रणभूमि में भाषा
विभूति नारायण राय
रणभूमि में भाषा
कहावत है कि युद्ध रणभूमि से पहले दिमागों में लडा जाता है.भाष्यकार आसन्न
युद्ध की नैतिकता का बखान करतें हैं,राजनीतिज्ञ जनता को आश्वस्त करतें हैं
कि युद्ध देश के लिए आवश्यक है .कमान्डर सैनिकों को जान की बाजी लगाने के
लिए ललकारतें हैं.इन सबके लिए भाषा एक औजार की तरह है. दिलचस्प स्थिति है
कि भाषा फासिज्म के खिलाफ प्रतिरोध में मदद करती है और भाषा ही फासिस्टों
को वैधता भी प्रदान करती है .अयोध्या में भी एक युद्ध दशकों से लडा जा रहा
है. इस युद्ध में भाषा का दिलचस्प इस्तेमाल हो रहा है.
यह युद्ध 1949 से शुरू हुआ,जब अचानक रामलला जन्मस्थान चबूतरे पर प्रकट हो
गये- भये प्रकट कृपाला ....दीन दयाला....जन्मस्थान की जगह पहली बार
जन्मभूमि शब्द का इस्तेमाल हुआ.जिन्हें बावरी मस्जिद विवाद के इतिहास की
जानकारी है वे जानतें हैं कि मस्जिद के बाहर एक चबूतरा था जिसे जन्मस्थान
चबूतरा कहा जाता था. जन्मभूमि शब्द में ज्यादा व्याप्ति है , इसलिए
धीरे-धीरे जन्मस्थान जन्मभूमि हो गया.आज किसी को जन्म स्थान की याद नहीं
है.
जैसे-जैसे रामजन्मभूमि आंदोलन आक्रामक होता गया भाषा में बदलाव भी तेज
हुआ.हिन्दी भाषी हिन्दू समाज का कारसेवा से पहला साबका इसी आंदोलन के चलते
हुआ . दरअसल कारसेवा से देश का पहला बडा साक्षात्कार खालिस्तानी आंदोलन के
जरिए हुआ था. 300 वर्ष पहले जब खालसा पंथ का उदय हुआ उसने पहली बार
पश्चिमोत्तर प्रांतों में मेहनतकश मझोली जातियों का वर्चस्व स्थापित किया.
कारसेवा इन्हीं मझोली जातियों के शारीरिक श्रम के प्रति आस्था का नतीजा है
. शेष भारत ,विशेष रूप से हिन्दी भाषी समाज में जहाँ वर्ण व्यवस्था अपने
घृणित्तम रूप में मौजूद थी कारसेवा की कल्पना भी नामुमकिन थी.वर्ण व्यवस्था
की जकडबंदी ने शारीरिक श्रम को तुच्छ एवं हीन कर्म बना दिया था.हिन्दू
अकेली जीवन पद्धति है जहाँ भीख मांगना उत्तम माना गया है. 'बाभन को धन केवल
भिच्छा....' उस पर तुर्रा यह कि ब्राह्यण भीख लेकर अहसान भी करता था.
दुनियाँ में कहीं भी भीख को महिमामंडित नहीं किया गया है. भारत में भी
पिछडी ज़ाति का कवि घाघ ''भीख निदान'' कहता है पर ब्राह्यण नरोत्तमदास के
'बाभन को धन केवल भिच्छा ...' क़ो समाज के प्रभुवर्ग सर माथे पर बैठातें
हैं.ऐसे समाज में स्वाभाविक था कि कारसेवा जैसा शब्द प्रचलन में नहीं था.
गुरूद्वारों की तरह हिन्दू मंदिरों में भक्तों को सफाई करते देखना या
सामूहिक लंगरों में खाना बनाते ,परोसते और खाते देखना सम्भव नहीं है.
इसीलिए जब रामजन्मभूमि में कारसेवा हुई तो उसने समाज को जोडने का काम नहीं
किया .यह कारसेवा सिर्फ ध्वंस कर सकती थी और उसने वही किया. अगर कभी ऐसा
हुआ कि ध्वस्त मस्जिद की जगह किसी मंदिर का निर्माण हो तो आप वहां दिहाडी
पर काम करते हुए दलित ,पिछडे या गरीब अगडों को पायेंगे.आप यदि भरे पेट
ब्राह्यणों, बनियों या क्षत्रियों को कारसेवा करते हुए देखना चाहेंगे तो
निराशा ही हाथ लगेगी.
भाषा जब उत्तेजना पैदा करने के लिए इस्तेमाल की जाती है तब उसकी मारक
क्षमता जल्दी ही कुंद हो जाती है .कुछ-कुछ शोले फिल्म वाला मामला है.हिंसा
का एक खास स्तर दर्शकों को उत्तेजित करता है,हिस्टीरिक बना देता है पर
शीघ्र्र ही दर्शक बोर होने लगतें हैं.वे ,और हिंसा की मांग करने लगतें
हैं.वे अगली बार और हिंसा की मांग करतें हैं.हत्या से ज्यादा हत्या का
तरीका मजा देता है.हिंसा के शिकार की बोटी बोटी काट कर दर्शकों को हिंस्र
आनंद का स्वाद चखाया जाता है. अगली बार दर्शक इससे भी अधिक की मांग करतें
हैं .इसीलिए शोले फिल्म जरूर रिकॉर्डतोड चली पर उसके बाद हिंसा पर बनी
ज्यादातर फिल्में पिट गयीं.केवल उन्हीं फिल्मों को कामयाबी मिली जिन्होंने
हिंसा को शोले से आगे पहुँचाया .यही अयोध्या के मामले में भी हुआ .शुरूआती
दौर में कारसेवक शब्द ने जादू जैसा असर पैदा किया . मैं ऊपर निवेदन कर चुका
हूँ कि 1980.के दशक में सवर्ण हिन्दू परम्परा का अंग न होते हुए भी कारसेवा
शब्द ने वृहत् हिन्दू समाज की चेतना और कल्पना को पूरी तरह झकझोर दिया था
.उस समय पंजाब में एक दूसरा धर्मान्ध फासिस्ट आंदोलन चल रहा था
.खालिस्तानियों ने सिक्ख परम्परा से ढूंढ क़र घल्लू धारा,सरबत खालसा और
कारसेवा जैसे शब्दों के पुनर्पाठ शुरू कर दिए थे .इन शब्दों का दशकों बाद
इतना आक्रामक और निर्णायक उपयोग हो रहा था .हिन्दू आतंकवादियों ने इनके
चमत्कारिक प्रभाव को सिक्ख जनसमूह पर पडते देखा था और यह स्वाभाविक था कि
उन्होंने अपने हिंसक आंदोलन को कारसेवा,और उससे जुड़े क़ार्यकर्ताओं को
कारसेवक कहना शुरू कर दिया. कारसेवक शब्द ने कई वर्षों तक हिन्दू मन को
झंकृत किया,पर कुछ दिनों बाद ही इसका तिलिस्म खत्म होने लगा और तब विहिप को
एक नये शब्द की जरूरत महसूस हुई , उनके शब्दकोश में एक नया शब्द
जुडा-रामसेवक. कुछ वर्षों तक रामसेवक चला. पिछले कुछ सालों रामसेवक अयोध्या
पर चढाई करते रहे. अयोध्या में विहिप ने दो बडी भूसम्पत्तियां भी खरीदीं
हैं. रामजन्मभूमि न्यास के नाम से खरीदे गये एक भूखण्ड को कारसेवकपुरम और
दूसरे को रामसेवकपुरम का नाम दिया गया है.
17 अक्तूबर ,2003 को विहिप का जो कार्यक्रम आयोजित किया गया था उसमें भाग
लेने वालों को रामभक्त घोषित किया गया.शायद रामसेवक शब्द का जादू टूटने लगा
था,इसीलिए अब रामभक्त बनना जरूरी था.दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यदि हिंसा और
अराजक उश्रृंखलता के प्रतीक विहिप कार्यकर्ता रामभक्त हैं तो उन लाखों
करोडों आस्तिक हिन्दुओं को क्या कहा जायेगा जो राम को शांति और मर्यादा का
प्रतीक मानतें हैं और जिनके राम सौहार्दपूर्ण बंधुत्व के पक्ष में खडे
दिखतें हैं?
भाषा का खिलवाड अयोध्या आंदोलन के कार्यक्रमों में भी चलता रहता है.सन्
2002 में विहिप ने शिलापूजन का एक कार्यक्रम आयोजित किया था.हिन्दू परम्परा
में भवन निर्माण के पहले भूमिपूजन का उल्लेख तो है पर शिलापूजन का उल्लेख
आसानी से नहीं मिलता. राम जब लंका में पुल बनाने के लिए शिलाओं को समुद्र
में डालतें हैं तब कुछ रामकथाओं में शिलापूजन का उल्लेख मिलता है.पर वहाँ
तो समुद्र था और राम के पास पूजन के लिए भूमि नहीं थी. भवन निर्माण के पहले
हिन्दू भूमिपूजा ही करतें हैं. बात यहीं खत्म नहीं हुई . अदालती आदेश की
वजह से शिलापूजन सम्भव नहीं हो सका तो कार्यक्रम को एक नया शब्द मिला-
शिलादान ! शिलादान का उल्लेख किसी धर्मग्रंथ में नहीं है. विहिप शायद
हिन्दू परम्परा का नया भाष्य रच रही थी. हिन्दुत्व के उभार ने जय सियाराम
जैसे परस्पर भाईचारे के सम्बोधन को भी हिंस्र आक्रामकता से भर दिया. जय
सियाराम की जगह जय श्रीराम का उच्चारण सिर्फ भाषिक परिवर्तन नहीं है. जय
श्रीराम का उच्चारण पूरी भंगिमा का परिवर्तन है.तनी हुई भृकुट.....ज़य
श्रीराम सुनते ही एक हमलावर मुखमुद्रा सामने आ जाती है. यह मुखमुद्रा
डरावनी ही नहीं है बल्कि स्त्री विरोधी भी है. पूरी परम्परा में सीता का
स्थान राम के पहले है. हमेशा सीताराम कहा जाता है. गांवों के लाखों करोंडों
भोलेभाले लोग पीढियों से जय सियाराम या जय जय सियाराम कह कर एक दूसरे का
अभिवादन करते रहें हैं. जय श्रीराम सिर्फ भय पैदा करता है. आश्वस्ति और
शीतलता तो जय सियाराम सुनकर ही होती है . शायद एक कारण यह भी हो कि इसमें
राम के पहले सीता की उपस्थिति है .राम के नाम से जुडे अभिवादन से सिया को
निकालने वाले लोग एक लम्बी स्त्रीविरोधी परम्परा से जुडे हुए हैं. ये वही
लोग हैं जिन्होने संविधान सभा में हिन्दू कोड बिल का विरोध किया था और
जिनसे निराश होकर डा. अम्बेडकर ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था.
हिन्दुत्व की अपनी परिभाषा गढने वाले इन लोगों ने सती प्रथा का समर्थन किया
था .देश के विभिन्न हिस्सों में अक्सर ये लोग महिलाओं पर तालिबानी ड्रेसकोड
लागू करते रहतें हैं. इसलिए जय सियाराम के जय श्रीराम में परिवर्तन होने को
सिर्फ मुद्रा परिवर्तन नहीं बल्कि एक स्त्री विरोधी विचारधारा के नैरंतर्य
के रूप में देखा जाना चाहिए .
सरकारों ने भी भाषा के स्तर पर हिन्दुत्ववादियों की ही मदद की है.अगर
सरकारी रिकॉर्ड देखे जाएँ तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि 1949 के पहले हमेशा
सरकारी दस्तावेजों में इस स्थल को बावरी मस्जिद ही लिखा गया है .फैजाबाद के
गजेटियर से लेकर अनगिनत भूमि दस्तावेजों में सिर्फ बावरी मस्जिद का उल्लेख
आता है. 1949 के बाद कहीं कहीं बावरी मस्जिद के साथ साथ रामजन्मभूमि मंदिर
भी लिखा जाने लगा लेकिन यह 1980 के आसपास ही हुआ कि अखबारों और सरकारी
दस्तावेजों में बावरी मस्जिद रामजन्मभूमि मंदिर एक साथ उल्लिखित होने लगे.
बाद में लोगों को पता भी नहीं चला और यह युग्म पलट कर रामजन्मभूमि बावरी
मस्जिद हो गया और पिछले कुछ सालों से सिर्फ रामजन्मभूमि की संज्ञा से इसका
स्मरण किया जाता है .6 दिसम्बर ,1992 को बावरी मस्जिद टूटने के बाद से तो
यह सिर्फ विवादित ढांचा है. आज की अयोध्या में बावरी मस्जिद को जाने वाले
रास्तों के दिशासूचक पट्टिकाओं पर सिर्फ रामजन्मभूमि मंदिर लिखा है .याद
रहे कि ये सारी पट्टिकाएं सरकारी हैं .17 अक्तूबर ,2003 को संकल्प दिवस
कार्यक्रम के पहले नगरपालिका ने इन पट्टिकाओं का रंग रोगन करा कर और इन पर
फिर से इबारत लिखवाने का फैसला लिया था. इनमें से एक पट्टिका पर
'रामजन्मभूमि बावरी मस्जिद' लिखते ही हंगामा हो गया और अंतत: दिशासूचक
पट्टिका पर सिर्फ 'रामजन्मभूमि' लिखा गया. अब तो ज्यादातर इलेक्ट्रानिक
मीडिया,अखबार और सरकारी रिकॉर्ड_सभी में-यह सिर्फ विवादित ढांचा है. अगर
भाषा का मनुष्य की स्मृति से कोई सीधा सम्बंध है तो ज्यादा आश्चर्य नहीं
होना चाहिए , अगले कुछ वर्षों में यह मानने मे लोगों को मुश्किल होगी कि
500 वर्षो से ज्यादा समय तक अयोध्या मे कोई बावरी मस्जिद भी थी.
17 अक्टूबर, 2003 को विहिप का संकल्प दिवस के नाम से एक कार्यक्रम था. मेरा
इस आंदोलन से निपटने का यह पहला सीधा अवसर था.इसके पहले मैं साम्प्रदायिकता
के अध्ययन में अपनी अकादमिक रूचि के कारण कई बार अयोध्या गया था और इस नाते
हिन्दुत्व के पैरोकारों के बयानों और कारनामों पर नजर भी रखता था. 1990 में
पहली अयोध्या चढाई के दौरान 170 किलोमीटर दूर इलाहाबाद में मैं एस.एस.पी.
के पद पर था और तब उनसे मुचेहटा लेने का अनुभव जरूर मेरे साथ था पर अयोध्या
में ही उनसे मुठभेड मेरे लिए रोमांचक होने जा रही थी .
मैं मेरठ मे तैनात था और इस कार्यक्रम के चलते मेरी नियुक्ति लखनऊ हो गई .
लखनऊ के आई.जी.जोन की हैसियत से मुझे अयोध्या से निपटना है -ऐसा उन सभी
लोगों ने मुझे स्पष्ट रूप से पहली मुलाकात मे ही बता दिया था जो निर्णय
लेने के नजरिये से शीर्ष पर थे. मुझे भी अंदर से उत्तेजना महसूस हो रही थी.
पुलिस की नौकरी में ऐसी चुनौती भरे क्षण कम आतें हैं, जिनमें आपको अपने
वैचारिक कमिटमेण्ट को तौलने का मौका मिले. अभी तक मुझे सिर्फ एक बार मौका
मिला था जब मैंने आरक्षण विरोधी युवकों पर इलाहाबाद में घोडे दौडाए थे और
इसके परिणाम स्वरूप सालों साल इलाहाबाद के सवर्णों की गालियाँ सुनी थीं. यह
वैसा ही मौका था.
मैने फैसला किया कि सबसे पहले हिन्दुत्ववादियों के भाषिक तिलिस्म को तोडा
जाय. कार्यक्रम का नाम था -'संकल्प दिवस' और भाग लेने वाले थे- 'रामभक्त’.
सारा खेल इसी रामभक्त का था. स्थानीय हिन्दी अखबारों में 'जनमोर्चा' को
छोडक़र लगभग सभी में हिन्दुत्ववादियों से सहानुभूति रखने वाले भरे हुए थे
.वे देश के विभिन्न हिस्सों से , घोषित रूप से अदालती आदेशों की धज्जियाँ
उडाने और कानून को तोडने के लिए अयोध्या कूच करने वालों को पूरे सम्मान के
साथ रामभक्त लिख रहे थे . रामभक्तों से जुडी हर खबर श्रद्धा विगलित मंदिर
समर्थक आस्था से बजबजा रही थी.इसमें यह बहुत अस्वाभाविक नहीं था कि पुलिस
के अधिकारी और जवान भी रामभक्तों का स्मरण आमतौर से सम्मान से कर रहे थे.
वे भी उसी समाज से आये थे जहाँ राम का नाम श्रद्धा से लिया जाता है .उनके
लिए राम जी के कार्य से इकट्ठा होने वाले रामभक्तों पर बलप्रयोग की कल्पना
ही एक मुश्किल स्थिति थी. उन्हें यह समझाना आसान नहीं था कि रामभक्तों के
नाम पर जो लोग इकट्ठे हो रहे हैं वे घोषणा करके कानून तोडने वाले लोग हैं
और कानून को लागू करवाने वाली एजेन्सी पुलिस के सदस्य होने के कारण यह उनका
कर्तव्य है कि कानून तोडने वालों के साथ सख्ती से पेश आयें .1990 से यह
स्थिति कई बार आयी थी और हर बार पुलिसकर्मी कहीं न कहीं डगमगा जाते थे .
इसलिए मैंने पहले इसी स्थिति से निपटने की ठानी.
इस बार एक अच्छी बात यह थी कि सरकार और अदालती आदेशों में कोई भ्रम की
स्थिति नहीं थी. 1992 में जब अयोध्या में बावरी मस्जिद टूटी तब हर तरफ भ्रम
था.न्यायालय ने प्रतीकात्मक कारसेवा की इजाजत दे रखी थी.सरकार ने सर्वोच्च
न्यायालय में मस्जिद की सुरक्षा का आश्वासन जरूर दिया था पर उसकी नियत में
शुरू से ही खोट थी.केन्द्र में काँग्रेसी सरकार के प्रधानमंत्री नरसिम्हा
राव ने मस्जिद गिरने तक इंतजार किया और 6 बजे शाम उत्तर प्रदेश में
राष्ट्रपति शासन लागू किया. केन्द का भेजा हुआ बल सुबह तक इंतजार करता रहा
और तभी सक्रिय हुआ जब सुबह 7 बजे ढहाये हुए मलबे के बीच एक अस्थायी मंदिर
का निमार्ण हो गया. इस निर्णायक अनिर्णय की स्थिति में यह स्वाभाविक था कि
जो पुलिस बल वहाँ मस्जिद की हिफाजत के लिए लगाया गया था उसने फेसिलेटेटर की
भूमिका निभाई . मस्जिद टूटते समय सिर्फ हिन्दुत्ववादियों के नाचते झूमते और
एक दूसरे को बधाई देने के विजुअल ही अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में
नहीं दिखाई दिये, वरन इन दृश्य चित्रों में बहुत से पुलिस अधिकारियों एवं
जवानों की छवियां भी कैद थीं जो एक दूसरे के गले लग रहे थे और आपस में
बधाईयां बांट रहे थे . इसमे किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जैसे 1949
में रामलला के प्राकटय को सम्भव बनाने वाले तत्कालीन जिलाधिकारी के.
के.नायर बाद में जनसंघ के टिकट पर लोकसभा के लिए चुने गये उसी तरह 1992 में
मस्जिद गिराने मे सक्रिय भूमिका निभाने वाले तत्कालीन फैजाबाद के वरिष्ठ
पुलिस अधीक्षक डी. बी. राय भी ध्वंस के फौरन बाद भाजपा में सक्रिय हो गये
और उसके टिकट पर दो बार लोकसभा के लिए जीते .
1992 में म्स्जिद गिराने के बाद विहिप मंदिर निर्माण की मुहिम में लग गयी
है और हर दूसरे तीसरे साल वह अयोध्या में कोई न कोई कार्यक्रम करती है .हर
कार्यक्रम घोषित रूप से अदालती आदेशों और देश के कानूनों की धज्जियाँ उडाने
के निश्चय के साथ शुरू होता है.य्ह एक तर्कसंगत अपेक्षा हो सकती है कि
कानून की रखवाली करने के लिए नियुक्त पुलिस बल और मजिस्ट्रेट विहिप
कार्यकर्ताओं के साथ सख्ती से पेश आये लेकिन ऐसा कम ही मौकों पर दिखायी
दिया है. साधुओं और धार्मिक नारों तथा प्रतीकों से लैस आंदोलनकारियों के
खिलाफ बल प्रयोग करते समय पुलिस की हिचकिचाहट साफ दिखायी देती है . इसमें
कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है. ज्यादातर सिपाही ग्रामीण पृष्ठभूमि के किसान के
बेटे हैं. अंदर गहरे तक आस्तिक और रामभक्त. इन्हें तब तक बलप्रयोग के लिए
प्रेरित नहीं किया जा सकता है जब तक उन्हें अच्छी तरह यह समझा नही दिया
जाता-कि रामजन्मभूमि आंदोलन का धर्म से बहुत लेना देना नहीं है. यह एक
राजनैतिक कार्यक्रम है जिसकी गति चुनाओं से निर्धारित होती है . दुर्भाग्य
से इस दिशा में कभी गंभीरता से काम नहीं हुआ है .सरकारें और पुलिस नेतृत्व
दोनों इस मामले में बराबर दोषी हैं . उत्तर प्रदेश में राजनीतिक स्थिति के
कारण 1992 के बाद के ज्यादातर विहिप कार्यक्रमों को परोक्ष सरकारी समर्थन
हासिल रहा है.इसके बरखिलाफ विहिप विरोधी धर्मनिरपेक्ष कार्यक्रमों को
सरकारी प्रतिरोध का ही सामना करना पडा है.चाहे वह सहमत का कार्यक्रम हो ,
लिबरेशन का आयोजन हो या संदीप पांडे जैसे सक्रीय मानवाधिकार कार्यकर्ताओं
की पहल हो,सभी को सरकारी मुखालिफत झेलनी पडती है .इन कारणों से भी औसत
पुलिसकर्मी के सामने यह संदेश गया है कि विहिप विरोधी धर्मनिरपेक्ष
शक्तियाँ समाज विरोधी तत्व हैं ,और रामजन्मभूमि मंदिर से जुडे लोग एक ऐसे
धार्मिक कृत्य से जुडें हैं जिसमे कानून कायदों की धज्जियाँ उडाने की घोषणा
करते हुए अयोध्या पहुँचना कोई इतनी गम्भीर बात नहीं है जो पुलिसकर्मियों के
मन में उनसे सख्ती से निपटने की दृढ इच्छाशक्ति पैदा कर सके.
17 अक्टूबर, 2003 के कार्यक्रम से निपटने की जिम्मेदारी जब मुझे मिली तब
मेरे सामने पहली चुनौती भाषा के उस तिलिस्म को तोडने की थी जो घोषित रूप से
कानून तोडने वालों को सामाजिक प्रतिष्ठा प्रदान करती है और दूसरी चुनौती
पुलिस के आस्तिक सिपाहियों को यह समझाने की थी कि विहिप के कार्यकर्ता देश
के कानून तोडने वाले दूसरे अपराधियों की तरह ही हैं और उनके साथ भी वही
व्यवहार होना चाहिए जो इस तरह की हरकत करने वाले दूसरे लोगों के साथ होता
है.
इस बार कार्यक्रम में भाग लेने वालों के लिए शब्द दिया गया था - 'रामभक्त'
. रामभक्त सुनते ही भक्तिरस में पगी ,सांसारिक माया मोह से मुक्त एक ऐसी
छवि उभरती है जो शांति और करूणा की मूर्ति है .इस छवि की छांह तले इह
मध्ययुगीन बर्बर खूंखार चेहरा न जाने कहां गायब हो जाता है जिसके एक हाथ
में त्रिशूल है और दूसरे की मुट्ठियाँ तनी हुयीं हैं और हिंस्र वीभत्सता से
अपने दांत बाहर निकाले हुए जय श्रीराम का आक्रामक घोष कर रहा है .एकाध को
छोडक़र सारे अखबार अयोध्या आने वालों को रामभक्त लिख रहे थे. सरकारी तंत्र
भी उनके लिए रामभक्त शब्द का इस्तेमाल कर रहा था.मैने सबसे पहले
पुलिसकर्मियों को रामभक्त की जगह विहिप कार्यकर्ता कहने के लिए प्रोत्साहित
करना शुरू किया.अपनी प्रेस ब्रीफिंग में भी मैं रामभक्त शब्द का प्रयोग
नहीं करता था .धीरे धीरे इसका असर भी दिखायी पडने लगा. मानसिक रूप से
पुलिसकर्मी उस जकडबन्दी से मुक्त होने लगे जो उन्हें विहिप कार्यकर्ताओं को
चाहे अनचाहे सम्मान देने पर मजबूर कर देती थी.
भाषा का जादुई असर मैने पुलिस अधिकारियों और मजिस्ट्रेटों की एक ब्रीफिंग
में देखा . 17 अक्तूबर, 2003 के मुकाबले के पहले ,अंतिम ब्रीफिंग 15
अक्तूबर की रात में हुयी.दूसरे कई अधिकारियों के अलावा मुझे भी इसे
सम्बोधित करना था .जब मेरी बारी आयी तब मैने शुरूआत ही इस वाक्य से किया कि
-हमें जिस दुश्मन से 17 अक्तूबर को निपटना है उसके बारे मे तरह से जानना
बहुत जरूरी है. हमें यह याद रखना होगा कि हमारा दुश्मन पूरी तरह से झूठा है
और इस समय बुरी तरह से कमजोर पड ग़या है . झूठा है इसलिए कि 1949 से आज तक
हमेशा झूठ बोलता आया है.अदालतें, संसद, विधानसभा,अखबार -सभी इसके झूठ से
पटे पडें हैं.अगर आप इस तथ्य को याद रखेंगे तो कभी धोखा नहीं खायेंगे.वह
दाहिने जाने की बात करे तो आप बांयीं तरफ भी चौकसी बढा दें.अगर वह
शांतिपूर्ण जूलूस निकालने का आश्वासन दे तो हमें हिंसा के लिए पूरी तैयारी
रखनी चाहिए.यह तथ्य भी याद रखना पडेग़ा कि दुश्मन इस समय कमजोर पड ग़या
है.उसने दो लाख लोगों को अयोध्या लाने की घोषणा की थी पर बमुश्किल तमाम
कोशिशों के बाद भी वह चार पांच हजार लोगों को ला पा रहा है.कमजोर दुश्मन
ज्यादा खतरनाक होता है .वह किसी वाहन में आग लगा कर,इक्का दुक्का
पुलिसवालों पर हमला करके या जबरदस्ती बावरी मस्जिद परिसर में घुस कर हमें
उत्तेजित करने की कोशिश करेगा ताकि हम उस पर गोली चलाएं और उसे प्रचारात्मक
लाभ मिले.इसीलिए हमें आत्मनियंत्रण रखना पडेग़ा.
मैं शब्दश: नहीं लिख पा रहा हूँ लेकिन अपनी बीस मिनट की ब्रीफिंग में मैने
लगभग यही सब बातें कहीं.यहां पर प्रसंग का उल्लेख सिर्फ भाषा के असर को
रेखांकित करने के लिए कर रहा हूँ .सौ से अधिक पुलिस अधिकारियों और
मजिस्ट्रेटों के चेहरे पर दुश्मन शब्द ने एक खास असर तरह की बेचैनी पैदा कर
दी .कुछ मुस्कुराये लेकिन ज्यादातर के चेहरे लटक गये. विश्व हिन्दू परिषद
'दुश्मन' हो सकती है यह बात उनके समझ के परे थी.अभी तक के सारे कार्यक्रमों
मे खुले आम कानून, संविधान औरअदालती आदेशों की धज्जियाँ उडाते हुए विहिप
कार्यकर्ता कुछ भी हो,धर्म के ध्वजावाहक तो थे ही .वे 'दुश्मन' कैसे हो
सकतें हैं? फिर उन्हें 'झूठा' घोषित करने का अधिकार किसी को नहीं है .
धर्मभीरू ,रामलला के कार्य से दूर दूर से कष्ट सह कर आने वाले ,भोले-भाले
नर-नारी 'झूठे' कैसे हो सकतें हैं? मैं सामने बैठे लागों के चेहरे पर
दुविधा की स्थिति साफ पढ सकता था.
कुछ भी हो, तिलिस्म टूट रहा था .
कानून एवं व्यवस्था लागू करने वाली एजेन्सी के मन में विहिप के विरूद्ध
कार्यवाही करने में कितनी हिचक है इसका पता मुझे तब लगा जब मैने अपने
अधिकारियों से कारसेवकपुरम में घुस कर उन लोगों के खिलाफ कार्यवाही करने के
लिए कहा जो 17 अक्तूबर के पहले कई दिनों से वहाँ रह कर भडक़ाऊ बयान दे रहे
थे .मुझे बताया गया कि कारसेवकपुरम में तो आज तक पुलिस गयी ही नहीं .मतलब
साफ था-एक और अकालतख्त . एक अकालतख्त में समय से पुलिस न भेजने का नतीजा
हुआ कि बाद में फौज भेजनी पडी अौर आपरेशन ब्लू स्टार जैसा दंश देश को झेलना
पडा.अब एक और स्थल उभर रहा था जहाँ धार्मिक प्रतीकों की आड में पुलिस का
प्रवेश वर्जित किया जा रहा था. पुलिस अधिकारियों के मन मे भी कोई संशय नहीं
था कि उन्हें कारसेवकपुरम में नहीं जाना चाहिए. यह मैं जानता हूँकि मुझे
सभी को आश्वस्त करने में कितनी मेहनत करनी पडी क़ि कारसेवकपुरम में रहने
वाले भी उसी तरह हाडमांस के पुतले हैं जिस तरह कानून तोडने वाले दूसरे
बंदे, और उनके खिलाफ भी हमें वही कार्यवाही करनी चाहिए जो हम कानून तोडने
वालों के साथ करतें हैं.
कारसेवकपुरम में पुलिस के घुसने और कार्यवाही करने का नतीजा यह निकला कि 17
अक्तूबर को कानून सम्मत कार्यवाही करने में औसत पुलिसकर्मी के चेहरे पर
अपेक्षाकृत कम हिचक थी.
अगला
निबन्ध
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