Charlie
Chaplain
मेरी आत्म कथा
चार्ली चैप्लिन
अनुवाद : सूरज प्रकाश
समर्पित
- ऊना को
अनुवादक की बात
चार्ली चैप्लिन होने का मतलब
फ्रैंक हैरीज़, चार्ली चैप्लिन के समकालीन लेखक और पत्रकार ने अपनी किताब
चार्ली चैप्लिन को भेजते उस पर निम्नलिखित पंक्तियां लिखी थीं:
चार्ली चैप्लिन को
उन कुछ व्यक्तियों में से एक जिन्होंने बिना परिचय के भी मेरी सहायता की
थी, एक ऐसे शख्स, हास्य में जिनकी दुर्लभ कलात्मकता की मैंने हमेशा सराहना
की है, क्योंकि लोगों को हँसाने वाले व्यक्ति लोगों को रुलाने वाले
व्यक्तियों से श्रेष्ठ होते हैं।
चार्ली चैप्लिन ने आजीवन हँसाने का काम किया। दुनिया भर के लिए। बिना किसी
भेद भाव के। उन्होंने राजाओं को भी हँसाया और रंक को भी हँसाया। उन्होंने
चालीस बरस तक अमेरिका में रहते हुए पूरे विश्व के लिए भरपूर हँसी बिखेरी।
उन्होंने अपने बटलर को भी हँसाया, और सुदूर चीन के प्रधान मंत्री चाऊ एन
लाइ भी इस बात के लिए विवश हुए कि विश्व शांति के, जीवन मरण के प्रश्न पर
मसले पर हो रही विश्व नेताओं की बैठक से पहले से वे खास तौर पर मंगवा कर
चार्ली चैप्लिन की फिल्म देखें और चार्ली के इंतज़ार में अपने घर की
सीढ़ियों पर खड़े रहें।
चार्ली ने अधिकांश मूक फिल्में बनायीं और जीवन भर बेज़ुबान ट्रैम्प के
चरित्र को साकार करते रहे, लेकिन इस ट्रैम्प ने अपनी मूक वाणी से दुनिया भर
के करोड़ों लोगों से बरसों बरस संवाद बनाये रखा और न केवल अपने मन की बात
उन तक पहुंचायी, बल्कि लोगों की जीवन शैली भी बदली। चार्ली ने ब्लैक एंड
व्हाइट फिल्में बनायीं लेकिन उन्होंने सबकी ज़िंदगी में इतने रंग भरे कि
यकीन नहीं होता कि एक अकेला व्यक्ति ऐसा कैसे कर सकता है। लेकिन चार्ली ने
ये काम किया और बखूबी किया।
दोनों विश्व युद्धों के दौरान जब चारों तरफ भीषण मार काट मची हुई थी और दूर
दूर तक कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, न नेता, न राजा, न पीर, न फकीर, जो
लाखों घायलों के जख्मों पर मरहम लगाता या, जिनके बेटे बेहतर जीवन के नाम
पर, इन्सानियत के नाम पर युद्ध की आग में झोंक दिये गये थे, उनके परिवारों
को दिलासा दे पाता, ऐसे वक्त में हमारे सामने एक छोटे से कद का आदमी आता
है, जिसके चेहरे पर गज़ब की मासूमियत है, आँखों में हैरानी है, जिसके अपने
सीने में जलन और आंखों में तूफान है, और वह सबके होंठों पर मुस्कान लाने का
काम करता है। 'इस आदमी के व्यक्तित्व के कई पहलु हैं। वह घुमक्कड़, मस्त
मौला है, भला आदमी है, कवि है, स्वप्नजीवी है, अकेला जीव है, हमेशा रोमांस
और रोमांच की उम्मीदें लगाये रहता है। वह तुम्हें इस बात की यकीन दिला देगा
कि वह वैज्ञानिक है, संगीतज्ञ है, ड्यूक है, पोलो खिलाड़ी है, अलबत्ता, वह
सड़क पर से सिगरेटें उठा कर पीने वाले और किसी बच्चे से उसकी टॉफी छीन लेने
वाले से ज्यादा कुछ नहीं। और हाँ, यदि मौका आये तो वह किसी भली औरत को उसके
पिछवाड़े लात भी जमा सकता है, लेकिन बेइंतहा गुस्से में ही।' वह यह काम
अपने अकेले के बलबूते पर करता है। वह सबको हँसाता है और रुलाता भी है। 'हम
हँसे, कई बार दिल खोल कर और हम रोये, असली आँसुओं के साथ - आपके आँसुओं के
साथ, क्योंकि आप ही ने हमें आँसुओं का कीमती उपहार दिया है।'
चार्ली जीनियस थे, सही मायने में जीनियस। 'जीनियस शब्द को तभी उसका सही
अर्थ मिलता है जब इसे किसी ऐसे व्यक्ति के साथ जोड़ा जाता है जो न केवल
उत्कृष्ट कॉमेडियन है बल्कि एक लेखक, संगीतकार, निर्माता है और सबसे बड़ी
बात, उस व्यक्ति में ऊष्मा्, उदारता और महानता है। आप में ये सारे गुण वास
करते हैं और इससे बड़ी बात, कि आप में वह सादगी है जिससे आपका कद और ऊंचा
होता है और एक गरमाहट भरी सहज अपील के दर्शन होते हैं जिसमें न तो कोई
हिसाबी गणना होती है और न ही कोई प्रयास ही आप इसके लिए करते हैं और इनसे
आप सीधे इन्सान के दिल में प्रवेश करते हैं। इन्सान, जो आप ही की तरह
मुसीबतों का मारा है।'
लेकिन चार्ली को ये बाना धारण करने में, करोड़ों लोगों के चेहरे पर हँसी
लाने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़े। भयंकर हताशाओं के, अकेलेपन के दौर उनके
जीवन में आये, पारिवारिक और राजनैतिक मोर्चों पर एक के बाद एक मुसीबत उनके
सामने आयीं लेकिन चार्ली कभी डिगे नहीं। उन्हें अपने आप पर विश्वास था,
अपनी कला की ईमानदारी, अपनी अथिभव्यक्ति की सच्चाई पर विश्वास था और सबसे
बड़ी बात उनकी नीयत साफ थी और वे अपने आप पर भरोसा करते थे।
उनका पूरा जीवन उतार-चढ़ावों से भरा रहा। बदकिस्मती एक के बाद एक अपनी
पोटलियां खोल कर उनके इम्तिहान लेती रही। जब वे बारह बरस के ही थे तो उनके
पिता की मृत्यु हो गयी थी। मात्र सैंतीस बरस की उम्र में। बहुत अधिक शराब
पीने के कारण। हालांकि वे लिखते हैं कि मैं पिता को बहुत ही कम जानता था और
मुझे इस बात की बिल्कुल भी याद नहीं थी कि वे कभी हमारे साथ रहे हों। उनके
पिता और मां में नहीं बनती थी इसलिए चार्ली ने अपना बचपन मां की छत्र छाया
में ही बिताया। चार्ली के माता पिता, दोनों ही मंच के कलाकार थे लेकिन ये
उसकी (मां की) आवाज़ के खराब होते चले जाने के कारण ही था कि मुझे पांच बरस
की उम्र में पहली बार स्टेज पर उतरना पड़ा। उस रात मैं अपनी ज़िंदगी में
पहली बार स्टेज पर उतरा था और मां आखिरी बार। वे अपनी पहली मंच प्रस्तुति
से ही सबके चहेते बन गये और फिर उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 'अभी
मैंने आधा ही गीत गाया था कि स्टेज पर सिक्कों की बरसात होने लगी। मैंने
तत्काल घोषणा कर दी कि मैं पहले पैसे बटोरूंगा और उसके बाद ही गाना गाऊंगा।
इस बात पर और अधिक ठहाके लगे। स्टेज मैनेजर एक रुमाल ले कर स्टेज पर आया और
सिक्के बटोरने में मेरी मदद करने लगा। मुझे लगा कि वो सिक्के अपने पास रखना
चाहता है। मैंने ये बात दर्शकों तक पहुंचा दी तो ठहाकों का जो दौरा पड़ा वो
थमने का नाम ही न ले। खास तौर पर तब जब वह रुमाल लिये-लिये विंग्स में जाने
लगा और मैं चिंतातुर उसके पीछे-पीछे लपका। जब तक उसने सिक्कों की वो पोटली
मेरी मां को नहीं थमा दी, मैं स्टेज पर वापिस गाने के लिए नहीं आया। अब मैं
बिल्कुल सहज था। मैं दर्शकों से बातें करता रहा, मैं नाचा और मैंने तरह-तरह
की नकल करके दिखायी। मैंने मां के आयरिश मार्च थीम की भी नकल करके बतायी।'
चार्ली का बचपन बेहद गरीबी में गुज़रा। 'वे लोग, जो रविवार की शाम घर पर
डिनर के लिए नहीं बैठ पाते थे, उन्हें भिखमंगे वर्ग का माना जाता था और हम
उसी वर्ग में आते थे।' पिता के मरने और मां के पागल हो जाने और कोई स्थायी
आधार न होने के कारण चार्ली को पूरा बचपन अभावों में गुज़ारना पड़ा और यतीम
खानों में रहना पड़ा। 'हमारा वक्त खराब चल रहा था और हम गिरजा घरों की
खैरात पर पल रहे थे।' मां पागल खाने में और भाई सिडनी अपनी नौकरी पर जहाज
में, चार्ली को डर रहता कि कहीं उसे फिर से यतीम खाने न भेज दिया जाये, वह
सारा सारा दिन मकान मालकिन की निगाहों से बचने के लिए सड़कों पर मारे मारे
फिरते,'मैं लैम्बेथ वॉक पर और दूसरी सड़कों पर भूखा-प्यासा केक की दुकानों
की खिड़कियां में झांकता चलता रहा और गाय और सूअर के मांस के गरमा-गरम
स्वादिष्ट लजीज पकवानों को और शोरबे में डूबे गुलाबी लाल आलुओं को देख-देख
कर मेरे मुंह में पानी आता रहा।'
चार्ली को चलना और बोलना सीखने से पहले पहले गाना और नाचना सिखाया गया था
और यही वज़ह रही कि वे पांच बरस में मंच पर उतर गये थे और इससे भी बड़ी बात
कि सात बरस की उम्र में वे नृत्य के लैसन दिया करते थे और इस तरह से होने
वाली कमाई से घर चलाने में मां का हाथ बंटाते थे। बेशक हम समाज के जिस
निम्नतर स्तर के जीवन में रहने को मज़बूर थे वहां ये सहज स्वाभाविक था कि
हम अपनी भाषा-शैली के स्तर के प्रति लापरवाह होते चले जाते लेकिन मां हमेशा
अपने परिवेश से बाहर ही खड़ी हमें समझाती और हमारे बात करने के ढंग,
उच्चारण पर ध्यान देती रहती, हमारा व्याकरण सुधारती रहती और हमें यह महसूस
कराती रहती कि हम खास हैं।
चार्ली की स्कूली पढ़ाई आधी अधूरी रही। देखा जाये तो वे औपचारिक रूप से दो
बरस ही स्कूल जा पाये और बाकी पढ़ाई अनाथ आश्रमों के स्कूलों में या
इंगलैंड के प्रदेशों में नाटक मंडली के साथ शो करते हुए एक एक हफ्ते के लिए
अलग अलग शहरों के स्कूलों में करते रहे। चार्ली ने नियमित रूप से आठ बरस की
उम्र में ही एट लंकाशयर लैड्स मंडली में बाल कलाकार के रूप में काम करना
शुरू कर दिया था और बारह बरस की उम्र तक आते आते वे इंगलैंड के सर्वाधिक
चर्चित बाल कलाकार बन चुके थे और जीवन की असली पाठशाला में अपनी पढ़ाई कर
रहे थे, फिर भी स्कूली पढ़ाई ने उन्हें जो कुछ सिखाया, उसके बारे में वे
लिखते हैं: काश, किसी ने कारोबारी दिमाग इस्तेमाल किया होता, प्रत्येक
अध्ययन की उत्तेजनापूर्ण प्रस्तावना पढ़ी होती जिसने मेरा दिमाग झकझोरा
होता, तथ्यों के बजाये मुझ में रुचि पैदा की होती, अंकों की कलाबाजी से
मुझे आनंदित किया होता, नक्शों के प्रति रोमांच पैदा किया होता, इतिहास के
बारे में मेरी दृष्टिकोण विकसित किया होता, मुझे कविता की लय और धुन को
भीतर उतारने के मौके दिये होते तो मैं भी आज विद्वान बन सकता था।
मात्र आठ बरस की उम्र में उन्हें जिन संकटों का सामना करना पड़ा, उससे कोई
भी दूसरा बच्चा बिल्कुल टूट ही जाता। चार्ली काम धंधे की तलाश में गलियों
में मारे मारे फिरते: उस वक्त मैं आठ बरस का भी नहीं हुआ था लेकिन वे दिन
मेरी ज़िन्दगी के सबसे लम्बे और उदासी भरे दिन थे।
ऐसे में भी चार्ली ने कभी हिम्मत नहीं हारी क्योंकि लक्ष्य उनके सामने था
कि उन्हें जो भी करना है, थियेटर में ही करना है। उन्होंने बीसियों धंधे
किये: मुझमें धंधा करने की जबरदस्त समझ थी। मैं हमेशा कारोबार करने की
नयी-नयी योजनाएं बनाने में उलझा रहता। मैं खाली दुकानों की तरफ देखता,
सोचता, इनमें पैसा पीटने का कौन सा धंधा किया जा सकता है। ये सोचना मछली
बेचने, चिप्स बेचने से ले कर पंसारी की दुकान खोलने तक होता। हमेशा जो भी
योजना बनती, उसमे खाना ज़रूर होता। मुझे बस पूंजी की ही ज़रूरत होती लेकिन
पूंजी ही की समस्या थी कि कहां से आये। आखिर मैंने मां से कहा कि वह मेरा
स्कूल छुड़वा दे और काम तलाशने दे।
मैंने बहुत धंधे किये। मैंने अखबार बेचे, प्रिंटर का काम किया, खिलौने
बनाए, ग्लास ब्लोअर का काम किया, डॉक्टर के यहाँ काम किया लेकिन इन तरह-तरह
के धंधों को करते हुए मैने सिडनी की तरह इस लक्ष्य से कभी भी निगाह नहीं
हटायी कि मुझे अंतत: अभिनेता बनना है, इसलिए अलग-अलग कामों के बीच अपने
जूते चमकाता, अपने कपड़ों पर ब्रश फेरता, साफ कॉलर लगाता और स्ट्रैंड के
पास बेड फोर्ड स्ट्रीट में ब्लैक मोर थिएटर एजेन्सी में बीच-बीच में चक्कर
काटता। मैं तब तक वहाँ चक्कर लगाता रहा जब तक मेरे कपड़ों की हालत ने मुझे
वहाँ और जाने से बिलकुल ही रोक नहीं दिया।
चार्ली चैप्लिन ने बचपन में नाई की दुकान पर भी काम किया था लेकिन इस आत्म
कथा में उन्होंने इसका कोई ज़िक्र नहीं किया है। इस काम का उन्हें ये फायदा
हुआ कि वे अपनी महान फिल्म द ग्रेट थिडक्टेटर में यहूदी नाई का चरित्र
बखूबी निभा सके।
जब उन्हें पहली बार नाटक में काम करने के लिए विधिवत काम मिला तो वे जैसे
सातवें आसमान पर थे, 'मैं खुशी के मारे पागल होता हुआ बस में घर पहुंचा और
दिल की गहराइयों से यह महसूस करने लगा कि मेरे साथ क्या हो गया है। मैंने
अचानक ही गरीबी की अपनी ज़िंदगी पीछे छोड़ दी थी और अपना बहुत पुराना सपना
पूरा करने जा रहा था। ये सपना जिसके बारे में अक्सर मां ने बातें की थीं और
उसे मैं पूरा करने जा रहा था। अब मैं अभिनेता होने जा रहा था। मैं अपनी
भूमिका के पन्नों को सहलाता रहा। इस पर नया खाकी लिफाफा था। यह मेरी अब तक
की ज़िंदगी का सबसे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज था। बस की यात्रा के दौरान मैंने
महसूस किया कि मैंने एक बहुत बड़ा किला फतह कर लिया है। अब मैं झोपड़ पट्टी
में रहने वाला नामालूम सा छोकरा नहीं था। अब मैं थिएटर का एक खास आदमी होने
जा रहा था। मेरा मन किया कि मैं रो पडूं।
और इस भूमिका के लिए उन्होंने खूब मेहनत की और अपने चरित्र के साथ पूरी तरह
से न्याय किया। वे लगातार दर्शकों के चहेते बनते गये। एक मज़ेदार बात ये
हुई कि वे अपनी ज़िंदगी का पहला करार करने जा रहे थे लेकिन उन्हें लग रहा
था कि जितना मिल रहा है, वे उससे ज्यादा के हकदार हैं और वहां वे अपनी
व्यावसायिक बनिया बुद्धि का एक नमूना दिखा ही आये थे, 'हालांकि यह राशि
मेरे लिए छप्पर फाड़ लॉटरी खुलने जैसी थी फिर भी मैंने यह बात अपने चेहरे
पर नहीं झलकने दी। मैंने निम्रता से कहा, 'शर्तों के बारे में मैं अपने भाई
से सलाह लेना चाहूंगा।'
उन्नीस बरस की उम्र तक आते आते वे इंगलिश थियेटर में अपनी जगह बना चुके थे
लेकिन अपने आपको अकेला महसूस करते। वे बरसों से अकेले ही रहते आये थे।
प्यार ने उनकी ज़िदंगी में बहुत देर से दस्तक दी थी लेकिन वे अपनी अकड़ के
चलते वहां भी अपने पत्ते फेंक आये थे। हालांकि अपने पहले प्यार को वे लम्बे
अरसे तक भुला नहीं पाये। 'सोलह बरस की उम्र में रोमांस के बारे में मेरे
ख्यालों को प्रेरणा दी थी एक थियेटर के पोस्टर ने जिसमें खड़ी चट्टान पर
खड़ी एक लड़की के बाल हवा में उड़े जा रहे थे। मैं कल्पना करता कि मैं उसके
साथ गोल्फ खेल रहा हूं।
यही मेरे लिए रोमांस था। लेकिन कम उम्र का प्यार तो कुछ और ही होता है। एक
नज़र मिलने पर, शुरुआत में कुछ शब्दों का आदान प्रदान (आम तौर पर गदहपचीसी
के शब्द), कुछ ही मिनटों के भीतर पूरी जिंदगी का नज़रिया ही बदल जाता है।
पूरी कायनात हमारे साथ सहानुभूति में खड़ी हो जाती है और अचानक हमारे सामने
छुपी हुई खुशियों का खज़ाना खोल देती है।
मैं उन्नीस बरस का होने को आया था और कार्नो कम्पनी का सफल कामेडियन था।
लेकिन कुछ था जिसकी अनुपस्थिति खटक रही थी। वसंत आ कर जा चुका था और
गर्मियां अपने पूरे खालीपन के साथ मुझ पर हावी थीं। मेरी दिनचर्या बासीपन
लिये हुए थी और मेरा परिवेश शुष्क। मैं अपने भविष्य में कुछ भी नहीं देख
पाता था, वहां सिर्फ अनमनापन, सब कुछ उदासीनता लिये हुए और चारों तरफ आदमी
ही आदमी। सिर्फ पेट भरने की खातिर काम धंधे से जुड़े रहना ही काफी नहीं लग
रहा था। ज़िंदगी नौकर सरीखी हो रही थी और उसमें किसी किस्म की बांध लेने
वाली बात नहीं थी।
मैं बुद्धूपने और अतिनाटकीयता का पुजारी था, स्वप्नजीवी भी और उदास भी। मैं
ज़िंदगी से खफ़ा भी रहता था और उसे प्यार भी करता था। कला शब्द कभी भी मेरे
भेजे में या मेरी शब्द सम्पदा में नहीं घुसा। थियेटर मेरे लिए रोज़ी-रोटी
का साधन था, इससे ज्यादा कुछ नहीं।
मैं अकेला होता चला गया, अपने आप से असंतुष्ट। मैं रविवारों को अकेला भटकता
घूमता रहता, पार्कों में बज रहे बैंडों को सुन का दिल बहलाता। न तो मैं
अपनी खुद की कम्पनी झेल पाता था और न ही किसी और की ही। और तभी एक खास बात
हो गयी - मुझे प्यार हो गया। मुझे अचानक दो बड़ी-बड़ी भूरी शरारत से चमकती
आंखों ने जैसे बांध लिया। ये आंखें एक दुबले, हिरनी जैसे, सांचे में ढले
चेहरे पर टंगी हुई थीं और बांध लेने वाला उसका भरा पूरा चेहरा, खूबसूरत
दांत, ये सब देखने का असर बिजली जैसा था। लेकिन हैट्टी को जी जान से चाहने
के बावजूद उन्होंने अपनी चौथी मुलाकात में ही उसके खराब मूड को देख कर
फैसला कर लिया कि वह उनसे प्यार नहीं करती। और संबंध तोड़ बैठे।' 'मेरा
ख्याल यही है कि हम विदा हो जायें और फिर कभी दोबारा एक दूजे से न मिलें।'
मैंने कहा और सोचता रहा कि उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी।
लेकिन अब क्या हो सकता था। 'मैंने क्या कर डाला था? क्या मैंने बहुत
जल्दीबाजी की? मुझे उसे चुनौती नहीं देनी चाहिये थी। मैं भी निरा गावदी हूं
कि उससे दोबारा मिलने के सारे रास्ते ही बंद कर दिये? लेकिन किस्मत उन्हें
दूसरे दरवाजे से दस्तक दे रही थी। संभावनाओं ने नये दरवाजे खुल रहे थे:
अमेरिका में संभावनाओं का अंनत आकाश था। मुझे अमेरिका जाने के लिए इसी तरह
के किसी मौके की जरूरत थी। इंगलैंड में मुझे लग रहा था कि मैं अपनी
संभावनाओं के शिखर पर पहुँच चुका हूँ और इसके अलावा, वहाँ पर मेरे अवसर अब
बंधे बंधाये रह गये थे। आधी-अधूरी पढ़ाई के चलते अगर मैं म्यूजिक हॉल के
कामेडियन के रूप में फेल हो जाता तो मेरे पास मजदूरी के काम करने के भी
बहुत ही सीमित आसार होते।
उनके जीवन का सबसे सुखद पहलु अगर अमेरिका जाना था और वहां चालीस बरस तक रह
कर नाटक, फिल्मों और मनोरंजन के सर्वाधिक सफल व्यक्तित्व के रूप में पूरी
दुनिया के लोगों के दिल पर राज करना था तो वहां से जाना भी उनके लिए सबसे
दुखद घटना बन कर आयी। वे खुली अनंत आकाश की खुली हवा की तलाश में अमेरिका
गये थे और आखिर खुली हवा की तताश में मज़बूर हो कर वहां से कूच करना पड़ा
और उम्र के छठे दशक में स्विटज़रलैंड को अपना घर बनाना पड़ा।
चार्ली पूरी दुनिया के चहेते थे। वे शायद अकेले ऐसे शख्स रहे होंगे जिनके
दोस्त हर देश में, हर फील्ड में और हर उम्र के थे। वे अमूमन हर देश के
राज्याध्यक्ष, राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री से मित्रता के स्तर पर मिलते थे।
वे उनकी फिल्में दिखाये जाने का आग्रह करते, उन्हें राजकीय सम्मान देते।
उनके घर पर आते और उनके साथ खाना खाते। वे गांधी जी से भी मिले थे और नेहरू
जी से भी। गांधी जी से वे बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने बर्नार्ड शॉ के
घर पर कई बार खाना खाया था और आइंस्टीन कई बार चार्ली के घर आ चुके थे।
जीवन के हर क्षेत्र के लोग उनके मित्र थे: मैं दोस्तों को वैसे ही पसंद
करता हूं जैसे संगीत को पसंद करता हूं। शायद मुझे कभी भी बहुत ज्यादा
दोस्तों की ज़रूरत नहीं रही - आदमी जब किसी ऊंची जगह पर पहुंच जाता है तो
दोस्त चुनने में कोई विवेक काम नहीं करता। अलबत्ता वे मानते थे कि ज़रूरत
के वक्त किसी दोस्त की मदद करना आसान होता है लेकिन आप हमेशा इतने खुशनसीब
नहीं होते कि उसे अपना समय दे पायें।
चार्ली ने इकतरफा प्रेम बहुत किये। वैसे देखा जाये तो हैट्टी के साथ उनका
पहला प्यार भी इकतरफा ही था और शायद यही वजह रही कि वे उनतीस बरस की उम्र
तक अकेले ही रहे। मेरा अकेलापन कुंठित करने वाला था क्योंकि मैं दोस्ती
करने की सारी ज़रूरतें पूरी करता था। मैं युवा था, अमीर था और बड़ी हस्ती
था। इसके बावज़ूद मैं न्यू यार्क में अकेला और परेशान हाल घूम रहा था।
हालांकि चार्ली ने चार शादियां कीं लेकिन पहली तीन शादियों से उन्हें बहुत
तकलीफ पहुंची। पहली शादी करने जाते समय तो वे समझ ही नहीं पा रहे थे कि वे
ये शादी कर ही क्यों रहे हैं। दूसरी शादी ने उन्हें इतनी तकलीफ पहुंचायी कि
इस आत्म कथा में अपनी दूसरी पत्नी का नाम तक नहीं बताया है। अलबत्ता, ऊना ओ
नील से उनकी चौथी शादी सर्वाधिक सफल रही। हालांकि दोनों की उम्र में 36 बरस
का फर्क था और ऊना उनकी छत्तीस बरस तक, यानी आजीवन उनकी पत्नी रहीं। वे
अपने जीवन के अंतिम 36 बरस उसी की वजह से अच्छी तरह से गुज़ार सके। पिछले
बीस बरस से मैं जानता हूं कि खुशी क्या होती है। मैं किस्मत का धनी रहा कि
मुझे इतनी शानदार बीवी मिली। काश, मैं इस बारे में और ज्यादा लिख पाता
लेकिन इससे प्यार जुड़ा हुआ है और परफैक्ट प्यार सारी कुंठाओं से ज्यादा
सुंदर होता है क्योंकि इसे जितना ज्यादा अभिव्यक्त किया जाये, उससे अधिक ही
होता है। मैं ऊना के साथ रहता हूं और उसके चरित्र की गहराई और सौन्दर्य
मेरे सामने हमेशा नये नये रूपों में आते रहते हैं।
हालांकि चार्ली ने अपनी आत्म कथा में पोला नेगरी से अपनी अभिन्न मित्रता का
ही ज़िक्र किया है, तथ्य बताते हैं कि नेगरी से उनकी पन्द्रह दिन के भीतर
ही दो बार सगाई हुई थी और टूटी थी। चार्ली ने अपनी आत्म कथा में अपनी सभी
संतानों का भी उल्लेख नहीं किया है। इसकी वजह ये भी हो सकती है कि ये आत्म
कथा 1960 में लिखी गयी थी जब वे 71 बरस के थे और ऊना ने कुल मिला कर उन्हें
आठ संतानों का उपहार दिया था और उनकी आठवीं संतान तब हुई थी जब चार्ली 73
बरस के थे और ऊना 37 बरस की।
अलबत्ता, अपनी आत्म कथा में चार्ली ने अपने सैक्स संबंधों के बारे में काफी
खुल कर चर्चा की है: हर दूसरे व्यक्ति की तरह मेरे जीवन में भी सैक्स के
दौर आते-जाते रहे। लेकिन उनका मानना है: मेरे ख्याल से तो सैक्स से चरित्र
को समझने में या उसे सामने लाने में शायद ही कोई मदद मिलती हो। और कि ठंड,
भूख और गरीबी की शर्म से व्यक्ति के मनोविज्ञान पर कहीं अधिक असर पड़ सकता
है। जो परिस्थितियां आपको सैक्स की तरफ ले जाती हैं, वे मुझे ज्यादा
रोमांचक लगती हैं।
चार्ली अमेरिका गये तो थियेटर करने थे लेकिन उनके भाग्य में और बड़े पैमाने
पर दुनिया का मनोरंजन करना लिखा था। अमेरिका में और भी कई संभावनाएं थीं।
मैं थिएटर की दुनिया से क्यूँ चिपका रहूँ? मैं कला को समर्पित तो था नहीं।
कोई दूसरा धंधा कर लेता। मैंने अमेरिका में टिकने की ठान ली थी। शुरू शुरू
में उन्हें अपने पैर जमाने में और अपने मन की करने में तकलीफ हुई लेकिन एक
बार ट्रैम्प का बाना धारण करने लेने के बाद उन्होंने फिर पीछे मुड़ कर नहीं
देखा। मेरा चरित्र थोड़ा अलग था और अमेरिकी जनता के लिए अनजाना भी। यहाँ तक
कि मैं भी उससे कहाँ परिचित था। लेकिन वे कपड़े पहन लेने के बाद मैं यही
महसूस करता था कि मैं एक वास्तविकता हूँ, एक जीवित व्यक्ति हूँ। दरअसल, जब
मैं वे कपड़े पहन लेता और ट्रैम्प का बाना धारण कर लेता तो मुझे तरह तरह के
मज़ाकिया ख्याल आने लगते जिनके बारे में मैं कभी सोच भी नहीं सकता था।
चूँकि मेरे कपड़े मेरे चरित्र से मेल खा रहे थे, मैंने तभी और उसी वक्त ही
तय कर लिया कि भले ही कुछ भी हो जाये, मैं अपनी इसी ढब को बनाये रखूँगा।
वे जल्दी ही अपनी मेहनत और हुनर के बल पर ऐसी स्थिति में आ गये कि मनमानी
कीमत वसूल कर सकें। वे ऑल इन वन थे। लेखक, अभिनेता, निर्देशक, संगीतकार,
संपादक, निर्माता और बाद में तो वितरक भी। जल्द ही उनकी तूती बोलने लगी।
लेकिन एक मज़ेदार बात थी उनके व्यक्तित्व में। किसी भी फिल्म के प्रदर्शन
से पहले वे बेहद नर्वस हो जाते। उनकी रातों की नींद उड़ जाती। पहले शो में
वे थियेटर के अंदर बाहर होते रहते, लेकिन आश्चर्य की बात, कि सब कुछ ठीक हो
जाता और हर फिल्म पहले की फिल्मों की तुलना में और सफल होती।
हर फिल्म के साथ चार्ली की प्रसिद्धि का ग्राफ ऊपर उठता जा रहा था और साथ
ही उनकी कीमत भी बढ़ती जा रही थी। वे मनमाने दाम वसूल करने की हैसियत रखते
थे और कर भी रहे थे। न्यू यार्क में मेरे चरित्र, कैलेक्टर के खिलौने और
मूर्तियां सभी डिपार्टमेंट स्टोरों और ड्रगस्टोरों में बिक रहे थे।
जिगफेल्ड लड़कियां चार्ली चैप्लिन गीत गा रही थीं।
उन्होंने बहुत तेजी से बहुत कुछ हासिल कर लिया था। मैं सिर्फ सत्ताइस बरस
का था और मेरे सामने अनंत सम्भावनाएं थीं, और थी मेरे सामने एक दोस्तानी
दुनिया। थोड़े से ही अरसे में मैं करोड़पति हो जाऊंगा। मैं कभी इस सब की
कल्पना भी नहीं कर सकता था।
चार्ली के बहुत से मित्र थे और उनकी कई मित्रताएं आजीवन रहीं। पुरुषों से
भी और महिलाओं से भी। वे दूसरों से प्रभावित भी हुए और पूरी दुनिया को भी
अपने तरीके से प्रभावित किया। हर्स्ट उनके बेहद करीबी मित्र थे और उन्हें
अपना आदर्श मानते थे। मेरे एक-दो बहुत ही अच्छे दोस्त हैं जो मेरे क्षितिज
को रौशन बनाये रहते हैं।
भारतीय सिनेमा के कितने ही कलाकारों ने चार्ली के ट्रैम्प की नकल करने की
कोशिश की लेकिन वे उसे दो एक फिल्मों से आगे नहीं ले जा पाये।
हालांकि चार्ली ने स्कूली शिक्षा बहुत कम पायी थी लेकिन उन्होंने जीवन की
किताब को शुरू से आखिर तक कई बार पढ़ा था। एक बात और भी कि बेशक चार्ली ने
विधिवत स्कूली शिक्षा नहीं पायी थी, लेकिन उनका भाषा ज्ञान अद्भुत है।
उन्होंने न केवल अंग्रेज़ी के, बल्कि फ्रेंच, इताल्वी, ग्रीक और जर्मन
संदर्भ भी खूब दिये हैं। भाषा उनकी शानदार अंग्रेज़ी की मिसाल है।
उन्हें मनोविज्ञान की गहरी समझ थी। उनका बचपन बहुत अभावों में गुज़रा था और
उन्होंने तकलीफों को बहुत नज़दीक से जाना और पहचाना था। इसके अलावा वे
सेल्फ मेड आदमी थे लेकिन उन्हें अपने आप पर बहुत भरोसा था। इस आत्म कथा में
उन्होंने अमूमन सब कुछ पर लिखा है और बेहतरीन लिखा है। अभिनय, कला, संवाद
अदायगी, कैमरा एंगल, निर्देशन, थियेटर, विज्ञान, परमाणु बम, मानव
मनोविज्ञान, मछली मारना, साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद, युद्ध, अमीरी,
गरीबी, राजनीति, साहित्य, संगीत, कला, धर्म, दोस्ती, भूत प्रेत कुछ भी तो
ऐसा नहीं बचा है जिस पर उन्होंने अपनी विशेषज्ञ वाली राय न जाहिर की हो।
कॉमेडी की परिभाषा देते हुए वे कहते हैं, किसी भी कॉमेडी में सबसे
महत्त्वपूर्ण होता है नज़रिया। लेकिन हर बार नज़रिया ढूंढना आसान भी नहीं
होता। किसी कॉमेडी को सोचने और उसे निर्देशित करने से ज्यादा दिमाग की
सतर्कता किसी और काम में ज़रूरी नहीं होती। अभिनय के बारे में वे कहते हैं:
मैंने कभी भी अभिनय का अध्ययन नहीं किया है लेकिन लड़कपन में ये मेरा
सौभाग्य रहा कि मुझे महान अभिनेताओं के युग में रहने का मौका मिला और मैंने
उनके ज्ञान और अनुभव के विस्तार को हासिल किया।
शायद चार्ली का नाम इस बात के लिए गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में लिखा
जायेगा कि उन पर, उनकी अभिनय कला पर, उनकी फिल्मों पर, उनकी शैली पर और
उनके ट्रैम्प पर दुनिया भर की भाषाओं में शायद एक हज़ार से भी ज्यादा
किताबें लिखी गयी हैं। जो भी उनके जीवन में आया, या नहीं भी आया, उसने
चार्ली पर लिखा।
अमेरिका जाने और खूब सफल हो जाने के बाद चार्ली पहली बार दस बरस बाद और
दूसरी बार बीस बरस बाद लंदन आये थे और उन्हें वहां बचपन की स्मृतियों ने एक
तरह से घेर लिया था। मेरे अतीत के दिनों से हैट्टी ही वह अकेली परिचित
व्यक्ति थी जिससे दोबारा मिलना मुझे अच्छा लगता, खास तौर पर इन बेहतरीन
परिस्थितियों में उससे मिलने का सुख मिलता।
उन्होंने जीवन में भरपूर दुख भी भोगे और सुख भी। ऐसा और कौन अभागा होगा जो
सिर्फ इसलिए दोस्त के घर के आसपास मंडराता रहे ताकि उसे भी शाम के खाने के
लिए बुलवा लिया जाये और ऐसे व्यक्ति से ज्यादा सुखी और कौन होगा जिसे
कमोबेश हर देश के राज्याध्यक्षों के यहां से न्यौते मिलते हों, विश्व
विख्यात वैज्ञानिक, लेखक और राजनयिक उनसे मिलने के लिए समय मांगते हों और
उसके आस पास विलासिता की ऐसी दुनिया हो जिसकी हम और आप कल्पना भी न कर सकते
हों। जीवन के ये दोनों पक्ष चार्ली स्पेंसर चैप्लिन ने देखे और भरपूर देखे।
उनके जीवन का सबसे दुखद पक्ष रहा, अमेरिका द्वारा उन पर ये शक किया जाना कि
वे खुद कम्यूनिस्ट हैं और अगर नहीं भी हैं तो कम से कम उनसे सहानुभूति तो
रखते ही हैं और उनकी पार्टी लाइन पर चलते हैं।
इस भ्रम भूत ने आजीवन उनका पीछा नहीं छोड़ा और अंतत: अमेरिका में चालीस बरस
रह कर, उस देश के लिए इतना कुछ करने के बाद जब उन्हें बेआबरू हो कर अपना
जमा जमाया संसार छोड़ कर एक नये घर कर तलाश में स्विट्ज़रलैंड जाना पड़ा तो
वे बेहद व्यथित थे। उन पर ये आरोप भी लगाया गया कि वे अमेरिकी नागरिक क्यों
नहीं बने। आप्रवास विभाग के अधिकारियों के सवालों को जवाब देते हुए वे कहते
हैं, 'क्या आप जानते हैं कि मैं इस सारी मुसीबत में कैसे फंसा? आपकी सरकार
पर अहसान करके! रूस में आपके राजदूत मिस्टर जोसेफ डेविस को रूसी युद्ध राहत
की ओर से सैन फ्रांसिस्को में भाषण देना था, लेकिन ऐन मौके पर उनका गला
खराब हो गया और आपकी सरकार के एक उच्च अधिकारी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं
उनके स्थान पर बोलने की मेहरबानी करूंगा और तब से मैं इसमें अपनी गर्दन
फंसाये बैठा हूं।'
'मैं कम्यूनिस्ट नहीं हूं फिर भी मैं उनके विरोध में खड़ा होने से इन्कार
करता रहा। मैंने कभी भी अमेरिकी नागरिक बनने का प्रयास नहीं किया। हालांकि
सैकड़ों अमेरिकी बाशिंदे इंगलैंड में अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं। वे कभी
भी ब्रिटिश नागरिक बनने का प्रयास नहीं करते।
चार्ली चैप्लिन की यह आत्म कथा एक महाकाव्य है एक ऐसे शख्स के जीवन का,
जिसे दिया ही दिया है और बदले में सिर्फ वही मांगा जो उसका हक था। उसने
हँसी बांटी और बदले में प्यार भी पाया और आंसू भी पाये। उसने कभी भी नाराज़
हो कर ये नहीं कहा कि आप गलत हैं। उसे अपने आप पर, अपने फैसलों पर, अपनी
कला पर और अपनी अभिव्यक्ति शैली पर विश्वास था और उस विश्वास के प्रति
सच्ची प्रतिबद्धता भी थी। वह अपने पक्ष में किसी से भी लड़ने भिड़ने की
हिम्मत रखता था क्योंकि वह जानता था कि सच उसके साथ है। उसमें परफैक्शन के
लिए इतनी ज़िद थी कि सिटीलाइट्स के 70 सेकेंड के एक दृश्य के लिए पांच दिन
तक रीटेक लेता रहा। अपने काम के प्रति उसमें इतनी निष्ठा थी कि मूक फिल्मों
का युग बीत जाने के 4 बरस बाद भी वह लाखों डॉलर लगा कर मूक फिल्म बनाता है
क्योंकि उसका मानना है कि हर तरह के मनोरंजन की ज़रूरत होती है। वह सच्चे
अर्थों में जीनियस था और ये बात आज भी इस तथ्य से सिद्ध हो जाती है कि
फिल्मों के इतने अधिक परिवर्तनों से गुज़र कर यहां तक आ पहुंचने के बाद भी
सत्तर अस्सी बरस पहले बनी उसकी फिल्में हमें आज भी गुदगुदाती है। उस
व्यक्ति के पास मास अपील का जादुई चिराग था।
मुझे इस बात की खुशी है कि मैं पहली बार चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा को
हिन्दी पाठकों के सामने ला रहा हूं। ये काम मैंने कई बरस पहले शुरू किया था
लेकिन इसका काफी सारा हिस्सा कम्प्यूटर में हार्ड डिस्क की चिता के साथ जल
जाने के कारण मैंने इसे दोबारा हाथ भी नहीं लगाया था। इसका पहला संस्कीरण
लगभग पांच बरस पहले आधार प्रकाशन से आया था।
ये नया संस्क रण मेधाबुक्सय के माध्य।म से आपके हाथों में है।
मैंने मूल कथ्य के प्रति पूरी तरह से ईमानदार बने रहने की कोशिश की है और
जहां कहीं, आवश्यक लगा, अपनी तरफ से फुटनोट दिये हैं। मेरी इस टिप्पेणी में
जो वाक्य इटैलिक्स में दिये गये हैं, वे आत्मटकथा के ही अंश हैं।
मैं विश्वास करता हूं कि मेरा ये काम आपको अच्छा लगेगा। हालांकि काम बहुत
बड़ा था और असीम धैर्य और समय की मांग करता था, लेकिन मित्रों की
शुभकामनाओं के साथ मैं इसे पूरा कर पाया, मुझे इसका संतोष है। इसके कुछ अंश
श्री निखारे ने टाइप किये हैं, कुछ पन्नों की डिक्टेशन मेरे छोटे बेटे
अभिज्ञान ने ली है, हार्ट क्रेन की कविता का सरस अनुवाद मेरी टेलीफोन मित्र
दीप्ति ने किया है। इन सबका आभार।
नैतिक बल मेरी पत्नी और मित्र मधु ने बनाये रखा है, इसलिए यह किताब उसी को
समर्पित है।
और अंत में एक और बात,
क्या आपको नहीं लगता कि अगर हँसाने के लिए कोई नोबल पुरस्कार होता तो वह अब
तक सिर्फ एक ही व्यक्ति को दिया जाता और निश्चित ही वह नाम होता- चार्ल्स
स्पेंसर चैप्लिन (1889-1977)
सूरज प्रकाश
4 जनवरी 2010
भूमिका
वेस्ट मिंस्टर ब्रिज के खुलने से पहले केनिंगटन रोड सिर्फ अश्व मार्ग हुआ
करता था। 1750 के बाद, पुल से शुरू करते हुए एक नयी सड़क बनायी गयी थी
जिससे ब्राइटन तक का सीधा रास्ता खुल गया था। इसका नतीजा यह हुआ कि
केनिंगटन रोड पर, जहां मैंने अपने बचपन का अधिकांश वक्त गुज़ारा है, कुछ
बहुत ही शानदार घर देखे जा सकते थे। ये घर वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने थे।
इनके सामने की तरफ लोहे की ग्रिल वाली बाल्कनी होती थी। हो सकता है कि उन
घरों में रहने वालों ने कभी अपनी कोच में बैठ कर ब्राइटन जाते हुए जॉर्ज IV
को देखा होगा।
उन्नीसवीं शताब्दी के आते-आते इनमें से ज्यादातर घर किराये के कमरे देने
वाले घरों में और अपार्टमेंटों में बदल चुके थे। अलबत्ता, कुछ घर ऐसे भी
बचे रहे जिन पर वक्त की मार नहीं पड़ी और उनमें डॉक्टर, वकील, सफल व्यापारी
और नाटकों वग़ैरह में काम करने वाले कलाकार रहते आये। रविवार के दिन, सुबह
के वक्त केनिंगटन रोड के दोनों तरफ के किसी न किसी घर के बाहर आप कसी हुई
घोड़ी और गाड़ी देख सकते थे जो वहां रहने वाले नाटक कलाकार को नौरवुड या
मेरटन जैसी दसियों मील दूर की जगह पर ले जाने के लिए तैयार खड़ी हो। वापसी
में ये केनिंगटन रोड पर अलग-अलग तरह के शराब घरों व्हाइट हाउस, द' हार्न्स,
और द' टैन्कार्ड पर रुकते हुए आते थे।
मैं बारह बरस का लड़का, अक्सर टैन्कार्ड के बाहर खड़ा बेहतरीन पोशाकें पहने
इन रंगीले चमकीले महानुभावों को उतरते और भीतर लाउंज बार में जाते देखा
करता था। वहां नाटकों के कलाकार आपस में मिलते-जुलते थे। रविवार के दिनों
का उनका यही शगल हुआ करता था। दोपहर के भोजन के लिए घर जाने से पहले वे
अपना एक आखिरी पैग यहां लिया करते थे। वे कितने भव्य लगते थे। चारखाने के
सूट पहने और भूरे फेल्ट हैट डाटे, अपनी हीरे की अंगूठियों और टाइपिनों के
लशकारे मारते। रविवार को दोपहर दो बजे पब बंद हो जाता था और वहां मौजूद सब
लोग बाहर झुंड बना कर खड़े हो जाते और एक-दूसरे को विदा देने से पहले मन
बहलाव में वक्त ज़ाया करते। मैं उन सबको हसरत भरी निगाहों से देखा करता और
खुश होता क्योंकि उनमें से कुछेक बेवकूफी भरी अकड़ के साथ डींगें हांकते।
जब उनमें से आखिरी आदमी भी जा चुका होता तो ऐसा लगता मानो सूर्य बादलों के
पीछे छिप गया हो। और तब मैं ढहते पुराने घरों की अपनी कतार की तरफ चल
पड़ता। मेरा घर केनिंगटन रोड के पीछे की तरफ था। ये तीन नम्बर पाउनाल टेरेस
था जिसकी तीसरी मंज़िल पर एक छोटी-सी दुछत्ती पर हम रहा करते थे। तीसरी
मंज़िल तक आने वाली सीढ़ियां खस्ता हाल में थीं। घर का माहौल दमघोंटू था और
वहां की हवा में बास मारते पानी और पुराने कपड़ों की बू रची-बसी रहती।
जिस रविवार की मैं बात कर रहा हूं, उस दिन मां खिड़की पर बैठी एकटक बाहर
देख रही थी। वह मेरी तरफ मुड़ी और कमज़ोरी से मुस्कुरायी। कमरे की हवा
दमघोंटू थी और कमरा बारह वर्ग फुट से थोड़ा-सा ही बड़ा रहा होगा। ये और भी
छोटा लगता था और उसकी ढलुआं छत काफी नीची प्रतीत होती थी। दीवार के साथ सटा
कर रखी गयी मेज़ पर जूठी प्लेटों और चाय के प्यालों का अम्बार लगा हुआ था।
निचली दीवार से सटा एक लोहे का पलंग था जिस पर मां ने सफेद रंग पोता हुआ
था। पलंग और खिड़की के बीच की जगह पर एक छोटी सी आग झंझरी थी। पलंग के एक
सिरे पर एक पुरानी-सी आराम कुर्सी थी जिसे खोल देने पर चारपाई का काम लिया
जा सकता था। इस पर मेरा भाई सिडनी सोता था लेकिन फिलहाल वह समुद्र पर गया
हुआ था।
इस रविवार को कमरा कुछ ज्यादा ही दमघोंटू लग रहा था क्योंकि किसी कारण से
मां ने इसे साफ-सूफ करने में लापरवाही बरती थी। आम तौर पर वह कमरा साफ रखती
थी। इसका कारण यह था कि वह खुद भी समझदार, हमेशा खुश रहने वाली और युवा
महिला थी। वह अभी सैंतीस की भी नहीं हुई थी। वह इस वाहियात दुछत्ती को भी
चमका कर सुविधापूर्ण बना सकती थी। खासकर सर्दियों की सुबह के वक्त जब वह
मुझे मेरा नाश्ता बिस्तर में ही दे देती और जब मैं सो कर उठता तो वह
छोटा-सा कमरा सफाई से दमक रहा होता। थोड़ी-सी आग जल रही होती और खूंटी पर
गरमा-गरम केतली रखी होती और जंगले के पास हैड्डर या ब्लो्टर मछली गरम हो
रही होती और वह मेरे लिए टोस्ट बना रही होती। मां की उल्लसित कर देने वाली
मौज़ूदगी, कमरे का सुखद माहौल, चीनी मिट्टी की केतली में डाले जाते उबलते
पानी की छल-छल करती आवाज़, और मैं ऐसे वक्त अपना साप्ताहिक कॉमिक पढ़ रहा
होता। शांत रविवार की सुबह के ये दुर्लभ आनन्ददायक पल होते।
लेकिन इस रविवार के दिन वह निर्विकार भाव से बैठी खिड़की से बाहर एकटक देखे
जा रही थी। पिछले तीन दिन से वह खिड़की पर ही बैठी हुई थी। आश्चर्यजनक ढंग
से चुप और अपने आप में खोयी हुई। मैं जानता था कि वह परेशान है। सिडनी
समुद्र पर गया हुआ था और पिछले दो महीनों से उसकी कोई खबर नहीं आयी थी। मां
जिस किराये की सिलाई मशीन पर काम करके किसी तरह घर की गाड़ी खींच रही थी,
किस्तों की अदायगी समय पर न किये जाने के कारण ले जायी जा चुकी थी (ये कोई
नयी बात नहीं थी) और मैं डांस के पाठ पढ़ा कर पांच शिंलिंग हफ्ते का जो
योगदान दिया करता था, वह भी अचानक खत्म हो गये थे।
मुझे संकट के बारे में शायद ही पता रहा हो क्योंकि हम तो लगातार ही ऐसे
संकटों से जूझते आये थे और लड़का होने के कारण मैं इस तरह की अपनी
परेशानियों को शानदार भुलक्कड़पने के साथ दर किनार कर दिया करता था। हमेशा
की तरह मैं स्कूल से दौड़ता हुआ घर आता और मां के छोटे-मोटे काम कर देता।
बू मारता पानी गिराता और ताज़े पानी के डोल भर लाता। तब मैं भाग कर
मैक्कार्थी परिवार के घर चला जाता और वहां शाम तक खेलता रहता। मुझे इस दम
घोंटती दुछत्ती से निकलने का कोई न कोई बहाना चाहिये होता।
मैक्कार्थी परिवार मां का बहुत पुराना परिचित परिवार था। मां उन्हें नाटकों
के दिनों से जानती थी। वे केनिंगटन रोड के बेहतर समझे जाने वाले इलाके में
आरामदायक घर में रहते थे। उनकी माली हैसियत भी हमारी तुलना में बेहतर थी।
मैक्कार्थी परिवार का एक ही लड़का था - वैली। मैं उसके साथ शाम का धुंधलका
होने तक खेलता रहता और अमूमन यह होता कि मुझे शाम की चाय के लिए रोक लिया
जाता। मैंने इस तरह कई बार देर तक वहां मंडराते हुए रात के खाने का भी
जुगाड़ किया होगा। अक्सर मिसेज मैक्कार्थी मां के बारे में पूछती रहती और
कहती कि कई दिन से वह नज़र क्यों नहीं आयी है। मैं कोई भी बहाना मार देता
क्योंकि जब से मां दुर्दिन झेल रही थी, वह शायद ही अपनी नाटक मंडली के
परिचितों से मिलने-जुलने जाती हो।
हां, ऐसे भी दिन होते जब मैं घर पर ही रहता और मां मेरे लिए चाय बनाती,
सूअर की चर्बी में मेरे लिए ब्रेड तल देती। मुझे ये ब्रेड बहुत अच्छी लगती।
फिर वह मुझे एक घंटे तक कुछ न कुछ पढ़ कर सुनाती। वह बहुत ही बेहतरीन पाठ
करती थी। और तब मैं मां के इस संग-साथ के सुख के रहस्य का परिचय पाता और तब
मुझे पता चलता कि मैं मैक्कार्थी परिवार के साथ जितना सुख पाता, उससे
ज्यादा मैंने मां के साथ रह कर पा लिया है।
सैर से आ कर मैं जैसे ही कमरे में घुसा, वह मुड़ी और उलाहने भरी निगाह से
मेरी तरफ देखने लगी। उसे इस हालत में देख कर मेरा कलेजा मुंह को आ गया। वह
बहुत कमज़ोर तथा मरियल-सी हो गयी थी तथा उसकी आंखों में गहरी पीड़ा नज़र आ
रही थी। मैं अकथनीय दुख से भर उठा। मैं तय नहीं कर पा रहा था कि घर पर रह
कर उसके आसपास ही बना रहूं या फिर इस सब से दूर चला जाऊं। उसने मेरी तरफ
तरस खाती निगाह से देखा,"तुम लपक कर मैक्कार्थी परिवार के यहां चले क्यों
नहीं जाते," उसने कहा था।
मेरे आंसू गिरने को थे,"क्योंकि मैं तुम्हारे पास ही रहना चाहता हूं।"
वह मुड़ी और सूनी-सूनी आंखों से खिड़की के बाहर देखने लगी,"तुम भाग कर
मैक्कार्थी के यहां ही जाओ और रात का खाना भी वहीं खाना। आज घर में खाने को
कुछ भी नहीं है।"
मैंने उसकी आवाज में तड़प महसूस की। मैंने इस तरफ से अपने दिमाग के दरवाजे
बंद कर दिये,"अगर तुम यही चाहती हो तो मैं चला जाता हूं।"
वह कमजोरी से मुस्कुरायी और मेरा सिर सहलाया,"हां..हां तुम दौड़ जाओ।"
हालांकि मैं उसके आगे गिड़गिड़ाता रहा कि वह मुझे घर पर ही अपने पास रहने
दे लेकिन वह मेरे जाने पर ही अड़ी रही। इस तरह से मैं अपराध बोध की भावना
लिये चला गया। वह उसी मनहूस दुछत्ती की खिड़की पर बैठी रही। उसे इस बात का
ज़रा सा भी गुमान नहीं था कि आने वाले दिनों में दुर्भाग्य की कौन-सी पोटली
उसके लिए खुलने वाली है।
अध्याय
- एक
मेरा जन्म ईस्ट लेन, वेलवर्थ में 16 अप्रैल 1889 को रात आठ बजे हुआ था।
इसके तुरंत बाद, हम, सेंट स्क्वायर, सेंट जॉर्ज रोड, लैम्बेथ में रहने चले
गये थे। मेरी मां का कहना है कि मेरी दुनिया खुशियों से भरी हुई थी। हमारी
परिस्थितियां कमोबेश ठीक-ठाक थीं। हम तीन कमरों के घर में रहते थे जो
सुरुचिपूर्ण तरीके से सजे हुए थे। मेरी शुरुआती स्मृतियों में से एक तो ये
है कि मां रोज़ रात को थियेटर जाया करती थी और मुझे और सिडनी को बहुत ही
प्यार से आरामदायक बिस्तर में सहेज कर लिटा जाती थी और हमें नौकरानी की
देख-रेख में छोड़ जाती थी। साढ़े तीन बरस की मेरी दुनिया में सब कुछ संभव
था; अगर सिडनी, जो मुझसे चार बरस बड़ा था, हाथ की सफाई के करतब दिखा सकता
था और सिक्का निगल कर अपने सिर के पीछे से निकाल कर दिखा सकता था तो मैं भी
ठीक ऐसे ही कर के दिखा सकता था। इसलिए मैं अध पेनी का एक सिक्का निगल गया
और मज़बूरन मां को डॉक्टर बुलवाना पड़ा।
रोज़ रात को जब वह थियेटर से वापिस लौटती थी तो उसका यह दस्तूर-सा था कि
मेरे और सिडनी के लिए खाने की अच्छी-अच्छी चीज़ें मेज़ पर ढक कर रख देती थी
ताकि सुबह उठते ही हमें मिल जायें - रंग-बिरंगे और सुगंधित केक का स्लाइस
या मिठाई। इसके पीछे आपसी रज़ामंदी यह थी कि हम सुबह उठ कर शोर-शराबा नहीं
करेंगे। वह आम तौर पर देर तक सो कर उठती थी।
मां वैराइटी स्टेज की कलाकार थी। अपनी उम्र के तीसरे दशक को छूती वह नफ़ासत
पसंद महिला थी। उसका रंग साफ़ था, आंखें बैंजनी नीली और लम्बे, हल्के भूरे
बाल। बाल इतने लम्बे कि वह आसानी से उन पर बैठ सकती थी। सिडनी और मैं अपनी
मां को बहुत चाहते थे। हालांकि वह असाधारण खूबसूरत नहीं थी फिर भी वह हमें
स्वर्ग की किसी अप्सरा से कम नहीं लगती थी। जो लोग उसे जानते थे उन्होंने
मुझे बाद में बताया था कि वह सुंदर और आकर्षक थी और उसमें सामने वाले को
बांध लेने वाले सौन्दर्य का जादू था। रविवार के सैर-सपाटे के लिए हमें
अच्छे कपड़े पहनाना उसे बहुत अच्छा लगता था। वह सिडनी को लम्बी पतलून के
साथ चौड़े कालर वाला सूट पहनाती, और मुझे नीली मखमली पतलून और उससे मेल
खाते नीले दस्ताने। इस तरह के मौके आत्मतुष्टि के उत्सव होते जब हम
केनिंगटन रोड पर इतराते फिरते।
•
लंदन उन दिनों धीर-गंभीर हुआ करता था। शहर की गति मंथर थी; यहां तक कि
वेस्टमिन्स्टर रोड से चलने वाली घोड़े जुती ट्रामें भी खरामा-खरामा चलतीं
और इसी गति से ही पुल के पास टर्मिनल पर गोल घेरे, रिवाल्विंग टेबल पर घूम
जातीं। जब मां के खाते-पीते दिन थे तो हम भी वेस्टमिन्स्टर रोड पर रहा करते
थे। वहां का माहौल दिल खुश करने वाला और दोस्ताना होता। वहां शानदार
दुकानें, रेस्तरां और संगीत सदन थे। पुल के ठीक सामने कोने पर फलों की
दुकान रंगीनियों से भरी होती। बाहर की तरफ तरतीब से रखे गये संतरों, सेबों,
नाशपाती और केलों के पिरामिड सजे होते। इसके ठीक विपरीत, सामने की तरफ नदी
के उस पार संसद की शांत धूसर इमारतें नज़र आतीं।
ये मेरे बचपन का, मेरी मन:स्थितियों का और मेरे जागरण का लंदन था। वसंत में
लैम्बेथ की स्मृतियां - छोटी मोटी घटनाएं और चीज़ें। मां के साथ घोड़ा बस
में ऊपर जा कर बैठना और पास से गुज़रते लिलाक के दरख्तों को छूने की कोशिश
करना। तरह-तरह के रंगों की बस टिकटें, संतरे के रंग की, हरी, नीली, गुलाबी
और दूसरे रंगों की। जहां बसें और ट्रामें रुकती थीं, वहां फुटपाथ पर उन
टिकटों का बिखरा होना। मुझे वेस्टमिन्स्टर पुल के कोने पर फूल बेचने वाली
गुलाबी चेहरे वाली लड़कियां याद आती हैं जो कोट के बटन में लगाने वाले फूल
बनाया करती थीं। उनकी दक्ष उंगलियां तेजी से गोटे और किनारी के फर्न बनाती
चलतीं। ताज़े पानी छिड़के गुलाबों की भीगी-भीगी खुशबू, जो मुझे बेतरह उदास
कर जाती थी। और वो उदास कर देने वाले रविवार और पीले चेहरे वाले माता-पिता
और उनके बच्चे जो वेस्टमिन्स्टर पुल पर पवन चक्की के खिलौने तथा रंगीन
गुब्बारे लिये घिसटते चलते। और फिर पैनी स्टीमर जो हौले से पुल के नीचे से
जाते समय अपने फनेल नीचे कर लेते थे। मुझे लगता है इस तरह की छोटी-छोटी
घटनाओं से मेरी आत्मा का जन्म हुआ था।
और फिर, हमारे बैठने के कमरे से जुड़ी स्मृहतियां जिन्होंने मेरी
अनुभूतियों पर असर डाला।
नेल ग्वेन की मां की बनायी आदमकद पेंटिंग जिसे मैं पसंद नहीं करता था।
हमारे खाने-पीने की मेज़ के लम्बोतरे डिब्बे जो मुझमें अवसाद पैदा करते थे
और फिर छोटा-सा गोल म्यूजिक बॉक्स जिसकी ऐनामल की हुई सतह पर परियों की
तस्वीरें बनी हुई थीं। इसे देख मैं खुश भी होता था और परेशान भी।
महान पलों की स्मृतियां : रायल मछली घर में जाना, मां के साथ वहां के
स्लाइड शो देखना, लपटों में मुस्कुराती औरत का जीवित सिर देखना, 'शी'
देखना, छ: पेनी की भाग्यशाली लॉटरी, सरप्राइज़ पैकेट उठाने के लिए मां का
मुझे एक बहुत बड़े बुरादे के ड्रम तक ऊपर करना और उस पैकेट में से एक कैंडी
का निकलना जो बजती नहीं थी और एक खिलौने वाले ब्रूच का निकलना। और फिर
कैंटरबरी म्यूजिक हॉल में एक बार जाना जहां लाल आरामदायक सीट पर पांव पसार
कर बैठना और पिता को अभिनय करते हुए देखना।
और अब रात का वक्त हो रहा है और मैं चार घोड़ों वाली बग्घी में ऊपर की तरफ
सफरी झोले में लिपटा हुआ, मां और उसके थियेटर के और साथियों के साथ चला जा
रहा हूं। उनकी चाल में रमा तथा हंसी-खुशी में खुश। हमारा बिगुल बजाने वाला
अपनी शेखी में हमें केनिंगटन रोड से घोड़े की साज-सज्जा की सुमधुर रुन झुन
और घोड़ों की टापों की संगीतमय आवाज़ के साथ लिये जा रहा था।
•
तभी कुछ हुआ। ये एक महीने के बाद की बात भी हो सकती है या थोड़े ही दिनों
के बाद की भी। अचानक लगा कि मां और बाहर की दुनिया के साथ सब कुछ ठीक नहीं
चल रहा है। वह सुबह से अपनी किसी सखी के साथ बाहर गयी हुई थी और वापिस लौटी
तो बहुत अधिक उत्तेजना से भरी हुई थी। मैं फर्श पर खेल रहा था और अपने ठीक
ऊपर चल रहे भीषण तनाव के बारे में सतर्क हो गया था। ऐसा लग रहा था मानो मैं
कूएं की तलहटी में सुन रहा होऊं। मां भावपूर्ण तरीके से हाव-भाव जतला रही
थी, रोये जा रही थी और बार-बार आर्मस्ट्रंग का नाम ले रही थी - आर्मस्ट्रंग
ने ये कहा और आर्मस्ट्रंग ने वो कहा। आर्मस्ट्रंग जंगली है। मां की इस तरह
की उत्तेजना हमने पहले नहीं देखी थी और यह इतनी तेज थी कि मैंने रोना शुरू
कर दिया। मैं इतना रोया कि मज़बूरन मां को मुझे गोद में उठाना पड़ा और
दिलासा देनी पड़ी। कुछ बरस बाद ही मुझे उस दोपहरी के महत्त्व का पता चल
पाया था। मां अदालत से लौटी थी। वहां उसने मेरे पिता पर बच्चों के भरण पोषण
का खर्चा-पानी न देने की वजह से मुकदमा ठोक रखा था और बदकिस्मती से मामला
उसके पक्ष में नहीं जा रहा था। आर्मस्ट्रंग मेरे पिता का वकील था।
•
मैं पिता को बहुत ही कम जानता था और मुझे इस बात की बिल्कुल भी याद नहीं थी
कि वे कभी हमारे साथ रहे हों। वे भी वैराइटी स्टेज के कलाकार थे। एकदम शांत
और चिंतनशील। आंखें उनकी एकदम काली थीं। मां का कहना था कि वे एकदम
नेपोलियन की तरह दीखते थे। उनकी हल्की महीन आवाज़ थी और उन्हें बेहतरीन
अदाकार समझा जाता था। उन दिनों भी वे हर हफ्ते चालीस पौंड की शानदार रकम
कमा लिया करते थे। बस, दिक्कत सिर्फ एक ही थी कि वे पीते बहुत थे। मां के
अनुसार यही उन दोनों के बीच झगड़े की जड़ थी।
स्टेज कलाकारों के लिए यह बहुत ही मुश्किल बात होती कि वे पीने से अपने
आपको रोक सकें। कारण यह था कि उन दिनों शराब सभी थियेटरों में ही बिका करती
थी और कलाकार की अदाकारी के बाद उससे उम्मीद की जाती थी कि वह थियेटर बार
में जाये और ग्राहकों के साथ बैठ कर पीये। कुछ थियेटर तो बॉक्स ऑफिस से कम
और शराब बेच कर ज्यादा कमा लिया करते थे। कुछेक कलाकारों को तो तगड़ी
तन्ख्वाह ही दी जाती थी जिनमें उनकी प्रतिभा का कम और उस पगार को थियेटर के
बार में उड़ाने का ज्यादा योगदान रहता था। इस तरह से कई बेहतरीन कलाकार
शराब के चक्कर में बरबाद हो गये। मेरे पिता भी ऐसे कलाकारों में से एक थे।
वे मात्र सैंतीस बरस की उम्र में ज्यादा शराब के कारण भगवान को प्यारे हो
गये थे।
मां उनके बारे में मज़ाक ही मज़ाक में और उदासी के साथ किस्से बताया करती
थी। शराब पीने के बाद वे उग्र स्वभाव के हो जाते थे और उनकी इसी तरह की एक
बार की दारूबाजी की नौटंकी में मां उन्हें छोड़-छाड़ कर अपनी कुछ सखियों के
साथ ब्राइटन भाग गयी थी। पिता जी ने जब हड़बड़ी में तार भेजा,"तुम्हारा
इरादा क्या है और तुरंत जवाब दो?" तो मां ने वापसी तार भेजा था,"नाच, गाना,
पार्टियां और मौज-मज़ा, डार्लिंग!"
•
मां दो बहनों में से बड़ी थी। उनके पिता चार्ल्स हिल्स, जो एक आइरिश मोची
थे, काउंटी कॉर्क, आयरलैंड से आये थे। उनके गाल सुर्ख सेबों की तरह लाल थे।
उनके सिर पर बालों के सफेद गुच्छे थे। उनकी वैसी सफेद दाढ़ी थी जैसी
व्हिस्लर के पोट्रेट में कार्लाइल की थी। वे कहा करते थे कि राष्ट्रीय
आंदोलन के दिनों में पुलिस से छिपने-छिपाने के चक्कर में वे गीले नम खेतों
में सोते रहे। इस कारण से उनके घुटनों में हमेशा के लिए दर्द बैठ गया और इस
कारण वे दोहरे हो कर चलते थे। वे आखिर लंदन में आ कर बस गये थे और अपने लिए
ईस्ट लेन वेलवर्थ में जूतों की मरम्मत का काम-धंधा तलाश लिया था।
दादी आधी घुमक्कड़िन थी। यह बात हमारे परिवार का खुला रहस्य थी। दादी मां
हमेशा इस बात की शेखी बघारा करती थी कि उनका परिवार हमेशा ज़मीन का किराया
दे कर रहता आया था। उनका घर का नाम स्मिथ था। मुझे उनकी शानदार नन्हीं
बुढ़िया के रूप में याद है जो हमेशा मेरे साथ नन्हें-मुन्ने बच्चों जैसी
बातें करके मुझसे दुआ सलाम किया करती थी। मेरे छ: बरस के होने से पहले ही
वे चल बसी थीं। वे दादा से अलग हो गयी थीं जिसका कारण उन दोनों में से कोई
भी नहीं बताया करता था। लेकिन केट आंटी के अनुसार इसके पीछे पारिवारिक
झगड़ा था और दादा ने एक प्रेमिका रखी हुई थी और एक बार उसे बीच में ला कर
दादी को हैरानी में डाल दिया था।
आम जगह के मानदंडों के माध्यम से हमारे खानदान के नैतिकता को नापना उतना ही
गलत प्रयास होगा जितना गर्म पानी में थर्मामीटर डालकर देखना होता है। इस
तरह की आनुवंशिक काबलियत के साथ मोची परिवार की दो प्यारी बहनों ने घर-बार
छोड़ा और स्टेज को समर्पित हो गयीं।
केट आंटी, मां की छोटी बहन, भी स्टेज की अदाकारा थी। लेकिन हम उसके बारे
में बहुत ही कम जानते थे। इसका कारण यह था कि वह अक्सर हमारी ज़िंदगी में
से आती-जाती रहती थी। वह देखने में बहुत आकर्षक थी और गुस्सैल स्वभाव की थी
इसलिए मां से उसकी कम ही पटती थी। उसका कभी-कभार आना अचानक छोटे-मोटे टंटे
में ही खत्म होता था कि मां ने कुछ न कुछ उलटा सीधा कह दिया होता था या कर
दिया होता था।
अट्ठारह बरस की उम्र में मां एक अधेड़ आदमी के साथ अफ्रीका भाग गयी थी। वह
अक्सर वहां की अपनी ज़िंदगी की बात किया करती थी कि किस तरह से वह वहां
पेड़ों के झुरमुटों, नौकरों और जीन कसे घोड़ों के बीच मस्ती भरी ज़िंदगी जी
रही थी।
उसकी उम्र के अट्ठारहवें बरस में मेरे बड़े भाई सिडनी का जन्म हुआ था। मुझे
बताया गया था कि वह एक लॉर्ड का बेटा था और जब वह इक्कीस बरस का हो जायेगा
तो उसे वसीयत में दो हजार पौंड की शानदार रकम मिलेगी। इस समाचार से मैं एक
साथ ही दुखी और खुश हुआ करता था।
मां बहुत अरसे तक अफ्रीका में नहीं रही और इंगलैंड में आ कर उसने मेरे पिता
से शादी कर ली। मुझे नहीं पता कि उसकी ज़िंदगी के अफ्रीकी घटना-चक्र का
क्या हुआ, लेकिन भयंकर गरीबी के दिनों में मैं उसे इस बात के लिए कोसा करता
था कि वह इतनी शानदार ज़िंदगी काहे को छोड़ आयी थी। वह हँस देती और कहा
करती कि मैं इन चीज़ों को समझने की उम्र से बहुत कम हूं और मुझे इस बारे
में इतना नहीं सोचना चाहिये।
मुझे कभी भी इस बात का अंदाज़ा नहीं लग पाया कि वह मेरे पिता के बारे में
किस तरह की भावनाएं रखती थी। लेकिन जब भी वह मेरे पिता के बारे में बात
करती थी, उसमें कोई कड़ुवाहट नहीं होती थी। इससे मुझे शक होने लगता था कि
वह खुद भी उनके प्यार में गहरे-गहरे डूबी हुई थी। कभी तो वह उनके बारे में
बहुत सहानुभूति के साथ बात करती तो कभी उनकी शराबखोरी की लत और हिंसक
प्रवृत्ति के बारे में बताया करती थी। बाद के बरसों में जब भी वह मुझसे खफा
होती, वह हिकारत से कहती,''तू भी अपने बाप की ही तरह किसी दिन अपने आपको
गटर में खत्म कर डालेगा।"
वह पिताजी को अफ्रीका जाने से पहले के दिनों से जानती थी। वे एक दूसरे को
प्यार करते थे और उन्होंने शामुस ओ'ब्रीयन नाम के एक आयरिश मेलोड्रामा में
एक साथ काम किया था। सोलह बरस की उम्र में मां ने उसमें प्रमुख भूमिका
निभायी थी। कम्पनी के साथ टूर करते हुए मां एक अधेड़ उम्र के लॉर्ड के
सम्पर्क में आयी और उसके साथ अफ्रीका भाग गयी। जब वह वापिस इंगलैंड आयी तो
पिता ने अपने रोमांस के टूटे धागों को फिर से जोड़ा और दोनों ने शादी कर
ली। तीन बरस बाद मेरा जन्म हुआ था। मैं नहीं जानता कि शराबखोरी के अलावा और
कौन-कौन सी घटनाएं काम कर रही थीं लेकिन मेरे जन्म के एक बरस के ही बाद वे
दोनों अलग हो गये थे। मां ने गुज़ारे भत्ते की भी मांग नहीं की थी। वह उन
दिनों खुद एक स्टार हुआ करती थी और हर हफ्ते 25 पौंड कमा रही थी। उसकी माली
हैसियत इतनी अच्छी थी कि अपना और अपने बच्चों का भरण पोषण कर सके। लेकिन जब
उसकी ज़िंदगी में दुर्भाग्य ने दस्तक दी तभी उसने मदद की मांग की। अगर ऐसा
न होता तो उसने कभी भी कानूनी कार्रवाई न की होती।
•
मां को उसकी आवाज़ बहुत तकलीफ दे रही थी। वैसे भी उसकी आवाज़ कभी भी इतनी
बुलंद नहीं थी लेकिन ज़रा-सा भी सर्दी-जुकाम होते ही उसकी स्वर तंत्री में
सूजन आ जाती थी जो फिर हफ्तों चलती रहती थी; लेकिन उसे मज़बूरी में काम
करते रहना पड़ता था। इसका नतीजा यह हुआ कि उसकी आवाजा़ बद से बदतर होती चली
गयी। वह अब अपनी आवाज़ पर भरोसा नहीं कर सकती थी। गाना गाते-गाते बीच में
ही उसकी आवाज़ भर्रा जाती या अचानक गायब ही हो जाती और फुसफुसाहट में बदल
जाती। तब श्रोता बीच में ठहाके लगने लगते। वे गला फाड़ कर चिल्लाना शुरू कर
देते। आवाज़ की चिंता ने मां की सेहत को और भी डांवाडोल कर दिया था और उसकी
हालत मानसिक रोगी जैसी हो गयी। नतीजा यह हुआ कि उसे थियेटर से बुलावे आने
कम होते चले गये और एक दिन ऐसा भी आया कि बिल्कुल बंद ही हो गये।
ये उसकी आवाजा़ के खराब होते चले जाने के कारण ही था कि मुझे पांच बरस की
उम्र में पहली बार स्टेज पर उतरना पड़ा। मां आम तौर पर मुझे किराये के कमरे
में अकेला छोड़ कर जाने के बजाये रात को अपने साथ थियेटर ले जाना पसंद करती
थी। वह उस वक्त कैंटीन एट द' एल्डरशाट में काम कर रही थी। ये एक गंदा,
चलताऊ-सा थियेटर था जो ज्यादातर फौजियों के लिए खेल दिखाता था। वे लोग
उजड्ड किस्म के लोग होते थे और उन्हें भड़काने या ओछी हरकतों पर उतर आने के
लिए मामूली-सा कारण ही काफी होता था। एल्डरशॉट में नाटकों में काम करने
वालों के लिए वहां एक हफ्ता भी गुज़ारना भयंकर तनाव से गुज़रना होता था।
मुझे याद है, मैं उस वक्त विंग्स में खड़ा हुआ था जब पहले तो मां की आवाज़
फटी और फिर फुसफुसाहट में बदल गयी। श्रोताओं ने ठहाके लगाना शुरू कर दिये
और अनाप-शनाप गाने लगे और कुत्ते बिल्लियों की आवाज़ें निकालना शुरू कर
दिया। सब कुछ अस्पष्ट-सा था और मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा था कि ये सब
क्या चल रहा है। लेकिन शोर-शराबा बढ़ता ही चला गया और मज़बूरन मां को स्टेज
छोड़ कर आना पड़ा। जब वह विंग्स में आयी तो बुरी तरह से व्यथित थी और स्टेज
मैनेजर से बहस कर रही थी। स्टेज मैनेजर ने मुझे मां की सखियों के आगे अभिनय
करते देखा था। वह मां से शायद यह कह रहा था कि उसके स्थान पर मुझे स्टेज पर
भेज दे।
और इसी हड़बड़ाहट में मुझे याद है कि उसने मुझे एक हाथ से थामा था और स्टेज
पर ले गया था। उसने मेरे परिचय में दो चार शब्द बोले और मुझे स्टेज पर
अकेला छोड़ कर चला गया। और वहां फुट लाइटों की चकाचौंध और धुंए के पीछे
झांकते चेहरों के सामने मैंने गाना शुरू कर दिया। ऑरक्रेस्टा मेरा साथ दे
रहा था। थोड़ी देर तक तो वे भी गड़बड़ बजाते रहे और आखिर उन्होंने मेरी धुन
पकड़ ही ली। ये उन दिनों का एक मशहूर गाना जैक जोन्स था।
जैक जोंस सबका परिचित और देखा भाला
घूमता रहता बाज़ार में गड़बड़झाला
नहीं नज़र आती कोई कमी जैक में हमें
तब भी नहीं जब वो जैसा था तब कैसा था
हो गयी गड़बड़ जब से छोड़ा उसे बुलियन गाड़ी ने
हो गया बेड़ा गर्क, जैक गया झाड़ी में
नहीं मिलता वह दोस्तों से पहले की तरह
भर देता है मुझे वह हिकारत से
पढ़ता है हर रविवार वह अखबार टेलिग्राफ
कभी वह बन कर खुश था स्टार
जब से जैक के हाथ में आयी है माया
क्या बतायें, हमने उसे पहले जैसा नहीं पाया।
अभी मैंने आधा ही गीत गाया था कि स्टेज पर सिक्कों की बरसात होने लगी।
मैंने तत्काल घोषणा कर दी कि मैं पहले पैसे बटोरूंगा और उसके बाद ही गाना
गाऊंगा। इस बात पर और अधिक ठहाके लगे। स्टेज मैनेजर एक रुमाल ले कर स्टेज
पर आया और सिक्के बटोरने में मेरी मदद करने लगा। मुझे लगा कि वो सिक्के
अपने पास रखना चाहता है। मैंने ये बात दर्शकों तक पहुंचा दी तो ठहाकों का
जो दौरा पड़ा वो थमने का नाम ही न ले। खास तौर पर तब जब वह रुमाल लिये-लिये
विंग्स में जाने लगा और मैं चिंतातुर उसके पीछे-पीछे लपका। जब तक उसने
सिक्कों की वो पोटली मेरी मां को नहीं थमा दी, मैं स्टेज पर वापिस गाने के
लिए नहीं आया। अब मैं बिल्कुल सहज था। मैं दर्शकों से बातें करता रहा, मैं
नाचा और मैंने तरह-तरह की नकल करके दिखायी। मैंने मां के आयरिश मार्च थीम
की भी नकल करके बतायी।
रिले . . रिले. . बच्चे को बहकाते रिले
रिले. . रिले. . मैं वो बच्चा जिसे बहकाते रिले
हो बड़ी या हो सेना छोटी
नहीं कोई इतना दुबला और साफ
करते अच्छे सार्जेंट रिले
बहादुर अट्ठासी में से रिले. .।
और कोरस को दोहराते हुए मैं अपने भोलेपन में मां की आवाज़ के फटने की भी
नकल कर बैठा। मैं ये देख कर हैरान था कि दर्शकों पर इसका जबरदस्त असर पड़ा
है। खूब हंसी के पटाखे छूट रहे थे। लोग खूब खुश थे और इसके बाद फिर सिक्कों
की बौछार। और जब मां मुझे स्टेज से लिवाने के लिए आयी तो उसकी मौज़ूदगी पर
लोगों ने जम के तालियां बजायीं। उस रात मैं अपनी ज़िंदगी में पहली बार
स्टेज पर उतरा था और मां आखिरी बार।
•
जब नियति आदमी के भाग्य के साथ खिलवाड़ करती है तो उसके ध्यान में न तो दया
होती है और न ही न्याय ही। मां के साथ भी नियति ने ऐसे ही खेल दिखाये। उसे
उसकी आवाज़ फिर कभी वापिस नहीं मिली। जब पतझड़ के बाद सर्दियां आयीं तो
हमारी हालत बद से बदतर हो गयी। हालांकि मां बहुत सावधान थी और उसने
थोड़े-बहुत पैसे बचा कर रखे थे लेकिन कुछ ही दिन में ये पूंजी भी खत्म हो
गयी। धीरे-धीरे उसके गहने और छोटी-मोटी चीज़ें बाहर का रास्ता देखने लगीं।
ये चीज़ें घर चलाने के लिए गिरवी रखी जा रही थीं। और इस पूरे अरसे के दौरान
वह उम्मीद करती रही कि उसकी आवाज़ वापिस लौट आयेगी।
इस बीच हम तीन आरामदायक कमरों के मकान में से दो कमरों के मकान में और फिर
एक कमरे के मकान में शिफ्ट हो चुके थे। हमारा सामान कम होता चला जा रहा था
और हर बार हम जिस तरह के पड़ोस में रहने के लिए जाते, उसका स्तर नीचे आता
जा रहा था।
तब वह धर्म की ओर मुड़ गयी थी। मुझे इसका कारण तो यह लगता है कि शायद उसे
यह उम्मीद थी कि इससे उसकी आवाज़ वापिस लौट आयेगी। वह नियमित रूप से
वेस्टमिन्स्टर ब्रिज रोड पर क्राइस्ट चर्च जाया करती और हर इतवार को मुझे
बाख के आर्गन म्यूजिक के लिए बैठना पड़ता और पादरी एफ बी मेयेर की जोशीली
तथा ड्रामाई आवाज़ को सुनना पड़ता जो गिरजे के मध्य भाग से घिसटते हुए
पैरों की तरह आती प्रतीत होती। ज़रूर ही उनके भाषणों में अपील होती होगी
क्योंकि मैं अक्सर मां को दबोच कर थाम लेता और चुपके से अपने आंसू पोंछ
डालता। हालांकि इससे मुझे परेशानी तो होती ही थी।
मुझे अच्छी तरह से याद है उस गर्म दोपहरी में पवित्र प्रार्थना सभा की जब
वहां भीड़ में से चांदी का एक ठंडा प्याला गुज़ारा गया। उस प्याले में
स्वादिष्ट अंगूरों का रस भरा हुआ था। मैंने उसमें से ढेर सारा जूस पी लिया
था और मां का मुझे रोकता-सा वह नम नरम हाथ और तब मैंने कितनी राहत महसूस की
थी जब फादर ने बाइबल बंद की थी। इसका मतलब यही था कि अब प्रार्थनाएं शुरू
होंगी और ईश वंदना के अंतिम गीत गाये जायेंगे।
मां जब से धर्म की शरण में गयी थी, वह थियेटर की अपनी सखियों से कभी-कभार
ही मिल पाती। उसकी वह दुनिया अब छू मंतर हो चुकी थी और उसकी अब यादें ही
बची थीं। ऐसा लगता था मानो हम हमेशा से ही इस तरह के दयनीय हालात में रहते
आये थे। बीच का एक बरस तो तकलीफों के पूरे जीवन काल की तरह लगा था। हम अब
बेरौनक धुंधलके कमरे में रहते थे। काम-धाम तलाशना बहुत ही दूभर था और मां
को स्टेज के अलावा कुछ आता-जाता नहीं था, इससे उसके हाथ और बंध जाते थे। वह
छोटे कद की, लालित्य लिये भावुक महिला थी। वह विक्टोरियन युग की ऐसी भयंकर
विकट परिस्थितियों से जूझ रही थी जहां अमीरी और गरीबी के बीच बहुत बड़ी खाई
थी। गरीब-गुरबा औरतों के पास हाथ का काम करने, मेहनत मजूरी करने के अलावा
और कोई चारा नहीं था या फिर थी दुकानों वगैरह में हाड़-तोड़ गुलामी।
कभी-कभार उसे नर्सिंग का काम मिल जाता था लेकिन इस तरह के काम भी बहुत
दुर्लभ होते और ये भी बहुत ही कम अरसे के लिए होते। इसके बावजूद वह कुछ न
कुछ जुगाड़ कर ही लेती। वह थियेटर के लिए अपनी पोशाकें खुद सीया करती थी
इसलिए सीने-पिरोने के काम में उसका हाथ बहुत अच्छा था। इस तरह से वह चर्च
के लोगों की कुछ पोशाकें सी कर कुछेक शिलिंग कमा ही लेती थी। लेकिन ये कुछ
शिलिंग हम तीनों के गुज़ारे के लिए नाकाफी होते। पिता जी की दारूखोरी के
कारण उन्हें थियेटर में काम मिलना अनियमित होता चला गया और इस तरह हर हफ्ते
मिलने वाला उनका दस शिलिंग का भुगतान भी अनियमित ही रहता।
•
मां अब तक अपनी अधिकांश चीज़ें बेच चुकी थी। सबसे आखिर में बिकने के लिए
जाने वाली उसकी वो पेटी थी जिसमें उसकी थियेटर की पोशाकें थीं। वह इन
चीज़ों को अब तब इसलिए अपने पास संभाल कर रखे हुए थी कि शायद कभी उसकी
आवाज़ वापिस लौट आये और उसे फिर से थियेटर में काम मिलना शुरू हो जाये।
कभी-कभी वह ट्रंक के भीतर झांकती कि शायद कुछ काम का मिल जाये। तब हम कोई
मुड़ी-तुड़ी पोशाक या विग देखते तो उससे कहते कि वह इसे पहन कर दिखाये।
मुझे याद है कि हमारे कहने पर उसने जज की एक टोपी और गाउन पहने थे और अपनी
कमज़ोर आवाज़ में अपना एक पुराना सफल गीत सुनाया था। ये गीत उसने खुद लिखा
था। गीत के बोल तुकबंदी लिये हुए थे और इस तरह से थे:
मैं हूं एक महिला जज
और मैं हूं एक अच्छी जज
मामलों के फैसले करती ईमानदारी से
पर आते ही नहीं मामले पास मेरे
मैं सिखाना चाहती हूं वकीलों को
एकाध काम की बात
क्या नहीं कर सकती औरत जात।
आश्चर्यजनक तरीके से तब वह गरिमापूर्ण लगने वाले नृत्य की भंगिमाएं दिखाने
लगती। वह तब कसीदाकारी भूल जाती और हमें अपने पुराने सफल गीतों से और
नृत्यों से तब तक खुश करती रहती जब तक वह थक कर चूर न हो जाती और उसकी सांस
न उखड़ने लगती। तब वह बीती बातें याद करते लगती और हमें अपने नाटकों के कुछ
पुराने पोस्टर दिखाती। एक पोस्टर इस तरह से था:
खासो-खास प्रदर्शन
नाज़ुक और प्रतिभा सम्पन्न
लिली हार्ले
गम्भीर हास्य की देवी,
बहुरूपिन और नर्तकी
जब वह हमारे सामने प्रदर्शन करती तो वह अपने खुद के मनोरंजक अंश तो दिखाती
ही, दूसरी अभिनेत्रियों की भी नकल दिखाती जिन्हें उसने तथा कथित वैध
थियेटरों में काम करते देखा था।
किसी नाटक को सुनाते समय वह अलग-अलग अंशों का अभिनय करके दिखाती। उदाहरण के
लिए द' साइन ऑफ द' क्रॉस' में मर्सिया अपनी आंखों में अलौकिक प्रकाश भरे,
शेरों को खाना खिलाने के लिए मांद वाले पिंजरे में जाती है। वह हमें विल्सन
बैरट की ऊंची पोप जैसी आवाज में नकल करके दिखाती। वह छोटे कद का आदमी था
इसलिए पांच इंच ऊंची हील वाले जूते पहन कर घोषणा करता:"यह ईसाइयत क्या है,
मैं नहीं जानता लेकिन मैं इतना ज़रूर जानता हूं कि..कि यदि ईसाइयत ने
मर्सिया जैसी औरतें बनायी हैं तो रोम, नहीं, जगत ही इसके लिए पवित्रतम
होगा।" इस अंश को हास्य की झलक के साथ करके दिखाती लेकिन उसमें बैरेट की
प्रतिभा के प्रति सराहना भाव ज़रूर होता।
जिन व्यक्तियों में वास्तविक प्रतिभा थी, उन्हें पहचानने, मान देने में
उसका कोई सानी नहीं था। चाहे फिर वह नायिका ऐलेन टेरी हो, या म्यूजिक हॉल
की जो एल्विन, वह उनकी कला की व्याख्या करती। वह तकनीक की बारीक जानकारी
रखती थी और थियेटर के बारे में ऐसे व्यक्ति की तरह बात करती थी जो थियेटर
को प्यार करने वाले ही कर सकते हैं।
वह अलग-अलग किस्से सुनाती और उनका अभिनय करके दिखाती। उदाहरण के लिए, वह
याद करती सम्राट नेपोलियन के जीवन का कोई प्रसंग : दबे पांव अपने पुस्तकालय
में किसी किताब की तलाश में जाना और मार्शल नेय द्वारा रास्ते में घेर लिया
जाना। मां ये दोनों ही भूमिकाएं अदा करती लेकिन हमेशा हास्य का पुट ले कर,
"महाशय, मुझे इजाज़त दीजिये कि मैं आपके लिये ये किताब ला दूं। मेरा कद
ऊंचा है।" और नेपोलियन यह कहते हुए खफ़ा होते हुए गुर्राया "ऊंचा या
लम्बा?"
मां नेल ग्विन का विस्तार से अभिनय करके बताती कि वह किस तरह से महल की
सीढ़ियों पर झुकी हुई है और उसकी बच्ची उसकी गोद में है। वह चार्ल्स II को
धमकी दे रही है,"इस बच्ची को कोई नाम दो वरना मैं इसे ज़मीन पर पटक दूंगी।"
और सम्राट चार्ल्स हड़बड़ी में सहमत हो जाते हैं, "ठीक है, ठीक है, द'
ड्यूक ऑफ अल्बांस।"
•
मुझे ओक्ले स्ट्रीट में तहखाने वाले एक कमरे के घर की वह शाम याद है। मैं
बुखार उतरने के बाद बिस्तर पर लेटा आराम कर रहा था। सिडनी रात वाले स्कूल
में गया हुआ था और मां और मैं अकेले थे। दोपहर ढलने को थी। मां खिड़की से
टेक लगाये न्यू टेस्टामेंट पढ़ रही थी, अभिनय कर रही थी, और अपने अतुलनीय
तरीके से उसकी व्याख्या कर रही थी। वह गरीबों और मासूम बच्चों के प्रति
यीशू मसीह के प्रेम और दया के बारे में बता रही थी। शायद उसकी संवेदनाएं
मेरे बुखार के कारण थीं, लेकिन उसने जिस शानदार और मन को छू लेने वाले ढंग
से यीशू के नये अर्थ समझाये वैसे मैंने न तो आज तक सुने और न ही देखे ही
हैं। मां उनकी सहिष्णुता और समझ के बारे में बता रही थी; उसने उस महिला के
बारे में बताया जिससे पाप हो गया था और उसे भीड़ द्वारा पत्थर मार कर सज़ा
दी जानी थी, और उनके प्रति यीशू के शब्द, "आप में से जिसने कभी पाप न किया
हो वही आगे आ कर सबसे पहला पत्थर मारे।"
सांझ का धुंधलका होने तक वह पढ़ती रही। वह सिर्फ लैम्प जलाने की लिए ही
उठी। तब उसने उस विश्वास के बारे में बताया जो यीशू मसीह ने बीमारों में
जगाया था। बीमारों को बस, उनके चोगे की तुरपन को ही छूना होता था और वे
चंगे हो जाते थे।
मां ने बड़े-बड़े पादरियों और महिला पादरियों की घृणा के बारे में बताया और
बताया कि किस तरह से यीशू मसीह को गिरफ्तार किया गया था और वे किस तरह से
पोंटियस के सामने शांत बने रहे थे। पोंटियस ने हाथ धोते हुए कहा था (मां ने
बहुत ही शानदार अभिनय करके ये बताया)," मुझे इस आदमी में कोई खराबी ही नज़र
नहीं आती।" तब मां ने बताया कि किस तरह से उन लोगों ने यीशू को निर्वस्त्र
कर डाला था और उसे जलील किया था और उसके सिर पर कांटों का ताज पहना दिया
था, उसका मज़ाक उड़ाया था और उसके मुंह पर ये कहते हुए थूका था, "ओ
यहूदियों के राजा ..।"
जब वह ये सब सुना रही थी तो उसके गालों पर आंसू ढरके चले आ रहे थे। मां ने
बताया कि किस तरह से साइमन ने क्रॉस ढोने में यीशू मसीह की मदद की थी और
किस तरह भाव विह्वल हो कर यीशू ने उसे देखा था। मां ने बाराबास के बारे में
बताया जो पश्चातापी था और क्रॉस पर उनके साथ ही मरा था। वह क्षमा मांग रहा
था और यीशू कह रहे थे, "आज तुम मेरे साथ स्वर्ग में होवोगे", और क्रॉस से
अपनी मां की ओर देखते हुए यीशू ने कहा था, "मां, अपने बेटे को देखो।" और
उनकी अंतिम, मरते वक्त की पीड़ा भरी कराह, "मेरे परम पिता, आपने मुझे क्षमा
क्यों नहीं किया?"
और हम दोनों रो पड़े थे।
"तुमने देखा", मां कह रही थी, "वे मानवता से कितने भरे हुए थे। हम सब की
तरह उन्हें भी संदेह झेलना पड़ा।"
मां ने मुझे इतना भाव विह्वल कर दिया था कि मैं उसी रात मर जाना और यीशू से
मिलना चाहता था। लेकिन मां इतनी उत्साहित नहीं थी, "यीशू चाहते हैं कि पहले
तुम जीओ और अपने भाग्य को यहीं पूरा करो।" उसने कहा था। ओक्ले स्ट्रीट के
उस तहखाने के उस अंधेरे कमरे में मां ने मुझे उस ज्योति से भर दिया था जिसे
विश्व ने आज तक जाना है और जिसने पूरी दुनिया को एक से बढ़ कर एक कथा तत्व
वाले साहित्य और नाटक दिये हैं: प्यार, दया और मानवता।
•
हम समाज के जिस निम्नतर स्तर के जीवन में रहने को मज़बूर थे वहां ये सहज
स्वाभाविक था कि हम अपनी भाषा-शैली के स्तर के प्रति लापरवाह होते चले जाते
लेकिन मां हमेशा अपने परिवेश से बाहर ही खड़ी हमें समझाती और हमारे बात
करने के ढंग, उच्चारण पर ध्यान देती रहती, हमारा व्याकरण सुधारती रहती और
हमें यह महसूस कराती रहती कि हम खास हैं।
हम जैसे-जैसे और अधिक गरीबी के गर्त में उतरते चले गये, मैं अपनी अज्ञानता
के चलते और बचपने में मां से कहता कि वह फिर से स्टेज पर जाना शुरू क्यों
नहीं कर देती। मां मुस्कुराती और कहती कि वहां का जीवन नकली और झूठा है और
कि इस तरह के जीवन में रहने से हम जल्दी ही ईश्वर को भूल जाते हैं। इसके
बावज़ूद वह जब भी थियेटर की बात करती तो वह अपने आपको भूल जाती और उत्साह
से भर उठती। यादों की गलियों में उतरने के बाद वह फिर से मौन के गहरे कूंए
में उतर जाती और अपने सुई धागे के काम में अपने आपको भुला देती। मैं भावुक
हो जाता क्योंकि मैं जानता था कि हम अब उस शानो-शौकत वाली ज़िंदगी का
हिस्सा नहीं रहे थे। तब मां मेरी तरफ देखती और मुझे अकेला पा कर मेरा हौसला
बढ़ाती।
सर्दियां सिर पर थीं और सिडनी के कपड़े कम होते चले जा रहे थे। इसलिए मां
ने अपने पुराने रेशमी जैकेट में से उसके लिए एक कोट सी दिया था। उस पर काली
और लाल धारियों वाली बांहें थीं। कंधे पर प्लीट्स थी और मां ने पूरी कोशिश
की थी कि उन्हें किसी तरह से दूर कर दे लेकिन वह उन्हें हटा नहीं पा रही
थी। जब सिडनी से वह कोट पहनने के लिए कहा गया तो वह रो पड़ा था, "स्कूल के
बच्चे मेरा ये कोट देख कर क्या कहेंगे?"
"इस बात की कौन परवाह करता है कि लोग क्या कहेंगे?" मां ने कहा था,"इसके
अलावा, ये कितना खास किस्म का लग रहा है।" मां का समझाने-बुझाने का तरीका
इतना शानदार था कि सिडनी आज दिन तक नहीं समझ पाया है कि वह मां के फुसलाने
पर वह कोट पहनने को आखिर तैयार ही कैसे हो गया था। लेकिन उसने कोट पहना था।
उस कोट की वजह से और मां के ऊंची हील के सैंडिलों को काट-छांट कर बनाये गये
जूतों से सिडनी के स्कूल में कई झगड़े हुए। उसे सब लड़के छेड़ते,"जोसेफ और
उसका रंग बिरंगा कोट।" और मैं, मां की पुरानी लाल लम्बी जुराबों में से
काट-कूट कर बनायी गयी जुराबें (लगता जैसे उनमें प्लीटें डाली गयी हैं।) पहन
कर जाता तो बच्चे छेड़ते,"आ गये सर फ्रांसिस ड्रेक।"
•
इस भयावह हालात के चरम दिनों में मां को आधी सीसी सिर दर्द की शिकायत शुरू
हुई। उसे मज़बूरन अपना सीने-पिरोने का काम छोड़ देना पड़ा। वह कई-कई दिन तक
अंधेरे कमरे में सिर पर चाय की पत्तियों की पट्टियां बांधे पड़ी रहती।
हमारा वक्त खराब चल रहा था और हम गिरजा घरों की खैरात पर पल रहे थे, सूप की
टिकटों के सहारे दिन काट रहे थे और मदद के लिए आये पार्सलों के सहारे जी
रहे थे। इसके बावजूद, सिडनी स्कूल के घंटों के बीच अखबार बेचता, और बेशक
उसका योगदान ऊंट के मुंह में जीरा ही होता, ये उस खैरात के सामान में कुछ
तो जोड़ता ही था। लेकिन हर संकट में हमेशा कोई न कोई क्लाइमेक्स भी छुपा
होता है। इस मामले में ये क्लाइमेक्स बहुत सुखद था।
एक दिन जब मां ठीक हो रही थी, चाय की पत्ती की पट्टी अभी भी उसके सिर पर
बंधी थी, सिडनी उस अंधियारे कमरे में हांफता हुआ आया और अखबार बिस्तर पर
फेंकता हुआ चिल्लाया,"मुझे एक बटुआ मिला है।" उसने बटुआ मां को दे दिया। जब
मां ने बटुआ खोला तो उसने देखा, उसमें चांदी और सोने के सिक्के भरे हुए थे।
मां ने तुरंत उसे बंद कर दिया और उत्तेजना से वापिस अपने बिस्तर पर ढह गयी।
सिडनी अखबार बेचने के लिए बसों में चढ़ता रहता था। उसने बस के ऊपरी तल्ले
पर एक खाली सीट पर बटुआ पड़ा हुआ देखा। उसने तुरंत अपने अखबार उस सीट के
ऊपर गिरा दिये और फिर अखबारों के साथ पर्स भी उठा लिया और तेजी से बस से
उतर कर भागा। एक बड़े से होर्डिंग के पीछे, एक खाली जगह पर उसने बटुआ खोल
कर देखा और उसमें चांदी और तांबे के सिक्कों का ढेर पाया। उसने बताया कि
उसका दिल बल्लियों उछल रहा था और और वह बिना पैसे गिने ही घर की तरफ भागता
चला आया।
जब मां की हालत कुछ सुधरी तो उसने बटुए का सारा सामान बिस्तर पर उलट दिया।
लेकिन बटुआ अभी भी भारी था। उसके बीच में भी एक जेब थी। मां ने उस जेब को
खोला और देखा कि उसके अंदर सोने के सात सिक्के छुपे हुए थे। हमारी खुशी का
ठिकाना नहीं था। ईश्वर का लाख-लाख शुक्र कि बटुए पर कोई पता नहीं था। इसलिए
मां की झिझक थोड़ी कम हो गयी थी। हालांकि उस बटुए के मालिक के दुर्भाग्य के
प्रति थोड़ा-सा अफसोस जताया गया था, अलबत्ता, मां के विश्वास ने तुरंत ही
इसे हवा दे दी कि ईश्वर ने इसे हमारे लिए एक वरदान के रूप में ऊपर से भेजा
है।
मां की बीमारी शारीरिक थी अथवा मनोवैज्ञानिक, मैं नहीं जानता। लेकिन वह एक
हफ्ते के भीतर ही ठीक हो गयी। जैसे ही वह ठीक हुई, हम छुट्टी मनाने के लिए
समुद्र के दक्षिण तट पर चले गये। मां ने हमें ऊपर से नीचे तक नये कपड़े
पहनाये।
पहली बार समुद्र को देख मैं जैसे पागल हो गया था। जब मैं उस पह़ाड़ी गली
में तपती दोपहरी में समुद्र के पास पहुंचा तो मैं ठगा-सा रह गया। हम तीनों
ने अपने जूते उतारे और पानी में छप-छप करते रहे। मेरे तलुओं और मेरे टखनों
को गुदगुदाता समुद्र का गुनगुना पानी और मेरे पैरों के तले से सरकती नम,
नरम और भुरभुरी रेत.. मेरे आनंद का ठिकाना नहीं था।
वह दिन भी क्या दिन था। केसरी रंग का समुद्र तट, उसकी गुलाबी और नीली
डोलचियां और उस पर लकड़ी के बेलचे। उसके सतरंगी तंबू और छतरियां, लहरों पर
इतराती कश्तियां, और ऊपर तट पर एक तरह करवट ले कर आराम फरमाती कश्तियां
जिनमें समुद्री सेवार की गंध रची-बसी थी और वे तट। इन सबकी यादें अभी भी
मेरे मन में चरम उत्तेजना से भरी हुई लगती हैं।
1957 में मैं दोबारा साउथ एंड तट पर गया और उस संकरी पहाड़ी गली को खोजने
का निष्फल प्रयास करता रहा जिससे मैंने समुद्र को पहली बार देखा था लेकिन
अब वहां उसका कोई नामो-निशान नहीं था। शहर के आखिरी सिरे पर वहां जो कुछ
था, पुराने मछुआरों के गांव के अवशेष ही दीख रहे थे जिसमें पुराने ढब की
दुकानें नजर आ रही थीं। इसमें अतीत की धुंधली सी सरसराहट छुपी हुई थी। शायद
यह समुद्री सेवार की और टार की महक थी।
बालू घड़ी में भरी रेत की तरह हमारा खज़ाना चुक गया। मुश्किल समय एक बार
फिर हमारे सामने मुंह बाये खड़ा था। मां ने दूसरा रोज़गार ढूंढने की कोशिश
की लेकिन कामकाज कहीं था ही नहीं। किस्तों की अदायगी का वक्त हो चुका था।
नतीजा यही हुआ कि मां की सिलाई मशीन उठवा ली गयी। पिता की तरफ से जो हर
हफ्ते दस शिलिंग की राशि आती थी, वह भी पूरी तरह से बंद हो गयी।
हताशा के ऐसे वक्त में मां ने दूसरा वकील करने की सोची। वकील ने जब देखा कि
इसमें से मुश्किल से ही वह फीस भर निकाल पायेगा, तो उसने मां को सलाह दी कि
उसे लैम्बेथ के दफ्तर के प्राधिकारियों की मदद लेनी चाहिये ताकि अपने और
अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए पिता पर मदद के लिए दबाव डाला जा सके।
और कोई उपाय नहीं था। उसके सिर पर दो बच्चों को पालने का बोझ था। उसका खुद
का स्वास्थ्य खराब था। इसलिए उसने तय किया कि हम तीनों लैम्बेथ के यतीम
खाने (वर्कहाउस) में भरती हो जायें।
अध्याय
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2 -3
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