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 स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-1

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

ब्रह्मर्षि वंश विस्तार


उत्तरार्ध्द-कण्टकोध्दार
1-दुरुक्तिदमन
अन्तश्छिद्राण्यनेकानि कण्टका बहवो बहि:।
कथं कमलनालस्य माभूवन् भंगुरा गुणा:॥
यद्यपि पूर्व प्रकरण में सभी प्रकार के प्रशस्त प्रमाणों द्वारा अयाचक ब्राह्मणों का श्रुतिस्मृत्यादि सिद्ध पवित्र और सर्वमान्य स्वरूप जब दिखला दिया और यह भी सिद्ध कर दिया गया कि अन्य ब्राह्मणों के साथ इनके सभी प्रकार के विवाह सम्बन्ध; खान-पान और नमस्कार इत्यादि मिले हुए हैं, तो फिर किसी को भी किसी प्रकार का भी इनके स्वरूप के विषय में संशय या मिथ्या कल्पना करने का अवसर ही न रह गया। और यदि इतने पर भी कोई भ्रम या द्वेषवश कुछ मिथ्या कल्पना करे, तो उसका खण्डन भी पूर्व प्रमाणों द्वारा अपने आप ही हो गया। इसलिए मोहपूर्ण कुकल्पनाओं के पृथक् खण्डन करने की आवश्यकता ही न रह गयी। तथापि, जैसे विदेश में रहने वाले बनिये के पास उसके घर से उसकी स्त्री ने रंज होकर अपने पुराने नौकर से यह कहला भेजा कि जाकर कह देना कि आपकी स्त्री विधवा हो गयी, क्योंकि वह बहुत दिनों से घर न गया था; इसलिए स्त्री ने अपने को विधवा की तरह समझ उसे व्यंग्य मारे थे। परन्तु उस मूर्ख ने यह सुनते ही कुछ भी विवेक न कर वहाँ के अपने इष्ट मित्रों से शोक प्रकाश करना प्रारम्भ कर दिया। यद्यपि उसके बुद्धिमान मित्रों ने यह बहुतेरा समझाया कि जब आप स्वयं जीते ही हैं तो भला यह कब सम्भव हैं कि आपकी स्त्री विधवा हो गयी? परन्तु उस प्रचण्ड मूर्ख ने यही उत्तर दिया कि हाँ, यह तो अच्छी तरह से समझता हूँ कि मेरे जीते-जी भला मेरी स्त्री विधवा कैसे हो सकती हैं? लेकिन मेरे दादा के समय का यह प्रतिष्ठित, सत्यवादी और बूढ़ा नौकर भी तो झूठ नहीं बोल सकता। उसी तरह बड़े-बड़े उपाधिधारी लोगों की बातें सुनकर विचारहीन पुरुष सम्भवत: इतने पर भी उलटा ही समझने लग जाये। इसलिए उनके इस भ्रम को मिटा देने के लिए दूसरे प्रकरण की आवश्यकता हैं। जिसमें यह स्पष्ट शब्दों में दिखला दिया जाये कि उन नाममात्र के उपाधिधारियों के वचन कैसे निस्सार हैं। बड़े-बड़े उपाधिधारियों के वचन सुन केवल अविवेकी लोग ही उन्हें भूलें न समझ अपने आप ही संशय करने या उलटा समझने नहीं लग जाते हैं, किन्तु बड़े-बड़े लोगों को भी उनकी बातें भ्रम में डाल देती हैं। क्योंकि उनकी बातों को लोग यह तो कभी समझते ही नहीं कि ये भूल से भी हो सकती हैं। जैसा कि बिहारीजी ने कहा हैं :
को कहि सकै बड़ेन की, लखी बड़ीयो भूल।
दीन्हें दई गुलाब के, इन डारिन वे फूल॥
एक बात और भी हैं। यह भी प्रकृति का एक अटल नियम हैं कि किसी वस्तु के स्वरूप को जितना ही अच्छा बनाइये, अथवा वह स्वयं जितनी अच्छी होगी, उतने ही उसके ऊपर दुष्ट लोगों के आक्रमण होंगे। इसीलिए पंचतन्त्र में कहा हैं कि :
मूलंभुजंगै: शिखराणि भल्लै: शाखा: प्लवंगै: कुसुमानि भृंगै:।
नास्त्येव तच्चन्दनपादपस्य यन्नाश्रितं दुष्टतरैश्च हिस्त्रौ:॥
इसका अर्थ यह हैं ''देखिये चन्दन का वृक्ष कैसा उपयोगी और सुन्दर होता हैं, परन्तु उसके कोई भी अवयव दुष्टों से बचे नहीं हैं, क्योंकि उसकी जड़ में साँप रहते हैं, चोटियों पर भालू, डालियों में बन्दर और फूलों में भौंरे रहा करते हैं, जो सभी हिंसक और दुष्टतर हैं।'' इसलिए केवल स्वरूप के अच्छी तरह से निरूपण कर देने से ही काम न चलेगा, किन्तु दुष्टजनों के अविवेकमूलक मिथ्या आपेक्षरूप कण्टकों को भी हटाने का पृथक् यत्न अवश्य ही करना होगा। क्योंकि यद्यपि केतकी या गुलाब के पुष्प बहुत सुन्दर, उपयोगी, मनोरंजक और सभी के ग्रहण योग्य होते हैं, तथापि सघन कण्टकों में पड़ जाने के कारण सभी लोग उनका ग्रहण या आदर नहीं कर सकते, अथवा उनसे लाभ नहीं उठा सकते, किन्तु जो उन पुष्पों के अत्यन्त प्रेमी और काँटों को कुछ भी नहीं समझने वाले होते हैं, वे लोग ही उससे यथावत् लाभ उठा सकते हैं। जैसा कि कहा हैं :
गुलिस्ताने जहाँ में फूल भी हैं और काँटे भी।
मगर जो गुल के जोया हैं उन्हें क्या खार का खटका॥
इसलिए जिसमें साधारणत: सभी लोग उससे लाभ उठा सकें, इसके लिए उन मिथ्या आक्षेपरूप कण्टकों को हटाने के लिए दूसरे प्रकरण की आवश्यकता हैं। यह बात भी हैं कि जब तक मनुष्य के भीतर छिद्र या बुराइयाँ रहतीं अथवा बाहर काँटे रहा करते हैं, तब उसके गुणों की कोई भी गिनती नहीं होती। इसीलिए इस प्रकरण के प्रारम्भ वाले श्लोक को किसी प्रौढ़ कवि ने कहा हैं। जिसका भाव यह हैं कि ''कमल के डण्डे (पानी में रहने वाले हिस्से) के गुण अर्थात् तन्तु या रेशे क्यों न भंगुर या दुर्बल हों? क्योंकि उसके भीतर छिद्र और बाहर काँटे रहा करते हैं।'' इसलिए भीतर आपातत: प्रतीत होने वाले छिद्रों के हटा देने पर भी बाहरी काँटों के हटाने का यत्न करना ही होगा। इसीलिए इस द्वितीय प्रकरण का आरम्भ किया जाता हैं और तदनुसार ही इसका नाम कण्टकोध्दार रखा गया हैं।
अस्तु, अब हम पाठकों के सन्मुख 'वर्णविवेक चन्द्रिका' नामक 10-12 पन्ने की पुस्तिका को उपस्थित करते हैं जो 10-15 वर्ष हुए वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई में छपी हैं और जिसके रचयिता काशीनाथ सूरि हैं। इस पुस्तक का तत्त्व हम भूमिका ही में दिखला चुके हैं और यह सिद्ध कर चुके हैं कि यह सम्पूर्ण पुस्तक स्वकपोलकल्पित और गपोड़ा मात्र ही हैं। क्योंकि जिन 'वराहपुराण' (शुकर पुराण) और 'भुवलतन्त्र' नामक ग्रन्थों के आधार पर ग्रन्थ की रचना रचयिता ने बताई हैं या तो उन नामों के ग्रन्थ हैं ही नहीं, और यदि नाम में कुछ रद्दोबदल करके कोई ग्रन्थ मिलते भी हैं, तो उनमें जाति का प्रसंग हैं ही नहीं। इसका सविस्तार विचार कर चुके हैं। ऐसी दशा में वह पुस्तक क्योंकर प्रमाण मानी जा सकती हैं? नहीं तो, फिर हम भी 'काशीनाथ' के बाप-दादे या वंश अथवा समाज के विषय में 'मुर्गीपुराण' और 'गड़बड़ तन्त्र' के आधार पर थोड़े से श्लोक बनाये देते हैं। उनको वे अथवा दूसरे लोग क्यों न मानेंगे? इसके अतिरिक्त यदि उनकी कही हुई बातें दूसरे ग्रन्थों से, जिन्हें सभी लोग मानते हैं, विपरीत न होती, तो भला कम से कम सुनने के योग्य तो वे बातें होतीं। परन्तु उन्होंने मनु भगवान् और याज्ञवल्क्य महर्षि के विपरीत लिखा हैं। क्योंकि उन दोनों महर्षियों का यह सिद्धान्त हैं कि जो सन्तान एकानन्तर अनुलोम से उत्पन्न होती हैं, अर्थात् ब्राह्मण पुरुष से क्षत्रिय स्त्री में, क्षत्रिय से वैश्य स्त्री में, वैश्य से शूद्रा स्त्री में वह क्रम से क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ही हुआ करती हैं। क्योंकि मनुजी ने लिखा हैं :
स्त्रीष्वनन्तरजातासु द्विजैरुत्पादितान् सुतान्।
सदृशानेव तानाहुर्मातृदोषविगर्हितान!॥ 6॥
पुत्रा ये नन्तरस्त्रीजा: क्रमेणोक्ता द्विजन्मनाम्।
ताननन्तरनाम्नस्तुमातृदोषात्प्रचक्षते॥ 14। अ. 10 मनु
अर्थ यह कि ''जो सन्तानें अनन्तर स्त्री से अर्थात् ब्राह्मण पिता से क्षत्रिया स्त्री में इत्यादि रीति उत्पन्न होती हैं, वहाँ वीर्य को प्रबल न मानकर वे मातृपक्ष की अर्थात् जो जाति माता की होती हैं उसी जातिवाली समझी जाती हैं। जो सन्तानें पूर्वोक्त रीति से उत्पन्न होती हैं उसमें मातृपक्ष को ही प्रबल मानकर वे उसी जातिवाली कहलाती हैं जिस जाति की माता होती हैं।'' जो याज्ञवल्क्यस्मृति के आचाराध्याय के 91वें श्लोक में लिखा हैं कि :
विप्रान्मूध्र्दावसिक्त (भिषिक्तो) हि क्षत्रियायां विश: स्त्रियाम्।
अर्थात् ''ब्राह्मण' पिता में क्षत्रिया स्त्री में मूध्र्दाभिषिक्त संज्ञावाला बालक उत्पन्न होता हैं।'' उसका भी यही अर्थ हैं। क्योंकि मनुजी के अनुसार उसे क्षत्रिय होना चाहिए और 'मूध्र्दाभिषिक्त' क्षत्रिय को ही कहते हैं। इसीलिए अमरकोष में क्षत्रियों के पर्याय में भी मूध्र्दाभिषिक्त शब्द आया हैं, जैसा कि प्रथम भी दिखला चुके हैं कि 'मूध्र्दाभिषिक्तो राजन्यो बाहुज: क्षत्रियो विराट्' अर्थात् मूध्र्दाभिषिक्त, बाहुज, राजन्य, क्षत्रिय और विराट् ये सब क्षत्रियों की संज्ञाएँ हैं। इसलिए वाल्मीकि रामायण के अयोधयाकाण्ड में श्रीरामजी ने भरत को मूध्र्दाभिषिक्त कहा हैं 'नतु मूध्र्दाभिषिक्तनाम्' अर्थात् जब उन्होंने यह प्रण किया हैं कि यदि आप अयोध्या को न लौट चलेंगे तो हम अनशन करके शरीर यही छोड़ देंगे, तो रामजी ने उत्तर दिया हैं कि अनशन करके शरीर छोड़ देना ब्राह्मणों का कर्म हैं, न कि मूध्र्दाभिषिक्तों अर्थात् क्षत्रियों का। इसलिए ऐसा करना आपको उचित नहीं हैं। महाभारत में सैकड़ों जगह मूध्र्दाभिषिक्त शब्द क्षत्रियों के लिए आया हैं और उसके साथ अन्य स्कन्दपुराण प्रभृति ग्रन्थों के देखने से भी स्पष्ट हैं कि ब्राह्मण पिता और क्षत्रिया स्त्री से उत्पन्न बालक क्षत्रिय ही होता हैं। इसके लिए कम से कम एक सौ वाक्य और दृष्टान्त केवल महाभारत में ही मिलते हैं। इसलिए अनुलोम सन्तान अलग नहीं होती। इसका सविस्तार विचार 'भूमिहार ब्राह्मण पत्रिका' के सन् 1915 ई. के नवम्बर प्रभृति मासों के अंकों में मिलेगा।
यदि 'तुष्यन्तु दुर्जनन्याय' से आपके तोष के लिए स्वीकार भी कर ले कि अलग ही होती हैं, तो भी उसका नाम 'मूध्र्दाभिषिक्त' ही होता हैं, न कि 'भूमिहार या पश्चिम'। यदि भूमिहार ब्राह्मणों की ही 'मूध्र्दाभिषिक्त' संज्ञा आप बिना प्रमाण के ही मानना चाहते हैं तो अपने ही समाज की 'मूध्र्दाभिषिक्त' संज्ञा क्यों नहीं मान लेते? क्योंकि बहुत से सर्यूपारी या कान्यकुब्ज प्रभृति दल पड़े हैं, जिनका आचार- व्यवहार इस समय भूमिहार ब्राह्मणों का-सा ही हो रहा हैं। यदि आप यह कहें कि मूध्र्दाभिषिक्त का धर्म तो रथ हाँकना या सेनापति आदि का काम करना हैं, सो तो भूमिहार ब्राह्मणों में भी नहीं पाया जाता हैं, जैसा कि अन्य ब्राह्मणों में भी नहीं हैं। इसीलिए यदि अनुलोम सन्तानों को अलग भी मानेंगे, तो उनकी ही मूध्र्दाभिषिक्त संज्ञा जुदी ही पडेग़ी, न कि वे ही कान्यकुब्ज, मैथिल, पश्चिम या भूमिहार ब्राह्मण कहे जा सकते। इसी प्रकार जब विलोम सन्तान को लेते हैं, अर्थात् क्षत्रिय पिता और ब्राह्मणी माता रहे, तो उसका नाम पूर्वोक्त महर्षियों के मत से 'सूत' सिद्ध होता हैं। जैसा कि लिखा हैं कि :
क्षत्रियाद्विप्रकन्यायां सूतो भवति जातित:। मनु. 10। अ. 11।
ब्राह्मण्यां क्षत्रियात्सूत:। याज्ञ. आचारा.॥ 93॥
अर्थात् ''ब्राह्मणी के गर्भ से क्षत्रिय के वीर्य से जो लड़का होता हैं उसे सूत कहते हैं।'' और वर्णविवेक चन्द्रिका में ऐसा लिखा गया बतलाया जाता हैं कि क्षत्रिय पिता और ब्राह्मणी माता से जो सन्तान (बालक) हुई उसका नाम भूमिहार हुआ। अब बतलाइये कि उन महर्षियों के विपरीत कहने वाले वर्ण विवेकचन्द्रिकाकार महाशय की बात सुनी भी कैसे जा सकती हैं? सुन भी उस दशा में सकते थे, यदि उनके इस कथन में कहीं से कुछ भी प्रमाण मिलता। परन्तु बिना प्रमाण के यदि कहना ठहरा तो ये अपने ही वंश को ऐसा कह ले, सो ही अच्छा होगा। क्योंकि उसमें कोई दूसरा विरोधी खड़ा न होगा। वस्तुत: यदि सत्य बात पूछी जाये-यदि उस वर्णविवेचन्द्रिका की निष्प्रामाणिक बातें मान भी ली जाये-तो भी उनसे पश्चिम या भूमिहार ब्राह्मणों की क्षति नहीं हैं। क्योंकि जैसा कि श्री ज्वालाप्रसाद मिश्र विद्यावारिधिजी ने उसके वाक्य का भ्रममूलक अर्थ कर दिया हैं और जिसका विधिवत् खण्डन अभी करेंगे, उसी के अनुसार हमने पूर्वोक्त बातें कही हैं। वस्तुत: तो वर्णविवेक चन्द्रिका में ऐसा लिखा हैं :
क्षत्रियस्य च वीर्येण ब्राह्मणस्य च योषिति।
भूमिहार्य्यभवत्पुत्रो ब्रह्मक्षत्रास्य वेषभृत्॥ 70॥
अर्थात् ''क्षत्रिय पिता के वीर्य और ब्रह्मणी माता के रज से जो लड़का उत्पन्न हुआ उसका नाम 'भूमिहारी' हुआ और उसका वेष ब्राह्मण और क्षत्रिय का-सा हुआ।'' इससे स्पष्ट हैं कि 'भूमिहारी' नामक जाति विशेष की ही उत्पत्ति वहाँ लिखी गयी हैं। इसीलिए 'भूमिहारी' शब्द के आगे 'अभवत्' शब्द के आने से ईन्कार के स्थान में सन्धि होकर 'य' हो गया और 'भूमिहार्य्यभवत्' ऐसा शब्द का स्वरूप हो गया। यदि भूमिहार ब्राह्मणों को कहना हो तो 'भूमिहार' शब्द से आगे अभवत् आने पर 'भूमिहारोभवत्' ऐसा रूप शब्दों की सन्धि होने पर हो जाता। परन्तु वहाँ तो 'भूमिहार्य्यभवत्' ऐसा ही लिखा हुआ हैं। यहाँ तक कि स्वयं ज्वालाप्रसादजी ने भी अपनी 'जातिनिर्णय' नामक पुस्तक में इस श्लोक को उध्दृत करते हुए 'भूमिहार्य्यभवत्' ऐसा ही लिखा हैं, अर्थ करने में भले ही सज्जनता और पाण्डित्य दिखलाने में नहीं चूके हैं। भूमिहारी या भुइंहारी नामक कोई शूद्र जाति हैं, जिसके मनुष्यों की संख्या 316787, तथा उस जाति का नाम 'भुइंहारी' साधुचरण प्रसाद कृत 'भारत भ्रमण' के प्रथम खण्ड के 44वें पृष्ठ में लिखा गया हैं और दरयाफ्त करने से मालूम हुआ कि यह एक व्यापार करने वाली जाति बम्बई के तरफ विशेष रूप से पाई जाती हैं और शूद्र हैं। इसीलिए वर्णविवेक चन्द्रिका में भूमिहारी जाति से पूर्व माहुरी वैश्य नामक और बाद में तेली नामक शूद्र जाति का ही निरूपण किया गया हैं। इससे स्पष्ट हैं कि वह प्रकरण वैश्य, शूद्र जाति का ही हैं। इसलिए भूमिहारी जाति वही शूद्र जाति हैं, जिसका पता बता चुके हैं। जैसे भूमिहार का अपभ्रंश भुइंहार हो गया हैं, वैसे ही 'भूमिहारी' शब्द से बिगड़कर 'भुइंहारी' हो गया हैं। इसलिए यही सिद्ध हो गया कि यदि 'वर्ण-विवेकचन्द्रिका' की बातें मान भी ली जाये तो भी इन ब्राह्मणों की कोई निन्दा या क्षति नहीं हैं।
अब विद्यावारिधिजी की दुरुक्ति रूप बडवानज्वाला का भी परिचय कर लीजिए। आप अपनी पुस्तक 'जाति निर्णय' के 86वें पृष्ठ में इसी वर्णविवेकचन्द्रिका के श्लोक ज्यों का त्यों उध्दृत करते हैं, क्योंकि यह उनका ग्रन्थ प्राय: उसी वर्णविवेकचन्द्रिका की टीका की तरह हैं। फिर उस भूमिहारी शब्द का अर्थ भूमिहार करके कोष्ठ के बीच में भैंहार लिखते हैं। यहाँ पर कई बातें विचारने योग्य हैं। एक तो विद्यावारिधिजी को यह विचारना चाहिए था कि यदि हम यह श्लोक वर्णविवेक चन्द्रिका से उठाकर लिखते हैं तो वह किसी ऋषि का प्रणीत तो हैं ही नहीं, इसलिए जिस आधार पर वह श्लोक बनाया गया हैं उस ऋषिवचन को लिख दे। परन्तु यदि विद्यावारिधि होने पर भी उसके मूल का पता न चला, तो भलेमानुसी इसी में थी कि उसे अपनी पुस्तक में लिखकर अपने आपको और उसे कलंकित भी न करते। परन्तु आपने तो यह चालाकी की कि यदि 'वर्णविवेक चन्द्रिका' इसका मूल प्रमाण लिख देते हैं, तो कोई मानेगा ही नहीं और दूसरा प्रमाण तो इस विषय में कुछ मिलता ही नहीं। इसलिए यदि झूठमूँठ ही किसी प्राचीन ग्रन्थ का नाम लेते हैं तो अन्ततोगत्वा पोल खुल ही जायेगी। तो फिर झूठा बनना पड़ेगा। इसलिए यद्यपि उससे पूर्व और बाद के श्लोकों को लिखकर उनके आगे 'इति वर्णविवेक चन्द्रिका' अर्थात् ऐसी वर्णविवेक चन्द्रिका में लिखा हैं', ऐसा लिख दिया। लेकिन इस श्लोक को लिखकर 'इति वर्णविवेक चन्द्रिका' भी न कहकर एकबारगी चुप मार गये। जिसमें अविवेकी लोग, विद्यावारिधि महामहोपदेशक पं. ज्वाला प्रसाद मिश्रजी ने यदि लिखा हैं, तो अवश्य प्रामाणिक होगा, ऐसा समझकर इन भूमिहार ब्राह्मणों को गालियाँ देने में न रुकें। वाह वाह! इसी को तो उपदेशकी कहते हैं। अवश्य आप जैसे महोपदेशकों, सुधारकों और विद्यावारिधियों की कृपा से इस दीन भारत के बह जाने में कोई विलम्ब नहीं हैं। क्यों जी विद्यावारिधिजी! यदि हम भी ऐसे ही श्लोक आपके समाज अथवा वंश के विषय में रचाकर छपवा दे और अपने को महामहोपदेशक लिखने लग जाये तो आप उन्हें मानेंगे या नहीं? हमारी समझ से तो आप कोई भी उज्र नहीं कर सकते।
जब आपने, जैसा कि हमने कह दिया हैं, जैसे अनुलोम सन्तानों को अलग लिखा हैं वैसे ही विलोम को भी प्रथम को मूध्र्दाभिषिक्त और दूसरे को सूत लिखा हैं और इसमें पूर्वोक्त मनु और याज्ञवल्क्य के ही वचन प्रमाण दिये हैं, तो फिर उनके विपरीत और अपने ही पूर्वापर लेख के विपरीत ही कैसे ऐसा लिख दिया? जब क्षत्रिय पुरुष और ब्राह्मणी स्त्री से सूत की उत्पत्ति लिखते हैं, तो फिर उन्हीं दोनों से भूमिहारों की उत्पत्ति लिखते हुए क्या आपको शर्म न आई? क्या इसी बुद्धि से वेदों के भाष्य बने हैं? यदि इस विषय में कोई स्वकपोलकल्पित व्यवस्था करें भी, तो जब आपने स्वयं उसी पुस्तक के 32वें पृष्ठ में कान्यकुब्ज या अन्य काश्यप गोत्री ब्राह्मणों की उत्पत्ति भूमिहार (भुइंहार) ब्राह्मणों से लिखी हैं, तो फिर यहाँ आकर क्यों अर्थ का अनर्थ करने लग गये? क्या इतना भी विचार न रहा कि हम प्रथम क्या लिख चुके हैं और अब क्या लिखते हैं? क्या आप इन ब्राह्मणों को अपनी पुस्तक में लिखे हुए भूमिहार ब्राह्मणों से भिन्न समझते हैं? क्या ऐसा समझने में आपके पास कोई प्रमाण हैं? यदि आपकी समझ ऐसी ही हैं, तो फिर अपने को भी उसमें या अन्यत्रा लिखे गये कान्यकुब्जों, सर्यूपारियों या गौड़ों से भिन्न समझने में आपको कोई सन्देह ही न होगा। क्योंकि आप उन्हीं ब्राह्मणों में से हैं, क्या इसकी रजिस्टरी या हुलिया आपके पास हैं और भूमिहार ब्राह्मणों के पास नहीं हैं?
यदि उस श्लोक में 'भूमिहार्यभवत्' ऐसा लिखा हुआ हैं तो आपने भूमिहारी अभवत् ऐसा पदच्छेद न करके भूमिहार: अभवत् ऐसा पदच्छेद किस व्याकरण की रीति से किया हैं? क्या वेदों के भाष्यों की तरह कोई नया व्याकरण भी आपने ही बना लिया हैं? क्या इसीलिए विद्यावारिधि की पदवी मिल से मिल गयी हैं? अथवा विद्या को डुबोकर रसातल भेजने से ही इस महती पदवी से अलंकृत हुए हैं? या जैसे आपकी और सब बातें कल्पित हैं वैसे ही यह उपाधि भी? आपके वारिधि होने का एक प्रबल प्रमाण यह तो अवश्य हैं कि इन निर्दोष ब्राह्मणों के लिए कपोलकल्पित कटूक्ति रूप बड़वानल का प्रयोग आपने खूब ही किया हैं और यह बात आपको शोभा भी देती हैं। क्योंकि ज्वाला प्रसाद ही जो ठहरे! उसमें भी पण्डित और मिश्रजी! और फिर जो आपने भूमिहार का भैंहार अर्थ किया, वह किस प्रमाण और तात्पर्य से यह समझ में नहीं आता। शायद आपके भीतर यह छल भरा हुआ था कि यदि कोई भूमिहार ब्राह्मण हमसे जवाब-तलब करेगा और बिना प्रमाण होने से मानहानि का दावा हमारे सिर ठोंक देगा, तो इस छल से बच जायेगे कि हमने तो वह भैंहार जाति के विषय में लिखा हैं, न कि भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में। परन्तु शोक तो इस बात का हैं कि आप भैंहार नाम वाली जाति बतला नहीं सकते। इसलिए हारकर मान लेना ही पड़ेगा कि भूमिहार शब्द के अपभ्रंश भुइंहार का ही अपभ्रंश करके आपने वैसा लिखा हैं।
पाठकवृन्द! हम इस विषय में विद्यावारिधिजी की विशेष बौछार रूप सज्जनता का परिचय दिलाते हैं, और विद्यावारिधिपने का भी। इन ब्राह्मणों के ऊपर आपका विशेष अनुग्रह प्रतीत होता हैं। इसीलिए अपनी अति भयकर लहरों से इस समाज को बहा देने के लिए जी-जान से कटिबद्ध हैं। क्योंकि आप और आपके भाई दोनों ने मिलकर कर्नल टाड साहब के 'राजस्थान' नामक अंग्रेजी ग्रन्थ की हिन्दी टीका और टिप्पणी की हैं। उसमें भी भूमिहार ब्राह्मणों की खूब ही खबर ली हैं। सभी इतिहासज्ञों और मनुष्यगणना के विवरणों के पढ़ने या जानने वालों को विदित हैं कि भुइंया, भूमियाँ अथवा भोमियाँ नाम की एक जंगली जाति हैं, जो बिहार के सन्थाल परगने वगैरह प्रान्तों, मिर्जापुर के पहाड़ों अथवा राजपूताने के प्रान्तों आदि में विशेष रूप से पाई जाती हैं, जो कहीं-कहीं पर राजपूताने वगैरह में, जहाँ पर जाट लोग विशेष रूप से पाये जाते हैं, प्राय: उन्हीं में मिली हुई हैं और अन्यत्रा अन्य जंगली जातियों के साथ उसका मेल हैं। अथवा कहीं-कहीं स्वतन्त्र ही हैं। इसके सिवाय जयपुर के शेखावाटी प्रदेश और अलवर राज्य में बहुत से गौड़ ब्राह्मण भी भूमियाँ कहे जाते हैं, क्योंकि बड़े-बड़े जमींदार हैं। मगर उनका न तो यहाँ प्रसंग ही हैं और न विद्यावारिधि का अभिप्राय ही ऐसा हैं। उसी जाति का विशेष रूप से राजपूताने के इतिहास 'राजस्थान' में कर्नल टाड साहब ने वर्णन किया हैं और कहीं-कहीं उसका नाम 'भोमियाँ' (Bhomia) और कहीं-कहीं 'जाट भोमियाँ' (JatBhomia) लिखा हैं। परन्तु सबन्धु विद्यावारिधिजी ने कृपा करके जाट शब्द को तो एक प्रकार से एक बारगी छोड़ ही दिया हैं और भोमियाँ (Bhomia) शब्द का हिन्दी अनुवाद 'भूमिहार' कर दिया हैं, जिससे लोगों को साफ ही धोखा हो सकता हैं। यदि वे लोग अंग्रेजी न पढ़े हों, तो उनके लेखानुसार इन भूमिहार ब्राह्मणों को जंगली जाति ही समझ ले। भला भूमियाँ या भोमियाँ शब्द की जगह भूमिहार शब्द लिखना कौन बुद्धिमानी हैं? शायद आपको किसी कोष में भोमियाँ शब्द का ऐसा अर्थ मिला होगा। अच्छा तो होता यदि सभी इतिहासों और मनुष्य गणना के विवरणों का हिन्दी अनुवाद करके भूमियाँ शब्द का भी हिन्दी अनुवाद कर डालते, जिससे लोगों को सन्देह की जगह ही न रह जाती और अन्य जातियों के नामों का मनमाना हिन्दी अर्थ करके जिस- जिससे चाहते बदला चुका लेते। अब हम उन दो-चार स्थलों को दिखला देते हैं, जहाँ पर आपने ऐसी कारीगरी की हैं और वहाँ का अंग्रेजी अंश भी लिखकर दिखला देना चाहते हैं कि आपके हिन्दी अनुवाद का मूल अंग्रेजी ग्रन्थ से कितना सम्बन्ध हैं, जिससे आपकी योग्यता और विद्यावारिधिता का पता लोगों को भी चल जाये।
कर्नल टाड ने अपने 'राजस्थान' के प्रथम भाग 200वें पृष्ठ में जयपुर के इतिहास में ऐसा लिखा हैं :
When the tidings of this fatal event were conveyed to Salibahan, for 12 days the ground became his bed. He at length reached the Punjab where he fixed on a spot with abundance of water, and having collected his clansmen around him he laid the foundation of a city which is named after him Salibahanpur. The surrounding Bhumias attended and acknowledge his supremacy. 72 years of the era of Vikrama had elapsed when Salibahanpur was founded upon Sunday the 8th of the month of Bhadon.
इसका अनुवाद मिश्रजी ने स्वरचित हिन्दी 'राजस्थान' के प्रथमाध्याय, द्वितीय भाग, जैसलमेर के इतिहास प्रसंग के 470वें पृष्ठ में इस प्रकार किया हैं:-''जब यह हृदयभेदी शोचनीय संवाद शालिवाहन तक पहुँचा तब वह महाशोक समुद्र में मग्न होकर 12 दिन तक पृथ्वी पर सोये और अन्त में उन्होंने पंजाब में आकर नदनदी और तड़ागादि पूर्ण एक देश में सबको इकट्ठा किया और नवीन राजधनी स्थापित करने के उपरान्त अपने नाम के अनुसार उस नगर का नाम शालिवाहनपुर रखा। उनकी नवीन राजधनी के चारों ओर के आदि भूमिहारों ने आकर उनको अधीश्वर स्वीकार किया। महाराज विक्रमादित्य के प्रचलित किये संवत् 72 के भादों के महीने की अष्टमी, रविवार के दिन शालिवाहनपुर नामक राजधनी प्रतिष्ठित हुई थी।''
एक तो इस अनुवाद में मूलग्रन्थ का भाव ठीक नहीं आया हैं। दूसरी बात यह हैं कि 'तब वह महाशोक सागर में मग्न होकर' इत्यादि वाक्य ऊपर से घुसेड़े गये हैं और तीसरी यह कि मूलग्रन्थ के भूमियाँ (Bhumia) शब्द का 'भूमिहार' अर्थ जबर्दस्ती किया गया हैं और उसमें 'आदि' यह विशेषरूप से पैबन्द अपने पास से जोड़ा गया हैं, जिसमें कुछ छल भरा होगा। अस्तु, अभी और लीला देखिये। आगे चलकर टाड साहब 203वें पृष्ठ में इस प्रकार लिखते हैं :
When Mangal Rao fled from the King his children were secreted in the houses of his subjects. A Bhumia named Satidas, of the tribe of Tak, whose ancestors had been reduced from power and wealth by the ancestors of the Bhatti prince, determined to avange himself and informed the king that some of the children were concealed in the house of a banker (Sahookar). The king sent the Tak with a party of troops and surrounded the house of Shridhar, who was carried before the king where he would put all his family to death, if he did not produce the young prince of Salibahan. The alarmed banker proiested that he had no children of the Raja’s, for that, the infants who enjoyed his protection were the offspring of a Bhomia, who had fled on the invasion, deeply in his debt. But the king ordered him to produce them, he demanded the name of their village, sent for the Bhumias belonging to it, and not only made the royal infants of Salibahan eat with them but marry their daughters. The banker had no alternative to save their lives but to consent; they were brought forth in the peasant’s garb, ate with husbandmen (jatt) and were married to their daughters. Then of spring of Kulur-Raj became Kulloorea Jatts. Those of Mond Raj and Shiva Raj, Monda and Sheora Jatts, while the younger Phool and Kevala, who were Passed as a barber (Nai) and a potter (Khomar) fell into the class.
विद्यावारिधिजी ने इसका अनुवाद यों किया हैं : ''जिस समय मंगल राव अपने पिता के राज्य से भाग गये उस समय उनके पुत्रों की रक्षा प्रजा ने गुप्तभाव से की थी। तक्षक जातीय सतीदास नाम का एक भूमियाँ था, जिसके पूर्व पुरुष गण पुरातन भट्टी राजाओं के द्वारा सामर्थ्यहीन हो अत्यन्त दीन दशा में पड़े थे। उसने पिता का प्राचीन बदला लेने की इच्छा से विजय पाये हुए म्लेच्छराज से प्रगट किया कि मंगलराव के कितने ही पुत्र और कुटुम्ब के मनुष्य इसी नगर में एक महाजन के घर रहते हैं। म्लेच्छराज ने उसके यह वचन सुनकर शीघ्र ही अपनी सेना को उसके साथ भेज दिया। सतीदास उस सेना के साथ उक्त श्रीधर महाजन के घर गया और उसको पकड़कर राजा के सम्मुख ले आया। म्लेच्छराज ने श्रीधर से कहा कि यदि तुम शालिवाहन के प्रत्येक राजकुमार को मेरे सम्मुख नहीं लाओगे, तो याद रखो कि तुम्हारे कुटुम्ब में एक को भी जीता न छोड़ुगा। इस पर महा भयभीत होकर महाजन श्रीधर ने विनय करके म्मेच्छाराजा के सम्मुख निवेदन किया कि मेरे यहाँ राजा का एक पुत्र भी नहीं हैं। जो कई बालक मेरे यहाँ रहते हैं वह एक भूमियाँ के पुत्र हैं। वह भूमियाँ मेरे ऋण से बँधा हुआ इस युद्ध के समय भाग गया हैं। म्लेच्छराज ने महाजन के उन वचनों पर किंचित भी ध्यान नहीं दिया और शीघ्र ही बालकों को अपने सम्मुख लाने की आज्ञा दी। जब महाजन श्रीधर ने देखा कि राजकुमारों के प्राणों की रक्षा के और कोई उपाय नहीं हैं तब उनके प्राणों की रक्षा करने के लिए वह म्लेच्छराजा की आज्ञानुसार कार्य करने में सम्मत हुआ। शीघ्र यदुवंशी राजकुमार किसान के बालक के वेष में म्लेच्छराजा के सम्मुख लाये गये और म्लेच्छराजा ने उनके साथ भूमिहारों की कन्या का विवाह कर दिया। इस प्रकार से शालिवाहन के वंश में उत्पन्न सम्पूर्ण राजकुमार जो श्रीधर के घर में थे उनमें कलोर के पुत्र कलोरिया जाट, मुंदराज और श्योराज के पुत्र मुंदाजत और शिवराजत नाम से विख्यात हुए। कुमार फूल और कुमार केवला का नाई और कुम्हार के पुत्र कहकर म्लेच्छराजा के सन्मुख परिचय दिया था, इस कारण उन दोनों जनों के वंश वाले उन दोनों श्रेणियों में गिने गये।
यह अनुवाद मूलग्रन्थ से प्राय: सम्बन्ध नहीं रखता। बहुत जगह ऊपर से मिला भी दिया गया हैं, और मूलग्रन्थ में कितने ही वाक्य छोड़ भी दिये गये हैं। साथ ही, श्योरा जाट और मुंदा जाट जो मूल में लिखे गये हैं, उनको शिवराजत और मुंदाजत लिखा गया हैं, अंग्रेजी में जो 'जाट' (Jatt) शब्द लिखा गया हैं उसका 'जत' अर्थ किया हैं। इसमें छल तो ऐसा हैं इस इतने लेख में मूलग्रन्थ में 3 या 4 जगह भूमियाँ (Bhoomia) शब्द आया हैं जिनमें से और जगह तो आपने उसका दूसरा अर्थ न कर केवल 'भूमियाँ' ही लिख दिया हैं, परन्तु एक जगह मध्य में उसका अर्थ 'भूमिहार' कर दिया, जिससे लोग धोखे में पड़ जाये कि उन्होंने भूमियाँ का अर्थ 'भूमिहार' नहीं किया हैं किन्तु सचमुच ही कोई और 'भूमिहार' जाति वहाँ थी, जिसकी लड़कियों का विवाह शालिवाहन के लड़कों से हुआ। भला इस सज्जनता का कहीं ठिकाना हैं? आगे चलकर जब फिर 'कर्नल टाड' ने अपने ग्रन्थ के तृतीय परिच्छेद, आमेर व जयपुर के ही इतिहास के 341वें पृष्ठ में बदनसिंह का इतिहास लिखते हुए साफ-साफ लिखा कि ''And when through the intercession of Jey Singh and guarantee of the Bhumia Jatts he was liberated'' अर्थात् जब जयसिंह के बीच में पड़ने और अन्य भूमियाँ जाटों की जिम्मेदारी पर बदनसिंह छोड़ दिया गया'' इत्यादि। तो आप वहाँ भी भूमियाँ जाट का अर्थ 'भूमिहार जाट' करने में न चूके, जिससे भूमिहार ब्राह्मणों को जाट ही बना डालने में कोई सन्देह न रह जाये। इस प्रकार से उस पुस्तक-भर में बहुत सी जगहें हैं, जहाँ पर इन मिश्र बन्धुओं की विचित्र लीला देखने में आती हैं। कहीं तो आप 'भूमियाँ' ही लिख डालते हैं परन्तु कहीं पर उसकी ही जगह 'भूमिहार'। शायद ऐसी चाल चलने में लोगों को पूर्वोक्त धोखा देने के अतिरिक्त आपने अपने 'जातिनिर्णय' में लिखे गये 'भूमिहार' शब्द पर आक्रमण होने पर उससे बचने के लिए यह भी उपाय सोचा हो कि हमने तो अन्य ही भूमिहारों के विषय में, यह बात लिखी हैं, न कि भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में, ऐसा कह कर निकल जायेगे। इससे स्पष्ट हैं कि विद्यावारिधि जी भूमिहार ब्राह्मणों की खबर लेने के पीछे जी-जान से पड़े हैं। परन्तु विद्यावारिधि महाशय! स्मरण रहे, ब्राह्मणों से लगने से किसी का कल्याण नहीं हुआ। यदि एक भी ब्राह्मण की दृष्टि बदल जाये, तो वारिधि का पता न लगेगा।
अब 'भूमिहारोत्पत्ति' नामक ग्रन्थ के तत्त्वों को देखिये। यह ग्रन्थ डुमराँव के भूतपूर्व पं. दुर्गादत्ता परमहंसजी के वंशजों के परमप्रिय शाकद्वीपी अक्षयवट मिश्र ने पं. शिवबालक त्रिपाठी के नाम पर लिखा और अपने नाम पर उसका मिथ्या भाषानुवाद करके सीधो-सादे चौधुरी अविलम्ब रायजी डुमराँव निवासी भूमिहार ब्राह्मण के नाम पर प्रकाशित करवाया हैं। जिससे उसके विषय में कानून से भूमिहार ब्राह्मण समाज को बोलने की जगह न रह जाये और फिर उक्त परमहंसजी के वंशजों ने ही चेलों में उसे मुफ्त बाँट दिया। प्रथम तो जिस स्कन्दपुराण के 11वें अध्याय में इस बात को वे बतलाते हैं, यदि उसी अध्याय में हमें आज मुद्रित पूर्वोक्त पुराण में उसे दिखला दे तो हमें भी उनकी बुद्धिमत्ता का पता लग जाये। हाँ, धर्मारण्य महात्म्य के 10वें अध्याय में इस प्रकार का एक आख्यान आता हैं। परन्तु उस आख्यान और इस पुस्तक में लिखे हुए आख्यान में बहुत अन्तर हैं। एक तो उस अध्याय में 60 श्लोक मिलते हैं, परन्तु आपकी पुस्तक में 55 ही। दूसरी बात यह हैं कि जिस 'कुचर' शब्द का आप कई जगह प्रयोग इस पुस्तक में करते और उसका अर्थ जबर्दस्ती भूमिहार करते हैं, उसका पता उस ग्रन्थ में हैं ही नहीं, किन्तु उसकी जगह 'कुमार' शब्द आया हैं और जो भी श्लोक आपने लिखे हैं, वे मुद्रित श्लोकों से आधे मिलते हैं, परन्तु आधे नहीं मिलते। इसके अतिरिक्त आप पुस्तक के अन्त में लिखते हैं कि: ''इति श्रीस्कन्द पुराणे पातालखण्डे धर्मारण्य महात्म्यवर्णने भूमिहारोत्पत्ति वर्णन नापैकादशोऽध्याय:''। इसका अर्थ यह लिखा हैं कि ''इति श्रीस्कन्दपुराण के पाताल खण्ड में धर्मारण्य महात्म्य वर्णन में भूमिहारोत्पत्ति वर्णन नामक ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ।''
परन्तु हम समझते हैं कि इस पुस्तक लिखने के समय लेखकजी की बुद्धि रसातल में ही चली गयी थी। इसीलिए रसातल के समीपवर्ती पाताल खण्ड में लिखी गयी यह बात उन्होंने बतलाई हैं। क्योंकि स्कन्दपुराण में तो पातालखण्ड हैं ही नहीं। जैसा कि लिखा हैं कि :
माहेश्वरोवैष्णवब्राह्मकाश्यास्त्ववन्तिका नागरमत्रा षष्ठम्।
प्राभासिकोविप्रवरेणखण्डा: स्कान्देपुराणेकथिता: सुपुण्या:॥
अर्थात् ''स्कन्दपुराण में माहेश्वर, वैष्णव, ब्राह्म, काशी, अवन्तिका, नागर और प्रभास ये सात ही खण्ड हैं।'' इसीलिए पूर्वोक्त कथा ब्राह्मखण्ड में ही मिलती हैं। परन्तु वहाँ भी अन्त में ऐसा नहीं लिखा हैं, जैसा कि आप लिखते हैं कि ''भूमिहारोत्पत्ति वर्णन समाप्त हुआ। किन्तु वहाँ तो यह लिखा गया हैं कि इस अध्याय में बनियों की उत्पत्ति और वाडवों (ब्राह्मणों) की सेवा के लिए उनके स्थापन का वर्णन हैं। जैसा कि लिखा हैं कि :
इति श्रीस्कान्देमहापुराणे एकाशीतिसाह् यांसंहितायां तृतीये ब्राह्मखण्डे पूर्वभागे धर्मारण्यमाहात्म्ये वाणिक्परिग्रहवर्णनंनाम् दशामोऽध्यायं।
अर्थात् ''इक्यासी हजार श्लोक वाले स्कन्दमहापुराण के तृतीय ब्रह्मखण्डान्तर्गत पूर्व भाग के धर्मारण्य महात्म्य प्रसंग में वणिक् लोगों की उत्पत्ति प्रभृति का वर्णन नामक दशम् अध्याय समाप्त हुआ।'' इसलिए भूमिहारोत्पत्ति लिखना केवल आँख में धूल झोंकना हैं। इसीलिए उस अध्याय भर में बीसों जगह वणिक् शब्द उन अनुचरों के लिए आया हैं और उनकी संज्ञा (नाम) गोभुज बतलायी गयी हैं। परन्तु आपने ऐसा यत्न किया हैं कि बहुत से 'वणिक' शब्दों को निकाल ही दिया हैं और यदि दो-एक को रखा भी हैं, तो उसका अर्थ बनिया न करके 'भूमिहार' किया हैं और बहुत से 'वणिक' शब्दों की जगह 'गोभुज' शब्द या 'कुचर' शब्द लिखकर इन दोनों शब्दों का अर्थ भूमिहार ही किया हैं। जैसा कि वहाँ एक श्लोक यों हैं :
अन्नपानादिकं सर्वं समित्कुशफलादिकम्।
आपूरयन् द्विजातीनां वणिजस्ते गवात्मजा:॥
जिसका अर्थ यह हैं कि ''कामधेनु द्वारा उत्पन्न किये गये वे वणिक् (बनिये) उन ब्राह्मणों के अन्न, पान, समित, कुश और फल वगैरह लाया करते थे।'' परन्तु आप अपनी पुस्तक में उसमें और सब ज्यों का त्यों लिखते हैं, केवल 'गवात्मजा:' इस पद की जगह 'गोभुजा:' लिखते हैं और उसका अर्थ करते हैं कि ''कि वे सब गोभुज (भूमिहार) दिव्य सुन्दर पवित्र धर्मारण्य में बसकर अन्न, जल, लकड़ी, कुश, पुष्प,फल आदि पदार्थों को समय-समय पर लाकर उन सब ब्राह्मणों का कार्य पूर्ण करने लगे।'' इससे पूर्व के श्लोक में लिखा हैं कि 'वाणिजश्चमहादक्षा द्विजशुश्रुषणोत्सुका:।' अर्थात् ''वे वणिक् बहुत कुशल और ब्राह्मणों की सेवा में उत्कंठित थे।'' परन्तु इस 'वणिक्' पद का अर्थ भी आपने 'भूमिहार' ही किया हैं। इसके बाद लिखा हुआ हैं कि :
वणिक्पत्नी प्रकुरुते कण्डनं पेषणादिकम्।
अर्थात् ''उन बनियों की स्त्रियाँ उन ब्राह्मणों के अन्न कूटतीं और पीसती थीं। परन्तु आप लिखते हैं कि ''उन गोभुजों (भूमिहारों) की स्त्री ब्राह्मणों के गृह में कूटना-पीसना आदि सकल गृह कार्यों से सेवा करने लगीं'', इससे प्रथम ही एक स्थान में लिखा गया हैं कि :
गृहीत्वा प्रददौ सर्वावणिग्भ्यश्च तदा नृप।
अर्थात् ''हे राजन् गन्धार्वराज ने सभी कन्याएँ उन वणिकों (बनियों) को दे दीं।'' परन्तु आप 'वाणिग्भश्च' इस शब्द की जगह 'गोभुजेभ्य:' ऐसा पद लिखकर ऐसा अर्थ करते हैं कि ''हे राजन् उन सब कन्याओं को लाकर उन गोभुजों (भूमिहारों) के साथ शिवजी ने विवाह कर दिया।'' तात्पर्य यह हैं कि उन ब्राह्मणों की सेवा के लिए 36000 वणिक् उत्पन्न किये गये थे, जिनका नाम गोभुज था। इसीलिए 'गोभुजा ये वणिग्वरा:' 'गोभुजेभ्य: प्रदीयताम्' वगैरह वाक्यों में 'गोभुज बनियों को दे दो' इत्यादि लिखा गया हैं और उसी धर्मारण्य महात्म्य के 32वें अध्याय में स्पष्ट शब्दों में वैश्य लिख दिया हैं। जैसा कि-
षट्त्रिांशच्च सहस्त्राणि वैश्या धर्मपरायणा:।
आर्यवृत्तास्तु विज्ञेया द्विजशुश्रूषणे रता:॥ 40॥
अर्थात् ''उस धर्मारण्य में धर्म परायण, परम सदाचारी 36000 वैश्य थे और वाडवों (ब्राह्मणों) की सेवा में दिन-रात लगे रहते थे।'' इसीलिए उस अध्याय-भर में वणिक् और गोभुज शब्द लगातार उनके लिए आते गये हैं। परन्तु आपने सभी जगह अपनी अगाध पण्डिताई से उनका अर्थ 'भूमिहार' किया हैं। और कहीं-कहीं कुचर शब्द भी ऊपर से डालकर उसका अर्थ भी ऐसा ही किया हैं। इससे आपकी सज्जनता और ब्राह्मणता का पूर्ण परिचय मिलता हैं।
अच्छा पण्डितजी! भला यह तो बतलायें कि 'वणिक्', 'गोभुज' और 'कुचर' इन तीनों शब्दों का जो आपने भूमिहार अर्थ किया हैं, उसमें कोई कोष, व्याकरण अथवा निरुक्त आदि प्रमाण हैं, या केवल गपोड़ा ही हाँका गया हैं। यदि ऐसा ही मनमाना अर्थ करना था, तो उसका 'मिश्र' अर्थ करके अपने ही वंश में क्यों न लगा लिया? दूर तक परेशान होने की आवश्यकता ही क्या थी? यदि शायद आपने ऐसा अर्थ लगाया हो कि गो+भुज अर्थात् पृथ्वी के पालने वाले और कु+चर पृथ्वी (भूमि) को प्राप्त करने वाले। क्योंकि गो नाम पृथ्वी का हैं और 'भुज' धातु पालने अर्थ में हैं। इसी प्रकार 'कु' नाम भूमि का हैं और 'चर' धातु का अर्थ 'प्रति' हैं, जिससे प्राप्ति भी ली जाती हैं। तो फिर गो नाम गाय का हैं और भुज धातु का भोजन भी अर्थ हैं। अर्थात् गौ को ही खा जाने वाला कसाई ऐसा ही अर्थ क्यों न कर लिया? इसीलिए तुलसीदासजी ने भी 'मरु मालव महिदेव गवाशा' इस जगह गवाश का अर्थ गौ को भक्षण करने वाला कसाई किया हैं। इससे भी अच्छा होता कि उसका अर्थ ऐसा कर लेते कि कुचर अर्थात् पृथ्वी में घूमने वाला, यानी भिक्षा वगैरह के लिए जो दिन-रात ईधर-उधर घूमा करे ऐसा ब्राह्मण ही कुचर कहलाता हैं। इसीलिए सत्यनारायण की कथा में लिखा हैं कि 'ब्राह्मणोऽतिदरिंद्रोऽहं भिक्षार्थ भ्रमणं मम।' अर्थात् 'मैं अति दरिद्र ब्राह्मण भिक्षा के लिए पृथ्वी में घूमा करता हूँ। तो ऐसा करने से आप ही 'कुचर' कहलाते और वह वृतान्त आपके ही वंश का हो जाता, जिससे आपको अपने वंश का इतिहास पृथक् न लिखना पड़ता। इसी प्रकार से गोभुज का भी अर्थ गाय की भुजा या पूँछ पकड़ने वाला (क्योंकि गोदान के समय आपके भाई पुरोहित लोग ऐसा किया, कराया करते हैं) ऐसा करके अपने ही वंश के विषय में उसे क्यों न लगा लिया?
अथवा वे गोभुज वणिक् पृथ्वी को फाड़कर बाहर आये थे, इसीलिए गो भुज कहलाते थे। क्योंकि 'भुज' धातु का अर्थ 'तोड़ना' भी होता हैं और देवताओं ने ही उन्हें भूमि से इस प्रकार निकाला था। और आपका याचक समाज भी भूसुर कहलाता हैं, जिसका वही अर्थ हो सकता हैं कि भूमि से देवताओं द्वारा उत्पन्न किये (पाये) गये। क्योंकि सृ धातु का गति अर्थ हैं और गति कहते हैं प्राप्ति को भी। इसलिए वे सभी बातें आप में ही घट जायेगी। आप दूसरे की उत्पत्ति के लिए क्यों व्यग्र हैं? इसलिए मनमाना अर्थ करने से आप ही का ठिकाना न लगेगा। 'त्रिपाठी और मिश्रजी! जैसी बिना सिर-पैर की मिथ्या रचनाएँ आप लोग इस ब्राह्मण समाज के विपरीत किया करते हैं, वैसी ही सहस्रों रचनाओं का आपके समाज या वंश के विषय में करना कुछ कठिन नहीं हैं, जिन्हें देखते ही आपकी सुबुद्धि ठिकाने आ जाये। परन्तु हम ऐसी सज्जनता करना नहीं चाहते। ये सब बातें आप ऐसे ही पण्डितों और सज्जनों को मुबारक हों।
जैसी दृष्टि आपने गोभुज वणिकों के ऊपर दी हैं, वैसी ही यदि उन ब्राह्मणों पर दृष्टि दी होती, जिनकी सेवा के लिए वे वणिक् उत्पन्न किये गये, तो यह होता कि अयाचक ब्राह्मणों की सच्ची स्थिति का परिचय आपको अवश्य ही लग गया होता। क्योंकि हम प्रथम प्रकरण में ही यह अच्छी तरह से दिखला चुके हैं कि वे सभी ब्राह्मण धर्मारण्य का राज करते और याजन, अध्यापन एवं प्रतिग्रह से रहित होकर इन भूमिहार ब्राह्मणों के ही सदृश त्रिकर्मा थे। और आपका पुरोहित समाज तो त्रिकर्मा होना स्वीकार नहीं करता और वास्तव में हैं भी नहीं। इसलिए वे धर्मारण्यस्थ ब्राह्मण भूमिहार ब्राह्मणों द्वारा पूर्व पुरुष न थे तो और कौन थे? यह बात भी हम प्रबल प्रमाणों द्वारा पूर्व प्रकरण में ही सिद्ध कर चुके हैं कि उन्हीं ब्राह्मणों के वंशजों का प्रथम भूमिहार नाम या विशेषण पड़ा। यह भी तो आप विचारें कि प्रथम घर दीया जलाकर पश्चात् मस्जिद में जलाया हैं। इसलिए भूमिहार ब्राह्मणों की उत्पत्ति की चिन्ता में आप क्यों पड़े हैं? प्रथम सर्यूपारियों, शाकद्वीपियों या कान्यकुब्जों की उत्पत्ति का तो पता लगाइये। क्योंकि वेदों, पुराणों या स्मृतियों में तो केवल ब्राह्मण की ही उत्पत्ति लिखी गयी हैं। वहाँ तो सर्यूपारी, शाकद्वीपी या कान्यकुब्ज शब्द का नाम भी नहीं हैं और विशेषत: शाकद्वीपी का।
अस्तु, यह तो हुई पं. दुर्गादत्ता परमहंसजी के वंशजों अथवा प्रियपात्रों की काली करतूत। अब स्वयं परमहंसजी की ही पण्डिताई और परमहंसता देखिये। आपके बनाये हुए स्वकीय 'दिग्विजय' नामक ग्रन्थ और उसकी मिथ्या उक्तियों का परिचय भूमिका में अच्छी तरह से देख चुके हैं। अब केवल यही दिखलाना हैं कि आपने अपनी शुभ लेखनी से भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में क्या लिखा हैं और वह कहाँ तक सत्य हैं। आपकी उस पोथी का नाम हैं 'श्रीमद्योगिवर्य विप्रराजेन्द्र दिग्विजय'। जो डुमराँव में संवत् 1941 में छपी हैं। उसके 28वें पन्ने में ऐसा लिखा हुआ हैं:
रक्षणार्थं च विप्राणां भूमिहारोऽपिचाभ्यगात्॥ 21॥
अर्थात् 'इसी प्रकार से ब्राह्मणों की रक्षा के लिए भूमिहारों की भी उत्पत्ति हुई।' इसी श्लोक की टीका करते हुए लिखते हैं :
एवं परशुरामानुकम्पया भूमिहारोऽप्यभूदित्याह रक्षणार्थमिति। तदुक्तं स्कान्दे धर्मारण्यखण्डे, तद्यथा 'अनुतान्ब्राह्मणान्दृष्ट वा निश्शिरस्कान्कृतान्भुवि। कृतवान्यामग्न्यो हि तत: प्राह: पलायितान्॥ विप्रा वयं क्षमस्वागो ब्रु वतस्तान्मुनीश्वर:। भवक्ष्वं ब्राह्मणा यूयं धर्मतो विप्ररक्षका:॥' इत्यादिना तत्रौव विस्तार:।
इसका भावार्थ यह हैं कि 'इसी प्रकार भूमिहार लोग भी परशुरामजी की ही कृपा से हुए, इसी बात को मूल ग्रन्थ में 'रक्षणार्थं च' इत्यादि श्लोक द्वारा दिखलाया हैं कि जब परशुरामजी ने बहुत से क्षत्रियों का सिर काट उन्हें भूमि पर गिरा दिया, तो उस समय बहुत से क्षत्रियों ने अपने को ब्राह्मण बताकर भागना शुरू किया और कहा कि हम लोग ब्राह्मण हैं, हमारा अपराध क्षमा कीजिये। इस पर परशुरामजी ने उनसे कहा कि अच्छा, जाओ, आज से तुम लोग ब्राह्मण धर्मवाले हो जाओ और ब्राह्मणों की रक्षा किया करो, इत्यादि वार्ता उसी जगह विस्तारपूर्वक लिखी गयी हैं।
इस कथन में बड़ी-बड़ी विचित्रताएँ भरी हुई हैं। प्रथम तो यह हैं कि आप भूमिहार ब्राह्मणों की उत्पत्ति या स्थिति इस प्रकार की लिखते हैं, परन्तु आपके ही प्यारे सम्बन्धी लोग इससे विपरीत ही लिखते हैं। इसलिए प्रथम आप लोग घर में ही निपटारा करा ले कि दोनों में कौन झूठा हैं और कौन सच्चा। क्योंकि एक को तो अवश्य ही मिथ्याभाषी मानना होगा, क्योंकि एक ही बात दो विरुद्ध प्रकारों की हो ही नहीं सकती। आपके मुकाबिले में तो उनकी ही बात मानी जा सकती हैं, क्योंकि उन्होंने कुछ गलत या सही वहाँ का ग्रन्थ तो लिख दिया हैं, चाहे अर्थ करने में भले ही अनर्थ कर गये हैं। इसीलिए उनकी बात पहले ही खण्डित हो चुकी हैं। परन्तु आपके पूर्वोक्त कथन में तो कुछ प्रमाण नहीं हैं। आप पूर्वोक्त स्वकपोलकल्पित श्लोकों को 'धर्मारण्यखण्ड' के बतलाते हैं, परन्तु वहाँ परशुरामजी का प्रसंगमात्र भी नहीं हैं। तो फिर उन श्लोकों का वहाँ पता कैसे लग सकता हैं? धर्मारण्य महात्म्य नाम का एक प्रकरण स्कन्दपुराण के ब्रह्मखण्ड में हैं, न कि धर्माख्य खण्ड नाम का कोई खण्ड स्कन्दपुराण में हैं, जैसा कि प्रथम में ही दिखला चुके हैं। उस धर्मारण्य महात्म्य में भी केवल 40 अध्याय हैं, जिनमें भगवान् रामचन्द्रजी की धर्मारण्य में यात्रा और ब्राह्मणों का विशेष रूप से वर्णन हैं। वहाँ तो परशुरामजी का कोई भी प्रसंग आया ही नहीं। हाँ, उसी पुराण के केवल नागर खण्ड में एक जगह हाटकेश्वर महात्म्य वर्णन प्रसंग से परशुरामजी की लीला का वर्णन आया हैं, जैसा कि प्रथम प्रकरण में दिखला चुके हैं। परन्तु आपके दुर्भाग्य से वहाँ भी आपके इन कल्पित श्लोकों का पता नहीं हैं। बल्कि जो कुछ आपने लिखा हैं, उससे बिलकुल विपरीत ही वहाँ पाया जाता हैं। जैसा कि प्रथम ही दिखला चुके हैं कि परशुरामजी ने अपनी दारुण प्रतिज्ञा की रक्षा के लिए युवा, वृद्ध, रोगी, बालक और गर्भस्थ बालक तक को भी मार डाला हैं, जिससे कोई भी बचने न पाया। इसीलिए फिर ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रियों की बची हुई स्त्रियों ने लड़के पैदा किये हैं। परन्तु उनका भी पुन: उसी प्रकार से नाश किया हैं। इसी तरह 21 बार तक परशुरामजी ने किया। यही वार्ता इसी प्रकार ब्रह्मवरैवत्तापुराण, गणेशखण्ड में लिखी हुई हैं। फिर नहीं मालूम कि परमहंस महोदयजी को इसके विपरीत लिखने का साहस क्यों कर हुआ?
चाहे पूर्वोक्त बातें वहाँ न भी लिखी रहें, परन्तु आपकी बातें तभी मानी जातीं, यदि आपके लिखे श्लोक वहाँ मिल सकते। आपको इतना विचार नहीं कि जिस दारुण प्रतिज्ञा के लिए परशुरामजी को महादेवजी प्रभृति ने बहुत ही रोका, जैसा कि ब्रह्मवरैवत्ता देखने से विदित होता हैं। परन्तु उन्होंने न माना और यही कहा कि अब तो प्रतिज्ञा कर ही चुके। उसी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहने पर यदि कोई मिथ्या ही कह दे कि हम क्षत्रिय नहीं हैं तो वे कैसे मान सकते थे? क्या वे आपकी तरह योगी न थे? या अल्पज्ञ ही थे, जिससे ब्राह्मण कहने वाले क्षत्रियों को न पहचाना? और यदि उन्होंने अपने को ब्राह्मण ही कहा, तो फिर जैसा कि आप लिखते हैं, उन्हें भागने की क्या आवश्यकता थी? क्या उन्होंने ब्राह्मणों के भी मारने का प्रण किया था? क्या ऐसी दशा में भी परशुरामजी ईश्वर होकर उन्हें न पहचान सके, जबकि सामान्य मनुष्य भी पहचान सकता हैं? सम्भवत: वे आपके सदृश योगिराज न रहे हों। उन्होंने 'तुम लोग ब्राह्मणधर्म वाले हो जाओ' ऐसा कह दिया और ईश्वर थे ही, और साथ ही, वह सत्ययुग या त्रोता का समय था। तो उस समय तो बहुत लोगों की जातियाँ तपोबल या किसी के वरदान से बदल भी सकती थीं, जिसके लिए शतश: दृष्टान्त पुराणों में भरे पड़े हुए हैं और व्यास, वसिष्ठादि की उत्पत्ति के विषय में उन्हीं पुराणों में विचित्र व्याख्यान दिये गये हैं और उन्हीं के वंशज होने का दम आप लोग भरते हैं। तो फिर भूमिहार ब्राह्मणों में, आपका कथन स्वीकार कर लेने पर भी, अपने से कौन कमी देखते हैं, जिसके लिए उनके ऊपर इतना कटाक्ष हैं? यदि आप विचारें, तो ऐसा भी मान लेने पर आप लोगों की उत्पत्ति अच्छी ही ठहरेगी।
विचार से तो यही प्रतीत होता हैं कि जिन क्षत्रियों को परशुरामजी ने ब्राह्मण कहा, वे आप ही लोग हैं। क्योंकि उन्होंने उनके लिए यह आज्ञा दी थी कि तुम लोग ब्राह्मणों की रक्षा करना, और वह धर्म आप में ही पाया जाता हैं। क्योंकि आपका यह मिथ्या दिग्विजय केवल इसीलिए रचा गया हैं कि जिसमें पुरोहितों को ऐसी प्रशंसा की जाये, कि जब तक सृष्टि रहे तब संसार उनकी पूजा ही करता रहे, चाहे वे कैसे हूँ पतित हो जाये। भला इससे बढ़कर ब्राह्मणों की रक्षा और क्या हो सकती हैं? जैसे भानमती के पिटारे से आपने ये कल्पित श्लोक निकाले हैं, वैसे ही श्लोक यदि हम भी आपके वंश के विषय में गढ़कर लिख दे और उनका पता भी बतलावें कि पद्य या स्कन्दपुराण के गप्प खण्ड में ये श्लोक लिखे गये हैं, तो आपको भी उन्हें मानकर हवा खानी होगी। हम अच्छी तरह से जानते हैं कि आपके इस विष-वमन का एक मात्र कारण यही हैं कि भूमिहार ब्राह्मणों से ही आपके वंश की विशेष रक्षा होती हैं। मगर आप लोग रक्षा के पात्र नहीं हैं। इसलिए आप लोगों को भूमिहार ब्राह्मणों का मान लेना क्या हो गया, गोया साँप को दूध का पिलाना। इसीलिए उसके बदले में आप काटने के लिए सपरिवार कटिबद्ध हैं और बीसों प्रकार की मिथ्या रचनाएँ ऐन्द्रजालिक की तरह किया करते हैं। जिससे सर्वदा के लिए ये लोग आपके पशु बने रहें। परन्तु अब आपका यह छल नहीं चलने का। क्योंकि आपकी सज्जनता और परमहंसता का पता लोगों को चल गया।
अब हम पाठकों को किसी दूसरे मिथ्या दिग्विजय का हाल सुनाते हैं। उसकी भी पोपलीला देखनी चाहिए। इस पवित्र पुस्तक का शुभ नाम हैं 'जगतराज दिग्विजय', जो संवत् 1960 में चरखारी खास प्रेस में छपी हैं। इसके रचयिता हरिकेश कवि महाशय हैं। हरिकेशजी ने पूर्वोक्त दुर्गादत्ता परमहंस का ही अनुकरण किया हैं और उन्हीं की बातों को अपनी पोथी में भी उतार उसे पवित्र किया हैं। आप अपनी इस पोथी के 169, 170 और 171 पृष्ठों में संवत् 1777 या सन् 1720 ई. में जगतराज की काशी यात्रा का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि उनके काशी में पहुँचने पर काशिराज उनसे आकर मिले, और उसी प्रसंग में परशुरामजी वाली पूर्वोक्त बात इस प्रकार लिखते हैं-
दोहा
काशी नृप द्विजकुल करण, मिल्यो आय अगवान।
दै अशीश कर शीश धारि, भेंटयो जगत दिमान॥ 101॥
चोपाई
बूझत जगत राज सब पाहीं। ये द्विज कै क्षत्रिय कोउ आहीं॥
अगंद कह्यो मर्म सुनि लीजै। इन नृप को द्विज आसन दीजै॥ 402॥
परशुराम क्षत्रिन प्रति कोपे। क्षत्रा धर्म क्षत्रिन के लोपे॥
तब इन विप्ररूप धारिलीन्ह्यों। जामदग्न्य प्रति आशिष दीन्ह्यों॥
तब ते ये भुवहार कहाये। जबते क्षत्रिय धर्म दुराये॥403॥
दोहा
क्षत्रिय ते भूसुर बने, तब ते ये महाराज।
अब करुणा करि दीजिये, आपहु इनको राज॥ 404॥
इस जगह कई बातें विचारने योग्य हैं। एक तो यह कि दुर्गादत्ता की ही नकल की गयी हैं, इसलिए उसी के खण्डन से इसका भी खण्डन हो गया। क्योंकि इसमें प्रमाण ही नहीं हैं। दूसरी बात यह हैं जिस सन् 1720 ई. का हाल हरिकेश ने लिखा हैं उस समय काशी का राजा मुगल बादशाह मुहम्मदशाह या और कोई था। भूमिहार ब्राह्मणों को काशी का राज्य राजा मनसारामजी के समय में सन् 1730 में या उसके बाद 1732, 1733 या 1734 में मिला हैं। यद्यपि ठीक तिथि में मतभेद हैं, तथापि 1730 के बाद ही मिला हैं इसको तो सभी इतिहास लिखने वाले मानते हैं और बलवन्तनामे में, जैसा कि दिखला चुके हैं, 1733 या 34 ई. में लिखा गया हैं। इसलिए सिवाय हरिकेश कवि के स्वप्न या मनोराज्य के उस लेख को और क्या कहना चाहिए? तीसरी बात यह हैं कि जगत राज कौन से चक्रवर्ती राजा थे, जो काशी में आकर काशिराज को राजतिलक देने लगे? और उन्हें राजतिलक देने का कौन सा अधिकार था? उस समय काशी का राज्य भी मुगल बादशाहों के ही हाथ में था। सबसे बड़ी बात तो यह हैं कि यदि उस समय कोई काशी का राजा हिन्दू था, तो उसका नाम उन्होंने क्यों न लिख दिया? इसलिए ये सब केवल मिथ्या बातें लिखकर कवि ने अपनी अभिज्ञता और सज्जनता का परिचय मात्र दिया हैं। इसके अतिरिक्त जब स्वयं ही अपने कल्पित काशी राज 'द्विजकुल्लकरण' अर्थात् 'ब्राह्मण कुल में करण के सदृश दानी और 'द्विज' या 'भूसुर' अर्थात् ब्राह्मण लिखते हैं, क्योंकि उनके ग्रन्थों में वहाँ 'द्विज' पद ब्राह्मण का ही वाचक हैं। इसीलिए राजा ने पूछा भी हैं कि ये क्षत्रिय हैं या द्विज अर्थात् ब्राह्मण हैं? तो फिर इस विषय में विवाद ही क्या हो सकता हैं? क्योंकि ऐसा तो सभी ब्राह्मणों के विषय में पुराणों में मिल सकता हैं! हरिकेश कवि कोई ऋषि या सर्वज्ञ तो थे ही नहीं, कि बिना प्रमाण के ही उनका कहा मान लिया जाये और परशुराम वाले इस आख्यान में कोई भी प्रमाण नहीं मिलता जैसा कि सिद्ध कर चुके हैं। यदि ऐसे बिना प्रमाण के ही गाल बजाना हैं तो हरिकेश के भी बाप-दादों के विषय में हम वैसे-वैसे बहुत से कल्पित दिग्विजय लिख सकते हैं।
भूमिहार नाम पड़ने का कारण उन्होंने जो कुछ बतलाया हैं वह क्या ही बुद्धिमत्ता से पूर्ण हैं! क्यों महाशयजी! क्षत्रिय का वेश छिपाकर ब्राह्मण वेश धारण कर लेने और परशुरामजी को आशीर्वाद देने से भूमिहार नाम कैसे पड़ गया? हाँ ऐसा हो सकता था, कि भूमि युद्ध स्थल को कहते हैं, इसलिए यदि वे लोग लड़ते-लड़ते वहाँ हारकर कट मरते तो भूमिहार नाम भी पड़ सकता था। क्योंकि इस प्रकार जो लड़कर युद्ध क्षेत्र में प्राण देता हैं उसे कहा करते हैं कि अमुक पुरुष 'खेत हार गया' 'खेत रहा।' परन्तु आप तो ऐसा कहते ही नहीं। यहाँ तक कि भागना भी बताते नहीं, किन्तु छलमात्र बतलाते हैं, जिस छल को आपके मत में ईश्वरावतार परशुरामजी जान न सके। इससे तो यह भी विदित होता हैं कि आप महान् नास्तिक हैं। क्योंकि ईश्वरों की अनभिज्ञता की बातें लिखा करते हैं, जिनका प्राचीन ग्रन्थों में कहीं भी नाम तक नहीं हैं।
एक प्रश्न हम आपसे और करते हैं कि यदि भूमिहार नाम त्रोता या सतयुग का हैं, तो फिर इसे पुरुषों और स्मृतियों में अवश्य आना चाहिए, जैसे चन्द्रवंश, सूर्यवंश अथवा कश्यप, वसिष्ठ और गौतम आदि गोत्रों का वर्णन सभी जगह आया करता हैं। परन्तु भूमिहार शब्द तो केवल आपकी ही पोथी में इस प्रकार मिलता हैं। इसलिए उसे ही आप वेद स्मृति मान ले तो भले ही मान सकते हैं। परन्तु हम अथवा विवेकी लोग तो केवल यही कहेंगे कि वह तो केवल इन्द्रजाल की टोकरी हैं, जिसमें से ऐसी अलौकिक लीलाएँ निकला करती हैं, जिनका दूसरी जगह नाम या निशान भी नहींहैं।
अब 'विशेनवंशवाटिका' नाम की पुस्तक का विचार करते हैं, जो सन् 1887 में खंगविलास प्रेस, बाँकीपुर में बाबू रामदीन सिंह द्वारा छपवाई गयी हैं और जिसके रचयिता मझौली क्षत्रिय राजवंश के पुरुष लाला खंगबहादुर मलजी हैं। इस पुस्तक का बहुत सा परिचय भूमिका ही में दिया जा चुका हैं। अतएव अवशिष्ट अंश का ही विचार यहाँ करेंगे। आपको किसी कारण से या स्वाभाविक ही भूमिहार ब्राह्मणों से वैर था, इसलिए उसका बदला चुकाना चाहते थे। परन्तु सभी कामों के लिए बुद्धि की अपेक्षा होती हैं, इसलिए आपको सफल मनोरथ होने में चूकना पड़ा, जैसा कि अभी विदित हो जायेगा। आप उस पुस्तक के 45वें पृष्ठ में लिखते हैं कि :
मयूर भट्ट ने सामवेद में अधिक परिश्रम किया था। एक बार इन्होंने अयोध्या की यात्रा की। उस समय वहाँ श्रीरामचन्द्र के वंश वाले राज्य करते थे। राजा ने इनकी विद्या और तपस्या देख प्रसन्नतापूर्वक अपनी कन्या सूर्यप्रभा का (जिसका प्रण था कि किसी योग्य पुरुष से ब्याही जाऊँ) इनके संग ब्याह किया। फिर राजगुरु ने (जो वसिष्ठ कुल के ब्राह्मण थे) अपनी कन्या नागसेनी को भी इन्हीं से ब्याह दिया। इनके संग एक कुर्मिनी दासी भी आयी। कुछ दिनों बाद मयूर भट्ट ने गाधि कुल के चन्द्रवंशी राजा की कन्या हय कुमारी से तीसरा ब्याह किया। प्रथम स्त्री (सूर्यप्रभा) से विश्वसेन उत्पन्न हुए, जो विश्वसेन कुल के प्रथम पुरुष थे। दूसरी स्त्री (नागसेनी) से नागेश भट्ट वा नागेश्वर मिश्र हुए, जो मिश्र पयासी के प्रथम पुरुष थे। तीसरी स्त्री (हय कुमारी) के वक्रसाहि वा बाघम्बरसाहि हुए, जो बगौछिया भूमिहार के प्रथम पुरुष थे, इत्यादि। यह जो कुछ हमने सुना था सो लिखा दिया।
इस लेख में कई बातें विचारणीय हैं। प्रथम तो यह देखना चाहिए कि सूर्यवंशीय लड़की से विशेन क्षत्रिय और चन्द्रवंशीय से बगौछिया भूमिहार ब्राह्मण हुए, यह कहाँ तक सत्य हैं। इस लेख में विश्वास कैसे हो सकता हैं कि दोनों कन्याएँ जब क्षत्रिय ही जाति की थीं, तो उनमें से एक सन्तान तो क्षत्रिय हुई और दूसरे की भूमिहार ब्राह्मण? क्या यह कभी हो सकता हैं कि एक ही प्रकार के क्षेत्र में एक ही प्रकार के बीज बोये जाये, परन्तु उनके वृक्ष भिन्न-भिन्न जाति के ही हो जाये? आपने इसमें कौन-सा कारण दिखलाया हैं कि जिससे दोनों के वंशज दो हो गये? अथवा उलट-पलट क्यों न हो गया? चन्द्रवंशीय कन्या के ही वंशज क्षत्रिय क्यों न हो गये और सूर्यवंशीय के भूमिहार ब्राह्मण? यदि आपका ऐसा तात्पर्य हो कि भूमिहार ब्राह्मण को भी हम क्षत्रिय ही मानते हैं, सो तो नहीं कहा जा सकता। क्योंकि भूमिहार ब्राह्मण शिरोमणि द्विजराज श्रीकाशीराज को आप स्वयं ही ब्राह्मण स्वीकार करते हैं। जैसा कि उसी 'विशेन वंश वाटिका' के 24वें पृष्ठ में आपने यह स्पष्ट शब्दों में लिख दिया हैं कि :
सरवार देश में पयासी, पिण्डी और पिपरा मुख्य स्थान हैं। इसी पिपरा के गौतम मिश्र के वंश में वर्तमान काशिराज भी हैं।
इसलिए आपको प्रथम अपनी बुद्धि की दवा कर लेनी थी और पीछे ग्रन्थ लिखना उचित था। यह भी देखना चाहिए कि जब एक विवाह उन्होंने याचक दलवाले ब्राह्मण की कन्या से किया, दूसरा क्षत्रिय कन्या से और उनकी तीसरी स्त्री कुर्मिनी थी, तो एक चौथी स्त्री फिर क्यों क्षत्रिय कन्या हो सकती थी? इसलिए वह अवश्य ही दूसरे ब्राह्मण दल अर्थात् अयाचक ब्राह्मण की ही रही होगी, यही बात मानी जा सकती हैं। साथ ही यह भी विचारणीय हैं कि ब्राह्मण होकर भी मयूरभट्ट की अधिक स्त्रियाँ अन्य अर्थात् क्षत्रिय जाति की थीं, यह बात कभी भी मानी नहीं जा सकती। बल्कि बलात् यही मानना होगा कि उनकी दो स्त्रियाँ ब्राह्मणी थीं और तीसरी क्षत्रिया कन्या। कोई मनुष्य किसी जाति का हो, उसकी अधिक स्त्रियाँ अपनी ही जाति की ही हुआ करती हैं, चाहे; वह विवेकी भी न हो। परन्तु भट्ट को आप परम तपस्वी और ऋषि मानते हुए भी उनके विषय में ऐसा लिखते हैं, जिससे उनकी अत्यन्त अधामता सिद्ध हो जाती हैं। इससे स्पष्ट हैं कि आपने ऐसा लिखते समय विचार से काम न लेकर केवल द्वेष या स्वार्थान्धाता ही काम लिया हैं। इसी से पटल ने आपके ज्ञानचक्षु को आच्छादित कर दिया।
आप तो यह लिखते हैं कि मैंने लोगों से जो कुछ सुना था वह लिख दिया। परन्तु हम आपसे ही यह बात पूछते हैं कि इस विषय में अंग्रेजों ने जो कुछ लिखा हैं, क्या उनके घर इस बात के कोई प्राचीन या उस समय के प्रणीत ग्रन्थ हैं या थे? उन्होंने भी तो यहाँ पर सुनकर ही लिखा हैं। बल्कि आप रागद्वेष के मारे कुछ नयी बात गढ़कर भी लिख सकते हैं, अथवा लिखी ही हैं, लेकिन वे लोग तो केवल इतिहास प्रेमी होने के कारण अच्छी तरह खोज-पूछकर जैसा सुनते या पाते हैं वैसा ही लिख देते हैं। इसीलिए जनश्रुति का आदर जैसा वे करते हैं वैसा हम लोग नहीं करते। इसीलिए जाति के विषय में यहाँ जो कुछ भी उन लोगों ने लिखा हैं केवल जनश्रुतियों के ही आधार पर। अब आप विचारिये कि उन लोगों ने इस विषय में आयी वैसी ही जनश्रुति बतलाई हैं, जैसी आप बतलाते हैं, अथवा आपसे विलक्षण ही वैसी बतलाई हैं, जैसा कि इस विषय में हम अभी अपना अनुमान दिखला चुके हैं। इस विषय में आपके ही ग्रन्थ के प्रमाण देते हैं, जिसमें आप स्वयं ही इलियट साहब की सम्मति दिखलाते हुए लिखते हैं, कि जिससे बाघम्बरसाहि उत्पन्न हुए वह भूमिहार ब्राह्मण की स्त्री थी। जैसा कि उसी विशेन वंश वाटिका के 41वें पृष्ठ में आप इलियट साहब की सम्मति यों लिखते हैं :
विशेनवंश में सलेमपुर और मझौली के राजा मुख्य माने जाते हैं। इस वंश की जड़ मयूरभट्ट थे, जिनके अनेक पूर्व पुरुष नवापार के आसपास (जिसे अब परगना सलेमपुर मझौली कहते हैं) तपस्या करते थे। मयूरभट्ट यद्यपि एक ऋषि थे, तथापि राज्य प्राप्त करने के उत्साह से रहित न हो सके और काशी की यात्रा के पश्चात् हाथ में कृपाण धारण कर गंगा और बड़ी गण्डक (नारायणी) के मध्य की पृथ्वी का अधिकांश अपने अधिकार में कर लिया। मयूरभट्ट की चार स्त्रियाँ थीं। जिसमें एक राजपुत्री से विश्वसेन उत्पन्न हुए, जिनके नामानुसार विश्वेन शब्द प्रचलित हुआ, जो विशेन कुल के प्रथम पुरुष थे। भूमिहारिन से बाघम्बरसाहि हुए, जिनके वंश में कुआरी (हथुआ) और तमखुही राज हैं। ब्राह्मणी से नागेश हुए, जिनके वंश वाले परगना सलेमपुर मझौली में थोड़े से गाँवों के जमींदार हैं। कुर्मिनी से वह पुरुष उत्पन्न हुआ, जिसके वंश वाले स्थान घोसी जिला आजमगढ़ में रहते हैं।
इससे स्पष्ट हैं कि आप आप ही अपना खण्डन करते हैं। इसके अतिरिक्त मिस्टर नेविल के संयुक्त प्रान्त के गजेटियर में भी ऐसा ही लिखा हैं। गोरखपुर के गजेटियर के 110, 117वें पृष्ठों में इस प्रकार लिखा हुआ हैं :
The early history of the house of Majhauli is lost in the mist of antiquity. The founder is traditionally said to have been an ascetic, bearing the name of Mayur or Mevar, and the story goes that he married three wives of different castes, a Brahmani, a Rajputni and a Bhumiharini, while a further legend states that he kept a Kurmini concubine. From their off spring sprang all the great families of Gorakhpur and the neighbouring country. The house of Tamakhuhi claims descent from the Bhumiharini wife of Mayur.
इसका भाषानुवाद यह हैं कि मझौली राज का प्राचीन इतिहास पुराने समय के अन्धकार में (कुहरे में) लापता हो गया हैं। इसके मूल पुरुष की किंवदन्ती एक तपस्वी के विषय में हैं, जिसका नाम मयूर या मेवार भट्ट था। वह किस्सा इस प्रकार का हैं कि उसकी तीन विवाहिता स्त्रियाँ थीं, जिनमें से एक ब्राह्मणी, दूसरी राजपूतनी और तीसरी भूमिहारिन। यह भी जनश्रुति हैं कि उसके यहाँ एक-एक कुर्मिनी रखनी भी थी। इन्हीं की सन्तानों से गोरखपुर और उसके पास के बड़े-बड़े घराने हुए। तमखुही राजवंश भूमिहारिन स्त्री के वंश से बतलाया जाता हैं।
यही बात फिशर प्रभृति के भी गजेटियरों में पाई जाती हैं। सन् 1865 की मनुष्य गणना की रिपोर्ट में भी मिस्टर डब्ल्यू. चिचाइल प्लाउड़न ने यही लिखा हैं, जो प्रकाशित अंग्रेजी रिपोर्ट के प्रथम भाग के परिशिष्ट (ब) के 112वें पृष्ठ (Census of the N.W.P. for 1865, Vol. 1, Appendix B.P. 112) में मिलता हैं और जिसका हवाला 'रेवरेण्ड शेरिंग' (Rev. Sherring) ने अपने हिन्दू जाति विवरण के प्रथम भाग के 239वें पृष्ठ में दिया हैं। और मिस्टर शेरिंग भी स्वयं उसी पुस्तक के 217 और 218 पृष्ठों में इस प्रकार लिखते हैं और इसी विषय में पूर्वोक्त सर हेनरी इलियट से सहमत होते हैं :
The founder of the political influence of the family was Mewar Bhatt, whose ancestors had for many generations resided as devotee in the neighbourhood of Nawapur, now known as Salimpur Majhauli. Mewar Bhatt, though himself a religious man was not able to withstand the soliciations of ambition; and taking up arms, after returning from a pilgrimage to Benares, aequired possession of the greater part of the country between the Ganges and the Great Gandak. Mewar had four wives. By one, a Rajputni, he had issue, Bisusen, the founder of the name of Bisen, the ancestor of the ancestor of the Raja's family. By a Bhumiharin. He had Bagamar Sahi, the ancestor of the Kawari and Tamakohi Rajas. By a Brahmani he had Nages, whose, descendants hold a few villages in Salimpur Majhauli. By a Kurmini he had the ancestor of those now resident in Ghosi of Azamgarh.
इसका भाषानुवाद वही हैं, जो विशेनवंशवाटिका में इलियट साहब के कथन का दिया हुआ हैं और जिसे हम प्रथम ही दिखला चुके हैं। इन सभी वैदेशिकों के लेखों से पाठक समझ गये होंगे कि वास्तव में बगौछिया ब्राह्मणों के विषय में किंवदन्ती कैसी हैं और खड़गबहादुर मल की लिखी जनश्रुति आयी सत्य हैं, या उन्होंने द्वेष वश गढ़ डाली हैं। क्योंकि यदि सच्ची होती तो कोई भी अंग्रेज या देशी लेखक उससे सहमत हो ही जाते, कारण कि लोग जनश्रुतियों के बहुत प्यासे होते हैं। इससे स्पष्ट हैं कि उस जनश्रुति से भूमिहार ब्राह्मणों में कोई दोषारोपण किया नहीं जा सकता। क्योंकि मयूरभट्ट भी ब्राह्मण ही थे। इसलिए ब्राह्मण और ब्राह्मणी (भूमिहार ब्राह्मण) के वंशज बगौचिया ब्राह्मण शुद्ध ही ब्राह्मण ठहरे। जैसे कि मयूरभट्ट के ही वंशज पयासी के मिश्र लोग हैं।
ये जो बातें हमने लिखी हैं, वे सभी मयूरभट्ट वाली किंवदन्ती को सत्य मानकर ही लिखी हैं। वस्तुत: तो यह किंवदन्ती अश्रद्धेय हैं। क्योंकि जिस ब्राह्मण को हम ऋषि, वेदशास्त्रज्ञ, तपस्वी और परमधार्मिक स्वीकार करते हैं, उसके विषय में ऐसे महान् अधर्म का कार्य लिखना या कहना विचार से बाहर हैं। भला ऐसा कब हो सकता हैं कि ऐसा विचारशील और तपस्वी ब्राह्मण शास्त्रविरुद्ध क्षत्रिय कन्या से शादी कर सकता, या कुर्मिनी को रख सकता था? यदि प्रसाद भी हो जाये तो एकाध, न कि बहुत से अत्याचार ऐसों से हो सकते हैं। इस प्रकार के इतने विवाहों से तो सूचित हो जाता हैं कि वह कोई अत्यन्त विषयासक्त और लम्पट पुरुष था। परन्तु उन्हें सभी तपस्वी के वंशज और तपस्वी स्वीकार करते हैं। इसलिए ऐसे पुरुष के विषय में ये बिना सिर-पैर की बातें नितान्त अश्रद्धेय हैं। दूसरी बात यह भी हैं कि 'विशेनवंशवाटिका' के कर्त्ता ने मयूरभट्ट से अपने समय तक 15 राजे गिनाये हैं। इससे उनका समय दो वा ढाई हजार वर्षों के मध्य में हो सकता हैं। उन दिनों ब्राह्मणों में ये भट्ट प्रभृति उपाधियाँ प्राय: अप्रचलित थीं, जैसा कि प्रथम ही दिखला चुके हैं। इसलिए उस समय के नामों के साथ आचार्य या ऋषि प्रभृति शब्द ही पाये जातेहैं। इसके साथ ही यह भी निर्विवाद हैं कि भूमिहार संज्ञा या विशेषण भी किसी अयाचक ब्राह्मण दल का मुसलमानी समय में ही पड़ा हैं, जैसी कि ब्राह्मणों को ही कान्यकुब्ज प्रभृति संज्ञाएँ हैं, जिनके विषय में सविस्तार विचार प्रथम ही किया जा चुका हैं। इसलिए आज से दो-ढाई हजार वर्ष पूर्ववर्ती मयूरभट्ट ने भूमिहार ब्राह्मण की लड़की से ब्याह किया, जिससे बाघम्बर साही हुए, यह बात भी विश्वास योग्य नहीं हैं। इसलिए भी विशेन, या दूसरे लोग मयूरभट्ट की सन्तान हैं यह वार्त्ता माननीय? नहीं हैं।
हाँ, यह बात तो हो सकती हैं कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के वंशज विशेन लोग हो। क्योंकि चन्द्रगुप्त को भी दो सहस्र वर्षों से अधिक हुए और उसी मौर्य शब्द को देखकर लोग मौर्यवंशी न कहकर विशेनों को मयूरवंशीय वा मयूरज कहने लगे। वह कल्पना श्रद्धेय भी मालूम होती हैं। अब रह गयी पयासी के मिश्रों की बात। यदि ये लोग मयूरभट्ट की सन्तान हो तो कोई खटका या शंका नहीं हो सकती, और यही बात बगौछिया ब्राह्मणों के विषय में कही जा सकती हैं। परन्तु कुर्मिनी की बात तो बिलकुल ही असत्य प्रतीत होती हैं। वस्तुत: तो बगौछिया लोग मयूरभट्ट के ही वंशज ब्राह्मणी के गर्भ से हुए हैं, इस विषय मंई भी हम सहमत नहीं हैं। क्योंकि ऐसा कहनेवाले इन भूमिहार ब्राह्मणों के बगौछिया नाम पड़ने का कोई कारण नहीं दिखलाते या दिखला सकते हैं। प्रत्युत सिद्ध हैं कि सोन के किनारे मयूरभट्ट रहते थे। इसी से उनके वंशज वत्स गोत्री सोनभदरिया ब्राह्मण कहे जाते हैं। वहीं गया जिले में उनका पुराना डीह हैं। वहीं से कुष्ठ रोगग्रस्त होने पर गया जिले के देव के सूर्य मन्दिर मैं उन्होंने सूर्य की आराधना की और सूर्य शतक बनाकर आरोग्य लाभ किया। अभी तक सोनभदरियों के ही वंशज पं. खेदा पाण्डे के हाथ में सूर्य मन्दिर का कुछ अंश रह गया हैं और वे उसके पुजारी हैं। शेष अंश गरीबी के कारण शाकद्वपियों के हाथ उन लोगों ने बेच दिया हैं। इससे उनकी उक्त कल्पना मिथ्या ही प्रतीत होती हैं।
प्रथम प्रकरण में ही हम यह वार्त्ता अच्छी तरह सिद्ध कर चुके हैं कि ब्राह्मणों के अवान्तर (छोटे-छोटे) दलों के नाम या व्यवहार स्थानों के नामानुसार पड़े। जैसे गौड़, मैथिल, पिण्डी के तिवारी, दिघवे या दिधावैत, दिभवेसन्दहपुर, किनवार इत्यादि। इसीलिए बगौछिया नाम भी किसी स्थान से ही पड़ा होगा, जैसा एकसार ग्राम के नाम से एकसरिया और जैथर (जयस्थल) से जैथरिया इत्यादि।
बंग प्रदेशान्तर्गत गौड़ देश में कान्यकुब्ज देश से ब्राह्मणों के जाने का जो इतिहास मिलता हैं, उससे स्पष्ट हैं कि वत्स, शाण्डिल्य, सावर्ण्य, भारद्वाज और कश्यप इन पाँच गोत्रों के ब्राह्मण कन्नौज से गौड़ देश में गये थे। उन्हीं में से 19 ब्राह्मणों के विषय में यह भी प्रथम ही दिखला चुके हैं कि वे लोग अयाचक या दानत्यागी हो गये थे, जिससे बल्लाल सेन ने उनकी बहुत ही प्रतिष्ठा की थी। वे लोग बंगदेशान्तर्गत राढ़ और वारेन्द्र देशों में निवास करते थे। वे लोग जिन-जिन ग्रामों में रहते थे, प्राय: उन ग्रामों के ही नाम से ही उनके नाम हुए, यह भी उस इतिहास से पता चलता हैं। उनके रहने के बहुत से ग्रामों में से एक ग्राम 'बागछी' नाम का भी था जिस ग्राम में रहने से बहुत से बंगदेशीय ब्राह्मण अब भी 'बागछी' कहलाते हैं। यह बात 'गौड़ हितकारी' पत्र के सितम्बर मास 1911 ई. के अंक में भी 'गौड़देश में ब्राह्मण' शीर्षक लेख में आई हैं। यद्यपि बागछी ग्रामवासी शाण्डिल्य गोत्री दो-एक ब्राह्मणों का ही नाम वहाँ लिखा गया हैं, तथापि जो विदित था वही, अथवा अन्यों के विदित रहने पर भी दो-एक के ही नाम लिख दिये हैं। उससे यह कदापि सिद्ध नहीं हो सकता कि वत्स या अन्य गोत्र के ब्राह्मण बागछी ग्राम में नहीं रहते थे। इससे यही अनुमान सत्य और विश्वसनीय हो सकता हैं कि जिस समय बंगदेशान्तर्गत गौड़ देश से गौड़ ब्राह्मण दानत्यागी या तगे ब्राह्मणों के सहित हटे या भागकर कुरुक्षेत्र के प्रान्त और बिजनौर प्रभृति स्थानों में चले गये। उसी समय या उससे कुछ आगे-पीछे 'बागछी' ग्रामवाले अयाचक ब्राह्मण भी वहाँ से हटकर ईधर चले आये और सुदूर पश्चिम में न जाकर किसी अनुकूलतावश छपरा प्रान्त में ठहर गये। इसीलिए उनकी संज्ञा 'बागछिया' हो गयी जो बिगड़ते-बिगड़ते अब बगौछिया कहलाती हैं। यह बात लगभग हजारों वर्षों की हो गयी। इसीलिए हथुवा या तमकुही बगौछिया राजवंशों की इस देश में प्राचीनता भी रक्षित रह गयी और उनके इस नाम के पड़ने का कारण भी ठीक-ठीक मिल गया। इसलिए बंगदेशीय ब्राह्मणों में वत्स गोत्रीय ब्राह्मण इस समय कम पाये जाते हैं।
वस्तुत: गोरखपुर जिला के तमकुही राज्य के बगौछ गाँव में, जो खनुवा नदी के किनारे भरहे चौरा से 6 कोश उत्तर नारायणपुर कोठी के पास हैं, एक बड़ा डीह हैं जहाँ से बगौछिया ब्राह्मणों का विस्तार बताया जाता हैं। निकट होने से यही अधिक विश्वसनीय प्रतीत होता हैं। इनके पूर्वज बंगाल या गया से प्रथम बगौछ में आये और वहीं से पीछे सर्वत्रा फैले। इसीलिए यही अनुमान श्रद्धेय और युक्तियुक्त प्रतीत होता हैं, जिससे बगौछिया ब्राह्मणों की उज्ज्वलता भी अक्षुण्ण रह गयी। अत: विशेनवंशवाटिका की जो बातें भूमिहार ब्राह्मणों के विपक्ष में लिखी गयी हैं वे बिना सिर-पैर की हैं। उनसे भूमिहार ब्राह्मणों की कोई हानि नहीं हो सकती।
इसके अनन्तर हम 'भारतवर्षीय राजदर्पण' नाम की पुस्तक की आलोचना करते हैं। इसके विषय की बहुत सी बातें भूमिका में ही कही जा चुकी हैं। ग्रन्थ कर्त्ता महोदय निरंजन मुखोपाध्याय ने उक्त ग्रन्थ के 3-4 पृष्ठों में लिखा हैं कि:
''एक और भी जनश्रुति हैं कि कृष्ण मिश्र का विवाह क्षत्रिय कन्या के साथ हुआ था। इसी से उनकी सन्तान भुइंहार ब्राह्मण कहलाती हैं। यद्यपि बहुत काल से प्राय: विक्रमादित्य के राज्य के पश्चात् क्षत्रिय कन्या के साथ ब्राह्मण का विवाह अप्रचलित हैं, तथापि इस विवाह के होने में एक लोकोक्ति चली आती हैं कि भागलपुर के निकट एक क्षत्रिय की कन्या अपनी बाल्यावस्था में अत्यन्त पवित्रता से रहती थी। यहाँ तक कि अपना वस्त्र और पात्र अपने घर के लोगों से फरक रखती थी। किसी रोज उसके चिढ़ाने के लिए उसकी भ्रातृ-पत्नी ने अपने लड़के को उसके कपड़े पर बैठा दिया। इस पर वह बहुत दिक होकर उस वस्त्र को अशुद्ध समझ उसे धोने लगी। तब उसकी भ्रातृ-पत्नी (भौजाई) ने हँसकर कहा कि क्या तुम कित्थू मिश्र की स्त्री हो, जिससे हम लोगों को अशुद्ध समझती हो? ऐसा सुनकर उस कन्या ने प्रतिज्ञा की कि कित्थू मिश्र से अन्य के साथ अपना विवाह न करूँगी। ऐसा उसका बहुतकाल तक हठ देखकर उसके भाइयों ने कित्थू मिश्र की प्रार्थना करके उसको स्वीकार करवाया।'' इससे प्रथम ही आप भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में ऐसा लिख चुके हैं कि :
बनारस के निकट कुसवार परगने में थुथुरिया ग्राम में, जो कि अब गंगापुर कहलाता हैं, मनोरंजन सिंह नामक एक भुइंहार ब्राह्मण बसते थे। उनके चार पुत्र थे। सबसे ज्येष्ठ का नाम मनसाराम था, जो बनार के राजवंश के मूल पुरुष थे। थुथुरिया ग्राम के अर्द्धाश के मालिक इनके पिता मनोरंजन सिंह के पूर्वपुरुषों का विवरण कुछ नहीं पाया जाता हैं। जनश्रुति हैं कि बनार राजा के राज्य काल में काशी में कृष्ण मिश्र अथवा कित्थू मिश्र नामक गौतम गोत्र के दतरिया ग्राम निवासी एक ब्राह्मण उनके मन्त्र गुरु थे और वे सिद्धपुरुष थे। राजा के पास से उनके कभी कुछ दान न ग्रहण न करने से राजा सर्वदा बहुत खेदयुक्त रहा करते थे। एक दिन राजा बनार ने विचार कर उनकी पगड़ी में कई ग्राम का दान-पत्र में छिपाकर बाँधा दिया। कित्थू मिश्र जब अपने घर में आकर अपने इष्टदेव के ध्यान में बैठे, तो और दिनों की तरह उनका चित्ता एकाग्र न होकर अतिशय चंचल होने लगा। उस पर वह बहुत आश्चर्यवान होकर चिन्ता करने लगे। पीछे जब राजा का व्यवहार मालूम हुआ तब उन्होंने अत्यन्त क्रुध्दान्त:करण से शाप देकर कहा हैं कि जैसा कि तुमने हमारा तेज ध्वंस किया हैं, वैसा ही तुम्हारा समस्त अधिकार हमारे वंश के आधिपत्य में आयेगा।'
अब यहाँ पर विचारना यह हैं कि काशी के प्रान्त या सर्यूपार में तो बहुत जिज्ञासा या खोज-पूछ करने पर भी कित्थू मिश्र के साथ क्षत्रिय कन्या के विवाह वाली किंवदन्ती का पता नहीं लगता। इसी से अंग्रेजों या अन्य लोगों ने जो केवल किंवदन्ती के ही आधार पर चलने वाले हैं, इस किंवदन्ती का वर्णन कहीं भी नहीं किया हैं। इससे मालूम होता हैं कि ग्रन्थकर्त्ता महोदय के जन्म स्थान बंगाल में ही यह किंवदन्ती प्रसिद्ध रही होगी, जिससे उन्होंने इसको लिखा हैं। वाह रे द्वेष और मिथ्या कल्पना! जिस भागलपुर की कन्या की बात उन्होंने लिखी हैं, वह सर्यूपार, गोरखपुर में मझौली राज्य के पास हैं। वहाँ यह जनश्रुति विशेन क्षत्रियों के विषय में हैं, जिसे खड्गबहादुरमल ने 'विसेनवंशवाटिका' में लिखा हैं जैसा कि प्रथम दिखला चुके हैं। उसके 45वें पृष्ठ में लिखा हैं कि 'मयूरभट्ट ने सामवेद में अधिक परिश्रम किया था। एक बार इन्होंने अयोध्या की यात्रा की। उस समय वहाँ श्रीरामचन्द्र के वंशवाले राज्य करते थे। राजा ने इनकी विद्या और तपस्या देख प्रसन्नतापूर्वक अपनी कन्या सूर्यप्रभा को (जिसका प्रण था कि किसी योग्य पुरुष से ब्याही जाऊँ) इनके संग ब्याह दिया' इत्यादि।
दूसरी बात यह हैं कि काशी-रामेश्वर के पास के कई ग्रामों में जो गौतम क्षत्रिय रहा करते हैं, वे अपने को कित्थू मिश्र के वंशज कहा करते हैं। जब हमने कईयों से इसका कारण पूछा तो, उन्होंने यही उत्तर दिया कि हमारे पूर्वज कित्थूमिश्र के वंशज भूमिहार ब्राह्मण थे। परन्तु बहुत दिन हुए जब कि वंशज अन्य भूमिहार ब्राह्मणों में उसका हिस्सा दबा लिया, तो उस समय हमारे पूर्वजों ने हिस्से के लोभ से एक क्षत्रिय राजा की कन्या से विवाह कर लिया और उसी दिन से उनके वंशज हम लोग क्षत्रिय कहलाने लगे। यह बात काशी के प्रान्त में प्रसिद्ध हैं। जिसे सभी ब्राह्मण या क्षत्रिय स्वीकार करते हैं। सम्भव हैं कि इसी बात को निरंजन मुखोपाध्याय ने सुनकर भूल छल या द्वेष से भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में लिख मारा और उसमें कुछ पैबन्द भी लगा दिया। भूमिहार ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों ही गौतम कहे जाते हैं। इसीलिए गौतम नाम देखकर इस भ्रान्ति का हो जाना सम्भव हैं कि क्षत्रियों के विषय की बात भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में लिखी गयी।
एक ऐसी ही किंवदन्ती जौनपुर जिले के 'चौपट खम्भ' नाम वाले क्षत्रियों के विषय में हैं। जिसे सुनकर भी निरंजन मुखोपाध्याय को भ्रम हो गया, ऐसी कल्पना की जा सकती हैं। उसी किंवदन्ती को सन् 1865 की युक्त प्रान्तीय मनुष्य गणना की रिपोर्ट के प्रथम भाग के 115वें पृष्ठ में इस प्रकार लिखा हैं :
Chowpat Khambha—Two Brahmans named Buldeo and Kooldeo, came from Sarwar, and took up their residence in Mouzah Putkhohee, pergunnah Kirakut Zillah Jownpure. Raja Jaichand, a descendant of Rajah Bindar of the Lunar race, gave his daughter in marrige to Buldeo, and his descendants are called Chowpat Khambha. The origin of the name is from ‘Khambha’ a pillar. Kooldeo was annoyed with Buldeo for marrying out of his caste, and setting up a pillar of a degenerate family; hence the tribe was called Chowpat Khambha.
इसका अनुवाद यह हैं कि 'चौपटखम्भ-दो ब्राह्मण सर्यूपार से बलदेव और कुलदेव नामक इस देश में आये और जौनपुर के परगने केराकत, ग्राम पटखोही में बस गये। चन्द्रवंशीय क्षत्रिय राजा बनार ने अपनी कन्या का विवाह बलदेव से कर दिया। इसलिए उसके वंशज चौपटखम्भ क्षत्रिय कहलाते हैं। नाम पड़ने का कारण यह हैं कि खम्भ नाम हैं स्तम्भ या खम्भे का। चूँकि कुलदेव अपने भाई बलदेव से रंज हो गया, क्योंकि उसने अपनी जाति से अन्य जाति में विवाह कर लिया और इससे एक वर्णसंकर या चौपट जाति अथवा स्तम्भ चलाया। इसीलिए उसके वंशज चौपटस्तम्भ कहलाने लगे।
सबसे विलक्षण और आश्चर्य की बात तो यह हैं कि आप स्वयं ही कृष्णमिश्र को परम विवेकी, तपस्वी, विद्वान् और सिद्ध स्वीकार करते हैं, जो अपने शिष्य राजा बनार से भी एक पैसा स्वीकार करना शास्त्र और सत्पुरुष द्वारा निन्दित होने के कारण अधर्म समझते थे। अतएंव बनार के छल से दानपत्र देने से क्रुद्ध होकर शाप दे बैठे। क्योंकि इस अधर्म से उन्होंने अपनी ब्राह्मणता की हानि समझी। फिर ऐसी दशा में वह किसी क्षत्रिय कन्या के साथ, चाहे वह कैसी ही क्यों न हो, क्योंकर विवाह कर सकते थे, जो नितान्त अनुचित और शास्त्र निषिद्ध हैं? इस बात को आप भी स्वयं स्वीकार करते हैं। इसलिए उनके विषय में ऐसी कल्पना करना केवल पापमयी बुद्धि का फल हैं।
सबसे बड़ी बात तो यह हैं कि 'गौतम चन्द्रिका' में उन्हीं कित्थू मिश्र के वंशज जौनपुर प्रान्त निवासी याचक दल वाले ब्राह्मण पं. शिवराम मिश्र और पं. ताराप्रसाद मिश्र जब यह स्वीकार करते हैं, कि कित्थू मिश्र का विवाह पयासी के मिश्र की कन्या हुती या देवहुती से हुआ हैं, जिसके ही वंशज वर्तमान सभी गौतम भूमिहार ब्राह्मण या अन्य ब्राह्मण हैं, जैसा कि प्रथम ही दिखला चुके हैं। वहाँ यों लिखा हैं :
हुती पयासी की सुता, ताको प्रेम विचारि।
व्याह्यो तासों प्रगट भे, देवकृष्ण निरधारि॥
हुती नाम की कन्या पयासी मिश्र (सर्यूपारी) की रही। उसने किसी के तिरस्कार से प्रण किया कि हम अपना विवाह कित्थू मिश्र से करेंगी। इस कारण कित्थू मिश्र ने उससे विवाह किया।
तो फिर दूसरे को इससे विपरीत लिखने या कहने का अधिकार ही क्या हैं? और उसकी बात क्योंकर मानी जा सकती हैं? पूर्वोक्त 'गौतमचन्द्रिका' के वाक्यों से पाठकों को यह भी विदित हो गया होगा कि निरंजन मुखोपाध्याय ने भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में पूर्वोक्त किंवदन्ती लिख केवल अपने हृदय की गाढ़ कलुषता और द्वेष का परिचय दिया हैं। क्योंकि वह किंवदन्ती या बात पयासी मिश्र की कन्या के विषय में ज्यों की त्यों हैं, न कि किसी क्षत्रिय कन्या के विषय में।
इसी प्रकार पं. विजयानन्द त्रिपाठीजी ने सर्यूपारीण इतिहास पंक्ति पावन परिचय में सम्पूर्ण गौतम भूमिहार ब्राह्मण वंश और द्विजराज श्री काशिराज को सर्यूपारीण ब्राह्मणों में अग्रणी माना हैं, जैसा कि प्रथम परिच्छेद के अन्त में दिखला चुके हैं तो फिर निरंजन मुखोपाध्याय ने केवल मिथ्या ही लिखा हैं यही कहा जा सकता हैं। गौतम चन्द्रिका के अनुसार पयासी मिश्र के घर ही कित्थू मिश्र का विवाह उचित हैं। इसलिए गौतम भूमिहार ब्राह्मणों के जो पुरोहित ब्राह्मण हैं, उन लोगों का यह कथन हैं कि आप लोगों के पूर्वजों ने हम लोगों के पूर्वजों को कन्यादान देकर पूजा था, इसलिए उसी समय से हम लोग आप लोगों के मान्य और पुरोहित हुए। इससे पाठकों को मुखोपाध्यायजी की सज्जनता का परिचय अवश्य ही लग गया होगा। आपका यह कथन भी क्या ही बुद्धिमत्ता का हैं कि ''कृष्ण मिश्र का विवाह क्षत्रिय कन्या के साथ हुआ था। इसी से इनकी सन्तान भुइंहार ब्राह्मण कहलाई!'' क्यों साहब! क्या क्षत्रिय कन्या के साथ विवाह का होना भूमिहार ब्राह्मण नाम पड़ने का कारण हैं? उस विवाह और भूमिहार ब्राह्मण नाम से क्या सम्बन्ध हैं? यदि ऐसा ही माना जाये तो आपके मुखोपाध्याय नाम पड़ने के भी इसी प्रकार के कुत्सित, मिथ्या और कल्पित कारण बताये जा सकते हैं। क्योंकि आपकी ही तरह कुछ अनाप-सनाप बक देंगे और वही आपके सिद्धान्तानुसार पत्थर की लकीर हो जायेगी, जिससे आपके होशहवासों का पता न लगेगा और लेने के देने पड़ जायेगे।
अस्तु, जब इस पर भी आपको सन्तोष न हुआ तो इसके बाद ही लिखते हैं कि ''वह भी प्रसिद्ध हैं कि मगधदिपति महाराज जरासन्धा के यज्ञ के समय लक्ष ब्राह्मण भोजन करने के प्रयोजन होने पर राजा के अज्ञात में उनके किसी-किसी कर्माध्यक्षों ने जिनको ब्राह्मणों के लाने की आज्ञा हुई थी, अनेक कष्ट से भी आज्ञानुयायी ब्राह्मण संग्रह करने में असमर्थ होकर राजदण्ड के भय से अपर जाति के लोगों के गले में यज्ञोपवीत डाल भोजन करवा दिया। पीछे से उन सबों की जाति-बिरादरी के उनके साथ आचार-व्यवहार परित्याग करने से वे सब कोई राजा जरासन्धा के पास गये और उनके कर्माध्यक्ष के नाम पर नालिश करके उन्होंने साद्योपान्त सब वृत्तान्त प्रकाश कर दिया, जिस पर लाचार होकर उन्होंने उनके गुजरान के लिए अपने अधिकार में भूमि देकर उन सबों को बसाया। इसी से उनके खानदानों को आज तक भी भूमिहार ब्राह्मण कहते हैं और इसका एक प्रमाण यह हैं कि इन भूमिहारों के वास स्थान उस समय के मगध राज्य की सीमा के बाहर और अन्यत्रा प्राय: दृष्टिगोचर नहीं होते हैं।''
इस किंवदन्ती में बहुत-सी बातें विचार योग्य हैं। प्रथम तो यह देखना चाहिए कि जरासन्धा ने इस प्रकार का कोई भी यज्ञ किया था या नहीं। हमने तो महाभारत से लेकर सभी पुराणों का आलोडन किया, परन्तु जरासन्धा के इस यज्ञ का कहीं भी पता नहीं हैं। महाभारत प्रभृति ग्रन्थों में उसके जीवन-चरित्र वगैरह का बहुत सी जगह वर्णन हैं और उसे बहुत ही धार्मिक भी लिखा हैं परन्तु यह तो कहीं भी नहीं आता, कि उसने मद्यप की तरह ब्राह्मणों और चमारों को एक पंक्ति में भोजन करा धर्म के नाम पर महान् अधर्म किया। अत: इस किंवदन्ती में मूल ही क्या हैं जिससे यह मानी जा सके?
दूसरी बात यह हैं कि जैसे भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में आप इस कल्पित किंवदन्ती रूप उपन्यास को खड़ा करते हैं, उसी प्रकार सर्यूपारीण, कान्यकुब्ज और मैथिल प्रभृति सभी ब्राह्मणों में इस प्रकार की किंवदन्ती पाई जाती हैं। मैथिलों के विषय में सेवई सिंह का यज्ञ और सर्यूपारियों के विषय में शालिवाहन या दूसरे का यज्ञ इत्यादि बतलाया जाता हैं। फिर कभी-कभी भूमिहार ब्राह्मणों और अन्य ब्राह्मणों की इन किंवदन्तियों वाले यज्ञकर्ता दूसरे ही बतलाये जाते हैं। इससे विश्वास क्यों कर हो सकता हैं? यह लीलाएँ जिसे देखनी हों वह हिन्दू जाति के विषय में लिखे हुए अंग्रेजों के ग्रन्थों को देखे। उनमें ये किंवदन्तियाँ भिन्न-भिन्न नामों से आती हैं। यह बात क्योंकर हो सकती हैं कि सभी ब्राह्मण दलों में हिन्दू राजाओं ने इस प्रकार के अत्याचार किये हों? तिस पर भी करने वाले का ठिकाना नहीं। क्या उस समय एक-दो लाख ब्राह्मण नहीं मिल सकते थे? यह बात तो विश्वास योग्य नहीं हैं, क्योंकि आजकल की अपेक्षा उन दिनों ब्राह्मणों की संख्या कम न थी। और आजकल भारत-भर में करोड़ों ब्राह्मण मिल सकते हैं? यदि कम ही थी तो क्या उन राजाओं को यह भी न विदित था कि हमारे राज्य में कितने ब्राह्मण हैं? क्या वे लोग शराबी थे, जिससे कुछ भी विचार न करके मनमाना काम कर डालते थे? आप कहते हैं कि सभी जातियों को जनेऊ पहनाकर यज्ञ में खिला दिया। क्या उन दिनों ब्राह्मणों की परीक्षा न की जाती थी? क्या महानन्द और चाणक्य की कथा लोगों को नहीं विदित हैं? क्या परीक्षा करने वालों को अहीर, चमार और ब्राह्मणों में भेद नहीं मालूम हुआ? क्या उस समय सभी वर्ण गायत्री जप वगैरह करते थे, जिससे परीक्षा न हो सकती थी? क्या उन दिनों धार्मिक कार्यों में मनु वचनों का भी लोग अनादर करते थे? क्योंकि मनुजी ने लिखा हैं कि :
दूरादेवपरीक्षेत ब्राह्मणंवेदपारगम्।
तीर्थं तद्धव्यकव्यानां प्रदाने सोऽतिथि: स्मृत:॥130॥
द्वौदैवेपितृकार्येत्रीनेकैकमुभयत्रा वा।
भोजयेत्सुसमृध्दोऽपि नप्रसज्येतविस्तरे॥125॥
सत्क्रियांदेशकालौ च शौचं ब्राह्मणसम्पद:।
प×चैतान्विस्तरोहन्ति तस्मान्नेहेतविस्तारम्॥126॥
ज्ञाननिष्ठा द्विजा: केचित् तपोनिष्ठास्तथाऽपरे।
तप:स्वाध्यायनिष्ठाश्चकर्मनिष्ठास्तथाऽपरे॥134॥
ज्ञान निष्ठेषुकव्यानिप्रतिष्ठाप्यानि यत्नत:।
हव्यानितुयथान्यायं सर्वेष्वेवचतरुष्वपि॥135। 3॥
इसका अर्थ यह हैं कि 'यज्ञादि में खिलाने के समय अच्छी तरह से परीक्षा करे कि यह ब्राह्मण वेदज्ञ हैं या नहीं, क्योंकि वेदज्ञाता ब्राह्मण ही देवता और पितरों के अन्न के भक्षण का अधिकारी हैं। देवकार्य में दो ब्राह्मण और पितृकार्य में तीन, अथवा दोनों कार्यों में एक-एक ही खिलावे। बहुत धनी होने पर भी अधिक ब्राह्मणों के खिलाने का यत्न न करे। क्योंकि ऐसा करने से पाँच बातों की गड़बड़ होती हैं। ठीक सत्कार नहीं हो सकता, उत्तम जगह और उत्तम समय समुदाय के लिए नहीं मिल सकते, पवित्रता नहीं रह सकती और गुणवान ब्राह्मण नहीं मिल सकते। इसीलिए यज्ञादि में ब्राह्मण का विस्तार नहीं करना चाहिए। ब्राह्मण चार प्रकार के होते हैं- ज्ञानी, तपस्वी, वेदपाठी और कर्मकाण्डी। इनमें से श्राद्ध में केवल ज्ञानी को ही खिलाना चाहिए, परन्तु यज्ञादि में चारों को।
इसलिए धर्मज्ञ राजाओं ने इसके विपरीत क्यों कर किया? यदि आपका यह कथन मान लिया जाये, तो भी प्रश्न यह उपस्थित होता हैं, कि क्या उनको थोड़े-बहुत भी सच्चे ब्राह्मण न मिल सके? ऐसा तो नहीं कह सकते। क्योंकि यदि ऐसा होता तो तूफान मच जाता। क्योंकि आसपास के भुक्खड़ ब्राह्मण अवश्य ही पुकार मचाते। तो क्या सच्चे ब्राह्मणों ने भी मिथ्या ब्राह्मणों के साथ ही भोजन किया? क्या यज्ञ के कराने वाले ऋत्विक् वगैरह भी साथ ही साथ भोजन करने लग गये? यदि यह कहा जाये कि सभी को कुछ न कुछ घूस देकर कर्मचारियों ने बनावटी ब्राह्मणों के साथ या अलग खिला दिया। तो क्या यह बात विश्वसनीय हो सकती हैं? क्या आजकल भी, जबकि लोगों के धार्मिक विचार एकबारगी ढीले पड़ रहे हैं, ऐसा देखने में आता हैं? जब आजकल भी हजार यत्न करने पर भी ये बातें नहीं छिप सकतीं, तो उस समय कैसे हो सकती? साथ ही, इन बातों का कहीं कुछ भी लेख नहीं मिलता। इसलिए ये सब रचनाएँ एक-दूसरे को नीचा दिखलाने के लिए ही की गयी हैं। क्योंकि जब तक समाज दूसरे के विरुद्ध कुछ कहता हैं, तो दूसरा भी प्रथम के विरुद्ध अवश्य ही कुछ कहता हैं। इसीलिए सभी ब्राह्मण या अन्य समाजों में इस प्रकार की बातें पाई जाती हैं। अत: इन पर विश्वास नहीं किया जा सकता। विशेषकर भूमिहार ब्राह्मणों के विषय की यह कल्पित किंवदन्ती तो नहीं ही मानी जा सकती। इसीलिए इस विषय में अंग्रेजों ने भी इसका खण्डन किया हैं। जैसा कि मिस्टर 'डब्ल्यू. क्रुक' ने अपने 'युक्त प्रान्तीय जाति विवरण' के द्वितीय भाग के 64वें पृष्ठ और उसके अगले पृष्ठों में लिखा हैं और इस विषय में रिजले साहब की भी सम्मति दी हैं। वह लेख यों हैं :
The theory that they are mixed race derived from a congeries of low caste people accidentally brought together, is disapproved by the high and uniform type of physiognomy and personal appearance which prevails among them. This, as Mr. Risley says, would not be the case, if they were descended from a crowd of low caste men promoted by the cxigencies of particular occasion, for brevet rank thus acquired, would in on case, carry with it the right of intermarriage with pure Brahmans or Rajputs, and the artficially formed group, being complled to marry within its own limits, would necessarily perpetuate the low caste type of features and complexion. As a matter of fact, this is what happens with Sham Rajputs, whom we find in most of the out lying districts of Bengal. They marry among themselves, never among true Rajputs and their features reproduce of the particular aboriginal tribe from which they may happen to be sprung.
इसका अनुवाद यों हैं कि ''यह कथन, कि ये (भूमिहार-ब्राह्मण) कई जातियों के समुदाय से बने हैं और उन नीच जातीय लोगों की सन्तान हैं, जो किसी कारणवश इकट्ठे कर दिये गये थे, इन लोगों के ऊँचे और एक समान शरीर के ढाँचे और चेहरे-मोहरे से ही खण्डित हो जाता हैं। ये ढाँचे और चेहरे-मोहरे इनमें आज तक पाये जाते हैं। मिस्टर रिजले ने कहा हैं कि यदि ये लोग उन नीच जाति के लोगों के वंशज होते, जो किसी विशेष आवश्यकता के कारण ब्राह्मण बना दिये गये, तो इनमें यह बात कहीं न पाई जाती। क्योंकि जिन लोगों का दर्जा इस प्रकार ऊँचा बना दिया जाता, उनको किसी दशा में सच्चे ब्राह्मण या राजपूतों के साथ परस्पर विवाह करने का अधिकार नहीं मिलता। इसलिए वह बनावटी दल अपने ही में विवाह करने को मजबूर होता, जिससे उसके प्रथम के नीच जातियों के ही प्राचीन ढाँचे और चेहरे-मोहरे बने रह जाते। यही कारण हैं, जिससे यही दशा आज तक उन दोगले राजपूतों में पाई जाती हैं, जो बंगाल के बाहरी जिलों में पाये जाते हैं। क्योंकि वे लोग आपस में ही विवाह करते हैं, न कि सच्चे राजपूतों में। इसीलिए उनकी शारीरिक बनावट वैसी ही हैं जैसी कि उन प्राचीन (जंगली) जातियों की, जिनसे वे पैदा हुए होंगे।
आपने उस पूर्वोक्त किंवदन्ती की पुष्टि में जो यह लिखा हैं कि और इसका यह प्रमाण हैं कि 'इन भूमिहारों के वासस्थान उस समय के मगध राज्य की सीमा के बाहर और अन्यत्रा प्राय: दृष्टिगोचर नहीं होते।' वह भी क्या बुद्धिमत्ता हैं! क्या समस्त तिरहुत, भागलपुर और पूर्णियाँ जिले को लिये हुए तथा छपरा, गोरखपुर, बस्ती, आजमगढ़, प्रयाग, सुलतानपुर आदि जिलों को, जिनमें पश्चिम, भूमिहार, जमींदार ब्राह्मण विशेष रूप से पाये जाते हैं, आप मगध में ही समझते हैं? क्या इस विषय का आपके पास कोई प्रमाण हैं कि उस समय मगध संज्ञा युक्त प्रान्त तथा तिरहुत वगैरह की भी थी? क्या आपने महाभारत या 'फाह्यान' और 'ह्नेनसांग' का मगध वर्णन नहीं पढ़ा हैं? जब गाजीपुर, बलिया, बनारस और शाहाबाद भी मगध से बाहर हैं, तो अन्य प्रान्तों का कहना ही क्या हैं? यह भी प्रथम ही दिखला चुके हैं कि प्रथम भी भूमिहार ब्राह्मणों के विशेष वासस्थान प्राय: छपरा वगैरह सभी प्रान्तों में ही थे, जिससे अन्यत्रा जाने पर उन्हीं प्रान्तों के स्थानानुसार उनके एकसरिया प्रभृति नाम पड़े।
और ''चूँकि इन लोगों को जरासन्धा ने भूमि दे दी, इसलिए ये लोग तभी से भूमिहार ब्राह्मण कहलाने लगे, जो अब तक प्राय: मगध में ही पाये जाते हैं,'' यह कैसी बेसमझ और बेसिर-पैर की बात हैं? क्योंकि आप मगधवासी भूमिहार ब्राह्मणों के भूमिहार नाम पड़ने का यह कारण बतलाते हैं। परन्तु यह नहीं देखते कि वहाँ तो, जैसा कि प्रथम प्रकरण में भी कह चुके हैं, वे लोग आज तक ब्राह्मण या बाभन ही बोले जाते हैं। भूमिहार शब्द का तो प्रयोग वहाँ हुआ ही नहीं। हाँ, अब भूमिहार ब्राह्मण महासभा के होने से कहीं-कहीं पढ़े-लिखे लोग भूमिहार शब्द का प्रयोग करने लगे हैं। ये नेत्रों के पटल आपके खुल गये होते, यदि भाग्यवश आपको मगध में जाना पड़ा होता, अथवा भूमिहार ब्राह्मणों के सामाजिक विवरण के पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ होता। उस दशा में आपके मुख से ऊटपटाँग बात न निकल सकती। अफसोस और आश्चर्य तो यह हैं कि आप इन अयाचक ब्राह्मणों को भूमिहार ब्राह्मण कहते और लिखते जाते हैं और साथ ही उनके विषय में बहुत सी मिथ्या कल्पनाएँ और मनोराज्य भी करते हैं। ऐसी दशा में तो आप बंगदेशीय ब्राह्मण, मैथिल ब्राह्मण, कान्यकुब्ज ब्राह्मण, गौड़ ब्राह्मण और सर्यूपारीण ब्राह्मण इत्यादि नामों के भी विषय में कुछ न कुछ मनमानी हाँक सकते हैं। यदि नहीं तो फिर भूमिहार ब्राह्मण नाम से ही आपका क्या ले लिया हैं, जिसके ऊपर इस तरह जी-जान से रंज हैं? बस कृपा करिये, रहने दीजिए।
पाठक यह तो हुई 'भारतवर्षीय राजदर्पण' की बात। जिससे सम्भवत: इस दर्पण के भविष्य में खोलने की अब आवश्यकता या योग्यता न रह गयी होगी। क्योंकि यह कुदर्पण हैं, जिससे इसमें उलटा ही दीखेगा। अत: इसके खोलने में पश्चात्ताप ही हाथ लगेगा। अब दूसरे दर्पण को खोलते और उसका भी परिचय यहीं देकर उसके भी भविष्य में बन्द करने का अनुरोध आप लोगों से करते हैं। उस दर्पण का नाम हैं विहार दर्पण। उसके रचयिता भूतपूर्व खंगविलास प्रेस, बाँकीपुर के अधिष्ठाता या संचालक बाबू रामदीन सिंह थे। इनके विषय में हमें यहाँ विशेष नहीं कहना हैं। क्योंकि, जैसाकि प्रथम प्रकरण के अन्त में दिखला चुके हैं, इन्होंने टेकारी के भूतपूर्व महाराज रामकृष्ण सिंहजी के जीवन-चरित्र के वर्णन प्रसंग से कई जगह भूमिहार ब्राह्मणों को स्पष्ट शब्दों में ब्राह्मण लिखा और सिद्ध भी किया हैं। परन्तु हँसी तो हमें उनकी इस बात पर आती हैं कि उनसे भी अपनी आन्तरिक कलुषता प्रकट किये बिना रहा नहीं गया और एक जगह टिप्पणी में वही जरासन्धा वाली किंवदन्ती को भारतवर्षीय राजदर्पण से ज्यों का त्यों उदधृत कर दिया और लिख भी दिया कि 'भारतवर्षीय राजदर्पण' में ऐसा लिखा हैं। भला उनको इस लेख के सारासार का विचार तो करना चाहता था। परन्तु शोक, कि उस अन्धा परम्परा के कीचड़ में आप भी फँस गये। अस्तु, उसके पृथक् खण्डन की आवश्यकता नहीं हैं, किन्तु जिस पुस्तक से उन्होंने उध्दृत किया, उसी पुस्तक के खण्डन से उसका भी खण्डन हो चुका। विशेष हँसी तो हमको उसी लेख पर आती हैं, जो उन्होंने पूर्वोक्त महाराज रामकृष्ण सिंहजी के जीवन-चरित्र के वर्णन प्रसंग में लिखा हैं कि किसी ग्राम के निवासी भूमिहार ब्राह्मण क्षत्रियों के हुक्के पिया करते थे, जिसे महाराज रामकृष्ण ने छुड़ाया। भला क्या ही विचित्र बात हैं! आपको वैसा लिखते लज्जा भी न आयी! क्योंकि जब मगध या अन्य सभी प्रान्तों में उनके भाई सभी क्षत्रिय भूमिहार ब्राह्मणों को अन्य ब्राह्मणों की तरह पालागन या प्रणाम करते हैं, तो यह कब सम्भव था कि वे ही क्षत्रिय उनके साथ हुक्का-पानी रखते थे? और यदि हुक्का-पानी था, तो खान-पान या विवाह-सम्बन्ध वगैरह भी उनके साथ जरूर ही रहा होगा। क्योंकि यह नियम हैं कि जिनके साथ खानपान होता हैं उन्हीं के साथ हुक्का-पानी भी होता हैं। इसलिए अच्छा हुआ होता कि उस खानपान और विवाह सम्बन्ध वगैरह का भी परिचय आपने दिया होता। क्योंकि इससे आपके लेख की पुष्टि हो जाती और वह प्रमाणित हो जाता। नहीं तो अब यही प्रश्न उठता हैं कि बिना जड़-मूल की ऐसी बात जो क्षत्रिय और भूमिहार ब्राह्मणों में इस समय कहीं भी नहीं पाई जाती हैं, आपने किस आधार पर लिखी? यदि आपको विवेक था, तो उस प्रमाण को भी उसी पुस्तक में उध्दृत कर देना था। नहीं तो यदि हम भी आपके वंश या समाज के विषय में ऐसी कल्पित बातें लिख डालें कि अमुक ग्राम के क्षत्रिय अमुक नीच जाति के लोगों के साथ हुक्का- पानी करते थे, जिसे आपके अमुक पुरुष ने हटाया। तो कम से कम आपको भी अवश्य ही मान लेना पड़ेगा।
अब रही बाबू हरिश्चन्द्र की बात, जो उन्होंने अपने मुद्राराक्षस नाटक के हिन्दी अनुवाद ग्रन्थ में लिखी हैं। उसके विषय में हम क्या कहें, जो कुछ कहना था कह चुके। क्योंकि उन्होंने केवल भूमिहार ब्राह्मणों के दिल दुखाने की ही इच्छा से अपने उक्त ग्रन्थ में उसी मगधराज जरासन्धा के यज्ञ वाली किंवदन्ती को भारतवर्षीय राजदर्पण से उध्दृत कर दिया। गोया वह भारतवर्षीय राजदर्पण ऋषि ग्रन्थ हो गया, जिसे ऐसे-ऐसे प्रतिष्ठित लोग भी प्रमाण देने लगे। वाह रे अन्धापक्षपात! जिस ग्रन्थ की बात ऐसी निर्मूल, वही माननीय लोगों में भी आदर पावे! किसी कवि ने ठीक ही कहा हैं कि:
अहोमहान्तोऽपिमहेन्द्रजालेमज्जन्तिमायाविवरस्यतस्य॥
अर्थात् ''क्या ही आश्चर्य हैं कि बड़े लोग भी परमात्मा के मायाजाल में फँस कर अनाप-सनाप ही कर बैठते हैं।'' बाबू रामदीन सिंह बाबू हरिश्चन्द्र के अनन्य भक्त थे, जिससे उनकी सब पुस्तकें खंगविलास प्रेस में छपवाईं। इसलिए जो बात रामदीन सिंह लिखें वह इनसे क्योंकर छूटने की? अथवा इनकी बात उनसे क्यों कर छूट सकती थी? इसीलिए दोनों बाबू मिल गये। परन्तु बाबू हरिश्चन्द्र तो हिन्दी समाज में एक बड़े ही प्रतिष्ठित पुरुष थे। अत: उनको यह बात लिखते समय अवश्य यह विचारना था कि किसी समाज के विषय में यह हमारा अकाण्ड ताण्डव कैसी हलचल मचावेगा। लेकिन उनका अपराध ही क्या कहा जा सकता हैं? क्योंकि उस समय तो मुद्राराक्षस लिख रहे थे! यदि उन्होंने ऐसा लिखने का निश्चय ही कर लिया था तो क्या ही अच्छा होता कि इसे प्रमाणित कर देते! जिससे भविष्य के लिए उनकी ये बातें पत्थर की लकीर हो जातीं और कोई भी उन्हें खण्डन करने का साहस न करता। परन्तु उस बात को तो वैदेशिकों ने युक्ति से ही बात की बात में उड़ा दिया। हालाँकि वे लोग हमारे हिन्दू समाज से विशेष परिचित नहीं होते हैं। परन्तु एक मान्य हिन्दू धोखा खा जाये यह क्या ही आश्चर्य हैं!!
अन्त में बाबू हरिश्चन्द्र के दो-एक और अनुयायियों और भक्तों की लीला दिखला कर इस विषय को समाप्त करना चाहते हैं। काशी नागरी प्रचारिणी सभा की तरफ से जो रामायण इण्डियन प्रेस में छपी हैं उनके आरम्भ में उसके सम्पादक बाबू श्यामसुन्दर दास ने तुलसीदास की जीवनी लिखते हुए उनके 'मित्रा और स्नेही' प्रसंग में भदैनी, काशी के चौधुरी लोगों के पूर्वज टोडर का जिक्र किया हैं और लिखा हैं कि 'इस टोडर के वंशज क्षत्रिय हैं।' यही बात फिर उन्होंने स्वसम्पादित सटीक तुलसीकृत में दोहराई हैं और फिर 'तुलसी ग्रन्थावली' में श्री रामचन्द्र शुक्ल, लाला भगवानदीन और बाबू ब्रजरत्न दास रूप सम्पादकत्रायी ने उसे ही ज्यों का त्यों उध्दृत कर दिया हैं। इस प्रकार हम देख रहे हैं कि अन्धापरम्परा का प्रवाह बह चला हैं। बिना समझे-बूझे करने की आदत हम लोगों में ऐसी आ गयी हैं कि हम अपने अनुसन्धान और विचार को ताक पर रख आँख मूँदकर दूसरों का थूका चाट लेने में ही अपने को कृतकृत्य मानते हैं। नहीं तो ऐसे विवादग्रस्त विषय में यों आँख मूँदकर क्यों लिखा जाता? डॉ. ग्रियर्सन ने उक्त टोडर को अकबर का मन्त्री राजा टोडरमल लिखा, तो आप लोगों ने उसका खण्डन कर उन्हें क्षत्रिय लिख मारा। वाह रे खोज! और वाह रे नागरी प्रचारिणी सभा का अनुसन्धान! आप लोग उसके कर्णधार हैं। मगर जब स्वयं बह रहे हैं तो ईश्वर ही बेड़ा पार करे। भलेमानुसो, जिस टोडर को आप क्षत्रिय लिख रहे हैं वे ब्राह्मण हैं। उन्हीं के वंशज भदैनी, नयी बस्ती, नदेसर और सुरही के चौधुरी लोग हैं। आप लोगों ने जिन पाँच गाँवों का जिक्र किया हैं वह इन्हीं के अधिकार में थे और इन्हीं से महाराज बनारस को मिले। अभी तक उनका कुछ अंश इन लोगों में से किसी के अधिकार में हैं भी। ये लोग कश्यप गोत्री भूमिहार ब्राह्मण हैं। मगर इसे लिखने में आप लोगों का दोष ही क्या? जबकि आप लोगों को साधारण भूगोल का ज्ञान भी नहीं हैं। क्योंकि कांट ब्रह्मपुर को आप लोग उन्हीं पोथों से बलिया जिले में लिखते हैं। हालाँकि वह स्थान शाहाबाद में हैं। तो फिर यह तो अनुसन्धान की बात ठहरी। पर, स्मरण रहे कि नागरी प्रचारिणी एक जबावदेह संस्था हैं, न कि आपकी बपौती। यदि उसके नाम पर ऐसा लबड़धोंधों होगा तो ठीक नहीं। इसका परिणाम ठीक न होगा। क्या इसी बुद्धि से 'हिन्दी शब्द सागर' का सम्पादन हो रहा हैं। खुदा ही खैर करे! यदि शायद यह कहें कि ये लोग क्षत्रिय ही हैं, न कि ब्राह्मण तो हम आप लोगों को शाबाशी देंगे और कहेंगे कि आप लोगों ने बहादुर का काम किया। पर याद रहे कि खत्री लोगों को क्षत्रिय लिखने में आपको जितना सबूत मिला क्या भूमिहारों के ब्राह्मण होने में उतना भी न मिला? क्या खत्रियों के साथ क्षत्रियों के विवाह और खानपान वगैरह होते हैं? और भूमिहारों के मैथिलों, कान्यकुब्जों या सर्यूपारियों के साथ? इसका पता तो इसी ग्रन्थ से ही लग गया होगा या लग जायेगा। हाँ, जागकर सोना और बात हैं।
जब ऐसा लिखने का प्रमाण आप से पूछा गया तो आप लिखते हैं कि ''टोडर को क्षत्रिय मानने का कोई दृढ़ प्रमाण मेरे पास नहीं हैं। तुलसीदास के दोहे का 'ठाकुरो' शब्द और टोडर के वंश के नाम से यह अनुमान किया हैं कि ये लोग क्षत्रिय थे। डॉ. ग्रियर्सन और पं. सुधाकर द्विवेदी ने भी यही माना हैं। यदि इस वंश के लोग अपने को भूमिहार कहते हैं तो यही मानना उचित होगा।'' यह तो खासी बुद्धिमानी ठहरी, कि 'ठाकुर' शब्द और नाम के अन्त में शायद 'सिंह' देखकर क्षत्रिय निश्चय कर लिया! मैथिली, कान्यकुब्ज, गौड़ और सनाढय ब्राह्मणो, सजग! नहीं तो इस चक्की में पिस जाओगे! इस कसौटी पर खरे न निकल सकोगे! क्यों जनाब, क्या तुलसीदास का ही 'कहहिं सचिव सब ठकुरसुहाती' भूल गया, जिससे यह अनर्थ कर डाला? क्या खत्रिय को क्षत्रिय लिखने में इस कसौटी का प्रयोग किया गया हैं? वहाँ भी तो आपने कमाल किया हैं! 'हिन्दी शब्द सागर' में उन्हें क्षत्रिय लिखते हैं और यहाँ लिखते हैं कि ''राजा' टोडरमल टण्डन खत्री थे और इस टोडर के वंशज क्षत्रिय हैं।'' उन बेचारों की फजीहत क्यों करते हैं? अथवा मर्जी ही तो ठहरी! अस्तु।
इन्हीं कूपमण्डूक भलेमानुसों की एक और भी काली करतूत दिखलाकर बस करेंगे। काशी नागरी प्रचारिणी की तरफ से जो कोष 'हिन्दी शब्द सागर' तैयार हो रहा हैं उसके सम्पादक तो वही हुजूर श्यामसुन्दर दास हैं और उनके ही-हुजूरों में लाला भगवानदीन के सिवाय लाला जगन्मोहन और श्रीरामचन्द्र शुक्ल वगैरह हैं। इस कोष में भी ये महारथी एक प्रकार से लोगों के विधाता ही बन रहे हैं और जिस किसी के बारे में जो ही मन में आता लिखकर दिल की कसक निकाल लेते हैं। साथ ही, अपना और अपने इष्ट मित्रों का काम भी बना लेते हैं। वे 'तगा' शब्द के बारे में लिखते हैं कि ''एक जाति जो रुहेलखण्ड में बसती हैं। इस जाति के लोग जनेऊ पहनते और अपने आपको ब्राह्मण मानते हैं।'' जिस छल, नीचता और चालाकी से यह लिखा गया हैं वह उन्हीं को मुबारक हो। अच्छा फिर 'भूमिहार' शब्द पर लिखते हैं कि ''एक जाति जो प्राय: बिहार में और कहीं-कहीं संयुक्त प्रान्त में भी पाई जाती हैं। इस जाति के लोग अपने आपको ब्राह्मणों के अन्तर्गत बतलाते हैं और प्राय: अपने आपको 'बाभन' कहते हैं। इस जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की बातें सुनने में आती हैं। कुछ लोग कहते हैं कि जब परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित कर दिया था, तब जिन ब्राह्मणों को उन्होंने राज्य भार सौंपा था, उन्हीं के वंशधार ये भूमिहार या बाभन हैं। कुछ लोगों का कहना हैं कि मगध के राजा जरासन्धा ने अपने यज्ञ में एक लाख ब्राह्मण बुलाये थे। पर, जब इतनी संख्या में ब्राह्मण न मिले, तब उनके एक मन्त्री ने छोटी जाति के बहुत से लोगों को यज्ञोपवीत पहनाकर ला खड़ा किया था और उन्हीं की सन्तान ये लोग हैं। जो हो, पर इसमें सन्देह नहीं कि इस जाति में ब्राह्मणों के यजन, याजन आदि कर्मों का नितान्त अभाव देखने में आता हैं और प्राय: क्षत्रियों की अनेक बातें इनमें पाई जाती हैं। ये लोग दान नहीं लेते और प्राय: खेती-बारी या नौकरी करके निर्वाह करते हैं, सारांश इससे खराब लिखा नहीं जा सकता।
इस मूर्खतापूर्ण बातों का अब हमें उत्तर देना नहीं हैं। जो कहना था कह चुके हैं। पर, इतना अवश्य कहना हैं कि सिवाय कूपमण्डूक के और कोई इसे यदि कहेगा तो सिर्फ पक्षपाती। हजारीबाग में तो भूमिहार पुरोहिती पेशा करते ही हैं और गया-देव-के सूर्य मन्दिर में पुजारी यही लोग हैं। यह गायत्री के आचार्य होते ही हैं। यह पुरोहिती सैकड़ों, हजारों वर्षों से हैं। इसके सिवाय अब तो इनमें हजारों पुरोहिती करने वाले हैं। फिर पुरोहिती का इनमें नितान्त अभाव बताना मूर्खता नहीं तो और क्या हैं? लाख या सवा लाख ब्राह्मणों की कहानी तो सभी ब्राह्मण दलों में फैली हैं और उनकी पुस्तकों में लिखी भी हैं। फिर सिर्फ भूमिहारों के ही विषय में उसके नाम लेने की क्या आवश्यकता आ पड़ी? यह केवल आन्तरिक नीचता हैं। अच्छा, तो क्या कायस्थों और खत्रियों के विषयों में एकबारगी साफ ही मामला हैं? क्या खत्रियों को लोग क्षत्रिय या क्षत्रियों की एक शाखा मानते हैं या सिर्फ उन्हीं लोगों को श्याम सुन्दर के भाइयों का ही दावा हैं? तो फिर उनके बारे में केवल क्षत्रिय या क्षत्रियों की शाखा ही क्यों लिखा गया और यह दावे की बात क्यों न लिखी गयी? सिर्फ इसलिए कि श्यामसुन्दर दास कोष के सम्पादक ठहरे और वह उनकी जाति। लाला लोग इसलिए चुप रहे कि कायस्थों के विषय में भी ऐसा ही लिख दिया जायेगा, शायद यह समझौता हो चुका था। बस फिर क्या? 'हम-तुम राजी तो क्या करेंगे शहर के काजी।' हम लाला भगवानदीन की 'लक्ष्मी' वाली भलेमानुसी खूब जानते हैं, भूले नहीं हैं।
जब कायस्थों और उनके भेद-करण, अम्बष्ठ का प्रसंग आया तो 'हिन्दुओं की एक जाति का नाम', 'कायस्थों का एक अवान्तर भेद', 'कायस्थों का एक भेद' इत्यादि लिखकर मौन हो गये। याज्ञवल्क्यस्मृति के आचाराध्याय के 91, 92 और 336 श्लोक आप लोग भूल ही गये। क्योंकि आपको तो विशेष चिन्ता इस बात की हैं कि भूमिहारों का विवरण जैसे हो दिया जाये, दूसरों का नहीं। क्यों हुजूरों, अम्बष्ठ और करण का जो अर्थ मनु और याज्ञवल्क्य ने किया हैं कि ब्राह्मण पुरुष से वैश्य स्त्री में और वैश्य से शूद्रा में उत्पन्न होने वाली जाति और जिसे आप लोगों ने भी लिखा हैं उसमें और आपके कारण एवं अम्बष्ठ कायस्थों में यदि कोई भेद हैं तो उसे भी क्यों न लिख दिया और 336वें श्लोक का उत्तर भी क्यों न दे दिया? ताकि आपके राज्य में आप लोगों की जाति अचल हो जाती और आपके भाई खूब समझ जाते कि 'सैंया भये कोतवाल अब डर काहे का।' हालाँकि वह लोग तो इस समय भी ऐसा ही समझते हैं। यदि मिथिला और बंगाल के करण और अपने दूसरे भाइयों की दशा जाँचें तो आपकी गर्मी ही ठण्डी हो जाये वहाँ दूसरे करण नहीं हैं। हमें तो आश्चर्य हैं कि जैसे एक 'दास' ने अपने समाज को साफ ही क्षत्रिय लिख दिया वैसे ही दूसरे दो दासों ने ऐसा क्यों नहीं कर डाला? क्या पीछे से समझौते में फर्क पड़ गया? हमें 'वर्मा' नामधारियों की इस बदकिस्मती पर तरस आता हैं! कोष में 'भूमिका' शब्द पर आप लोगों ने लिख मारा कि ''वेदान्त के अनुसार चित्ता की पाँच अवस्थाएँ, जिनके नाम ये हैं-क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध।'' भलेमानुसो, ये योग के अनुसार चित्ता की अवस्थाएँ हैं। वेदान्त के अनुसार तो 7 हैं, जिन्हें योगवासिष्ठ में 'सप्तभूमिका' कहा हैं। क्या इसी बुद्धि से शब्द सागर तैयार हो रहा हैं? यह तो आप लोगों के दिमाग शरीफ का एक छोटा सा नमूना हैं। आपने कितने अनर्थ करके नागरी प्रचारणी को बदनाम किया होगा इसका ठिकाना नहीं! अस्तु।
पूर्वोक्त अब तक की बातों से पाठकों को विदित हो गया होगा कि भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में जितनी कुकल्पनाएँ आज तक की गयीं और पुस्तकों में भी लिखी गयी हैं, वे कैसी निर्मूल और लेखकों के हृदय की कालिमा की सूचक हैं।हिन्दू समाज के प्रतिष्ठित पुरुषों द्वारा किये गये पुस्तकाकार आक्षेप आज तक मेरी दृष्टि में इतने ही पड़े हैं, जिनका समुचित खण्डन इस प्रकरण में कर दिया गया हैं। इसलिए अब इन्हीं कल्पित आधारों पर अपने-अपने मानसिक प्रासाद खड़े करने वाले-इन्हीं को ब्रह्म वाक्य मानने वाले उध्दृत सज्जनों से मेरी यही विनीत प्रार्थना हैं कि अब इसी अंजन से वे अपने ज्ञान नेत्रा को निर्दोष करे ले, जिससे भविष्य में उन्हें कभी भी भूमिहार ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति के विषय में दोष की स्फूर्ति न हो।

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