। और एकान्तवास में
जीवन के दिन व्यतीत करने का निश्चय करके एक छोटे-से गाँव में जा बसा। चारों
तरफ ऊँचे-ऊँचे टीले थे, एक ओर गंगा बहती थी। मैंने नदी के किनारे एक
छोटा-सा घर बना लिया और उसी में रहने लगा। मगर काम करना तो मानवी स्वभाव
है। बेकारी में जीवन कैसे कटता। मैंने एक छोटी-सी पाठशाला खोल ली; एक वृक्ष
की छाँह में गाँव के लड़कों को जमा कर कुछ पढ़ाया करता था। उसकी यहाँ इतनी
ख्याति हुई कि आस-पास के गाँव के छात्र भी आने लगे। एक दिन मैं अपनी कक्षा
को पढ़ा रहा था कि पाठशाला के पास एक मोटर आकर रुकी और उसमें से उस जिले के
डिप्टी कमिश्नर उतर पड़े। मैं उस समय केवल एक कुर्ता और धोती पहने हुए था।
इस वेश में एक हाकिम से मिलते हुए शर्म आ रही थी। डिप्टी कमिश्नर मेरे समीप
आये तो मैंने झेंपते हुए हाथ बढ़ाया, मगर वह मुझसे हाथ मिलाने के बदले मेरे
पैरों की ओर झुके और उन पर सिर रख दिया। मैं कुछ ऐसा सिटपिटा गया कि मेरे
मुँह से एक शब्द भी न निकला। मैं अँगरेजी अच्छी लिखता हूँ, दर्शनशास्त्र का
भी आचार्य हूँ, व्याख्यान भी अच्छे दे लेता हूँ। मगर इन गुणों में एक भी
श्रृद्धा के योग्य नहीं। श्रृद्धा तो ज्ञानियों और साधुओं ही के अधिकार की
वस्तु है। अगर मैं ब्राह्मण होता, तो एक बात थी। हालाँकि एक सिविलियन का
किसी ब्राह्मण के पैरों पर सिर रखना अचिंतनीय है। मैं अभी इसी विस्मय में
पड़ा हुआ था कि डिप्टी कमिश्नर ने सिर उठाया और मेरी तरफ देखकर कहा, आपने
शायद मुझे पहचाना नहीं।
इतना सुनते ही मेरे स्मृति-नेत्र खुल गये, बोला, ‘आपका नाम सूर्यप्रकाश तो
नहीं है ?’
'जी हाँ, मैं आपका वही अभागा शिष्य हूँ।'
'बारह-तेरह वर्ष हो गये।'
सूर्यप्रकाश ने मुस्कराकर कहा, ‘अध्यापक लड़कों को भूल जाते हैं, पर लड़के
उन्हें हमेशा याद रखते हैं।
मैंने उसी विनोद के भाव से कहा, ‘तुम जैसे लड़कों को भूलना असंभव है।‘
सूर्यप्रकाश ने विनीत स्वर में कहा, ‘उन्हीं अपराधों को क्षमा कराने के लिए
सेवा में आया हूँ। मैं सदैव आपकी खबर लेता रहता था। जब आप इंगलैण्ड गये, तो
मैंने आपके लिए बधाई का पत्र लिखा; पर उसे भेज न सका। जब आप प्रिंसिपल हुए,
मैं इंगलैण्ड जाने को तैयार था। वहाँ मैं पत्रिकाओं में आपके लेख पढ़ता रहता
था। जब लौटा, तो मालूम हुआ कि आपने इस्तीफा दे दिया और कहीं देहात में चले
गये हैं। इस जिले में आये हुए मुझे एक वर्ष से अधिक हुआ; पर इसका जरा भी
अनुमान न था कि आप यहाँ एकांत-सेवन कर रहे हैं। इस उजाड़ गाँव में आपका जी
कैसे लगता है ? इतनी ही अवस्था में आपने वानप्रस्थ ले लिया ?’
मैं नहीं कह सकता कि सूर्यप्रकाश की उन्नति देखकर मुझे कितना आश्चर्यमय
आनंद हुआ। अगर वह मेरा पुत्र होता तो भी इससे अधिक आनंद न होता। मैं उसे
अपने झोंपड़े में लाया और अपनी रामकहा,नी कह सुनाई। सूर्यप्रकाश ने कहा, ‘तो
यह कहिए कि आप अपने ही एक भाई के विश्वासघात के शिकार हुए। मेरा अनुभव तो
अभी बहुत कम है; मगर इतने ही दिनों में मुझे मालूम हो गया है, कि हम लोग
अभी अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना नहीं जानते। मिनिस्टर साहब से भेंट
हुई तो पूछूँगा, कि यही आपका धर्म था।‘
मैंने जवाब दिया-- ‘भाई, उनका दोष नहीं। संभव है, इस दशा में मैं भी वही
करता, जो उन्होंने किया। मुझे अपनी स्वार्थलिप्सा की सजा मिल गई, और उसके
लिए मैं उनका ऋणी हूँ। बनावट नहीं, सत्य कहता हूँ कि यहाँ मुझे जो शांति
है, वह और कहीं न थी। इस एकान्त-जीवन में मुझे जीवन के तत्त्वों का वह
ज्ञान हुआ, जो संपत्ति और अधिकार की दौड़ में किसी तरह संभव न था। इतिहास और
भूगोल के पोथे चाटकर और यूरप के विद्यालयों की शरण जाकर भी मैं अपनी ममता
को न मिटा सका; बल्कि यह रोग दिन-दिन और भी असाधय होता जाता था। आप सीढ़ियों
पर पाँव रखे बगैर छत की ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकते। सम्पत्ति की अट्टालिका
तक पहुँचने में दूसरों की जिंदगी ही ज़ीनों का काम देती है। आप कुचलकर ही
लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। वहाँ सौजन्य और सहानुभूति का स्थान ही नहीं।
मुझे ऐसा मालूम होता है कि उस वक्त मैं हिंस्त्र जंतुओं से घिरा हुआ था और
मेरी सारी शक्तियाँ अपनी आत्मरक्षा में ही लगी रहती थीं। यहाँ मैं अपने
चारों ओर संतोष और सरलता देखता हूँ। मेरे पास जो लोग आते हैं, कोई स्वार्थ
लेकर नहीं आते और न मेरी सेवाओं में प्रशंसा या गौरव की लालसा है। यह कहकर
मैंने सूर्यप्रकाश के चेहरे की ओर गौर से देखा। कपट मुसकान की जगह ग्लानि
का रंग था। शायद यह दिखाने आया था कि आप जिसकी तरफ से इतने निराश हो गये
थे, वह अब इस पद को सुशोभित कर रहा है। वह मुझसे अपने सदुद्योग का बखान
कराना चाहता था। मुझे अब अपनी भूल मालूम हुई। एक संपन्न आदमी के सामने
समृध्दि की निंदा उचित नहीं। मैंने तुरन्त बात पलटकर कहा, मगर तुम अपना हाल
तो कहो। तुम्हारी यह काया-पलट कैसे हुई ? तुम्हारी शरारतों को याद करता हूँ
तो अब भी रोएं खड़े हो जाते हैं। किसी देवता के वरदान के सिवा और तो कहीं यह
विभूति न प्राप्त हो सकती थी।‘
सूर्यप्रकाश ने मुसकराकर कहा, ‘आपका आशीर्वाद था।‘ मेरे बहुत आग्रह करने पर
सूर्यप्रकाश ने अपना वृत्तांत सुनाना शुरू किया आपके चले आने के कई दिन बाद
मेरा ममेरा भाई स्कूल में दाखिल हुआ। उसकी उम्र आठ-नौ साल से ज्यादा न थी।
प्रिंसिपल साहब उसे होस्टल में न लेते थे और न मामा साहब उसके ठहरने का
प्रबन्ध कर सकते थे। उन्हें इस संकट में देखकर मैंने प्रिंसिपल साहब से
कहा, उसे मेरे कमरे में ठहरा दीजिये। प्रिंसिपल साहब ने इसे नियम-विरुद्ध
बतलाया। इस पर मैंने बिगड़कर उसी दिन होस्टल छोड़ दिया और एक किराये का मकान
लेकर मोहन के साथ रहने लगा। उसकी माँ कई साल पहले मर चुकी थी। इतना
दुबला-पतला, कमजोर और गरीब लड़का था कि पहले ही दिन से मुझे उस पर दया आने
लगी। कभी उसके सिर में दर्द होता, कभी ज्वर हो आता।
आये दिन कोई-न-कोई बीमारी खड़ी रहती थी। इधर साँझ हुई और झपकियाँ आने लगीं।
बड़ी मुश्किल से भोजन करने उठता। दिन चढ़े तक सोया करता और जब तक मैं गोद में
उठाकर बिठा न देता, उठने का नाम न लेता। रात को बहुधा चौंककर मेरी चारपाई
पर आ जाता। मेरे गले से लिपटकर सोता। मुझे उस पर कभी क्रोध न आता। कह नहीं
सकता, क्यों मुझे उससे प्रेम हो गया। मैं जहाँ पहले नौ बजे सोकर उठता था,
अब तड़के उठ बैठता और उसके लिए दूध गरम करता। फिर उसे उठाकर हाथ-मुँह धुलाता
और नाश्ता कराता। उसके स्वास्थ्य के विचार से नित्य वायु सेवन को ले जाता।
मैं जो कभी किताब लेकर न बैठता था, उसे घंटों पढ़ाया करता। मुझे अपने
दायित्व का इतना ज्ञान कैसे हो गया, इसका मुझे आश्चर्य है। उसे कोई शिकायत
हो जाती तो मेरे प्राण नखों में समा जाते। डाक्टर के पास दौड़ता, दवाएं लाता
और मोहन की खुशामद करके दवा पिलाता। सदैव यह चिंता लगी रहती थी, कि कोई बात
उसकी इच्छा के विरुद्ध न हो जाय। इस बेचारे का यहाँ मेरे सिवा दूसरा कौन
है। मेरे चंचल मित्रों में से कोई उसे चिढ़ाता या छेड़ता तो मेरी त्योरियाँ
बदल जाती थीं ! कई लड़के तो मुझे बूढ़ी दाई कहकर चिढ़ाते थे; पर मैं हँसकर टाल
देता था। मैं उसके सामने एक अनुचित शब्द भी मुँह से न निकालता। यह शंका
होती थी, कि कहीं मेरी देखा-देखी यह भी खराब न हो जाय। मैं उसके सामने इस
तरह रहना चाहता था, कि वह मुझे अपना आदर्श समझे और इसके लिए यह मानी हुई
बात थी कि मैं अपना चरित्र सुधारूँ। वह मेरा नौ बजे सोकर उठना, बारह बजे तक
मटरगश्ती करना, नई-नई शरारतों के मंसूबे बाँधना और अध्यापकों की आँख बचाकर
स्कूल से उड़ जाना, सब आप-ही-आप जाता रहा। स्वास्थ्य और चरित्र पालन के
सिध्दांतों का मैं शत्रु था; पर अब मुझसे बढ़कर उन नियमों का रक्षक दूसरा न
था। मैं ईश्वर का उपहास किया करता, मगर अब पक्का आस्तिक हो गया था। वह बड़े
सरल भाव से पूछता, परमात्मा सब जगह रहते हैं, तो मेरे पास भी रहते होंगे।
इस प्रश्न का मजाक उड़ाना मेरे लिए असंभव था। मैं कहता हाँ परमात्मा
तुम्हारे, हमारे सबके पास रहते हैं और हमारी रक्षा करते हैं। यह आश्वासन
पाकर उसका चेहरा आनन्द से खिल उठता था, कदाचित् वह परमात्मा की सत्ता का
अनुभव करने लगता था। साल ही भर में मोहन कुछ से कुछ हो गया। मामा साहब
दोबारा आये, तो उसे देखकर चकित हो गये। आँखों में आँसू भरकर बोले 'बेटा !
तुमने इसको जिला लिया, नहीं तो मैं निराश हो चुका था। इसका पुनीत फल
तुम्हें ईश्वर देंगे। इसकी माँ स्वर्ग में बैठी हुई तुम्हें आशीर्वाद दे
रही है।' सूर्यप्रकाश की आँखें उस वक्त भी सजल हो गई थीं।
मैंने पूछा, ‘मोहन भी तुम्हें बहुत प्यार करता होगा ?’
सूर्यप्रकाश के सजल नेत्रों में हसरत से भरा हुआ आनन्द चमक उठा,’बोला, वह
मुझे एक मिनट के लिए भी न छोड़ता था। मेरे साथ बैठता, मेरे साथ खाता, मेरे
साथ सोता। मैं ही उसका सबकुछ था। आह ! वह संसार में नहीं है। मगर मेरे लिए
वह अब भी उसी तरह जीता-जागता है। मैं जो कुछ हूँ, उसी का बनाया हुआ हूँ।
अगर वह दैवी विधान की भाँति मेरा पथ-प्रदर्शक न बन जाता, तो शायद आज मैं
किसी जेल में पड़ा होता। एक दिन मैंने कह दिया था अगर तुम रोज नहा न लिया
करोगे तो मैं तुमसे न बोलूँगा। नहाने से वह न जाने क्यों जी चुराता था।
मेरी इस धमकी का फल यह हुआ कि वह नित्य प्रात:काल नहाने लगा। कितनी ही
सर्दी क्यों न हो, कितनी ही ठंडी हवा चले; लेकिन वह स्नान अवश्य करता था।
देखता रहता था, मैं किस बात से खुश होता हूँ। एक दिन मैं कई मित्रों के साथ
थियेटर देखने चला गया, ताकीद कर गया था कि तुम खाना खाकर सो रहना।
तीन बजे रात को लौटा, तो देखा कि वह बैठा हुआ है ! मैंने पूछा, ‘तुम सोये
नहीं ? बोला, नींद नहीं आई।‘
उस दिन से मैंने थियेटर जाने का नाम न लिया। बच्चों में प्यार की जो एक भूख
होती है दूध, मिठाई और खिलौनों से भी ज्यादा मादक ज़ो माँ की गोद के सामने
संसार की निधि की भी परवाह नहीं करती, मोहन की वह भूख कभी संतुष्ट न होती
थी। पहाड़ों से टकराने वाली सारस की आवाज की तरह वह सदैव उसकी नसों में
गूँजा करती थी। जैसे भूमि पर फैली हुई लता कोई सहारा पाते ही उससे चिपट
जाती है, वही हाल मोहन का था। वह मुझसे ऐसा चिपट गया था कि पृथक् किया
जाता, तो उसकी कोमल बेल के टुकड़े-टुकड़े हो जाते। वह मेरे साथ तीन साल रहा
और तब मेरे जीवन में प्रकाश की एक रेखा डालकर अन्धकार में विलीन हो गया।
उस जीर्ण काया में कैसे-कैसे अरमान भरे हुए थे। कदाचित् ईश्वर ने मेरे जीवन
में एक अवलम्ब की सृष्टि करने के लिए उसे भेजा था। उद्देश्य पूरा हो गया तो
वह क्यों रहता।
'गर्मियों की तातील थी। दो तातीलों में मोहन मेरे ही साथ रहा था। मामाजी के
आग्रह करने पर भी घर न आया। अबकी कालेज के छात्रों ने काश्मीर-यात्रा करने
का निश्चय किया और मुझे उसका अध्यक्ष बनाया। काश्मीर यात्रा की अभिलाषा
मुझे चिरकाल से थी। इसी अवसर को गनीमत समझा। मोहन को मामाजी के पास भेजकर
मैं काश्मीर चला गया। दो महीने के बाद लौटा, तो मालूम हुआ मोहन बीमार है।
काश्मीर में मुझे बार-बार मोहन की याद आती थी और जी चाहता था, लौट जाऊँ।
मुझे उस पर इतना प्रेम है, इसका अन्दाज मुझे काश्मीर जाकर हुआ; लेकिन
मित्रों ने पीछा न छोड़ा। उसकी बीमारी की खबर पाते ही मैं अधीर हो उठा और
दूसरे ही दिन उसके पास जा पहुँचा। मुझे देखते ही उसके पीले और सूखे हुए
चेहरे पर आनन्द की स्फूर्ति झलक पड़ी। मैं दौड़कर उसके गले से लिपट गया। उसकी
आँखों में वह दूरदृष्टि और चेहरे पर वह अलौकिक आभा थी जो मँडराती हुई
मृत्यु की सूचना देती है। मैंने आवेश से काँपते हुए स्वर में पूछा, यह
तुम्हारी क्या दशा है मोहन ? दो ही महीने में यह नौबत पहुँच गई ? मोहन ने
सरल मुस्कान के साथ कहा, 'आप काश्मीर की सैर करने गये थे, मैं आकाश की सैर
करने जा रहा हूँ।'
'मगर यह दु:ख की कहानी कहकर मैं रोना और रुलाना नहीं चाहता। मेरे चले जाने
के बाद मोहन इतने परिश्रम से पढ़ने लगा मानो तपस्या कर रहा हो। उसे यह धुन
सवार हो गई थी कि साल भर की पढ़ाई दो महीने में समाप्त कर ले और स्कूल खुलने
के बाद मुझसे इस श्रम का प्रशंसारूपी उपहार प्राप्त करे। मैं किस तरह उसकी
पीठ ठोकूँगा, शाबाशी दूँगा, अपने मित्रों से बखान करूँगा, इन भावनाओं ने
अपने सारे बालोचित उत्साह और तल्लीनता से उसे वशीभूत कर लिया। मामाजी को
दफ्तर के कामों से इतना अवकाश कहाँ कि उसके मनोरंजन का ध्यान रखें। शायद
उसे प्रतिदिन कुछ-न-कुछ पढ़ते देखकर वह दिल में खुश होते थे। उसे खेलते
देखकर वह जरूर डॉटते। पढ़ते देखकर भला क्या कहते। फल यह हुआ कि मोहन को
हल्का-हल्का ज्वर आने लगा, किन्तु उस दशा में भी उसने पढ़ना न छोड़ा। कुछ और
व्यतिक्रम भी हुए, ज्वर का प्रकोप और भी बढ़ा; पर उस दशा में भी ज्वर कुछ
हल्का हो जाता, तो किताबें देखने लगता था। उसके प्राण मुझमें ही बने रहते
थे। ज्वर की दशा में भी नौकरों से पूछता भैया का पत्र आया ? वह कब आयेंगे ?
इसके सिवा और कोई दूसरी अभिलाषा न थी। अगर मुझे मालूम होता कि मेरी
काश्मीर-यात्रा इतनी महँगी पड़ेगी, तो उधर जाने का नाम भी न लेता। उसे बचाने
के लिए मुझसे जो कुछ हो सकता था, वह मैंने सब किया; किन्तु बुखार टाइफायड
था, उसकी जान लेकर ही उतरा। उसके जीवन के स्वप्न मेरे लिए किसी ऋषि के
आशीर्वाद बनकर मुझे प्रोत्साहित करने लगे और यह उसी का शुभ फल है कि आज आप
मुझे इस दशा में देख रहे हैं। मोहन की बाल अभिलाषाओं को प्रत्यक्ष रूप में
लाकर यह मुझे संतोष होता है कि शायद उसकी पवित्र आत्मा मुझे देखकर प्रसन्न
होती हो। यही प्रेरणा थी कि जिसने कठिन से कठिन परीक्षाओं में भी मेरा बेड़ा
पार लगाया; नहीं तो मैं आज भी वही मंदबुद्धि सूर्यप्रकाश हूँ, जिसकी सूरत
से आप चिढ़ते थे।'
उस दिन से मैं कई बार सूर्यप्रकाश से मिल चुका हूँ। वह जब इस तरफ आ जाता
है, तो बिना मुझसे मिले नहीं जाता। मोहन को अब भी वह अपना इष्टदेव समझता
है। मानव-प्रकृति का यह एक ऐसा रहस्य है, जिसे मैं आज तक नहीं समझ सका। |