चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा
पिताजी का दोपहर भ्रमण सामान्यतया ग्रीनहाउस से शुरू होता था। वहाँ पर वे
अंकुरित हो रहे बीजों या प्रयोगाधीन पादपों का निरीक्षण करते थे, लेकिन इस
समय वे कोई गम्भीर निरीक्षण नहीं करते थे। इसके बाद वे अपने नियमित भ्रमण
`सैन्ड वाक के लिए जाते या फिर घर के ठीक पड़ोस में खाली पड़े मैदानों में
घूमने चले जाते थे। `सैन्ड वाक ' डेढ़ एकड़ भूमि पर फैली हुई पट्टी थी,
जिसके चारों ओर बजरी बिछाकर रास्ता बनाया गया था। इसके एक तरफ शाहबलूत के
बड़े बड़े पेड़ों का झुरमुट था, जिससे रास्ता छायादार बन गया था, दूसरी ओर
नागफनी की बाड़ लगाकर उसे पड़ोस के चरागाह से अलग किया गया था। उस तरफ जाने
पर छोटी-सी घाटी दिखाई देती थी, वह घाटी वेस्टरहेम हिल के किनारे पर जाकर
विलीन हो गई थी। कभी वहाँ पर घने पेड़ थे लेकिन अब पिंगल की झाड़ियाँ और
श्रीदारु के पेड़ दिखाई देते थे, जो कि वेस्टरहेम हाई रोड तक फैले थे।
मैंने पिताजी से कई बार यह कहते सुना था कि इस छोटी-सी घाटी की खूबसूरती ही
इस जगह घर बनाने का कारण थी।
पिताजी ने सैन्ड वाक पर अलग अलग किस्म के पेड़ लगा रखे थे जिनमें पिंगल
झाड़ी, भोजपत्र, जम्बीरी नीबू, श्रृंगीपेड़, बेंत, गुलमेंहदी और डागवुड थे।
खुली जगह के किनारे किनारे शूलपर्णी की लम्बी कतार खड़ी थी। शुरू-शुरू में
वे रोज़ एक निश्चित संख्या में चक्कर लगाते थे। चक्करों की गिनती के लिए वे
हर चक्कर के बाद एक निश्चित जगह पर चकमकी पत्थरों को ठोकर से रास्ते में ले
आते थे, और जितने पत्थर, उतने चक्कर हो जाते थे। हाल ही के कई बरसों से
उन्होंने चक्करों की गिनती छोड़ दी थी और जब तक शरीर साथ देता था, तब तक
घूमते रहते थे। बचपन में सैन्ड वाक ही हमारे खेल का मैदान भी रहा, और यहाँ
मैं भ्रमण के दौरान पिताजी को लगातार देखता रहता था। वे हमारी बातों में भी
रुचि लेते थे और बच्चे जो भी मज़े करते, उससे वे भी आनन्दित होते थे। यह
मुझे भी बड़ा ही विचित्र लगता है कि मेरे पिताजी के सैंड वाक के बारे मे
मेरी स्मृतियों में आज भी वही सब तैर उठता है जो उस समय बचपन में मैं सोचता
था। यह बताता है कि उनकी आदतों में किसी किस्म का बदलाव कभी नहीं आया।
जब कभी वे अकेले होते थे तो पक्षियों या जानवरों को ध्यान से देखने के लिए
वे बुत से बन जाते थे या एकदम दबे पैरों से चल कर आगे जाते थे। ऐसी
अवस्थाओं में कई बार गिलहरियों के छोटे छोटे बच्चे उनके ऊपर, पीठ पर, पैर
पर चढ़ जाते और उन बच्चों की माँ पेड़ के तने पर से ही गुस्से में
किटकिटाती रहती थी। उनमें तलाश की अद्भुत क्षमता थी। ऐसा हम बचपन में मानते
थे, लेकिन जीवन के अंतिम वर्षों में भी वे पक्षियों के घोंसले खोज लाते थे।
दबे कदमों चलने की अपनी कला का इस्तेमाल करके वे कई बार अपरिचित पक्षियों
के पास तक चले जाते थे, लेकिन मैं समझता हूँ कि यह कला मुझसे छुपाते नहीं
थे। उन्हें इस बात का दुख था कि मैं चटिका (हरे रंग का छोटा-सा पक्षी) या
स्वर्ण चटिका (सुनहरे रंग का छोटा-सा पक्षी) या इन्हीं जैसे कई अनोखे
पक्षियों को नहीं देख पाया। वे बताते थे कि एक बार वे `विग वुड्स' में
बेआहट खिसकते हुए आगे बढ़ रहे थे कि दिन में सोई हुई एक लोमड़ी के सामने जा
पहुँचे। वह लोमड़ी इतनी हैरान हुई कि कुछ देर तो जड़वत उन्हें घूरती रही और
फिर भाग छूटी। उनके साथ में स्पिट्ज कुत्ता भी था, वह भी लोमड़ी को देखकर
जरा भी उद्वेलित नहीं हुआ। इस बात को खतम करते हुए वे यही कहते कि उस समय
कुत्ता भी कैसे बुझे दिल से चला जा रहा था।
उनके भ्रमण की दूसरी पसन्दीदा जगह थी - आर्चिस बैंक । यह जगह शांत कुडहम
घाटी के ऊपरी हिस्से में थी। इस इलाके में धूप चन्दन की झाड़ियों के
साथ-साथ शतावरी और मश्कबू पौधे भी खूब थे। यही नहीं करंजवृक्षों की शाखाओं
की छाया में सेफालेन्थेरा और नियोट्टिया भी उगे हुए थे। इसके ठीक ऊपर
`हैंगग्रूव ' नामक छोटा जंगल भी था, जिसे पिताजी काफी पसन्द करते थे। मैंने
कई बार उन्हें वहाँ पर विभिन्न प्रकार की घास का संग्रह करते देखा था,
खासकर जब उन्हें सभी प्रकार की घास का नामकरण करना होता था। वे एक छोटे
बच्चे की बात दोहराया करते थे कि एक लड़के को कोई ऐसी घास मिली जो उसके
पिता ने पहले कभी नहीं देखी थी। वह घास को डिनर के समय प्लेट में रखकर
बोला,`हम तो बहुत विचित्र घास खोजक हैं।'
पिताजी को बाग में ऐसे ही घूमते रहना काफी पसन्द था। साथ में कोई बच्चा या
मेरी माँ होतीं या फिर ऐसे ही मंडली बना लेते, और वहीं लॉन में बेंच पर बैठ
जाते। आम तौर पर वे घास पर ही बैठते थे। कई बार मैंने उन्हें विशालकाय
लाइम-वृक्ष के नीचे लेटे देखा था। पेड़ की जड़ में निकले हरे गूमड़ पर वे
अपना सिर रख लेते थे। ग्रीष्म ऋतु में हम अक्सर बाहर ही रहते थे। कुँए से
पानी निकालने के लिए लगी चर्खी की आवाज उन दिनों की याद आज भी ताज़ा कर
देती है। हम लॉन टेनिस खेलते और वे मज़े से देखते रहते थे। कई बार वे अपनी
छड़ी की घुमावदार मुठिया से हमारी गेंद को मारकर हमारे पास लौटाते थे।
वैसे तो वे बगीचे को सजाने संवारने में कोई हाथ नहीं बंटाते थे, लेकिन फूल
उन्हें बहुत पसन्द थे। ड्रॉइंग रूम में एजालेस का गुच्छा वे खुद ही लगाते
थे। मुझे लगता है कि फूल की बनावट और उसकी अप्रतिम सुन्दरता, दोनों को वे
कई बार गुम्फित कर देते थे। डाइक्लीट्रा के गुलाबी और सफेद रंग के बड़े
लटकते फूलों के बारे में तो यही अक्सर होता था। इसी प्रकार नीले रंग के
छोटे छोटे फूलों के प्रति भी उन्हें कुछ कलापूर्ण और कुछ वनस्पति शास्त्रीय
लगाव था। फूलों की प्रशंसा में वे धूसर रंग के हाईआर्ट पर हँसते थे और उनकी
तुलना प्रकृति के चमकदार रंगों से करते थे। वे जब किसी फूल की प्रशंसा में
बातें करते थे तो मैं ज़रूर सुनता था। यह तो एक प्रकार से फूल के प्रति
आभार होता था, उसकी नाजुक बनावट और रंग के लिए उनका प्यार था। मुझे याद है
कि जिस फूल को देखकर वे प्रमुदित जोते थे उसे बड़े ही हौले से स्पर्श करते
थे, उनका यह स्नेह और दुलार ठीक एक बच्चे की तरह निश्छल था।
वे प्राकृतिक घटनाओं का मानवीकरण करने से स्वयं को रोक नहीं पाते थे। यह
भावना प्रशंसा और बुराई, दोनों ही स्थितियों में प्रकट हो जाती थी। उदाहरण
के लिए नर्सरी के बारे मं़ - ये छोटे छोटे भिखमंगे वही कर रहे हैं जो मैं
नहीं चाहता। किसी संवेदनशील पौधे को पानी की जिस चिलमची में लगाते थे, अगर
उसकी पत्तियाँ बाहर निकलने लगती थीं तो उन पत्तियों को करीने से सजाते समय
भी वे पत्ते की चतुराई की प्रशंसा सम्मिलित भाव से करते थे। सनड्यू,
केंचुओं, आदि के बारे में भी वे इसी प्रकार बोलते रहते थे।
जहाँ तक मुझे याद आता है घूमने फिरने के अलावा घर से बाहर उनका एकमात्र
मनोरंजन था - घुड़सवारी। डॉक्टर बेन्स जोन्स के कहने पर उन्होंने घुड़सवारी
शुरू की थी। इस मामले में हम भाग्यशाली रहे कि हमें उस समय `टॉमी ' नामक
टट्टू मिल गया था, जो सीधा साधा और तेज चाल वाला था। वे इस प्रकार की सैर
का खूब आनन्द लेते थे। आसपास के इलाकों का चक्कर लगाकर वे लंच तक आवश्य लौट
आते थे। इस प्रयोजन से हमारे आसपास का इलाका बहुत ही रमणीक था। इसका कारण
था कि इस इलाके में छोटी छोटी घाटियाँ थीं जो मैदानी इलाके की टेढ़ी मेढ़ी
सड़कों की तुलना में कहीं ज्यादा मनोहर नज़ारा पेश करती थीं। मुझे लगता है
कि उन्हें अपने ऊपर भी हैरानी होती होगी कि वे कितने अच्छे घुड़सवार थे,
लेकिन बुढ़ापे और खराब सेहत ने उनका यह गुण उनसे छीन लिया था। वे कहते थे
कि घुड़सवारी करते समय उतना गहराई से नहीं सोच पाते थे, जितना कि पैदल
घूमते समय सोचते थे, क्योंकि घोड़े पर ध्यान देने के कारण गहराई से सोचना
नहीं हो पाता था।
यदि अपने अनुभव के अलावा उनकी कही हुई बातों के आधार पर कहूँ तो मैं उनके
खेल प्रेम आदि के बारे में कह सकता हूँ, लेकिन वह सब उन बातों का दोहराव ही
होगा, जो उन्होंने अपने संस्मरणों में कही हैं। अपने बचपन से ही वे बन्दूक
के शौकीन और पक्के निशानेबाज थे। वे कई बार बता चुके थे कि किस प्रकार से
दक्षिण अमरीका में तेईस अबाबील पक्षी मारने के लिए उन्होंने केवल चौबीस
गोलियाँ चलायी थीं। यह कहानी बताते समय वे यह भी ज़रूर बताते थे कि वहाँ की
अबाबीलें हमारे इंग्लैन्ड के मुकाबले कम जंगली होती थीं।
दोपहर का भ्रमण करने के बाद वे डाउन में लंच करते थे। इस मौके पर मैं उनके
भोजन के बारे में एक आध बात कर लेता था। मिठाइयाँ खाने की ललक उनमें बच्चों
की तरह थी, पर दुर्भाग्य यह कि उन्हें मिठाई खाने की सख्त मनाही थी। वे
अपने इस `दुख' को अधिक समय तक छिपा नहीं पाते थे। यह दुख उन्हें मिठाई न
खाने को लेकर होता था, इस दुख को जब तक वे कह नहीं लेते थे, तब तक वे इससे
निपट भी नहीं पाते थे।
वे बहुत थोड़ी-सी मदिरा लेते थे, लेकिन ये थोड़ी-सी भी उन्हें काफी फुर्ती
देती थी। वे पीने से बहुत डरते थे, और अपने बच्चों को लगातार चेतावनी देते
रहते थे कि कोई भी इस लत को अपने पास भी न फटकने देना। मुझे याद है कि एक
बार अपने छुटपन में मैंने उनसे पूछा था कि क्या कभी वे मदहोश हुए थे, और
बड़ी ही संज़ीदगी से उन्होंने बताया था कि एक बार कैम्ब्रिज में बहुत ही
ज्यादा पी गए थे। मैं इससे बहुत प्रभावित हुआ, इतना कि आज भी मुझे वह जगह
याद है जहाँ मैंने यह बात पूछी थी।
लंच के बाद वे ड्राइंग रूम में सोफे पर लेटकर अखबार पढ़ते थे। मैं समझता
हूँ कि विज्ञान के अलावा अखबार ही पठन-सामग्री थी, जिसे वे खुद पढ़ते थे।
इसके अलावा उपन्यास, यात्रा-वृतांत, इतिहास दूसरों से पढ़वा कर सुनते थे।
वे जीवन के अन्य पहलुओं पर इतना व्यस्त रहते थे कि अखबार की उसमें कोई जगह
नहीं थी, हालांकि वे वाद विवाद की शब्दावली को पढ़कर हँसते ज़रूर थे, मैं
समझता हूँ कि केवल ऊपरी मन से। वे राजनीति में रुचि रखते तो थे लेकिन इस
बारे में उनकी राय महज एक व्यवस्था के आधार पर थी, वे खुद इस पर गहराई से
नहीं सोचते थे।
अखबार पढ़ने के बाद उनका पत्र-लेखन शुरू होता था। साथ ही, वे अपनी पुस्तकों
की पाण्डुलिपियाँ भी तैयार करते थे। इसके लिए वे आग के पास अपनी हार्स चेयर
रख लेते। कुर्सी के हत्थे पर लगे बोर्ड पर वे अपने कागज रखते थे। यदि खतों
की संख्या ज्यादा होती, या खत लम्बे होते तो पहले वे खतों की एक प्रति लिख
लेते थे और फिर उसी से बोल बोलकर लिखवाते थे। इन रफ कापियों को वे
पाण्डुलिपियों या प्रूफशीट के पीछे लिखते थे। मज़े की बात यह कि कई बार वे
अपना लिखा खुद भी नहीं पढ़ पाते थे। उन्हें जितने भी खत मिलते थे, उन सब को
सहेज कर रख लेते थे। यह आदत उन्होंने मेरे दादाजी से सीखी थी और वे बताते
थे कि यह काफी उपयोगी रहता था।
मूर्ख, उजड्ड लोग भी उन्हें बहुत से खत भेज देते थे, और पिताजी सबका जवाब
देते थे। वे कहते थे कि अगर जवाब नहीं दूँगा तो यह बात अवचेतन में तैरती
रहेगी। एक बात और कि यह उनकी विनम्रता को भी दर्शाता था। वे बड़ी विनम्रता
से सभी का जवाब देते थे, इससे उनकी दयालुता चारों ओर प्रसिद्ध हो गयी, और
यह बात उनकी मृत्यु पर जाकर स्पष्ट हुई।
ऐसी दूसरी छोटी मोटी बातों का ध्यान वे दूसरे खतों का जवाब देते समय भी
रखते थे। उदाहरण के लिए किसी विदेशी को खत लिखवाते समय वे मुझसे यह कहना
कभी नहीं भूलते थे,`तुम बेहतर लिख सकते हो इसलिए लिखो क्योंकि यह किसी
विदेशी को जाएगा।' वे अपने अधिकांश खत इस प्रत्याशा के साथ लिखते थे कि
इन्हें पढ़ने वाला लापरवाही से पढ़ेगा, इसीलिए पत्र लिखवाते समय वह मुझे
सावधानी से बहुधा बताते जाते थे कि किसी भी महत्त्वपूर्ण बात से नया पैरा
शुरू करो ताकि पाठक का ध्यान खींचा जा सके। प्रश्न पूछ पूछकर वे दूसरों को
परेशान करने के बारे में स्वयं भी कितना सोचते रहते थे, यह बात उनके पत्रों
से स्पष्ट हो जाएगी।
ऊल जलूल किस्म के खतों का जवाब देने के लिए उन्होंने एक सामान्य प्रकार से
लिखा हुआ पत्र छपवा रखा था, लेकिन वह खत उन्होंने शायद ही कभी भेजा हो।
मुझे लगता है कि उन्हें ऐसा कोई मौका ही नहीं मिला जिसके लिए वह पत्र भेजा
जा सके। मुझे याद है कि एक बार ऐसा मौका आया था जब उन मुद्रित पत्रों का
प्रयोग किया जा सकता था। उन्हें एक अजनबी ने लिखा था कि वाद विवाद की एक
सभा में `द इनोल्यूशन' पर चर्चा होगी, और बहुत ही व्यस्त होने कारण उसके
पास समय बहुत कम है, इसलिए आप अपने दृष्टिकोणों की एक रूपरेखा भिजवा दीजिए।
हालांकि, उस नौजवान को काफी शालीनता भरा जवाब मिला था, तथापि उसे अपने भाषण
के लिए अधिक सामग्री नहीं मिली। पिताजी का नियम था कि मुफ्त पुस्तक भेजने
वाले हर एक को धन्यवाद देते थे, लेकिन पेम्फलेट के बारे में वे ऐसा नहीं
करते थे। वे कई बार हैरानगी जाहिर करते थे कि उनकी अपनी किताबों के लिए
किसी ने भी कभी भी उन्हें धन्यवाद नहीं दिया। उन्हें जैसे ही कोई पत्र
मिलता था तो वे खुश हो जाते थे, क्योंकि उनकी नज़र में उनके सभी लेखन
कार्यों का इससे बेहतर मूल्यांकन और कुछ नहीं हो सकता था। उनकी पुस्तकों
में दूसरे रुचि लेते थे तो पिताजी भाव विभोर हो उठते थे।
धन और व्यापार के मामले में वे अत्यधिक सतर्क और सटीक रहते थे। वे सावधानी
पूर्वक बहीखाता रखते थे, उसे वर्गीकृत करते और साल के अंत में एक व्यापारी
की तरह से लेखे-जोखे का चिट्ठा तैयार करते। मुझे याद है कि भुगतान के लिए
दिए गए हरेक चेक को वे फौरन से पेशतर बही में दर्ज करते, मानो यदि ऐसा नहीं
किया तो भूल जाएंगे। मुझे लगता है कि दादाजी ने उन्हें यह एहसास दिला दिया
था कि वे जितना सोचते हैं, उससे कहीं ज्यादा गरीब हैं। क्योंकि इस इलाके
में घर खरीदते समय उन्हें दादाजी की ओर से बहुत ही कम धन मिल पाया था। इसके
बावजूद वे जानते थे कि आगे चलकर उन्हें तकलीफ नहीं होगी, क्योंकि अपने
संस्मरणों में उन्होंने लिखा है कि डाक्टरी पढ़ने में मेहनत करने की ज़रूरत
नहीं थी क्योंकि उन्हें अपनी आजीविका की अधिक चिन्ता नहीं।
वे कागज का इस्तेमाल बहुत किफायती ढंग से करते थे, लेकिन वास्तव में ये बचत
कम और आदत ज्यादा थी। जितने भी खत मिलते उनके साथ मिले खाली कागजों को वे
सहेज कर रख लेते थे; कागज का वे इतना आदर करते थे कि खुद अपनी ही किताबों
की पाण्डुलिपियों के पीछे लिख डालते थे, दुर्भाग्यवश इस आदत के चलते
किताबों की मूल पांडुलिपियाँ भी खराब हो गईं। कागज के बारे में उनकी यह
भावना रद्दी कागजों के लिए भी थी, और कई बार तो मज़ाक में कहते कि मोमबत्ती
जलाने के बाद बचे छोटे कागज़ के टुकड़े को भी आग में मत फेंको।
वे विशुद्ध बनियागिरी का भी पूरा आदर करते थे और अपने एक रिश्तेदार की
प्रशंसा में कह उठते थे कि उसने अपना भविष्य संवार लिया। अपने बारे में तो
वे इतना ही कहते कि जितना धन उन्होंने बचाया उसका उन्हें गर्व है। अपनी
किताबों के जरिए प्राप्त धन का भी उन्हें संतोष था। धन की बचत वे इस चिन्ता
से भी करते थे कि उनकी संतानों की सेहत ऐसी नहीं कि वे अपना जीवन यापन कर
सकें। यह एक ऐसी बात थी जिससे वे कई बरस तक परेशान रहे। मुझे उनकी बातों
में से एक अभी भी थोड़ी बहुत याद है। वे कहा करते थे,`भगवान का शुक्र है कि
उसने तुम्हें दाल रोटी का सिलसिला दे रखा है'। बचपन में मैं इस बात का मतलब
केवल शब्दों के रूप में ही समझता था।
खतों का काम निपटाने के बाद दोपहर करीब तीन बजे वे बेडरूम में आराम करते
थे। एक सोफे पर लेट जाते, सिगरेट पीते हुए कोई उपन्यास या विज्ञान के अलावा
कुछ और पढ़वा कर सुनते थे। वे केवल आराम करते समय ही धूम्रपान करते थे,
जबकि नौसादर उन्हें तरोताज़ा कर देती थी। नौसादर वे केवल काम करते समय ही
लेते थे। अपने जीवनकाल में उन्होंने नौसादर का काफी सेवन किया। यह लत
उन्हें विद्यार्थी जीवन के दौरान ही एडिनबर्ग में लग गयी। नौसादर रखने के
लिए उनके पास चाँदी की सुन्दर डिबिया थी, जो उन्हें मायेर में मिसेज
वुडहाउस ने दी थी। इस डिबिया को बहुत प्यार करते थे, लेकिन कभी भी अपने साथ
बाहर नहीं ले जाते थे, क्योंकि इससे नौसादर की सुंघनी ज्यादा हो जाती थी।
अपने किसी पुराने पत्र में उन्होंने लिखा था कि कई माह से उन्होंने नौसादर
बन्द कर रखी है, और इस दौरान उनकी हालत एकदम अहदी, आलसी, और बौड़म जैसी हो
गयी। हमारे पुराने पड़ोसी और पादरी मुझे बताते थे,`एक बार तुम्हारे पिताजी
ने यह संकल्प कर लिया कि घर के बाहर रहेंगे तो ही नौसादर की सुंघनी लेंगे,
यह तो उनके लिए बड़ा ही संतोषप्रद इंतजाम था, क्योंकि मैं अपनी डिबिया
अध्ययनकक्ष में रखता था और बगीचे से वहाँ आने का काम नौकरों को बिना बुलाए
किया जा सकता था, और इसी बहाने मैं अपने प्यारे दोस्त के पास कुछ अधिक समय
गुजार लेता था, दूसरे हालात में शायद यह नामुमकिन होता।' वे बड़े दालान में
रखी मेज पर रखे मर्तबान में से नौसादर निकालते थे, नौसादर की एक चुटकी के
लिए इतनी दूर जाना कोई बड़ी बाधा नहीं थी, नौसादर के मर्तबान के ढक्कन की
खनक अलग ही आवाज़ करती थी। कई बार जब वे ड्राइंगरूम में होते थे, तो उन्हें
अचानक ही इलहाम होता था कि अध्ययन कक्ष में जल रही आग धीमी पड़ गयी लगती
है, और जब हम में से कोई एक कहता कि चलो देख कर आते हैं, तो पता चलता कि
नौसादर की चुटकी भी आ गयी है। सिगरेट पीने की आदत उन्हें बाद के वर्षों में
पक्की सी हो गई, हालांकि पम्पास की सैर के दौरान उन्होंने गाउकोस के साथ
सिगरेट पीने की आदत पड़ गयी थी। मैंने उन्हें यह कहते सुना था कि मेट के
प्याले के साथ सिगरेट का कश सारे सफर की थकान और भूख दोनों को दूर कर देता
था।
दिन में चार बजे के करीब वे सैर के लिए कपड़े पहनने के लिए नीचे आते और इस
काम में इतने पक्के थे कि सीढ़ियाँ उतरते हुए उनके कदमों की आवाज़ सुनकर
कोई भी कह सकता था कि अब चार बजे के आस पास का समय है।
दिन में लगभग साढ़े चार बजे से साढ़े पाँच बजे तक वे काम करते और फिर
ड्राइंग रूम में आ जाते थे, और फिर उपन्यास पढ़वाने तथ सिगरेट पीते हुए
आराम करने (लगभग छह बजे) तक वे खाली बैठे रहते थे।
आगे चलकर उन्होंने देर से डिनर करना छोड़ ही दिया था, और साढ़े सात बजे चाय
(हम सब डिनर करते थे) और साथ में एक अण्डा या गोश्त का छोटा-सा टुकड़ा ले
लिया करते थे। डिनर के बाद वे कभी भी कमरे में नहीं रुकते थे और यह कहते
हुए माफी माँगते कि जिसकी घोड़ी बूढ़ी हो उसे अपना सफर जल्दी शुरू कर देना
चाहिए। यह भी उन संकेतों में से एक था कि उनकी कमज़ोरी बढ़ती जा रही थी।
आधा घंटे भी कम या ज्यादा बातचीत की तो सारी रात की नींद का कबाड़ा और अगले
दिन का आधा काम तो बिगड़ ही जाता था।
डिनर के बाद वे मेरी माँ के साथ बैकगेमोन नामक खेल खेलते थे। हर रात दो
बाजियाँ होती थीं। कई बरस से खेल में हार जीत का रिकार्ड भी रखा जा रहा था,
और इसके स्कोर में उन्हें बहुत रुचि थी। इन बाजियों में वे दिलो जान से जुट
जाते थे। खेल में अपनी बदनसीबी को कोसते और मेरी माँ की खुशनसीबी पर बनावटी
गुस्सा जाहिर करते हुए बिफरने का नाटक करते।
बैकगेमोन खेलने के बाद वे कोई वैज्ञानिक किताब खुद ही पढ़ने बैठ जाते। अगर
ठीक हुआ तो ड्राइंगरूम में ही और अगर वहाँ शोरगुल हुआ तो अपने अध्ययनकक्ष
में।
शाम को वे इस समय तक अपनी ताकत के मुताबिक पढ़ चुके होते थे, और कोई पढ़कर
सुनाए इससे पहले ही, बहुधा वे सोफे पर लेट जाते और मेरी माँ उन्हें पियानो
पर धुनें सुनाती। हालांकि उन्हें संगीत की बारीकियाँ नहीं मालूम थीं, लेकिन
उन्हें अच्छे संगीत से बहुत प्यार था। वे इस बात पर खेद जाहिर करते थे कि
उम्र बढ़ने के साथ साथ वे संगीत में खुशी पाना भूलते जा रहे हैं। तो भी
जहाँ तक मुझे याद है कि अच्छी धुनों को अभी भी पसन्द करते थे। मैंने उन्हें
एक ही धुन गुनगुनाते सुना था - और वह थी वेल्श गीत की धुन `Ar hydy nos',
यह धुन वे एकदम सही तरीके से गुनगुनाते थे; वे कभी कभी ओटाह्वाइटियन गीत भी
गुनगुना लेते थे। संगीत की समझ न होने के कारण वे किसी भी धुन को दुबारा
समझने में नाकाम रहते थे, लेकिन उन्होंने अपनी पसन्द में निरन्तरता बनायी
हुई थी। जब कभी भी उनकी पसंदीदा पुरानी धुन बजायी जाती तो वे पुलक उठते और
कहते,`यह इतनी मधुर धुन कौन-सी थी?' वे बीथोवन की सिम्फनी के कुछ अंशों और
हेन्डेल की कुछ धुनों को भी पसन्द करते थे। वे शैली में विभिन्नता के प्रति
भी संवेदनशील थे। वे मिसेज वर्नन लशिन्गटन को भावोत्पादक रूप से संगीत
बजाते सुनते थे। यही नहीं जून 1881 में हेन्स रिचर जब डाउन आए थे, तो
पियानो पर उनके संगीत को सुन वे विमुग्ध हो गए थे। वे अच्छी गायकी का भी
लुत्फ उठाते थे और संगीत की अन्तिम गत या करुणामय धुन को सुनकर लगभग रो
पड़ते थे। उनकी भतीजी लेडी फेरेर जब सुलिवन के गीत `Will he come' पर साज
छेड़ती थीं तो वह उनके लिए सुख की पराकाष्ठा होती थी। वे अपनी रुचि के लिए
अत्यधिक भाव विभोर रहते थे, और यदि कोई दूसरा भी उनसे सहमत होता था तो वे
उसके सामने प्रमुदित हो उठते थे।
वे शाम को बहुत थक जाते थे, और जीवन के आखिरी वर्षों में तो यह थकान बहुत
बढ़ गई थी। वे रात में लगभग दस बजे के करीब ड्राइंग रूम से निकल जाते थे और
साढ़े दस के करीब सोने चले जाते। उनकी रातें बहुत कष्टप्रद होती थीं। वे
घंटों जागते रहते या बिस्तर पर बैठे रहते थे, और बेचैनी में पहलू बदलते।
रातों में वे अपने विचारों की ऊहापोह में अधिक परेशान होते थे, और कई बार
उनका दिमाग किसी ऐसी समस्या में उलझ जाता था जिसे वे लगभग नकार चुके होते
थे। रात में भी अक्सर ऐसा होता कि दिन में परेशान करने वाली कोई समस्या फिर
से उनहें परेशान करने लगती थी, मैं समझता हूं यह तब ज्यादा होता था जब वे
किसी झंझटी खत का जवाब नहीं दे पाते थे।
इस प्रकार की यह लगातार पढ़ाई, जिसका जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूँ, कई
बरस तक चलती रही, और इसी वजह से वे साहित्य के विनोदपरक पहलू को समझ पाए।
उन्हें उपन्यासों का चस्का-सा लग गया था और मुझे याद है कि उन्हें इस बात
पर कितना आनन्द आता था कि वे लेटे हुए सिगरेट के कश ले रहे हैं और कोई
उपन्यास पढ़कर उन्हें सुना रहा हो। वे उपन्यास की कथा वस्तु और चरित्र
चित्रण, दोनों में गहरी रुचि लेते थे, और कथा समाप्त होने तक वे उसके अन्त
का अंदाज़ा नहीं लगा पाते थे। वे यह मानते थे कि उपन्यास का अन्त स्त्रैण
कुटेव की तरह होता है। दुखान्त कथाओं को वे पसन्द नहीं कर पाते थे। इसी वजह
से वे जार्ज ईलियट की प्रशंसा नहीं कर पाते थे, जबकि वे सिलास मार्नर की
यदा कदा प्रशंसा करते थे। वाल्टर स्कॉट, मिस ऑस्टेन और मिसेज गास्केल की
कृतियाँ तो बार बार पढ़वाते थे, इतना पढ़वाते कि पढ़ते पढ़ते उनमें नीरसता
आ जाती थी। वे एक बार में दो या तीन किताबें उठा लेते थे, एक उपन्यास और
शायद एक जीवनी तथा एक पुस्तक यात्रा वृत्तान्त के बारे में। वे ऐसे ही या
पुरानी पद्धति की किताबों को पढ़ना शुरू नहीं कर देते थे, बल्कि वे नवीनतम
पुस्तकों को पसद करते थे। ये पुस्तकें वे पुस्तकालय से लाते थे।
उनकी साहित्यिक रुचि और अभिमत उस स्तर के नहीं थे, जितना तेज़ उनका दिमाग़
था। वे खुद भी सोचते थे कि जिस बात को वे अच्छा समझते थे उसके बारे में
पूरी तरह स्पष्ट थे। वे मानते थे कि साहित्यिक रुचि के मामले में वे किसी
दूसरी दुनिया के थे, और इसमें से अपनी पसन्द और नापसन्द के बादे में भी
बताते थे, साहित्यिक लोगों के बारे में तो वे कहते थे कि इस सम्प्रदाय से
उनका कोई नाता नहीं है।
कला के सभी मामलों पर वे आलोचकों पर हंसते थे और कहते थे कि उनके अभिमत
पुरानपंथी हैं। इसी प्रकार चित्रकारी के बारे में वे कहते थे कि आज जिन
चित्रकारों की उपेक्षा हो रही है कभी अपने जमाने में वे धुरंधर माने जाते
थे। युवक के रूप में चित्रों के प्रति उनका अनुराग एक तरह से इसका प्रमाण
है कि कला के एक उपादान के रूप में वे इन चित्रों को पसन्द करते थे, केवल
पसन्द दिखाने के लिए नहीं। इसके बावजूद वे पोर्टेट को काफी हल्का मानते थे
और कहते थे कि फोटोग्राफ इसके मुकाबले कहीं बेहतर हैं, जैसे कि वे चित्रकार
की समस्त कला के प्रति उदासीन हो अपनी आँखें बन्द कर लेते थे। लेकिन यह सब
वे इसलिए कहते थे ताकि हम उनका पोर्टेट बनवाने का विचार छोड़ दें, क्योंकि
इसकी प्रक्रिया उन्हें बहुत ही उबाऊ लगती थी।
इस प्रकार कला के सभी विषयों के बारे में उन्हें एक अनभिज्ञ के रूप में
देखने की हमारी भावना इस बात से और मजबूत हो जाती थी कि वे अपने चरित्र के
अनुरूप ही इस बारे में भी दिखावटीपन नहीं रखते थे। रुचि के साथ साथ अन्य
गंभीर बातों के मामले में भी उन्होंने अपने सुदृढ़ विचार बना रखे थे। मुझे
एक मौका याद आता है जो कि इसका अपवाद हो सकता है। एक बार वे जब मिस्टर
रस्किन के बेडरूम में टर्नर्स को देख रहे थे, तो उन्होंने बाद में भी और उस
समय भी यह स्वीकार नहीं किया कि मिस्टर रस्किन ने उनमें क्या देखा था, उस
बारे में कुछ भी नहीं समझ पाए थे, लेकिन यह बहानेबाजी वे अपने बचाव के लिए
नहीं कर रहे थे बल्कि अपने मेजबान के बचाव में कर रहे थे। वे इस बात पर
काफी खुश और हैरान हुए थे, जब बाद में मिस्टर रस्किन कुछ चित्रों के
फोटोग्राफ लाए (मैं समझता हूँ कि वे वेनडाइन के पोर्टेट) और उनके बारे में
बड़े ही आदरपूर्वक मेरे पिताजी से अभिमत माँगा।
पिताजी का वैज्ञानिक अध्ययन ज्यादातर जर्मन भाषा में होता था, और यह उनके
लिए बहुत ही श्रमसाध्य था। मुझे यह बात तब पता लगी जब मैंने उनकी पढ़ी
किताबों में पेंसिल से लगाए गए निशानों को देखा, तो पाया कि निशान बहुत कम
अन्तरालों पर लगाए गए थे। वे जर्मन को `वर्डाम्टे' कहते थे, मानो अंग्रेजी
उच्चारण ही करना है। वे जर्मन लोगों के प्रति विशेष रूप से क्रोधित हो उठते
थे, क्योंकि वे यह बात मानते थे कि यदि जर्मन चाहें तो सरल भाषा भी लिख
सकते हैं, वे कई बार फ्रेइबर्ग के प्रोफेसर हिल्डब्रान्ड की तारीफ करते हुए
कहते कि वे फ्रान्सीसी भाषा जैसी सरल और स्पष्ट जर्मन लिखते हैं। वे कई बार
अपनी जर्मन मित्र को जर्मन भाषा का वाक्य देकर अनुवाद करने को कहते और यदि
वह जर्मन भक्त महिला उस वाक्य को सहज रूप से अनुवाद न कर पाती तो हँसते।
उन्होंने शब्दकोश में सिर खपा खपाकर जर्मन खुद ही सीखी थी। वे कहते थे कि
किसी वाक्य को कई कई बार दोहराता हूँ, तब तक दोहराता हूँ जब तक कि उसका
अर्थ मुझे स्पष्ट न हो जाए। काफी पहले जब उन्होंने जर्मन सीखना शुरू किया
था तो वह इस बात का बखान करते (जैसा वे बताते) कि सर जे हूकर ने यह सुनकर
कहा था,`मेरे प्रिय मित्र, यह कुछ भी नहीं है, मैं तो यह शुभ काम कई बार
शुरू करके छोड़ चुका हूँ।'
व्याकरण में कमज़ोरी के बावज़ूद वे जर्मन बेहतर तरीके से समझ लेते थे, और
जिन वाक्यों को वे समझ नहीं पाते थे, वे वाक्य वास्तव में कठिन होते थे।
उन्होंने जर्मन सही प्रकार से बोलने का का प्रयास कभी नहीं किया, बल्कि
शब्दों का उच्चारण ऐसे करते थे, मानो वे अंग्रेजी के हों। इससे उनकी कठिनाई
कम नहीं होती थी, खासकर जब वे जर्मन वाक्य पढ़कर उसका अनुवाद कराते थे।
उच्चारित ध्वनियों की बारीकी वे नहीं पकड़ पाते थे, इसलिए उच्चारण में
थोड़े से भेद को समझना उनके लिए मुश्किल था।
उनकी एक खासियत यह भी थी कि वे विज्ञान की उन विधाओं में भी रुचि लेते थे,
जो उनकी अपनी विधा से बिल्कुल अलग थीं। जीव विज्ञान से जुड़े विषयों के
बारे में उनके विश्लेषणपरक सिद्धान्तों को काफी ख्याति प्राप्त हुई। यह तो
कहा ही जा सकता है कि वे सभी विधाओं में कुछ न कुछ तलाश लेते थे। उन्होंने
विभिन्न विषयों की खास खास किताबें भी पढ़ीं। इनमें पाठ्य पुस्तकें काफी
थीं, जैसे हक्सले की इन्वर्टेब्रेट एनाटोमी या बेलफॉर की एम्ब्रयोलॉजा। इन
सभी पुस्तकों की विषयवस्तु उनकी अपनी विशेषज्ञता से कहीं परे की बातें थीं।
इसी प्रकार मोनोग्राफ प्रकार की पुस्तकों का अध्ययन नहीं करते थे।
इसी प्रकार जीव विज्ञान के अलावा अन्य प्रकार की पुस्तकों के प्रति भी वे
संवेदना रखते थे, खासकर जिन्हें वे परख नहीं पाते थे। उदाहारण के लिए
उन्होंने नेचर को पूरा पढ़ लिया था, भले ही इस पुस्तक का अधिकांश भाग गणित
और भौतिकी से सम्बन्धित था। मैंने उन्हें कई बार यह कहते भी सुना था कि जिन
आलेखों को (स्वयं उन्हीं के अनुसार) वे समझ नहीं पाते उन्हें पढ़ने में भी
उन्हें बहुत आनन्द आता था। काश! मैं भी उन्हीं की तरह से हँस पाता, जब वे
यह बात कहकर ठहाका मारते थे।
यह भी काफी मज़ेदार बात है कि वे उन विषयों पर भी अपनी रुचि बरकरार रखते
थे, जिन पर वे पहले ही काम कर चुके होते थे। भूविज्ञान के बारे में तो यह
बात एकदम खरी उतरती थी। अपने एक पत्र में उन्होंने मिस्टर जुड को लिखा था
कि वे अवश्य घर आएँ, क्योंकि लेयेल की मृत्यु के बाद से उन्होंने भूविज्ञान
पर चर्चा नहीं की थी। साउथम्पटन के भूगर्भ में पड़े कंकरों के बारे में
उन्होंने सर ए गेकेई से कुछ चर्चा अपने पत्रों के जरिए की थी, जो इसका ही
दूसरा उदाहरण है। यह चर्चा उन्होंने अपने देहान्त से कुछ ही पहले की थी।
इसी प्रकार डॉक्टर डोहर्न को लिखे एक पत्र में उन्होंने बार्नकल (एक
समुद्री जीव जो जलयानों के पेंदे में चिपका रहता है) के बारे में अपनी रुचि
के बरकरार रहने का जिक्र किया था। मैं समझता हूँ कि यह उनके दिमाग की ताकत
और उर्वरता के कारण था। इस बारे में वे कहते थे कि यह किसी दैवी शक्ति का
उपहार है। वे अपने बारे में यही नहीं बल्कि कभी कभी यह भी बताते थे कि वे
किसी विषय या प्रश्न के बारे में कई-कई बरस तक सजग रहते थे। उनकी यह मेधा
शक्ति किस सीमा तक थी, यह बात इससे सिद्ध हो जाती है कि उन्होंने नाना
प्रकार की समस्याओं का समाधान किया, जबकि ये समस्याएँ उनके समक्ष काफी पहले
आ खड़ी हुई थीं।
यदि अपने आराम के क्षणों के अलावा भी वे कभी खाली बैठे होते थे तो उसका
मतलब यही होता था कि उनकी तबीयत बिल्कुल ठीक नहीं; क्योंकि ज़रा-सा आराम
मिलते ही वे अपने जीवन के बंधे हुए रास्ते पर चल पड़ते थे। रविवार और बाकी
के दिन सब उनके लिए बराबर थे। उनके जीवन में काम और आराम का समय निर्धारित
था। उनके दैनिक जीवन को निकट से देखने वालों के अलावा किसी दूसरे के लिए यह
समझ पाना निहायत ही नामुमकिन था कि उनकी राजी-खुशी के लिए उनका नियमित जीवन
कितना ज़रूरी था। अभी मैंने उनकी जिस जीवनचर्या का जिक्र किया है उसको सही
रूप में चलाए रखने के लिए वे कुछ भी करने को तैयार रहते थे। यदि लोगों के
सामने कुछ बोलना होता था तो भले ही वह सामान्य-सी बात हो, वे उस समय बहुत
तैयारी करते थे। सन 1871 में अपनी बड़ी बेटी की शादी के लिए जब वे गाँव के
छोटे से गिरजे में गए तो उस समय प्रार्थना के दौरान वे सहज नहीं हो पाए।
इसी तरह के अन्य मौकों पर भी वे सहज नहीं रह पाए थे।
मेरे ख्यालों में अभी भी वह घटना तरोताज़ा है जब वे ईसाईयत की दीक्षा के
दौरान हमारे साथ चर्च में थे। हम बच्चों के लिए यह एक अनोखी घटना होती थी
कि वे चर्च में रहें। मुझे याद है कि अपने भाई ईरास्मस को दफनाने के मौके
पर वे कैसे लग रहे थे। बर्फ की फुहारों के बीच काले लबादे में खड़े हुए
उनका चेहरा निहायत ही संज़ीदा और पीड़ा से भरा हुआ दिखाई दे रहा था।
कई बरस तक दूर रहने के बाद जब एक बार वे लिनेयन सोसायटी की सभा में गए,
वास्तव में यह एक गंभीर विषय था, किसी भी के लिए यह घटना दिल बैठाने के लिए
काफी होती, और इस सबके बाद जो परेशानियाँ उठानी पड़तीं उन सबसे हम किसी तरह
बच गए। इसी प्रकार सर जेम्स पेगेट ने एक ब्रेकफास्ट पार्टी दी थी, उसमें
मेडिकल कांग्रेस (1881) के कुछ प्रमुख मेहमान भी थे, और यह दावत उनके लिए
बहुत ही कष्टदायक साबित हुई।
सुबह सुबह का समय ऐसा होता था जब वे अपने आप को सहज समझते थे, और अपने सभी
कामों को कहीं ज्यादा महफूज ढंग से पूरा करते थे। इसीलिए जब वे अपने
वैज्ञानिक दोस्तों से मिलने लन्दन जाते थे तो, इस आवागमन का समय सवेरे दस
बजे तक ही रखा जाता था। यही कारण था कि वे यात्रा पर जाते समय सबसे पहली
गाड़ी पकड़ने का प्रयास करते थे, और लन्दन में रहने वाले अपने रिश्तेदारों
के घर पहुँचते थे तो वे सब अपनी नित्य क्रियाओं में ही लगे होते थे।
वे अपने एक एक दिन का हिसाब रखते थे। किस दिन उन्होंने काम किया और किस दिन
अपनी खराब सेहत के कारण वे कुछ नहीं कर पाए, उनके लिए यह बताना संभव होता
था कि साल भर में कितने दिन वे निष्क्रिय रहे। उनका यह रोजनामचा, पीले रंग
की एक डायरी के रूप में हुआ करता था। यह डायरी उनके आतिशदान पर रखी रहती
थी। यह डायरी दूसरी पुरानी डायरियों के ऊपर रहती थी। इस डायरी में वे यह भी
दर्ज करते थे कि कितने दिन वे अवकाश पर रहे और कब लौटे।
अवकाश के दिनों में वे ज्यादातर एक सप्ताह के लिए लन्दन जाते थे। या तो
अपने भाई के घर (6, क्वीन एन्न स्ट्रीट) या फिर अपनी बेटी के घर (4,
ब्रायन्स्टन स्ट्रीट)। अवकाश के दिनों में मेरी माँ उनके साथ ही रहती थीं।
जब उनकी बीमारी के दौरे बढ़ जाते या बहुत ज्यादा काम करने की वजह से उनका
सिर झूलने लगता था, तो इस तरह का अवकाश उनके लिए ज़रूरी हो जाता था। वे
बड़े ही बेमन से लन्दन जाते थे, और इसके लिए सौदेबाजी भी करते थे। उदाहरण
के लिए कभी कहते कि छह दिन की जगह पाँच दिन में ही लौट आएंगे। इस सारी
यात्रा में उन्हें जो बेचैनी होती थी, वह केवल यात्रा की कल्पना से ही हो
जाती थी, उन्हें तो यात्रा के नाम से ही पसीना छूटता था, और यह हालात सिर्फ
शुरुआत में ही रहती थे, वर्ना तो कानिस्टन की लम्बी यात्रा के बाद भी
उन्हें बहुत कम थकान हुई। उनकी कमज़ोरी को देखते हुए यह थकान हमें कम ही
लगी। इस यात्रा में उन्होंने बच्चों जैसी खुशी जाहिर की थी, और यह खुशी
बेइन्तहा थी।
हालांकि, जैसा उन्होंने बताया था कि उनकी सौन्दर्यपरक रुचि में गिरावट आ
रही थी, तो भी प्राकृतिक नज़ारों के लिए उनका प्रेम तरोताज़ा और पुख्ता ही
बना रहा। कोनिस्टन में की गयी हर सैर उन्हें ताज़ा दम बना देती थी। एक बड़ी
झील के दो किनारों पर बसे इस पर्वतीय देश की खूबसूरती का बखान करते वे थकते
नहीं थे।
इन लम्बे अवकाशों के अलावा वे कुछ समय के लिए दूसरे रिश्तेदारों के पास भी
जाते रहते थे। कभी लेइथहिल के पास रिश्तेदारी में तो कभी अपने बेटे के पास
साउथेम्पटन। उन्हें ऊबड़ खाबड़ ग्रामीण इलाके में घुमक्कड़ी बहुत पसन्द थी।
लेइथहिल और साउथेम्पटन के पास ग्राम्य भूमि, एशडाउन जंगल के पास झाड़ियों
से भरी हुई परती जमीन, या उनके दोस्त सर थॉमस फेरेर के घर के पास बंजर में
उन्हें बहुत मजा आता था। अपने अवकाश काल में भी वे निठल्ले नहीं बैठते थे,
बल्कि कुछ न कुछ तलाशते रहते थे। हार्टफील्ड में उन्होंने ड्रोसेरा नामक
पौधे को कीड़े वगैरह पकड़ते देखा और इसी तरह टॉर्के में उन्होंने शतावरी का
परागण देखा, और यही नहीं थाइम के नर मादाओं के सम्बन्ध भी जाँचे परखे।
अवकाश बिता कर घर लौटने पर वे प्रसन्न हो उठते थे। लौटने पर अपनी कुतिया
पॉली से उन्हें जो प्यार मिलता था उस पर वे बहुत खुश होते थे। उन्हें देखते
ही वह खुशी से व्याकुल हो उठती थी, उनके चारों ओर घूमती, किंकियाती, कदमों
में लोटती, कूद कर कुर्सी पर चढ़ जाती और वहीं से छलांग मार कर नीचे आती।
और पिताजी - वे नीचे झुककर उसे थपथपाते, उसके चेहरे को अपने चेहरे से
छुआते, और वह उनका चेहरा चाट भी लेती। वे उस समय बहुत ही नरम और प्यार भरी
आवाज़ में बोलते थे।
पिताजी में कुछ ऐसी ताकत थी कि गरमी की इन छुट्टियों को खुशनुमा बना देते
थे। सारा परिवार इस बात को महसूस करता था। घर पर उन्हें काम का जो बोझ रहता
था, उसके चलते जैसे उनकी खुशमिजाजी काफूर हो जाती थी, और जैसे ही इस बोझ से
निजात मिलती तो अवकाश के दिनों का आनन्द उठाने के लिए वे जैसे जोश से भर
जाते थे, और उनका साथ बहुत ही रोचक बन जाता था। हमें तो यही लगता था कि एक
सप्ताह के साथ में उनका जो रूप हमें दिखाई देता था, वह रूप तो एक महीने घर
रहने के दौरान भी देखने को नहीं मिलता था।
मैंने अभी जिन अवकाशों की बात की है, उनके अलावा वे जल चिकित्सा के लिए भी
जाते रहते थे। सन 1849 में जब वे बहुत बीमार थे और लगातार पीड़ित थे, तो
उनके एक दोस्त ने जल चिकित्सा के बारे में बताया। काफी समझाने के बाद वे
मेलवर्न में डॉक्टर गुली के चिकित्सा केन्द्र में जाने को तैयार हो गये।
मिस्टर फॉक्स को लिखे पत्रों में पिताजी ने बताया था कि इस इलाज से उन्हें
काफी फायदा हुआ था, और उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा था कि मानो अब सभी
बीमारियों का इलाज मिल गया, लेकिन बाद में वही हुआ कि इलाज के दूसरे तौर
तरीकों की तरह यह भी बेअसर साबित होने लगा। जो भी हो यह तरीका उन्हें इतना
पसन्द आया कि घर आकर अपने लिए डूश बाथ का इंतज़ाम कर लिया और हमारा खानसामा
उन्हें नहलाने का काम भी सीख गया।
मूर पार्क में एल्डरशॉट के पास डॉक्टर लेन के जल चिकित्सा केन्द्र में वे
बार बार जाने लगे थे, वहाँ से लौटने के बाद उनका चित्त प्रसन्न हो जाता था।
उन्होंने अपने बारे में जो कुछ बताया है उसके आधार पर यह अंदाज़ लगाया जा
सकता है कि परिवार और दोस्तों के साथ उनके सम्बन्ध किस प्रकार थे, हालांकि
इन सम्बन्धों का पूरी तरह से वर्णन कर पाना नामुमकिन सा है, लेकिन मोटे तौर
पर अंदाज़ लगा पाना मुश्किल नहीं है। उनके वैवाहिक जीवन के बारे में, मैं
ज्यादा कुछ नहीं जानता। हाँ, इतना ज़रूर है कि माँ के साथ उनका रिश्ता और
लगाव बहुत गहरा था। उनके प्रति वे बहुत ही प्रेमपूर्ण व्यवहार रखते थे।
उनकी मौजूदगी में पिताजी को सबसे ज्यादा खुशी होती थी। यदि उनका साथ न होता
तो शायद पिताजी का जीवन बहुत ही ग़मगीन होता। उनके जीवन में संतोष और खुशी
का दरिया मेरी माँ ने ही प्रवाहित किया था।
उनकी पुस्तक द एक्सप्रेशन ऑफ द इमोशन्स से ज्ञात होता है कि वे बच्चों की
हरकतों को कितना बारीकी से देखते थे। यह उनका जन्मजात गुण था (मैंने उन्हें
कहते सुना था)। हालांकि वे रोते चिल्लाते बच्चों के हाव भाव को बारीकी से
देखने को आतुर रहते थे, लेकिन उसके दुख के प्रति उनकी संवेदना के चलते यह
आतुरता धरी रह जाती थी। अपनी एक नोट बुक में उन्होंने अपने छोटे बच्चों की
बातों को लिख रखा था, जिससे आप समझ सकते हैं कि वे बच्चों के बीच रहकर
कितनी खुशी महसूस करते थे। कभी कभी ऐसा लगता है कि उन सभी घटनाओं की याद
करके वे एक तरह से दुखी भी होते थे, क्योंकि बचपन दूर जा चुका है। उन्होंने
अपने री कलेक्शन्स में लिखा है : `जब तुम बहुत छोटे थे तो तुम्हारे साथ
खेलकर मैं भी आनन्द मग्न हो जाता था, उन दिनों की याद बड़ी ही दुखद है
क्योंकि वे बीते दिन कब आने वाले!'
छोटी बिटिया एनी की असमय ही मृत्यु के कुछ दिन बाद उन्होंने जो वाक्य लिखे,
वे उनके मन की सुकोमलता को बताते हैं-
`हमारी बेचारी बिटिया एनी 2 मार्च 1841 को गॉवर स्ट्रीट में पैदा हुई थी और
23 अप्रैल 1851 की दोपहर को मेलवर्न में हमसे सदा के लिए बिछुड़ गई।
`मैं उसकी याद में ये चन्द पेज लिख रहा हूँ, क्योंकि मैं समझता हूँ कि अपने
वाले समय में, यदि हम जिन्दा रहे, तो लिखी हुई ये सभी घटनाएँ उसकी याद को
और भी गहराई से हमारे सामने लाएँगी। मैं जिस तरह से भी उसके बारे में सोचूं
हमारे बीच से उसके चले जाने के बावजूद उसकी जो शरारतें आज भी हमारे सामने
कौंध जाती हैं वे उसकी किलकारियाँ। इसके अलावा उसकी खासियत में पहली तो थी
उसकी संवेदनशीलता जो कि अजनबी लोगों के ध्यान में नहीं आती थी और दूसरे
उसका गहरा प्रेम। उसके चेहरे से ही पता चल जाता था कि वह कितनी प्रसन्न और
अबोध है, उसके लिए एक एक पल असीम शक्ति और जीवंतता से भरा हुआ था। उसे गोद
में उठाकर घूमना भी बहुत खुशी प्रदान करता था। आज भी उसका प्यारा चेहरा
मेरी आँखों के आगे तैर उठता है। कई बार वह मेरे लिए नौसादर की चुटकी लाती
थी, और उस समय मुझे खुश देखकर स्वयं भी पुलक उठती थी। उसका वह पुलकित
मुखड़ा अब भी मेरे सामने दिखाई देता है। जब वह अपने चचेरे भाई-बहनों के साथ
खेल रही होती थी, तो मेरी आँखों के इशारे मात्र से उसके चेहरे के हाव-भाव
बदल जाते थे, हालाँकि मैं कभी भी अप्रसन्नता भरी नज़र से उसे नहीं देखता
था, तो भी उसकी चंचलता को एक विराम-सा लग जाता था।
उसकी दूसरी खासियत यह थी कि उसमें बड़ा ही गहरा स्नेह था जो कि उसकी
प्रसन्नता और किलकारियों को और भी भावपूर्ण बना देता था। जब वह छोटी-सी थी
तो भी यह बात दिखाई देती थी। अपनी माँ को छुए बिना तो जैसे उसे चैन ही नहीं
आता था, खासकर जब वह बिस्तर में लेटी होती थी, मैं देखता था कि बहुत बहुत
देर तक अपनी माँ के बाजुओं को सहलाती रहती थी। वह जब कभी बहुत बीमार पड़ती
तो उसकी माँ भी उसके साथ लेटकर उसे दुलराती रहती थी, यह सब दूसरे बच्चों से
बिल्कुल अलग होता था। इस तरह वह आधे आधे घंटे तक खड़ी मेरे बालों को
संवारती रहती थी, वह कहती थी `बाल' ठीक कर रही हूँ। फिर बोलती बहुत सुन्दर
या फिर मेरी प्यारी बच्ची मेरे कॉलर और कफ के साथ खेलती रहती थी।
उसकी इन किलकारियों के अलावा भी उसका व्यवहार बहुत ही प्रेमपूर्ण, निश्छल,
सहज, सरल था। उसमें जरा भी दुराव छिपाव नहीं था। उसका मन अबोध और निर्लिप्त
था। उसे देखते ही कोई भी उस पर भरोसा कर सकता था। मैं हमेशा यही सोचता था
कि इस बुढ़ापे में भी हमारी आत्मा उसी तरह बनी रहती जिस पर इस संसार चक्र
का कोई असर किसी भी दशा में न पड़ता। उसके सभी काम ऊर्जा से भरे, सक्रिय और
सलीकेदार होते थे। मैं सैन्डवाक पर काफी तेज़ चलता था, लेकिन जब कभी वह
मेरे साथ होती थी तो मेरे आगे आगे ही अपनी पैरों के पंजों पर फुदकती चलती
तो बड़ा ही मनोहर लगता था, और इस सारे समय उसके चेहरे की आभा और मधुर
मुस्कान आज भी आँखों के आगे तैर जाती है। मेरे सामने वह जिस तरह से नखरे
करती थी, उसकी याद भी मुझे भाव विभोर कर देती है। कई बार वह बातें बढ़ा
चढ़ाकर पेश करती थी, और जब मैं उसी की भाषा का प्रयोग करते हुए उससे कुछ
पूछता तो अपने सिर को हल्का सा झटका देकर कहती,`ओह! पापा! आपको इतना भी
नहीं मालूम!' अपनी बीमारी के छोटे से दौर में उसके मुखड़े पर बहुत ही
ज्यादा सहजता और दैवतुल्य भाव दिखाई देते थे। उसने कभी कोई शिकायत नहीं की,
कभी भी अधीर नहीं हुई, हमेशा दूसरों का ख्याल रखती थी और उसके लिए जो कोई
भी जो कुछ भी करता था, तो वह बड़े ही सभ्य और करुणामय ढंग से अपना आभार
प्रकट करती थी। जब वह बहुत थक गई और बोलने में तकलीफ होने लगी तो भी उसका
लहजा नहीं बदला। जब भी उसे कोई चीज दी जाती थी तो वह आभार जरूर प्रकट करती
जैसे,`वह चाय तो बहुत अच्छी थी।' जब मैं उसे पानी पिलाता थे वह बोल उठती,
इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद, और मुझे लगता है कि यही उसके वे बेशकीमती बोल
थे, जो उसके होंठो से निकल कर मेरे कानों में शहद घोल जाते थे।
पिताजी ने उसके बारे में लिखा था,`हमारे पूरे परिवार की रौनक चली गई, हमारे
बुढ़ापे की चश्मे चिराग थी वो, उसे भी मालूम होगा कि हम उसे कितना प्यार
करते थे। काश वह जान पाती कि हम कितनी गहराई और नज़ाकत से उसे प्यार करते
थे। उसका प्यारा मुखड़ा आज और हमेशा हमारी आँखों के आगे घूमता रहेगा। उसे
बहुत बहुत दुआएँ!'
`अप्रैल 30, 1851'
बचपन में हम सभी उनके साथ खेलने का आनन्द उठाते थे। वे जो कहानियाँ सुनाते
थे इतनी अनूठी होती थीं कि हमें अपने साथ बाँध कर रख लेती थीं।
उन्होंने हमारा लालन पालन किस तरह किया, वह इस घटना से स्पष्ट हो जाएगा। यह
घटना मेरे भाई लियोनार्ड के बारे में है। पिताजी हमें यह घटना अक्सर सुनाते
रहते थे। वे बैठक में आए और देखा कि लियोनार्ड सोफे के किनारे पर खड़ा नाच
रहा था, इससे तो सारी कमानियाँ खराब हो जाएँगी, पिताजी बोले,`अरे लेनि! यह
ठीक नहीं है,' इस पर लियोनार्ड जवाब देता तो फिर ठीक है कि आप कमरे से बाहर
चले जाइए। लेकिन पिताजी ने आजीवन किसी भी बच्चे पर गुस्सा नहीं किया, फिर
भी कोई बच्चा ऐसा नहीं तो जो उनकी अवज्ञा करता था। मुझे अच्छी तरह से याद
है कि जब एक बार मेरी लापरवाही के लिए पिताजी ने मुझे झिड़क दिया था, मुझे
अभी भी वह घड़ी याद है कि किस प्रकार मैं उदास हो गया था, लेकिन पिताजी ने
मुझे ज्यादा देर तक उदास नहीं रहने दिया। जल्द ही इतनी दयालुता से उन्होंने
मुझसे बात की, कि मेरी सारी उदासी दूर हो गई। हमारे प्रति उनकी
प्रसन्नतापूर्ण, प्रेमपूर्ण भावना सदा सर्वदा बनी रही। कई बार मुझे हैरानगी
होती है कि वे ऐसा किस तरह से कर पाते थे, क्योंकि हम लोग तो उनके मुकाबले
कुछ भी नहीं थे, लेकिन मुझे इतना तो पता ही है कि उन्हें यह मालूम था कि
उनके प्रेमपूर्ण वचनों और व्यवहार से हम सब कितना खुश होते थे। वे अपने
बच्चों के साथ हँसते थे, और अपने ऊपर भी हँसने देते थे। कुल मिलाकर कहा जा
सकता है कि हमारे बीच के सम्बन्ध काफी संतुलित थे।
वे हरेक की योजनाओं या सफलताओं में हमेशा रुचि लेते थे। हम उनके साथ ठिठोली
करते थे, और कहते थे कि उन्हें अपने बेटों पर भरोसा नहीं है। मिसाल के तौर
पर, वे अपने बेटों की इस बात पर जल्दी यकीन नहीं करते थे कि हम लोगों ने
कुछ काम किया है, क्योंकि वे यह नहीं मानते थे कि हम सब पूरी तरह समझदार हो
चुके हैं। दूसरी तरफ यह भी रहता था कि वे हमारे काम को देखकर काफी तरफदारी
भी करते थे। जब मैं यह सोचता था कि किसी भी काम को लेकर उन्होंने काफी ऊँची
कसौटियाँ बना रखी हैं, तो इस समय वे काफी रुष्टता दिखाते और झूठे क्रोध से
भर जाते थे। उनके संदेह भी उनके चरित्र के अभिन्न अंग थे। जिस किसी भी चीज़
को स्वयं से जोड़कर देखते तो उस काम के प्रति उनका नज़रिया बहुत ही अनुकूल
रहता था, और इसीलिए वे हरेक के प्रति उदार रहते थे।
वे अपने बच्चों के प्रति भी आभार प्रकट करना नहीं भूलते थे, इसके लिए उनका
अपना ही तरीका था। मुझे याद नहीं आता कि मैंने उनके लिए कोई खत लिखा हो या
कोई किताब पढ़कर सुनायी हो और उन्होंने आभार न प्रकट किया हो। अपने छोटे
पौत्र बर्नार्ड पर तो वे जान छिड़कते थे। वे कई बार बताते थे कि लंच करते
समय ठीक सामने अगर बर्नार्ड बैठा होता था, तो उन्हें बेहद खुशी होती थी।
उनकी और बर्नार्ड की पसन्द भी एक जैसी ही थी। स्वाद को ही लें तो दोनों ही
सफेद शक्कर के बजाय भूरी शक्कर पसंद करते थे, और नतीजा होता, `हमारी पसंद
एक है न!'
मेरी बहन लिखती है :
`हमारे साथ खेलकर पिताजी कितना खुश होते थे, यह मुझे अच्छी तरह से याद है।
वह अपने बच्चों के साथ बहुत गहराई तक जुड़े हुए थे, लेकिन ऐसा भी नहीं है
कि वे संतानों के प्रति अंध प्रेम रखते थे। हम सभी के लिए वे बहुत अच्छे
दोस्त थे, बहुत ही श्रेष्ठ, संवेदनशील व्यक्ति थे। हालांकि इस बात को बता
पाना पूरी तरह से नामुमकिन है कि वे अपने परिवार के प्रति कितना प्रेमपूर्ण
व्यवहार रखते थे। जब हम बच्चे थे तब भी और जब हम बड़े हो गए तब भी।'
हमारे बीच प्रगाढ़ता और खेल के दौरान वे कितने अच्छे साथी थे। इन दोनों
बातों का प्रमाण इससे मिल जाएगा कि एक बार उनके चार वर्षीय बेटे ने उन्हें
सिक्स पेन्स (जैसे भारत में पहले इकन्नी चलती थी उसी प्रकार इंग्लैंड का एक
सिक्का) का लालच दिया और कहा कि चलो काम के समय भी खेलें।
वे अपने आप में बहुत ही सहनशील और प्रसन्नवदन नर्स भी थे। मुझे याद है कि
जब भी मैं बीमार होता था तो मैं उनके साथ स्टडी सोफे पर बैठा हुआ महसूस
करता मानों मैं शांति और आराम के सागर में बैठा हूं। इस दौरान मैं दीवार पर
टंगे भूगर्भीय नक्शे पर आँखें गड़ाए रखता था। शायद उनके काम करने का समय
होता था क्योंकि वे हमेशा घोड़े के बाल से बनी कुर्सी पर अलाव के पास बैठे
रहते थे।
उनमें कितना धैर्य था, इसका पता इस बात से भी चल जाएगा कि जब कभी भी हमें
बैंड एड टेप, गोंद, धागे, पिन, कैंची, डाक टिकटों, फुट पट्टी या हथौड़ी की
ज़रूरत होती तो उनके अध्ययनकक्ष में दनदनाते हुए चले जाते थे। ये सब चीज़ें
और ऐसी ही कई दूसरी ज़रूरी चीज़ें जो कहीं और नहीं मिलती थीं, उनके पास
शर्तिया मिलती थीं। वैसे तो उनके काम के समय में हमें वहाँ जाना गलत लगता
था, लेकिन जब बहुत ज़रूरी हो जाता था तो हम जाते ही थे। मुझे अच्छी तरह से
याद है कि उनके चेहरे पर कितना धैर्य था जब उन्होंने मुझसे यह कहा
था,`तुम्हें क्या लगता है कि तुम बाद में नहीं आ सकते थे, मुझे बहुत
परेशानी होती है।' जब कभी भी हमें स्टिकिंग प्लास्टर की ज़रूरत होती थी तो
उनके कमरे में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, क्योंकि उन्हें यह
बिल्कुल पसन्द नहीं था कि हम अपने हाथ-पैर काटते रहें। यहीं तक होता तो चल
जाता लेकिन खून देखकर उनके जो संवेदनशील भाव जाग उठते थे, हम उससे भी बचना
चाहते थे। मैं हमेशा ध्यान रखता था कि वे पर्याप्त दूरी पर चले गए हों और
तभी मौका पाकर प्लास्टर ले उड़ता था।
`मैं अतीत में झांक कर देखूं तो जीवन के उन शुरुआती दिनों में काफी नियम
कायदे थे, और सिवाय कुछ रिश्तेदारों (और कुछेक ज़िगरी दोस्तों) के अलावा,
हमारे घर में कोई और नहीं आता था। दिन की पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद हम
जहाँ चाहें वहाँ जाने के लिए आज़ाद थे, और हमारे जाने की जगह खास तौर पर
दीवानखाना या बगीचा होता था, और इस तरह से हम लोग हमेशा अपने माता-पिता के
साये में ही रहे। हमें उस समय बहुत ही खुशी होती थी, जब वे बीगेल की
कहानियाँ या श्रूजबेरी में बीते बचपन की घटनाएँ - कुछ स्कूली जीवन और कुछ
अपनी शरारतों के बारे में बताते थे।'
वे हमारी रुचियों और इच्छाओं का बहुत ख्याल रखते थे और उन्होंने हमारे साथ
जीवन जिस ढंग से बिताया वैसा तो बहुत कम ही लोग कर पाते हैं। लेकिन एक बात
तो तय है कि इस प्रगाढ़ता में भी हमें कभी भी यह नहीं लगता था कि हम दूसरों
की इज़्ज़त करने और उनका हुक्म मानने में कोई आनाकानी करें या कमी आने दें।
वे जो कुछ भी कहते थे वह हमारे लिए पत्थर की लकीर होता था। हमारे किसी भी
सवाल का जवाब देने में वे अपना पूरा दिलो-दिमाग़ लगा देते थे। ऐसा ही
रोमांचक वाकया मुझे याद आता है, जो मुझे यह एहसास दिलाता है कि हम जिस चीज़
की फिक्र करते थे, उसकी उन्हें भी उतनी ही फिक्र रहती थी। वे बिल्लियों में
बहुत रुचि नहीं लेते थे, लेकिन मेरी बहुत-सी बिल्लियों की खासियत उन्हें
मालूम थी, और कुछेक की आदतों और खासियतों का बखान तो उन्होंने तब भी किया
जबकि उन बिल्लियों को मरे हुए कई साल हो चुके थे।
`अपनी संतानों के साथ वे जिस तरह से पेश आते थे, उसकी एक और खासियत यह भी
थी कि वे अपने बच्चों की आज़ादी और व्यक्तित्व के बारे में ऊँचे विचार रखते
थे। यहाँ तक कि छोटी लड़की के रूप में जो आज़ादी मुझे मिली थी उसकी याद भी
मुझे खुशी से भर देती है। हमारे माता-पिता को यह जानने या सोचने की ज़रूरत
नहीं रहती थी कि हम लोग क्या करते हैं, जब तक कि हम खुद ही न बताएँ। वे
हमें हमेशा यह याद दिलाते रहते थे कि हम भी ऐसे प्राणी हैं जिनके विचार और
ख्यालात उनके लिए बहुत खास हैं। इसलिए हमारे भीतर के सभी गुण उनकी मौज़ूदगी
में और भी निखर उठे।
`हमारे सद्गुणों के बारे में जो उन्हें अतिशय विश्वास था, हमारे बौद्धिक या
नैतिक गुणों पर उन्हें जो गर्व था, उससे हम लोग बिगड़ैल या घमण्डी नहीं बने
बल्कि और भी विनम्र और उनके प्रति शुक्रगुजार ही रहे। इसके पीछे नि:सन्देह
यही कारण था कि उनके चरित्र, उनकी सदाशयता और उनकी अन्तरात्मा की महानता ही
तो थी, जिसका अमिट प्रभाव हम पर पड़ा था। यह प्रभाव उनके द्वारा हमारी
प्रशंसा या उत्साहवर्धन से कहीं ज्यादा हमारे भविष्य का नियन्ता बन गया।
परिवार के मुखिया के रूप में उन्हें बहुत स्नेह और इज़्ज़त मिली हुई थी। वे
नौकरों से बहुत ही नरमी से पेश आते थे। नौकरों से कुछ भी माँगने से पहले वे
यह ज़रूर कहते थे, `देखो, तुम मेरी मदद करो---' अपने नौकरों पर उन्होंने
शायद ही कभी गुस्सा किया हो। मुझे याद है कि कभी बचपन में एक बार उन्हें
किसी नौकर को डाँटते सुना था, मैं सारे माहौल से इतना घबरा गया था कि डर के
मारे छत पर भाग गया। वे बगीचे, गायों आदि की रखवाली के पचड़े में नहीं
पड़ते थे। वे घोड़ों पर थोड़ी बहुत चिन्ता जाहिर करते थे, कभी कभी बड़े ही
संदेह में पड़ कर पूछते कि वे घोड़ागाड़ी चाहते हैं, ताकि सनड्यू के लिए
केस्टन को भेजें या फिर पौधे मंगवाने के लिए वेस्टरहेम नर्सरी भेजें, या
ऐसा ही कोई काम करायें।
एक मेज़बान के रूप में मेरे पिता में एक खास तरह का आकर्षण था; मेहमानों की
मौज़ूदगी उन्हें उत्तेजना से भर देती थी और वे अपने सर्वोत्तम रूप में
सामने आने को लालायित हो उठते थे। श्रूजबेरी में वे कहा करते थे कि ये उनके
पिता की इच्छा थी कि मेहमाननवाजी लगातार करते रहना चाहिये। मिस्टर फॉक्स को
लिखे एक पत्र में उन्होंने इस बात के लिए खेद व्यक्त किया था कि घर
मेहमानों से भरा होने के कारण वे खत नहीं लिख पा रहे हैं। मेरा ख्याल है कि
वे इस बात से हमेशा बेचैनी महसूस किया करते थे कि वे अपने मेहमानों की
आवभगत के लिए ज्यादा सब कुछ नहीं कर पा रहे हैं, लेकिन नतीजे अच्छे ही रहते
और इसमें कोई कमी रह भी जाती तो उसे इस तरीके से पूरा कर लिया जाता कि
मेहमान इस बात के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र थे कि वे जो चाहें, करें। अमूमन
सबसे ज्यादा आने वाले मेहमान वे ही लोग होते तो शनिवार को आते और सोमवार को
लौट जाते। जो लोग इससे ज्यादा अरसे तक टिके रहते, आम तौर पर रिश्तेदार
वगैरह होते और उनकी जिम्मेवारी पिता की तुलना में मां की ज्यादा रहती।
इन मेहमानों के अलावा कुछ विदेशी लोग होते। कुछ अजनबी लोग भी आते। ये लोग
लंच के लिए आते और दोपहर ढलने पर लौट जाते। पिता जी उन लोगों को लंदन से
डाउन के बीच की लम्बी दूरी के बारे में बताने के लिए खासी मेहनत करते और
बताते कि ये सफर कितनी मुश्किलों से भरा हुआ है। वे सहज ही ये मान कर चलते
कि इस सफर में जितनी तकलीफ खुद उन्हें होती है, उतनी ही मेहमानों को भी
होगी। फिर भी, अगर वे आने से अपने आपको आने से रोक नहीं पाते तो पिता जी
उनकी यात्रा का इंतज़ाम करते। वे उन्हें बताते कि कब आयें, और ये बताने से
भी न चूकते कि वापिस कब जायें। उन्हें अपने मेहमानों से हाथ मिलाते देखना
एक शानदार नज़ारा होता था। जब वे किसी से पहली बार मिल रहे होते तो उनका
हाथ इतनी तेजी से आगे आता मानो मेहमान से मिलने के लिए वे कितने उतावले थे।
पुराने यार दोस्तों से हाथ मिलाते समय उनका हाथ पूरी हार्दिकता से लहराता
हुआ आता और ये देख कर दिल जुड़ा जाता। हॉल के दरवाजे पर खड़े हो कर जब वे
किसी को विदाई देते तो इसमें खुशी की खास बात ये रहती कि वे मेहमानों के
प्रति इस बात के शुक्रगुज़ार होते कि उन्होंने मिलने के लिए वक्त निकाला और
आने के लिए जहमत उठायी।
ये लंच पार्टियां मौज मजे के मौके जुटाने में बहुत सफल रहतीं। न किसी की
टांग खिंचाई होती और न ही किसी को नीचा ही दिखाया जाता। पिताजी शुरू से
आखिर तक उत्तेजना से भरे चहकते रहते। प्रोफेसर दे कांडोल ने मेरे पिता का
एक सराहनीय और सहानुभूतिपूर्ण खाका खींचते हुए डाउन में अपनी एक विजिट के
बारे में बताया था। वे लिखते हैं कि पिता का तौर तरीका वैसा ही था जैसा कि
ऑक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज में किसी स्कालर का होता है। मुझे तो ये तुलना बहुत
अच्छी नहीं लगी। जब पिताजी सहज होते और अपनी प्राकृतिक अवस्था में होते तो
उनकी तुलना किसी फौजी से की जा सकती थी। उस समय वे किसी भी आडम्बर और
दिखावे से परे होते थे। उनकी इस आडम्बरहीनता, स्वाभाविकता और सादगी का ही
कमाल था कि वे अपने मेहमानों के साथ बातचीत को उन्हीं विषयों पर ले आते जिन
पर वे लोग बात करना चाहते हों, और ये बात पिताजी को किसी अजनबी के सामने भी
एक शानदार मेजबान के रूप में पेश करती थी। वे जिस कुशलता से बातचीत का
बेहतरीन विषय चुनते, वह उनके व्यक्तित्व के सहानुभूतिपूर्ण रवैये और
विनम्रता से आता था और उसमें ये तथ्य छुपा रहता कि वे दूसरों के कामों में
कितनी दिलचस्पी लेते हैं।
मेरा ख्याल है कि कुछेक लोगों को वे अपनी विनम्रता से हैरान परेशान भी कर
बैठते थे। मुझे स्वर्गीय फ्रांसिस बेलफार का किस्सा याद है जब उन्हें एक
ऐसे विषय पर अपना ज्ञान बघारने वाली स्थिति में आ जाना पड़ा जिसके बारे में
पिताजी का हाथ बिलकुल तंग था।
मेरे पिताजी की बातचीत की विशेषताओं पर उंगली रख कर बताना निहायत ही
मुश्किल काम है।
उन्हें इस बात से खासी कोफ्त होती थी कि लोग बाग उनके किस्से दोहरायें। वे
अक्सर कह बैठते, `आपने मुझे ये कहते सुना ही होगा', या `मुझे लगता है, मैं
आपको बता चुका हूं।' उनकी एक खास आदत थी जिससे वे अपनी बातचीत में एक रोचक
प्रभाव ले आते। वे अपना वाक्य बोलना शुरू ही करते कि पहले ही कुछ शब्दों से
उन्हें उस बात के पक्ष में या विपक्ष में कुछ और याद आ जाता और जो वे कहने
जा रहे होते और इससे वे भटक कर किसी और मुद्दे पर जा पहुंचते और बात कहां
की कहां जा पहुंचती। एक उप वाक्य से दूसरा उप वाक्य निकलता जाता और जब तक
वे अपना वाक्य खतम कर देते, बातचीत का सिर पैर समझ में न आता कि वे कह ही
क्या रहे थे। वे अपने बारे में कहा करते कि किसी के साथ तर्क को आगे बढ़ाने
में वे तेजी नहीं दिखा पाते। मेरा ख्याल है, इस बात में सच्चाई भी थी। जब
तक बातचीत का विषय वही न होता जिस पर वे उन दिनों काम कर रहे होते तो वे
अपने विचारों को तरतीब देने में मुश्किल महसूस करते। ये बात उनके खतों में
भी देखी जा सकती है। उन्होंने प्रोफेसर सेम्पर को एकांतवास के प्रभाव के
बारे में दो खत लिखे थे और उनमें वे अपने विचारों को तरतीब नहीं दे पाये
थे। ये कुछ दिन बाद तभी हो पाया था जब पहला खत भेजा जा चुका था।
जब बातचीत करते हुए वे अपने शब्दों में ही फंस जाते तो उनकी एक खास आदत
सामने आती थी। वे वाक्य के पहले शब्द पर हकलाने लगते। और मुझे याद आता है
कि इस तरह का हकलाना सिर्फ एक ही अक्षर डब्ल्यू के साथ होता था। ऐसा लगता
है कि इस अक्षर के साथ उन्हें खासी मशक्कत करनी पड़ती थी। इसके पीछे
उन्होंने ये कारण बताया था कि बचपन में वे डब्ल्यू का उच्चारण नहीं कर पाते
थे और एक बार तो उन्हें छ: पेंस के सिक्के का लालच भी दिया गया कि व्हाइट
वाइन शब्द का उच्चारण करके दिखायें। वे इन्हें राइट राइन ही कहते रहे थे।
शायद ये उच्चारण दोष उन्हें इरास्मस डार्विन से विरासत में मिला हो। वे भी
हकलाया करते थे।
वे कई बार भाषा संबधी अन्य भूलें भी कर बैठते और तुलनात्मक वाक्यों में कुछ
नये ही गुल खिला देते। वे दरअसल जिस बात पर जोर देना चाहते, उसके चक्कर में
गलत वाक्य विन्यास कर बैठते। वे कई बार ऐसी जगह बात को बढ़ा चढ़ा कर कह
देते जहां जरूरत न होती। लेकिन इससे एक बात तो होती ही कि उनकी उदारता और
गहरी प्रतिबद्धता के ही दर्शन होते। एकाध बार ऐसा भी हुआ कि वे बात करते
हुए गुस्से में आ गये और अपनी बात कह नहीं पाये। वे जानते थे कि गुस्सा
विवेक का दुश्मन होता है और वे चाह कर भी ऐसे मामले में कुछ नहीं कर पाते
थे।
वे बातचीत में अत्यधिक विनम्र बने रहते। इसका सबूत मैं यही दे सकता हूं कि
एक बार रविवार की दोपहर उनसे मिलने सर जॉन लब्बाक्स के उनके कई मेहमान आये।
कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि वे भाषणबाजी में या उपदेश देने जैसी मुद्रा में
आयें हों, हालांकि उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ था। जब वे किसी से
छ़ेड़खानी करते और वह भी मजे लेने के लिए तो वे बहुत भले लगते। ऐसे वक्त
में वे बेहद हल्के फुल्के स्वभाव वाले और बच्चों जैसे हो जाते और तब उनकी
प्रकृति की बारीकी बहुत मुखर हो उठती। इसलिए ऐसा भी होता कि जब वे किसी ऐसी
महिला से बात कर रहे होते जिसने उन्हें खुश और मुदित किया हो तो वे उस पर
सौ जान न्यौछावर हो जाते और उसके प्रति सम्मान और चुटकी लेने की उनकी भावना
देखते ही बनती। उनके व्यक्तित्व में एक निजी किस्म का आत्म सम्मान था जो
बहुत अधिक परिचित मुलाकातों में भी डिगता नहीं था। सामने वाले को यही लगता
कि कम से कम इस व्यक्ति के साथ तो छूट नहीं ही ली जा सकती है। और न ही मुझे
ऐसा कोई वाक्या याद ही आता है कि किसी ने इस तरह की छूट लेने की कोशिश की
हो।
जब मेरे पिता से मिलने कई मेहमान एक साथ आ जाते तो वे बहुत ही बढ़िया ढंग
से उनसे निपटते। सबसे अलग अलग बात करते या फिर दो तीन मेहमानों को अपनी
कुर्सी के आस पास बिठा लेते। इस तरह की बातचीत में आमतौर पर मज़ाक चलता, वे
अपनी बात को किसी हंसी भरी बात की तरफ मोड़ देते या फिर खुलापन आ जाता
बातचीत में जिससे सबको अच्छा लगता। शायद मेरी स्मृति में हंसी मज़ाक वाले
मौके ज्यादा दर्ज हैं। उनकी सबसे अच्छी बातें मिस्टर हक्सले के साथ होती
थीं। उनमें गजब का हास्यबोध था। मेरे पिता को उनका ये हास्यबोध बहुत भाता
था और वे अक्सर कहते थे,`मिस्टर हक्सले भी क्या शानदार आदमी हैं।' मेरा
ख्याल है, लायेल और सर जोसेफ हूकर के साथ उनकी बातचीत वैज्ञानिक तर्कों के
रूप में (एक तरह से झगड़े की तरह) ज्यादा होती थी।
वे कहा करते थे कि इस बात से उन्हें तकलीफ होती है कि जिंदगी के बाद के
हिस्से वाले दोस्तों के लिए वे अपने भीतर वह गर्मजोशी नहीं पाते जो
युवावस्था के दोस्तों के लिए हुआ करती थी। कैम्ब्रिज से हरबर्ट और फॉक्स को
लिखे गये उनके शुरुआती पत्र इस बात का पुख्ता प्रमाण हैं। लेकिन इस बात को
मेरे पिता के अलावा और कोई नहीं कहेगा कि अपने दोस्तों के प्रति उनका स्नेह
पूरी जिदंगी उसी तरह की गर्मजोशी वाला नहीं रहा। अपने किसी दोस्त के लिए
कुछ करते समय वे अपने आपको भी नहीं बक्शते थे और उसे अपना कीमती समय और
शक्ति सवेच्छा से दिया करते थे। इस बात में कोई शक नहीं कि वे किसी भी सीमा
तक जा कर अपने दोस्तों को अपने से बांधे रखने की ताकत रखते थे। उनकी कई
शानदार दोस्तियां थीं। लेकिन सर जोसेफ हूकर के साथ उनकी जो दांत काटी
दोस्ती थी, वैसी दोस्ती की मिसाल आम तौर पर पुरुषों में कम ही दिखायी देती
है। अपनी रीकलेक्शंस में उन्होंने लिखा है,`मैंने हूकर जैसे प्यारे शायद ही
किसी दूसरे इन्सान को जाना हो।'
गांव के लोगों के साथ उनका नाता खुश कर देने वाला था। वे जब भी उनके
सम्पर्क में आते तो वे उनके सुख दुख में बराबरी से शामिल होते और उनके जीवन
में दिलचस्पी लेते और सब के साथ एक जैसा व्यवहार करते। जब वे डाउन में बसने
के लिए आ गये तो कुछ ही अरसे बाद उन्होंने एक मैत्री क्लब स्थापित करने में
उनकी मदद की और तीस बरस तक उस क्लब के खजांची बने रहे। वे क्लब की
गतिविधियों में खूब रस लेते और बारीकी से और एक दम सही तरीके से उसका हिसाब
किताब रखते। क्लब को फलता फूलता देख उन्हें बहुत खुशी होती। हरेक छुट्टी
वाले सोमवार के दिन क्लब बैनर लगाये घर के सामने गाजे बाजे के साथ जुलूस की
शक्ल में निकलता और खूब रौनक रहती। वहां पर वे क्लब के लोगों से मिलते और
उन्हें क्लब की शानदार माली हालत के बारे में बताते। इस मौके के लिए पिता
जी खास कुछ घिसे पिटे लतीफों के साथ अपना भाषण देते। अक्सर ये होता कि वे
बीमार चल रहे होते और इतनी सी कवायद कर पाना भी उनके लिए भारी पड़ता। लेकिन
शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि वे उन लोगों से न मिले हों।
वे कोयला क्लब के भी खजांची थे। उन्हें वहां के लिए भी कुछ काम करना पड़ता।
वे कुछ बरस तक काउंटी मजिस्ट्रेट के पद पर भी काम करते रहे।
गांव की गतिविधियों में पिता जी की दिलचस्पी के बारे में मिस्टर ब्रॉडी
इन्स ने कृपापूर्वक मुझे अपनी स्मृति के खजाने में से ये घटना सुनायी है:
`जब मैं 1846 में डाउन का धर्मगुरू बना तो हम दोनों दोस्त बन गये और ये
दोस्ती उनकी मृत्यु तक चलती रही। मेरे और मेरे परिवार के प्रति उनका स्नेह
असीम था और बदले में हम भी उनके स्नेह का प्रतिदान करने की कोशिश करते थे।'
चर्च के सभी मामलों में वे हमेशा सक्रियतासे हिस्सा लेते। स्कूलों,
धर्मार्थ कामों और दूसरे कारोबारों में वे हमेशा दिल खोल का दान देते और
कभी कहीं कोई विवाद हो भी जाता, जैसा कि दूसरे गिरजाघरों में होता रहता था,
मुझे यकीन होता था कि वे अपना समर्थन किसे देंगे। वे इस बात के कायल थे कि
जहां सचमुच कोई महत्त्वपूर्ण आपत्ति न हो, वहां पर उनका समर्थन पादरी के
पक्ष में जाना चाहिये। वही व्यक्ति ऐसा होता है जो सारी स्थितियों को जानता
बूझता है और वही मुख्य रूप से जिम्मेवार भी होता है।'
अजनबी लोगों के साथ उनकी मुलाकात सजग और औपचारिक विनम्रता से पगी होती।
दरअसल सच तो ये था कि उन्हें अजनबियों के सम्पर्क में आने के मौके ही बहुत
कम मिलते और डाउन में जिस तरह के एकांत में वे जी रहे थे, वहां बड़े भीड़
भड़क्के वाले आयोजनों में वे अपने आपको भ्रम में पउा़ हुआ पाते। उदाहरण के
लिए रॉयल सोसाइटी के आयोजनों में वे अपने आपको संख्याओं में खोया हुआ महसूस
करते। बाद के बरसों में यह भावना कि उन्हें लोगों को जानना चाहिये और उस पर
तुर्रा यह कि वे नाम भूल जाते थे, इस तरह के मौकों पर उनकी मुश्किलें और
बढ़ा देते थे। वे इस बात को समझ नहीं पाते थे कि वे तो फोटो से ही पहचान
लिये जायेंगे, और मुझे एक किस्सा याद आता है कि क्रिस्टल पैलेस एक्वेरियम
में जब एक अजनबी ने उन्हें पहचान लिया तो वे खासे बेचैन हो उठे थे।
मैं यहां पर थोड़ा सा जिक्र इस बात का भी करना चाहूंगा कि वे अपना काम किस
तरह से करते थे। उनकी सबसे खास बात थी समय के लिए सम्मान। वे समय के मूल्य
को कभी भी नहीं भूलते थे। इस बात का अंदाजा इस तथ्य से ही लग जायेगा कि वे
किस तरह से अपनी छुट्टियों को कम करते जाते थे। और इस बात को ज्यादा साफ
तौर पर बताऊं तो वे अपनी कम अवधि की छुट्टियों को तो बिल्कुल खत्म ही कर
देते थे। वे अक्सर कहा करते थे कि समय की बचत करना, काम पूरा करने का एक
तरीका होता है। मिनट दर मिनट बचाने के प्रति अपने प्यार को वे चौथाई घंटे
और दस मिनट में किये गये काम के बीच के अंतर के जरिये बताते थे। वे कभी कुछ
पलों की भी बरबादी भी सहन नहीं कर पाते थे कि काम के समय समय बरबाद तो नहीं
ही करना है। मैं अक्सर इस बात को ले कर हैरान रह जाता था कि वे अपनी
सामर्थ्य की अंतिम बूंद तक काम करते रहते थे कि तभी अचानक यह कह कर
डिक्टेशन देना बंद कर देते थे कि मुझे लगता है कि बस हो गया, मुझे और नहीं
करना चाहिये। समय बरबाद न करने की यही उत्कट चाह तब भी सामने आती थी जब वे
काम करते समय चुस्ती से अपने हाथ पांव हिलाते। मैंने इस बात को खास तौर पर
उस वक्त नोट किया जब वे फलियों की जड़ों पर एक प्रयोग कर रहे थे जिसके लिए
बहुत सावधानी से काम करने की जरूरत थी, जड़ों के ऊपर कार्डों के छोटे छोटे
टुकड़े बांधने का काम बहुत सावधानी से और अनिवार्य रूप से धीरे धीरे किया
गया, लेकिन बीच के सभी हावभाव बहुत तेज थे। एक ताजी फली लेना, ये देखना कि
उसकी जड़ स्वस्थ है, उसे एक पिन पर उठाना और कार्क पर टिकाना, ये देखना कि
ये सीधी खड़ी है आदि। ये सारी प्रक्रियाएंं अपने आपको नियंत्रण में रखते
हुए उत्सुकता से पूरी की गयीं। वे सामने वाले को ये अहसास दिला देते थे कि
वे अपने काम में बहुत आनंद ले रहे हैं और कत्तई बोझ की तरह नहीं कर रहे
हैं। मेरी स्मृति में उनकी वह छवि भी अंकित है जब वे किसी और प्रयोग के
नतीजे दर्ज कर रहे थे और प्रत्येक जड़ को उत्सुकता से देख रहे थे और उतनी
ही तेजी से लिखते जा रहे थे। मुझे याद है, जब वे प्रयोग की वस्तु और अपने
नोट्स देख रहे थे तो उनका सिर तेजी से हिल रहा था।
वे किसी भी काम को दोबारा न होने दे कर अपना बहुत सासमय बचा लेते थे।
हालांकि वे अपने ऐसे प्रयोग भी धैर्यपूर्वक दोहराते रहते थे जहां कुछ भी
हासिल होने वाला नहीं होता था, लेकिन वे इस बात को भी सहन नहीं कर सकते थे
कि जो प्रयोग पूरी सावधानी बरतने के बावजूद पहली ही बार में कुछ नतीजे नहीं
दे सकता था, उसे दोहराने का मतलब नहीं लेकिन इससे उन्हें लगातार ये चितां
भी बनी रहती थी कि प्रयोग व्यर्थ नहीं जाने चाहिये। वे मानते थे कि प्रयोग
पवित्र होते हैं भले ही उनके नतेजे मामूली ही क्यों न हों। वे चाहते थे कि
प्रयोगों से जितना अधिक सीख सकें, सीखें ताकि उन्हें वे सिर्फ उसी बिन्दु
के आस पास चक्कर न काटते रहें जिसके लिए प्रयोग किया जा रहा था। एक साथ कई
चीजों को देखने की उनकी शक्ति गजब की थी। मुझे नहीं लगता कि वे शुरुआती या
रफ प्रेक्षणों की तरफ ध्यान देते रहे होंगे कि इन्हें मार्गदर्शक के रूप
में और दोहराने के लिए इस्तेमाल में लाया जाये। जो भी प्रयोग किया जाता था,
उसका कोई न कोई महत्त्व होता ही था और मुझे याद है, इस बारे में वे इस बात
की जरूरत पर बहुत बल देते थे कि किसी भी असफल प्रयोग के नोट्स रखे जायें और
इस नियम का वे कड़ाई से पालन करते थे।
अपने लेखन के साहित्यिक पक्ष में भी उन्हें समय बरबाद होने का यही हौवा
सताता रहता था और उस वक्त वे जो कुछ भी कर रहे होते थे, उसी उत्साह से उसे
निपटाते थे। इस बात ने उन्हें इतना सतर्क बना रखा था कि वे ऐसा लेखन करें
कि किसी को बिना वजह दोबारा न पढ़ना पड़े।
आगे
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