रणभूमि में भाषा
विभूति नारायण राय
दंगों
में कौन मरता है , कौन उन्हें शुरू करता है
साम्प्रदायिक दंगों के बारे में सोचते समय भारत में बहुसंख्यक समुदाय
तथ्यों को ओझल किये रहता है और उसका मन दो पूर्वाग्रहों में ग्रस्त रहाता
है. औसत हिन्दू यह मान कर चलता है कि दंगों की शुरूआत मुसलमान करतें हैं और
उनमें मरने वालों में ज्यादा हिन्दू होतें हैं.
दंगों की शुरूआत के बारे में बहस की गुंजायश है लेकिन मरने वालों की तादाद
के बारे में तो कतई नहीं. मरने वालों में न सिर्फ मुसलमानों की संख्या लगभग
हर दंगे में ज्यादा होती है , बल्कि आधे से ज्यादा दंगों में तो यह संख्या
90 प्रतिशत से भी अधिक होती है. दंगों की शुरूआत वाले मुद्दे पर बात करने
के पहले हम मरने वालों की संख्या की पडताल करेंगे.
1960 के बाद हमारे देश में जो साम्प्रदायिक दंगे हुयें हैं, उनका चरित्र
सन् 47 के आसपास हुए विभाजन से सम्बन्धित दंगों के चरित्र से भिन्न हैं.
1960 तक विभाजन से उत्पन्न कारण लगभग समाप्त हो चुके थे और तत्कालीन पूर्वी
पाकिस्तान से भागकर आने वाले हिन्दुओं के मुंह से सुनी हुई ज्यादतियों की
प्रतिक्रियामें होने वाले कुछ दंगों को छोड दें तो लगभग अधिकतर दंगों के
कारण विभाजन की स्मृति से एकदम परे हटकर थे. ये विभाजन के फौरन बाद क्षीण
हुये मुस्लिम और हिन्दू साम्प्रदायिक संगठनों के पुनर्संगठित होने और
राजनीतिक हितों के लिये दंगे कराने की बढती प्रवृत्ति के कारण ही हुये.
सरकारी आंकडों से यह प्रकट होता है कि सभी दंगों में मारे गये लोगों में
तीन चौथाई मुसलमान होतें हैं, नष्ट हुयी सम्पत्तॢ में भी लगभग 75 प्रतिशत
मुसलमानों की होती है. यही नहीं, दंगों के लिये गिरफ्तार किये जाने वाले
लोगों में भी मुसलमानों की ही संख्या ज्यादा होती है - अविश्वसनीय हद तक
ज्यादा. आइए , हम बडे-बडे पांच-छः दंगों में मारे गए लोगों की संख्या की
पडताल करें.
1960 के बाद का सबसे बडा दंगा अहमदाबाद में हुआ. राज्य सरकार ने
न्यायमूर्ति जगमोहन रेड्डी के जाँच आयोग को अहमदाबाद के दंगों के बारे में
जो आंकडे दिये, उनके मुताबिक इस दंगे में 6742 मकान. दुकान जलाई गयीं.
इनमें सिर्फ 671 हिन्दुओं की थीं बाकी 6071 मुसलमानों की. नष्ट हुयी कुल
सम्पत्ति का मूल्य 42324068 रु. था, जिसमें हिन्दू सम्पत्ति 7585845 रु. की
थी तो मुस्लिम सम्पत्ति 34738224 रु. की. 512 मृतकों में 24 हिन्दू थे तो
413 मुसलमान . बाकी 75 की शिनाख्त नहीं हो सकी. इसके बाद का सबसे बडा दंगा
1970 में भिवंडी में हुआ. इसमें 78 लोग मारे गये.इनमें 17 हिन्दू थे तो 59
मुसलमान , बाकी दो की शिनाख्त नहीं हो सकी. भिवंडी दंगे की जांच के लिए
नियुक्त न्यायमूर्ति डी. वी. मेडन जांच आयोग के सामने जो बयान दिये गये,
उनसे यह प्रकट हुआ कि इस दंगे में 6 मुसलमान औरतों के साथ बलात्कार हुआ
जबकि एक भी हिन्दू औरत बलात्कार की शिकार नहीं हुयी. भिवंडी के दंगों के
परिणामस्वरूप हुये जलगांव के दंगे में 43 लोग मारे गये, जिनमें एक हिन्दू
था, बाकी के 42 मुसलमान. नष्ट हुयी कुल सम्पत्ति में 3390977 रु. मूल्य की
सम्पत्ति मुसलमानों की थी तो सिर्फ 83725 रु. मूल्य की हिन्दुओं की. 1967
में रांची-हटिया और नौशेरा में हुये दंगों में मृतकों की कुल संख्या 184
थी. जिनमें 164 मुसलमान थे तो 19 हिन्दू , एक की शिनाख्त नहीं हो सकी.
जिन दंगों का ऊपर जिक्र आया है , वे 1960 के बाद के भारत के भयंकरतम दंगों
में हैं. इसके अलावा जमशेदपुर, अलीगढ, वाराणसी और बंबई जैसे शहरों में भी
दंगे हुयें हैं.इन दंगों में भी कमोबेश उपर वाली स्थिति ही रही. शायद ही
कोई ऐसा दंगा हुआ होगा, जिसमें मरने वालों में 70 प्रतिशत से ज्यादा
मुसलमान न रहें हों. नष्ट हुयी सम्पत्ति में भी लगभग यही अनुपात रहा . सबसे
ज्यादा अजीब बात यह है कि लगभग हर दंगे में पुलिस के हाथों गिरफ्तार होने
वालों में भी मुसलमानों की ही संख्या अधिक रहती है. मुसलमानों के ही अधिक
घरों की तलाशियां भी होतीं हैं. पुलिस भी बहुसंख्यक समुदाय की तरह यह सोचती
है कि दंगों के लिये जिम्मेदार मुसलमान हैं, लिहाजा वह यह मानती प्रतीत
होती है कि दंगों पर तभी नियंत्रण पाया जा सकता है जब मुसलमानों के खिलाफ
सख्त कार्यवाही की जाय.
लेकिन इसके बावजूद बहुसंख्यक समुदाय की यह धारणा , कि दंगों में मरने वालों
में अधिकतर हिन्दू होतें हैं, इतनी गहरी है कि तमाम सरकारी आंकडों के
बावजूद औसत हिन्दू इस बात को नहीं मानेगा कि वास्तव में दंगों में हिन्दू
ज्यादा आक्रामक होतें हैं. इस न मानने की बात को अगर गहराई से देखा जाय तो
पता चलेगा कि इसके पीछे बचपन की धारणाएं काम करतीं हैं. बचपन से हर हिन्दू
घर में बच्चे को यह सिखाया जाता है कि मुसलमान क्रूर होतें हैं और वे किसी
की भी जान लेने में नहीं हिचकते. इसके विपरीत हिन्दू तो बडे क़ोमल हृदय का
होता है और उसके लिये चींटी की भी जान लेना मुश्किल होता है. अक्सर आपको यह
कहते हुये कोई हिन्दू मिलेगा कि अरे साहब ! हिन्दू घर में तो आपको सब्जी
काटने की छूरी के अलावा कोई हथियार नहीं मिलेगा. यह हिन्दू प्रकारान्तर से
यह मानता और कह रहा होता है कि आमतौर पर मुसलमान अपने घरों में हथियारों का
जखीरा रखतें हैं. यही वजह है कि औसत हिन्दू को दंगों मे मरने वालों के
सरकारी आंकडे भी अविश्वसनीय लगतें हैं ,जबकि कोई भी सरकार आंकडों को इस ढंग
से नहीं रखना चाहेगी, जिससे यह धारणा बने कि देश में अल्पसंख्यक असुरक्षित
है.
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