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मध्यप्रदेश के एक पहाड़ी गॉँव में एक छोटे-से घर की छत पर एक युवक मानो
संध्या की निस्तब्धता में लीन बैठा था। सामने चन्द्रमा के मलिन प्रकाश में
ऊदी पर्वतमालाऍं अनन्त के स्वप्न की भॉँति गम्भीर रहस्यमय, संगीतमय, मनोहर
मालूम होती थीं, उन पहाड़ियों के नीचे जल-धारा की एक रौप्य रेखा ऐसी मालूम
होती थी, मानो उन पर्वतों का समस्त संगीत, समस्त गाम्भीर्य, सम्पूर्ण रहस्य
इसी उज्जवल प्रवाह में लीन हो गया हो। युवक की वेषभूषा से प्रकट होता था कि
उसकी दशा बहुत सम्पन्न नही है। हाँ, उसके मुख से तेज और मनस्विता झलक रही
थी। उसकी आँखो पर ऐनक न थी, न मूँछें मुड़ी हुई थीं, न बाल सँवारे हुए थे,
कलाई पर घड़ी न थी, यहाँ तक कि कोट के जेब में फाउन्टेनपेन भी न था। या तो
वह सिद्धान्तों का प्रेमी था, या आडम्बरों का शत्रु।
युवक विचारों में मौन उसी पर्वतमाला की ओर देख रहा था कि सहसा बादल की गरज
से भयंकर ध्वनि सुनायी दी। नदी का मधुर गान उस भीषण नाद में डूब गया। ऐसा
मालूम हुआ, मानो उस भयंकर नाद ने पर्वतो को भी हिला दिया है, मानो पर्वतों
में कोई घोर संग्राम छिड़ गया है। यह रेलगाड़ी थी, जो नदी पर बने हुए पुल
से चली आ रही थी।
एक युवती कमरे से निकल कर छत पर आयी और बोली—आज अभी से गाड़ी आ गयी। इसे भी
आज ही वैर निभाना था।
युवक ने युवती का हाथ पकड़ कर कहा—प्रिये ! मेरा जी चाहता है; कहीं न जाऊँ;
मैंने निश्चय कर लिया है। मैंने तुम्हारी खातिर से हामी भर ली थी, पर अब
जाने की इच्छा नहीं होती। तीन साल कैसे कटेंगे।
युवती ने कातर स्वर में कहा—तीन साल के वियोग के बाद फिर तो जीवनपर्यन्त
कोई बाधा न खड़ी होगी। एक बार जो निश्चय कर लिया है, उसे पूरा ही कर डालो,
अनंत सुख की आशा में मैं सारे कष्ट झेल लूँगी।
यह कहते हुए युवती जलपान लाने के बहाने से फिर भीतर चली गई। आँसुओं का आवेग
उसके बाबू से बाहर हो गया। इन दोनों प्राणियों के वैवाहिक जीवन की यह पहली
ही वर्षगॉठ थी। युवक बम्बई-विश्वविद्यालय से एम० ए० की उपाधि लेकर नागपुर
के एक कालेज में अध्यापक था। नवीन युग की नयी-नयी वैवाहिक और सामाजिक
क्रांतियों न उसे लेशमात्र भी विचलित न किया था। पुरानी प्रथाओं से ऐसी
प्रगाढ़ ममता कदाचित् वृद्धजनों को भी कम होगी। प्रोफेसर हो जाने के बाद
उसके माता-पिता ने इस बालिका से उसका विवाह कर दिया था। प्रथानुसार ही उस
आँखमिचौनी के खैल मे उन्हें प्रेम का रत्न मिल गया। केवल छुट्टियों में
यहाँ पहली गाड़ी से आता और आखिरी गाड़ी से जाता। ये दो-चार दिन मीठे
स्व्प्न के समान कट जाते थे। दोनों बालकों की भॉँति रो-रोकर बिदा होते। इसी
कोठे पर खड़ी होकर वह उसको देखा करती, जब तक निर्दयी पहाड़ियां उसे आड़ मे
न कर लेतीं। पर अभी साल भी न गुजरने पाया था कि वियोग ने अपना षड्यंत्र
रचना शुरू कर दिया। केशव को विदेश जा कर शिक्षा पूरी करने के लिए एक वृत्ति
मिल गयी। मित्रों ने बधाइयॉँ दी। किसके ऐसे भाग्य हैं, जिसे बिना मॉँगे
स्वभाग्य-निर्माण का ऐसा अवसर प्राप्त हो। केशव बहुत प्रसन्न था। वह इसी
दुविधा में पड़ा हुआ घर आया। माता-पिता और अन्य सम्बन्धियों ने इस यात्रा
का घोर विरोध किया। नगर में जितनी बधाइयॉ मिली थीं, यहॉं उससे कहीं अधिक
बाधाऍं मिलीं। किन्तु सुभद्रा की उच्चाकांक्षाओं की सीमा न थी। वह कदाचित्
केशव को इन्द्रासन पर बैठा हुआ देखना चाहती थी। उसके सामने तब भी वही पति
सेवा का आदर्श होता था। वह तब भी उसके सिर में तेल डालेगी, उसकी धोती
छॉँटेगी, उसके पॉँव दबायेगी और उसके पंखा झलेगी। उपासक की महत्वाकांक्षा
उपास्य ही के प्रति होती है। वह उसको सोने का मन्दिर बनवायेगा, उसके
सिंहासन को रत्नों से सजायेगा, स्वर्ग से पुष्प लाकर भेंट करेगा, पर वह
स्वयं वही उपासक रहेगा। जटा के स्थान पर मुकुट या कौपीन की जगह पिताम्बर की
लालसा उसे कभी नही सताती। सुभद्रा ने उस वक्त तक दम न लिया जब तक केशव ने
विलायत जाने का वादा न कर लिया, माता-पिता ने उसे कंलकिनी और न जाने
क्या-क्या कहा, पर अन्त में सहमत हो गए। सब तैयारियां हो गयीं। स्टेशन समीप
ही था। यहाँ गाड़ी देर तक खड़ी रहती थी। स्टेशनों के समीपस्थ गॉँव के
निवासियों के लिए गाड़ी का आना शत्रु का धावा नहीं, मित्र का पदार्पण है।
गाड़ी आ गयी। सुभद्रा जलपान बना कर पति का हाथ धुलाने आयी थी। इस समय केशव
की प्रेम-कातर आपत्ति ने उसे एक क्षण के लिए विचलित कर दिया। हा ! कौन
जानता है, तीन साल मे क्या हो जाए ! मन में एक आवेश उठा—कह दूँ, प्यारे मत
जाओ। थोड़ी ही खायेंगे, मोटा ही पहनेगें, रो-रोकर दिन तो न कटेगें। कभी
केशव के आने में एक-आधा महीना लग जाता था, तो वह विकल हो जाएा करता थी। यही
जी चाहता था, उड़कर उनके पास पहुँच जाऊँ। फिर ये निर्दयी तीन वर्ष कैसे
कटेंगें ! लेकिन उसने कठोरता से इन निराशाजनक भावों को ठुकरा दिया और
कॉँपते कंठ से बोली—जी तो मेरा भी यही चाहता है। जब तीन साल का अनुमान करती
हूँ, तो एक कल्प-सा मालूम होता है। लेकिन जब विलायत में तुम्हारे सम्मान और
आदर का ध्यान करती हूँ, तो ये तीन साल तीन दिन से मालूम होते हैं। तुम तो
जहाज पर पहुँचते ही मुझे भूल जाओगे। नये-नये दृश्य तुम्हारे मनोरंजन के लिए
आ खड़े होंगे। यूरोप पहुँचकर विद्वानो के सत्संग में तुम्हें घर की याद भी
न आयेगी। मुझे तो रोने के सिवा और कोई धंधा नहीं है। यही स्मृतियॉँ ही मेरे
जीवन का आधार होंगी। लेकिन क्या करुँ, जीवन की भोग-लालसा तो नहीं मानती।
फिर जिस वियोग का अंत जीवन की सारी विभूतियॉँ अपने साथ लायेगा, वह वास्तव
में तपस्या है। तपस्या के बिना तो वरदान नहीं मिलता।
केशव को भी अब ज्ञात हुआ कि क्षणिक मोह के आवेश में स्वभाग्य निर्माण का
ऐसा अच्छा अवसर त्याग देना मूर्खता है। खड़े होकर बोले—रोना-धोना मत, नहीं
तो मेरा जी न लगेगा।
सुभद्रा ने उसका हाथ पकड़कर हृदय से लगाते हुए उनके मुँह की ओर सजल नेत्रों
से देखा ओर बोली—पत्र बराबर भेजते रहना।
सुभद्रा ने फिर आँखें में आँसू भरे हुए मुस्करा कर कहा—देखना विलायती मिसों
के जाल में न फँस जाना।
केशव फिर चारपाई पर बैठ गया और बोला—तुम्हें यह संदेह है, तो लो, मैं
जाऊँगा ही नहीं।
सुभ्रदा ने उसके गले मे बॉँहे डाल कर विश्वास-पूर्ण दृष्टि से देखा और
बोली—मैं दिल्लगी कर रही थी।
‘अगर इन्द्रलोक की अप्सरा भी आ जाएे, तो आँख उठाकर न देखूं। ब्रह्मा ने ऐसी
दूसरी सृष्टी की ही नहीं।’
‘बीच में कोई छुट्टी मिले, तो एक बार चले आना।’
‘नहीं प्रिये, बीच में शायद छुट्टी न मिलेगी। मगर जो मैंने सुना कि तुम
रो-रोकर घुली जाती हो, दाना-पानी छोड़ दिया है, तो मैं अवश्य चला आऊँगा ये
फूल जरा भी कुम्हलाने न पायें।’
दोनों गले मिल कर बिदा हो गये। बाहर सम्बन्धियों और मित्रों का एक समूह
खड़ा था। केशव ने बड़ों के चरण छुए, छोटों को गले लगाया और स्टेशन की ओर
चले। मित्रगण स्टेशन तक पहुँचाने गये। एक क्षण में गाड़ी यात्री को लेकर चल
दी।
उधर केशव गाड़ी में बैठा हुआ पहाड़ियों की बहार देख रहा था; इधर सुभद्रा
भूमि पर पड़ी सिसकियॉ भर रही थी।
2
दिन गुजरने लगे। उसी तरह, जैसे बीमारी के दिन कटते हैं—दिन पहाड़ रात काली
बला। रात-भर मनाते गुजरती थी कि किसी तरह भोर होता, तो मनाने लगती कि जल्दी
शाम हो। मैके गयी कि वहाँ जी बहलेगा। दस-पॉँच दिन परिवर्तन का कुछ असर हुआ,
फिर उनसे भी बुरी दशा हुई, भाग कर ससुराल चली आयी। रोगी करवट बदलकर आराम का
अनुभव करता है।
पहले पॉँच-छह महीनों तक तो केशव के पत्र पंद्रहवें दिन बराबर मिलते रहे।
उसमें वियोग के दु:ख कम, नये-नये दृश्यों का वर्णन अधिक होता था। पर
सुभद्रा संतुष्ट थी। पत्र लिखती, तो विरह-व्यथा के सिवा उसे कुछ सूझता ही न
था। कभी-कभी जब जी बेचैन हो जाता, तो पछताती कि व्यर्थ जाने दिया। कहीं एक
दिन मर जाऊँ, तो उनके दर्शन भी न हों।
लेकिन छठे महीने से पत्रों में भी विलम्ब होने लगा। कई महीने तक तो महीने
में एक पत्र आता रहा, फिर वह भी बंद हो गया। सुभद्रा के चार-छह पत्र पहुँच
जाते, तो एक पत्र आ जाता; वह भी बेदिली से लिखा हुआ—काम की अधिकता और समय
के अभाव के रोने से भरा हुआ। एक वाक्य भी ऐसा नहीं, जिससे हृदय को शांति
हो, जो टपकते हुए दिल पर मरहम रखे। हा ! आदि से अन्त तक ‘प्रिये’ शब्द का
नाम नहीं। सुभद्रा अधीर हो उठी। उसने योरप-यात्रा का निश्यच कर लिया। वह
सारे कष्ट सह लेगी, सिर पर जो कुछ पड़ेगी सह लेगी; केशव को आँखों से देखती
रहेगी। वह इस बात को उनसे गुप्त रखेगी, उनकी कठिनाइयों को और न बढ़ायेगी,
उनसे बोलेगी भी नहीं ! केवल उन्हें कभी-कभी आँख भर कर देख लेगी। यही उसकी
शांति के लिए काफी होगा। उसे क्या मालूम था कि उसका केशव उसका नहीं रहा। वह
अब एक दूसरी ही कामिनी के प्रेम का भिखारी है।
सुभद्रा कई दिनों तक इस प्रस्ताव को मन में रखे हुए सेती रही। उसे किसी
प्रकार की शंका न होती थी। समाचार-पत्रों के पढ़ते रहने से उसे समुद्री
यात्रा का हाल मालूम होता रहता था। एक दिन उसने अपने सास-ससुर के सामने
अपना निश्चय प्रकट किया। उन लोगों ने बहुत समझाया; रोकने की बहुत चेष्टा
की; लेकिन सुभद्रा ने अपना हठ न छोड़ा। आखिर जब लोगों ने देखा कि यह किसी
तरह नहीं मानती, तो राजी हो गये। मैकेवाले समझा कर हार गये। कुछ रूपये उसने
स्वयं जमा कर रखे थे, कुछ ससुराल में मिले। मॉँ-बाप ने भी मदद की। रास्ते
के खर्च की चिंता न रही। इंग्लैंड पहुँचकर वह क्या करेगी, इसका अभी उसने
कुछ निश्चय न किया। इतना जानती थी कि परिश्रम करने वाले को रोटियों की कहीं
कमी नहीं रहती।
विदा होते समय सास और ससुर दोनों स्टेशन तक आए। जब गाड़ी ने सीटी दी, तो
सुभद्रा ने हाथ जोड़कर कहा—मेरे जाने का समाचार वहाँ न लिखिएगा। नहीं तो
उन्हें चिंता होगी ओर पढ़ने में उनका जी न लगेगा।
ससुर ने आश्वासन दिया। गाड़ी चल दी।
3
लंदन के उस हिस्से में, जहाँ इस समृद्धि के समय में भी दरिद्रता का राज्य
हैं, ऊपर के एक छोटे से कमरे में सुभद्रा एक कुर्सी पर बैठी है। उसे यहाँ
आये आज एक महीना हो गया है। यात्रा के पहले उसके मन मे जितनी शंकाएँ थी,
सभी शान्त होती जा रही है। बम्बई-बंदर में जहाज पर जगह पाने का प्रश्न बड़ी
आसानी से हल हो गया। वह अकेली औरत न थी जो योरोप जा रही हो। पॉँच-छह
स्त्रियॉँ और भी उसी जहाज से जा रही थीं। सुभद्रा को न जगह मिलने में कोई
कठिनाई हुई, न मार्ग में। यहाँ पहुँचकर और स्त्रियों से संग छूट गया। कोई
किसी विद्यालय में चली गयी; दो-तीन अपने पतियों के पास चलीं गयीं, जो यहाँ
पहले आ गये थे। सुभद्रा ने इस मुहल्ले में एक कमरा ले लिया। जीविका का
प्रश्न भी उसके लिए बहुत कठिन न रहा। जिन महिलाओं के साथ वह आयी थी, उनमे
कई उच्च- अधिकारियों की पत्नियॉँ थी। कई अच्छे-अच्छे अँगरेज घरनों से उनका
परिचय था। सुभद्रा को दो महिलाओं को भारतीय संगीत और हिंदी-भाषा सिखाने का
काम मिल गया। शेष समय मे वह कई भारतीय महिलाओं के कपड़े सीने का काम कर
लेती है। केशव का निवास-स्थान यहाँ से निकट है, इसीलिए सुभद्रा ने इस
मुहल्ले को पंसद किया है। कल केशव उसे दिखायी दिया था। ओह ! उन्हें ‘बस’ से
उतरते देखकर उसका चित्त कितना आतुर हो उठा था। बस यही मन में आता था कि
दौड़कर उनके गले से लिपट जाए और पूछे—क्यों जी, तुम यहाँ आते ही बदल गए।
याद है, तुमने चलते समय क्या-क्या वादा किये थे? उसने बड़ी मुश्किल से अपने
को रोका था। तब से इस वक्त तक उसे मानो नशा-सा छाया हुआ है, वह उनके इतने
समीप है ! चाहे रोज उन्हें देख सकती है, उनकी बातें सुन सकती है; हाँ,
स्पर्श तक कर सकती है। अब यह उससे भाग कर कहाँ जाएेगें? उनके पत्रों की अब
उसे क्या चिन्ता है। कुछ दिनों के बाद सम्भव है वह उनसे होटल के नौकरों से
जो चाहे, पूछ सकती है।
संध्या हो गयी थी। धुऍं में बिजली की लालटनें रोती आँखें की भाँति
ज्योतिहीन-सी हो रही थीं। गली में स्त्री-पुरुष सैर करने जा रहे थे।
सुभद्रा सोचने लगी—इन लोगों को आमोद से कितना प्रेम है, मानो किसी को
चिन्ता ही नहीं, मानो सभी सम्पन्न है, जब ही ये लोग इतने एकाग्र होकर सब
काम कर सकते है। जिस समय जो काम करने है जी-जान से करते हैं। खेलने की उमंग
है, तो काम करने की भी उमंग है और एक हम हैं कि न हँसते है, न रोते हैं,
मौन बने बैठे रहते हैं। स्फूर्ति का कहीं नाम नहीं, काम तो सारे दिन करते
हैं, भोजन करने की फुरसत भी नहीं मिलती, पर वास्तव में चौथाई समय भी काम
में नही लगते। केवल काम करने का बहाना करते हैं। मालूम होता है, जाति
प्राण-शून्य हो गयी हैं।
सहसा उसने केशव को जाते देखा। हाँ, केशव ही था। कुर्सी से उठकर बरामदे में
चली आयी। प्रबल इच्छा हुई कि जाकर उनके गले से लिपट जाए। उसने अगर अपराध
किया है, तो उन्हीं के कारण तो। यदि वह बराबर पत्र लिखते जाते, तो वह क्यों
आती?
लेकिन केशव के साथ यह युवती कौन है? अरे ! केशव उसका हाथ पकड़े हुए है।
दोनों मुस्करा-मुस्करा कर बातें करते चले जाते हैं। यह युवती कौन है?
सुभद्रा ने ध्यान से देखा। युवती का रंग सॉँवला था। वह भारतीय बालिका थी।
उसका पहनावा भारतीय था। इससे ज्यादा सुभद्रा को और कुछ न दिखायी दिया। उसने
तुरंत जूते पहने, द्वार बन्द किया और एक क्षण में गली में आ पहुँची। केशव
अब दिखायी न देता था, पर वह जिधर गया था, उधर ही वह बड़ी तेजी से लपकी चली
जाती थी। यह युवती कौन है? वह उन दोनों की बातें सुनना चाहती थी, उस युवती
को देखना चाहती थी उसके पॉँव इतनी तेज से उठ रहे थे मानो दौड़ रही हो। पर
इतनी जल्दी दोनो कहाँ अदृश्य हो गये? अब तक उसे उन लोगों के समीप पहुँच
जाना चाहिए था। शायद दोनों किसी ‘बस’ पर जा बैठे।
अब वह गली समाप्त करके एक चौड़ी सड़क पर आ पहुँची थी। दोनों तरफ बड़ी-बड़ी
जगमगाती हुई दुकाने थी, जिनमें संसार की विभूतियॉं गर्व से फूली उठी थी।
कदम-कदम पर होटल और रेस्ट्रॉँ थे। सुभद्रा दोनों और नेत्रों से ताकती, पगपग
पर भ्रांति के कारण मचलती कितनी दूर निकल गयी, कुछ खबर नहीं।
फिर उसने सोचा—यों कहाँ तक चली जाऊंगी? कौन जाने किधर गये। चलकर फिर अपने
बरामदे से देखूँ। आखिर इधर से गये है, तो इधर से लौटेंगे भी। यह ख्याल आते
ही वह घूम पड़ी ओर उसी तरह दौड़ती हुई अपने स्थान की ओर चली। जब वहाँ
पहुँची, तो बारह बज गये थे। और इतनी देर उसे चलते ही गुजरा ! एक क्षण भी
उसने कहीं विश्राम नहीं किया।
वह ऊपर पहुँची, तो गृह-स्वामिनी ने कहा—तुम्हारे लिए बड़ी देर से भोजन रखा
हुआ है।
सुभद्रा ने भोजन अपने कमरे में मँगा लिया पर खाने की सुधि किसे थी ! वह उसी
बरामदे मे उसी तरफ टकटकी लगाये खड़ी थी, जिधर से केशव गया।
एक बज गया, दो बजा, फिर भी केशव नहीं लौटा। उसने मन में कहा—वह किसी दूसरे
मार्ग से चले गये। मेरा यहाँ खड़ा रहना व्यर्थ है। चलूँ, सो रहूँ। लेकिन
फिर ख्याल आ गया, कहीं आ न रहे हों।
मालूम नहीं, उसे कब नींद आ गयी।
4
दूसरे दिन प्रात:काल सुभद्रा अपने काम पर जाने को तैयार हो रही थी कि एक
युवती रेशमी साड़ी पहने आकर खड़ी हो गयी और मुस्कराकर बोली—क्षमा कीजिएगा,
मैंने बहुत सबेरे आपको कष्ट दिया। आप तो कहीं जाने को तैयार मामूल होती
है।
सुभद्रा ने एक कुर्सी बढ़ाते हुए कहा—हाँ, एक काम से बाहर जा रही थी। मैं
आपकी क्या सेवा कर सकती हूँ?
यह कहते हुए सुभद्रा ने युवती को सिर से पॉँव तक उसी आलोचनात्मक दृष्टि से
देखा, जिससे स्त्रियॉँ ही देख सकती हैं। सौंदर्य की किसी परिभाषा से भी उसे
सुन्दरी न कहा जा सकता था। उसका रंग सॉँवला, मुँह कुछ चौड़ा, नाक कुछ
चिपटी, कद भी छोटा और शरीर भी कुछ स्थूल था। आँखों पर ऐनक लगी हुई थी।
लेकिन इन सब कारणों के होते हुए भी उसमें कुछ ऐसी बात थी, जो आँखों को अपनी
ओर खींच लेती थी। उसकी वाणी इतनी मधुर, इतनी संयमित, इतनी विनम्र थी कि जान
पड़ता था किसी देवी के वरदान हों। एक-एक अंग से प्रतिमा विकीर्ण हो रही थी।
सुभद्रा उसके सामने हलकी एवं तुच्छ मालूम होती थी। युवती ने कुर्सी पर
बैठते हुए कहा—
‘अगर मैं भूलती हूँ, तो मुझे क्षमा कीजिएगा। मैंने सुना है कि आप कुछ कपड़े
भी सीती है, जिसका प्रमाण यह है कि यहाँ सीविंग मशीन मौजूद है।‘
सुभद्रा—मैं दो लेड़ियों को भाषा पढ़ाने जाएा करती हूँ, शेष समय में कुछ
सिलाई भी कर लेती हूँ। आप कपड़े लायी हैं।
युवती—नहीं, अभी कपड़े नहीं लायी। यह कहते हुए उसने लज्जा से सिर झुका कर
मुस्काराते हुए कहा—बात यह है कि मेरी शादी होने जा रही है। मैं
वस्त्राभूषण सब हिंदुस्तानी रखना चाहती हूँ। विवाह भी वैदिक रीति से ही
होगा। ऐसे कपड़े यहाँ आप ही तैयार कर सकती हैं।
सुभद्रा ने हँसकर कहा—मैं ऐसे अवसर पर आपके जोड़े तैयार करके अपने को धन्य
समझूँगी। वह शुभ तिथि कब है?
युवती ने सकुचाते हुए कहा—वह तो कहते हैं, इसी सप्ताह में हो जाए; पर मैं
उन्हें टालती आती हूँ। मैंने तो चाहा था कि भारत लौटने पर विवाह होता, पर
वह इतने उतावले हो रहे हैं कि कुछ कहते नहीं बनता। अभी तो मैंने यही कह कर
टाला है कि मेरे कपड़े सिल रहे हैं।
सुभद्रा—तो मैं आपके जोड़े बहुत जल्द दे दूँगी।
युवती ने हँसकर कहा—मैं तो चाहती थी आप महीनों लगा देतीं।
सुभद्रा—वाह, मैं इस शुभ कार्य में क्यों विघ्न डालने लगी? मैं इसी सप्ताह
में आपके कपड़े दे दूँगी, और उनसे इसका पुरस्कार लूँगी।
युवती खिलखिलाकर हँसी। कमरे में प्रकाश की लहरें-सी उठ गयीं। बोलीं—इसके
लिए तो पुरस्कार वह देंगे, बड़ी खुशी से देंगे और तुम्हारे कृतज्ञ होंगे।
मैंने प्रतिज्ञा की थी कि विवाह के बंधन में पड़ूँगी ही नही; पर उन्होंने
मेरी प्रतिज्ञा तोड़ दी। अब मुझे मालूम हो रहा है कि प्रेम की बेड़ियॉँ
कितनी आनंदमय होती है। तुम तो अभी हाल ही में आयी हो। तुम्हारे पति भी साथ
होंगे?
सुभद्रा ने बहाना किया। बोली—वह इस समय जर्मनी में हैं। संगीत से उन्हें
बहुत प्रेम है। संगीत ही का अध्ययन करने के लिए वहाँ गये हैं।
‘तुम भी संगीत जानती हो?’
‘बहुत थोड़ा।’
‘केशव को संगीत बहुत प्रेम है।’
केशव का नाम सुनकर सुभद्रा को ऐसा मालूम हुआ, जैसे बिच्छू ने काट लिया हो।
वह चौंक पड़ी।
युवती ने पूछा—आप चौंक कैसे गयीं? क्या केशव को जानती हो?
सुभद्रा ने बात बनाकर कहा—नहीं, मैंने यह नाम कभी नहीं सुना। वह यहाँ क्या
करते हैं?
सुभद्रा का ख्याल आया, क्या केशव किसी दूसरे आदमी का नाम नहीं हो सकता?
इसलिए उसने यह प्रश्न किया। उसी जवाब पर उसकी जिंदगी का फैसला था।
युवती ने कहा—यहाँ विद्यालय में पढ़ते हैं। भारत सरकार ने उन्हें भेजा है।
अभी साल-भर भी तो आए नहीं हुआ। तुम देखकर प्रसन्न होगी। तेज और बुद्धि की
मूर्ति समझ लो। यहाँ के अच्छे-अच्छे प्रोफेसर उनका आदर करते है। ऐसा सुन्दर
भाषण तो मैंने किसी के मुँह से सुना ही नहीं। जीवन आदर्श है। मुझसे उन्हें
क्यों प्रेम हो गया है, मुझे इसका आश्चर्य है। मुझमें न रूप है, न लावण्य।
ये मेरा सौभाग्य है। तो मैं शाम को कपड़े लेकर आऊँगी।
सुभद्रा ने मन में उठते हुए वेग को सभॉँल कर कहा—अच्छी बात है।
जब युवती चली गयी, तो सुभद्रा फूट-फूटकर रोने लगी। ऐसा जान पड़ता था, मानो
देह में रक्त ही नहीं, मानो प्राण निकल गये हैं वह कितनी नि:सहाय, कितनी
दुर्बल है, इसका आज अनुभव हुआ। ऐसा मालूम हुआ, मानों संसार में उसका कोई
नहीं है। अब उसका जीवन व्यर्थ है। उसके लिए अब जीवन में रोने के सिवा और
क्या है? उनकी सारी ज्ञानेंद्रियॉँ शिथिल-सी हो गयी थीं मानों वह किसी ऊँचे
वृक्ष से गिर पड़ी हो। हा ! यह उसके प्रेम और भक्ति का पुरस्कार है। उसने
कितना आग्रह करके केशव को यहाँ भेजा था? इसलिए कि यहाँ आते ही उसका सर्वनाश
कर दें?
पुरानी बातें याद आने लगी। केशव की वह प्रेमातुर आँखें सामने आ गयीं। वह
सरल, सहज मूर्ति आँखों के सामने नाचने लगी। उसका जरा सिर धमकता था, तो केशव
कितना व्याकुल हो जाता था। एक बार जब उसे फसली बुखार आ गया था, तो केशव
घबरा कर, पंद्रह दिन की छुट्टी लेकर घर आ गया था और उसके सिरहाने बैठा
रात-भर पंखा झलता रहा था। वही केशव अब इतनी जल्द उससे ऊब उठा! उसके लिए
सुभद्रा ने कौन-सी बात उठा रखी। वह तो उसी का अपना प्राणाधार, अपना जीवन
धन, अपना सर्वस्व समझती थी। नहीं-नहीं, केशव का दोष नहीं, सारा दोष इसी का
है। इसी ने अपनी मधुर बातों से अन्हें वशीभूत कर लिया है। इसकी विद्या,
बुद्धि और वाकपटुता ही ने उनके हृदय पर विजय पायी है। हाय! उसने कितनी बार
केशव से कहा था, मुझे भी पढ़ाया करो, लेकिन उन्होंने हमेशा यही जवाब दिया,
तुम जैसी हो, मुझे वैसी ही पसन्द हो। मैं तुम्हारी स्वाभाविक सरलता को
पढ़ा-पढ़ा कर मिटाना नहीं चाहता। केशव ने उसके साथ कितना बड़ा अन्याय किया
है! लेकिन यह उनका दोष नहीं, यह इसी यौवन-मतवाली छोकरी की माया है।
सुभद्रा को इस ईर्ष्या और दु:ख के आवेश में अपने काम पर जाने की सुध न रही।
वह कमरे में इस तरह टहलने लगी, जैसे किसी ने जबरदस्ती उसे बन्द कर दिया हो।
कभी दोनों मुट्ठियॉँ बँध जातीं, कभी दॉँत पीसने लगती, कभी ओंठ काटती।
उन्माद की-सी दशा हो गयी। आँखों में भी एक तीव्र ज्वाला चमक उठी।
ज्यों-ज्यों केशव के इस निष्ठुर आघात को सोचती, उन कष्टों को याद करती, जो
उसने उसके लिए झेले थे, उसका चित्त प्रतिकार के लिए विकल होता जाता था। अगर
कोई बात हुई होती, आपस में कुछ मनोमालिन्य का लेश भी होता, तो उसे इतना
दु:ख न होता। यह तो उसे ऐसा मालूम होता था कि मानों कोई हँसते-हँसते अचानक
गले पर चढ़ बैठे। अगर वह उनके योग्य नहीं थी, तो उन्होंने उससे विवाह ही
क्यों किया था? विवाह करने के बाद भी उसे क्यों न ठुकरा दिया था? क्यों
प्रेम का बीज बोया था? और आज जब वह बीच पल्लवों से लहराने लगा, उसकी जड़ें
उसके अन्तस्तल के एक-एक अणु में प्रविष्ट हो गयीं, उसका रक्त उसका सारा
उत्सर्ग वृक्ष को सींचने और पालने में प्रवृत्त हो गया, तो वह आज उसे उखाड़
कर फेंक देना चाहते हैं। क्या हृदय के टुकड़े-टुकड़े हुए बिना वृक्ष उखड़
जायगा?
सहसा उसे एक बात याद आ गयी। हिंसात्मक संतोष से उसका उत्तेजित मुख-मण्डल और
भी कठोर हो गया। केशव ने अपने पहले विवाह की बात इस युवती से गुप्त रखी
होगी ! सुभद्रा इसका भंडाफोड़ करके केशव के सारे मंसूबों को धूल में मिला
देगी। उसे अपने ऊपर क्रोध आया कि युवती का पता क्यों न पूछ लिया। उसे एक
पत्र लिखकर केशव की नीचता, स्वार्थपरता और कायरता की कलई खोल देती—उसके
पांडित्य, प्रतिभा और प्रतिष्ठा को धूल में मिला देती। खैर, संध्या-समय तो
वह कपड़े लेकर आयेगी ही। उस समय उससे सारा कच्चा चिट्ठा बयान कर दूँगी।
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सुभ्रदा दिन-भर युवती का इन्तजार करती रही। कभी बरामदे में आकर इधर-उधर
निगाह दौड़ाती, कभी सड़क पर देखती, पर उसका कहीं पता न था। मन में झुँझलाती
थी कि उसने क्यों उसी वक्त सारा वृतांत न कह सुनाया।
केशव का पता उसे मालूम था। उस मकान और गली का नम्बर तक याद था, जहाँ से वह
उसे पत्र लिखा करता था। ज्यों-ज्यों दिन ढलने लगा और युवती के आने में
विलम्ब होने लगा, उसके मन में एक तरंगी-सी उठने लगी कि जाकर केशव को
फटकारे, उसका सारा नशा उतार दे, कहे—तुम इतने भंयकर हिंसक हो, इतने महान
धूर्त हो, यह मुझे मालूम न था। तुम यही विद्या सीखने यहाँ आये थे। तुम्हारे
पांडित्य की यही फल है ! तुम एक अबला को जिसने तुम्हारे ऊपर अपना सर्वस्व
अर्पण कर दिया, यों छल सकते हो। तुममें क्या मनुष्यता नाम को भी नहीं रह
गयी? आखिर तुमने मेरे लिए क्या सोचा है। मैं सारी जिंदगी तुम्हारे नाम को
रोती रहूँ ! लेकिन अभिमान हर बार उसके पैरों को रोक लेता। नहीं, जिसने उसके
साथ ऐसा कपट किया है, उसका इतना अपमान किया है, उसके पास वह न जायगी। वह
उसे देखकर अपने आँसुओं को रोक सकेगी या नहीं, इसमें उसे संदेह था, और केशव
के सामने वह रोना नहीं चाहती थी। अगर केशव उससे घृणा करता है, तो वह भी
केशव से घृणा करेगी। संध्या भी हो गयी, पर युवती न आयी। बत्तियॉँ भी जलीं,
पर उसका पता नहीं।
एकाएक उसे अपने कमरे के द्वार पर किसी के आने की आहट मालूम हुई। वह कूदकर
बाहर निकल आई। युवती कपड़ों का एक पुलिंदा लिए सामने खड़ी थी। सुभद्रा को
देखते ही बोली—क्षमा करना, मुझे आने में देर हो गयी। बात यह है कि केशव को
किसी बड़े जरूरी काम से जर्मनी जाना है। वहाँ उन्हें एक महीने से ज्यादा लग
जायगा। वह चाहते हैं कि मैं भी उनके साथ चलूँ। मुझसे उन्हें अपनी थीसिस
लिखने में बड़ी सहायता मिलेगी। बर्लिन के पुस्तकालयों को छानना पड़ेगा।
मैंने भी स्वीकार कर लिया है। केशव की इच्छा है कि जर्मनी जाने के पहले
हमारा विवाह हो जाए। कल संध्या समय संस्कार हो जायगा। अब ये कपड़े मुझे आप
जर्मनी से लौटने पर दीजिएगा। विवाह के अवसर पर हम मामूली कपड़े पहन लेंगे।
और क्या करती? इसके सिवा कोई उपाय न था, केशव का जर्मन जाना अनिवार्य है।
सुभद्रा ने कपड़ो को मेज पर रख कर कहा—आपको धोखा दिया गया है।
युवती ने घबरा कर पूछा—धोखा? कैसा धोखा? मैं बिलकुल नहीं समझती। तुम्हारा
मतलब क्या है?
सुभद्रा ने संकोच के आवरण को हटाने की चेष्टा करते हुए कहा—केशव तुम्हें
धोखा देकर तुमसे विवाह करना चाहता है।
‘केशव ऐसा आदमी नहीं है, जो किसी को धोखा दे। क्या तुम केशव को जानती हो?
‘केशव ने तुमसे अपने विषय में सब-कुछ कह दिया है?’
‘सब-कुछ।’
‘मेरा तो यही विचार है कि उन्होंने एक बात भी नहीं छिपाई?’
‘तुम्हे मालूम है कि उसका विवाह हो चुका है?’
युवती की मुख-ज्योति कुछ मलिन पड़ गयी, उसकी गर्दन लज्जा से झुक गयी।
अटक-अटक कर बोली—हाँ, उन्होंने मुझसे..... यह बात कही थी।
सुभद्रा परास्त हो गयी। घृणा-सूचक नेत्रों से देखती हुई बोली—यह जानते हुए
भी तुम केशव से विवाह करने पर तैयार हो।
युवती ने अभिमान से देखकर कहा—तुमने केशव को देखा है?
‘नहीं, मैंने उन्हें कभी नहीं देखा।’
‘फिर, तुम उन्हें कैसे जानती हो?’
‘मेरे एक मित्र ने मुझसे यह बात कही हे, वह केशव को जानता है।’
‘अगर तुम एक बार केशव को देख लेतीं, एक बार उससे बातें कर लेतीं, तो मुझसे
यह प्रश्न न करती। एक नहीं, अगर उन्होंने एक सौ विवाह किये होते, तो मैं
इनकार न करती। उन्हें देखकर में अपने को बिलकुल भूल जाती हूँ। अगर उनसे
विवाह न करूँ, ता फिर मुझे जीवन-भर अविवाहित ही रहना पड़ेगा। जिस समय वह
मुझसे बातें करने लगते हैं, मुझे ऐसा अनुभव होता है कि मेरी आत्मा पुष्पकी
भॉँति खिली जा रही है। मैं उसमें प्रकाश और विकास का प्रत्यक्ष अनुभव करती
हूँ। दुनिया चाहे जितना हँसे, चाहे जितनी निन्दा करे, मैं केशव को अब नहीं
छोड़ सकती। उनका विवाह हो चुका है, वह सत्य है; पर उस स्त्री से उनका मन
कभी न मिला। यथार्थ में उनका विवाह अभी नहीं हुआ। वह कोई साधारण,
अर्द्धशिक्षिता बालिका है। तुम्हीं सोचों, केशव जैसा विद्वान, उदारचेता,
मनस्वी पुरूष ऐसी बालिका के साथ कैसे प्रसन्न रह सकता है? तुम्हें कल मेरे
विवाह में चलना पड़ेगा।
सुभद्रा का चेहरा तमतमाया जा रहा था। केशव ने उसे इतने काले रंगों में रंगा
है, यह सोच कर उसका रक्त खौल रहा था। जी में आता था, इसी क्षण इसको दुत्कार
दूँ, लेकिन उसके मन में कुछ और ही मंसूबे पैदा होने लगे थे। उसने गंभीर, पर
उदासीनता के भाव से पूछा—केशव ने कुछ उस स्त्री के विषय में नही कहा?
युवती ने तत्परता से कहा—घर पहुँचने पर वह उससे केवल यही कह देंगे कि हम और
तुम अब स्त्री और पुरूष नहीं रह सकते। उसके भरण-पोषण का वह उसके इच्छानुसार
प्रबंध कर देंगे, इसके सिवा वह और क्या कर सकते हैं। हिन्दू-नीति में
पति-पत्नी में विच्छेद नहीं हो सकता। पर केवल स्त्री को पूर्ण रीति से
स्वाधीन कर देने के विचार से वह ईसाई या मुसलमान होने पर भी तैयार हैं। वह
तो अभी उसे इसी आशय का एक पत्र लिखने जा रहे थे, पर मैंने ही रोक लिया।
मुझे उस अभागिनी पर बड़ी दया आती है, मैं तो यहाँ तक तैयार हूँ कि अगर उसकी
इच्छा हो तो वह भी हमारे साथ रहे। मैं उसे अपनी बहन समझूँगी। किंतु केशव
इससे सहमत नहीं होते।
सुभद्रा ने व्यंग्य से कहा—रोटी-कपड़ा देने को तैयार ही हैं, स्त्री को
इसके सिवा और क्या चाहिए?
युवती ने व्यंग्य की कुछ परवाह न करके कहा—तो मुझे लौटने पर कपड़े तैयार
मिलेंगे न?
सुभद्रा—हाँ, मिल जाएेंगे।
युवती—कल तुम संध्या समय आओगी?
सुभद्रा—नहीं, खेद है, अवकाश नहीं है।
युवती ने कुछ न कहा। चली गयी।
6
सुभद्रा कितना ही चाहती थी कि समस्या पर शांतचित्त होकर विचार करे, पर हृदय
में मानों ज्वाला-सी दहक रही थी! केशव के लिए वह अपने प्राणों का कोई मूल्य
नहीं समझी थी। वही केशव उसे पैरों से ठुकरा रहा है। यह आघात इतना आकस्मिक,
इतना कठोर था कि उसकी चेतना की सारी कोमलता मूर्च्छित हो गयी ! उसके एक-एक
अणु प्रतिकार के लिए तड़पने लगा। अगर यही समस्या इसके विपरीत होती, तो क्या
सुभद्रा की गरदन पर छुरी न फिर गयी होती? केशव उसके खून का प्यासा न हो
जाता? क्या पुरूष हो जाने से ही सभी बाते क्षम्य और स्त्री हो जाने से सभी
बातें अक्षम्य हो जाती है? नहीं, इस निर्णय को सुभद्रा की विद्रोही आत्मा
इस समय स्वीकार नहीं कर सकती। उसे नारियों के ऊंचे आदर्शो की परवाह नहीं
है। उन स्त्रियों में आत्माभिमान न होगा? वे पुरूषों के पैरों की जूतियाँ
बनकर रहने ही में अपना सौभाग्य समझती होंगी। सुभद्रा इतनी आत्मभिमान-शून्य
नहीं है। वह अपने जीते-जी यह नहीं देख सकती थी कि उसका पति उसके जीवन की
सर्वनाश करके चैन की बंशी बजाये। दुनिया उसे हत्यारिनी, पिशाचिनी कहेगी,
कहे—उसको परवाह नहीं। रह-रहकर उसके मन में भयंकर प्रेरणा होती थी कि इसी
समय उसके पास चली जाए, और इसके पहिले कि वह उस युवती के प्रेम का आन्नद
उठाये, उसके जीवन का अन्त कर दे। वह केशव की निष्ठुरता को याद करके अपने मन
को उत्तेजित करती थी। अपने को धिक्कार-धिक्कार कर नारी सुलभ शंकाओं को दूर
करती थी। क्या वह इतनी दुर्बल है? क्या उसमें इतना साहस भी नहीं है? इस
वक्त यदि कोई दुष्ट उसके कमरे में घुस आए और उसके सतीत्व का अपहरण करना
चाहे, तो क्या वह उसका प्रतिकार न करेगी? आखिर आत्म-रक्षा ही के लिए तो
उसने यह पिस्तौल ले रखी है। केशव ने उसके सत्य का अपहरण ही तो किया है।
उसका प्रेम-दर्शन केवल प्रवंचना थी। वह केवल अपनी वासनाओं की तृप्ति के लिए
सुभद्रा के साथ प्रेम-स्वॉँग भरता था। फिर उसक वध करना क्या सुभद्रा का
कर्त्तव्य नहीं?
इस अन्तिम कल्पना से सुभद्रा को वह उत्तेजना मिल गयी, जो उसके भयंकर संकल्प
को पूरा करने के लिए आवश्यक थी। यही वह अवस्था है, जब स्त्री-पुरूष के खून
की प्यासी हो जाती है।
उसने खूँटी पर लटकाती हुई पिस्तौल उतार ली और ध्यान से देखने लगी, मानो उसे
कभी देखा न हो। कल संध्या-समय जब कार्य-मंदिर के केशव और उसकी प्रेमिका
एक-दूसरे के सम्मुख बैठे हुए होंगे, उसी समय वह इस गोली से केशव की
प्रेम-लीलाओं का अन्त कर देगी। दूसरी गोली अपनी छाती में मार लेगी। क्या वह
रो-रो कर अपना अधम जीवन काटेगी?
7
संध्या का समय था। आर्य-मंदिर के आँगन में वर और वधू इष्ट-मित्रों के साथ
बैठे हुए थे। विवाह का संस्कार हो रहा था। उसी समय सुभद्रा पहुँची और
बदामदे में आकर एक खम्भें की आड़ में इस भॉँति खड़ी हो गई कि केशव का मुँह
उसके सामने था। उसकी आँखें में वह दृश्य खिंच गया, जब आज से तीन साल पहले
उसने इसी भॉँति केशव को मंडप में बैठे हुए आड़ से देखा था। तब उसका हृदय
कितना उछवासित हो रहा था। अंतस्तल में गुदगुदी-सी हो रही थी, कितना अपार
अनुराग था, कितनी असीम अभिलाषाऍं थीं, मानों जीवन-प्रभात का उदय हो रहा हो।
जीवन मधुर संगीत की भॉँति सुखद था, भविष्य उषा-स्वप्न की भॉँति सुन्दर।
क्या यह वही केशव है? सुभद्रा को ऐसा भ्रम हुआ, मानों यह केशव नहीं है।
हाँ, यह वह केशव नहीं था। यह उसी रूप और उसी नाम का कोई दूसरा मनुष्य था।
अब उसकी मुस्कुराहट में, उनके नेत्रों में, उसके शब्दों में, उसके हृदय को
आकर्षित करने वाली कोई वस्तु न थी। उसे देखकर वह उसी भॉँति नि:स्पंद,
निश्चल खड़ी है, मानों कोई अपरिचित व्यक्ति हो। अब तक केशव का-सा रूपवान,
तेजस्वी, सौम्य, शीलवान, पुरूष संसार में न था; पर अब सुभद्रा को ऐसा जान
पड़ा कि वहाँ बैठे हुए युवकों में और उसमें कोई अन्तर नहीं है। वह
ईर्ष्याग्नि, जिसमें वह जली जा रही थी, वह हिंसा-कल्पना, जो उसे वहाँ तक
लायी थी, मानो एगदम शांत हो गयी। विरिक्त हिंसा से भी अधिक हिंसात्मक होती
है—सुभद्रा की हिंसा-कल्पना में एक प्रकार का ममत्व था—उसका केशव, उसका
प्राणवल्लभ, उसका जीवन-सर्वस्व और किसी का नहीं हो सकता। पर अब वह ममत्व
नहीं है। वह उसका नहीं है, उसे अब परवा नहीं, उस पर किसका अधिकार होता है।
विवाह-संस्कार समाप्त हो गया, मित्रों ने बधाइयॉँ दीं, सहेलियों ने मंगलगान
किया, फिर लोग मेजों पर जा बैठे, दावत होने लगी, रात के बारह बज गये; पर
सुभद्रा वहीं पाषाण-मूर्ति की भॉँति खड़ी रही, मानो कोई विचित्र स्वप्न देख
रही हो। हाँ, जैसे कोई बस्ती उजड़ गई हो, जैसे कोई संगीत बन्द हो गया हो,
जैसे कोई दीपक बुझ गया है।
जब लोग मंदिर से निकले, तो वह भी निकले, तो वह भी निकल आयी; पर उसे कोई
मार्ग न सूझता था। परिचित सड़केंं उसे भूली हुई-सी जान पड़ने लगीं। सारा
संसार ही बदल गया था। वह सारी रात सड़कों पर भटकती फिरी। घर का कहीं पता
नहीं। सारी दुकानें बन्द हो गयीं, सड़कों पर सन्नाटा छा गया, फिर भी वह
अपना घर ढूँढती हुई चली जा रही थी। हाय! क्या इसी भॉँति उसे जीवन-पथ में भी
भटकना पड़ेगा?
सहसा एक पुलिसमैन ने पुकारा—मैड़म, तुम कहाँ जा रही हो?
सुभद्रा ने ठिठक कर कहा—कहीं नहीं।
‘तुम्हारा स्थान कहाँ है?’
‘मेरा स्थान?’
‘हाँ, तुम्हारा स्थान कहाँ है? मैं तुम्हें बड़ी देर से इधर-उधर भटकते देख
रहा हूँ। किस स्ट्रीट में रहती हो?
सुभद्रा को उस स्ट्रीट का नाम तक न याद था।
‘तुम्हें अपने स्ट्रीट का नाम तक याद नहीं?’
‘भूल गयी, याद नहीं आता।‘
सहसा उसकी दृष्टि सामने के एक साइन बोर्ड की तरफ उठी, ओह! यही तो उसकी
स्ट्रीट है। उसने सिर उठाकर इधर-उधर देखा। सामने ही उसका डेरा था। और इसी
गली में, अपने ही घर के सामने, न-जाने कितनी देर से वह चक्कर लगा रही थी।
8
अभी प्रात:काल ही था कि युवती सुभद्रा के कमरे में पहुँची। वह उसके कपड़े
सी रही थी। उसका सारा तन-मन कपड़ों में लगा हुआ था। कोई युवती इतनी
एकाग्रचित होकर अपना श्रृंगार भी न करती होगी। न-जाने उससे कौन-सा पुरस्कार
लेना चाहती थी। उसे युवती के आने की खबर न हुई।
युवती ने पूछा—तुम कल मंदिर में नहीं आयीं?
सुभद्रा ने सिर उठाकर देखा, तो ऐसा जान पड़ा, मानो किसी कवि की कोमल कल्पना
मूर्तिमयी हो गयी है। उसकी उप छवि अनिंद्य थी। प्रेम की विभूति रोम-रोम से
प्रदर्शित हो रही थी। सुभद्रा दौड़कर उसके गले से लिपट गई, जैसे उसकी छोटी
बहन आ गयी हो, और बोली — हाँ, गयी तो थी।
‘मैंने तुम्हें नहीं देखा।‘
‘हॉं, मैं अलग थी।‘
‘केशव को देखा?’
‘हाँ देखा।‘
‘धीरे से क्यों बोली? मैंने कुछ झूठ कहा था?
सुभद्रा ने सहृदयता से मुस्कराकर कहा — मैंने तुम्हारी आँखों से नहीं, अपनी
आँखों से देखा। मझे तो वह तुम्हारे योग्य नहीं जंचे। तुम्हें ठग लिया।
युवती खिलखिलाकर हँसी और बोली—वह ! मैं समझती हूँ, मैंने उन्हें ठगा है।
एक बार वस्त्राभूषणों से सजकर अपनी छवि आईने में देखी तो मालूम हो जाएेगा।
‘तब क्या मैं कुछ और हो जाऊँगी।‘
‘अपने कमरे से फर्श, तसवीरें, हाँड़ियॉँ, गमले आदि निकाल कर देख लो, कमरे
की शोभा वही रहती है!’
युवती ने सिर हिला कर कहा—ठीक कहती हो। लेकिन आभूषण कहाँ से लाऊँ। न-जाने
अभी कितने दिनों में बनने की नौबत आये।
‘मैं तुम्हें अपने गहने पहना दूँगी।‘
‘तुम्हारे पास गहने हैं?’
‘बहुत। देखो, मैं अभी लाकर तुम्हें पहनाती हूँ।‘
युवती ने मुँह से तो बहुत ‘नहीं-नहीं’ किया, पर मन में प्रसन्न हो रही थी।
सुभद्रा ने अपने सारे गहने पहना दिये। अपने पास एक छल्ला भी न रखा। युवती
को यह नया अनुभव था। उसे इस रूप में निकलते शर्म तो आती थी; पर उसका रूप
चमक उठा था। इसमें संदेह न था। उसने आईने में अपनी सूरत देखी तो उसकी सूरत
जगमगा उठी, मानो किसी वियोगिनी को अपने प्रियतम का संवाद मिला हो। मन में
गुदगुदी होने लगी। वह इतनी रूपवती है, उसे उसकी कल्पना भी न थी।
कहीं केशव इस रूप में उसे देख लेते; वह आकांक्षा उसके मन में उदय हुई, पर
कहे कैसे। कुछ देर में बाद लज्जा से सिर झुका कर बोली—केशव मुझे इस रूप में
देख कर बहुत हँसेगें।
सुभद्रा —हँसेगें नहीं, बलैया लेंगे, आँखें खुल जाएेगी। तुम आज इसी रूप में
उसके पास जाना।
युवती ने चकित होकर कहा —सच! आप इसकी अनुमति देती हैं!
सुभद्रा ने कहा—बड़े हर्ष से।
‘तुम्हें संदेह न होगा?’
‘बिल्कुल नहीं।‘
‘और जो मैं दो-चार दिन पहने रहूँ?’
‘तुम दो-चार महीने पहने रहो। आखिर, पड़े ही तो है!’
‘तुम भी मेरे साथ चलो।‘
‘नहीं, मुझे अवकाश नहीं है।‘
‘अच्छा, लो मेरे घर का पता नोट कर लो।‘
‘हाँ, लिख दो, शायद कभी आऊँ।‘
एक क्षण में युवती वहाँ से चली गयी। सुभद्रा अपनी खिड़की पर उसे इस भॉँति
प्रसन्न-मुख खड़ी देख रही थी, मानो उसकी छोटी बहन हो, ईर्ष्या या द्वेष का
लेश भी उसके मन में न था।
मुश्किल से, एक घंटा गुजरा होगा कि युवती लौट कर बोली—सुभद्रा क्षमा करना,
मैं तुम्हारा समय बहुत खराब कर रही हूँ। केशव बाहर खड़े हैं। बुला लूँ?
एक क्षण, केवल एक क्षण के लिए, सुभद्रा कुछ घबड़ा गयी। उसने जल्दी से उठ कर
मेज पर पड़ी हुई चीजें इधर-उधर हटा दीं, कपड़े करीने से रख दिये। उसने
जल्दी से उलझे हुए बाल सँभाल लिये, फिर उदासीन भाव से मुस्करा कर
बोली—उन्हें तुमने क्यों कष्ट दिया। जाओ, बुला लो।
एक मिनट में केशव ने कमरे में कदम रखा और चौंक कर पीछे हट गये, मानो पॉँव
जल गया हो। मुँह से एक चीख निकल गयी। सुभद्रा गम्भीर, शांत, निश्चल अपनी
जगह पर खड़ी रही। फिर हाथ बढ़ा कर बोली, मानो किसी अपरिचित व्यक्ति से बोल
रही थी—आइये, मिस्टर केशव, मैं आपको ऐसी सुशील, ऐसी सुन्दरी, ऐसी विदुषी
रमणी पाने पर बधाई देती हूँ।
केशव के मुँह पर हवाइयॉँ उड़ रही थीं। वह पथ-भ्रष्ट-सा बना खड़ा था। लज्जा
और ग्लानि से उसके चेहरे पर एक रंग आता था, एक रंग जाता था। यह बात एक दिन
होनेवाली थी अवश्य, पर इस तरह अचानक उसकी सुभद्रा से भेंट होगी, इसका उसे
स्वप्न में भी गुमान न था। सुभद्रा से यह बात कैसे कहेगा, इसको उसने खूब
सोच लिया था। उसके आक्षेपों का उत्तर सोच लिया था, पत्र के शब्द तक मन में
अंकित कर लिये थे। ये सारी तैयारियॉँ धरी रह गयीं और सुभद्रा से साक्षात्
हो गया। सुभद्रा उसे देख कर जरा सी नहीं चौंकी, उसके मुख पर आश्चर्य,
घबराहट या दु:ख का एक चिह्न भी न दिखायी दिया। उसने उसी भंति उससे बात की;
मानो वह कोई अजनबी हो। यहॉं कब आयी, कैसे आयी, क्यों आयी, कैसे गुजर करती
है; यह और इस तरह के असंख्य प्रश्न पूछने के लिए केशव का चित्त चंचल हो
उठा। उसने सोचा था, सुभद्रा उसे धिक्कारेगी; विष खाने की धमकी
देगी—निष्ठुर; निर्दय और न-जाने क्या-क्या कहेगी। इन सब आपदाओं के लिए वह
तैयार था; पर इस आकस्मिक मिलन, इस गर्वयुक्त उपेक्षा के लिए वह तैयार न था।
वह प्रेम-व्रतधारिणी सुभद्रा इतनी कठोर, इतनी हृदय-शून्य हो गयी है? अवश्य
ही इस सारी बातें पहले ही मालूम हो चुकी हैं। सब से तीव्र आघात यह था कि
इसने अपने सारे आभूषण इतनी उदारता से दे डाले, और कौन जाने वापस भी न लेना
चाहती हो। वह परास्त और अप्रतिम होकर एक कुर्सी पर बैठ गया। उत्तर में एक
शब्द भी उसके मुख से न निकला।
युवती ने कृतज्ञता का भाव प्रकट करके कहा—इनके पति इस समय जर्मनी में है।
केशव ने आँखें फाड़ कर देखा, पर कुछ बोल न सका।
युवती ने फिर कहा—बेचारी संगीत के पाठ पढ़ा कर और कुछ कपड़े सी कर अपना
निर्वाह करती है। वह महाशय यहाँ आ जाते, तो उन्हें उनके सौभाग्य पर बधाई
देती।
केशव इस पर भी कुछ न बोल सका, पर सुभद्रा ने मुस्करा कर कहा—वह मुझसे रूठे
हुए हैं, बधाई पाकर और भी झल्लाते। युवती ने आश्चर्य से कहा—तुम उन्हीं के
प्रेम मे यहाँ आयीं, अपना घर-बार छोड़ा, यहाँ मेहनत-मजदूरी करके निर्वाह कर
रही हो, फिर भी वह तुमसे रूठे हुए हैं? आश्चर्य!
सुभद्रा ने उसी भॉँति प्रसन्न-मुख से कहा—पुरूष-प्रकृति ही आश्चर्य का विषय
है, चाहे मि. केशव इसे स्वीकार न करें।
युवती ने फिर केशव की ओर प्रेरणा-पूर्ण दृष्टि से देखा, लेकिन केशव उसी
भॉँति अप्रतिम बैठा रहा। उसके हृदय पर यह नया आघात था। युवती ने उसे चुप
देख कर उसकी तरफ से सफाई दी—केशव, स्त्री और पुरूष, दोनों को ही समान
अधिकार देना चाहते हैं।
केशव डूब रहा था, तिनके का सहारा पाकर उसकी हिम्मत बँध गयी। बोला—विवाह एक
प्रकार का समझौता है। दोनों पक्षों को अधिकार है, जब चाहे उसे तोड़ दें।
युवती ने हामी भरी—सभ्य-समाज में यह आन्दोनल बड़े जोरों पर है।
सुभद्रा ने शंका की—किसी समझौते को तोड़ने के लिए कारण भी तो होना चाहिए?
केशव ने भावों की लाठी का सहार लेकर कहा—जब इसका अनुभव हो जाए कि हम इस
बन्धन से मुक्त होकर अधिक सुखी हो सकते हैं, तो यही कारण काफी है। स्त्री
को यदि मालूम हो जाए कि वह दूसरे पुरूष के साथ ...
सुभद्रा ने बात काट कर कहा—क्षमा कीजिए मि. केशव, मुझमें इतनी बुद्धि नहीं
कि इस विषय पर आपसे बहस कर सकूँ। आदर्श समझौता वही है, जो जीवन-पर्यन्त
रहे। मैं भारत की नहीं कहती। वहाँ तो स्त्री पुरूष की लौंडी है, मैं
इग्लैंड की कहती हूँ। यहाँ भी कितनी ही औरतों से मेरी बातचीत हुई है। वे
तलाकों की बढ़ती हुई संख्या को देख कर खुश नहीं होती। विवाह सबसे ऊँचा
आदर्श उसकी पवित्रता और स्थिरता है। पुरूषों ने सदैव इस आर्दश को तोड़ा है,
स्त्रियों ने निबाहा है। अब पुरूषों का अन्याय स्त्रियों को किस ओर ले
जाएेगा, नहीं कह सकती।
इस गम्भीर और संयत कथन ने विवाद का अन्त कर दिया। सुभद्रा ने चाय मँगवायी।
तीनों आदमियों ने पी। केशव पूछना चाहता था, अभी आप यहाँ कितने दिनों
रहेंगी। लेकिन न पूछ सका। वह यहाँ पंद्रह मिनट और रहा, लेकिन विचारों में
डूबा हुआ। चलते समय उससे न रहा गया। पूछ ही बैठा—अभी आप यहाँ कितने दिन और
रहेगी?
‘सुभद्रा ने जमीन की ओर ताकते हुए कहा—कह नहीं सकती।‘
‘कोई जरूरत हो, तो मुझे याद कीजिए।‘
‘इस आश्वासन के लिए आपको धन्यवाद।‘
केशव सारे दिन बेचैन रहा। सुभद्रा उसकी आँखों में फिरती रही। सुभद्रा की
बातें उसके कानों में गूँजती रहीं। अब उसे इसमें कोई सन्देह न था कि उसी के
प्रेम में सुभद्रा यहाँ आयी थी। सारी परिस्थिति उसकी समझ में आ गयी थी। उस
भीषण त्याग का अनुमान करके उसके रोयें खड़े हो गये। यहाँ सुभद्रा ने
क्या-क्या कष्ट झेले होंगे, कैसी-कैसी यातनाऍं सही होंगी, सब उसी के कारण?
वह उस पर भार न बनना चाहती थी। इसलिए तो उसने अपने आने की सूचना तक उसे न
दी। अगर उसे पहले मालूम होती कि सुभद्रा यहाँ आ गयी है, तो कदाचित् उसे उस
युवती की ओर इतना आकर्षण ही न होता। चौकीदार के सामने चोर को घर में घुसने
का साहस नहीं होता। सुभद्रा को देखकर उसकी कर्त्तव्य-चेतना जाग्रत हो गयी।
उसके पैरों पर गिर कर उससे क्षमा माँगने के लिए उसका मन अधीर हो उठा; वह
उसके मुँह से सारा वृतांत सुनेगा। यह मौन उपेक्षा उसके लिए असह्य थी। दिन
तो केशव ने किसी तरह काटा, लेकिन ज्यों ही रात के दस बजे, वह सुभद्रा से
मिलने चला। युवती ने पूछा—कहाँ जाते हो?
केशव ने बूट का लेस बॉँधते हुए कहा—जरा एक प्रोफेसर से मिलना है, इस वक्त
आने का वादा कर चुका हूँ?
‘जल्द आना।‘
‘बहुत जल्द आऊँगा।‘
केशव घर से निकला, तो उसके मन में कितनी ही विचार-तंरगें उठने लगीं। कहीं
सुभद्रा मिलने से इनकार कर दे, तो? नहीं ऐसा नहीं हो सकता। वह इतनी अनुदार
नहीं है। हाँ, यह हो सकता है कि वह अपने विषय में कुछ न कहे। उसे शांत करने
के लिए उसने एक कृपा की कल्पना कर डाली। ऐसा बीमार था कि बचने की आशा न थी।
उर्मिला ने ऐसी तन्मय होकर उसकी सेवा-सुश्रुषा की कि उसे उससे प्रेम हो
गया। कथा का सुभद्रा पर जो असर पड़ेगा, इसके विषय में केशव को कोई संदेह न
था। परिस्थिति का बोध होने पर वह उसे क्षमा कर देगी। लेकिन इसका फल क्या
होगा लेकिन इसका फल क्या होगा? क्या वह दोनों के साथ एक-सा प्रेम कर सकता
है? सुभद्रा को देख लेने के बाद उर्मिला को शायद उसके साथ-साथ रहने में
आपत्ति हो। आपत्ति हो ही कैसे सकती है! उससे यह बात छिपी नहीं है। हाँ, यह
देखना है कि सुभद्रा भी इसे स्वीकार करती है कि नहीं। उसने जिस उपेक्षा का
परिचय दिया है, उसे देखते हुए तो उसके मान में संदेह ही जान पड़ता है। मगर
वह उसे मनायेगा, उसकी विनती करेगा, उसके पैरों पड़ेगा और अंत में उसे मनाकर
ही छोड़ेगा। सुभद्रा से प्रेम और अनुराग का नया प्रमाण पा कर वह मानो एक
कठोर निद्रा से जाग उठा था। उसे अब अनुभव हो रहा था कि सुभद्रा के लिए उसके
हृदय जो स्थान था, वह खाली पड़ा हुआ है। उर्मिला उस स्थान पर अपना आधिपत्य
नहीं जमा सकती। अब उसे ज्ञात हुआ कि उर्मिला के प्रति उसका प्रेम केवल वह
तृष्णा थी, जो स्वादयुक्त पदार्थों को देख कर ही उत्पन्न होती है। वह सच्ची
क्षुधा न थी अब फिर उसे सरल सामान्य भोजन की इच्छा हो रही थी। विलासिनी
उर्मिला कभी इतना त्याग कर सकती है, इसमें उसे संदेह था।
सुभद्रा के घर के निकट पहुँच कर केशव का मन कुछ कातर होने लगा। लेकिन उसने
जी कड़ा करके जीने पर कदम रक्खा और क्षण में सुभद्रा के द्वार पर पहुँचा,
लेकिन कमरे का द्वार बंद था। अंदर भी प्रकाश न था। अवश्य ही वह कही गयी है,
आती ही होगी। तब तक उसने बरामदे में टहलने का निश्चय किया।
सहसा मालकिन आती हुई दिखायी दी। केशव ने बढ़ कर पूछा— आप बता सकती हैं कि
यह महिला कहाँ गयी हैं?
मालकिन ने उसे सिर से पॉँव तक देख कर कहा—वह तो आज यहाँ से चली गयीं।
केशव ने हकबका कर पूछा—चली गयीं! कहाँ चली गयीं?
‘यह तो मुझसे कुछ नहीं बताया।‘
‘कब गयीं?’
‘वह तो दोपहर को ही चली गयी?’
‘अपना असबाव ले कर गयीं?’
‘असबाव किसके लिए छोड़ जाती? हाँ, एक छोटा-सा पैकेट अपनी एक सहेली के लिए
छोड़ गयी हैं। उस पर मिसेज केशव लिखा हुआ है। मुझसे कहा था कि यदि वह आ भी
जाएँ, तो उन्हें दे देना, नहीं तो डाक से भेज देना।’
केशव को अपना हृदय इस तरह बैठता हुआ मालूम हुआ जैसे सूर्य का अस्त होना। एक
गहरी सॉँस लेकर बोला—
‘आप मुझे वह पैकेट दिखा सकती हैं? केशव मेरा ही नाम है।’
मालकिन ने मुस्करा कर कहा—मिसेज केशव को कोई आपत्ति तो न होगी?
‘तो फिर मैं उन्हें बुला लाऊँ?’
‘हाँ, उचित तो यही है!’
‘बहुत दूर जाना पड़ेगा!’
केशव कुछ ठिठकता हुआ जीने की ओर चला, तो मालकिन ने फिर कहा—मैं समझती हूँ,
आप इसे लिये ही जाइये, व्यर्थ आपको क्यों दौड़ाऊँ। मगर कल मेरे पास एक रसीद
भेज दीजिएगा। शायद उसकी जरुरत पड़े!
यह कहते हुए उसने एक छोटा-सा पैकेट लाकर केशव को दे दिया। केशव पैकेट लेकर
इस तरह भागा, मानों कोई चोर भागा जा रहा हो। इस पैकेट में क्या है, यह
जानने के लिए उसका हृदय व्याकुल हो रहा था। इसे इतना विलम्ब असह्य था कि
अपने स्थान पर जाकर उसे खोले। समीप ही एक पार्क था। वहाँ जाकर उसने बिजली
के प्रकाश में उस पैकेट को खोला डाला। उस समय उसके हाथ कॉँप रहे थे और हृदय
इतने वेग से धड़क रहा था, मानों किसी बंधु की बीमारी के समाचार के बाद मिला
हो।
पैकेट का खुलना था कि केशव की आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी। उसमें एक
पीले रंग की साड़ी थी, एक छोटी-सी सेंदुर की डिबिया और एक केशव का
फोटा-चित्र के साथ ही एक लिफाफा भी था। केशव ने उसे खोल कर पढ़ा। उसमें
लिखा था—
‘बहन मैं जाती हूँ। यह मेरे सोहाग का शव है। इसे टेम्स नदी में विसर्जित कर
देना। तुम्हीं लोगों के हाथों यह संस्कार भी हो जाए, तो अच्छा।
तुम्हारी,
सुभद्रा
केशव मर्माहत-सा पत्र हाथ में लिये वहीं घास पर लेट गया और फूट-फूट कर रोने
लगा। |