चंद्रकांता
21.
दूसरे दिन महाराज जयसिंह दरबार में बैठे हरदयालसिंह से तेजसिंह का हाल
पूछ रहे थे कि अभी तक पता लगा या नहीं, कि इतने में सामने से तेजसिंह एक
बड़ा भारी गट्ठर पीठ पर लादे हुए आ पहुंचे। गठरी तो दरबार के बीच में रख दी
और झुककर महाराज को सलाम किया। महाराज जयसिंह तेजसिंह को देखकर खुश हुए और
बैठने के लिए इशारा किया। जब तेजसिंह बैठ गये तो महाराज ने पूछा, ‘‘क्यों
जी, इतने दिन कहाँ रहे और क्या लाये हो ? तुम्हारे लिए हम लोगों को बड़ी
भारी परेशानी रही, दीवान जीतसिंह भी बहुत घबराये होंगे क्योंकि हमने वहाँ
भी तलाश करवाया था।’’ तेजसिंह ने अर्ज किया, ‘‘महाराज, ताबेदार दुश्मन के
हाथ में फंस गया था, अब हुजूर के इकबाल से छूट आया है बल्कि आती दफा चुनार
के दो ऐयारों को जो वहाँ से, लेता आया है।’’ महाराज यह सुनकर बहुत खुश हुए
और अपने हाथ का कीमती कड़ा तेजसिंह को ईनाम देकर कहा, ‘‘यहाँ भी दो ऐयारों
को महल में चम्पा ने गिरफ्तार किया जो कैद किये गये हैं। इनको भी वहीं भेज
देना चाहिए !’’ यह कहकर हरदयालसिंह की तरफ देखा। उन्होंने प्यादों को गठरी
खोलने का हुक्म दिया, प्यादों ने गठरी खोली। तेजसिंह ने उन दोनों को
होशियार किया और प्यादों ने उनको ले जाकर उसी जेल में बन्द कर दिया, जिसमें
रामनारायण और पन्नालाल थे।
तेजसिंह ने महाराज से अर्ज किया, ‘‘ मेरे गिरफ्तार होने से नौगढ़ में सब
कोई परेशान होंगे, अगर इजाजत हो तो मैं जाकर सबों से मिल आऊं !’’ महाराज ने
कहा, ‘‘हाँ, जरूर तुमको वहाँ जाना चाहिए, जाओ, मगर जल्दी वापस चले आना।’’
इसके बाद महाराज ने हरदयालसिंह को हुक्म दिया, ‘‘तुम मेरी तरफ से तोहफा
लेकर तेजसिंह के साथ नौगढ़ जाओ !’’ बहुत अच्छा’’ कह के हरदयालसिंह ने तोहफे
का सामान तैयार किया और कुछ आदमी संग ले तेजसिंह के साथ नौगढ़ रवाना हुए।
चपला जब महल में पहुंची, उसको देखते ही चन्द्रकान्ता ने खुश होकर उसे गले
लगा लिया और थो़ड़ी देर बाद हाल पूछने लगी। चपला ने अपना पूरा हाल खुलासा
तौर पर बयान किया। थोड़ी देर तक चपला और चन्द्रकान्ता में चुहल होती रही।
कुमारी ने चम्पा की चालाकी का हाल बयान करके कहा कि, ‘‘तुम्हारी शागिर्दिन
ने भी दो ऐयारों को गिरफ्तार किया है’ यह सुनकर चपला बहुत खुश हुई और चम्पा
को जो उसी जगह मौजूद थी गले लगाकर बहुत शाबाशी दी।
इधर तेजसिंह नौगढ़ गये थे रास्ते में हरदयालसिंह से बोले, ‘‘अगर हम लोग
सवेरे दरबार के समय पहुंचते तो अच्छा होता क्योंकि उस वक्त सब कोई वहां
रहेंगे।’’ इस बात को हरदयालसिंह ने भी पसन्द किया और रास्ते में ठहर गये,
दूसरे दिन दरबार के समय ये दोनों पहुंचे और सीधे कचहरी में चले गये। राजा
साहब के बगल में वीरेन्द्रसिंह भी बैठे थे, तेजसिंह को देखकर इतने खुश हुए
कि मानों दोनों जहान की दौलत मिल गई हो। हरदयालसिंह ने झुककर महाराज और
कुमार को सलाम किया और जीतसिंह से बराबर की मुलाकात की। तेजसिंह ने महाराज
सुरेन्द्रसिंह के कदमों पर सिर रखा, राजा साहब ने प्यार से उसका सिर उठाया।
तब अपने पिता को पालागन करके तेजसिंह कुमार की बगल में जा बैठे।
हरदयालसिंह ने तोहफा पेश किया और एक पोशाक जो कुंवर वीरेन्द्रसिंह के
वास्ते लाये थे, वह उनको पहनाई जिसे देख राजा सुरेन्द्रसिंह बहुत खुश हुए
और कुमार की खुशी का तो कुछ ठिकाना ही न रहा। राजा साहब ने तेजसिंह से
गिरफ्तार होने का हाल पूछा, तेजसिंह ने पूरा हाल अपने गिरफ्तार होने का तथा
कुछ बनावटी हाल अपने छूटने का बयान किया और यह भी कहा, ‘‘आती दफा वहाँ के
दो ऐयारों को भी गिरफ्तार कर लाया हूँ जो विजयगढ़ में कैद हैं। यह सुनकर
राजा ने खुश होकर तेजसिंह को बहुत कुछ इनाम दिया औऱ कहा, ‘‘तुम अभी जाओ,
महल में सबसे मिलकर अपनी मां से भी मिलो। उस बेचारी का तुम्हारी जुदाई में
क्या हाल होगा, वही जानती होगी।’’ बमूजिब मर्जी के तेजसिंह सभी से मिलने के
वास्ते रवाना हुए। हरदयालसिंह की मेहमानी के लिए राजा ने जीतसिंह को हुक्म
देकर दरबार बर्खास्त किया। सभी के मिलने के बाद तेजसिंह कुंवर
वीरेन्द्रसिंह के कमरे में गये। कुमार ने बड़ी खुशी से उठकर तेजसिंह को गले
लगा लिया और जब बैठे तो कहा, ‘‘अपने गिरफ्तार होने का हाल तो तुमने ठीक
बयान कर दिया मगर छूटने का हाल बयान करने में झूठ कहा था, अब सच-सच बताओ,
तुमको किसने छुड़ाया ?’’ तेजसिंह ने चपला की तारीफ की और उसकी मदद से अपने
छूटने का सच्चा-,सच्चा हाल कह दिया। कुमार ने कहा, ‘‘मुबारक हो ! तेजसिंह
बोले, ‘‘पहले आपको मैं मुबारकबाद दे दूंगा तब कहीं यह नौबत पहुंचेगी कि आप
मुझे मुबारकबाद दें।’’ कुमार हंसकर चुप हो रहे। कई दिनों तक तेजसिंह
हंसी-खुशी से नौगढ़ में रहे मगर वीरेन्द्रसिंह का तकाजा रोज होता ही रहा कि
फिर जिस तरह से हो चन्द्रकान्ता से मुलाकात कराओ। यह भी धीरज देते रहे।
कई दिन बाद हरदयालसिंह ने दरबार में महाराज से अर्ज किया, ‘‘कई रोज हो गये
ताबेदार को आये, वहाँ बहुत हर्ज होता होगा, अब रुखसत मिलती तो अच्छा था, और
महाराज ने भी यह फर्माया था कि आती दफा तेजसिंह को साथ लेते आना, अब जैसी
मर्जी हो।’’ राजा सुरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘बहुत अच्छी बात है, तुम उसको
अपने साथ लेते जाओ।’’ यह कह एक खिलअत दीवान हरदयालसिंह को दिया और तेजसिंह
को उनके साथ विदा किया । जाते समय तेजसिंह कुमार से मिलने आये, कुमार ने
रोकर, उनको विदा किया और कहा, ‘‘मुझको ज्यादा कहने की जरूरत नहीं, मेरी
हालत देखते जाओ।’’ तेजसिंह ने बहुत कुछ ढांढस दिया और यहाँ से विदा हो उसी
रोज विजयगढ़ पहुंचे। दूसरे दिन दरबार में दोनों आदमी हाजिर हुए और महाराज
को सलाम करके अपनी-अपनी जगह बैठे। तेजसिंह से महाराज ने राजा सुरेन्द्रसिंह
की कुशल-क्षेम पूछी जिसको उन्होंने बड़ी बुद्धिमानी के साथ बयान किया। इसी
समय बद्रीनाथ भी राजा शिवदत्त की चिट्ठी लिये हुए आ पहुंचे और आशीर्वाद
देकर चिट्ठी महाराज के हाथ में दे दी जिसको पढ़ने के लिए महाराज ने दीवान
हरदयालसिंह को दिया। खत पढ़ते-पढ़ते हरदयालसिंह का चेहरा मारे गुस्से के
लाल हो गया। महाराज और तेजसिंह हरदयालसिंह के मुंह की तरफ देख रहे थे, उसकी
रंगत देखकर समझ गये कि खत में कुछ बेअदबी की बातें लिखी गई हैं। खत पढ़कर
हरदयालसिंह ने अर्ज किया यह खत तखलिए में सुनने लायक है। महाराज ने कहा,
‘‘अच्छा, पहले बद्रीनाथ के टिकने का बन्दोबस्त करो फिर हमारे पास दीवानखाने
में आओ, तेजसिंह को भी साथ ले आना।’’
महाराज ने दरबार बर्खास्त कर दिया और महल में चले गये। दीवान हरदयालसिंह
पंडित बद्रीनाथ के रहने और जरूरी सामानों का इन्तजाम कर तेजसिंह को अपने
साथ ले कोट में महाराज के पास गये और सलाम करके बैठ गये। महाराज ने शिवदत्त
का खत सुनाने का हुक्म दिया। हरदयालसिंह ने खत को महाराज के सामने ले जाकर
अर्ज किया कि अगर सरकार खत पढ़ लेते तो अच्छा था। महाराज ने खत पढ़ा, पढ़ते
ही आंखें मारे गुस्से के सुर्ख हो गईं। खत फाड़कर फेंक दिया और कहा,
‘‘बद्रीनाथ से कह दो कि इस खत का जवाब यही है कि यहाँ से चले जाये।’’ इसके
बाद थोड़ी देर तक महाराज कुछ देखते रहे, तब रंज भरी धीमी आवाज में बोले.
‘‘क्रूर के चुनार जाते ही हमने सोच लिया था कि जहाँ तक बनेगा वह आग लगाने
से न चूकेगा, और आखिर यही हुआ। खैर, मेरे जीते-जी तो उसकी मुराद पूरी न
होगी, साथ ही आप लोगों को भी अब पूरा बन्दोबस्त रखना चाहिए।’’ तेजसिंह ने
हाथ जोड़ अर्ज किया, ‘‘इसमें कोई शक नहीं कि शिवदत्त अब जरूर फौज लेकर चढ़
आवेगा इसलिए हम लोगों को भी मुनासिब है कि अपनी फौज का इन्तजाम और लड़ाई का
सामान पहले से कर रखें। यों तो शिवदत्त की नीयत तभी मालूम हो गई थी जब उसने
ऐयारों को भेजा था, पर अब कोई शक नहीं रहा।’’ महाराज ने कहा, ‘‘मैं इस बात
को खूब जानता हूँ कि शिवदत्त के पास तीस हजार फौज है और हमारे पास सिर्फ दस
हजार, मगर क्या मैं डर जाऊंगा !’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘दस हजार फौज महाराज की
और पांच हजार फौज हमारे सरकार की, पन्द्रह हजार हो गई, ऐसे गीदड़ के मारने
को इतनी फौज काफी है। अब महाराज दीवान साहब को एक खत देकर नौगढ़ भेंजे, मैं
जाकर फौज ले आता हूँ, बल्कि महाराज की राय हो तो कुंवर वीरेन्द्रसिंह को भी
बुला लें और फौज का इन्तजाम उनके हवाले करें, फिर देखिए क्या कैफियत होती
है।’’
दीवान हरदयालसिंह बोले, ‘‘कृपानाथ, इस राय को तो मैं भी पसन्द करता हूँ।’’
महाराज ने कहा, ‘‘सो तो ठीक है मगर वीरेन्द्रसिंह को अभी लड़ाई का काम
सुपुर्द करने को जी नहीं चाहता ? चाहे वह इस फन में होशियार हों मगर क्या
हुआ, जैसा सुरेन्द्रसिंह का लड़का, वैरा मेरा भी, मैं कैसे उसको लड़ने के
लिए कहूँगा और सुरेन्द्रसिंह भी कब इस बात को मंजूर करेंगे ?’’ तेजसिंह ने
जवाब दिया, ‘‘महाराज इस बात की तरफ जरा भी खयाल न करें ! ऐसा नहीं हो सकता
कि महाराज तो लड़ाई पर जायें और वीरेन्द्रसिंह घर बैठे आराम करें ! उनका
दिल कभी न मानेगा। राजा सुरेन्द्रसिंह भी वीर हैं कुछ कायर नहीं,
वीरेन्द्रसिंह को घर में बैठने न देंगे बल्कि खुद भी मैदान में बढ़कर लड़ें
तो ताज्जुब नहीं !’’
महाराज जयसिंह तेजसिंह की बात सुनकर बहुत खुश हुए और दीवान हरदयालसिंह को
हुक्म दिया कि ‘तुम राजा सुरेन्द्रसिंह को शिवदत्त की गुस्ताखी का हाल और
जो कुछ हमने उसका जवाब दिया है वह भी लिखो और पूछो कि आपकी क्या राय है ?
इस बात का जवाब आ ले तो जैसा होगा किया जायेगा, औऱ खत भी तुम्हीं लेकर जाओ
और कल ही लौट आओ क्योंकि अब देर करने का मौका नहीं है। हरदयालसिंह ने
बमूजिब हुक्म के खत लिखा और महाराज ने उस पर मोहर करके उसी वक्त दीवान
हरदयालसिंह को विदा कर दिया। दीवान साहब महाराज से विदा होकर नौगढ की तरफ
रवाना हुए। थोड़ा-सा दिन बाकी था जब वहाँ पहुंचे। सीधे दीवान जीतसिंह के
मकान पर चले गये। दीवान जीतसिंह खबर पाते ही बाहर आये, हरदयालसिंह को लाकर
अपने यहाँ उतारा और हाल-चाल पूछा। हरदयालसिंह ने सब खुलासा हाल कहा।
जीतसिंह गुस्से में आकर बोले, आजकल शिवदत्त के दिमाग में खलल आ गया है, हम
लोगों को उसने साधारण समझ लिया है ? खैर, देखा जायेगा, कुछ हर्ज नहीं, आप
आज शाम को राजा साहब से मिलें।’
शाम के वक्त हरदयालसिंह ने जीतसिंह के साथ राजा सुरेन्द्रसिंह की मुलाकात
को गये। वहाँ कुंवर भी बैठे थे। राजा साहब ने बैठने का इशारा किया और
हाल-चाल पूछा। उन्होंने महाराज जयसिंह का खत दे दिया, महाराज ने खुद उस
चिट्ठी को पढ़ा, गुस्से के मारे कुछ बोल न सके और खत कुंवर वीरेन्द्रसिंह
के हाथ में दे दिया। कुमार ने भी उसको बखूबी पढ़ा, इनकी भी वही हालत हुई,
क्रोध से आंखों के आगे अँधेरा छा गया। कुछ देर तक सोचते रहे इसके बाद हाथ
जोड़कर पिता से अर्ज किया, ‘‘मुझको लड़ाई का बड़ा हौसला है, यही हम लोगों
का धर्म भी है, फिर ऐसा मौका मिले या न मिले, इसलिए अर्ज करता हूँ कि मुझको
हुक्म हो तो अपनी फौज लेकर जाऊं और विजयगढ़ पर चढ़ाई करने से पहले ही
शिवदत्त को कैद कर लाऊं।’’ राजा सुरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘उस तरफ जल्दी करने
की कोई जरूरत नहीं है, तुम अभी विजयगढ़ जाओ, क्षत्रियों को लड़ाई से ज्यादा
प्यारा बाप, बेटा, भाई-भतीजा कोई नहीं होता। इसलिए तुम्हारी मुहब्बत छोड़
कर हुक्म देता हूँ कि अपनी कुल फौज लेकर महाराज जयसिंह को मदद पहुंचाओ और
नाम पैदा करो। फिर जीतसिंह की तरफ देखकर, ‘‘फौज में मुनादी करा दो कि रात
भर में सब लैस हो जायें, सुबह को कुमार के साथ जाना होगा।’’ इसके बाद
हरदयायलसिंह से कहा, ‘‘आज आप रह जायें और कल अपने साथ ही फौज तथा कुमार को
लेकर तब जायें।’’ यह हुक्म दे राजमहल में चले गये। जीतसिंह दीवान
हरदयालसिंह को साथ लेकर घर गये और कुमार अपने कमरे में जाकर लड़ाई का सामान
तैयार करने लगे। चन्द्रकान्ता को देखने और लड़ाई पर चलने की खुशी में रात
किधर गई कुछ मालूम ही न हुआ।
22.
सुबह होते ही कुमार नहा-धोकर जंगी कपड़े पहन हथियारों को बदन पर सजा
बाप-मां से विदा होने के लिए महल में गये। रानी से महाराज ने रात ही सब हाल
कह दिया था। वे इनका फौजी ठाठ देखकर दिल में बहुत खुश हुईं। कुमार ने दंडवत
कर विदा मांगी, रानी ने आंसू भर कर कुमार को गले से लगाया और पीठ पर हाथ
फेरकर कहा, ‘‘बेटा जाओ, वीर पुरुषों में नाम करो, क्षत्रिय का कुल नाम रख
फतह का डंका बजाओ। शूरवीरों का धर्म है कि लड़ाई के वक्त मां-बाप, ऐश, आराम
किसी की मुहब्बत नहीं करते, सो तुम भी जाओ, ईश्वर करे लड़ाई में बैरी
तुम्हारी पीठ न देखे !’’
मां-बाप से विदा होकर कुमार बाहर आये, दीवान हरदयालसिंह को मुस्तैद देखा,
आप भी एक घोड़े पर सवार हो रवाना हुए। पीछे-पीछे फौज भी समुद्र की तरह लहर
मारती चली। जब विजयगढ़ के करीब पहुंचे तो कुमार घोड़े पर से उतर पड़े और
हरदयालसिंह से बोले, ‘‘मेरी राय है कि इसी जंगल में अपनी फौज को उतारूं और
सब इन्तजाम कर लूं तो शहर में चलूं।’’ हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘आपकी राय बहुत
अच्छी है। मैं भी पहले से चलकर आपके के आने की खबर महाराज को देता हूं फिर
लौटकर आपको साथ लेकर चलूंगा।’’ कुमार ने कहा, ‘‘अच्छा जाइए।’’ हरदयालसिंह
विजयगढ़ पहुंचे, कुमार के आने की खबर देने के लिए महाराज के पास गये और
खुलासा हाल बयान करके बोले, ‘‘कुमार सेना सहित यहाँ से कोस भर पर उतरे
हैं।’’ यह सुन महाराज बहुत खुश हुए और बोले, ‘‘फौज के वास्ते वह मुकाम बहुत
अच्छा है, मगर वीरेन्द्रसिंह को यहाँ ले आना चाहिए। तुम यहाँ के सब
दरबारियों को ले जाकर इस्तकबाल करो और कुमार को यहाँ ले आओ !’’
बमूजिब हुक्म के हरदयालसिंह बहुत से सरदारों को लेकर रवाना हुए। यह खबर
तेजसिंह को भी हुई, सुनते ही वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे और दूर ही से
बोले, ‘‘मुबारक हो !’’ तेजसिंह को देखकर कुमार बहुत खुश हुए और हाल-चाल
पूछा, तेजसिंह ने कहा, ‘‘जो कुछ है सब अच्छा है, जो बाकी है अब बन जायेगा
!’’ यह कह तेजसिंह लश्कर के इंतजाम में लगे। इतने में दीवान हरदयालसिंह मय
दरबारियों के आ पहुंचे और महाराज ने जो हुक्म दिया था, कहा। कुमार ने मंजूर
किया और सज-सजाकर घोड़े पर सवार हो एक सौ फौजी सिपाही साथ ले महाराज से
मुलाकात को विजयगढ़ चले। शहर भर में मशहूर हो गया कि महाराज की मदद को
कुंवर वीरेन्द्रसिंह आये हैं, इस वक्त किले में जायेंगे। सवारी देखने के
लिए अपने-अपने मकानों पर औऱत-मर्द पहले ही से बैठ गये औऱ सड़कों पर भी बड़ी
भीड़ इकट्ठी हो गई। सभी की आंखें उत्तर की तरफ सवारों के इंतजार में थीं।
यह खबर महाराज को भी पहुंची कि कुमार चले आ रहे हैं। उन्होंनें महल में
जाकर महारानी से सब हाल कहा जिसको सुनकर वे प्रसन्न हुईं और बहुत सी औरतों
के साथ जिनमें चन्द्रकान्ता और चपला भी थीं, सवारी का तमाशा देखने के लिए
ऊंची अटारी पर जा बैठीं। महाराज भी सवारी का तमाशा देखने के लिए दीवानखाने
की छत पर जा बैठे। थोड़ी ही देर बाद उत्तर की तरफ से कुछ धूल उड़त दिखाई दी
और नजदीक आने पर देखा कि थोड़ी-सी फौज (सवारों की) चली आ रही है। कुछ अरसा
गुजरा तो साफ दिखाई देने लगा।
कुछ सवार, जो धीरे-धीरे महल की तरफ आ रहे थे, फौलादी जेर्रा पहने हुए थे
जिस पर डूबते हुए सूर्य की किरणें पड़ने से अजब चमक-दमक मालूम होती थी। हाथ
में झंडेदार नेजा लिए, ढाल-तलवार लगाये जवानी की उमंग में अकड़े हुए बहुत
ही भले मालूम पड़ते थे। उनके आगे-आगे एक खूबसूरत, ताकतवर और जेवरों से सजे
हुए घोड़ा, जिस पर जड़ाऊ जीन कसी हुई थी और अठखेलियां कर रहा था, पर कुंवर
वीरेन्द्रसिंह सवार थे। सिर पर फौलादी टोप जिसमें एक हुमा के पर की लम्बी
कलंगी लगी थी, बदन में बेशकीमती लिबास के ऊपर फौलादी जेर्रा पहने हुए थे।
गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आंखें, गालों पर सुर्खी छा रही थी। बड़े-बड़े पन्ने के
दानों का कण्ठा और भुजबन्द भी पन्ने का था जिसकी चमक चेहरे पर पड़कर
खूबसूरती को दूना कर रही थी। कमर में जड़ाऊ पेटी जिसमें बेशकीमती हीरा जड़ा
हुआ था, और पिंडली तक का जूता जिस पर कौदैये मोती का काम था, चमड़ा नजर
नहीं आता था, पहने हुए थे। ढाल, तलवार, खंजर, तीर-कमान लगाये एक गुर्ज
करबूस में लटकता हुआ, हाथ में नेजा लिए घोड़ा कुदाते चले आ रहे थे। ताकत,
जवांमर्दी, दिलेरी, और रोआब उनके चेहरे से ही झलकता था, दोस्तों के दिलों
में मुहब्बत और दुश्मनों के दिलों में खौफ पैदा होता था। सबसे ज्यादा लुत्फ
तो यह था कि जो सौ सवार संग में चले आ रहे थे वे सब भी उन्हीं के हमसिन थे।
शहर में भीड़ लग गई, जिसकी निगाह कुमार पर पड़ती थी आंखों में चकाचौंध-सी आ
जाती थी। महारानी ने, जो वीरेन्द्रसिंह को बहुत दिनों पर इस ठाठ और रोआब से
आते देखा, सौगुनी मुहब्बत आगे से ज्यादा बढ़ गई। मुंह से निकल पड़ा, ‘‘अगर
चन्द्रकान्ता के लायक वर है तो सिर्फ वीरेन्द्र ! चाहे जो हो, मैं तो इसी
को दामाद बनाऊंगी।’’ चन्द्रकान्ता और चपला भी दूसरी खिड़की से देख रही थीं।
चपला ने टेढ़ी निगाहों से कुमारी की तरफ देखा। वह शर्मा गई, दिल हाथ से
जाता रहा, कुमार की तस्वीर आंखों में समा गई, उम्मीद हुई कि अब पास से
देखूँगी। उधर महाराज की टकटकी बंध गई।
इतने में कुमार किले के नीचे आ पहुंचे। महाराज से न रहा गया, खुद उतर आये
और जब तक वे किले के अन्दर आवें महाराज भी वहां पहुंच गये। वीरेन्द्रसिंह
ने महाराज को देखकर पैर छुए, उन्होंने उठाकर छाती से लगा लिया और हाथ पकड़े
सीधे महल में ले गये। महारानी उन दोनों को आते देख आगे तक बढ़ आईं। कुमार
ने चरण छुए, महारानी की आंखों में प्रेम का जल भर आया, बड़ी खुशी से कुमार
को बैठने के लिए कहा, महाराज भी बैठ गये। बायें तरफ महारानी और दाहिनी तरफ
कुमार थे, चारों तरफ लौंडियों की भीड़ थी जो अच्छे-अच्छे गहने और कपड़े
पहने खड़ी थीं। कुमार की नीची निगाहें चारों तरफ घूमने लगी मानो किसी को
ढूंढ़ रही हों। चन्द्रकान्ता भी किवाड़ की आड़ में खड़ी उनको देख रही थी,
मिलने के लिए तबीयत घबड़ा रही थी मगर क्या करे, लाचार थी। थोड़ी देर तक
महाराज और कुमार महल में रहे, इसके बाद उठे और कुमार को साथ लिये हुए
दीवानखाने में पहुंचे। अपने खास आरामगाह के पास वाला एक सुन्दर कमरा उनके
लिए मुकर्रर कर दिया। महाराज से विदा होकर कुमार अपने कमरे में गये।
तेजसिंह भी पहुंचे, कुछ देर चुहल में गुजरी, चन्द्रकान्ता को महल में न
देखने से इनकी तबीयत उदास थी, सोचते थे कि कैसे मुलाकात हो। इसी सोच में
आंख लग गई।
सुबह जब महाराज दरबार में गये, वीरेन्द्रसिंह स्नान-पूजा से छुट्टी पा
दरबारी पोशाक पहने, कलंगी सरपेंच समेत सिर पर रख, तेजसिंह को साथ ले दरबार
में गये। महाराज ने अपने सिंहासन के बगल में एक जड़ाऊ कुर्सी पर कुमार को
बैठाया। हरदयालसिंह ने महाराज की चिट्ठी का जवाब पेश किया जो राजा
सुरेन्द्रसिंह ने लिखा था। उसको पढ़कर महाराज बहुत खुश हुए। थोड़ी देर बाद
दीवान साहब को हुक्म दिया कि कुमार की फौज में हमारी तरफ से बाजार लगाया
जाये और गल्ले वगैरह का पूरा इन्तजाम किया जाये, किसी को किसी तरह की तकलीफ
न हो। कुमार ने अर्ज किया, ‘‘महाराज, सामान सब साथ आया है।’’ महाराज ने
कहा, ‘‘क्या तुमने इस राज्य को दूसरे का समझा है ! सामान आया है तो क्या
हुआ, वह भी जब जरूरत होगी काम आवेगा। अब हम कुल फौज का इन्तजाम तुम्हारे
सुपुर्द करते हैं, जैसा मुनासिब समझो बन्दोबस्त और इन्तजाम करो।’’ कुमार ने
तेजसिंह की तरफ देखकर कहा, ‘‘तुम जाओ। मेरी फौज के तीन हिस्से करके दो-दो
हजार विजयगढ़ के दोनों तरफ भेजो और हजार फौज के दस टुकड़े करके इधर-उधर
पांच-पांच कोस तक फैला दो और खेमे वगैरह का पूरा बन्दोबस्त कर दो। जासूसों
को चारों तरफ रवाना करो। बाकी महाराज की फौज की कल कवायद देखकर जैसा होगा
इन्तजाम करेंगे।’’ हुक्म पाते ही तेजसिंह रवाना हुए। इस इन्तजाम और हमदर्दी
को देखकर महाराज को और भी तसल्ली हुई। हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि फौज में
मुनादी करा दो कि कल कवायद होगी। इतने में महाराज के जासूसों ने आकर अदब से
सलाम कर खबर दी कि शिवदत्तसिंह अपनी तीस हजार फौज लेकर सरकार से मुकाबला
करने के लिए रवाना हो चुका है, दो-तीन दिन तक नजदीक आ जायेगा। कुमार ने
कहा, ‘‘कोई हर्ज नहीं, समझ लेंगे, तुम फिर अपने काम पर जाओ।’’
दूसरे दिन महाराज जयसिंह और कुमार एक हाथी पर बैठकर फौज की कवायद देखने
गये। हरदयालसिंह ने मुसलमानों को बहुत कम कर दिया था-तो भी एक हजार मुसलमान
रह गये थे। कवायद देख कुमार बहुत खुश हुए मगर मुसलमानों की सूरत देख त्योरी
चढ़ गई। कुमार की सूरत से महाराज समझ गये और धीरे से पूछा, ‘‘इन लोगों को
जवाब दे देना चाहिए ?’’ कुमार ने कहा, ‘‘नहीं, निकाल देने से ये लोग दुश्मन
के साथ हो जायेंगे ! मेरी समझ में बेहतर होगा कि दुश्मन को रोकने के लिए
पहले इन्हीं लोगों को भेजा जाये। इनके पीछे तोपखाना और थोड़ी फौज हमारी
रहेगी, वे लोग इन लोगों की नीयत खराब देखने या भागने का इरादा मालूम होने
पर पीछे से तोप मार-कर इन सभी की सफाई कर डालेंगे। ऐसा खौफ रहने से ये लोग
एक दफा तो खूब लड़ जायेंगे, मुफ्त मारे जाने से लड़कर मरना बेहतर
समझेंगे।’’ इस राय को महाराज ने बहुत पसन्द किया और दिल में कुमार की अक्ल
की तारीफ करने लगे।
जब महाराज फिरे तो कुमार ने अर्ज किया, ‘‘मेरा जी शिकार खेलने को चाहता है,
अगर इजाजत हो तो जाऊं ? महाराज ने कहा, ‘‘अच्छा, दूर मत जाना और दिन रहते
जल्दी लौट आना।’’ यह कहकर हाथी बैठवाया। कुमार उतर पड़े और घोड़े पर सवार
हुए। महाराज का इशारा पा दीवान हरदयालसिंह ने सौ सवार साथ कर दिये। कुमार
शिकार के लिए रवाना हुए। थोड़ी देर बाद एक घने जंगल में पहुंचकर दो सांभर
तीर से मार फिर और शिकार ढूंढ़ने लगे। इतने में तेजसिंह भी पहुंचे कुमार से
पूछा, ‘‘क्या सब इन्तजाम हो चुका जो तुम यहाँ चले आये ?’’ तेजसिंह ने कहा,
‘‘क्या आज ही हो जायेगा ? कुछ आज हुआ कुछ कल दुरुस्त हो जायेगा। इस वक्त
मेरे जी में आया कि चलें जरा उस तहखाने की सैर कर आवें जिसमें अहमद को कैद
किया है, इसलिए आपसे पूछने आया हूं कि अगर इरादा हो तो आप भी चलिए।’’
‘‘हाँ, मैं भी चलूंगा।’’ कहकर कुमार ने उस तरफ घोड़ा फेरा। तेजसिंह भी
घोड़े के साथ रवाना हुए। बाकी सभी को हुक्म दिया कि वापस जाएं और दोनों
सांभरों का जो शिकार किये हैं, उठवा ले जायें। थोड़ी देर में कुमार और
तेजसिंह तहखाने के पास पहुंचे और अन्दर घुसे। जब अंधेरा निकल गया और रोशनी
आई तो सामने एक दरवाजा दिखाई देने लगा। कुमार घोड़े से उतर पड़े। अब
तेजसिंह ने कुमार से पूछा, ‘‘भला यह कहिए कि आप यह दरवाजा खोल भी सकते हैं
कि नहीं ?’’ कुमार ने कहा, ‘‘क्यों नहीं, इसमें क्या कारीगरी है ?’’ यह कह
झट आगे बढ़ शेर के मुंह से जुबान बाहर निकाल ली, दरवाजा खुल गया। तेजसिंह
ने कहा, ‘‘याद तो है !’’ कुमार ने कहा, ‘‘क्या मैं भूलने वाला हूं।’’ दोनों
अन्दर गये और सैर करते-करते चश्में के किनारे पहुंचे। देखा कि अहमद और
भगवानदास एक चट्टान पर बैठे बातें कर रहे हैं, पैर में बेड़ी पड़ी है।
कुमार को देख दोनों उठ खड़े हुए, झुककर सलाम किया और बोले, ‘‘अब तो हम
लोगों का कसूर माफ होना चाहिए।’’ कुमार ने कहा, ‘‘हाँ थोड़े रोज और सब्र
करो।’’
कुछ देर तक वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह टहलते और मेवों को तोड़कर खाते रहे।
इसके बाद तेजसिंह ने कहा, ‘‘अब चलना चाहिए। देर हो गई।’’ कुमार ने कहा,
‘‘चलो।’’ दोनों बाहर आये तेजसिंह ने कहा, ‘‘इस दरवाजे को आपने खोला है, आप
ही बन्द कीजिए।’’ कुमार ने यह कह कि ‘‘अच्छा लो, हम ही बन्द कर देते हैं’’,
दरवाजा बन्द कर दिया और घोड़े पर सवार हुए। जब विजयगढ़ के करीब पहुंचे तो
तेजसिंह ने कहा, ‘‘अब आप जाइए, मैं जरा फौज की खबर लेता हुआ आता हूँ।’’
कुमार ने कहा, ‘‘अच्छा जाओ।’’ यह सुन तेजसिंह दूसरी तरफ चले गये और कुमार
किले में चले आये, घोड़े से उतर कमरे में गये, आराम किया। थोड़ी रात बीते
तेजसिंह कुमार के पास आये। कुमार ने पूछा, ‘‘कहो, क्या हाल हैं ?’’तेजसिंह
ने कहा, ‘‘सब इन्तजाम आपके हुक्म मुताबिक हो गया, आज दिनभर में एक घण्टे की
छुट्टी न मिली जो आपसे मुलाकात करता।’’ यह सुन वीरेन्द्रसिंह हंस पड़े और
बोले, ‘‘दोपहर तक तो हमारे साथ रहे तिस पर कहते हो कि मुलाकात न हुई !’’ यह
सुनते ही तेजसिंह चौंक पड़े और बोले, ‘‘आप क्या कहते हैं।’’ कुमार ने कहा,
‘‘कहते क्या हैं, तुम मेरे साथ उस तहखाने में नहीं गये थे जहाँ अहमद और
भगवानदत्त बन्द हैं ?’’
अब तो तेजसिंह के चेहरे का रंग उड़ गया और कुमार का मुंह देखने लगे।
तेजसिंह की यह हालत देखकर कुमार को भी ताज्जुब हुआ। तेजसिंह ने कहा, ‘‘भला
यह तो बताइए कि मैं आपसे कहाँ मिला था, कहाँ तक साथ गया और कब वापस आया ?’’
कुमार ने सब कुछ कह दिया। तेजसिंह बोले. ‘‘बस, आपने चौका फेरा। अहमद और
भगवानदत्त के निकल जाने का तो इतना गम नहीं है मगर दरवाजे का हाल दूसरे को
मालूम हो गया इसका बड़ा अफसोस है।’’ कुमार ने कहा, ‘‘तुम क्या कहते हो समझ
में नहीं आता।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘ऐसा ही समझते तो धोखा ही क्यों खाते। तब
न समझे तो अब समझिए, कि शिवदत्त के ऐयारों ने धोखा दिया और तहखाने का
रास्ता देख लिया। जरूर यह काम बद्रीनाथ का है, दूसरे का नहीं, ज्योतिषी
उसको रमल के जरिए से पता देता है।’’
कुमार यह सुन दंग हो गये और अपनी गलती पर अफसोस करने लगे। तेजसिंह ने कहा,
‘‘अब तो जो होना था हो गया, उसका अफसोस कहे का। मैं इस वक्त जाता हूँ, कैदी
तो निकल गये होंगे मगर मैं जाकर ताले का बन्दोबस्त करूंगा।’’ कुमार ने
पूछा, ‘‘ताले का बन्दोबस्त क्या करोगे ?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘उस फाटक में
और भी दो ताले हैं जो इससे ज्यादा मजबूत हैं। उन्हें लगाने और बन्द करने
में बड़ी देर लगती है इसलिए उन्हें नहीं लगाता था मगर अब लगाऊंगा।’’ कुमार
ने कहा, ‘‘मुझे भी वह ताला दिखाओ।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘अभी नहीं, जब तक
चुनार पर फतह न पावेंगे न बतावेंगे नहीं तो फिर धोखा होगा।’’ कुमार ने कहा,
‘‘अच्छा मर्जी तुम्हारी।’’
तेजसिंह उसी वक्त तहखाने की तरफ रवाना हुए और सवेरा होने के पहिले ही लौट
आये। सुबह को जब कुमार सोकर उठे तो तेजसिंह से पूछा, ‘‘कहो तहखाने का क्या
हाल है ?’’ उन्होंने जवाब दिया, ‘‘कैदी तो निकल गये मगर ताले का बन्दोबस्त
कर आया हूँ।’’
नहा-धोकर कुछ खाकर कुमार को तेजसिंह दरबार ले गये। महाराज को सलाम करके
दोनों आदमी अपनी-अपनी जगह बैठ गये। आज जासूसों ने खबर दी कि शिवदत्त की फौज
और पास आ गई है, अब दस कोस पर है। कुमार ने महाराज से अर्ज किया, ‘‘अब मौका
आ गया है कि मुसलमानों की फौज दुश्मनों को रोकने के लिए आगे भेजी जाये।’’
महाराज ने कहा, ‘‘अच्छा भेज दो।’’ कुमार ने तेजसिंह से कहा, ‘‘अपना एक
तोपखाना भी इस मुसलमानी फौज के पीछे रवाना करो।’’ फिर कान में कहा, ‘‘अपने
तोपखाने वालों को समझा देना कि जब फौज की नीयत खराब देखें तो जिन्दा किसी
को न जाने दें।
तेजसिंह इन्तजाम करने के लिए चले गये, हरदयालसिंह को भी साथ लेते गये।
महाराज ने दरबार बर्खास्त किया और कुमार को साथ ले महल में पधारे। दोनों ने
साथ ही भोजन किया, इसके बाद कुमार अपने कमरे में चले गये। छटपटाते रह गये
मगर आज भी चन्द्रकान्ता की सूरत न दिखी, लेकिन चन्द्रकान्ता ने आड़ से इनको
देख लिया।
23.
शाम को महाराज से मिलने के लिए वीरेन्द्रसिंह गये। महाराज उन्हें अपनी
बगल में बैठा कर बातचीत करने लगे। इतने में हरदयालसिंह और तेजसिंह भी आ
पहुंचे। महाराज ने हाल पूछा। उन्होंने अर्ज किया कि फौज मुकाबले में भेज दी
गई है। लड़ाई के बारे में राय और तरकीबें होने लगीं। सब सोचते-विचारते आधी
रात गुजर गई, एकाएक कई चोबदार ने आकर अर्ज किया, ‘‘महाराज, चोर-महल में से
कुछ आदमी निकल भागे जिनको दुश्मन समझ पहरे वालों ने तीर छोड़े, मगर वे
जख्मी होकर भी निकल गये।’’
यह खबर सुन महाराज सोच में पड़ गये। कुमार और तेजसिंह भी हैरान थे। इतने
में ही महल से रोने की आवाज आने लगी। सभी का खयाल उस रोने पर चला गया। पल
में रोने और चिल्लाने की आवाज बढ़ने लगी, यहाँ तक कि तमाम महल में हाहाकार
मच गया। महाराज और कुमार वगैरह सभी के मुंह पर उदासी छा गई। उसी समय
लौंडियां दौड़ती हुई आईं और रोते-रोते बड़ी मुश्किल से बोलीं,
‘‘चन्द्रकान्ता और चपला का सिर काटकर कोई ले गया।’’ यह खबर तीर के समान सभी
को छेद गई। महाराज तो एकाएक हाय कह के गिर ही पड़े, कुमार की भी अजब हालत
हो गई, चेहरे पर मुर्दनी छा गई। हरदयालसिंह की आंखों से आंसू जारी हो गये,
तेजसिंह काठ की मूरत बन गये। महाराज ने अपने को संभाला और कुमार की अजब
हालत देख गले लगा लिया, इसके बाद रोते हुए कुमार का हाथ पकड़े महल में
दौड़े चले गये। देखा कि हाहाकार मचा हुआ है, महारानी चन्द्रकान्ता की लाश
पर पछाड़ें खा रही हैं, सिर फट गया, खून जारी है। महाराज भी जाकर उसी लाश
पर गिर पड़े। कुमार में तो इतनी भी ताकत न रही कि अन्दर जाते। दरवाजे पर ही
गिर पड़े, दांत बैठ गया चेहरा जर्द और मुर्दे की-सी सूरत हो गई।
चन्द्रकान्ता और चपला की लाशें पड़ी थीं, सिर नहीं थे, कमरे में चारों तरफ
खून-ही-खून दिखाई देता था। सभी की अजब हालत थी, महारानी रो-रोकर कहती थीं,
‘‘हाय बेटी ! तू कहाँ गई ! उसका कैसा कलेजा था जिसने तेरे गले पर छुरी चलाई
! हाय हाय, अब मैं जी-कर क्या करूंगी ! तेरे ही वास्ते इतना बखेड़ा हुआ और
तू ही न रही तो अब यह राज्य क्या हो ?’’ महाराज कहते थे- ‘‘अब क्रूर की
छाती ठण्डी हुई, शिवदत्त को मुराद मिल गई। कह दो, अब आवे विजयगढ़ का राज्य
करे, हम तो लड़की का साथ देंगे।’’
एकाएक महाराज की निगाह दरवाजे पर गई। देखा वीरेन्द्रसिंह पड़े हुए हैं, सिर
से खून जारी है। दौड़े और कुमार के पास आये, देखा तो बदन में दम नहीं, नब्ज
का पता नहीं, नाक पर हाथ रक्खा तो सांस ठण्डी चल रही है। अब तो और भी जोर
से महाराज चिल्ला उठे, बोले, ‘‘गजब हो गया ! हमारे चलते नौगढ़ का राज्य भी
गारत हुआ। हम तो समझे थे कि वीरेन्द्रसिंह को राज्य दे जंगल में चले
जायेंगे, मगर हाय ! विधाता को यह भी अच्छा न लगा ! अरे कोई जाओ, जल्दी
तेजसिंह को लिवा लाओ, कुमार को देखें ! हाय हाय ! अब तो इसी मकान में मुझको
भी मरना पड़ा। मैं समझता हूँ राजा सुरेन्द्रसिंह की जान भी इसी मकान में
जायेगी ! हाय, अभी क्या सोच रहे थे, क्या हो गया ! विधाता तूने क्या किया
?’’
इतने में तेजसिंह आये। देखा कि वीरेन्द्रसिंह पड़े हैं और महाराज उनके ऊपर
हाथ रखें रो रहे हैं। तेजसिंह की जो कुछ जान बची थी वह भी निकल गई।
वीरेन्द्रसिंह की लाश के पास बैठ गये और जोर से बोले, ‘‘कुमार, मेरा जी तो
रोने को भी नहीं चाहता क्योंकि मुझको अब इस दुनिया में नहीं रहना है, मैं
तो खुशी-खुशी तुम्हारा साथ दूंगा !’’ यह कह कर कमर से खंजर निकाला और पेट
में मारना ही चाहते थे कि दीवार फांदकर एक आदमी ने आकर हाथ पकड़ लिया।
तेजसिंह ने उस आदमी को देखा जो सिर से पैर तक सिन्दूर से रंगा हुआ था उसने
कहा-
‘‘काहे को देते हो जान, मेरी बात सुनो दे कान।
यह सब खेल ठगी को मान, लाश देखकर लो पहचान।
उठो देखो भालो, खोजो खोज निकालो।।’’
यह कह वह दांत दिखलाता उछलता-कूदता भाग गया।
॥ पहला
अध्याय
समाप्त॥
भाग -8
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