रणभूमि में भाषा
विभूति नारायण राय
इस्लाम ही अक्सर खतरे में
क्यूं रहता है ?
भारत के संदर्भ में जब सांप्रदायिकता, कठमुल्लापन या साम्प्रदायिक फासीवाद
की बात होती है तब अक्सर हमारे निशाने पर सिर्फ हिंदू सांप्रदायिकता होती
है. खासतौर से मार्क्सवादी विमर्श के दौरान ,अक्सर मुस्लिम सांप्रदायिकता
को भुला दिया जाता है या फिर उसे कम करके आँका जाता है .राजेन्द्र जी अक्सर
दलित ,पिछडा या स्त्री विमर्श के दौरान हिन्दू मिथकों , वर्ण व्यवस्था और
हिन्दू समाज की आंतरिक संरचना की कुरूपताओं पर हमला करतें रहतें हैं .उनसे
शायद यह उम्मीद की जा रही थी कि वे इस्लामी कट्टरता पर हमला करके अपने को
हिन्दुत्ववादियों के पाले में पाए जाने का जोखिम न लेना चाहें , इसलिए उनके
इस संपादकीय से कुछ लोगों को आश्चर्य या निराशा हुई ,पर मुझे लगता है कि इस
संपादकीय में बहुत से ऐसे मुद्दे उठाये गयें हैं जो गंभीर विमर्श की मांग
करतें हैं .
इस्लाम को लेकर मेरे मन में जो शंकाएं हैं उन पर आने के पहले एक बात साफ कर
ली जाये . यह सही है कि जब हम सांप्रदायिकता पर हमला बोलें तो हमें हिंदू
और मुस्लिम दोनों सांप्रदायिकताओं को निशाना बनाना चाहिये , लेकिन हमें यह
भी ध्यान रखना चाहिये कि भारत के संदर्भ मे हिंदू सांप्रदायिकता ज्यादा
खतरनाक है .हिंदू सांप्रदायिकता बहुसंख्यक समुदाय की सांप्रदायिकता है .वह
राज्य की मशीनरी पर कब्जा कर सकती है और फासिज्म की तरफ हमें ढकेल सकती
है.हाल में गुजरात में एक प्रयोग हुआ ही है , हिंदुत्व की शक्तियाँ पूरे
देश में इस प्रयोग को दोहराने की धमकी दे रहीं हैं. इसके बरखिलाफ मुस्लिम
कठमुल्लापन काफी आत्मघाती है.यह अपने समुदाय को ही अधिक नुकसान पहुँचाता है
.इसकी मारक शक्ति अपने अनुयायियों को पिछडेपन और जहालत की भूल- भुलैया में
ढकेल देती है तथा हिंदू सांप्रदायिकता को फलने फूलने के लिए यह खाद का काम
करती है .
इस्लाम दुनियाँ के दूसरे धर्मो से कई अर्थों में भिन्न है .अकेला धर्म है
जो उम्मा की बात करता है .इसका मतलब है यह राष्ट्र राज्यों की सीमाओं को
नकारते हुए एक अतर्राष्ट्रीय इस्लामी विरादरी की कल्पना करता है .दार्शनिक
धरातल पर ही सही पर इस्लाम दुनिया को दो भागों में विभक्त करता है . इस्लाम
पर यकीन रखने वालों और इस्लाम पर यकीन न रखने वालों की है. ऌस्लाम पर यकीन
रखने वाले एक कौम है यह हास्यास्पद विश्वास विश्व इतिहास में हर युग और हर
भूखण्ड में गलत साबित हुआ है.भाषा ,खानदान,परंपरा,भूगोल,अर्थशास्त्र-बहुत
सारे कारण हैं जिन्होंने मुसलमानों को भी उसी तरह बाँट रखा है जिस तरह
ईसाइयों ,बौद्धों , हिंदुओं या यहूदियों को अलग- अलग राष्ट्र राज्यों में
विभक्त कर रखा है. मुस्लिम शासक और साधारण जन भी उसी तरह आपस में लडतें
रहतें आयें हैं जिस तरह दूसरे धर्मो को मानने वाले शासक और सामान्य जन,पर
दर्शन के रूप में इस्लाम के जनम के बाद से ही यह विचार कि मुसलमान एक अलग
राष्ट्र है हमेशा मुस्लिम उम्मा को उद्वेलित करता रहा है .यह बात अलग है कि
कभी कम,कभी ज्यादा.भारत के संदर्भ में यह याद रखना चाहिये कि पाकिस्तान तभी
बन पाया जब पृथकतावादी मुस्लिम नेतृत्व मुसलमानों की बडी संख्या को यह
विश्वास दिलाने मे सफल हो गया कि मुसलमान एक अलग राष्ट्र है और वे हिंदू
राष्ट्र के साथ नहीं रह सकते.यह बात अलग है कि केवल इस्लाम एक अलग राष्ट्र
का आधार नहीं हो सकता था और बंगाली राष्ट्रीयता,पंजाबी या बलूचिस्तानी
राष्ट्रीयताओं के साथ ज्यादा दिन न्हीं चल सकी और इस्लामी राष्ट्रीयता के
नाम पर बना देश 25 वर्षों में ही टूट गया.जो हिस्सा पाकिस्तान के नाम पर
बचा भी है उसमें मुस्लिम राष्ट्रीयता से अधिक पंजाबी राष्ट्रीयता है .
इस्लामी उम्मा की इस चाह ने ही दुनियाँ भर के मुस्लिम राष्ट्रों को धर्म के
नाम पर एक संगठन बनाने के लिये प्रेरित किया है .आर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक
कन्ट्रीज या ओ. आई. सी. संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद सबसे अधिक देशों की
सदस्यता वाला संघटन है. विश्व के दूसरे बडे धर्मो ने क्यों नहीं उन देशों
का संगठन बनाने का प्रयास किया जहाँ उनके मानने वाले बहुमत में थे ? ईसाई,
हिंदू, या बौद्ध ऐसे अन्य धमे हैं जिनके अनुयायी एक से अधिक देशों में
रहतें हैं पर हम कभी ऐसा गंभीर प्रयास नहीं पाते जिसके द्वारा ईसाई राष्ट्र
या बौद्ध राष्ट्रों का संगठनबनाने का सपना देखा गया हो .यहां यह भी ध्यान
रखना चाहिये कि ओ• आई• सी. में केवल अनुदार या धर्मान्ध मुस्लिम राष्ट्र ही
नहीं शरीक हैं बल्कि बहुत से उदार ,प्रगतिशील राष्ट्र और आधुनिक जीवन
दृष्टि में विश्वास रखने वाले मुस्लिम राष्ट्र भी उसके सदस्य हैं.सउदी अरब
,कुवैत,नाइजीरिया और सूडान के बगल में जब हम तुर्की मलेशिया और मिश्र को
बैठे पातें हैं तब हमें उस तर्क को समझने में आसानी होती है जो उम्मा के
दर्शन के रूप में इस्लाम के अवचेतन का अभिन्न अम्ग है.यही कारण है कि
सैय्यद शहाबुद्दीन जब मुसलमानों की जिंदगी को लेकर एक पत्रिका निकालने की
सोचतें हैं तो उनके दिमाग में 'मुस्लिम इंडिया' नाम आता है,'इंडियन
मुस्लिम' नहीं.यह स्वाभाविक है कि क्योंकि वे मुसलमान इंडियन हैं यह
प्रसंगवश है, उनकी असली पहचान मुस्लिम है जो उन्हें मुस्लिम उम्मा का अंग
बनाती है .अफगानिस्तान या ईराक में अमेरिकी ज्यादतियों की प्रतिकि्र्रया
विश्व में दो तरह से होती है.विरोध का एक स्वर साम्राज्यवाद विरोधी
मनुष्यता का होता है जो हमलावरों और पीडितों के धर्म की परवाह किये बिना
अमरीकी बमबारी की भर्त्सना करता है.इसमें ईसाई,हिंदू, बौद्ध,यहूदी और उदार
मुसलमान सभी होतें हैं पर विरोध का दूसरा स्वर सिर्फ इसलिए सुनाई देता है
क्योंकि पीडित मुसलमान है,भले ही हमले के पीछे कोई ईसाई चिन्ता न हो.अगर
पीडित गैर मुस्लिम दुनियाँ हो तो यह स्वर गायब हो जाता है. यह स्वर
धर्मांन्ध मुस्लिम उम्मा का है.चेचन्या
,कश्मीर,हर्जेगोविना,अफगानिस्तान,ईराक हर जगह इसे ऐसा लगता है कि पीडितों
के साथ ज्यादतियाँ सिर्फ इसलिए हो रहीं हैं क्योंकि वे मुसलमान हैं
.दुर्भाग्य से मुस्लिम विश्व में यह स्वर ज्यादा जोर से सुनाई देता है.
इस्लाम अक्सर खतरे में रहता है.दुनियाँ में कोई दूसरा धर्म इतनी आसानी से
खतरे में नहीं पडता. यह स्थिति शायद इसलिए है कि इस्लाम में आंतरिक
लोकतंत्र सबसे कम है.कोई भी दूसरा धर्म अपने बेसिक्स या बुनियादी आस्थाओं
को इतनी मजबूती से अपने सीने से नहीं चिपकाए रहता है कि उनके बारे में बहस
मुबाहिसे के लिए तैयार ही नहीं हो .अल्लाह एक है,मोहम्मद उसके पैगम्बर हैं
औरआखिरी पैगम्बर हैं तथा कुरान उनके ऊपर नाजिल हुई ईश्वरीय किताब है _ये
कुछ ऐसे बुनियादी आस्थाएं हैं जिनके बारे में इस्लाम किसी बहस के लिए तैयार
नहीं है .इनमें से किसी एक के बारे में कोई शंका होते ही इस्लाम खतरे में
पडने लगता है.दूसरे धर्मो की भी बुनियादी आस्थाएँ हो सकतीं हैं पर वे उन पर
बौद्धिक विमर्श से डरते नहीं .पोप औरचर्च की लाख कोशिश के बावजूद डारविन को
बडे र्ऌसाई समाज ने मान्यता दी और आज भी ईसाई घरों मे पैदा होने वाले ही
बाइबिल और ईसा से जुडी पुराण कथाओं की पुनर्व्याख्याओं में लगे हुए हैं
.डरा हुआ समुदाय ही वैचारिक मुठभेडों से बचने की कोशिश करता है.तर्क की
अनुपस्थिति से आप तर्कातीत बन जातें हैं.इसे समझने के लिये भारत के संदर्भ
में ब्राह्यणों के प्रयास का अध्ययन दिलचस्प होगा.इस्लाम का भारत में आगमन
बुद्ध के बाद पहली बडी सामाजिक परिघटना थी जिसने समानता और बन्धुत्व की
ताजी बयार भारतीय समाज में बहाई थी .ब्राह्यण किसी भी तर्क से वर्ण
व्यवस्था या कर्मकांडों को सही नहीं ठहरा सकते थे इसलिए उन्होंने इस्लाम के
साथ हमेशा वैचारिक मुठभेडों से बचने की कोशिश की.उन्होंने मुसलमानों को
म्लेच्छ घोषित कर दिया जिनसे विमर्श तो दूर उनको छूने मात्र से धर्म भ्रष्ट
और अशुद्ध होने का खतरा था .यही प्रयास अट्ठारवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में
समुद्र यात्राओं के संदर्भ में भी हुआ . ब्राह्यण जानता था कि यदि दुनियाँ
के किसी दूसरे हिस्से में जाकर यह कहेगा कि वह श्रेष्ठ है क्योंकि वह
ब्राह्यण परिवार में पैदा हुआ है तो लोग उसे किसी अजूबे की तरह कौतूहल से
देखेंगे इसलिये उसने ज्यादा आसान रास्ते की तरह यह प्रयास किया कि देशवासी
समुद्र पार ही न करें.इस तरह तर्क के अभाव को तर्कातीत बना कर पूरा करने का
प्रयास किया गया.इस्लाम में शुरूआती चार खलीफाओं के बाद भिन्न आस्थाओं से
मुठभेड से बचने की प्रवृति अधिक रही है .शायद यही कारण है कि इस्लाम इतना
छुई- मुई है और जरा सी चुनौती से वह खतरे में पड ज़ाता है .
यह भी बिना किसी कारण नहीं है कि धर्मयुद्ध का आह्वान हमारे समय में सिर्फ
मुसलमानों की तरफ से उठता है. यह कहा जा सकता है कि विश्व के मुसलमानों की
बहुत छोटी संख्या ही जेहाद जैसी अव्यवहारिक कल्पना लोक में जीती है और
जेहाद को भी नए ढंग से परिभाषित करने की कोशिश की जाती है.कई मुस्लिम
विद्वान यह मानतें हैं कि जेहाद का संबंध बाहरी भौतिक जगत से नहीं बल्कि
आंतरिक शुद्धि और बुराइयों पर विजय से है.पर इन सबके बावजूद यह एक तथ्य है
कि जेहाद का सबसे अधिक समझा जाने वाला अर्थ मुसलमानों के हितों की रक्षा के
लिए गैर-इस्लामी हुकूमतों को उखाड फ़ेंकने और अल्लाह की हुकूमत कायम करने का
प्रयास ही है.यही अर्थ है जो चेचन्या से अफगानिस्तान और फिलिस्तीन से
काश्मीर तक दुनियाँ भर के मुसलमान जेहादियों को आकर्षित करता है.हमें नहीं
भूलना चाहिए कि बुश ने अफगानिस्तान पर हमले से पहले कुछ ईसाई प्रतीकों का
सहारा लेने की कोशिश की थी.आपरेशन इनफाइनाइट जस्टिस का नाम बदलने पर बुश को
अमरिकी जनता की विपरीत प्रतिक्रिया ने ही मजबूर किया था.बुश चाहता भी तो
अमेरिकी अभियान को क्रूसेड में तब्दील नहीं कर सकता था.बुश तो क्या अब कोई
ईसाई नेता अब क्रूसेड की बात नहीं कर सकता.पर मुसलिम उलेमा ,राजनेताओं और
सामान्यजन के लिए जेहाद अभी भी एक हासिल किया जा सकने वाला सपना है और अभी
भी एक ऐसी इच्छा है जिसके लिए हर साल हजारों लाखों मुसलमान अपनी जान दे
देतें हैं.
मैं अपनी बात इस तथ्य की तरफ आकर्षित कर समाप्त करूंगा कि धर्मनिरपेक्षता
की लडाई नीति के आधार पर नहीं विश्वास के आधार पर लडी ज़ानी चाहिए.यह
दुनियाँ भर के मुसलमानों की समस्या है कि वे जब अल्पसंख्यक होतें हैं तब
धर्म के सबसे बडे अलमबरदार होतें हैं लेकिन जैसे ही किसी खित्ते में
बहुसंख्यक हो जातें हैं इस्लामी हुकूमत कायम करना उनकी प्राथमिकता हो जाती
है.वे अपनी हुकूमतों में अल्पसंख्यकों को वही सारे अधिकार नहीं देना चाहते
जो अल्पसंख्यक के रूप में खुद के लिए चाहतें हैं .तुर्की , मिस्र या
इंडोनेशिया जैसे समाज कुछ अपवाद जरूर हैं लेकिन वहाँ भी इस्लामी
कट्टरपंथियों का प्रयास यही है कि वे राज्य मशीनरी पर कब्जा करके सरकारों
को इस्लामी शरि'आ की अपनी समझ के अनुसार चलने पर मजबूर कर सके .हमारे देश
के संदर्भ में यह तथ्य अधिक महत्वपूर्ण है .यह एक खुला सच है कि भारत में
हिंदू और मुस्लिम कट्टरता एक दूसरे के लिए खाद और पानी का काम करतें
हैं.दोनों एक दूसरे को फलने फूलने में मदद करतीं हैं.मैंने शुरू में ही इस
तथ्य को रेखांकित किया था कि हिंदू सांप्रदायिकता भारत के संदर्भ में
ज्यादा खतरनाक है क्योंकि बहुसंख्यक समुदाय की सांप्रदायिकता में यह
सामर्थ्य है कि वह राज्य की मशीनरी पर कब्जा कर सकती है .एक फासिस्ट हिंदू
राज्य बनने से भारत को बचाने के लिए आवश्यक है कि दोनो समुदायों की
सांप्रदायिकता से समान रूप से लडा जाये. सांप्रदायिकता के एक स्वरूप पर
हमला बोलने और दूसरे की अनदेखी करने से काम नहीं चलेगा.इस मामले में
प्रगतिशील हिंदुओं और मुसलमानों को साथ -साथ मिलकर संघर्ष करना पडेग़ा .
भारत के मुसलमानों को बढ चढ क़र यह मांग करनी पडेग़ी कि केवल भारत के
सेक्यूलर होने से काम नहीं चलेगा, पाकिस्तान, बांग्लादेश और सूडान को भी
सेक्यूलर होना पडेग़ा.इक्कीसवीं शताब्दी में धर्माधारित राज्य से बडी
मूर्खतापूर्ण और कोई अवधारणा नहीं है. धर्मनिरपेक्षता की लंबी लडाई पूरे
मनुष्य जाति के लिए महत्वपूर्ण है और इसे मैटर ऑफ पालिसी नीतिगत मामले के
तौर पर नहीं मैटर ऑफ प्रिंसिपुल के तौर पर ही लडा जा सकता है.
अगला
निबन्ध
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