चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा
एक बार मैं उनके साथ कैम्ब्रिज की सड़कों पर घूम रहा था। अचानक ही मैंने
बड़ा भयंकर दृश्य देखा जो शायद फ्रांसीसी क्रान्ति में ही दिखाई दिया होगा।
दो उठाईगीरों को पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया था, और जेल ले जाते समय
उग्र भीड़ ने उन्हें हवलदार के हाथों से झपट लिया, और उसी धूलभरी तथा
पथरीली सड़क पर दोनों उठाईगीरों की टाँगें पकड़कर घसीटने लगे। वे दोनों ही
सिर से पैर तक धूल से सने हुए थे। लात घूंसों और पत्थरों की मार से उनके
चेहरे लहूलुहान थे। दोनों ही अधमरे हुए जा रहे थे। भीड़ इतनी ज्यादा थी कि
उन दोनों आफत के मारे उठाईगीरों की एक झलक भर देख पाए थे हम दोनों। उस
भयंकर दृश्य को देखकर हेन्सलों के चेहरे पर जो पीड़ा मैंने देखी वैसी मैंने
अपने जीवन में कभी नहीं देखी। उन्होंने बार बार भीड़ को चीरकर रास्ता बनाने
की कोशिश की लेकिन वह तो असम्भव था। वे तुरन्त मेयर के पास भागे और मुझसे
कहा कि उनके पीछे आने के बजाये मैं कुछ और पुलिसवालों को बुला लाऊँ। बाकी
तो याद नहीं, हाँ इतना ज़रूर हुआ कि पुलिस दोनों उठाईगीरों को जिन्दा ही
जेल पहुँचाने में सफल रही।
हेन्सलो की परोपकारिता अपरिमित थी। उन्होंने गरीब देहातियों के लिए जो
बेहतरीन योजनाएं तैयार कीं, उनसे इसके पक्के प्रमाण मिलते हैं। हिचेम में
रहने के दौरान तो उन्होंने बहुतों का भला किया। ऐसे इंसान के साथ तो मेरी
घनिष्ठता होनी ही थी, और मेरे ख्याल से यह मेरे लिए अपार लाभदायक भी रहा।
मैं एक छोटा-सा वाकया बताता हूँ जो उनकी उदारता को
प्रकट करता है। नमीदार सतह पर पराग कणों की परीक्षा करते समय मैंने देखा कि
कुछ गाँठें सी निकल आयी हैं। अपनी यह आश्चर्यजनक खोज उन्हें तुरन्त बताने
के लिए मैं भागा भागा गया। उनकी जगह वनस्पतिशास्त्र का कोई दूसरा प्रोफेसर
होता तो इस तरह की जानकारी देने के लिए मेरी बदहवासी पर हंसे बिना न रहता।
लेकिन उन्होंने इस घटना को बड़ा रोचक बताया और इसका आशय समझाते हुए यह भी
स्पष्ट किया कि यह कोई नई घटना नहीं है, बल्कि सर्वविदित है। इस घटना से वे
तो बहुत कम प्रभावित हुए लेकिन मुझे उन्होंने यही एहसास कराया कि मैंने
स्वयं ही बहुत उल्लेखनीय तथ्य को भली प्रकार समझ लिया है। साथ ही मैं इसके
लिए भी कृतसंकल्प हो उठा कि अब अपनी खोज को लेकर इतनी जल्दबाजी नहीं
करूँगा।
डॉक्टर व्हीवेल पुराने परिचितों और खास लोगों में से एक थे। हेन्सलो के पास
इनका आना जाना होता रहता था। मैं कई बार रात में उनके साथ ही घर लौटता था।
गम्भीर विषयों पर व्याख्यान देने में सर जे मेकिनटोश के बाद उन्हीं का
स्थान था, लेकिन मैंने उनके व्याख्यान कभी नहीं सुने। हेन्सलो और लियोनार्ड
जेन्यन्स में जीजा साले का रिश्ता था। लियोनार्ड भी कभी कभार हेन्सलो के
यहाँ रुकते थे। इन्होंने आगे चलकर प्राकृतिक इतिहास में बहुत से उत्कृष्ट
निबन्ध प्रकाशित कराए। लियोनार्ड जब फैन्स (स्वाथम बुलबेक) की सीमा पर रह
रहे थे, तो मैं खास मेहमान के तौर पर उनके पास गया था। उनके साथ भी प्राकृत
इतिहास पर मैंने खूब बातें कीं। हम मिलकर सैर को गए। मैं अपने से उम्र में
बड़े कई लोगों से परिचित हुआ जो विज्ञान के बारे में अधिक चिन्ता नहीं करते
थे, लेकिन वे सब हेन्सलो के दोस्त थे। इनमें एक स्कॉटमैन भी थे जो सर
अलेक्जेन्डर रैमसे के भाई थे, और जीसस कालेज में शिक्षक थे। बहुत कम उम्र
में ही इनका देहान्त हो गया था। एक मिस्टर डावेस भी थे जो बाद में हरफोर्ड
के डीन बने। गरीबों के लिए शिक्षा व्यवस्था तैयार करने में इन्होंने बहुत
नाम कमाया। इन लोगों और ऐसे ही ज्ञानवान लोग तथा हेन्सलो सब मिलकर ग्रामीण
इलाकों में दूर दूर तक अध्ययन यात्राओं पर जाते थे। इनमें मुझे भी बुलाया
जाता था और सभी मुझे तहे दिल से साथ रखते थे।
अतीत पर नजर डालूँ तो मैं इस निर्णय पर पहुँचता हूँ कि मुझमें ऐसा ज़रूर
कुछ था जो मुझे आम नौजवानों से अलहदा बनाए हुए था। वरना तो मैं जिन लोगों
के साथ रहता था वे न केवल उम्र में मुझसे बड़े थे बल्कि कहीं ज्यादा पढ़े
लिखे भी थे, और ऐसा न होता तो उन्होंने मुझे कभी भी साथ न लिया होता।
मैं अपने एक शिकारी दोस्त टर्नर की बात याद कर बैठता हूँ, जिसने मुझे
गुबरैलों का संग्रह करते देखकर कहा था कि तुम एक दिन रॉयल सोसायटी के फैलो
बनोगे। उसकी आत्मा की यह आवाज़ मुझे उस समय निरर्थक लगी थी।
कैम्ब्रिज में अपने अंतिम वर्ष में मैंने अत्यधिक सावधानी बरतते हुए और
रुचि लेते हुए हम्बोल्ड लिखित पर्सनल नरेटिव का अध्ययन किया। इस रचना और सर
जे हर्शेल लिखित इन्ट्रोडक्शन टू दि स्टडी ऑफ नेचुरल फिलासफी ने मेरे मन
में इस उत्साह को और भी बढ़ावा दिया कि मैं भी प्राकृत विज्ञान की विशाल
संरचना में अपना तुच्छ योगदान देने का प्रयास करूँ। लगभग दर्जन भर दूसरी
पुस्तकों में से किसी भी पुस्तक ने मुझ पर इतना प्रभाव नहीं डाला जितना इन
दोनों ने। मैंने हम्बोल्ड की पुस्तक में से टेनरिफेल के बारे में लिखे अंश
की नकल की और अपनी अध्ययन यात्राओं के दौरान हेन्सलो (शायद), रेमसे और
डेवेस के सामने इसका वाचन किया, क्योंकि पहले किसी मौके पर मैंने टेनरिफेल
की शोभा का जिक्र किया था, और हमारी मंडली के कुछ लोगों ने यह भी कहा था कि
वे वहाँ जाने का प्रयास करेंगे, लेकिन मेरा विचार है कि वे सब अधूरे मन से
कह रहे थे। लेकिन मैं तो भीतर से तैयार था और लन्दन के एक मर्चेन्ट से
मिलकर जलयान के बारे में पूछताछ भी कर चुका था, लेकिन मेरी यह योजना बीगेन
पर समुद्री यात्रा के आगे धरी रह गयी।
गर्मी की छुट्टियों का मेरा सारा वक्त गुबरैले पकड़ने, कुछ पढ़ाई करने और
छोटी मोटी यात्राओं में निकल जाता था। पतझड़ के दौरान मेरा सारा समय
निशानेबाजी में जाता था। मैं इसमें से ज्यादातर समय वुडहाउस और मायेर में
गुज़ारता था। कई बार मैं आयटन के रईस के साथ भी रहता था। कुल मिलाकर
कैम्ब्रिज में बिताए गए तीनों बरस मेरे जीवन के सर्वाधिक खुशी भरे रहे।
मेरी सेहत बहुत बढ़िया रही और कुल मिलाकर मैं कभी दुखी नहीं रहा।
मैं 1831 की शुरुआत में क्रिसमस पर कैम्ब्रिज आया था, इसलिए अंतिम परीक्षा
उत्तीर्ण करने के बाद भी मुझे दो सत्रों तक रोका गया; तब हेन्सलो ने ही
मुझे समझा-बुझा कर भूविज्ञान का अध्ययन शुरू करने के लिए कहा। इसलिए
श्रापशायर लौटने के बाद मैं भूखण्डों की व्यवस्था का अध्ययन करने लगा और
श्रूजबेरी के आसपास के इलाकों के रंगदार नक्शे भी तैयार किए। प्राचीन
चट्टानों का भूवैज्ञानिक अन्वेषण करने के लिए अगस्त की शुरुआत में प्रोफेसर
सेडविक नार्थवेल्स की यात्रा शुरू करने वाले थे; हेन्सलो ने उनसे कहा कि वे
मुझे भी साथ चलने की इजाज़त दें। सब तैयारी करके वे मेरे पिता के घर आकर
रुके।
शाम को उनके साथ थोड़ी बातचीत ने मेरे दिमाग पर गहरा असर डाला। श्रूजबेरी
के समीप ही एक दलदली गड्ढे की जाँच करते समय एक मज़दूर ने मुझे बताया कि
उसे गड्ढे में से एक बड़ा पुराना-सा उष्णकटिबंधीय शंख मिला है। ऐसे शंख
झोपड़ियों की चिमनियों में भी मिल जाते हैं, लेकिन उस मजदूर ने शंख बेचने
से मना कर दिया। मैं इस बात से पूरी तरह सहमत था कि उसे यह शंख वास्तव में
गड्ढे में से ही मिला था। मैंने सेडविक को यह बात बताई तो (संदेह नहीं सच
में) वे एकदम बोले कि किसी ने इसे गड्ढे में फेंक दिया होगा; लेकिन वे यह
भी बोले कि यदि यह वहीं पड़ा रहता तो भूविज्ञान के लिए दुर्भाग्य की बात
होती, क्योंकि यह हमें मिडलैन्ड काउन्टीज में धरातलीय मिट्टी के जमाव के
बारे में काफी बातों की जानकारी देगा। दलदल की ये परतें वस्तुत: हिमनदीय
युग से सम्बन्धित हैं, और बाद के वर्षों में ये मुझे आर्कटिक के टूटे हुए
शंखों में भी मिले। लेकिन उस समय मैं एकदम हैरान रह गया कि सेडविक इस
अद्भुत तथ्य पर खुश क्यों नहीं हुए कि उष्णकटिबंधीय इलाके का शंख यहाँ
इंग्लैन्ड के बीचों बीच इलाके में ज़मीन के भीतर कहाँ से आया होगा। यद्यपि
मैंने बहुत-सी वैज्ञानिक पुस्तकों का अध्ययन किया था, लेकिन इससे पहले मुझे
इतनी गहराई से यह अहसास नहीं हुआ था कि तथ्यों का समूहीकरण करने में ही
वैज्ञानिकता है, क्योंकि इसके बाद ही कोई सामान्य नियम या निष्कर्ष निकाला
जा सकता है।
अगले दिन हम लेंगोलेन, कॉनवे, बेंगोर और कैपल कूरिग के लिए निकल पड़े। इस
यात्रा का एक लाभ तो मुझे यह मिल ही गया कि किसी देश के भूविज्ञान का
अध्ययन किस प्रकार किया जाए। सेडविक मुझे कई बार अपने ही समानांतर चलने को
कहते और कहते कि चट्टानों के नमूने लेते चलो तथा नक्शे पर उनका स्तर
विन्यास भी चिह्नित करो। मुझे थोड़ा-सा संदेह है कि उन्होंने यह मेरी भलाई
के लिए किया था, क्योंकि मैं उनकी सहायता करने में बहुत ही उदासीन रहता था।
इस यात्रा के दौरान एक विशेष अनुभव भी हुआ कि जब तक ध्यान देकर न देखा जाए
तो उत्कृष्टतम लक्षण को भी नज़र-अन्दाज़ कर देना कितना आसान होता है। क्वेम
इड्वाल में हम दोनों ने कई कई घन्टे लगाकर सभी चट्टानों को बड़े ही ध्यान
से देखा, क्योंकि सेडविक उनमें जीवाश्म (फॉसिल) तलाश रहे थे, लेकिन हम
दोनों ही ने अपने चारों ओर बिखरे पड़े हिमनदीय लक्षणों पर ज़रा भी ध्यान
नहीं दिया; हमने समतल तराशी चट्टानों, इधर उधर पड़े शिलाखंडों, आवसानिक और
पार्श्वीय हिमोढ़ों पर नज़र ही नहीं डाली। हालांकि ये लक्षण इतने सुस्पष्ट
हैं कि इसके कई वर्ष बाद फिलास्फिकल मैगजीन में प्रकाशित एक लेख में मैंने
यह ज़िक्र किया कि वह घाटी अपनी कहानी ठीक उसी तरह से कह रही थी जिस तरह से
जलकर खाक हुआ कोई मकान कहता है। यदि यह घाटी अभी भी हिमनद के पानी से भरी
होती तो ये सभी लक्षण इतने मुखर न होते जितने इस समय हैं।
केपेल क्यूरिग में मैं सेडविक से अलग हो गया और दिक्सूचक तथा नक्शे के
सहारे नाक की सीध में चलता गया तथा पर्वतों को पार करता हुआ बारमाउथ तक
गया। रास्ते में मैंने कभी भी निर्धारित मार्ग का अनुसरण नहीं किया।
संयोगवश मिल गया तो दूसरी बात थी। इस प्रकार मैं एक अपरिचित बियाबान में जा
पहुँचा, और इस तरह की यात्रा का मैंने खूब आनन्द उठाया। मैं बारमाउथ में
पढ़ रहे कैम्ब्रिज के पुराने सथियों से मिला और वहाँ से श्रूजबेरी लौटा और
निशानेबाजी के लिए मायेर चला गया। उस समय मुझ पर भूविज्ञान या किसी अन्य
विज्ञान की बनिस्बत चकोर के शिकार का भूत सवार था।
बीगेल से समुद्रयात्रा : 27 दिसम्बर 1831 से 2 अक्तूबर 1836
नार्थ वेल्स की इस छोटी भूवैज्ञानिक यात्रा से लौटने पर मुझे बताया गया था
कि कैप्टन फिट्ज राय को एक सहायक चाहिए, जो उनके साथ बिना कुछ भी वेतन लिए
बीगल की समुद्र यात्रा पर चल सके। उसे प्रकृतिवादी के रूप में काम करना
होगा और बदले में उसे कैप्टन राय अपने केबिन की सभी कलाकृतियाँ देंगे। जहाँ
तक मेरा विश्वास है मैंने अपने यात्रा संस्मरण रोजनामचे में उन सभी घटनाओं
का जिक्र किया है जो उस दौरान घटित हुईं। यहाँ मैं केवल इतना ही बताऊँगा कि
मैं भी इस प्रस्ताव को मानने के लिए पूरी तरह से इच्छुक था। लेकिन मेरे
पिता ने इसका पुरज़ोर विरोध किया, और मेरी भलाई के लिए यह भी कहा,`यदि तुम
सामान्य बुद्धि का ऐसा कोई व्यक्ति बता सको जो तुम्हें वहाँ जाने की सलाह
दे, तो मैं भी सहमति दे दूँगा।' इसलिए मैंने उसी शाम इन्कार करते हुए जवाब
लिख दिया। अगली सुबह मैं पहली सितम्बर की तैयारी करने के लिए मायेर चला
गया। मैं निशानेबाजी कर रहा था कि मुझे अंकल ने बुलवाया। उन्होंने मुझसे
श्रूजबेरी चलने के लिए कहा और बोले कि वे मेरे पिता से चलकर बात करेंगे कि
उस प्रस्ताव को मानना बुद्धिमानी का काम होगा। मेरे पिता हमेशा यह मानते थे
कि (मेरे अंकल) विश्व के सर्वाधिक समझदार व्यक्ति हैं। उनकी बात सुनते ही
पिताजी ने फौरन सहमति दे दी। मैं कैम्ब्रिज में बहुत फिजूलखर्ची करता था,
इसके लिए मैंने पिताजी को भरोसा दिलाया कि बीगेल यात्रा के दौरान मैं अपने
भत्ते से ज्यादा खर्च नहीं करूँगा। पिताजी ने मुस्कराते हुए कहा, `लेकिन
उन्होंने मुझे बताया है कि तुम बहुत बुद्धिमान हो।'
अगले दिन मैं कैम्ब्रिज जाने को चल पड़ा। वहाँ हेन्सलो से मिला और फिर
फिट्ज राय से मिलने लन्दन के लिए निकल गया। यह सारे काम आनन-फानन में हो
गये। इसके बाद जब फिट्ज राय से कुछ घनिष्टता हो गयी तो उन्होंने मुझे बताया
कि वे मेरी नाक की आकृति के कारण मुझे अपने साथ न लेने का मन बना चुके थे।
वे लावेटर के प्रबल अनुयायी थे, और इस बात को पक्का मानते थे कि वे किसी भी
इंसान के चेहरे से उसका चरित्र जान सकते थे। उन्हें संदेह था कि मेरे जैसी
नाक वाले इंसान में इस समुद्र यात्रा के लिए पर्याप्त ताकत और इच्छाशक्ति
भी होगी। लेकिन मैं समझता हूँ कि बाद में उन्हें यह तो संतोष हो गया होगा
कि मेरी नाक ने गलत आभास दिया था।
फिट्ज राय का चरित्र विलक्षण था। उनमें बहुत से उत्तम लक्षण थे। वे अपने
कर्तव्य के प्रति समर्पित, किसी भी कमी के प्रति उदार, बहादुर, दृढ़
प्रतिज्ञ और ग़ज़ब के ऊर्जावान तो थे ही, अपने सभी मातहतों के लिए जोशीले
दोस्त भी थे। वे जिसे सहायता पाने लायक समझते थे, उस व्यक्ति के लिए कुछ भी
कर गुज़रते थे। वे एक सजीले, सुदर्शन व्यक्ति थे। उनका व्यवहार बहुत अधिक
शिष्टता लिये हुए था। उनकी सभी आदतें उनके मामा प्रसिद्ध लार्ड केसलरीग से
मिलती थीं, जैसा कि रियो के मिनिस्टर ने बताया था। बेशक उनका चेहरा चार्ल्स
द्वितीय से मिलता-जुलता था। इसी सिलसिले में डॉक्टर विलिश ने अपना एक एलबम
दिया था। उन्हीं चित्रों में से एक चित्र फिट्ज राय से बहुत मिलता जुलता
था। बाद में चित्र के नीचे लिखा नाम मैंने पढ़ा डॉक्टर ई सोबेस्की
स्टुआर्ट, काउन्ट ड'अल्बाइन जो कि उसी सम्राट के वंशजों में से थे।
फिट्ज राय का मिजाज़ बड़ा ही अजीब था। सवेरे-सवेरे तो उनका मूड आम तौर पर
खराब ही रहता था। अपनी गिद्ध जैसी पैनी निगाह से उन्हे फौरन ही पता चल जाता
था कि जलयान पर कुछ गड़बड़ है, और फिर इल्ज़ाम लगाने में वे किसी को भी
बख्शते नहीं थे। वे मेरे प्रति काफी दयालु थे, लेकिन उनके साथ घनिष्टता कर
पाना टेढ़ी खीर था। लेकिन एक ही केबिन में रहने के कारण हम दोनों की आदतों
में कुछ घाल-मेल तो हो ही गया। हम कई बार एक दूसरे से उलझ भी जाते। ऐसे ही
यात्रा की शुरुआत में ब्राजील के बाहिया नामक स्थान पर उन्होंने गुलामी
प्रथा का पक्ष लिया और इसकी बड़ी तारीफ की, जबकि मुझे गुलामी प्रथा से नफरत
थी। उन्होंने मुझे बताया कि वे एक ऐसे व्यक्ति से मिल चुके हैं जिसके पास
कई गुलाम हैं। उन्होंने स्वयं ही अनेक गुलामों को पूछा था कि क्या वे खुश
हैं, और क्या वे आज़ाद होना चाहते हैं। इस प्रश्न पर सभी का जवाब था -
`नहीं'। मैंने उस समय उपहास के लहज़े में कहा था कि मालिक के सामने उसके
गुलामों का वह जवाब कोई मायने नहीं रखता। इससे वे बहुत नाखुश हो गए और बोले
कि इसका मतलब यह भी हो सकता है, कि मैं उनके साथ रहना नहीं चाहता। मैंने
सोचा कि अब जहाज तो छोड़ना पड़ेगा, लेकिन जैसे ही दूसरे लोगों को इस झगड़े
की भनक लगी, तो जहाज के कैप्टन ने फौरन ही अपने लैफ्टिनेन्ट को भेजा कि जाओ
और राय के गुस्से को शान्त करने के लिए डार्विन को खरी-खोटी सुनाओ।
यहाँ मैं गन रूम के आफिसर्स के प्रति काफी शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने
तुरन्त ही यह संदेश भेजा कि मैं उनके साथ रह सकता हूँ। लेकिन कुछ ही घंटे
के बाद फिट्ज रॉय ने दरियादिली दिखाते हुए जहाज के एक अधिकारी की मार्फत
माफी माँगते हुए यह भी अनुरोध किया कि मैं उनके साथ रह सकता हूँ।
कई बातों में वे बहुत महान चरित्र के इंसान थे। उनमें कुछ ऐसा भी था जो
मुझे पहले पता नहीं था। बीगेल पर यह समुद्री यात्रा मेरे जीवन की सबसे
महत्त्वपूर्ण घटना रही, और इसी ने मेरे पूरे कैरियर का खाका तैयार किया।
लेकिन ये सब कुछ एक छोटी-सी घटना पर आधारित था। घटना कुछ यूं थी कि जिस दिन
मेरे अंकल तीस मील सवारी चलाकर मुझे श्रूजबेरी लाए थे, संसार में बहुत कम
नातेदारों ने ऐसा किया होगा, और तो और मेरी नाक भी इसमें आड़े आ रही थी।
मैं हमेशा यह महसूस करता हूँ कि मेरे दिमाग के लिए इस यात्रा ने वास्तविक
प्रशिक्षण या तालीम दी थी। इससे मुझे प्राकृतिक इतिहास की कई परतों की
जानकारी मिली और चीज़ों को समझने की मेरी ताकत में बढ़ोतरी हुई, हालांकि ये
सारी योग्यताएँ मुझमें पहले से मौजूद थीं।
मैं जितनी भी जगहों पर गया वहाँ के भूविज्ञान की जानकारी भी मेरे लिए काफी
महत्त्वपूर्ण थी। यहाँ मुझे तर्कशास्त्र का भी सहारा मिला। किसी भी नए
भू-भाग को अगर पहली बार देखें तो चट्टानों के ढेर से ज्यादा कुछ नहीं
दीखता, लेकिन बहुत स्थानों पर चट्टानों और जीवाश्मों के संस्तरों और
प्रकृति की जाँच करने के साथ साथ यदि मन में यह प्रश्न और आशा भी रखी जाए
कि इसके अलावा और क्या मिल सकता है, तो उस भू-भाग के बारे में कुछ तथ्य
उजागर होने शुरू हो जाते हैं। इस प्रकार सारी संरचना ही कमो-बेश सुबोध बनने
लगती है। मैं अपने साथ लेयेल लिखित प्रिन्सिपल्स ऑफ ज्योलॉजी का पहला खंड
भी लाया था, जिसे मैं सावधानीपूर्वक पढ़ता रहा। यह पुस्तक कई मायनों में
मेरे लिए बहुत फायदेमन्द रही। वर्दे अंतरीप नामक द्वीप सेन्ट जेगो वह पहली
जगह थी, जिसका मैंने निरीक्षण किया, और वहीं मुझे पता चल गया कि भूविज्ञान
की जानकारी पर जितने लेखकों की रचनाओं को मैं पढ़ चुका था या बाद में पढ़ा,
उनमें सबसे नायाब तरीका लेयेल का था।
इसी दौरान मैं एक और काम भी करता था, सभी प्रकार के जीवों का संग्रह। मैं
इनका संक्षिप्त ब्यौरा लिखता और कुछेक समुद्री जीवों की छोटी मोटी चीरफाड़
भी करता था। पर एक कमी रही कि ड्राइंग में हाथ तंग होने और शरीर रचना की
ज़रूरत भर जानकारी न होने के कारण इस यात्रा के दौरान मैंने जो संस्मरण
लिखे, वे सब बेकार हो गए। इस तरह से मैंने काफी समय बरबाद किया। हाँ, इतना
ज़रूर रहा कि क्रस्टेशियन्स की कुछ जानकारी हासिल हुई जिसकी मदद से मैं बाद
में सिरीपेडिया पर अपना प्रबन्ध ग्रन्थ लिख सका।
दिन में थोड़ा वक्त निकाल कर मैं अपना रोजनामचा लिखता था। जो कुछ भी मैं
देखता था उसे सावधानी से और विस्तारपूर्वक लिखता था। मैं समझता हूँ कि यह
एक अच्छी आदत थी। मेरे रोजनामचे घर को लिखे गए खतों का भी काम करते थे। जब
भी मौका मिलता मैं इनके कुछ अंश इंग्लैन्ड भेज देता था।
अभी ऊपर मैंने जिन विशेष अध्ययनों का जिक्र किया है, यदि उनकी तुलना
बेइन्तहा मेहनत और ध्यान लगाकर काम करने से की जाए तो वे इसकी तुलना में
कुछ भी नहीं थे। उस समय तो मैं मेहनत और दिलो-जान से काम करने का पाठ पढ़
रहा था। उस समय मैं जो कुछ पढ़ता या सोचता था उसका सीधा ताल्लुक उस चीज़ से
रहता था जो मैं देख चुका था या देखने की सम्भावना थी। मेरी यही आदत इस
यात्रा के अगले पाँच बरस तक बरकरार रही। मैं पक्के तौर पर कह सकता हूं कि
इसी प्रशिक्षण की बदौलत मैं विज्ञान में कुछ हाथ पांव मार पाया।
यदि अतीत पर नज़र डालूँ तो में कह सकता हूँ कि विज्ञान के प्रति मेरे मोह
ने अन्य सभी रुचियों पर विजय पायी। शुरू के दो बरस तक तो निशानेबाजी के लिए
मेरा शौक जोर-शोर से बरकरार रहा। अपने संग्रह के लिए सभी पक्षियों और पशुओं
को मैं खुद ही मारता था। लेकिन धीरे धीरे बन्दूक और मेरे बीच दूरी बढ़ती
गयी, और अंत में यह काम मेरे नौकर ने संभाल लिया, क्योंकि अब यह निशानेबाजी
मेरे काम के आड़े आने लगी थी, खासकर किसी इलाके की भूवैज्ञानिक संरचना
तैयार करते समय। हालांकि मन के किसी कोने में मैं यह भी महसूस कर रहा था कि
किसी चीज़ को देखने और सत्य की कसौटी पर कसने की ताकत शिकारी के काम से
ज्यादा है। इस यात्रा के दौरान किये गये कामों से मेरे दिमाग का कितना
विकास हुआ था यह इससे स्पष्ट हो जाएगा कि मेरे पिताजी कभी संदेह में कोई
काम नहीं निपटाते थे और ललाट शास्त्र में उन्हें कोई रुचि नहीं थी, लेकिन
वे बड़ी पैनी नज़र रखते थे, तभी तो समुद्र यात्रा से लौटने के बाद मुझे
देखते ही, मेरी बहनों को बुला कर बोले, `क्यों जी! इसके सिर का तो हुलिया
ही बदल गया है।'
और एक बार फिर समुद्र का बुलावा। सितम्बर 11 (1831), को मैं प्लेमाउथ में
बीगल पर फिट्ज राय से मिलने गया। वहाँ से श्रूजबेरी गया। अपने पिता और
बहनों से लम्बी जुदाई के लिए विदाई ली और चल दिया एक और सफर के लिए। मैं 24
अक्तूबर को प्लेमाउथ पहुँचकर वहीं रहने लगा और 27 दिसम्बर को दुनिया का
चक्कर लगाने के लिए यात्रा शुरू करने तक वहीं रहा, क्योंकि भारी अंधड़ों के
कारण हमारे जहाज बीगल के दो प्रयास विफल हो चुके थे, और हमारा जहाज वहीं
इंग्लैन्ड के समुद्र तट पर लंगर डाले खड़ा रहा। प्लेमाउथ में ये दो महीने
बेहद मुश्किल भरे गुज़रे। हालांकि मैं किसी न किसी काम धंधे में लगा ही
रहता था। अपने परिवार और मित्रों से लम्बी जुदाई की याद ही मुझे हताश कर
देती थी। और मौसम भी अपने रंग दिखा ही रहा था।
मेरी सांस फूल जाती और दिल के आस पास दर्द भी महसूस होता रहता था। दूसरे
नौजवानों की तरह मैं भी अपनी सेहत के प्रति लापरवाह रहता था। उस पर तुर्रा
यह भी कि मुझे डॉक्टरी का सतही ज्ञान भी था, तो उसके आधार पर मैंने यह भी
मान लिया कि मुझे दिल की बीमारी है। मैंने किसी डाक्टर से सलाह भी नहीं ली
क्येंकि मैं पूरी तरह से मान चुका था कि वह क्या फैसला सुनाने वाला है, यही
कि मैं समुद्री यात्रा के काबिल नहीं हूँ, और यहाँ मैं हर खतरा उठाने को
कमर कसे बैठा था।
अब मैं अपनी यात्रा के ब्यौरों का और घटनाओं का जिक्र फिर से नहीं करूँगा
क्योंकि इन सबको मैं अपने प्रकाशित रोजनामचे में विस्तार से बता चुका हूं।
फिलहाल तो मेरे सामने उष्णकटिबंधीय प्रदेशों की वनस्पतियों की हरियाली मेरे
दिमाग पर किसी भी दूसरी चीज़ के मुकाबले ज्यादा गहराई से छायी हुई है। यह
हरियाली मैंने पेटागोनिया के विशाल रेगिस्तानों और टियेरा डेल फ्यूगो की वन
से ढंकी पर्वतमाला पर देखी। इस दृश्य का मेरे मन पर अमिट प्रभाव है। अपनी
मातृभूमि में खड़े नग्न आदिवासी को मैं कभी भूल नहीं सकता। जंगली इलाकों
में घुड़सवारी करते हुए या नावों में कई-कई हफ्ते तक जो सफर मैंने किए वे
बहुत ही रोचक और रोमांचक थे। उस समय सफर के साथ जुड़ी परेशानियाँ और
छोटे-मोटे खतरे ज़रा भी आड़े नहीं आए, और ये छिटपुट घटनाएँ बाद में याद भी
नहीं रहीं। मैंने अपने कुछ वैज्ञानिक लेखों मैं भी इनका काफी उपयोग किया।
मिसाल के तौर पर, सेन्ट हेलेना जैसे कुछ द्वीपों की भूवैज्ञानिक संरचना को
स्पष्ट करते हुए मूँगा द्वीपों के निर्माण आदि का समाधान किया। यही नहीं,
गैलापेगोस द्वीप समूह के बहुत से टापुओं पर पाए जाने वाले पशुओं और पौधों
के एकल सम्बन्धों को भी ध्यान में रखा और दक्षिणी अमरीका में पाए जाने वाले
जीवों और पौधों पर भी लेख लिखे।
यदि अपने बारे में कहूं तो किस्सा कोताह यही है कि समूची समुद्री यात्रा के
दौरान मैंने खुद को काम में झोंक रखा था, क्योंकि मुझे खोज बीन में आनन्द
आता था और प्राकृतिक विज्ञान से जुड़े तथ्यों के विशाल पुंज में कुछ और
तथ्य भी जोड़ने की मेरी बलवती इच्छा थी। इतना ही नहीं, वैज्ञानिकों के बीच
अपने लिए ठीक-ठाक जगह बना पाना भी मेरी अभिलाषा थी, यह मैं नहीं कह सकता कि
मेरी अभिलाषा मेरे सहकर्मियों से अधिक थी या कम।
सेन्ट जैगो का भूविज्ञान बेहद सामान्य होने के बावजूद चकित कर देने वाला
था। बहता हुआ लावा सागर की तलहटी में चला आया। इस लावे के साथ ताजा शंखों
और मूँगों का चूरा मिलकर जमता चला गया और इनके पकने से सफेद रंग की कठोर
चट्टानें बनती चली गयीं। उसके बाद समूचा द्वीप सिर उठा कर ऊपर निकल आया।
लेकिन सफेद चट्टान में पड़ी लकीरों ने मुझे एक नए तथा महत्त्वपूर्ण तथ्य से
परिचित कराया। वह यह कि ज्वालामुखी के जीवंत होने की अवस्था के दौरान लावा
निकल निकल कर क्रेटरों के चारों ओर जमता चला गया। उस समय मेरे मन में यह
विचार कौंधा कि मैं जितने देशों भी में गया हूँ, वहाँ के भूविज्ञान पर एक
किताब लिखूँ। इस विचार ने मुझे रोमांच से भर दिया। यह मेरे लिए अविस्मरणीय
क्षण थे। मेरे मन पर आज भी वह छवि जस की तस अंकित है कि लावे से बनी खड़ी
चट्टान के नीचे मैं खड़ा था, ऊपर सूरज चमक रहा था, आस पास रेगिस्तानी
इलाकों में पाए जाने वाले कुछ पौधे सिर उठाए खड़े थे और मेरे पैरों के पास
समुद्री जल में जीवित मूँगे अपनी छटा बिखेर रहे थे। यात्रा के ही दौरान
फिट्ज राय ने मुझसे कहा कि मैं अपने कुछ रोजनामचे पढ़कर उन्हें सुनाऊँ।
सुनते ही वे बोले कि ये तो भई, छपने चाहिये, और इस तरह से दूसरी पुस्तक का
आगाज हो गया।
हमारी यात्रा समाप्त होने को थी। एस्केन्सन पर पड़ाव के दौरान मुझे एक खत
मिला, जिसमें मेरी बहनों ने लिखा था कि सेडविक घर आकर पिताजी से मिले थे और
उनसे कहा था कि अब मुझे वैज्ञानिकों के बीच जगह मिलना तय ही है। उस समय मैं
यह नहीं जान पाया था कि उन्हें मेरी गतिविधियों की जानकारी कैसे मिली होगी।
बाद में मैंने सुना (और मुझे भरोसा भी हुआ) कि मैंने कुछ खत हेन्सलो को भी
लिखे थे। उन खतों को उन्होंने कैम्ब्रिज की फिलास्फिकल सोसायटी के समक्ष
पढ़ा, और उन्हें वहाँ वितरण के लिए छपवाया भी था। मैंने जितने जीवाश्मों का
संग्रह किया था, वह भी हेन्सलो को भिजवा दिया था। इस संग्रह ने भी जीवाश्म
वैज्ञानिकों को काफी आकर्षित किया था।
इस खत को पढ़कर मैं किसी तरह से ऐस्केन्सन की पहाड़ियों पर चढ़ कर गया और
अपने हथौड़े से उन ज्वालामुखीय चट्टानों को ठकठकाने लगा। इस सबसे इस बात का
अंदाजा तो लग ही गया होगा कि मैं कितना महत्त्वाकांक्षी था। लेकिन मैं इस
सत्य को भी स्वीकार करने में संकोच नहीं करूंगा कि आने वाले बरसों में
लेयेल और हूकर जैसे साथियों का हाथ मेरी पीठ पर रहा। बाकी आम लोगों की
मैंने उतनी परवाह नहीं की। मेरा आशय यह नहीं है कि मेरी किताबों की अनुकूल
समीक्षा या खूब बिक्री से मुझे खुशी नहीं होती थी, लेकिन यह खुशी क्षण
भंगुर होती थी। पर इतना तो था ही कि प्रसिद्धि पाने के लिए मैं अपने रास्ते
से जरा-सा भी डिगा नहीं।
इंग्लैन्ड में वापसी (2 अक्तूबर 1836) के बाद से मेरे विवाह तक (29 जनवरी
1839)
दो बरस और तीन महीने का यह समय काफी उथल-पुथल वाला रहा। हालांकि इस बीच
बीमारी के कारण थोड़ा-सा वक्त बरबाद भी हुआ। श्रूजबेरी, मायेर, कैम्ब्रिज
और लन्दन के बीच खूब दौड़ भाग करने के बाद मैं 13 दिसम्बर को कैम्ब्रिज में
घर लेकर रहने लगा। इस समय तक मेरा सारा संग्रह हेन्सलों के पास रहा। मैंने
वहाँ पर तीन महीने बिताए और प्रोफेसर मिलर की सहायता से खनिजों और चट्टानों
पर परीक्षणों में जुटा रहा।
इसी बीच मैंने अपना जर्नल ऑफ ट्रेवल्स तैयार करना शुरू कर दिया। यह मेरे
यात्रा वृत्तांत जितना कठिन नहीं था। यह जर्नल मैंने बहुत ध्यान से लिखा।
मैंने ज्यादा मेहनत इस बात पर की कि अपने रोचक वैज्ञानिक परिणामों का
सारांश भी लिखूं। लेयेल के अनुरोध पर मैंने चिली के समुद्र तट पर ज़मीन के
उभार के बारे में अपने अवलोकनों का विवरण जिओलोजिकल सोसायटी को भी भिजवाया।
मैंने 7 मार्च 1837 को लन्दन में ग्रेट मार्लबरो स्ट्रीट में एक घर ले लिया
और विवाह तक वहीं रहा। इन दो बरसों के दौरान मैंने अपना जर्नल पूरा किया,
जिओलॉजिकल सोसायटी में कई लेखों का पाठ किया और जिओलॉजिकल आब्जर्वेशन्स
पत्रिका के लिए वृत्तांत तैयार करना शुरू कर दिया। इसके अलावा, जूलॉजी ऑफ
दि वायज ऑफ दि बीगल के प्रकाशन की तैयारी में जुट गया। जुलाई में मैंने द
ऑरिजिन ऑफ स्पीशेज़ के लिए तथ्यों के संग्रह के लिए नोट बुक लिखनी शुरू कर
दी। इसका उल्लेख मैंने काफी पहले शुरू कर दिया था। इसके बाद अगले बीस वर्ष
तक मैंने अपना काम रुकने नहीं दिया।
इन दो बरसों के बीच मैं कुछ सोसायटियों में गया और जिओलॉजिकल सोसायटी के
मानद सचिव में रूप में काम भी करता रहा। मैंने लेयेल की मेहनत भी देखी।
उनमें एक खासियत यह भी थी कि वे दूसरों के काम के प्रति भी संवेदना रखते
थे। इंग्लैन्ड लौटकर मैंने मूँगे की चट्टानों पर अपने विचार जब उन्हें बताए
तो उनकी रुचि देखकर मैं चकित भी हुआ और प्रसन्न भी। इससे मेरा हौसला बढ़ा
और उनकी सलाह तथा नज़ीर ने मुझ पर काफी असर डाला। इसी समय के आस पास मैं
राबर्ट ब्राउन से भी काफी मिला। मैं अक्सर रविवार को नाश्ते पर उनसे बातचीत
करने चला जाता था। वे भी अपनी जिज्ञासा और सटीक टिप्पणियों का भरपूर खजाना
मेरे सामने खोल देते थे। यह बात अलग है कि उनके प्रश्न बारीक बातों को लेकर
होते थे। वे विज्ञान के बड़े या खास प्रश्नों पर विचार विमर्श नहीं करते
थे।
इन्हीं दो बरसों के दौरान मैंने मनोरंजन के तौर पर छोटी छोटी अध्ययन
यात्राएं भी कीं। इन्हीं में से एक लम्बी यात्रा मैंने ग्लेन राय की यात्रा
के समांतर की। इसके वृत्तांत फिलास्फिकल ट्रान्जक्शन में प्रकाशित हुए। यह
आलेख एकदम असफल रहा और मैं इसके लिए शर्मसार भी हूँ। दक्षिण अमरीका में
भूमि के उठान में समुद्र के योगदान से मैं बहुत प्रभावित हुआ था और इसी का
वर्णन मैंने किया था। उसी आधार पर मैंने यह आलेख भी लिखा था, लेकिन मुझे यह
विचार त्यागना पड़ा क्योंकि एगासिज ने ग्लेशियर झील सिद्धान्त का प्रतिपादन
किया था, और उस समय जानकारी की स्थिति के तहत कोई और वर्णन सम्भव भी नहीं
था। मैंने समुद्र की संक्रिया के पक्ष में तर्क दिया, हालांकि मेरी यह भूल
मेरे लिए एक सबक भी थी कि कुछ चीज़ों के बारे में विज्ञान पर भरोसा छोड़ना
पड़ता है।
ऐसा नहीं था कि मैं सारा दिन विज्ञान पर ही काम करता रहता था। इन्हीं दोनों
बरसों में मैंने अलग अलग विषयों पर पुस्तकों का अध्ययन किया। इनमें से कुछ
पुस्तकें तत्त्व मीमांसा पर थीं। लेकिन मैं ऐसे विषयों के लायक नहीं था। इस
बीच मुझे वर्डस्वर्थ और कॉलरिज के काव्य में काफी आनन्द मिला और मैं फख्र
के साथ कह सकता हूं कि मैंने एक्सकर्सन दो बार पढ़ लिया था। इससे पहले मैं
मिल्टन के पैराडाइज लॉस्ट को बहुत पसन्द करता था, और बीगल से समुद्र यात्रा
करते समय जब हम बीच बीच में अध्ययन यात्राओं पर जाते थे, और कोई एक ही
किताब लेनी होती थी तो मिल्टन मेरी पहली पसन्द होते थे।
मेरे विवाह, (जनवरी 29, 1839), और अपर गॉवर स्ट्रीट में रहने से लेकर 14
सितम्बर 1842 को लन्दन छोड़कर डॉउन में बसने तक :
[अपने सुखद वैवाहिक जीवन और अपनी संतानों के बारे में लिखने के बाद, वे
लिखते हैं।]
लन्दन में तीन साल और आठ महीने रहने के दौरान मैंने वैज्ञानिक कार्य बहुत
कम किया, हालांकि जितनी मेहनत मैंने इस दौरान की थी वह अपने जीवन में इतनी
ही समयावधि में फिर कभी नहीं की। इसका कारण बार बार की बीमारी और लम्बी तथा
गम्भीर बीमारी का एक झटका लगना रहा। जब मैं थोड़ा खाली होता था तो ज्यादातर
समय कोरल रीफ्स' पर लगाता था। इसका लेखन मैंने अपनी शादी से पहले शुरू किया
था और इसका आखिरी प्रूफ मैंने 6 मई 1842 को पढ़ा। वैसे तो यह पुस्तक
छोटी-सी थी, लेकिन इसमें मेरी बीस माह की मेहनत लगी, क्योंकि मुझे प्रशान्त
महासागर के द्वीपों पर सभी लेख पढ़ने और कई चार्ट देखने पड़े। इस पुस्तक को
कई वैज्ञानिकों ने उच्च स्तरीय बताया और मैं समझता हूं कि इसमें दिए गए
सिद्धान्त अब अपनी जगह बना चुके हैं।
मैंने अपना कोई भी काम इतने तर्कपूर्ण ढंग से शुरू नहीं किया था जितना कि
यह, क्योंकि समूचा सिद्धान्त दक्षिण अफ्रीका के पश्चिमी तट पर मूंगे की
भित्ति देखने के बाद ही निर्धारित हुआ था। अब जीवित भित्तियों को देखकर
इसमें कुछ सत्यापन और संशोधन बाकी थे। पर इसी बीच मैं दक्षिण अमरीका के
भू-भाग के सविरामी उठान से वहाँ के समुद्र तट पर पड़ने वाले प्रभाव का
अध्ययन कर रहा था। साथ ही, वनों के नष्ट होने और तलछट के जमाव का अध्ययन भी
जारी था। इससे मैं प्रेरित हुआ कि अधोगमन के प्रभाव पर भी कुछ लिखूं,
क्योंकि यह अनुमान लगाना आसान था कि मूंगों के ऊपर उठते जाने से तलछट पर
मिट्टी जमती चली गयी होगी। इसके लिए मैंने उपरोधी भित्तियों और प्रवाल
द्वीप (मूंगे के द्वीप) के निरूपण का सिद्धान्त व्यक्त किया था।
लन्दन में रहने के दौरान मैंने मूंगा भित्तियों के अलावा जिओलोजिकल सोसायटी
में इरेटिक बाउल्डर्स ऑफ साउथ अमेरिका, भूकम्प और दि फार्मेशन बाय द
एजेन्सी ऑफ अर्थवार्म्स ऑप माउल्ड पर भी लेख पढ़े। मैं जूलॉजी ऑफ दि वायज
ऑफ दि बीगल के प्रकाशन की देखरेख भी कर रहा था। यही नहीं, द ओरिजिन ऑफ
स्पीशिज से जुड़े तथ्यों का संकलन भी मैंने रोका नहीं था। जब मैं बीमारी के
कारण कुछ और नहीं कर पाता था तो बस यही करता रहता था।
सन 1842 की ग्रीष्म ऋतु में थोड़े अरसे के लिए शरीर में थोड़ी ताकत महसूस
की तो नार्थ वेल्स की यात्रा पर निकल पड़ा ताकि यह जान सकूं कि बड़ी बड़ी
घाटियों को पानी से भर देने वाले पुराने ग्लेशियरों का क्या प्रभाव पड़ा।
फिलास्फिकल मैगजीन में जो लेख मैंने पढ़ा उस पर एक संक्षिप्त आलेख भी मैंने
प्रस्तुत किया। इस यात्रा में किसी पर्वतमाला पर चढ़ने या घूमने का काम
मैंने आखिरी बार किया क्योंकि इसके बाद मेरा शरीर इतना मज़बूत नहीं रह गया
था कि भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के लिए ज़रूरी दूरियां तय कर सकूं या पहाड़ों
पर चढ़ सकूं।
लन्दन में जितना जीवन मैंने गुज़ारा, उसके शुरुआती दिनों में शरीर में इतना
दम-खम था कि मैं जनरल सोसायटी में जा सकूं। मैं कई वैज्ञानिकों तथा अन्य
सुप्रसिद्ध या अल्प प्रसिद्ध लोगों से मिला। यहां मैं उनमें से कुछ का
ज़िक्र करूंगा, हालांकि उनके विषय में ज्यदा कुछ नहीं कहना है।
अपनी शादी के पहले और बाद में मेरा लेयेल से सबसे ज्यादा मिलना-जुलना रहा।
मुझे ऐसा लगता है कि उसका दिमाग काफी सुलझा हुआ था। उसकी स्पष्टतवादिता,
सजगता, विवेकशीलता और उसके लेखों में मौलिकता, इन सबसे तो यही प्रकट होता
था। मैं भूविज्ञान के बारे में जब भी उसके लेखों के बारे में कोई टीका
टिप्पणी कर देता था तो वह तब तक चैन नहीं लेता था जब तक कि सारे मामले को
फिर से न देख ले और कई बार मुझे भी पहले के मुकाबले अधिक ध्यान देते हुए
देखना पड़ जाता था। वह मेरे सभी सुझावों पर हर सम्भव प्रतिवाद करता और सभी
तर्क खत्म हो जाने के बावजूद काफी समय तक संदेह से घिरा रहता था। उसकी
दूसरी विशेषता थी, अन्य वैज्ञानिकों के काम के साथ उसकी हार्दिक संवेदना।
बीगल की यात्रा से लौटने के बाद मैंने मूँगा भित्तियों के बारे में अपने
विचार उसे बताये। हालांकि मेरे विचार उससे अलग थे, लेकिन जिस मनोयोग से
उसने मेरी बातें सुनीं उस पर मैं हैरान था। विज्ञान में उसकी रुचि बड़ी
प्रबल थी, और मानव-मात्र की प्रगति के बारे में उसके बड़े नेक विचार थे। वह
बड़ा ही दयालु और धार्मिक विश्वासों या कुछेक अविश्वासों को लेकर पूरी तरह
से उदार था; लेकिन था वह पक्का आस्तिक और बड़ा ही निष्पक्ष। लैमरिक के
विचारों का विरोध करने के कारण उसे बड़ी ख्याति मिली थी। लेकिन ब़ुढ़ापे
में उसने डीसेन्ट थ्योरी को अपनाया और अपने चरित्र की इसी विशेषता का परिचय
दिया।
एक बार जब मैं उसके साथ इस बात की चर्चा कर रहा था कि भूवैज्ञानिकों का
पुराना सम्प्रदाय उसके विचारों से सहमत नहीं है, तो इसी सिलसिले में मैंने
कहा था कि, `क्या ही बेहतर हो कि प्रत्येक वैज्ञानिक साठ साल का होते ही चल
बसे, क्योंकि इसके बाद वह हर नए सिद्धान्त का विरोध ही करता रहता है।' यही
बात याद कराते हुए उसने मुझसे कहा कि अब उसे जीने की अनुमति दी जा सकती है।
भूविज्ञान अब तक हुए सभी वैज्ञानिकों का जितना ऋणी लेयेल का है, उतना शायद
किसी और का नहीं, ऐसा मेरा मानना है। जिस समय मैं बीगल की यात्रा पर जाने
की तैयारी कर रहा था, तो हेन्सलों उस समय अन्य भूवैज्ञानिकों की ही तरह से
सोपानिक जल-प्रलय में विश्वास करते थे। उन्होंने मुझे सलाह दी थी कि मैं दि
प्रिन्सिपल्स का पहला खंड पढ़ लूं, यह बस, तभी प्रकाशित ही हुआ था। लेकिन
उन्होंने यह भी कहा कि उस पुस्तक में बताए विचारों को मैं स्वीकार करूं, ये
ज़रूरी नहीं है। लेकिन अब देखें तो कोई भी दि प्रिन्सिपल्स के बारे में
कितने अलग विचार व्यक्त करेगा। मुझे याद करके गर्व हो रहा है कि वेरदे
अन्तरीप के द्वीप-समूहों में सेन्ट जेगो नामक जगह थी जिसका मैंने पहली बार
भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण किया था, और इसी स्थान पर लेयेल के विचारों की
अद्वितीय श्रेष्ठता सिद्ध हो गयी थी। इस तरह के विचारों का समर्थन किसी और
किताब में मुझे नहीं मिला।
लेयेल की कृतियों का जोरदार प्रभाव फ्रांस और इंग्लैंड में विज्ञान की अलग
अलग प्रगति पर साफ तौर पर देखा जा सकता है। इस समय एली डी ब्यूमान्ट की मूल
कल्पना व्यक्त हुई थी, क्रेटर्स ऑफ एलिवेशन एन्ड लाइन्स ऑफ एलिवेशन (जिसके
लिए सेडविक ने जिओलॉजिकल सोसायटी में तारीफों के पुल बांध दिए थे) में। आज
इसे लगभग भुला दिया गया है, इसका श्रेय भी लेयेल को ही जाता है।
मेरा परिचय राबर्ट ब्राउन से भी था। होम्बाल्ड उन्हें प्रिन्सेप्स
बोटानिकोरम की प्रतिकृति कहते थे। अपने अन्वेषणों की बारीकी और परिशुद्धता
के लिए उनका बहुत नाम था। उनका ज्ञान बहुत ही व्यापक था, और सब कुछ उनके
साथ ही काल के गर्त में समा गया, क्योंकि इस बात से वे बहुत डरते थे कि
कहीं कोई गलती न हो जाए। उन्होंने मुझ पर अपने ज्ञान की वर्षा बिना भेदभाव
के की, लेकिन कई बातों में वे मुझसे ईर्ष्या भी करते थे। बीगल की यात्रा से
पहले मैं तीन बार उनसे मिलने गया। एक बार उन्होंने मुझे सूक्ष्मदर्शी के
नीचे कुछ दिखाया और पूछा कि मैंने क्या देखा। मैंने बता दिया कि क्या देखा
और मुझे पूरा विश्वास है कि किसी वनस्पति कोशिका में प्राण द्रव्य की अनोखी
धाराएं बह रही थीं। जब मैंने पूछा कि यह क्या था, तो वे बोले, `यह मेरा
छोटा-सा रहस्य है।'
उनके क्रियाकलापों में भी उदारता झलकती थी। अपने बुढ़ापे में, जब वे
दौड़-भाग के लायक नहीं रह गए थे तो भी (हूकर ने मुझे बताया था) वे काफी दूर
रहने वाले अपने नौकर के पास जाकर (जो इन्हीं के सहारे था) उसका हालचाल
पूछते और उसे कुछ न कुछ पढ़कर सुनाते। यह किसी भी प्रकार के वैज्ञानिक में
हार्दिक कंगाली या ईर्ष्या पैदा करने के लिए काफी है।
मैं कुछ ख्याति प्राप्त लोगों का भी जिक्र करूँगा जिनसे मैं यदा-कदा मिलता
रहता था, लेकिन उन सबके बारे में ज्यादा कुछ लिख न पाऊंगा। मेरे मन में सर
जे हर्शेल के प्रति अगाध श्रद्धा थी। आशा अन्तरीप पर उनके सुन्दर घर और बाद
में उनके लन्दन स्थित घर पर भोजन करके मैं अति प्रसन्न होता था। वे ज्यादा
नहीं बोलते थे, लेकिन जितना भी बोलते थे वह सब सुनने लायक होता था।
एक बार मैं नाश्ते के समय सर आर मर्चिसन के घर पर मैं मशहूर हम्बोल्ड से भी
मिला। उन्होंने भी मुझसे मिलने की इच्छा जाहिर करके मुझे इज्जत बख्शी थे।
मैं उन जैसे महान व्यक्ति से मिल कर थोड़ा निराश हुआ। शायद मैं कुछ ज्यादा
ही उम्मीदें लगा बैठा था। अपनी इस मुलाकात के बारे में मुझे ज्यादा कुछ याद
नहीं, बस इतनी ही बात याद है कि हम्बोल्ड बहुत खुश-मिजाज़ और बातूनी थे।
इससे मुझे याद आती है बंकल की, जिनसे मैं हेन्सलो वेजबुड के घर पर मिला था।
बंकल ने तथ्यों के संग्रह का जो तरीका अपनाया हुआ था, उससे मैं काफी
प्रभावित हुआ। उन्होंने मुझे बताया कि जो भी किताब वे पढ़ते थे, उसे खरीद
लेते थे और हरेक के साथ उन तथ्यों की सूची बना कर लगा देते थे जो उन्हें
बाद में उपयोग में आने लायक लगते थे। उन्हें यहाँ तक याद रहता था कि किस
किताब में उन्होंने क्या पढ़ा था। मैंने उनसे पूछा कि वे यह पता कैसे लगा
लेते हैं कि कोई तथ्य बाद में उपयोगी रहेगा। इस पर उनका जवाब था कि उन्हें
पता नहीं, लेकिन कोई नैसर्गिक प्रवृत्ति है जो उन्हें रास्ता दिखाती है।
सूची बनाने की इस आदत के कारण वे सभी प्रकार के विषयों पर इतने उदाहरणों का
उल्लेख कर देते थे कि हैरानी होती थी। हिस्ट्री ऑफ सिविलाइजेशन में यह देखा
जा सकता है। यह किताब मुझे काफी रोचक लगी। मैंने इसे दो बार पढ़ा, लेकिन
उन्होंने जो साधारणीकरण किया है, उसकी उपयोगिता पर मुझे संदेह है। बंकल
अच्छे वक्ता थे। मैंने उनके व्याख्यान भी सुने थे, और मैं मंत्र मुग्ध-सा
सुनता रह गया था, क्योंकि व्याख्यान में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
इसी बीच मिसेज फेरेर ने गाना शुरू कर दिया था, और मैं उनका गीत सुनने के
लिए चल दिया। जब मैं चला गया तो वहीं बैठे अपने दोस्त से वे बोले (जिसे
मेरे भाई ने सुन लिया) कि, `मिस्टर डार्विन की किताबें उनकी बातचीत से कहीं
बेहतर हैं।'
अन्य महान साहित्यकारों में से एक बार मैं डीन मिलमैन के घर पर सिडनी स्मिथ
से मिला। उनका बोला हुआ हर शब्द अकथनीय रूप से मनोरंजक था। शायद यह आनन्दित
होने के कारण था। वे बुजुर्गवार लेडी कोर्क के बारे में बात कर रहे थे।
उन्होंने बताया कि वह एक बार धर्मार्थ आयोजन में व्याख्यान दे रहे थे, और
उस व्याख्यान से प्रभावित होकर उस महिला ने अपनी दोस्त से एक गिन्नी उधार
लेकर कटोरे में डाली। फिर वे बोले, `आम तौर पर यही माना जाता है कि इन
बुजुर्गवार लेडी कोर्क पर अभी तक उसकी नज़र नहीं पड़ी।' और यह बात उन्होंने
इस ढंग से कही कि वहां मौजूद हरेक को तुरन्त यह पता चल गया कि उस बुजुर्ग
औरत पर अभी शैतान की नज़र नहीं पड़ी है। उन्होंने यह किस ढंग से किया मुझे
नहीं मालूम।
इसी प्रकार मैं एक बार लार्ड स्टैनहोप (इतिहासकार) के घर पर मैकाले से
मिला। वहाँ भोजन पर एक और व्यक्ति भी था। मैंने वहां मैकाले की बातचीत
सुनीं और वे बातें मुझे स्वीकार्य लगीं। वह बहुत बात नहीं करते थे। इस
प्रकार के व्यक्ति अधिक नहीं बोलते। वे तो दूसरों को बार बार मौका दे रहे
थे कि वे बातचीत का सूत्र अपने हाथ में भी लें, और उनकी अनुमति से दूसरे
यही कर भी रहे थे।
लार्ड स्टैनहोप ने एक बार मुझे मैकाले की स्मरणशक्ति की सम्पूर्णता और
परिशुद्धता का प्रमाण दिया था। लार्ड स्टैनहोप के ही घर पर मैं उनके
इतिहासकार और अन्य साहित्यकार मित्रों से भी मिला। इन्हीं में मॉटले और
ग्रोटे भी थे। नाश्ते पानी के बाद मैं ग्रोटे के साथ शेवेनिंग पार्क के पास
तकरीबन एक घंटे तक घूमता रहा। मैं ग्रोटे की बातचीत तथा उसकी सरलता से बहुत
प्रभावित हुआ। उसके आचरण मैं बनावटीपन तो था ही नहीं।
बहुत पहले मैंने इन्हीं इतिहासकार के पिता बुजुर्ग अर्ल के साथ भी भोजन
किया था। वे बड़े अजीब व्यक्ति थे, लेकिन जितना भी मैंने उन्हें जाना था
उसके आधार पर मैं उन्हें बहुत पसन्द करता था। वे स्पष्टवादी, मज़े लेने
वाले और खुशमिजाज़ थे। उनकी शक्ल सूरत काफी अलग थी। बादामी रंग का शरीर और
ऊपर से नीचे तक बादामी रंग के कपड़ों में ढंके थे वे। जो दूसरों को
अविश्वसनीय लगता था, उन्हें उस पर भी भरोसा था। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा
था कि तुम यह भू-विज्ञान और प्राणि-विज्ञान की खुराफात को छोड़ कर
गुह्य-ज्ञान की साधना क्यों नहीं करते? मेरे इतिहासकार मित्र लार्ड मेहोन
उनकी यह बात सुनकर हतप्रभ रह गए और उनकी प्रसन्नवदना पत्नी तो और भी परेशान
हो गयी।
इन लोगों में आखिरी नाम है कार्लाइल का, जिनसे मैं अपने भाई के घर पर भी
आए। उनकी बातें बड़ी सरस और रोचक होती थीं। ठीक ऐसा ही लेखन भी था उनका;
लेकिन कई बार वे विषय को काफी लम्बा खींच देते थे। एक बार मेरे भाई के घर
पर डिनर में खूब मज़ा आया। वहाँ अन्य लोगों के अलावा बैबेज और लेयेल भी थे।
दोनों आपस में बातें कर रहे थे। डिनर के दौरान कार्लाइल ने मौन की महानता
पर ज़ोरदार तकरीर करते हुए लगभग सभी को चुप ही रखा। डिनर के बाद बैबेज ने
बड़े ही विचित्र रूप से कार्लाइल का धन्यवाद किया कि उन्होंने मौन के बारे
में बड़ा ही रोचक व्याख्यान दिया।
कार्लाइल ने लगभग सभी का मज़ाक उड़ाया। एक दिन मेरे घर पर उन्होंने ग्रोटे
लिखित हिस्ट्री के लिए कहा,`एक बदबूदार दलदल जिसमें कुछ भी उपयोगी नहीं।'
उनकी रेमिनिसेन्सेस प्रकाशित होने तक मैं यही समझता था कि उनके उपहास महज
मज़ाक होंगे, लेकिन अब मुझे संदेह होने लगा था। उनकी अभिव्यक्तियाँ किसी
निराश और हताश मन को प्रकट करती थीं, लेकिन वे बहुत दयालु भी थे और अपने
छतफाड़ ठहाकों के लिए बदनाम थे। मुझे विश्वास है कि उनकी दयालुता वास्तविक
थी जिसमें ज़रा भी ईर्ष्या नहीं थी। वस्तुओं और इन्सानों का चित्र बनाने
में उनकी महारथ पर कोई शक नहीं कर सकता था। चित्रकारी में वे मैकाले से
बहुत आगे थे। इन्सानों की ये तस्वीरें असल थीं या नहीं यह प्रश्न अलग है।
वे इन्सान के ज़ेहन पर बड़े ही ताकतवर तरीके से सच्चाई का असर डालते थे।
दूसरी तरफ गुलामी प्रथा के बारे में उनके विचार बड़े ही घृणास्पद थे। उनकी
नज़र में तो जिसकी लाठी उसकी भैंस। मुझे लगता है, उनकी विचार धारा बड़ी
संकीर्ण थी। यदि उनके द्वारा तिरस्कृत विज्ञान की सभी शाखाओं को अलग कर
दिया जाए तो भी। यह मेरे लिए हैरत अंगेज बात थी कि किंग्सले ने उन्हें
उच्चस्तरीय विज्ञान के लिए एकदम सही व्यक्ति बताया था। वह इस विचार को हंसी
में उड़ा देते थे कि व्हीवेल जैसे गणितज्ञ भी प्रकाश के बारे में गोयथे के
दृष्टिकोण पर कुछ विचार कर पाएंगे, जबकि मैं मानता था कि ऐसा हो सकता है।
उनके विचार से यह बड़ा ही हास्यास्पद था कि कोई इस बात पर ध्यान दे कि कोई
हिमनद तेजी से आगे बढ़ा या धीरे धीरे या फिर हिला भी नहीं। जहां तक मैं
विचार करता हूं, तो मुझे वैज्ञानिक शोध को लेकर इतने बीमार दिमाग का कोई
आदमी नहीं मिला। लन्दन में रहने के दौरान मैं विभिन्न वैज्ञानिक सोसायटियों
की सभाओं में जितना जा सकता था गया, और जिओलॉजिकल सोसायटी के सचिव के रूप
में भी काम किया। लेकिन इस दौड़-भाग ने और आर्डिनरी सोसायटी ने मेरी सेहत
पर इतना उल्टा असर किया कि हमें शहर छोड़ कर ग्रामीण इलाके में बसना पड़ा।
इसे हम दोनों ने स्वीकार किया और इस पर हमें कभी पछतावा भी नहीं हुआ।
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