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चंद्रकांता ॥ चौथा अध्याय ॥ पहला बयान वनकन्या को यकायक जमीन से निकल पैर पकड़ते देख वीरेन्द्रसिंह एकदम घबरा उठे। देर तक सोचते रहे कि यह क्या मामला है, यहां वनकन्या क्योंकर आ पहुंची और यह योगी कौन हैं जो इसकी मदद कर रहे हैं? आखिर बहुत देर तक चुप रहने के बाद कुमार ने योगी से कहा, ''मैं इस वनकन्या को जानता हूं। इसने हमारे साथ बड़ा भारी उपकार किया है और मैं इससे बहुत कुछ वादा भी कर चुका हूं, लेकिन मेरा वह वादा बिना कुमारी चंद्रकान्ता के मिले पूरा नहीं हो सकता। देखिये इसी खत में, जो आपने दी है, क्या शर्त है? खुद इन्होंने लिखा है कि 'मुझसे और कुमारी चंद्रकान्ता से एक ही दिन शादी हो' और इस बात को मैंने मंजूर किया है, पर जब कुमारी चंद्रकान्ता ही इस दुनिया से चली गयी, तब मैं किसी से ब्याह नहीं कर सकता, इकरार दोनों से एक साथ ही शादी करने का है।'' योगी - (वनकन्या की तरफ देखकर) क्यों रे, तू मुझे झूठा बनाया चाहती है? वनकन्या - (हाथ जोड़कर) नहीं महाराज, मैं आपको कैसे झूठा बना सकती हूं? आप इनसे यह पूछें कि इन्होंने कैसे मालूम किया कि चंद्रकान्ता मर गई? योगी - (कुमार से) कुछ सुना! यह लड़की क्या कहती है? तुमने कैसा जाना कि कुमारी चंद्रकान्ता मर गई है? कुमार - (कुछ चौकन्ने होकर) क्या कुमारी जीती है? योगी - जो मैं पूछता हूं, पहले उसका तो जवाब दे लो? कुमार - पहले जब मैं इस खोह में आया था तब इस जगह मैंने कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को देखा था, बल्कि बातचीत भी की थी। आज उन दोनों की जगह इन दो लाशों को देखने से मालूम हुआ कि ये दोनों...!(इतना कहा था कि गला भर आया।) योगी - (तेजसिंह की तरफ देखकर) क्या तुम्हारी अक्ल भी चरने चली गई? इन दोनों लाशों को देखकर इतना न पहचान सके कि ये मर्दों की लाशें हैं या औरतों की? इनकी लंबाई और बनावट पर भी कुछ ख्याल न किया! तेज - (घबड़ाकर तथा दोनों लाशों की तरफ गौर से देख और शर्माकर) मुझसे बड़ी भूल हुई कि मैंने इन दोनों लाशों पर गौर नहीं किया, कुमार के साथ ही मैं भी घबड़ा गया। हकीकत में दोनों लाशें मर्दों की हैं, औरतों की नहीं। योगी - ऐयारों से ऐसी भूल का होना कितने शर्म की बात है! इस जरा - सी भूल में कुमार की जान जा चुकी थी! (उंगली से इशारा करके) देखो उस तरफ उन दोनों पहाड़ियों के बीच में! इतना इशारा बहुत है, क्योंकि तुम इस तहखाने का हाल जानते हो, अपने ओस्ताद से सुन चुके हो। तेजसिंह ने उस तरफ देखा, साथ ही टकटकी बंधा गयी। कुमार भी उसी तरफ देखने लगे, देवीसिंह और ज्योतिषीजी की निगाह भी उधर ही जा पड़ी। यकायक तेजसिंह घबड़ाकर बोले, ''ओह, यह क्या हो गया?'' तेजसिंह के इतना कहने से और भी सभी का ख्याल उसी तरफ चला गया। कुछ देर बाद योगीजी से और बातचीत करने के लिए तेजसिंह उनकी तरफ घूमे मगर उनको न पाया, वनकन्या भी दिखाई न पड़ी, बल्कि यह भी मालूम न हुआ कि वे दोनों किस राह से आये थे और कब चले गये। जब तक वनकन्या और योगीजी यहां थे, उनके आने का रास्ता भी खुला हुआ था, दीवार में दरार मालूम पड़ती थी, जमीन फटी हुई दिखाई देती थी, मगर अब कहीं कुछ नहीं था। दूसरा बयान आखिर कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह से कहा, ''मुझे अभी तक यह न मालूम हुआ कि योगीजी ने उंगली के इशारे से तुम्हें क्या दिखाया और इतनी देर तक तुम्हारा ध्यान कहां अटका रहा, तुम क्या देखते रहे और अब वे दोनों कहां गायब हो गये। तेज - क्या बतावें कि वे दोनों कहां चले गये, कुछ खुलासा हाल उनसे न मिल सका, अब बहुत तरद्दुद करना पड़ेगा। वीरेन्द्र - आखिर तुम उस तरफ क्या देख रहे थे? तेज - हम क्या देखते थे इस हाल के कहने में बड़ी देर लगेगी और अब यहां इन मुर्दों की बदबू से रुका नहीं जाता। इन्हें इसी जगह छोड़ इस तिलिस्म के बाहर चलिये, वहां जो कुछ हाल है कहूंगा। मगर यहां से चलने के पहले उसे देख लीजिये जिसे इतनी देर तक मैं ताज्जुब से देख रहा था। वह दोनों पहाड़ियों के बीच में जो दरवाजा खुला नजर आ रहा है, सो पहले बंद था, यही ताज्जुब की बात थी। अब चलिये, मगर हम लोगों को कल फिर यहां लौटना पड़ेगा। यह तिलिस्म ऐसे राह पर बना हुआ है कि अंदर - अंदर यहां तक आने में लगभग पांच कोस का फासला मालूम पड़ता है और बाहर की राह से अगर इस तहखाने तक आवें तो पंद्रह कोस चलना पड़ेगा। कुमार - खैर यहां से चलो, मगर इस हाल को खुलासा सुने बिना तबीयत घबड़ा रही है। जिस तरह चारों आदमी तिलिस्म की राह से यहां तक पहुंचे थे उसी तरह तिलिस्म के बाहर हुए। आज इन लोगों को बाहर आने तक आधी रात बीत गई, इनके लश्कर वाले घबड़ा रहे थे कि पहले तो पहर दिन बाकी रहते बाहर निकल आते थे, आज देर क्यों हुई? जब ये लोग अपने खेमे में पहुंचे तो सबों का जी ठिकाने हुआ। तेजसिंह ने कुमार से कहा, ''इस वक्त आप सो रहें कल आपसे जो कुछ कहना है कहूंगा।'' तीसरा बयान यह तो मालूम हुआ कि कुमारी चंद्रकान्ता जीती है, मगर कहां है और उस खोह में से क्योंकर निकल गई, वनकन्या कौन है, योगीजी कहां से आये, तेजसिंह को उन्होंने क्या दिखाया इत्यादि बातों को सोचते और ख्याल दौड़ाते कुमार ने सुबह कर दी, एक घड़ी भी नींद न आई। अभी सबेरा नहीं हुआ कि पलंग से उतर जल्दी के मारे खुद तेजसिंह के डेरे में गए। वे अभी तक सोये थे, उन्हें जगाया। तेजसिंह ने उठकर कुमार को सलाम किया। जी में तो समझ ही गए थे कि वही बात पूछने के लिए कुमार बेताब हैं और इसी से इन्होंने आकर मुझे इतनी जल्दी उठाया है मगर फिर भी पूछा, ''कहिए क्या है जो इतने सबेरे आप उठे हैं?'' कुमार – रातभर नींद नहीं आई,अब जो कुछ कहना हो, जल्दी कहो, जी बेचैनहै। तेज - अच्छा आप बैठ जाइये, मैं कहता हूं। कुमार बैठ गये और देवीसिंह तथा ज्योतिषीजी को भी उसी जगह बुलवा भेजा। जब वे आ गये, तेजसिंह ने कहना शुरू किया, ''यह तो मुझे अभी तक मालूम नहीं हुआ कि कुमारी चंद्रकान्ता को कौन ले गया या वह योगी कौन थे और वनकन्या की मदद क्यों करने लगे, मगर उन्होंने जो कुछ मुझे दिखाया वह इतने ताज्जुब की बात थी कि मैं उसे देखने में ही इतना डूबा कि योगीजी से कुछ पूछ न सका और वे भी बिना कुछ खुलासा हाल कहे चलते बने। उस दिन पहले पहल जब मैं आपको खोह में ले गया, तब वहां का हाल जो कुछ मैंने अपने गुरुजी से सुना था आपसे कहा था, याद है?'' कुमार - बखूबी याद है। तेज - मैंने क्या कहा था? कुमार - तुमने यही कहा था कि उसमें बड़ा भारी खजाना है, मगर उस पर एक छोटा - सा तिलिस्म भी बंधा हुआ है जो बहुत सहज में टूट सकेगा, क्योंकि उसके तोड़ने की तरकीब तुम्हारे ओस्ताद तुम्हें कुछ बता गये हैं। तेज - हां ठीक है, मैंने यही कहा था। उस खोह में मैंने आपको एक दरवाजा दो पहाड़ियों के बीच में दिखाया था, जिसे योगी ने मुझे इशारे से बताया था। उस दरवाजे को खुला देख मुझे मालूम हो गया कि उस तिलिस्म को किसी ने तोड़ डाला और वहां का खजाना ले लिया, उसी वक्त मुझे यह ख्याल आया कि योगी ने उस दरवाजे की तरफ इसीलिए इशारा किया कि जिसने तिलिस्म तोड़कर वह खजाना लिया है, वही कुमारी चंद्रकान्ता को भी ले गया होगा। इसी सोच और तरद्दुत में डूबा हुआ मैं एकटक उस दरवाजे की तरफ देखता रह गया और योगी महाराज चलते बने। तेजसिंह की इतनी बात सुनकर बड़ी देर तक कुमार चुप बैठे रहे, बदहवासी - सी छा गई, इसके बाद सम्हलकर बैठे और फिर बोले : कुमार - तो कुमारी चंद्रकान्ता फिर एक नई बला में फंस गई? तेज - मालूम तो ऐसा ही पड़ता है। कुमार - तब इसका पता कैसे लगे? अब क्या करना चाहिए? तेज - पहले हम लोगों को उस खोह में चलना चाहिए। वहां चलकर उस तिलिस्म को देखें जिसे तोड़कर कोई दूसरा वह खजाना ले गया है। शायद वहां कुछ मिले या कोई निशान पाया जाय, इसके बाद जो कुछ सलाह होगी किया जायगा। कुमार - अच्छा चलो, मगर इस वक्त एक बात का ख्याल और मेरे जी में आता है। तेज - वह क्या? कुमार - जब बद्रीनाथ को कैद करने उस खोह में गये थे और दरवाजा न खुलने पर वापस आए, उस वक्त भी शायद उस दरवाजे को भीतर से उसी ने बंद कर लिया हो जिसने उस तिलिस्म को तोड़ा है। वह उस वक्त उसके अंदर रहा होगा। तेज - आपका ख्याल ठीक है, जरूर यही बात है, इसमें कोई शक नहीं बल्कि उसी ने शिवदत्त को भी छुड़ाया होगा। कुमार - हो सकता है, मगर जब छूटने पर शिवदत्त ने बेईमानी पर कमर बांधी और पीछे मेरे लश्कर पर धावा मारा तो क्या उसी ने फिर शिवदत्त को गिरफ्तार करके उस खोह में डाल दिया? और क्या वह पुर्जा भी उसी का लिखा था जो शिवदत्त के गायब होने के बाद उसके पलंग पर मिला था? तेज - हो सकता है। कुमार - तो इससे मालूम होता है कि वह हमारा दोस्त भी है, मगर दोस्त है तो फिर कुमारी को क्यों ले गया? तेज - इसका जवाब देना मुश्किल है, कुछ अक्ल काम नहीं करती, सिवाय इसके शिवदत्त के छूटने के बाद भी तो आपको उस खोह में जाने का मौका पड़ा था और हम लोग भी आपको खोजते हुए उस खोह में पहुंचे, उस वक्त चपला ने तो नहीं कहा कि इस खोह में कोई आया था जिसने शिवदत्त को एक दफे छुड़ा के फिर कैद कर दिया। उसने उसका कोई जिक्र नहीं किया, बल्कि उसने तो कहा था कि हम शिवदत्त को बराबर इसी खोह में देखते हैं, न उसने कोई खौफ की बात बतायी। कुमार - मामला तो बहुत ही पेचीदा मालूम पड़ता है, मगर तुम भी कुछ गलती कर गये। तेज - मैंने क्या गलती की? कुमार - कल योगी ने दीवार से निकलकर मुझे कूदने से रोका, इसके बाद जमीन पर लात मारी और वहां की जमीन फट गई और वनकन्या निकल आई, तो योगी कोई देवता तो थे ही नहीं कि लात मार के जमीन फाड़ डालते। जरूर वहां पर जमीन के अंदर कोई तरकीब है। तुम्हें भी मुनासिब था कि उसी तरह लात मारकर देखते कि जमीन फटती है या नहीं। तेज - यह आपने बहुत ठीक कहा, तो अब क्या करें? कुमार - आज फिर चलो, शायद कुछ काम निकल जाय, अभी खोह में जाने की क्या जरूरत है? तेज - ठीक है चलिए। आज फिर कुमार और तीनों ऐयार उस तिलिस्म में गए। मालूमी राह से घूमते हुए उसी दलान में पहुंचे जहां योगी निकले थे। जाकर देखा तो वे दोनों सड़ी और जानवरों की खाई हुई लाशें वहां न थीं, जमीन धोई – धोई साफ मालूम पड़ती थी। थोड़ी देर तक ताज्जुब में भरे ये लोग खड़े रहे, इसके बाद तेजसिंह ने गौर करके उसी जगह जोर से लात मारी जहां योगी ने लात मारी थी। फौरन उसी जगह से जमीन फट गई और नीचे उतरने के लिए छोटी - छोटी सीढ़ियां नजर पड़ीं। खुशी - खुशी ये चारों आदमी नीचे उतरे। वहां एक अंधेरी कोठरी में घूम - घूमकर इन लोगों को कोई दूसरा दरवाजा खोजना पड़ा मगर पता न लगा। लाचार होकर फिर बाहर निकल आए, लेकिन वह फटी हुई जमीन फिर न जुड़ी, उसी तरह खुली रह गयी। तेजसिंह ने कहा, ''मालूम होता है कि भीतर से बंद करने की कोई तरकीब इसमें है जो हम लोगों को मालूम नहीं, खैर जो भी हो काम कुछ न निकला, अब बिना बाहर की राह इस खोह में आए कोई मतलब सिद्ध न होगा।'' चारों आदमी तिलिस्म के बाहर हुए। तेजसिंह ने ताला बंद कर दिया। 1 एक रोज टिककर कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने फतहसिंह सेनापति को नायब मुकर्रर करके चुनार भेज देने के बाद नौगढ़ की तरफ कूच किया और वहां पहुंचकर अपने पिता से मुलाकात की। राजा सुरेन्द्रसिंह के इशारे से जीतसिंह ने रात को एकांत में तिलिस्म का हाल कुंअर वीरेन्द्रसिंह से पूछा। उसके जवाब में जो कुछ ठीक - ठीक हाल था कुमार ने उनसे कहा। जीतसिंह ने उसी जगह तेजसिंह को बुलवाकर कहा, ''तुम दोनों ऐयार कुमार को साथ लेकर खोह में जाओ और उस छोटे तिलिस्म को कुमार के हाथ से फतह करवाओ जिसका हाल तुम्हारे ओस्ताद ने तुमसे कहा था। जो कुछ हुआ है सब 1. जिस चबूतरे पर पत्थर का आदमी सोया था उसके सिरहाने की तरफ जो पत्थर रखकर ताला बंद कर देते थे वही तिलिस्म का मुंह बंद कर देना या ताला बंद कर देना था, फिर कोई खोल नहीं सकता था। इसी बीच में खुल जायगा। लेकिन तिलिस्म फतह करने के पहले दो काम करो, एक तो थोड़े आदमी ले जाओ और महाराज शिवदत्त को उनकी रानी समेत यहां भेजवा दो, दूसरे जब खोह के अंदर जाना तो दरवाजा भीतर से बंद कर लेना। अब महाराज से मुलाकात करने और कुछ पूछने की जरूरत नहीं, तुम लोग इसी वक्त यहां से कूच कर जाओ और रानी के वास्ते एक डोली भी साथ लिवाते जाओ।'' कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने तीनों ऐयारों और थोड़े आदमियों को साथ ले खोह की तरफ कूच किया। सुबह होते - होते ये लोग वहां पहुंचे। सिपाहियों को कुछ दूर छोड़ चारों आदमी खोह का दरवाजा खोलकर अंदर गये। सबेरा हो गया था, तेजसिंह ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को खोह के बाहर लाकर सिपाहियों के सुपुर्द किया और महाराज शिवदत्त को पैदल और उनकी रानी को डोली पर चढ़ाकर जल्दी नौगढ़ पहुंचाने के लिए ताकीद करके फिर खोह के अंदर पहुंचे। चौथा बयान राजा सुरेन्द्रसिंह के सिपाहियों ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को नौगढ़ पहुंचाया। जीतसिंह की राय से उन दोनों को रहने के लिए सुंदर मकान दिया गया। उनकी हथकड़ी - बेड़ी खोल दी गयी, मगर हिफाजत के लिए मकान के चारों तरफ सख्त पहरा मुकर्रर कर दिया गया। दूसरे दिन राजा सुरेन्द्रसिंह और जीतसिंह आपस में कुछ राय कर के पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल - इन चारों कैदी ऐयारों को साथ ले उस मकान में गये जिसमें महाराज शिवदत्त और उनकी महारानी को रखा था। राजा सुरेन्द्रसिंह के आने की खबर सुनकर महाराज शिवदत्त अपनी रानी को साथ लेकर दरवाजे तक इस्तकबाल (अगवानी) के लिए आए और मकान में ले जाकर आदर के साथ बैठाया। इसके बाद खुद दोनों आदमी सामने बैठे। हथकड़ी और बेड़ी पहिरे ऐयार भी एक तरफ बैठाये गये। महाराज शिवदत्त ने पूछा, ''इस वक्त आपने किसलिए तकलीफ की?'' राजा सुरेन्द्रसिंह ने इसके जवाब में कहा, ''आज तक आपके जी में जो कुछ आया किया, क्रूरसिंह के बहकाने से हम लोगों को तकलीफ देने के लिए बहुत - कुछ उपाय किया, धोखा दिया, लड़ाई ठानी, मगर अभी तक परमेश्वर ने हम लोगों की रक्षा की। क्रूरसिंह, नाज़िम और अहमद भी अपनी सजा को पहुंच गये और हम लोगों की बुराई सोचते - सोचते ही मर गये। अब आपका क्या इरादा है? इसी तरह कैद में पड़े रहना मंजूर है या और कुछ सोचा है?'' महाराज शिवदत्त ने कहा, ''आपकी और कुंअर वीरेन्द्रसिंह की बहादुरी में कोई शक नहीं, जहां तक तारीफ की जाय थोड़ी है। परमेश्वर आपको खुश रखे और पोते का सुख दिखलावे, उसे गोद में लेकर आप खिलावें और मैंने जो कुछ किया उसे आप माफ करें। मुझे राज्य की अब बिल्कुल अभिलाषा नहीं है। चुनार ेको आपने जिस तरह फतह किया और वहां जो कुछ हुआ मुझे मालूम है। मैं अब सिर्फ एक बात चाहता हूं, परमेश्वर के लिए तथा अपनी जवांमर्दी और बहादुरी की तरफ ख्याल करके मेरी इच्छा पूरी कीजिए।'' इतना कह हाथ जोड़कर सामने खड़े हो गये। राजा सुरेन्द्र - जो कुछ आपके जी में हो कहिए, जहां तक हो सकेगा मैं उसे पूरा करूंगा। शिव - जो कुछ मैं चाहता हूं आप सुन लीजिए। मेरे आगे कोई लड़का नहीं है जिसकी मुझे फिक्र हो, हां चुनार के किले में मेरे रिश्तेदारों की कई बेवाएं हैं जिनकी परवरिश मेरे ही सबब से होती थी, उनके लिए आप कोई ऐसा बंदोबस्त कर दें जिससे उन बेचारियों की जिंदगी आराम से गुजरे। और भी रिश्ते के कई आदमी हैं, लेकिन मैं उनके लिए सिफारिश न करूंगा बल्कि उनका नाम भी न बतलाऊंगा, क्योंकि वे मर्द हैं, हर तरह से कमा - खा सकते हैं, और हमको अब आप कैद से छुट्टी दीजिए। अपनी स्त्री को साथ ले जंगल में चला जाऊंगा, किसी जगह बैठकर ईश्वर का नाम लूंगा, अब मुंह किसी को दिखाना नहीं चाहता, बस और कोई आरजू नहीं है। सुरेन्द्र - आपके रिश्ते की जितनी औरतें चुनार में हैं सभी की अच्छी तरह से परवरिश होगी, उनके लिए आपको कुछ कहने की जरूरत नहीं, मगर आपको छोड़ देने में कई बातों का ख्याल है। शिव - कुछ नहीं, (जनेऊ हाथ में लेकर) मैं धर्म की कसम खाता हूं अब जी में किसी तरह की बुराई नहीं है, कभी आपकी बुराई न सोचूंगा। सुरेन्द्र - अभी आपकी उम्र भी इस लायक नहीं हुई है कि आप तपस्या करें। शिव - जो हो, अगर आप बहादुर हैं तो मुझे छोड़ दीजिये। सुरेन्द्र - आपकी कसम का तो मुझे कोई भरोसा नहीं, मगर आप जो यह कहते हैं कि अगर आप बहादुर हैं तो मुझे छोड़ दें तो मैं छोड़ देता हूं, जहां जी चाहे जाइये और जो कुछ आपको खर्च के लिए चाहिए ले लीजिए। शिव - मुझे खर्च की कोई जरूरत नहीं, बल्कि रानी के बदन पर जो कुछ जेवर हैं वह भी उतार के दिये जाता हूं। यह कहकर रानी की तरफ देखा, उस बेचारी ने फौरन अपने बदन के बिलकुल गहने उतार दिये। सुरेन्द्र - रानी के बदन से गहने उतरवा दिये यह अच्छा नहीं किया। शिव - जब हम लोग जंगल में ही रहा चाहते हैं तो यह हत्या क्यों लिए जाये? क्या चोरों और डकैतों के हाथों से तकलीफ उठाने के लिए और रात भर सुख की नींद न सोने के लिए? सुरेन्द्र - (उदासी से) देखो शिवदत्तसिंह, तुम हाल ही तक चुनार की गद्दी के मालिक थे, आज तुम्हारा इस तरह से जाना मुझे बुरा मालूम होता है। चाहे तुम हमारे दुश्मन थे तो भी मुझको इस बेचारी तुम्हारी रानी पर दया आती है। मैंने तो तुम्हें छोड़ दिया, चाहे जहां जाओ, मगर एक दफे फिर कहता हूं, अगर तुम यहां रहना कबूल करो तो मेरे राज्य का कोई काम जो चाहो मैं खुशी से तुमको दूं, तुम यहीं रहो। शिव - नहीं, अब यहां न रहूंगा, मुझे छुट्टी दे दीजिए। इस मकान के चारों तरफ से पहरा हटा लीजिए, रात को जब मेरा जी चाहेगा चला जाऊंगा। सुरेन्द्र - अच्छा जैसी तुम्हारी मर्जी! महाराज शिवदत्त के चारों ऐयार चुपचाप बैठे सब बातें सुन रहे थे। बात खतम होने पर दोनों राजाओं के चुप हो जाने पर महाराज शिवदत्त की तरफ देखकर पंडित बद्रीनाथ ने कहा, ''आप तो अब तपस्या करने जाते हैं, हम लोगों के लिए क्या हुक्म होता है?'' शिव - जो तुम लोगों के जी में आवे करो, जहां चाहो जाओ, हमने अपनी तरफ से तुम लोगों को छुट्टी दे दी, बल्कि अच्छी बात हो कि तुम लोग कुंअर वीरेन्द्रसिंह के साथ रहना पसंद करो, क्योंकि ऐसा बहादुर और धार्मिक राजा तुम लोगों को न मिलेगा। बद्री - ईश्वर आपको कुशल से रखे, आज से हम लोग कुंअर वीरेन्द्रसिंह के हुए, आप अपने हाथों हम लोगों की हथकड़ी - बेड़ी खोल दीजिए। महाराज शिवदत्त ने अपने हाथों से चारों ऐयारों की हथकड़ी - बेड़ी खोल दी, राजा सुरेन्द्रसिंह और जीतसिंह ने कुछ भी न कहा कि आप इनकी बेड़ी क्यों खोलते हैं। हथकड़ी - बेड़ी खुलने के बाद चारों ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए। जीतसिंह ने कहा, ''अभी एक दफे आप लोग चारों ऐयार, मेरे सामने आइये फिर वहां जाकर खड़े होइये, पहले अपनी मामूली रस्म तो अदा कर लीजिए।'' मुस्कुराते हुए पं. बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल जीतसिंह के सामने आये और बिना कहे जनेऊ और ऐयारी का बटुआ हाथ में लेकर कसम खाकर बोले - ''आज से मैं राजा सुरेन्द्रसिंह और उनके खानदान का नौकर हुआ। ईमानदारी और मेहनत से अपना काम किया करूंगा। तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी को अपना भाई समझूंगा। बस अब तो रस्म पूरी हो गयी?'' ''बस और कुछ बाकी नहीं।'' इतना कहकर जीतसिंह ने चारों को गले से लगा लिया, फिर ये चारों ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए। राजा सुरेन्द्रसिंह ने महाराज शिवदत्त से कहा, ''अच्छा अब मैं बिदा होता हूं। पहरा अभी उठाता हूं, रात को जब जी चाहे चले जाना, मगर आओ गले तो मिल लें।'' शिव - (हाथ जोड़कर) नहीं मैं इस लायक नहीं रहा कि आपसे गले मिलूं। ''नहीं जरूर ऐसा करना होगा!'' कहकर सुरेन्द्रसिंह ने शिवदत्त को जबरदस्ती गले लगा लिया और उदास मुख से बिदा हो अपने महल की तरफ रवाना हुए। मकान के चारों तरफ से पहरा उठाते गये। जीतसिंह,बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को साथ लिए राजा सुरेन्द्रसिंह अपने दीवानखाने में जाकर बैठे। घंटों तक महाराज शिवदत्त के बारे में अफसोस भरी बातचीत होती रही। मौका पाकर जीतसिंह ने अर्ज किया, ''अब तो हमारे दरबार में और चार ऐयार हो गये हैं जिसकी बहुत ही खुशी है। अगर ताबेदार को पंद्रह दिन की छुट्टी मिल जाती तो अच्छी बात थी, यहां से दूर बेरादरी में कुछ काम है, जाना जरूरी है।'' सुरेन्द्र - इधर एक - एक दो - दो रोज की कई दफे तुम छुट्टी ले चुके हो। जीत - जी हां, घर ही में कुछ काम था, मगर अबकी तो दूर जाना है इस लिए पंद्रह दिन की छुट्टी मांगता हूं। मेरी जगह पर पं. बद्रीनाथजी काम करेंगे, किसी बात का हर्ज न होगा। सुरेन्द्र - अच्छा जाओ, लेकिन जहां तक हो सके जल्द आना। राजा सुरेन्द्रसिंह से बिदा हो जीतसिंह अपने घर गये और बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को भी कुछ समझाने - बुझाने के लिए साथ लेते गये। पांचवा बयान कुंअर वीरेन्द्रसिंह तीनों ऐयारों के साथ खोह के अंदर घूमने लगे। तेजसिंह ने इधर - उधर के कई निशानों को देखकर कुमार से कहा, ''बेशक यहां का छोटा तिलिस्म तोड़ कोई खजाना ले गया। जरूर कुमारी चंद्रकान्ता को भी उसी ने कैद किया होगा। मैंने अपने ओस्ताद की जुबानी सुना था कि इस खोह में कई इमारतें और बाग देखने बल्कि रहने लायक हैं। शायद वह चोर इन्हीं में कहीं मिल भी जाय तो ताज्जुब नहीं।'' कुमार - तब जहां तक हो सके काम में जल्दी करनी चाहिए। तेज - बस हमारे साथ चलिये, अभी से काम शुरू हो जाय। यह कह तेजसिंह कुंअर वीरेन्द्रसिंह को उस पहाड़ी के नीचे ले गये जहां से पानी का चश्मा शुरू होता था। उस चश्मे से उत्तार को चालीस हाथ नापकर कुछ जमीन खोदी। कुमार से तेजसिंह ने कहा था कि ''इस छोटे तिलिस्म के तोड़ने और खजाना पाने की तरकीब किसी धाातु पत्र पर खुदी हुई यहीं जमीन में गड़ी है।'' मगर इस वक्त यहां खोदने से उसका कुछ पता न लगा, हां एक खत उसमें से जरूर मिली जिसको कुमार ने निकालकर पढ़ा। यह लिखा था : ''अब क्या खोदते हो! मतलब की कोई चीज नहीं है, जो था सो निकल गया, तिलिस्म टूट गया। अब हाथ मल के पछताओ।'' तेज - (कुमार की तरफ देखकर) देखिये यह पूरा सबूत तिलिस्म टूटने का मिल गया! कुमार - जब तिलिस्म टूट ही चुका है तो उसके हर एक दरवाजे भी खुले होंगे? ''हां जरूर खुले होंगे'', यह कहकर तेजसिंह पहाड़ियों पर चढ़ाते - घुमाते - फिराते कुमार को एक गुफा के पास ले गए जिसमें सिर्फ एक आदमी के जाने लायक राह थी। तेजसिंह के कहने से एक - एक कर चारों आदमी उस गुफा में घुसे। भीतर कुछ दूर जाकर खुलासी जगह मिली, यहां तक कि चारों आदमी खड़े होकर चलने लगे, मगर टटोलते हुए क्योंकि बिल्कुल अंधेरा था, हाथ तक नहीं दिखाई देता था। चलते - चलते कुंअर वीरेन्द्रसिंह का हाथ एक बंद दरवाजे पर लगा जो धाक्का देने से खुल गया और भीतर बखूबी रोशनी मालूम होने लगी। चारों आदमी अंदर गये, छोटा - सा बाग देखा जो चारों तरफ से साफ, कहीं तिनके का नाम - निशान नहीं, मालूम होता था अभी कोई झाड़ू देकर गया है। इस बाग में कोई इमारत न थी, सिर्फ एक फव्वारा बीच में था, मगर यह नहीं मालूम होता था कि इसका हौज कहां है। बाग में घूमने और इधर - उधर देखने से मालूम हुआ कि ये लोग पहाड़ी के ऊपर चले गये हैं। जब फव्वारे के पास पहुंचे तो एक बात ताज्जुब की दिखाई पड़ी। उस जगह जमीन पर जनाने हाथ का एक जोड़ा कंगन नजर पड़ा, जिसे देखते ही कुमार ने पहचान लिया कि कुमारी चंद्रकान्ता के हाथ का है। झट उठा लिया, आंखों से आंसू की बूंदें टपकने लगीं, तेजसिंह से पूछा - ''यह कंगन यहां क्योंकर पहुंचा? इसके बारे में क्या ख्याल किया जाय?'' तेजसिंह कुछ जवाब दिया ही चाहते थे कि उनकी निगाह एक कागज पर जा पड़ी जो उसी जगह खत की तरह मोड़ा पड़ा हुआ था। जल्दी से उठा लिया और खोलकर पढ़ा, यह लिखा था : ''बड़ी होशियारी से जाना, ऐयार लोग पीछा करेंगे, ऐसा न हो कि पता लग जाय, नहीं तो तुम्हारा और कुमार दोनों का ही बड़ा भारी नुकसान होगा। अगर मौका मिला तो कल आऊंगी - वही।'' इस पुर्जे को पढ़कर तेजसिंह किसी सोच में पड़ गये, देर तक चुपचाप खड़े न जाने क्या - क्या विचार करते रहे। आखिर कुमार से न रहा गया, पूछा, ''क्यों क्या सोच रहे हो? इस खत में क्या लिखा है?'' तेजसिंह ने वह खत कुमार के हाथ में दे दी, वे भी पढ़कर हैरान हो गए, बोले, ''इसमें जो कुछ लिखा है उस पर गौर करने से तो मालूम होता है कि हमारे और वनकन्या के मामले में ही कुछ है, मगर किसने लिखा यह पता नहीं लगता।'' तेज - आपका कहना ठीक है पर मैं एक और बात सोच रहा हूं जो इससे भी ताज्जुब की है। कुमार - वह क्या? तेज - इन हरफों को मैं कुछ - कुछ पहचानता हूं, मगर साफ समझ में नहीं आता क्योंकि लिखने वाले ने अपना हरफ छिपाने के लिए कुछ बिगाड़कर लिखा है। कुमार - खैर इस खत को रख छोड़ो, कभी - न - कभी कुछ पता लग ही जायगा, अब आगे का काम करो। फिर ये लोग घूमने लगे। बाग में कोने में इन लोगों को छोटी - छोटी चार खिड़कियां नजर आईं जो एक के साथ एक बराबर - सी बनी हुई थीं। पहले चारों आदमी बाईं तरफ वाली खिड़की में घुसे। थोड़ी दूर जाकर एक दरवाजा मिला जिसके आगे जाने की बिल्कुल राह न थी क्योंकि नीचे बेढब खतरनाक पहाड़ी दिखाई देती थी। इधर - उधर देखने और खूब गौर करने से मालूम हुआ कि यह वही दरवाजा है जिसको इशारे से उस योगी ने तेजसिंह को दिखाया था। इस जगह से वह दलान बहुत साफ दिखाई देता था जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता और चपला बहुत दिनों तक बेबस पड़ी थीं। ये लोग वापस होकर फिर उसी बाग में चले आये और उसके बगल वाली दूसरी खिड़की में घुसे जो बहुत अंधेरी थी। कुछ दूर जाने पर उजाला नजर पड़ा बल्कि हद तक पहुंचने पर एक बड़ा - सा खुला फाटक मिला जिससे बाहर होकर ये चारों आदमी खड़े हो चारों ओर निगाह दौड़ाने लगे। लंबे - चौड़े मैदान के सिवाय और कुछ न नजर आया। तेजसिंह ने चाहा कि घूमकर इस मैदान का हाल मालूम करें। मगर कई सबबों से वे ऐसा न कर सके। एक तो धूप बहुत कड़ी थी दूसरे कुमार ने घूमने की राय न दी और कहा, ''फिर जब मौका होगा इसको देख लेंगे। इस वक्त तीसरी व चौथी खिड़की में चलकर देखना चाहिए कि क्या है।'' चारों आदमी लौट आये और तीसरी खिड़की में घुसे। एक बाग में पहुंचते ही देखा वनकन्या कई सखियों को लिए घूम रही है, लेकिन कुंअर वीरेन्द्रसिंह वगैरह को देखते ही तेजी के साथ बाग के कोने में जाकर गायब हो गई। चारों आदमियो ने उसका पीछा किया और घूम - घूमकर तलाश भी किया मगर कहीं कुछ भी पता न लगा, हां जिस कोने में जाकर वे सब गायब हुई थीं वहां जाने पर एक बंद दरवाजा जरूर देखा जिसके खोलने की बहुत तरकीब की मगर न खुला। उस बाग के एक तरफ छोटी - सी बारहदरी थी। लाचार होकर ऐयारों के साथ कुंअर वीरेन्द्रसिंह उस बारहदरी में एक ओर बैठकर सोचने लगे, ''यह वनकन्या यहां कैसे आई? क्या उसके रहने का यही ठिकाना है? फिर हम लोगों को देखकर भाग क्यों गई? क्या अभी हमसे मिलना उसे मंजूर नहीं?'' इन सब बातों को सोचते - सोचते शाम हो गई मगर किसी की अक्ल ने कुछ काम न किया। इस बाग में मेवों के दरख्त बहुत थे। और एक छोटा - सा चश्मा भी था। चारों आदमियों ने मेवों से अपना पेट भरा और चश्मे का पानी पीकर उसी बारहदरी में जमीन पर ही लेट गये। यह राय ठहरी कि रात को इसी बारहदरी में गुजारा करेंगे, सबेरे जो कुछ होगा देखा जायगा। देवीसिंह ने अपने बटुए में से सामान निकालकर चिराग जलाया, इसके बाद बैठकर आपस में बातें करने लगे। कुमार - चंद्रकान्ता की मुहब्बत में हमारी दुर्गति हो गई, तिस पर भी अब तक कोई उम्मीद मालूम नहीं पड़ती। तेज - कुमारी सही - सलामत हैं और आपको मिलेंगी इसमें कोई शक नहीं। जितनी मेहनत से जो चीज मिलती है उसके साथ उतनी ही खुशी में जिंदगी बीततीहै। कुमार - तुमने चपला के लिए कौन - सी तकलीफ उठाई? तेज - तो चपला ही ने मेरे लिए कौन - सा दुख भोगा? जो कुछ किया कुमारी चंद्रकान्ता के लिए। ज्यो - क्यों तेजसिंह, क्या यह चपला तुम्हारी ही जाति की है? तेज - इसका हाल तो कुछ मालूम नहीं कि यह कौन जात है, लेकिन जब मुहब्बत हो गई तो फिर चाहे कोई जात हो। ज्यो - लेकिन क्या उसका कोई वली वारिस भी नहीं है? अगर तुम्हारी जाति की न हुई तो उसके मां - बाप कब कबूल करेंगे? तेज - अगर कुछ ऐसा - वैसा हुआ तो उसको मार डालूंगा और अपनी भी जान दे दूंगा। कुमार - कुछ इनाम दो तो हम चपला का हाल तुम्हें बता दें। तेज - इनाम में हम चपला ही को आपके हवाले कर देंगे। कुमार - खूब याद रखना, चपला फिर हमारी हो जायगी। तेज - जी हां, जी हां, आपकी हो जायगी आपकी हो जायगी। कुमार - चपला हमारी ही जाति की है। इसका बाप बड़ा भारी जमींदार और पूरा ऐयार था। इसको सात दिन का छोड़कर इसकी मां मर गयी। इसके बाप ने इसे पाला और ऐयारी सिखाई। अभी कुछ ही वर्ष गुजरे हैं कि इसका बाप भी मर गया। महाराज जयसिंह उसको बहुत मानते थे, उसने इनके बहुत बड़े - बड़े काम किये थे। मरने के वक्त अपनी बिल्कुल जमा - पूंजी और चपला को महाराज के सुपुर्द कर गया, क्योंकि उसका कोई वारिस नहीं था। महाराज जयसिंह इसको अपनी लड़की की तरह मानते हैं और महारानी भी इसे बहुत चाहती हैं। कुमारी चंद्रकान्ता का और इसका लड़कपन ही से साथ होने के सबब दोनों में बड़ी मुहब्बत है। तेज - आज तो आपने बड़ी खुशी की बात सुनाई, बहुत दिनों से इसका खुटका लगा हुआ था पर कई बातों को सोचकर आपसे नहीं पूछा। भला यह बातें आपको मालूम कैसे हुईं? कुमार - खास चंद्रकान्ता की जुबानी। तेज - तब तो बहुत ठीक है। तमाम रात बातचीत में गुजर गई, किसी को नींद न आई। सबेरे ही उठकर जरूरी कामों से छुट्टी पा उसी चश्मे में नहाकर संध्या - पूजा की और कुछ मेवा खा जिस राह से उस बाग में गये थे उसी राह से लौट आये और चौथी खिड़की के अंदर क्या है यह देखने के लिए उसमें घुसे। उसमें भी जाकर एक हरा - भरा बाग देखा जिसे देखते ही कुमार चौंक पड़े। छठवां बयान तेजसिंह ने कुंअर वीरेन्द्रसिंह से पूछा, ''आप इस बाग को देखकर चौंके क्यों? इसमें कौन - सी अद्भुत चीज आपकी नजर पड़ी?'' कुमार - मैं इस बाग को पहचान गया। तेज - (ताज्जुब से) आपने इसे कब देखा था? कुमार - यह वही बाग है जिसमें मैं लश्कर से लाया गया था। इसी में मेरी आंखें खुली थीं, इसी बाग में जब आंखें खुलीं तो कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर देखी थी और इसी बाग में खाना भी मिला था जिसे खाते ही मैं बेहोश होकर दूसरे बाग में पहुंचाया गया था। वह देखो, सामने वह छोटा - सा तालाब है जिसमें मैंने स्नान किया था, दोनों तरफ दो जामुन के पेड़ कैसे ऊंचे दिखाई दे रहे हैं। तेज - हम भी इस बाग की सैर कर लेते तो बेहतर था। कुमार - चलो घूमो, मैं ख्याल करता हूं कि उस कमरे का दरवाजा भी खुला होगा जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर देखी थी। चारों आदमी उस बाग में घूमने लगे। तीसरे भाग में इस बाग की पूरी कैफियत लिखी जा चुकी है, दोहराकर लिखना पढ़ने वालों का समय खराब करना है। कमरे के दरवाजे खुले हुए थे, जो - जो चीजें पहले कुमार ने देखी थीं आज भी नजर पड़ीं। सफाई भी अच्छी थी, किसी जगह गर्द या कतवार का नाम - निशान न था। पहली दफे जब कुमार इस बाग में आये थे तब इनकी दूसरी ही हालत थी, ताज्जुब में भरे हुए थे, तबीयत घबड़ा रही थी, कई बातों का सोच घेरे हुए था, इसलिए इस बाग की सैर पूरी तरह से नहीं कर सके थे, पर आज अपने ऐयारों के साथ हैं, किसी बात की फिक्र नहीं, बल्कि बहुत से अरमानों के पूरा होने की उम्मीद बंधा रही है। खुशी - खुशी ऐयारों के साथ घूमने लगे। आज इस बाग की कोई कोठरी, कोई कमरा, कोई दरवाजा बंद नहीं है, सब जगहों को देखते, अपने ऐयारों को दिखाते और मौके - मौके पर यह भी कहते जाते हैं - ''इस जगह हम बैठे थे, इस जगह भोजन किया था, इस जगह सो गये थे कि दूसरे बाग में पहुंचे।'' तेजसिंह ने कहा, ''दोपहर को भोजन करके सो रहने के बाद आप जिस कमरे में पहुंचे थे, जरूर उस बाग का रास्ता भी कहीं इस बाग में से ही होगा, अच्छी तरह घूम के खोजना चाहिए।'' कुमार - मैं भी यही सोचता हूं। देवी - (कुमार से) पहली दफे जब आप इस बाग में आये थे तो खूब खातिर की गयी थी, नहाकर पहनने के कपड़े मिले, पूजा - पाठ का सामान दुरुस्त था, भोजन करने के लिए अच्छी - अच्छी चीजें मिली थीं, पर आज तो कोई बात भी नहीं पूछता, यह क्या? कुमार - यह तुम लोगों के कदमों की बरकत है। घूमते - घूमते एक दरवाजा इन लोगों को मिला जिसे खोल ये लोग दूसरे बाग में पहुंचे। कुमार ने कहा, ''बेशक यह वही बाग है जिसमें दूसरी दफे मेरी आंख खुली थी या जहां कई औरतों ने मुझे गिरफ्तार कर लिया था, लेकिन ताज्जुब है कि आज किसी की भी सूरत दिखाई नहीं देती। वाह रे चित्रनगर, पहले तो कुछ और था आज कुछ और ही है। खैर चलो इस बाग में चलकर देखें कि क्या कैफियत है, वह तस्वीर का दरबार और रौनक बाकी है या नहीं। रास्ता याद है और मैं इस बाग में बखूबी जा सकता हूं।'' इतना कह कुमार आगे हुए और उनके पीछे - पीछे चारों ऐयार भी तीसरे बाग की तरफ बढ़े। सातवां बयान विजयगढ़ के महाराज जयसिंह को पहले यह खबर मिली थी कि तिलिस्म टूट जाने पर भी कुमारी चंद्रकान्ता की खबर न लगी। इसके बाद यह मालूम हुआ कि कुमारी जीती - जागती है और उसी की खोज में वीरेन्द्रसिंह फिर खोह के अंदर गए हैं। इन सब बातों को सुन - सुनकर महाराज जयसिंह बराबर उदास रहा करते थे। महल में महारानी की भी बुरी दशा थी। चंद्रकान्ता की जुदाई में खाना - पीना बिल्कुल छूटा हुआ था, सूख के कांटा हो रही थीं और जितनी औरतें महल में थीं सभी उदास और दु:खी रहा करती थीं। एक दिन महाराज जयसिंह दरबार में बैठे थे। दीवान हरदयालसिंह जरूरी अर्जियां पढ़कर सुनाते और हुक्म लेते जाते थे। इतने में एक जासूस हाथ में एक छोटा - सा लिखा हुआ कागज लेकर हाजिर हुआ। इशारा पाकर चोबदार ने उसे पेश किया। दीवान हरदयालसिंह ने उससे पूछा, ''यह कैसा कागज लाया है और क्या कहता है?'' जासूस ने अर्ज किया, ''इस तरह के लिखे हुए कागज शहर में बहुत जगह चिपके हुए दिखाई दे रहे हैं। तिरमुहानियों पर, बाजार में, बड़ी - बड़ी सड़कों पर इसी तरह के कागज नजर पड़ते हैं। मैंने एक आदमी से पढ़वाया था जिसके सुनने से जी में डर पैदा हुआ और एक कागज उखाड़कर दरबार में ले आया हूं। बाजार में इन कागजों को पढ़ - पढ़कर लोग बहुत घबड़ा रहे हैं।'' जासूस के हाथ से कागज लेकर दीवान हरदयालसिंह ने पढ़ा और महाराज को सुनाया। यह लिखा हुआ था - ''नौगढ़ और विजयगढ़ के राजा आजकल बड़े जोर में आये होंगे। दोनों को इस बात की बड़ी शेखी होगी कि हम चुनार फतह करके निश्चित हो गए, अब हमारा कोई दुश्मन नहीं रहा। इसी तरह वीरेन्द्रसिंह भी फूले न समाते होंगे। आजकल मजे में खोह की हवा खा रहे हैं। मगर यह किसी को मालूम नहीं कि उन लोगों का बड़ा भारी दुश्मन मैं अभी तक जीता हूं। आज से मैं अपना काम शुरू करूंगा। नौगढ़ और विजयगढ़ के राजों, सरदारों और बड़े - बड़े सेठ - साहूकारों को चुन - चुनकर मारूंगा। दोनों राज्य मिट्टी में मिला दूंगा और फिर भी गिरफ्तार न होऊंगा। यह न समझना कि हमारे यहां बड़े - बड़े ऐयार हैं, मैं ऐसे - ऐसे ऐयारों को कुछ भी नहीं समझता। मैं भी एक बड़ा भारी ऐयार हूं लेकिन मैं किसी को गिरफ्तार न करूंगा, बस जान से मार डालना मेरा काम होगा। अब अपनी - अपनी जान की हिफाजत चाहो तो यहां से भागते जाओ। खबरदार! खबरदार!! खबरदार!! - ऐयारों का गुरुघंटाल - जालिमखां'' इस कागज को सुन महाराज जयसिंह घबरा उठे। हरदयालसिंह के भी होश जाते रहे और दरबार में जितने आदमी थे सभी कांप उठे। मगर सबों को ढाढ़स देने के लिए महाराज ने गंभीर भाव से कहा, ''हम ऐसे - ऐसे लुच्चों के डराने से नहीं डरते! कोई घबराने की जरूरत नहीं। अभी शहर में मुनादी करा दी जाय कि जालिमखां को गिरफ्तार करने की फिक्र सरकार कर रही है। यह किसी का कुछ न बिगाड़ सकेगा। कोई आदमी घबराकर या डरकर अपना मकान न छोड़े! मुनादी के बाद शहर में पहरे का इंतजाम पूरा - पूरा किया जाय और बहुत से जासूस उस शैतान की टोह में रवाना किए जाएं।'' थोड़ी देर बाद महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। दीवान हरदयालसिंह भी सलाम करके घर जाना चाहते थे, मगर महाराज का इशारा पाकर रुक गए। दीवान को साथ ले महाराज जयसिंह दीवानखाने में गए और एकांत में बैठकर उसी जालिमखां के बारे में सोचने लगे। कुछ देर तक सोच - विचारकर हरदयालसिंह ने कहा, ''हमारे यहां कोई ऐयार नहीं है जिसका होना बहुत जरूरी है।'' महाराज जयसिंह ने कहा, ''तुम इसी वक्त एक खत यहां के हालचाल की राजा सुरेन्द्रसिंह को लिखो और वह विज्ञापन (इश्तिहार) भी उसी के साथ भेज दो, जो जासूस लाया था।'' महाराज के हुक्म के मुताबिक हरदयालसिंह ने खत लिखकर तैयार की और एक जासूस को देकर उसे पोशीदा तौर पर नौगढ़ की तरफ रवाना किया, इसके बाद महाराज ने महल के चारों तरफ पहरा बढ़ाने के लिए हुक्म देकर दीवान को बिदा किया। इन सब कामों से छुट्टी पा महाराज महल में गए। रानी से भी यह हाल कहा। वह भी सुनकर बहुत घबराई। औरतों में इस बात की खलबली पड़ गई। आज का दिन और रात इस तरद्दुद में गुजर गई। दूसरे दिन दरबार में फिर एक जासूस ने कल की तरह एक और कागज लाकर पेश किया और कहा, ''आज तमाम शहर में इसी तरह के कागज चिपके दिखाई देते हैं।'' दीवान हरदयालसिंह ने जासूस के हाथ से वह कागज ले लिया और पढ़कर महाराज को सुनाया, यह लिखा था : ''वाह वाह वाह! आपके किये कुछ न बन पड़ा तो नौगढ़ से मदद मांगने लगे! यह नहीं जानते कि नौगढ़ में भी मैंने उपद्रव मचा रखा है। क्या आपका जासूस मुझसे छिपकर कहीं जा सकता था? मैंने उसे खतम कर दिया। किसी को भेजिए उसकी लाश उठा लावे। शहर के बाहर कोस भर पर उसकी लाश मिलेगी। - वही - जालिमखां'' इस इश्तिहार के सुनने से महाराज का कलेजा कांप उठा। दरबार में जितने आदमी बैठे थे सबों के छक्के छूट गये। अपनी - अपनी फिक्र पड़ गई। महाराज के हुक्म से कई आदमी शहर के बाहर उस जासूस की लाश उठा लाने के लिए भेजे गए, जब तक उसकी लाश दरबार के बाहर लाई जाय एक धाूम - सी मच गई। हजारों आदमियों की भीड़ लग गई। सबों की जुबान पर जालिमखां सवार था। नाम से लोगों के रोंए खड़े होते थे। जासूस के सिर का पता न था और जो खत वह ले गया था वह उसके बाजू से बंधी हुई थी। जाहिर में महाराज ने सबों को ढाढ़स दिया मगर तबीयत में अपनी जान का भी खौफ मालूम हुआ। दीवान से कहा, ''शहर में मुनादी करा दी जाय कि जो कोई इस जालिमखां को गिरफ्तार करेगा उसे सरकार से दस हजार रुपया मिलेगा और यहां के कुल हालचाल की खत पांच सवारों के साथ नौगढ़ रवाना की जाए।'' यह हुक्म देकर महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। पांचों सवार जो खत लेकर नौगढ़ रवाना हुए, डर के मारे कांप रहे थे। अपनी जान का डर था। आपस में इरादा कर लिया कि शहर के बाहर होते ही बेतहाशा घोड़े फेंके निकल जायेंगे, मगर न हो सका। दूसरे दिन सबेरे ही फिर इश्तिहार लिए हुए एक पहरे वाला दरबार में हाजिर हुआ। हरदयालसिंह ने इश्तिहार लेकर देखा, यह लिखा था : ''इन पांच सवारों की क्या मजाल थी जो मेरे हाथ से बचकर निकल जाते। आज तो इन्हीं पर गुजरी, कल से तुम्हारे महल में खेल मचाऊंगा। ले अब खूब सम्हलकर रहना। तुमने यह मुनादी कराई है कि जालिमखां को गिरफ्तार करने वाला दस हजार इनाम पावेगा। मैं भी कहे देता हूं कि जो कोई मुझे गिरफ्तार करेगा उसे बीस हजार इनाम दूंगा!! - वही जालिमखां!!'' आज का इश्तिहार पढ़ने से लोगों की क्या स्थिति हुई वे ही जानते होंगे। महाराज के तो होश उड़ गये। उनको अब उम्मीद न रही कि हमारी खबर नौगढ़ पहुंचेगी। एक खत के साथ पूरी पल्टन को भेजना यह भी जवांमर्दी से दूर था। सिवाय इसके दरबार में जासूसों ने यह खबर सुनाई कि जालिमखां के खौफ से शहर कांप रहा है, ताज्जुब नहीं कि दो या तीन दिन में तमाम रियाया शहर खाली कर दे। यह सुनकर और भी तबीयत घबरा उठी। महाराज ने कई आदमी उन सवारों की लाशों को लाने के लिए रवाना किये। वहां जाते उन लोगों की जान कांपती थी मगर हाकिम का हुक्म था, क्या करते लाचार जाना पड़ता था। पांचों आदमियों की लाशें लाई गईं। उन सबों के सिर कटे हुए न थे, मालूम होता था फांसी लगाकर जान ली गई है, क्योंकि गर्दन में रस्से के दाग थे। इस कैफियत को देखकर महाराज हैरान हो चुपचाप बैठे थे। कुछ अक्ल काम नहीं करती थी। इतने में सामने से पंडित बद्रीनाथ आते दिखाई दिये। आज पंडित बद्रीनाथ का ठाठ देखने लायक था। पोर - पोर से फुर्तीलापन झलक रहा था। ऐयारी के पूरे ठाठ से सजे थे, बल्कि उससे फाजिल तीर - कमान लगाए, चुस्त जांघिया कसे, बटुआ और खंजर कमर से, कमंद पीठ पर लगाये पत्थरों की झोली गले में लटकती हुई, छोटा - सा डंडा हाथ में लिए कचहरी में आ मौजूद हुए। महाराज को यह खबर पहले ही लग चुकी थी कि राजा शिवदत्त अपनी रानी को लेकर तपस्या करने के लिए जंगल की तरफ चले गये और पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल वगैरह सब ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के साथ हो गये हैं। ऐसे वक्त में पंडित बद्रीनाथ का पहुंचना महाराज के वास्ते ऐसा हुआ जैसे मरे हुए पर अमृत बरसना। देखते ही खुश हो गए, प्रणाम करके बैठने का इशारा किया। बद्रीनाथ आशीर्वाद देकर बैठ गये। जय - आज आप बड़े मौके पर पहुंचे। बद्री - जी हां, अब आप कोई चिंता न करें। दो - एक दिन में ही जालिमखां को गिरफ्तार कर लूंगा। जय - आपको जालिमखां की खबर कैसे लगी। बद्री - इसकी खबर तो नौगढ़ ही में लग गई थी, जिसका खुलासा हाल दूसरे वक्त कहूंगा। यहां पहुंचने पर शहर वालों को मैंने बहुत उदास और डर के मारे कांपते देखा। रास्ते में जो भी मुझको मिलता था उसे बराबर ढाढ़स देता था कि 'घबराओ मत अब मैं आ पहुंचा हूं।' बाकी हाल एकांत में कहूंगा और जो कुछ काम करना होगा उसकी राय भी दूसरे वक्त एकांत में ही आपके और दीवान हरदयालसिंह के सामने पक्की होगी, क्योंकि अभी तक मैंने स्नान - पूजा कुछ भी नहीं किया है। इससे छु्रट्टी पाकर तब कोई काम करूंगा। अब महाराज जयसिंह के चेहरे पर कुछ खुशी दिखाई देने लगी। दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि ''पंडित बद्रीनाथ को आप अपने मकान में उतारिए और इनके आराम की कुल चीजों का बंदोबस्त कर दीजिए जिससे किसी बात की तकलीफ न हो, मैं भी अब उठता हूं।'' बद्री - शाम को महाराज के दर्शन कहां होंगे? क्योंकि उसी वक्त मेरी बातचीत होगी? जय - जिस वक्त चाहो मुझसे मुलाकात होगी। महाराज जयसिंह ने दरबार बर्खास्त किया, पंडित बद्रीनाथ को साथ ले दीवान हरदयालसिंह अपने मकान पर आये और उनकी जरूरत की चीजों का पूरा - पूरा इंतजाम कर दिया। जो कुछ दिन बाकी था पंडित बद्रीनाथ ने जालिमखां के गिरफ्तार करने की तरकीब सोचने में गुजारा। शाम के वक्त दीवान हरदयालसिंह को साथ ले महाराज जयसिंह से मिलने गये, मालूम हुआ कि महाराज बाग की सैर कर रहे हैं, वे दोनों बाग में गये। उस वक्त वहां महाराज के पास बहुत से आदमी थे, पंडित बद्रीनाथ के आते ही वे लोग बिदा कर दिए गए, सिर्फ बद्रीनाथ और हरदयाल महाराज के पास रह गये। पहले कुछ देर तक चुनार के राजा शिवदत्तसिंह के बारे में बातचीत होती रही, इसके बाद महाराज ने पूछा कि ''नौगढ़ में जालिमखां की खबर कैसे पहुंची?'' बद्री - नौगढ़ में भी इसी तरह के इश्तिहार चिपकाए हैं, जिनके पढ़ने से मालूम हुआ कि विजयगढ़ में वह उपद्रव मचावेगा, इसीलिए हमारे महाराज ने मुझे यहां भेजाहै। महाराज - इस दुष्ट जालिमखां ने वहां तो किसी की जान न ली? बद्री - नहीं, वहां अभी उसका दाव नहीं लगा, ऐयार लोग भी बड़ी मुस्तैदी से उसकी गिरफ्तारी की फिक्र में लगे हुए हैं। महाराज - यहां तो उसने कई खून किए। बद्री - शहर में आते ही मुझे खबर लग चुकी है, खैर देखा जायगा। महाराज - अगर ज्योतिषीजी को भी साथ लाते तो उनके रमल की मदद से बहुत जल्द गिरफ्तार हो जाता। बद्री - महाराज, जरा इसकी बहादुरी की तरफ ख्याल कीजिए कि इश्तिहार देकर डंके की चोट काम कर रहा है! ऐसे शख्स की गिरफ्तारी भी उसी तरह होनी चाहिए। ज्योतिषीजी की मदद की इसमें क्या जरूरत है। महा - देखें वह कैसे गिरफ्तार होता है, शहर भर उसके खौफ से कांप रहाहै। बद्री - घबराइए नहीं, सुबह - शाम में किसी न किसी को गिरफ्तार करता हूं। महाराज - क्या वे लोग कई आदमी हैं? बद्री - जरूर कई आदमी होंगे। यह अकेले का काम नहीं है कि यहां से नौगढ़ तक की खबर रखे और दोनों तरफ नुकसान पहुंचाने की नीयत करे। महाराज - अच्छा जो चाहो करो, तुम्हारे आ जाने से बहुत कुछ ढाढ़स हो गई नहीं तो बड़ी ही फिक्र लगी हुई थी। बद्री - अब मैं रुखसत होऊंगा बहुत कुछ काम करना है। हरदयाल - क्या आप डेरे की तरफ नहीं जाएंगे? बद्री - कोई जरूरत नहीं, मैं पूरे बंदोबस्त से आया हूं और जिधर जी चाहेगा चल दूंगा। कुछ रात जा चुकी थी जब महाराज से बिदा हो बद्रीनाथ जालिमखां की टोह में रवाना हुए।
आठवां बयान बद्रीनाथ जालिमखां की फिक्र में रवाना हुए। वह क्या करेंगे, कैसे जालिमखां को गिरफ्तार करेंगे इसका हाल किसी को मालूम नहीं। जालिमखां ने आखिरी इश्तिहार में महाराज को धामकाया था कि अब तुम्हारे महल में डाका मारूंगा। महाराज पर इश्तिहार का बहुत कुछ असर हुआ। पहरे पर आदमी चौगुने कर दिए गए। आप भी रात भर जागने लगे, हरदम तलवार का कब्जा हाथ में रहता था। बद्रीनाथ के आने से कुछ तसल्ली हो गई थी, मगर जिस रोज वह जालिमखां को गिरफ्तार करने चले गए उसके दूसरे ही दिन फिर इश्तिहार शहर में हर चौमुहानियों और सड़कों पर चिपका हुआ लोगों की नजर पड़ा, जिसमें का एक कागज जासूस ने लाकर दरबार में महाराज के सामने पेश किया और दीवान हरदयालसिंह ने पढ़कर सुनाया - यह लिखा हुआ था : ''महाराज जयसिंह, होशियार रहना, पंडित बद्रीनाथ की ऐयारी के भरोसे मत भूलना, वह कल का छोकड़ा क्या कर सकता है? पहले तो जालिमखां तुम्हारा दुश्मन था, अब मैं भी पहुंच गया हूं। पंद्रह दिन के अंदर इस शहर को उजाड़ कर दूंगा और आज के चौथे दिन बद्रीनाथ का सिर लेकर बारह बजे रात को तुम्हारे महल में पहुंचूंगा। होशियार! उस वक्त भी जिसका जी चाहे मुझे गिरफ्तार कर ले। देखूं तो माई का लाल कौन निकलता है? जो कोई महाराज का दुश्मन हो और मुझसे मिलना चाहे वह 'टेटी - चोटी' में बारह बजे रात को मिल सकता है। - आफतखां खूनी'' इस इश्तिहार ने तो महाराज के बचे - बचाये होश भी उड़ा दिये। बस यही जी में आता था कि इसी वक्त विजयगढ़ छोड़ के भाग जायं, मगर जवांमर्दी और हिम्मत ऐसा करने से रोकती थी। जल्दी से दरबार बर्खास्त किया, दीवान हरदयालसिंह को साथ ले दीवानखाने में चले गये और इस नए आफतखां खूनी के बारे में बातचीत करने लगे। महाराज - अब क्या किया जाय! एक ने तो आफत मचा ही रखी थी अब दूसरे इस आफतखां ने आकर और भी जान सुखा दी। अगर ये दोनों गिरफ्तार न हुए तो हमारे राज्य करने पर लानत है। हरदयाल - बद्रीनाथ के आने से कुछ उम्मीद हो गई थी कि जालिमखां को गिरफ्तार करेंगे! मगर अब तो उनकी जान भी बचती नजर नहीं आती। महाराज - किसी तरकीब से आज की यह खबर नौगढ़ पहुचती तो बेहतर होता। वहां से बद्रीनाथ की मदद के लिए कोई और ऐयार आ जाता। हरदयाल - नौगढ़ जिस आदमी को भेजेंगे उसी की जान जायगी, हां सौ दो सौ आदमियों के पहरे में कोई खत जाय तो शायद पहुंचे। महाराज - (गुस्से में आकर) नाम को हमारे यहां पचासों जासूस हैं, बरसों से हरामखोरों की तरह बैठे खा रहे हैं मगर आज एक काम उनके किए नहीं हो सकता। न कोई जालिमखां की खबर लाता है न कोई नौगढ़ खत पहुंचाने लायक है! हरदयाल - एक ही जासूस के मरने से सबों के छक्के छूट गये। महाराज - खैर आज शाम को हमारे कुल जासूसों को लेकर बाग में आओ, या तो कुछ काम ही निकालेंगे या सारे जासूस तोप के सामने रखकर उड़ा दिये जायेंगे, फिर जो कुछ होगा देखा जायगा। मैं खुद उस हरामजादे को पकड़ूंगा। हरदयाल - जो हुक्म! महाराज - बस अब जाओ, जो हमने कहा है उसकी फिक्र करो। दीवान हरदयालसिंह महाराज से बिदा हो अपने मकान पर गए, मगर हैरान थे कि क्या करें, क्योंकि महाराज को बेतरह क्रोध चढ़ आया था। उम्मीद तो यही थी कि किसी जासूस के किये कुछ न होगा और वे बेचारे मुफ्त में तोप के आगे उड़ा दिये जायेंगे। फिर वे यह भी सोचते थे कि जब महाराज खुद उन दुष्टों की गिरफ्तारी की फिक्र में घर से निकलेंगे तो मेरी जान भी गई, अब जिंदगी की क्या उम्मीद है! नौवां बयान कुंअर वीरेन्द्रसिंह तीसरे बाग की तरफ रवाना हुए, जिसमें राजकुमारी चंद्रकान्ता की दरबारी तस्वीर देखी थी और जहां कई औरतें कैदियों की तरह इनको गिरफ्तार करके ले गई थीं। उसमें जाने का रास्ता इनको मालूम था। जब कुमार उस दरवाजे के पास पहुंचे जिसमें से होकर ये लोग उस बाग में पहुंचते तो वहां एक कमसिन औरत नजर पड़ी जो इन्हीं की तरफ आ रही थी। देखने में खूबसूरत और पोशाक भी उसकी बेशकीमती थी, हाथ में एक खत लिए कुमार के पास आकर खड़ी हो गई, खत कुमार के हाथ में दे दी। उन्होंने ताज्जुब में आकर खुद उसे पढ़ा, लिखा हुआ था - ''कई दिनों से आप हमारे इलाके में आए हुए हैं, इसलिए आपकी मेहमानी हमको लाजिम है। आज सब सामान दुरुस्त किया है। इसी लोंडी के साथ आइये और झोंपड़ी को पवित्र कीजिए। इसका अहसान जन्म - भर न भूलूंगा। - सिद्धनाथ योगी।'' कुमार ने खत तेजसिंह के हाथ में दे दी, उन्होंने पढ़कर कहा, ''साधु हैं, योगी हैं इसी से इस खत में कुछ हुकूमत भी झलकती है।'' देवीसिंह और ज्योतिषीजी ने भी खत को पढ़ा। शाम हो चुकी थी, कुमार ने अभी उस खत का कुछ जवाब नहीं दिया था कि तेजसिंह ने उस औरत से कहा, ''हम लोगों को महात्माजी की खातिर मंजूर है, मगर अभी तुम्हारे साथ नहीं जा सकते, घड़ी भर के बाद चलेंगे, क्योंकि संध्या करने का समय हो चुका है।'' औरत - तब तक मैं ठहरती हूं आप लोग संध्या कर लीजिए, अगर हुक्म हो तो संध्या के समय के लिए जल और आसन ले आऊं? देवी - नहीं कोई जरूरत नहीं। औरत - तो फिर यहां संध्या कैसे कीजिएगा? इस बाग में कोई नहर नहीं, बावली नहीं। तेज - उस दूसरे बाग में बावली है। औरत - इतनी तकलीफ करने की क्या जरूरत है, मैं अभी सब सामान लिए आती हूं, या फिर मेरे साथ चलिए, उस बाग में संध्या कर लीजिएगा, अभी तो उसका समय भी नहीं बीत चला है। तेज - नहीं, हम लोग इसी बाग में संध्या करेंगे, अच्छा जल ले आओ। इतना सुनते ही वह औरत लपकती हुई तीसरे बाग में चली गई। कुमार - इस खत के भेजने वाले अगर वे ही योगी हैं जिन्होंने मुझे कूदने से बचाया था तो बड़ी खुशी की बात है, जरूर वहां वनकन्या से भी मुलाकात होगी। मगर तुम रुक क्यों गए? उसी बाग में चलकर संध्या कर लेते! मैं तो उसी वक्त कहने को था मगर यह समझकर चुप हो रहा कि शायद इसमें भी तुम्हारा कोई मतलब हो। तेज - जरूर ऐसा ही है। देवी - क्यों ओस्ताद, इसमें क्या मतलब है? तेज - देखो मालूम ही हुआ जाता है। कुमार - तो कहते क्यों नहीं, आखिर कब बतलाओगे? तेज - हमने यह सोचा कि कहीं योगीजी हम लोगों से धोखा न करें कि खाने - पीने में बेहोशी की दवा मिलाकर खिला दें, जब हम लोग बेहोश हो जायं तो उठवाकर खोह के बाहर रखवा दें और यहां आने का रास्ता बंद करवा दें, ऐसा होगा तो कुल मेहनत ही बरबाद हो जायगी। देखिए आप भी इसी बाग में बेहोश किए गए थे, जब कैदी बनाकर लाये थे और प्यास लगने पर एक कटोरा पानी पीया था, उसी वक्त बेहोश हो गए और खोह में ले जाकर रख दिये गये थे। अगर ऐसा न हुआ होता तो उसी समय कुछ न कुछ हाल यहां का मिल गया होता। फिर मैं यह भी सोचता हूं कि अगर हम लोग वहां जाकर भोजन से इनकार करेंगे तो ठीक न होगा क्योंकि ज्याफत कबूल करके मौका पर खाने से इनकार कर जाना उचित नहीं है। देवी - तो फिर इसकी तरकीब क्या सोची है? तेज - (हंसकर) तरकीब क्या, बस वही तिलिस्मी गुलाब का फूल घिसकर सबों को पिलाऊंगा और आप भी पीऊंगा, फिर सात दिन तक बेहोश करने वाला कौनहै? कुमार - हां ठीक है, पर वह वैद्य भी कैसा चतुर होगा जिसने दवाइयों से ऐसे काम के नायाब फूल बनाए। तेज - ठीक ही है। इतने में वही औरत सामने से आती दिखाई पड़ी, उसके पीछे तीन लौंडियां आसन, पंचपात्र, जल इत्यादि हाथों में लिए आ रही थीं। उस बाग में एक पेड़ के नीचे कई पत्थर बैठने लायक रखे हुए थे, औरतों ने उन पत्थरो पर सामान दुरुस्त कर दिया, इसके बाद तेजसिंह ने उन लोगों से कहा, ''अब थोड़ी देर के वास्ते तुम लोग अपने बाग में चली जाओ क्योंकि औरतों के सामने हम लोग संध्या नहीं करते।'' ''आप ही लोगों की खिदमत करते जनम बीत गया, ऐसी बातें क्यों करते हैं। सीधी तरह से क्यों नहीं कहते कि हट जाओ। लो मैं जाती हूं!'' कहती हुई वह औरत लौंडियों को साथ ले चली गई। उसकी बात पर ये लोग हंस पड़े और बोले - ''जरूर ऐयारों के संग रहने वाली है!'' संध्या करने के बाद तेजसिंह ने तिलिस्मी गुलाब का फूल पानी में घिसकर सबों को पिलाया तथा आप भी पीया और तब राह देखने लगे कि फिर वह औरत आये तो उसके साथ हम लोग चलें। थोड़ी देर के बाद वही औरत फिर आई, उसने इन लोगों को चलने के लिए कहा। ये लोग भी तैयार थे, उठ खड़े हुए और उसके पीछे रवाना होकर तीसरे बाग में पहुंचे। ऐयारों ने अभी तक इस बाग को नहीं देखा था मगर कुंअर वीरेन्द्रसिंह इसे खूब पहचानते थे। इसी बाग में कैदियों की तरह लाए गए थे और यहीं पर कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था मगर आज इस बाग को वैसा नहीं पाया, न तो वह रोशनी ही थी न उतने आदमी ही। हां पांच - सात औरतें इधर - उधर घूमती - फिरती दिखाई पड़ीं और दो - तीन पेड़ों के नीचे। कुछ रोशनी भी थी जहां उसका होना जरूरी था। शाम हो गई थी बल्कि कुछ अंधेरा भी हो चुका था। वह औरत इन लोगों को लिए उस कमरे की तरफ चली जहां कुमार ने तस्वीर का दरबार देखा था। रास्ते में कुमार सोचते जाते थे, ''चाहे जो हो आज सब भेद मालूम किए बिना योगी का पिण्ड न छोडूंगा। हाल मालूम हो जायगा कि वनकन्या कौन है, तिलिस्मी किताब उसने क्योकर पाई थी, हमारे साथ उसने इतनी भलाई क्यों की और चंद्रकान्ता कहां चली गई?'' दीवानखाने में पहुंचे। आज यहां तस्वीर का दरबार न था बल्कि उन्हीं योगीजी का दरबार था जिन्होंने पहाड़ी से कूदते हुए कुमार को बचाया था। लंबा - चौड़ा फर्श बिछा हुआ था और उसके ऊपर एक मृगछाला बिछाये योगीजी बैठे हुए थे। बाईं तरफ कुछ पीछे हटकर वनकन्या बैठी थी और सामने की तरफ चार - पांच लौंडियां हाथ जोड़े खड़ी थीं। कुमार को आते देख योगीजी उठ खड़े हुए, दरवाजे तक आकर उनका हाथ पकड़ अपनी गद्दी के पास ले गये और अपने बगल में दाहिने ओर मृगछाला पर बैठाया। वनकन्या उठकर कुछ दूर जा खड़ी हुई और प्रेम - भरी निगाहों से कुमार को देखने लगी। सब तरफ से हटकर कुमार की निगाह भी वनकन्या की तरफ जा डटी। इस वक्त इन दोनों की निगाहों से मुहब्बत, हमदर्दी और शर्म टपक रही थी। चारों आंखें आपस में घुल रही थीं। अगर योगीजी का ख्याल न होता तो दोनों दिल खोलकर मिल लेते, मगर नहीं, दोनों ही को इस बात का ख्याल था कि इन प्रेम की निगाहों को योगीजी न जानने पावें। कुछ ठहरकर योगी और कुमार में बातचीत होने लगी। योगी - आप और आपकी मंडली के लोग कुशल - मंगल से तो हैं? कुमार - आपकी दया से हर तरह से प्रसन्न हैं, परंतु... योगी - परंतु क्या? कुमार - परंतु कई बातों का भेद न खुलने से तबीयत को चैन नहीं है, फिर भी आशा है कि आपकी कृपा से हम लोगों का यह दुख भी दूर हो जायगा। योगी - परमेश्वर की दया से अब कोई चिंता न रहेगी और आपके सब संदेह छूट जायेंगे। इस समय आप लोग हमारे साग - सत्तू को कबूल करें, इसके बाद रात - भर हमारे आपके बीच बातचीत होती रहेगी, जो कुछ पूछना हो पूछिएगा। ईश्वर चाहेंगे तो अब किसी तरह का दु:ख उठाना न पड़ेगा और आज ही से आपकी खुशी का दिन शुरू होगा। योगी की अमृत भरी बातों ने कुमार और उनके ऐयारों के सूखे दिलों को हरा कर दिया। तबीयत प्रसन्न हो गई, उम्मीद बंधा गई कि अब सब काम पूरा हो जायगा। थोड़ी देर के बाद भोजन का सामान दुरुस्त किया गया। खाने की जितनी चीजें थीं सभी ऐसी थीं कि सिवाय राजे - महाराजे के और किसी के यहां न पाई जायं। खाने - पीने से निश्चित होने पर बाग के बीचो बीच पत्थर के खूबसूरत चबूतरे पर फर्श बिछाया गया और उसके ऊपर मृगछाला बिछाकर योगीजी बैठ गये, अपने बगल में कुमार को बैठा लिया, कुछ दूर पर हटकर वनकन्या अपनी दो सखियों के साथ बैठी, और जितनी औरतें थीं हटा दी गईं। रात पहर से ज्यादा जा चुकी थी, चंद्रमा अपनी पूर्ण किरणों से उदय हो रहे थे। ठंडी हवा चल रही थी जिसमें सुगंधित फूलों की मीठी महक उड़ रही थी। योगी ने मुस्कराकर कुमार से कहा : ''अब जो कुछ पूछना हो पूछिये, मैं सब बातों का जवाब दूंगा और जो कुछ काम आपका अभी तक अटका है उसको भी कर दूंगा।'' कुंअर वीरेन्द्रसिंह के जी में बहुत - सी ताज्जुब की बातें भरी हुई थीं, हैरान थे कि पहले क्या पूछूं। आखिर खूब सम्हलकर बैठे और योगी से पूछने लगे।
दसवां बयान जो कुछ दिन बाकी था दीवान हरदयालसिंह ने जासूसों को इकट्ठा करने और समझाने - बुझाने में बिताया। शाम को सब जासूसों को साथ ले हुक्म के मुताबिक महाराज जयसिंह के पास बाग में हाजिर हुए। खुद महाराज जयसिंह ने जासूसों से पूछा, ''तुम लोग जालिमखां का पता क्यो नहीं लगा सकते?'' इसके जवाब में उन्होंने अर्ज किया, ''महाराज, हम लोगों से जहां तक बनता है कोशिश करते हैं, उम्मीद है कि पता लग जायगा।'' महाराज ने कहा, ''आफतखां एक नया शैतान पैदा हुआ? इसने अपने इश्तिहार में अपने मिलने का पता भी लिखा है, फिर क्यों नहीं तुम लोग उसी ठिकाने मिलकर उसे गिरफ्तार करते हो?'' जासूसों ने जवाब दिया, ''महाराज आफतखां ने अपने मिलने का ठिकाना 'टेटी - चोटी' लिखा है, अब हम लोग क्या जानें 'टेटी - चोटी' कहां है, कौन - सा मुहल्ला है, किस जगह को उसने इस नाम से लिखा है, इसका क्या अर्थ है तथा हम लोग कहां जायें?'' यह सुनकर महाराज भी 'टेटी - चोटी' के फेर में पड़ गए। कुछ भी समझ में न आया। जासूसों को बेकसूर समझ कुछ न कहा, हां डरा - धामका के और ताकीद करके रवाना किया। अब महाराज को अपने जीने की उम्मीद कम रह गई, खौफ के मारे रात भर हाथ में तलवार लिये जागा करते, क्योंकि थोड़ा - बहुत जो कुछ भरोसा था अपनी बहादुरी ही का था। दूसरे दिन इश्तिहार फिर शहर में चिपका हुआ पाया गया जिसे पहरे वालों ने लाकर हाजिर किया। दीवान हरदयालसिंह ने उसे पढ़कर सुनाया, यह लिखा था: ''देखना, खूब सम्हले रहना! बद्रीनाथ को गिरफ्तार कर चुका हूं, अपने पहले वादे के बमूजिब कल बारह बजे रात को उसका सिर लेकर तुम्हारे महल में हम लोग कई आदमी पहुंचेंगे। देखें कैसे गिरफ्तार करते हो!! - आफतखां'' ग्यारहवां बयान विजयगढ़ के पास भयानक जंगल में नाले के किनारे एक पत्थर की चट्टान पर दो आदमी आपस में धीरे - धीरे बातचीत कर रहे हैं। चांदनी खूब छिटकी हुई है जिसमें इन लोगों की सूरत और पोशाक साफ दिखाई पड़ती है। दोनों आदमियों में से जो दूसरे पत्थर पर बैठे हुए हैं एक की उम्र लगभग चालीस वर्ष की होगी। काला रंग, लंबा कद, काली दाढ़ी, सिर्फ जांघिया और चुस्त कुरता पहने हुए, तीर - कमान और ढाल - तलवार आगे रखे एक घुटना जमीन के साथ लगाए बैठा है। बड़ी - बड़ी काली और कड़ी मोछें ऊपर को चढ़ी हुई हैं, भूरी और खूंखार आंखें चमक रही हैं, चेहरे से बदमाशी और लुटेरापन झलक रहा है। इसका नाम जालिमखां है। दूसरा शख्स जो उसी के सामने वीरासन में बैठा है उसका नाम आफतखां है। दरम्याना कद, लंबी दाढ़ी, चुस्त पायजामा और कुरता पहने, गंडासा सामने और एक छोटी - सी गठरी बाईं तरफ रखे जालिमखां की बात खूब गौर से सुनता और जवाब देताहै। जालिमखां - तुम्हारे मिल जाने से बड़ा सहारा हो गया। आफतखां - इसी तरह मुझको तुम्हारे मिलने से! देखो यह गंडासा, (हाथ में लेकर) इसी से हजारों आदमियों की जानें जाएंगी। मैं सिवाय इसके कोई दूसरा हरबा नहीं रखता। यह जहर से बुझाया हुआ है, जिसे जरा भी इसका जख्म लग जाय फिर उसके बचने की कोई उम्मीद नहीं। जालिम - बहुत हैरान होने पर तुमसे मुलाकात हुई! आफत - मुझे तुमसे जरूर मिलना था, इसलिए इश्तिहार चिपका दिए क्योंकि तुम लोगों का कोई ठिकाना तो था नहीं जहां खोजता, लेकिन मुझे यकीन था कि तुम ऐयारी जरूर जानते होगे, इसीलिए ऐयारी बोली में अपना ठिकाना लिख दिया जिससे किसी दूसरे की समझ में न आवे कि कहां बुलाया है! जालिम - ऐसी ही कुछ थोड़ी - सी ऐयारी सीखी थी, मगर तुम इस फन में ओस्ताद मालूम होते हो, तभी तो बद्रीनाथ को झट गिरफ्तार कर लिया! आफत - ओस्ताद तो मैं कुछ नहीं, मगर हां बद्रीनाथ जैसे छोकड़े के लिए बहुत हूं। जालिम - जो चाहो कहो मगर मैंने तुमको अपना ओस्ताद मान लिया, जरा बद्रीनाथ की सूरत तो दिखा दो। आफत - हां - हां देखो, धाड़ तो उसका गाड़ दिया मगर सिर गठरी में बंधा है, लेकिन हाथ मत लगाना क्योंकि इसको मसाले से तर किया है जिससे कल तक सड़ न जाय। इतना कह आफतखां ने अपनी बगल वाली गठरी खोली जिसमें बद्रीनाथ का सिर बंधा हुआ था। कपड़ा खून से तर हो रहा था। जितने आदमी उसके साथियों में से उस जगह थे बद्रीनाथ की खोपड़ी देख खुशी के मारे उछलने लगे। जालिम - यह शख्स बड़ा शैतान था। आफत - लेकिन मुझसे बच के कहां जाता! जालिम - मगर ओस्ताद, तुम एक बात बड़ी बेढब कहते हो कि कल बारह बजे रात को महल में चलना होगा। आफत - बेढब क्या है देखो कैसा तमाशा होता है! जालिम - मगर ओस्ताद, तुम्हारे इश्तिहार दे देने से उस वक्त वहां बहुत से आदमी इकट्ठे होंगे, कहीं ऐसा न हो कि हम लोग गिरफ्तार हो जाएं? आफत - ऐसा कौन है जो हम लोगों को गिरफ्तार करे? जालिम - तो इसमें क्या फायदा है कि अपनी जान जोखिम में डाली जाय, वक्त टाल के क्यों नहीं चलते? आफत - तुम तो गदहे हो, कुछ खबर भी है कि हमने ऐसा क्यों किया? जालिम - अब यह तो तुम जानो! आफत - सुनो मैं बताता हूं। मेरी नीयत यह है कि जहां तक हो सके जल्दी से उन लोगों को मार - पीट सब मामला खतम कर दूं। उस वक्त वहां जितने आदमी मौजूद होंगे सबों को बस तुम मुर्दा ही समझ लो, बिना हाथ - पैर हिलाए सबों का काम तमाम करूं तो सही। जालिम - भला ओस्ताद, यह कैसे हो सकता है! आफत - (बटुए में से एक गोला निकालकर और दिखाकर) देखो, इस किस्म के बहुत से गोले मैंने बना रखे हैं जो एक - एक तुम लोगों के हाथ में दे दूंगा। बस वहां पहुंचते ही तुम लोग इन गोलों को उन लोगों के हजूम (भीड़) में फेंक देना जो हम लोगों को गिरफ्तार करने के लिए मौजूद होंगे। गिरते ही ये गोले भारी आवाज देकर फूट जायेंगे और इनमें से बहुत - सा धुआं निकलेगा जिसमें वे लोग छिप जायेंगे, आंखो में धुआ लगते ही अंधो हो जायेंगे और नाक के अंदर जहां गया कि उन लोगों की जान गई, ऐसा जहरीला यह धुआ होगा। आफतखां की बात सुनकर सब - के - सब मारे खुशी के उछल पड़े। जालिमखां ने कहा, ''भला ओस्ताद, एक गोला यहां पटक के दिखाओ, हम लोग भी देख लें तो दिल मजबूत हो जायगा।'' ''हां देखो।'' यह कह के आफतखां ने वह गोला जमीन पर पटक दिया, साथ ही एक आवाज देकर गोला फट गया और बहुत - सा जहरीला धुआं फैला जिसको देखते ही आफतखां, जालिमखां और उनके साथी लोग जल्दी से हट गए तिस पर भी उन लोगों की आंखें सूज गईं और सिर घूमने लगा। यह देखकर आफतखां ने अपने बटुए में से मरहम की एक डिबिया निकाली और सबों की आंखों में वह मरहम लगाया तथा हाथ में मलकर सुंघाया जिससे उन लोगों की तबीयत कुछ ठिकाने हुई और वे आफतखां की तारीफ करने लगे। जालिम - वाह ओस्ताद, यह तो तुमने बहुत ही बढ़िया चीज बनाई है! आफत - क्यों अब तो महल में चलने का हौसला हुआ? जालिम - शुक्र है उस पाक परवरदिगार का जिसने तुम्हें मिला दिया! जो काम हम साल भर में करते सो तुम एक रोज में कर सकते हो। वाह ओस्ताद वाह, अब तो हम लोग उछलते - कूदते महल में चलेंगे और सबों को दोजख में पहुंचाएंगे। लाओ एक - एक गोला सबों को दे दो। आफत - अभी क्यों, जब चलने लगेंगे दे देंगे, कल का दिन जो काटना है। जालिम - अच्छा, लेकिन ओस्ताद, तुमने इतने दिन पीछे का इश्तिहार क्यों दिया? आज का ही दिन अगर मुकर्रर किया होता तो मजा हो जाता। आफत - हमने समझा कि बद्रीनाथ जरा चालाक है, शायद जल्दी हाथ न लगे इसलिए ऐसा किया मगर यह तो निरा बोदा निकला! जालिम - अब क्या करना चाहिए? आफत - इस वक्त तो कुछ नहीं, मगर कल बारह बजे रात को महल में चलने के लिए तैयार रहना चाहिए। जालिम - इसके कहने की कोई जरूरत नहीं, अब तो हम और तुम साथ ही हैं। जब जो कहोगे करेंगे। आफत - अच्छा तो आज यहां से टलकर किसी दूसरी जगह आराम करना मुनासिब है। कल देखो खुदा क्या करता है। मैं तो कसम खा चुका हूं कि महल में जाकर बिना सबों का काम तमाम किए एक दाना मुंह में नहीं डालूंगा। जालिम - ओस्ताद, ऐसा नहीं करना चाहिए, तुम कमजोर हो जाओगे। आफत - बस चुप रहो, बिना खाये हमारा कुछ नहीं बिगड़ सकता। इसके बाद वे सब वहां से उठकर एक तरफ को रवाना हो गये।
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