साधुजी खुशी से चले गये। उनकी विहार-व्यथा ने रतन को कैसा सताया, यह उससे
नहीं पूछा गया, सम्भवत: वह ऐसी कुछ सांघातिक न होगी। और एक व्यक्ति को
मैंने रोते-रोते कमरे में घुसते देखा; अब तीसरा व्यक्ति रह गया मैं। उस
आदमी के साथ पूरे चौबीस घण्टे की भी मेरी घनिष्ठता न थी, फिर भी मुझे ऐसा
मालूम होने लगा मानो हमारी इस अनारब्ध गृहस्थी में वह एक बड़ा-सा छिद्र कर
गया है। और जाते वक्त यह भी न बता गया कि आखिर यह अनिष्ट अपने आप ही ठीक हो
जायेगा या स्वयं वही, फिर एक दिन इसी तरह अकस्मात् अपनी दवाओं की भारी पेटी
लादे, इसे मरम्मत करने सशरीर आ पहुँचेगा। और मुझे स्वयं कोई भारी उद्वेग हो
रहा हो, सो नहीं। नाना कारणों से, और खासकर कुछ दिनों से ज्वर में पड़े-पड़े
मेरे शरीर और मन में ऐसा ही एक निस्तेज निरालम्ब भाव आ गया था कि एकमात्र
राजलक्ष्मी के हाथ में ही सर्वतोभाव से आत्म-समर्पण करके दुनियादारी की सभी
भलाई-बुराइयों से मैंने छुट्टी पा ली थी। लिहाजा, किसी बात के लिए
स्वतन्त्र रूप से चिन्ता करने की न मुझे जरूरत थी और न शक्ति ही। फिर भी,
मनुष्य के मन की चंचलता को मानो विराम है। ही नहीं- बाहर के कमरे में तकिए
के सहारे मैं अकेला बैठा था कि न जाने कितनी इखरी-बिखरी चिन्ताएँ मेरे
चक्कर लगाने लगीं-सामने के ऑंगन में प्रकाश की दीप्ति धीरे-धीरे म्लान होकर
आसन्न रात्रि के इशारे से मेरे अन्यमनस्क मन को बार-बार चौंका देने लगीं-
मालूम होने लगा, इस जीवन में जितनी भी रातें आईं और गयीं हैं, उनके सहित आज
की इस अनागत निशा की अपरिज्ञात मूर्ति मानो किसी अदृष्टपूर्ण नारी के
अवगुण्ठित मुख की तरह ही रहस्यमय है। फिर भी, इस अपरिचिता की कैसी प्रकृति
है और कैसी प्रथा, इस बात को बिना जाने ही इसके अन्त तक पहुँचना ही होगा,
मध्य-पथ में इस विषय में कुछ विचार ही नहीं चल सकता। फिर, दूसरे ही क्षण
मानो अक्षम चिन्ता की सारी साँकलें टूटकर सब कुछ उलट-पुलट जाने लगा। जब कि
मेरे मन की ऐसी हालत थी, तब पास का दरवाजा खोलकर राजलक्ष्मी ने कमरे में
प्रवेश किया। उसकी ऑंखें कुछ-कुछ सुर्ख हो रही थीं और कुछ फूली-सी। धीरे-से
मेरे पास बैठकर बोली, ''सो गयी थी।''
मैंने कहा, ''इसमें आश्चर्य क्या है! जिस भार और जिस श्रान्ति को तुम
ढोती चली जा रही हो, दूसरा कोई होता तो उससे टूट ही पड़ता- और मैं होता तो
दिन-रात में मुझसे कभी ऑंखें भी न खोली जातीं-कुम्भकर्ण की नींद सो जाता।''
राजलक्ष्मी ने मुसकराते हुए कहा, ''लेकिन, कुम्भकर्ण को तो मलेरिया
नहीं था। खैर, तुम तो दिन में नहीं सोए?''
मैंने कहा, ''नहीं, पर अब नींद आ रही है, जरा सो जाऊँ। कारण कुम्भकर्ण
को मलेरिया नहीं था, इस बात का वाल्मीकि ने भी कहीं उल्लेख नहीं किया है।''
उसने घबराकर कहा, सोओगे इतने सिदौ से। माफ करो तुम-फिर क्या बुखार आने
में कोई कसर रह जायेगी? यह सब नहीं होने का- अच्छा, जाते वक्त आनन्द क्या
तुमसे कुछ कह गया है?''
मैंने पूछा, ''तुम किस बात की आशा करती हो?''
राजलक्ष्मी ने कहा, ''यही कि कहाँ-कहाँ जायेगा-अथवा...''
यह 'अथवा' ही असली प्रश्न है। मैंने कहा, ''कहाँ-कहाँ जाँयगे, इसका तो
एक तरह से आभास दे गये हैं, मगर इस 'अथवा' के बारे में कुछ भी नहीं कह गये।
मैं तो उनके वापस आने की कोई खास सम्भावना नहीं देखता।''
राजलक्ष्मी चुप बनी रही, परन्तु मैं अपने कुतूहल को न रोक सका, पूछा,
''अच्छा, इस आदमी को क्या तुमने सचमुच पहिचान लिया है जैसे कि मुझे एक दिन
पहिचान लिया था?''
उसने मेरे चेहरे की तरफ कुछ देर तक चुपचाप देखकर कहा, ''नहीं।''
मैंने कहा, ''सच बताओ, क्या पहले कभी किसी दिन देखा ही नहीं?'' अब की
बार राजलक्ष्मी ने मुसकराते हुए कहा, ''तुम्हारे सामने में सौगन्ध तो खा
नहीं सकती। कभी-कभी मुझसे बड़ी गलती हो जाती है। तब अपरिचित आदमी को देखकर
भी मालूम होता है कि कहीं देखा है, उसका चेहरा पहिचाना हुआ-सा मालूम होता
है, सिर्फ इतना ही याद नहीं पड़ता कि कहाँ देखा है। आनन्द को भी शायद कभी
कहीं देखा हो।''
कुछ देर तक चुपचाप बैठी रहने के बाद धीरे से बोली, ''आज आनन्द चला तो
गया, पर अगर वह कभी वापस आया तो उसे अपने माँ-बाप के पास जरूर वापस
भेजूँगी, यह बात तुमसे निश्चय से कहती हूँ।''
मैंने कहा, ''इससे तुम्हारी गरज?''
उसने कहा, ''ऐसा लड़का हमेशा बहता फिरेगा, इस बात को सोचते हुए भी मानो
मेरी छाती फटने लगती है। अच्छा, तुमने खुद भी तो घर-गृहस्थी छोड़ी
थी-सन्यासी होने में क्या सचमुच का कोई आनन्द है?''
मैंने कहा, ''मैं सचमुच का सन्यासी हुआ ही नहीं, इसलिए उसके भीतर की
सच्ची खबर तुम्हें नहीं दे सकता। अगर किसी दिन वह लौट आवे, तो उसी से
पूछना।''
राजलक्ष्मी ने पूछा, ''घर रहकर क्या धर्म-लाभ नहीं होता? घर बिना छोड़े
क्या भगवान नहीं मिलते?''
प्रश्न सुनकर मैंने हाथ जोड़ के कहा, ''दोनों में से किसी के लिए भी
व्याकुल नहीं हूँ लक्ष्मी, ऐसे घोरतर प्रश्न तुम मुझसे मत किया करो, इससे
मुझे फिर बुखार आ सकता है।''
राजलक्ष्मी हँस दी, फिर करुण कण्ठ से बोली, ''मालूम होता है आनन्द के
घर सब कुछ मौजूद है, फिर भी उसने धर्म के लिए इसी उमर में सब छोड़ दिया है।
मगर तुम तो ऐसा नहीं कर सके?''
मैंने कहा, ''नहीं, और भविष्य में भी शायद न कर सकूँगा।''
राजलक्ष्मी ने कहा, ''क्यों भला?''
मैंने कहा, इसका प्रधान कारण यह है कि जिसे छोड़ना चाहिए वह घर-गृहस्थी
मेरे कहाँ है, और कैसी सो मैं नहीं जानता, और जिसके लिए छोड़ी जाय उस
परमात्मा के लिए भी मुझे रंचमात्र लोभ नहीं। इतने दिन उसके बिना ही कट गये
हैं, और बाकी दिन भी अटके न रहेंगे, मुझे इस बात का पूरा भरोसा है! दूसरी
तरफ, तुम्हारे ये आनन्द भाई साहब गेरुआ वसन धारण करने पर भी ईश्वर-प्राप्ति
के लिए ही निकल पड़े हों; ऐसा मैं नहीं समझता। कारण यह कि मैंने भी कई बार
साधुओं का संग किया है, पर उनमें से किसी ने भी आज तक दवाओं की पेटी लादे
घूमने को भगवत्-प्राप्ति का उपाय नहीं बताया है। इसके सिवा उनके खाने-पीने
का हाल तो तुमने ऑंखों से देखा ही है।''
राजलक्ष्मी क्षण-भर चुप रहकर बोली, ''तो क्या वह झूठमूठ को ही
घर-गृहस्थी छोड़कर इतना कष्ट उठाने के लिए निकला है? सभी को क्या तुम अपने
ही समान समझते हो?''
मैंने कहा, ''नहीं तो, बड़ा भारी अन्तर है। वे भगवान की खोज में न
निकलने पर भी, जिसके लिए निकले हैं वह उनके आसपास ही मालूम होता है,
अर्थात् अपना देश। इसलिए उनका घर-द्वार छोड़ आना ठीक घर-गृहस्थी छोड़ना नहीं
है। साधुजी ने तो सिर्फ एक छोटी गृहस्थी छोड़कर बड़ी गृहस्थी में प्रवेश किया
है।''
राजलक्ष्मी मेरे मुँह की ओर देखती रही, शायद ठीक से समझ न सकी। उसने
फिर पूछा, ''जाते वक्त वह क्या तुमसे कुछ कह गया है?''
मैंने गरदन हिलाकर कहा, ''नहीं तो, ऐसी कोई बात नहीं कहीं।''
क्यों मैंने जरा-सा सत्य छिपाया, सो मैं खुद भी नहीं जानता। चलते समय
साधु ने जो बात कही थी, वह अब तक मेरे कानों में ज्यों की त्यों गूँज रही
थी। जाते समय वे कह गये थे, 'विचित्र देश है यह बंगाल! यहाँ राह-चलते
माँ-बहिनें मिल जाती हैं- किसमें सामर्थ्य है जो इनसे बचकर निकल जाय!''
म्लान मुख से राजलक्ष्मी चुपचाप बैठी रही, मेरे मन में भी बहुत दिनों
की बहुत-सी भूली हुईं घटनाएँ धीरे-धीरे झाँककर देखने लगीं। मैंने मन-ही-मन
कहा, ''ठीक है! ठीक है! साधुजी, तुम कोई भी क्यों न हो, इतनी कम उमर में ही
तुमने अपने इस कंगाल देश को अच्छी तरह देख लिया है। नहीं तो, आज तुम इसके
यथार्थ रूप की खबर इतनी आसानी से इतने कम शब्दों से नहीं दे सकते। जानता
हूँ, बहुत दिनों की त्रुटियों और अनेक विच्युतियों ने हमारी मातृभूमि के
सर्वांग में कीचड़ लेप दिया है, फिर जिसे इस सत्य की परीक्षा करने का अवसर
मिला है, वह जानता है कि यह कितना बड़ा सत्य है।''
इसी तरह चुपचाप दस-पन्द्रह मिनट बीत जाने पर राजलक्ष्मी ने मुँह उठाकर
कहा, ''अगर यही उद्देश्य उसके मन में हो, तो मैं कहे देती हूँ कि किसी न
किसी दिन उसे घर लौटना ही होगा। इस देश में एकमात्र पराया भला करने वालों
की दुर्गति से शायद वह परिचित नहीं है। इसका स्वाद कुछ-कुछ मुझे मिल चुका
है, मैं जानती हूँ। मेरी तरह एक दिन जब संशय बाधा और कटुवचनों से उसका सारा
मन विरक्त रस से भर जायेगा, तब उसे भी वापस भागने को राह ढूँढे न मिलेगी।''
मैंने हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, ''यह कोई असम्भव बात नहीं, पर मुझे
मालूम होता है कि इन सब दु:खों की बात वह अच्छी तरह जानता है।''
राजलक्ष्मी बार-बार सिर हिलाकर कहने लगी, ''कभी नहीं, हरगिज नहीं।
जानने के बाद फिर कोई भी उस रास्ते पर नहीं जा सकता, मैं कहती हूँ।''
इस बात का कोई जवाब न था। बंकू के मुँह से सुना था कि ससुराल के गाँव
में एक बार राजलक्ष्मी के अनेक साधु-संकल्पों और पुण्य कर्मों का अत्यन्त
अपमान हुआ था। उसी निष्काम परोपकार की व्यथा बहुत दिनों से उसके मन में लगी
हुई थी। यद्यपि और भी एक पहलू देखने का था, परन्तु उस अवलुप्त वेदना के
स्थान को चिह्नित करने की मेरी प्रवृत्ति न हुई, इसलिए चुपचाप बैठा रहा।
हालाँकि राजलक्ष्मी जो कुछ कह रही था वह झूठ नहीं है। मैं मन ही मन सोचने
लगा, क्यों ऐसा होता है? क्यों एक की शुभ चेष्टाओं को दूसरी सन्देह की
दृष्टि से देखता है? आदमी क्यों इन सबको विफल करके संसार में दु:ख का भार
घटने नहीं देता? मन में आया कि अगर साधुजी होते या कभी वापस आते, तो इस
जटिल समस्या की मीमांसा का भार उन्हीं को सौंप देता।
उस दिन सबेरे से पास ही कहीं नौबत की आवाज सुनाई दे रही थी। अब कुछ
आदमी रतन को अग्रवती करके ऑंगन में आ खड़े हुए। रतन ने सामने आकर कहा,
''माँजी, ये आपको 'राज-वरण' देने आए हैं- आओ न, दे जाओ न!'' कहते हुए उसने
एक प्रौढ़-से आदमी की ओर इशारा किया। वह आदमी वसन्ती रंग की धोती पहने था और
उसके गले में लकड़ी की नयी माला थी। उसने अत्यन्त संकोच के साथ आगे बढ़कर
बरामदे के नीचे से ही नये शाल-पत्तों पर एक रुपया और सुपारी राजलक्ष्मी के
चरणों के उद्देश्य से रखकर जमीन पर माथा टेककर प्रणाम किया, और कहा, ''माता
रानी, आज मेरी लड़की का ब्याह है।''
राजलक्ष्मी उठकर आई और उसे स्वीकार करके पुलकित चित्त से बोली, ''लड़की
के ब्याह में क्या यही दिया जाता है?''
रतन ने कहा, ''नहीं माँजी, सो बात नहीं, जिसका जैसा सामर्थ्य होता है,
उसी के माफिक जमींदार की भेंट करता है- ये छोटी जातवाले ठहरे, डोम, इससे
ज्यादा ये पायेंगे कहाँ, यही कितनी मुश्किल से...''
परन्तु निवेदन समाप्त होने के पहले ही डोम का रुपया सुनते ही
राजलक्ष्मी ने झटपट उसे नीचे रखकर कहा, ''तो रहने दो, रहने दो, यह भी देने
की जरूरत नहीं- तुम लोग ऐसे ही लड़की का ब्याह कर दो।''
इस भेंट लौटा देने के कारण लड़की का पिता और उससे भी अधिक रतन खुद बड़ी
आफत में पड़ गया; वह नाना प्रकार से समझाने की कोशिश करने लगा कि इस राज-वरण
के सम्मान के बिना मंजूर किये किसी तरह चल ही नहीं सकता। राजलक्ष्मी उस
सुपारी समेत रुपये को क्यों नहीं लेना चाहती। इस बात को मैं कमरे के भीतर
बैठे ही बैठे समझ गया था, और रतन किसलिए इतना अनुरोध कर रहा है, सो भी
मुझसे छिपा न था। जहाँ तक सम्भव है दिया जानेवाला रुपया और भी ज्यादा पाने
और गुमाश्ता कुशारी महाशय के हाथ से छुटकारा पाने के लिए ही यह कार्रवाई की
गयी है; और रतन 'हुजूर' आदि सम्भाषण के बदले उनका मुखपात्र होकर अर्जी पेश
करने आया है। वह काफी आश्वासन देकर उन्हें लाया होगा, इसमें तो कोई शक ही
नहीं। उसका यह संकट अन्त में मैंने ही दूर किया। उठकर मैंने ही रुपया उठाया
और कहा, ''मैंने ले लिया, तुम घर जाकर ब्याह की तैयारियाँ करो।''
रतन का चेहरा मारे गर्व के चमक उठा, और राजलक्ष्मी ने अस्पृश्य के
प्रति-ग्रह के दायित्व से छुटकारा पाकर सुख की साँस ली। वह खुश होकर बोली,
''यह अच्छा ही हुआ, जिनका हक है खुद उन्हींने अपने हाथ से ले लिया।'' यह
कहकर वह हँस दी।
मधु डोम ने कृतज्ञता से भरकर हाथ जोड़कर कहा, ''हुजूर पहर रात के भीतर
ही लगन है, एक बार अगर हुजूर के पैरों की धूल गरीब के घर पड़ती...'' इतना
कहकर वह एक बार मेरे और एक बार राजलक्ष्मी के मुँह की ओर करुण दृष्टि से
देखता रहा।
मैं राजी हो गया, राजलक्ष्मी खुद भी जरा हँसकर नौबत की आवाज से अन्दाजा
लगाकर बोली, ''नहीं है न तुम्हारा घर मधु ? अच्छा, अगर समय मिला तो मैं भी
जाकर एक बार देख आऊँगी।'' रतन की तरफ देखकर बोली, ''बड़ा सन्दूक खोलकर देख
तो रे, मेरी नयी साड़ियाँ आई हैं कि नहीं? जा, लड़की को उनमें से एक दे आ।
मिठाई शायद यहाँ मिलती न होगी, बताशे मिलते हैं? अच्छा, सो ही सही। कुछ वे
ही लेते जाना। अच्छा हाँ, तुम्हारी लड़की की उमर क्या है मधु? वर कहाँ का
रहने वाला है? कितने आदमी जीमेंगे? इस गाँव में किनते घर हैं तुम लोगों
के?''
जमींदार-गृहिणी के एक साथ इतने प्रश्नों के उत्तर में मधु ने सम्मान और
विनय के साथ जो कुछ कहा, उससे मालूम हुआ कि उसकी लड़की की उमर नौ साल के
भीतर ही है, वर युवक है, उमर तीस-चालीस से ज्यादा न होगी, वह चार-पाँच कोस
उत्तर की तरफ किसी गाँव में रहता है- वहाँ उसके समाज का एक बड़ा हिस्सा रहता
है, वहाँ जातीय पेशा कोई नहीं करता-सभी लोग खेती-बारी करते हैं- लड़की खूब
सुख से रहेगी- डर है तो सिर्फ आज की रात का। कारण बारातियों की तादाद कितनी
होगी और वे कहाँ क्या फसाद कर बैठेंगे, सो बिना सबेरा हुए कुछ कहा नहीं जा
सकता। सभी कोई पैसे वाले ठहरे-कैसे उनकी मान-मर्यादा कायम रखकर शुभ-कार्य
सम्पन्न होगा, इसी चिन्ता में बेचारा सूख के काँटा हुआ जा रहा है। इन सब
बातों का विस्तार के साथ वर्णन करके अन्त में उसने कातरता के साथ निवेदन
किया कि चिउड़ा, गुड़ और दही का इन्तजाम हो गया है, यहाँ तक कि आखिर में
दो-दो बड़े बताशे भी पत्तलों में परोसे जाँयगे; मगर फिर भी अगर कोई गड़बड़ी
हुई तो हम लोगों को रक्षा करनी होगी।
राजलक्ष्मी ने कुतूहल के साथ ढाँढ़स देकर कहा, ''गड़बड़ी कुछ न होने पायगी
मधु, तुम्हारी लड़की का ब्याह निर्विध्न हो जायेगा, मैं आशीर्वाद देती हूँ।
तुमने खाने-पीने की इतनी चीजें इकट्ठी की हैं कि तुम्हारे समधी के साथी लोग
खा-पीकर खुशी-खुशी घर जाँयगे।''
मधु ने जमीन से माथा टेककर प्रणाम करके अपने साथियों के साथ प्रस्थान
किया, परन्तु उसका चेहरा देखकर मालूम हुआ कि इस आशीर्वाद के भरोसे उसने कोई
खास सान्त्वना प्राप्त नहीं की; आज की रात के लिए लड़की के पिता के अन्दर
काफी उद्वेग बना ही रहा।
शुभ कर्म में पैरों की धूल देने के लिए मधु को आशा दी थी; परन्तु,
सचमुच ही जाना होगा, ऐसी सम्भावना शायद हममें से किसी के भी मन में न थी।
शाम के बाद दिए के सामने बैठकर राजलक्ष्मी अपने आय-व्यय का एक चिट्ठा पढ़कर
सुना रही थी, मैं बिस्तर पर पड़ा हुआ ऑंखें मीचे कुछ सुन रहा था और कुछ नहीं
सुन रहा था, किन्तु पास ही ब्याह वाले घर का शोरगुल कुछ देर से जरा असाधारण
रूप से प्रखर होकर मेरे कानों में खटक रहा था। सहसा मुँह उठाकर राजलक्ष्मी
ने हँसते हुए कहा, ''डोम के घर ब्याह है, मार-पीट होना भी उसका कोई अंग तो
नहीं है?''
मैंने कहा, ''ऊँची जात की नकल अगर की तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। वे
सब बातें याद तो हैं तुम्हें?''
राजलक्ष्मी ने कहा, ''हाँ।'' उसके बाद क्षण-भर तक कान खड़े करके एक गहरी
साँस लेकर कहा, ''वास्तव में, इस जले देश में हम लोग जिस तरह से लड़कियों को
बहा देते हैं, उसमें छोटे-बड़े, भद्र-अभद्र सभी समान हैं। उन लोगों के चले
जाने पर पता लगाया तो मालूम हुआ कि कल सबेरे वे उस बेचारी नौ साल की लड़की
को न जाने किस अपरिचित घर-गृहस्थी में घसीट ले जाँयगे, फिर शायद कभी आने भी
न देंगे। इन लोगों के यहाँ कायदा ही यही है। बाप एक कोड़ी चार रुपये में
लड़की को आज बेच देगा। लड़की वहाँ एक बार मायके भेज देने का नाम तक भी नहीं
ले सकती। ओहो, लड़की बेचारी कितनी रोयेगी बिलखेगी- ब्याह का वह अभी जानती ही
क्या है, बताओ?''
ऐसी दुर्घटनाएँ तो मैं जन्म से ही देखता आ रहा हूँ। एक तरह से इसका आदी
भी हो गया हूँ- अब तो क्षोम प्रकट करने की भी प्रवृत्ति नहीं होती। लिहाजा
जवाब में मैं चुप बना रहा।
जवाब न पाकर उसने कहा, ''हमारे देश में छोटी-बड़ी सभी जातियों में ब्याह
सिर्फ ब्याह ही नहीं है, बल्कि एक धर्म है- इसी से, नहीं तो...''
मैंने मन में सोचा कि कह दूँ, ''इसे अगर धर्म ही समझ लिया है, तो फिर
यह शिकायत ही किस बात की? और जिस धर्म-कर्म में मन प्रसन्न न होकर ग्लानि
के भार से काला ही होता रहता है, उसे धर्म समझकर अंगीकार ही कैसे किया जाता
है?''
परन्तु मेरे कुछ कहने के पहले ही राजलक्ष्मी स्वयं ही कह उठी, ''पर यह
सब विधि-विधान जो बना गये हैं, वे थे त्रिकालदर्शी ऋषि; शास्त्र के वाक्य
झूठ भी नहीं हैं, अमंगलकारी भी नहीं- हम लोग उसको क्या जानते हैं और
कितना-सा समझते हैं!''
बस, जो कहना चाहता था सो फिर नहीं कहा गया। इस संसार में जो कुछ
सोचने-विचारने की वस्तु थी, वह समस्त ही त्रिकालज्ञ ऋषिगण भूत, भविष्य और
वर्तमान इन तीनों कालों के लिए पहले से ही सोच विचारकर स्थिर कर गये हैं,
दुनिया में अब नये सिरे से चिन्ता करने को कुछ बाकी ही नहीं बचा। यह बात
राजलक्ष्मी के मुँह से कोई नयी नहीं सुनी, और भी बहुतों के मुँह से बहुत
बार सुनी है, और बार-बार मैं चुप ही रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि इसका जवाब
देते ही आलोचना पहले तो गरम और फिर दूसरे ही क्षण व्यक्तिगत कलह में परिणत
होकर अत्यन्त कड़वी हो उठती है। त्रिकालदर्शियों की मैं अवज्ञा नहीं कर रहा
हूँ, राजलक्ष्मी की तरह मैं भी उनकी अत्यन्त भक्ति करता हूँ; मैं तो सिर्फ
इतना ही सोचता हूँ कि वे दया करके अगर सिर्फ हमारे इस अंगरेजी शासन-काल के
लिए न सोच जाते, तो अनेक दुरूह चिन्ता के दायित्व से वे भी छुटकारा पा जाते
और हम भी सचमुच ही आज जीवित रह सकते।
मैं पहले ही कह चुका हूँ कि राजलक्ष्मी मेरे मन की बातों को मानो
दर्पणवत् स्पष्ट देख सकती है। कैसे देख सकती है, सो नहीं जानता; परन्तु अभी
इस अस्पष्ट दीपालोक में मेरे चेहरे की तरफ उसने देखा नहीं, फिर भी मानो
मेरी निभृत चिन्ता के ठीक द्वार पर ही उसने आघात किया। बोली, ''तुम सोच रहे
हो, 'यह बहुत ही ज्यादती है- भविष्य के लिए विधि-विधान कोई पहले से ही
निर्दिष्ट नहीं कर सकता।' मगर मैं कहती हूँ, कर सकता है। मैंने अपने
गुरुदेव के श्रीमुख से सुना है। यह काम अगर उनसे न होता, तो हम सजीव
मन्त्रों के कभी दर्शन ही न कर पाते। मैं पूछती हूँ, इस बात को मानते हो कि
हमारे शास्त्रीय मन्त्रों में प्राण हैं। वे सजीव हैं?''
मैंने कहा, ''हाँ।''
राजलक्ष्मी ने कहा, ''तुम नहीं मान सकते हो, परन्तु फिर भी यह सत्य है।
नहीं तो हमारे देश में यह गुड्डा-गुड़ियों का ब्याह ही संसार का सर्वश्रेष्ठ
विवाह-बन्धन नहीं हो सकता। यह सभी तो उन्हीं सजीव मन्त्रों के जोर से होता
है! उन्हीं ऋषियों की कृपा से! अवश्य ही, अनाचार और पाप और कहाँ नहीं हैं,
सब जगह हैं, मगर हमारे इस देश के समान सतीत्व क्या तुम और कहीं भी दिखा
सकते हो?''
मैंने कहा, ''नहीं।'' कारण, यह उसकी युक्ति नहीं, बल्कि विश्वास है।
इतिहास का प्रश्न होता तो उसे दिखा देता कि इस पृथ्वी पर सजीव मन्त्र-हीन
और भी बहुत-से देश हैं, जहाँ सतीत्व का आदर्श आज भी ऐसा ही उच्च है। अभया
का उल्लेख करके कह सकता था कि अगर यही बात है तो तुम्हारे सजीव मन्त्र
स्त्री-पुरुष दोनों को एक ही आदर्श में क्यों नही बाँध सकते? मगर इन सब
बातों की आवश्यकता न थी। मैं जानता था कि उसके चित्त की धारा कुछ दिनों से
किस दिशा में बह रही है।
दुष्कृति की वेदना को वह अच्छी तरह समझती है। जिसे उसने अपने सम्पूर्ण
हृदय से प्यार किया है, उसे बिना कलुषित किये इस जीवन में कैसे प्राप्त
किया जाय, इस बात का उसे ओर-छोर ही नहीं मिल रहा है। उसका दुर्वश हृदय और
प्रबुद्ध धर्माचरण- ये दोनों प्रतिकूलगामी प्रचण्ड प्रवाह कैसे किस संगम
में मिलकर, इस दु:ख के जीवन में तीर्थ की भाँति सुपवित्र हो उठेंगे, इस बात
का उसे कोई किनारा ही नहीं दीखता। परन्तु, मुझे दीखता है। अपने को सम्पूर्ण
रूप से दान करने के बाद से दूसरे के छिपे हुए मनस्ताप पर प्रतिक्षण ही मेरी
निगाह पड़ती रही है। माना कि बिल्कुल स्पष्ट नहीं देख सकता, परन्तु फिर भी
इतना तो देख ही लेता हूँ कि उसकी जिस दुर्दम कामना ने इतने दिनों से
अत्युग्र नशे की भाँति उसके सम्पूर्ण मन को उतावला और उन्मत्त कर रक्खा था,
वह मानो आज स्थिर होकर अपने सौभाग्य का, अपनी इस प्राप्ति का हिसाब देखना
चाहती है। इस हिसाब के ऑंकड़ों में क्या है, मैं नहीं जानता, परन्तु अगर वह
आज शून्य के सिवा और कुछ भी न देख सके तो फिर मैं अपने इस शत-छिन्न
जीवन-जाल की गाँठें किस तरह कहाँ जाकर बाँधने बैठूँगा, यह चिन्ता मेरे
अन्दर भी बहुत बार घूम-फिर गयी है। सोचकर कुछ भी हाथ नहीं लगा, सिर्फ एक
बात का निश्चय किये हुए हूँ कि हमेशा से जिस रास्ते चलता आया हूँ, जरूरत
पड़ने पर फिर उसी रास्ते यात्रा शुरू कर दूँगा। अपने सुख और सुभीते के लिए
और किसी की समस्या को जटिल न बनाऊँगा। परन्तु परमाश्चर्य की बात यह हुई कि
जिन मन्त्रों की सजीवता की आलोचना से हम दोनों में एक ही क्षण में
क्रान्ति-सी मच गयी, उन्हीं के प्रसंग को लेकर पास ही के घर में उस समय
मल्ल-युद्ध हो रहा था और इस संवाद से हम दोनों ही नावाकिफ थे।
अकस्मात् पाँच-सात आदमी दो-तीन लालटेनें लिए और बहुत शोरगुल मचाते हुए
एकदम ऑंगन में आ खड़े हुए और व्याकुल कण्ठ से पुकार उठे, ''हुजूर! बाबू
साहब!''
मैं घबराया हुआ बाहर आया और राजलक्ष्मी भी आश्चर्य के साथ उठकर मेरे
पास आकर खड़ी हो गयी। देखा कि सब मिलकर एक साथ सम-स्वर में नालिश करना चाहते
हैं। रतन के बार-बार डाँटने पर भी अन्ततोगत्वा कोई भी चुप न रह सका। कुछ भी
हो, मामला समझ में आ गया। कन्यादान स्थगित हुआ पड़ा है; कारण, मन्त्रपाठ में
गलती होने की वजह से वर पक्ष के पुरोहित ने कन्या पक्ष के पुरोहित के
पुष्प-जल आदि उठाकर फेंक दिए हैं और उसका मुँह दबा रखा है। वास्तव में, यह
बड़ा अत्याचार है। पुरोहित-सम्प्रदाय बहुत-से कीर्ति के काम किया करता है,
परन्तु ऐसा मैंने कभी नहीं सुना कि दूसरे गाँव के आकर जबरदस्ती अपने ही एक
सम-व्यवसायी की पूजा की सामग्री फेंक दी गयी हो और शारीरिक बल-प्रयोग से
उसका मुँह दबाकर स्वाधीन और सजीव मन्त्रोच्चारण में बाधा पहुँचाई गयी हो।
यह तो सरासर अत्याचार है!
राजलक्ष्मी क्या कहे, सहसा सोचकर कुछ तय न कर पाई। मगर रतन घर में जाने
क्या कर रहा था, उसने बाहर निकलकर जोर से गरजकर कहा, ''तुम लोगों के यहाँ
पुरोहित कैसा रे?'' यहाँ अर्थात् जमींदारी में आकर रतन गाँववालों से तू
तड़ाक और 'रे' करके बात करने लगा, क्योंकि उसकी निगाह में इससे अधिक सम्मान
के लायक यहाँ कोई है ही नहीं। बोला, ''डोम चमारों का कोई ब्याह में ब्याह
है, जो पुरोहित चाहिए? यह क्या कोई ब्राह्मण-कायस्थों के यहाँ का ब्याह है
जो पढ़ाने के लिए ब्राह्मण पुरोहित आयँगे?'' यह कहकर वह बार-बार मेरे और
राजलक्ष्मी के मुँह की ओर गर्व के साथ देखने लगा। यहाँ इस बात की याद दिला
देनी चाहिए कि रतन खुद जात का नाई है।
मधु डोम खुद नहीं आ सका था- वह कन्या दान के लिए बैठ चुका था, पर उसका
सम्बन्धी आया था। उस आदमी ने जो कुछ कहा उससे मालूम हुआ कि यद्यपि उन लोगों
में ब्राह्मण नहीं आते, वे खुद ही अपने 'पुरोहित' हैं, तथापि, राखाल पण्डित
उनके लिए ब्राह्मण के ही समान है। कारण, उसके गले में जनेऊ है और वही उनके
दसों कर्म कराता है। यहाँ तक कि वह इन लोगों के हाथ का पानी तक नहीं पीता।
लिहाजा, इतनी जबरदस्त सात्विकता के बाद, अब कोई प्रतिवाद नहीं चल सकता।
अतएव, असली और खालिस ब्राह्मण में इसके बाद भी अगर कोई प्रभेद रह गया हो,
तो वह बहुत ही मामूली-सा होगा।
खैर, कुछ भी हो, इनकी व्याकुलता और पास ही ब्याह वाले घर की प्रबल
चीत्कार से मुझे वहाँ जाना ही पड़ा। राजलक्ष्मी से मैंने कहा, ''तुम भी चलो
न, घर में अकेली रहकर क्या करोगी?''
राजलक्ष्मी ने पहले तो सिर हिलाया, पर अन्त में वह अपने कुतूहल को न
रोक सकी और 'चलो' कहके मेरे साथ हो ली। वहाँ पहुँचकर देखा कि मधु के
सम्बन्धी ने बिल्कुल अत्युक्ति नहीं की है। झगड़ा भयंकर रूप धारण करता जा
रहा है। एक तरफ वर पक्ष के करीब तीस-बत्तीस आदमी हैं और दूसरी ओर कन्या
पक्ष के भी लगभग उतने ही होंगे। बीच में प्रबल और स्थूलकाय शिबू पण्डित
दुर्बल और क्षीणजीवी राखाल पण्डित के हाथ पकड़े खड़ा है। हम लोगों को देखकर
वह हाथ छोड़कर अलग हटके खड़ा हो गया। हम लोगों ने सम्मान के साथ एक चटाई पर
बैठने के बाद शिबू पण्डित से इस अतर्कित आक्रमण का हेतु पूछा, तो उसने कहा,
''हुजूर, मन्तर का 'म' तो जानता नहीं यह बेटा और फिर भी अपने को कहता है,
पण्डित हूँ! आज तो यह ब्याह ही की रेढ़ मार देता!'' राखाल ने मुँह बिचकाकर
प्रतिवाद किया, ''हाँ, सो तो देता ही! पाँच-पाँच सराधा ब्याह करा रहा हूँ,
और फिर भी मैं नहीं जानता मन्तर!''
मन में सोचने लगा, अरे, यहाँ भी वही मन्त्र है। घर में तो माना कि
राजलक्ष्मी के सामने मौन रहकर ही तर्क का जवाब दे दिया जाता है, मगर, यहाँ
अगर वास्तव में मध्यस्थता करनी पड़े तो आफत में फँस जाऊँगा! अन्त में बहुत
वाद-वितण्डा के बाद तय हुआ कि राखाल पण्डित ही मन्त्र पढ़ेगा- हाँ, अगर कहीं
कुछ गलती होगी तो उसे शिबू के लिए आसन छोड़ देना पड़ेगा। राखाल राजी होकर
पुरोहित के आसन पर जा बैठा। कन्या के पिता के हाथ में कुछ फूल देकर और
वर-कन्या के दोनों हाथ एकत्र मिलाकर उसने जिन वैदिक मन्त्रों का पाठ किया,
वे मुझे अब तक याद हैं। वे सजीव हैं या नहीं, सो मैं नहीं जानता, मगर
मन्त्रों के विषय में कोई ज्ञान न होने पर भी मुझे सन्देह है कि ऋषिगण वेद
में ठीक ये ही शब्द न छोड़ गये होंगे।
राखाल पण्डित वर से कहा, ''बोलो, 'मधुडोमाय कन्याय नम:'।''
वर ने दुहराया, ''मधुडोमाय कन्याय नम:।''
राखाल ने कन्या से यहा, ''बोलो, 'भगवती डोमाय पुत्राय नम:'।''
बालिका वधू के उच्चारण में कहीं त्रुटि न रह जाय, इस खयाल से मधु उसकी
तरफ से उच्चारण करना ही चाहता था कि इतने में शिबू पण्डित दोनों हाथ ऊपर को
उठाकर वज्र-सा गरजता और सबको चौंकाता हुआ बोल उठा, ''यह मन्तर है ही नहीं!
यह ब्याह ही नहीं हुआ!'' पीछे से कपड़ा खींचे जाने पर मैंने मुँह फेरकर देखा
कि राजलक्ष्मी मुँह में ऑंचल दबाकर जी-जान से हँसी रोकने की कोशिश कर रही
है और उपस्थित लोग अत्यन्त उद्विग्न हो उठे हैं। राखाल पण्डित ने लज्जित
मुख से कुछ कहना भी चाहा, मगर उसकी बात पर किसी ने ध्यान ही न दिया, सभी
कोई एक स्वर में शिबू से विनय करने लगे, ''पण्डितजी, मन्तर आप ही पढ़वा
दीजिए, नहीं तो यह ब्याह ही न होगा- सब मिट्टी हो जायेगा। चौथाई दच्छिना
उनको देकर बाकी बारह आना आप ही ले लीजिएगा, पण्डितजी।''
शिबू पण्डित ने तब उदासीनता दिखलाते हुए कहा, ''इसमें राखाल का कोई दोष
नहीं, इधर असल मन्तर मेरे सिवा और कोई जानता ही नहीं है। ज्यादा दक्षिणा
मैं नहीं चाहता। मैं यहाँ से मन्त्र पढ़ दूँगा, राखाल उनसे पढ़वा दे।'' यह
कहकर वह शास्त्रज्ञ पुरोहित मन्त्रोच्चारण करने लगा और पराजित राखाल निरीह
भलेमानस की तरह वर-कन्या से आवृत्ति कराने लगा।
शिबू ने कहा, ''बोलो, 'मधुडोमाय कन्याय भुज्यपत्रं नम:'।''
वर ने दुहराया , ''मधुडोमाय कन्याय भुज्यपत्रं नम:।''
शिबू ने कहा, ''मधु, अबकी बार तुम कहो, ''भगवती डोमाय पुत्राय
सम्प्रदानं नम:।''
कन्या के साथ मधु ने भी इसे दुहरा दिया। सभी कोई नीरव स्थिर थे। दृश्य
देखकर मालूम हुआ कि शिबू के समान शास्त्रज्ञ व्यक्ति ने इसके पहले कभी इस
प्रान्त में पदार्पण ही नहीं किया था।
शिबू ने वर के हाथ में फूल देकर कहा, ''विपिन, तुम कहो, 'जितने दिन
जीवनं उतने दिन भात-कपड़ा प्रदानं स्वाहा'।''
विपिन ने रुक-रुककर बहुत कष्ट से और बहुत देर से यह मन्त्र उच्चारण
किया।
शिबू ने कहा, ''वर कन्या दोनों मिलकर कहो, 'युगलमिलनं नम:'।''
वर और कन्या की तरफ से मधु ने इसे दुहरा दिया। इसके बाद प्रबल
हरि-ध्वनि के साथ वर-वधू को घर के भीतर गोद में उठाकर ले जाया गया। मेरे
चारों तरफ एक गूँज-सी उठ खड़ी हुई। सभी एक वाक्य से स्वीकार करने लगे कि
'हाँ, आदमी है तो शास्त्र का पूरा जानकार! मन्तर-सा मन्तर पढ़ा! राखाल
पण्डित अब तक हम लोगों को धोखा देकर ही खा-पी रहा था।'
मैं जितनी देर वहाँ रहा, बराबर गम्भीर होकर बैठा रहा, और अन्त तक उसी
गम्भीरता को कायम रखता हुआ राजलक्ष्मी का हाथ पकड़कर घर लौट आया। मैं नहीं
जानता कि वहाँ वह अपने पर काबू रख चुपचाप कैसे बैठी रही, मगर घर के आते ही
उसने अपनी हँसी के प्रवाह को इस तरह छोड़ दिया कि दम घुटने की नौबत आ
पहुँची। बिस्तर पर लोट-पोट होकर वह बार-बार यही कहने लगी, ''हाँ, एक सच्चा
महामहोपाधयाय देखा! राखाल तो अब तक उन्हें यों ही ठगता-खाता था।''
पहले तो मैं भी अपनी हँसी रोक न सका, फिर बोला, ''महामहोपाधयाय दोनों
ही थे। फिर भी, इसी तरह तो अब तक इन लोगों की लड़कियों की माताओं और दादियों
के ब्याह होते आए हैं! राखाल के मन्त्र चाहे जैसे हों, पर शिबू पण्डित के
मन्त्र भी 'ऋषिरुवाच' नहीं मालूम होते। मगर फिर भी, इनका कोई मन्त्र-विफल
नहीं गया! इनका जोड़ा हुआ विवाह-बन्धन तो अब तक वैसा दृढ़- वैसा ही अटूटहै!''
राजलक्ष्मी अपनी हँसी को दबाकर सहसा सीधी होकर बैठ गयी, और एकटक चुपचाप
मेरे मुँह की ओर देखती हुई न जाने क्या-क्या सोचने लगी।
6
सबेरे उठकर सुना कि कुशारी महाशय। मधयाह्न-भोजन का निमन्त्रण दे गये हैं।
मैं भी ठीक यही आशंका कर रहा था। मैंने पूछा, ''मैं अकेला ही जाऊँगा
क्या?''
राजलक्ष्मी ने हँसकर कहा, ''नहीं तो, मैं भी चालूँगी।''
''चलोगी?''
''चलूँगी क्यों नहीं!''
उसका यह नि:संकोच उत्तर सुनकर मैं अवाक् हो रहा। खान-पान हिन्दू-धर्म
में क्या चीज है, और समाज उस पर कितना निर्भर है, राजलक्ष्मी इस बात को
जानती है और मैं भी यह जानता हूँ कि कितनी बड़ी निष्ठा के साथ वह इसे मानकर
चलती है; फिर भी, उसका यह जवाब! कुशारी महाशय के विषय में मैं ज्यादा कुछ
नहीं जानता, पर बाहर से उन्हें जितना देखा है उससे मालूम हुआ है कि वे
आचार-परायण ब्राह्मण हैं। और यह भी निश्चित है कि राजलक्ष्मी के इतिहास से
वे वाकिफ नहीं हैं, उन्होंने तो सिर्फ मालिक समझकर ही निमन्त्रण किया है।
परन्तु, राजलक्ष्मी आज वहाँ जाकर कैसे क्या करेगी, मेरी कुछ समझ में ही न
आया। और मेरे प्रश्न को समझकर भी उसने जब कुछ नहीं कहा, तब भीतर के संकोच
ने मुझे भी निर्वाक् कर दिया। यथासमय गो-यान आ पहुँचा। मैं तैयार होकर बाहर
आया तो देखा कि राजलक्ष्मी गाड़ी के पास खड़ी है।''
मैंने कहा, ''चलोगी नहीं?''
उसने कहा, ''चलने ही के लिए तो खड़ी हूँ।'' यह कहकर वह गाड़ी के भीतर
जाकर बैठ गयी।
रतन साथ जायेगा, वह मेरे पीछे था। उसका चेहरा देखते ही मैं ताड़ गया कि
वह मालकिन की साज-पोशाक देखकर अत्यन्त आश्चर्यान्वित हो रहा है। मुझे भी
आश्चर्य हुआ; परन्तु जैसे उसने प्रकट नहीं किया वैसे ही मैं भी चुप रह गया।
घर पर वह कभी ज्यादा गहने नहीं पहिनती और कुछ दिनों से तो उसमें भी कमी
करती जाती थी; परन्तु आज देखा कि उसके बदन पर उनमें से भी लगभग कुछ नहीं
है। जो हार साधारणत: रोज ही उसके गले में पड़ा रहता है सिर्फ वही है और
हाथों में एक-एक कड़ा। ठीक याद नहीं है, फिर भी इतना खयाल है कि कल रात तक
जो चूड़ियाँ उसके हाथों में थीं उन्हें भी आज उसने जान-बूझकर उतार दिया है।
साड़ी भी बिल्कुल मामूली पहिने थी, शायद नहाकर जो पहिनी थी वही होगी। गाड़ी
में बैठकर मैंने धीरे से कहा, ''एक-एक करके सभी कुछ छोड़ दिया मालूम होता
है। सिर्फ एक मैं ही बाकी रह गया हूँ!''
राजलक्ष्मी ने मेरे मुँह की तरफ देखकर जरा हँसते हुए कहा, ''ऐसा भी तो
हो सकता है कि इस एक ही में सब कुछ रह गया हो। इसी से, जो बढ़ती था वह एक-एक
करके झड़ता जा रहा है।'' यह कहकर उसने पीछे की तरफ मुँह करके देखा कि रतन
कहीं पास ही तो नहीं है; उसके बाद उसने ऐसे धीमे और मृदु कण्ठ से कहा जिसे
गाड़ीवान भी न सुन सके, ''अच्छा तो है, ऐसा ही आशीर्वाद दो न तुम। तुमसे बड़ा
तो और कुछ मेरे लिए है नहीं, तुम्हें भी जिसके बदले में आसानी से दे सकूँ,
मुझे वही आशीर्वाद दो।''
मैं चुप हो गया। बात एक ऐसी दिशा में चली गयी कि उसका जवाब देना मेरे
बूते की बात नहीं रही। वह भी और कुछ न कहकर, मोटा तकिया अपनी तरफ खींचकर,
सिमटकर मेरे पैरों के पास लेट गयी। गंगामाटी से पोड़ामाटी जाने का एक
बिल्कुल सीधा रास्ता भी है। सामने के सूखे-पानी के नाले पर जो बाँस का
कम-चौड़ा पुल है उसके ऊपर होकर जाने से दस ही मिनट में पहुँचा जा सकता है;
मगर बैलगाड़ी से बहुत-सा रास्ता घूमकर जाना पड़ता है और उसमें करीब दो घण्टे
लग जाते हैं। इस लम्बे रास्ते में हम दोनों में फिर कोई बातचीत ही नहीं
हुई। वह सिर्फ मेरे हाथ को अपने गले के पास खींचकर सोने का बहाना किये
चुपचाप पड़ी रही।
गाड़ी जब कुशारी महाशय के द्वार पर जाकर ठहरी तब दोपहर हो चुका था।
घर-मालिक और उनकी गृहिणी दोनों ही ने एक साथ निकलकर हमें अभ्यर्थना के साथ
ग्रहण किया, और अत्यन्त सम्मानित अतिथि होने के कारण ही शायद बाहर की बैठक
में न बिठाकर वे एकदम भीतर ले गये। इसके सिवा, थोड़ी ही देर में समझ में आ
गया कि शहरों से दूर बसे हुए इन साधारण गाँवों में परदे का वैसा कठोर शासन
प्रचलित नहीं है। कारण, हमारे शुभागमन का समाचार फैलते न फैलते ही
अड़ोस-पड़ोस की बहुत-सी स्त्रियाँ कुशारी और उनकी गृहिणी को यथाक्रम से चचा,
ताऊ, मौसी, चाची आदि प्रीति-पूर्ण और आत्मीय सम्बोधनों से प्रसन्न करती हुई
एक-एक, दो-दो करके प्रवेश करके तमाशा देखनी लगीं, और उनमें सभी अबला ही
नहीं थीं। राजलक्ष्मी को घूँघट काढ़ने की आदत नहीं थी, वह भी मेरी ही तरह
सामने के बरामदे में एक आसन पर बैठी थी। इस अपरिचित रमणी के साक्षात से भी
उस अनाहूत दल ने विशेष कोई संकोच अनुभव नहीं किया। हाँ, इतनी सौभाग्य की
बात हुई कि बातचीत करने की उत्सुकता बिल्कुल ही उनके प्रति न होकर मेरे
प्रति भी दिखाई जाने लगी। घर-मालिक अत्यन्न व्यस्त थे और उनकी गृहिणी की भी
वही दशा थी, सिर्फ उनकी विधवा लड़की ही अकेली राजलक्ष्मी के पास स्थिर बैठकर
ताड़ के पंखें से धीरे-धीरे बयार करने लगी। और, मैं कैसा हूँ, क्या बीमारी
है, कितने दिन रहूँगा, जगह अच्छी मालूम होती है या नहीं, जमींदारी का काम
खुद बिना देखे चोरी होती है या नहीं, इसका कोई नया बन्दोबस्त करने की जरूरत
समझता हूँ या नहीं, इत्यादि सार्थ और व्यर्थ नाना प्रकार के प्रश्नोत्तारों
के बीच-बीच में से मैं कुशारी महाशय के घर की अवस्था को पर्यवेक्षण करके
देखने लगा। मकान में बहुत-से कमरे हैं और सब मिट्टी के हैं; फिर भी मालूम
हुआ कि काशीनाथ कुशारी की अवस्था अच्छी तो है ही, और शायद विशेष तौर से
अच्छी है। प्रवेश करते समय बाहर चण्डी-मण्डप के एक तरफ, एक धान का बखार देख
आया था, भीतर के ऑंगन में भी देखा कि वैसे और भी दो बखार मौजूद हैं। ठीक
सामने ही, शायद रसोईघर था, उसके उत्तर में एक छप्पर के नीचे दो-तीन धान
कूटने की ढेंकियाँ हैं, मालूम होता है अभी-अभी कुछ ही पहले उनका काम बन्द
हुआ है। ऑंगन के एक तरफ एक जम्बीरी नींबू का पेड़ है, उसके नीचे धान उबालने
के कई एक चूल्हे हैं जो लिपे-पुते चमक रहे हैं, और उस साफ-सुथरे स्थान पर
छाया के नीचे दो हृष्ट-पुष्ट गो-वत्स गरदन टेढ़ी किये आराम से सो रहे हैं।
उनकी माताएँ कहाँ हैं, ऑंखों से तो नहीं दिखाई दीं, पर यह साफ समझ में आ
गया कि कुशारी परिवार में अन्न की तरह दूध- की भी कोई कमी नहीं। दक्षिण के
बरामदे में, दीवार से सटी हुई, छै-सात बड़ी-बड़ी मिट्टी की गागरें कुँड़रियों
पर रक्खी हुई हैं। शायद गुड़ की होंगी, या और किसी चीज की होंगी, मगर उनकी
हिफाजत को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि वे रीती होंगी या उपेक्षा की
चीज हैं- बहुत-सी खूँटियों से ढेर समेत सन और पटसन के गुच्छे बँधे हुए हैं-
लिहाजा इस बात का अनुमान करना भी असंगत नहीं होगा कि घर में रस्सी-रस्सों
की जरूरत पड़ती ही रहती है। कुशारी-गृहिणी, जहाँ तक सम्भव है, हमारे ही
स्वागत के काम में अन्यत्र नियुक्त होंगी- घर-मालिक भी एक बार दर्शन देकर
अर्न्तध्यान हो गये थे; अब उन्होंने अकस्मात् व्यग्रता के साथ उपस्थित
होकर राजलक्ष्मी को लक्ष्य करके दूसरी तरह से अपनी अनुपस्थिति कैफियत देते
हुए कहा, ''बेटी अब जाऊँ, जप-आह्निक से छुट्टी पाकर इकट्ठा ही आकर
बैठूँगी।''
पन्द्रह-सोलह वर्ष का एक सुन्दर और सबलकाय लड़का ऑंगन के एक तरफ खड़ा-खड़ा
गम्भीर मनोयोग के साथ हमारी बातें सुन रहा था। कुशारी महाशय की उस पर निगाह
पड़ते ही वे कह उठे, ''बेटा हरी, नारायण का नैवेद्य शायद अब तक तैयार हो गया
होगा, एक बार जाकर भोग तो दे आओ बेटा। बाकी पूजा-आह्निक खतम करने में मुझे
देर न लगेगी।'' फिर मेरी तरफ देखकर बोले, ''आज झूठमूठ को आप लोगों को कष्ट
दिया- बड़ी अबेर हो गयी।'' कहते हुए, मेरे उत्तर की प्रतीक्षा बिना किये ही,
पलक मारने के साथ खुद ही अदृश्य हो गये।
अब यथासमय, अर्थात् यथासमय के बहुत देर बाद, हमारे मधयाह्न-भोजन के लिए
जगह ठीक करने की खबर आयी। जान में जान आयी। सिर्फ ज्यादा देर हो जाने के
कारण नहीं, बल्कि अब आगन्तुकों के प्रश्न-वाणों का अन्त समझकर ही सुख की
साँस ली। वे, भोजन की तैयारी होती देख, कम-से-कम कुछ देर के लिए, मुझे
छुटकारा देकर अपने-अपने घर चले गये। मगर खाने बैठा मैं अकेला ही। कुशारी
महाशय मेरे साथ न बैठे बल्कि सामने आकर बैठ गये। इसका कारण उन्होंने विनय
और गौरव के साथ स्वयं ही व्यक्त किया। उपवीत धारण करने के दिन से लेकर आज
तक भोजन-समय वे मौन ही रहते आए हैं, उस व्रत को आज तक भंग नहीं होने दिया;
लिहाजा इस काम को वे अब भी अकेले ही एकान्त कोठरी में सम्पन्न किया करते
हैं। मैंने भी कोई आपत्ति नहीं की। आज उसके भी कोई व्रत है और आज वह परान्न
ग्रहण न करेगी, तब भी मुझे आश्चर्य न हुआ, परन्तु इस छल के कारण मैं
मन-ही-मन क्षुब्ध हो उठा और इसकी क्या जरूरत थी, यह भी न समझ सका। परन्तु
राजलक्ष्मी ने मेरे मन की बात फौरन ताड़ते हुए कहा, ''इसके लिए तुम रंज मत
करो, अच्छी तरह खा लो। मैं आज नहीं खाऊँगी, ये लोग सभी जानते हैं।''
मैंने कहा, ''और, मैं ही नहीं जानता। लेकिन, अगर यही बात थी तो तकलीफ
उठाकर यहाँ तक आने की क्या जरूरत थी?''
इसका जवाब राजलक्ष्मी ने नहीं दिया, बल्कि कुशारी-गृहिणी ने दिया। वे
बोलीं, ''यह तकलीफ मैंने ही मन्जूर कारवाई है बेटा। ये यहाँ न खायँगी सो
मैं जानती थी; फिर भी जिनकी कृपा से हमारा पेट पलता है, उनके पाँवों की धूल
घर में पड़े, इस लोभ को मैं नहीं सँभाल सकी। क्यों बेटी, है न ठीक?'' यह
कहकर उन्होंने राजलक्ष्मी के मुँह की तरफ देखा। राजलक्ष्मी ने कहा, ''इसका
जवाब आज न दूँगी माँ, और किसी दिन दूँगी।'' यों कहकर वह हँसने लगी।
परन्तु मैं अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर कुशारी-गृहिणी के मुँह की ओर
देखने लगा। गँवई-गाँव में, खासकर ऐसे सुदूर गाँव में, किसी स्त्री के मुँह
से इस तरह की सहज-सुन्दर स्वाभाविक बातें सुनने की मैंने कल्पना भी न की
थी। और कभी स्वप्न में यह बात भी न सोची थी अब भी, इस गँवई-गाँव में भी,
इससे बढ़कर एक और बहुत आश्चर्य-जनक नारी का परिचय मिलना बाकी है। मेरे भोजन
परोसने का भार अपनी विधवा कन्या पर सौंपकर कुशारी-गृहिणी पंखा हाथ में लिये
मेरे सामने आकर बैठी थीं। शायद उमर में मुझसे बहुत बड़ी होने के कारण ही
माथे पर पल्ले के सिवा उनके मुँह पर किसी तरह का परदा नहीं था। वह सुन्दर
था या असुन्दर, मुझे कुछ मालूम नहीं, सिर्फ इतना ही मालूम हुआ कि वह साधारण
भारतीय माता के समान स्नेह और करुणा से परिपूर्ण था। दरवाजे के पास
कुशारीजी खड़े थे, बाहर से, उनकी लड़की ने पुकार कर कहा, ''बाबूजी, तुम्हारे
लिए थाली परोस दी है।'' अबेर बहुत हो चुकी थी, और इसी खबर के लिए ही शायद
वे साग्रह प्रतीक्षा कर रहे थे, फिर भी, एक बार बाहर और एक बार मेरी तरफ
देखते हुए बोले, ''अभी जरा ठहर जा बिटिया, इनको जीम लेने दे।''
गृहिणी ने उसी दम बाधा देते हुए कहा, ''नहीं, तुम जाओ, झूठमूठ को अन्न
मत बिगाड़ो। ठण्डा हो जाने पर तुम नहीं खा सकोगे, मैं जानती हूँ।''
कुशारीजी को संकोच हो रहा था, बोले, ''बिगड़ेगा क्या- ये जीम चुकें,
बस।''
गृहिणी ने कहा, ''मेरे रहते भी अगर खिलाने में कसर रह जायेगी तो
तुम्हारे खड़े रहने पर भी वह पूरी नहीं हो सकेगी। तुम जाओ- क्यों बेटा, ठीक
है न? यह कहती हुई वे मेरी ओर देखकर हँसीं। मैंने भी हँसते हुए कहा,
''बल्कि और कमी रह जायेगी। आप जाइए कुशारीजी, ऐसे भूखे खड़े देखते रहने से
दोनों में से किसी को भी फायदा न होगा।'' इस पर वे और कुछ न कहकर धीरे से
चले गये, परन्तु मालूम हुआ, वे सम्मानित अतिथि के भोजन के समय पास न रहने
के संकोच को साथ ही लेते गये। लेकिन, कुछ ही देर बाद मुझसे यह छिपा न रहा
कि वह मेरी जबरदस्त भूल थी। उनके चले जाने पर उनकी गृहिणी ने कहा,
''निरामिष अरवा चावल का भात खाते हैं; ठण्डा हो जाने पर फिर खा नहीं सकते,
इसी से जबरदस्ती भेज दिया है। लेकिन यह भी एक बात है बेटा, कि जो अन्नदाता
हैं, उनसे पहले अपने मुँह में अन्न देना बड़ा कठिन है।''
उनकी इस बात से मन-ही-मन मुझे शर्म मालूम होने लगी, मैंने कहा,
''अन्नदाता मैं नहीं हूँ। और, अगर यह सच भी हो, तो वह इतना कम है कि छूट
जाय तो शायद आपको मालूम भी न हो।''
कुशारी-गृहिणी कुछ देर तक चुप रहीं। मालूम हुआ कि उनका चेहरा धीरे-धीरे
अत्यन्त म्लान-सा हो गया। उसके बाद वे बोलीं, ''तुम्हारी बात बिल्कुल झूठ
नहीं बेटा, भगवान ने हमें कुछ कम नहीं दिया है, पर अब मालूम होता है कि
इतना अगर वे न भी देते तो, शायद, इससे उनकी ज्यादा दया ही प्रकट होती। घर
में यही तो एक विधवा लड़की है- क्या होगा हमारे इन भर-भर कोठी धानों का,
भर-कढ़ाई दूध और गुड़ की गागरों का? इन सबको भोगने वाले जो थे वे तो हमें
छोड़कर ही चले गये।''
बात ऐसी कोई विशेष नहीं थी, पर कहते-कहते ही उनकी ऑंखें डबाडबा आयीं और
ओंठ काँपने लगे। मैं समझ गया, उनके इन शब्दों में बहुत-सी गम्भीर वेदना
छिपी हुई है। सोचा, शायद इनके किसी योग्य लड़के की मृत्यु हो गयी है और जिस
लड़के को कुछ पहले देखा था, उसका अवलम्बन लेकर हताश्वास माता-पिता को कुछ
सान्त्वना नहीं मिल रही है। मैं चुप बना रहा, और राजलक्ष्मी भी कोई बात न
कहकर उनका हाथ अपने हाथों में लिये मेरी ही तरह चुपचाप बैठी रही। परन्तु,
हमारी भूल भंग हुई उनकी बाद की बातों से। उन्होंने अपने आपको संवरण करके
फिर कहा, ''पर हमारी तरह उनके भी तो तुम्हीं लोग अन्नदाता हो। इनसे कहा कि
मालिक से अपने दु:ख-कष्ट की बात कहने में कोई शरम की बात नहीं, अपने बेटे
और बहू को निमन्त्रण का बहाना करके एक बार घर ले आओ, मैं उनके सामने
रो-धोकर देखूँ, शायद वे उसका कुछ किनारा कर सकें।'' यह कहकर उन्होंने ऑंचल
उठाकर ऑंसूँ पोंछे। समस्या अत्यन्त जटिल हो उठी। राजलक्ष्मी के मुँह की ओर
देखा तो वह भी मेरी ही तरह संशय में पड़ी हुई दिखाई दी। परन्तु पहले की तरह
अब भी दोनों जनें मौन बने रहे। कुशारी-गृहिणी अब अपने दु:ख का इतिहास
धीरे-धीरे व्यक्त करने लगीं। अन्त तक सुनकर बहुत देर तक किसी के मुँह से
कोई बात न निकली; परन्तु इस विषय में कोई सन्देह न रहा कि इस बात के कहने
के लिए ठीक इतनी ही भूमिका की जरूरत थी। राजलक्ष्मी परान्न ग्रहण न करेगी,
यह सुनकर भी मधयाह्न-भोजन के निमन्त्रण से शुरू करके कुशारीजी को अन्यत्र
भेज देने की व्यवस्था तक कुछ भी बाद नहीं दिया जा सकता था। खैर, कुछ भी हो
कुशारी-गृहिणी ने अपने ऑंसू और अस्फुट वाक्यों में ठीक कितना व्यक्त किया
यह नहीं जानता, और एक पक्ष की बात सुनकर इस बात का भी निश्चय करना कठिन है
कि उसमें कितना सत्य है; परन्तु हमारी मध्यस्थता में जिस समस्या को हल
करने के लिए आज उन्होंने इस तरह सानुरोध निवेदन किया, वह जितनी
आश्चर्यकारिणी थी उतनी ही मधुर और कठोर भी।
कुशारी-गृहिणी ने जिस दु:ख का वर्णन किया, उसका कुछ सार यह है कि घर
में खाने-पहरने का काफी आराम होने पर भी उनके लिए घर-गृहस्थी ही सिर्फ
विषतुल्य हो गयी हो सो बात नहीं, बल्कि दुनिया के आगे उनके लिए मुँह दिखाना
भी दूभर हो गया है। और इन सब दु:खों की जड़ है उनकी एकमात्र देवरानी
सुनन्दा। यद्यपि उनके देवर युदनाथ न्यायरत्न ने भी उनके साथ कम शत्रुता
नहीं की है परन्तु असल मुकदमा है उसी देवरानी के विरुद्ध और वह विद्रोही
सुनन्दा और उसका पति जब कि फिलहाल हमारी ही रिआया हैं तब, हमें जिस तरह
बने, उन्हें काबू में लाना ही पड़ेगा। संक्षेप में बात इस तरह है- उनके ससुर
और सास का जब स्वर्गवास हुआ था, तब वे इस घर की बहू थीं। यदुनाथ तब सिर्फ
छै-सात साल का लड़का था। उस लड़के को पाल-पोसकर बड़ा करने का भार उन्हीं पर और
उस दिन तक वे उस भार को बराबर सँभालती आई हैं। पैतृक सम्पत्ति में था सिर्फ
एक मिट्टी का घर, दो-तीन बीघा धर्मादे की जमीन और कुछ जजमानों के घर। सिर्फ
इसी पर निर्भर रहके उनके पति को संसार समुद्र में तैरना पड़ा है। आज यह
बढ़वारी और सुख-स्वच्छन्दता दिख रही है, यह सब कुछ उनके पति के हाथ की ही
कमाई का फल है। देवरजी जरा भी किसी तरह का सहारा नहीं देते हैं, और न उनसे
किसी तरह के सहारे के लिए कभी प्रार्थना ही कि जाती है।
मैंने कहा, ''अब शायद वे बहुत ज्यादा का दावा करते हैं?''
कुशारी-गृहिणी ने गरदन हिलाते हुए कहा, ''दावा कैसे बेटा, यह सब कुछ
उसी का तो है। सब कुछ वही तो लेता, अगर सुनन्दा बीच में पड़कर मेरी सोने की
गृहस्थी मिट्टी में न मिला देती।''
मैं बात को ठीक से समझ न सका, मैंने आश्चर्य के साथ पूछा, ''पर आपका यह
लड़का...''
वे पहले कुछ समझ न सकीं, पीछे समझने पर बोलीं, ''उस विजय की बात कह रहे
हो? वह तो हमारा लड़का नहीं है बेटा, वह तो एक विद्यार्थी है। देवरजी के टोल
में¹ पढ़ता था, अब भी वहीं पढ़ता है, सिर्फ रहता हमारे यहाँ है।'' यों कहकर
वे विजय के सम्बन्ध में हमारी अज्ञानता को दूर करती हुई कहने लगीं, ''कितने
कष्ट से मैंने देवर को पाल-पोसकर आदमी बनाया सो एक सिर्फ भगवान ही जानते
हैं, और मुहल्ले के लोग भी कुछ-कुछ जानते हैं। पर खुद वह आज सब कुछ भूल
गया, सिर्फ हम लोग नहीं भूल सके हैं।'' इतना कहकर फिर उन्होंने ऑंखों के
किनारे पोंछते हुए कहा, ''पर उन सब बातों को जाने दो बेटा, बहुत-सी बातें
हैं। मैंने देवर का जनेऊ करवाया, इन्होंने पढ़ने के लिए उसे मिहिरपुर के
शिबू तर्कालंकार के टोल में भिजवाया। बेटा, लड़के को छोड़कर रहा नहीं गया तो
मैं खुद जाकर कितने दिन मिहिरपुर रह आई, सो भी आज उसे याद नहीं आता। जाने
दो, इस तरह कितने वर्ष बीत गये, कोई ठीक है भला। देवर की पढ़ाई पूरी हुई, वे
उसे गृहस्थ बनाने के लिए लड़की की तलाश में घूमा किये; इतने में, न कुछ कहना
न सुनना, अचानक एक दिन शिबू तर्कालंकार की लड़की सुनन्दा से ब्याह करके आप
बहू घर ले आया। मुझसे न कहा तो न सही, पर अपने भइया तक से कोई राय न ली।''
मैंने धीरे से पूछा, ''राय न लेने का क्या कोई खास कारण था?''
गृहिणी ने कहा, ''था क्यों नहीं। वे हमारे ठीक बराबरी के न थे, कुल,
शील और सम्मान में भी बहुत छोटे थे। इन्हें बहुत गुस्सा आया, दु:ख और लज्जा
के मारे शायद महीने-भर तो किसी से बातचीत तक नहीं की; पर मैं गुस्सा नहीं
हुई। सुनन्दा का मुँह देखकर मैं पहले से ही मानो पिघल-सी गयी। उस पर जब
सुना कि उसकी माँ मर गयी और बाप उसे देवर के हाथ सौंपकर खुद सन्यासी होकर
निकल गये हैं, तो उस नन्हीं-सी बहू को पाकर मुझे कितनी खुशी हुई सो मैं
मुँह की बातों से नहीं समझ सकती। पर वह किसी दिन इस तरह का बदला लेगी,
सो कौन जानता था।'' इतना कहकर सहसा वे सुपुक-सुपुककर रोने लगीं। समझ गया कि
वहीं पर व्यथा अत्यन्त तीव्र हो उठी है; मगर फिर भी चुप रहा। राजलक्ष्मी भी
अब तक कुछ नहीं बोली थी; उसने धीरे से पूछा, ''अब वे कहाँ रहते हैं?''
¹ पुराने ढंग की संस्कृत की घरेलू पाठशाला।
जवाब में उन्होंने गरदन हिलाकर जो कुछ व्यक्त किया, उससे समझ में आया
कि अब तक वे इसी गाँव में बने हुए हैं! इसके बाद फिर बहुत देर तक कोई
बातचीत नहीं हुई, उनके स्वस्थ होने में जरा ज्यादा समय लग गया। परन्तु असली
चीज तो हम लोग अभी तक ठीक तौर से समझ ही न सके। उधर मेरा खाना भी करीब-करीब
खत्म हो आया था, कारण रोना-धोना चलते रहने पर तो इस विषय में कोई विशेष
विघ्न नहीं हुआ। सहसा वे ऑंखें पोंछकर सीधी होकर बैठीं और मेरी थाली की तरफ
देखकर अनुतप्त कण्ठ से कह उठीं, ''रहने दो बेटा, सारे दु:खों की कहानी
सुनाने लगूँ तो खतम भी न होगी, और तुम लोगों से धीरज के साथ सुनते भी न
बनेगा। मेरी सोने की गृहस्थी जिन लोगों ने ऑंखों से देखी है, सिर्फ वे ही
जानते हैं कि छोटी बहू मेरा कैसा सत्यनाश कर गयी है। सिर्फ उसी लंकाकाण्ड
को संक्षेप में तुम लोगों से कहूँगी।'' इसके बाद वे कहने लगीं-
''जिस जायदाद पर हमारा सब कुछ निर्भर है वह किसी जमाने में एक जुलाहे
की थी। सालभर पहले अचानक एक दिन सबेरे उसकी विधवा स्त्री अपने नाबालिग लड़के
को साथ लेकर हमारे घर आ धमकी। गुस्से में न जाने क्या-क्या कह गयी, जिसका
कोई ठीक नहीं। हो सकता है कि उसका कुछ भी सच न हो या सब कुछ झूठ ही हो-
छोटी बहू नहाकर जा रही थी रसोईघर में उसकी बातें सुनकर उसे तो जैसे काठ मार
गया। उसके चले जाने पर भी बहू का वह भाव दूर न हुआ। मैंने बुलाकर कहा,
''सुनन्दा, खड़ी क्यों हैं, अबेर नहीं हो रही है?'' पर, जवाब के लिए उसके
मुँह की तरफ देखकर मुझे डर-सा लगने लगा। उसकी ऑंखों की चितवन में न जाने
कैसी आग-सी चिनगारियाँ निकल रही थीं। उसका साँवला चेहरा एकदम फक पड़ गया-
बिल्कुल सफेद। जुलाहे की बहू की एक-एक बात ने मानो उसके सारे शरीर से
एक-एक बूँद खून सोख लिया। उसने उस वक्त कोई जवाब नहीं दिया। वह धीरे-से
मेरे पास आकर बैठ गयी और फिर बोली, ''जीजी, जुलाहे की बहू को उसके मालिक की
जायदाद तुम वापस न कर दोगी? उसके नन्हें-से नाबालिग बच्चे को तुम उसकी सारी
सम्पत्ति से वंचित रखकर जिन्दगी-भर के लिए राह का भिखारी बना दोगी?''
''मैं तो दंग रह गयी, मैंने कहा, ''सुनो इसकी बातें जरा। कन्हाई बसाक
की सारी जायदाद कर्ज के मारे बिक जाने पर, इन्होंने उसे खरीद लिया है। भला,
अपनी खरीदी हुई जायदाद को कौन किसी गैर के लिए छोड़ देता है छोटी बहू?''
छोटी बहू ने कहा, ''पर जेठजी के पास इतना रुपया आया कहाँ से?''
''मैंने गुस्से से आकर कह दिया, ''सो पूछ जाकर अपने जेठजी से-
जिन्होंने जायदाद खरीदी है।'' यह कहकर मैं पूजा-आह्निक करने चली गयी।''
राजलक्ष्मी ने कहा, ''बात तो ठीक है। जो जायदाद नीलाम पर चढ़कर नीलाम हो
चुकी, उसे फेर देने के लिए छोटी बहू कह कैसे सकती थी?''
कुशारी-गृहिणी ने कहा, ''बताओ तो बेटी!''
परन्तु यह कहते हुए भी उनके चेहरे पर लज्जा की मानो एक काली छाया-सी
पड़ गयी। बोलीं, ''लेकिन, ठीक नीलाम होकर नहीं बिकी थी न, इसी से। हम लोग थे
उसके पुरोहित वंश के। कन्हाई बसाक मरते समय इन्हीं पर सब भार दे गया था। पर
तब तो यह जानते न थे कि वह अपने पीछे दुनिया-भर का कर्जा भी छोड़ गया है।''
उसकी बात सुनकर राजलक्ष्मी और मैं दोनों ही एकाएक मानो स्तब्ध-से हो
गये। न जाने कैसी एक गन्दी चीज ने मेरे मन के भीतरी भाग को मलिन कर डाला।
कुशारी-गृहिणी शायद इस बात को ताड़ न सकीं। बोलीं, ''जप-आह्निक सब खतम करके
दो-ढाई घण्टे बाद आकर देखती हूँ तो सुनन्दा वहीं ठीक उसी तरह स्थिर होकर
बैठी है। उसने कहीं को एक पैर तक नहीं बढ़ाया है। वे कचहरी का काम निबटाकर आ
ही रहे होंगे, देवर बिनू को लेकर मेला देखने गये थे, उनके लौटने में भी देर
नहीं थी, विजय नहाने गया था, अभी तुरन्त आकर पूजा करने बैठेगा- अब तो मेरे
गुस्से की सीमा न रही, मैंने कहा, ''तू क्या रसोई में आज घुसेगी ही नहीं?
उस बदमाश जुलाहे की बहू की गढ़ी-गुढ़ी बातें ही बैठी सोचती रहेगी?''
''सुनन्दा ने मुँह उठाकर कहा, ''नहीं जीजी, वह जायदाद अपनी नहीं है।
उसे अगर तुम न लौटा दोगी तो मैं अब रसोई में घुसूँगी ही नहीं। उस नाबालिग
लड़के के मुँह का कौर छीनकर अपने पति-पुत्र को भी न खिला सकूंगी, और ठाकुरजी
का भोग भी मुझसे न बनाया जायेगा।'' यह कहकर वह अपनी कोठरी में चली गयी।
सुनन्दा को मैं पहिचानती थी। यह भी जानती थी कि वह झूठ नहीं बोलती, और उसने
अपने अध्यापक सन्यासी बाप के पास रहकर बचपन से ही बहुत-से शास्त्र पढ़े
हैं; पर वह औरत होकर ऐसी पत्थर की तरह कठोर होगी, तो मैं तब तक न जानती थी।
मैं झटपट रसोई बनाने में लग गयी। मर्द जब घर लौटे, तो उनके खाते समस
सुनन्दा दरवाजे के पास आकर खड़ी हो गयी। मैंने दूर से हाथ जोड़कर कहा,
''सुनन्दा, जरा क्षमा कर उनका खाना हो जाने दे।'' पर उसने जरा-सा भी अनुरोध
नहीं माना। कुल्ला करके खाने बैठ ही रहे थे कि पूछ बैठी, ''जुलाहे की
जायदाद क्या आपने रुपये देकर खरीदी है? यह तो आप ही लोगों के मुँह से बहुत
बार सुना है कि बाबूजी तो कुछ छोड़ नहीं गये थे, फिर इतने रुपये मिले कहाँ
से?''
जो कभी बात नहीं करती थी, उसके मुँह से यह प्रश्न सुनकर वे तो एकदम
हत-बुद्धि हो गये, उसके बाद बोले, ''इन बस बातों के मानी क्या बेटी?''
''सुनन्दा ने कहा, ''इसके मानी अगर कोई जानता है तो आप जानते हैं। आज
जुलाहे की बहू अपने लड़के को लेकर आई थी, उसकी सब बातों को आपके सामने
दुहराना व्यर्थ है- आपसे कोई बात छिपी नहीं है। यह जायदाद जिसकी है उसे अगर
आप वापस नहीं देंगे, तो, मैं जीते-जी इस महापाप के अन्न का एक दाना भी अपने
पति-पुत्र को न खिला सकूँगी।''
''मुझे तो ऐसा मालूम हुआ बेटा, कि या तो मैं सपना देख रही हूँ या
सुनन्दा पर भूत सवार हो गया है। जिन जेठजी की वह देवता की तरह भक्ति करती
है, उन्हीं से ऐसी बात! वे भी कुछ देर तक बिजली के मारे-से बैठे रहे; उसके
बाद जल-भुनकर बोले, ''जायदाद पाप की हो या पुण्य की, वह मेरी है; तुम्हारे
पति-पुत्र की नहीं। तुम्हें न रुचे तो तुम लोग और कहीं जाकर रह सकते हो! पर
बहू, अब तक तो मैं तुम्हें सर्वगुणमयी समझता था, ऐसा कभी नहीं सोचा था।''
इतना कहकर वे थाली छोड़कर चले गये। उस दिन, फिर दिनभर किसी के मुँह से
दाना-पानी नहीं गया। रोती हुई मैं देवर के पास पहुँची; बोली, ''लालाजी
तुम्हें तो मैंने गोद में लेकर पाला-पोसा है- उसका तुम यह बदला चुका रहे
हो!'' लालाजी की ऑंखों में ऑंसू डबडबा आए, बोले, ''भाभी, तुम्हीं मेरी माँ
हो, और भइया भी मेरे लिए पिता के समान हैं। पर तुम लोगों से भी एक बड़ी चीज
है और वह है धर्म। मेरा विश्वास है कि सुनन्दा ने एक भी बात अनुचित नहीं
कही है। साहजी ने सन्यास लेते समय उसे आशीर्वाद देते हुए कहा था कि बेटी,
धर्म को अगर सचमुच चाहती हो, तो वही तुम्हें राह दिखाता हुआ ले जायेगा। मैं
उसे इतनी-सी उमर से पहचानता हूँ भाभी, उसने हरगिज गलती नहीं की।''
''हाय री जली तकदीर! उसे भी कलमुँही ने भीतर भीतर इतना बस कर रक्खा था!
अब मेरी ऑंखें खुलीं। उस दिन भादों की सँकराँत थी, आकाश में बादल उमड़ रहे
थे, रह-रहकर झरझर पानी बरस रहा था, मगर अभागी ने एक रात के लिए भी मेरी बात
न रक्खी, लड़के का हाथ पकड़कर घर से निकल गयी। मेरे ससुर के जमाने की एक
रिआया थी जिसे मरे आज दो साल हो गये, उसी के टूटे-फूटे खण्डहर घर में एक
कोठरी किसी तरह खडी थी; सियार, कुत्ते, साँप-मेंढकों के साथ जाकर, ऐसे बुरे
दिनों में, वह उसी में रहने लगी। मैंने ऑंगन के बीच मिट्टी-पानी में लोटते
हुए रो-रोकर कहा, ''सत्यानासिन, यही अगर तेरे मन में थी, तो इस घर में तू
आई ही क्यों थी? बिनू तक को ले आई, तूने क्या ससुर-कुल का नाम तक दुनिया से
मिटा देने की प्रतिक्षा की है?'' मगर उसने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने फिर
कहा, ''खायगी क्या?'' जवाब मिला, ''ससुरजी जो तीन बीघा ब्रह्मोत्तर जमीन
छोड़ गये हैं, उसमें से आधी हमारी है।'' उसकी बात सुनकर मेरी तो तबीयत हुई
कि सिर पटककर मर जाऊँ। मैंने कहा, ''अभागी, उससे तो एक दिन की भी गुजर न
होगी। तुम लोग माना, कि बिना खाये ही मर सकते हो, पर मेरा बिनू?'' बोली,
''एक बार कन्हाई बसाक के लड़के के बारे में तो सोच देखो जीजी। उसकी तरह एक
छाक खाकर भी अगर बिनू जिन्दा रहे तो बहुत है।''
''आखिर वे चले गये। सारा घर मानो हाहाकार करके रोने लगा। उस रात को न
तो घर में बत्ती जली न चूल्हा सुलगा; उन्होंने बहुत रात बीते घर लौटकर सारी
रात उसी खूँटी के सहारे बैठे बिता दी। शायद बिनू मेरा न सोया होगा; शायद
बच्चा मेरा भूख के मारे तड़फड़ाता होगा; सो सबेरा होते ही राखाल के हाथ गाय
और बछिया भिजवा दी, पर उस राक्षसी ने लौटा दी और कहला भेजा, ''बिनू को मैं
दूध नहीं पिलाना चाहती, उसे बिना दूध के ही जिन्दा रहने की शिक्षा देना
चाहती हूँ।''
राजलक्ष्मी के मुँह से सिर्फ एक गहरी साँस निकली। गृहिणी की उस दिन की
सारी वेदना और अपमान की स्मृति ने उबलकर उसका कण्ठ रोक दिया, और मेरे हाथ
का दाल-भात सूखकर बिल्कुल खाल-सा हो गया। कुशारीजी की खड़ाऊँ की आवाज सुनाई
दी-उनका मधयाह्न-भोजन समाप्त हो गया था। मुझे आशा है कि उनके मौन-व्रत ने
अक्षुण्ण अटूट रहकर उनके सात्विक आहार में किसी तरह का विघ्न उपस्थित नहीं
किया होगा। मगर, इधर की बात जानते थे, इस कारण ही शायद वे हमारी खोज लेने
के लिए नहीं आये। गृहिणी ने ऑंखें पोंछकर, नाक और गला साफ करते हुए कहा,
''उसके बाद गाँव-गाँव में, मुहल्ले-मुहल्ले में, लोगों के मुँह कितनी
बदनामी और कितनी फजीहत हुई बेटा, सो तुम्हें क्या बताऊँ! उन्होंने कहा,
''दो-चार दिन जाने दो तकलीफों के मारे आप ही लौट आएगी।'' मैंने कहा, ''उसे
पहचानते नहीं हो तुम, टूट जायेगी पर नबेगी नहीं।'' और हुआ भी वही। एक के
बाद एक आज आठ महीने बीत गये पर उसे न नबा सके। वे मारे फिकर के छिप-छिपकर
रोते-रोते सूख के लकड़ी होने लगे। बच्चा उनको प्राणों से भी बढ़कर था और
देवरजी को तो लड़के से भी ज्यादा प्यार करते थे। फिर सहा न गया तो आखिर
लोगों के मुँह से कहलवाया कि जुलाहे की बहू का इन्तजाम किये देता हूँ जिससे
उन लोगों को तकलीफ न हो। पर उस सत्यानासिन ने जवाब दिया कि ''उनका जो कुछ
न्यायत: पावना है, सबका सब जब दे देंगे, तभी घर में घुसूँगी। उसका एक
रत्ती-भर भी बाकी रहेगा, तो नहीं।'' यानी इसके मानो यह हुए कि हम अपनी
निश्चित मौत बुला लें।''
मैंने गिलास के पानी में हाथ डुबोते हुए पूछा, ''अब उनकी गुजर कैसे
होती है?''
कुशारी-पत्नी ने कातर होकर कहा, ''इसका जवाब मुझसे न पूछो बेटा, इसका
जिकर कोई छेड़ता है तो कानों में अंगुली देकर भाग जाती हूँ- ऐसा मालूम होता
है जैसे दम घुट रहा हो। इन आठ महीनों में इस घर में मछली तक नहीं आई,
दूध-घी की कढ़ाई तक नहीं चढ़ी। सारे ही घर पर मानो वह मर्मान्तिक अभिशाप रख
के चली गयी है।'' यह कहकर वे चुप हो गयीं, और बहुत देर तक हम तीनों जनें
स्तब्ध होकर नीरव बैठे रहे।
घण्टे-भर बाद जब हम गाड़ी पर सवार हुए तो कुशारी-गृहिणी ने सजल कण्ठ से
राजलक्ष्मी के कान में कहा, ''बेटी, वे तुम्हारी ही रिआया हैं। मेरे ससुर
की छोड़ी हुई जमीन पर ही उनकी गुजर होती है, वह तुम्हारे ही गाँव में है-
गंगामाटी में।''
राजलक्ष्मी ने सिर हिलाकर कहा, ''अच्छा।''
गाड़ी चल देने पर उन्होंने फिर कहा, ''बेटी, तुम्हारे घर से ही दिखाई
देता है उनका घर। नाले के इधर जो टूटा-फूटा घर दिखाई देता है, वही।''
राजलक्ष्मी ने उसी तरह फिर गरदन हिलाकर कहा, ''अच्छी बात है।''
गाड़ी धीमी चाल से आगे बढ़ने लगी। बहुत देर तक मैंने कोई बात नहीं की।
राजलक्ष्मी की ओर देखा तो जान पड़ा वह अन्यमनस्क होकर कुछ सोच रही है। उसका
ध्यान भंग करते हुए मैंने कहा, ''लक्ष्मी, जिसके लोभ नहीं, जो कुछ चाहता
नहीं, उसे सहायता करने जाना- इससे बढ़कर संसार में और कोई विडम्बना नहीं।''
राजलक्ष्मी ने मेरे मुँह की ओर देखकर कुछ मुसकराते हुए कहा, ''सो मैं
जानती हूँ। तुमसे मैंने और कुछ लिया हो न लिया हो, इस बात की शिक्षा अवश्य
ले ली है।''
|