स्वामी
सहजानन्द सरस्वती रचनावली-1
सम्पादक
-
राघव शरण शर्मा
ब्रह्मर्षि वंश विस्तार
पूर्व परिशिष्ट
अहिंसैकपरा नित्यमप्रतिग्राहिणस्तथा।
सत्रिणो दाननिरता ब्राह्मणा: पंक्तिपावना:।-बृ. उशना:।
1- स्फुट प्रश्न समालोचना
यद्यपि पूर्व के दो प्रकरणों में युक्ति और प्रमाणों द्वारा ब्राह्मणों का
वास्तविक स्वरूप और धर्मों के प्रदर्शन कर देने, याचक और अयाचक दल वाले
ब्राह्मणों का परस्पर प्रसिद्ध विवाह सम्बन्ध एवं खान-पान दिखला देने और
अज्ञान तथा द्वेषमूलक अयाचक ब्राह्मणों के ऊपर किये गये निर्मूल अतएव
मिथ्या आक्षेपों को विविध उपायों द्वारा विधिवत् निर्मूल कर देने से अयाचक
ब्राह्मणों का सर्वोत्ताम और शास्त्र सिद्ध वास्तविक स्वरूप अच्छी तरह
विदित ही हो गया। अत: अब कुछ कहने की आवश्यकता
नहीं हैं। तथापि दो-एक प्रसिद्धतर प्रश्नों की मीमांसा करते और बंगदेशीय
कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में से दो-चार प्रसिद्ध घरों के साथ भी विवाह
सम्बन्ध दिखलाते हुए अत्यन्तोपयोगी और नित्यर् कर्त्तव्य सन्ध्योपासन एवं
श्राध्दादि विषयों की आवश्यकता और उनमें भोजन कराने योग्य ब्राह्मणों का
निरूपण करके इस ग्रन्थ को सम्पूर्ण करना हैं। इसीलिए थोड़ा सा यह यत्न और भी
कर दिया जाता हैं। यद्यपि जिन प्रश्नों की मीमांसा यहाँ की जायेगी उनकी भी
सामान्य रूप से प्रथम ही आलोचना हो चुकी हैं, तथापि वे बहुत प्रसिद्ध या
प्रचलित हैं, इसीलिए उनका विशेष रूप से विचार किया जाता हैं।
प्रथम और सबसे प्रचलित प्रश्न तो यह हैं कि जब कभी और जहाँ कहीं भी
ब्राह्मणों के स्वरूप या धर्म का विचार उपस्थित होता हैं, वहाँ लोग झट से
यह कह बैठते हैं कि अजी साहब! जैसी कान्यकुब्ज और सर्यूपारी आदि ब्राह्मणों
की उत्पत्ति शास्त्रों में मिलती हैं, एवं क्षत्रिय वगैरह की भी, वैसी
भूमिहार आदि ब्राह्मणों की उत्पत्ति का तो कहीं भी पता नहीं हैं, फिर यदि
इनके विषय में कुकल्पनाएँ न हों तो और हो क्या? और यदि आप इनके विषय में
किसी प्रकार का दावा करते हैं तो बस, इनकी उत्पत्ति कहीं दिखला दीजिए, हम
आपकी सब बातें मानने को तैयार हैं। इस पर यदि उन लोगों से यह कहा जाये कि
अच्छा, तो फिर प्रथम आप ही बतलाइये कि कान्यकुब्ज, सर्यूपारी या गौड़ आदि की
उत्पत्ति कहाँ लिखी हैं? तो वे लोग झटपट बोल बैठते हैं कि 'ब्राह्मणस्य
मुखमासीत्' इस वेद मन्त्र, 'लोकानां तु विवृद्धयर्थं मुख बाहूरुपादत:।
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निर्रवत्तायत्'। इस मनुवाक्य और समस्त
पुराणों में ही लिखी हैं। इसमें पूछने की क्या बात हैं? परन्तु विचारने की
बात हैं कि जिन वचनों का नाम ऊपर लिया गया हैं, उनमें केवल ब्राह्मण शब्द
ही आया हैं, न कि कान्यकुब्ज या गौड़ आदि शब्द आये हैं। वहाँ
'कान्यकुब्जोस्य मुखमासीत्' 'गोडोस्य मुखमासीत्' ऐसा तो लिखा हुआ हैं नहीं।
अब यह देखना चाहिए कि उस ब्राह्मण शब्द से कान्यकुब्ज या गौड़ आदि ब्राह्मण
ही लिये जायेगे और भूमिहार, त्यागी, पश्चिम आदि ब्राह्मण नहीं, इसमें
प्रमाण ही क्या हैं? क्या इसकी कोई रजिस्टरी या हुलिया उनके पास खासतौर पर
हैं कि वहाँ ब्राह्मण शब्द उन्हीं का वाचक हैं, कि त्यागी आदि ब्राह्मणों
का भी? यह अन्धा पक्षपात या मिथ्या अभिनिवेश नहीं हैं तो और हैं क्या?
दूसरी बात यह हैं कि जब कान्यकुब्ज लोग स्वयं ही इस बात को स्वीकार करते
हैं कि काश्यप गोत्र वाले सभी कान्यकुब्ज मदारपुर के अधिपति भूमिहार
ब्राह्मणों के ही वंशज हैं और उन काश्यप गोत्रवाले कान्यकुब्जों का खानपान
या विवाह सम्बन्ध सभी गोत्रवाले कान्यकुब्जों से से होता हैं और सर्यूपारी
लोग भी उन्हीं कान्यकुब्जों की एक शाखा अपने को स्वीकार करते हैं। तो फिर
हमारा इस विषय में केवल इतना ही वक्तव्य हैं कि आप सर्यूपारी या कान्यकुब्ज
ही अपनी-अपनी उत्पत्तियाँ बतलावें, उसी से भूमिहार आदि ब्राह्मणों की
उत्पत्ति का भी पता चल जायेगा, क्योंकि वे लोग भूमिहार ब्राह्मणों के ही
वंशज हैं। अथवा संक्षेपत: इस उत्पत्ति वाले प्रश्न का यही उत्तर हैं कि
भूमिहार आदि ब्राह्मण कान्यकुब्ज आदि ब्राह्मणों के पिता या पूर्वज हैं।
जैसी कि उनकी राय और सिंह वगैरह पदवियाँ दूबे और चौबे आदि पदवियों की
जन्माने वाली प्रथम ही सिद्ध की गयी हैं। कान्यकुब्ज और भूमिहार आदि शब्दों
का विचार करते हुए यह बात प्रथम प्रकरण में ही सविस्तार वर्णित हैं। अत:
इसका विशेष ज्ञान वहीं से प्राप्त कर लेना चाहिए।
दूसरा प्रश्न हुआ करता हैं कि यदि दान लेना ब्राह्मणों का धर्म नहीं हैं,
तो भूमिहार ब्राह्मण कन्यादान को क्यों स्वीकार करते हैं? वाह! वाह! क्या
ही अच्छा प्रश्न हैं! हमने यह कब कहा हैं कि दान लेना सर्वथा ही ब्राह्मणों
का धर्म नहीं हैं? किन्तु उसे केवल आपद्धर्म बतलाया हैं, जिसका तात्पर्य यह
हैं कि जब जिस दान ग्रहण किये बिना काम किसी प्रकार भी चल नहीं सकता, तो उस
समय उसका स्वीकार ब्राह्मण कर सकता हैं। और कन्यादान के स्वीकार किये बिना
किसी प्रकार भी काम नहीं चल सकता, प्रत्युत वंश या संसार का ही उच्छेद हो
जायेगा और महान् उत्पती मच जायेगा। इसलिए अगत्या उसके करने की शास्त्र ने
भी आज्ञा दी हैं। परन्तु वह भी हमारी इच्छा पर निर्भर हैं, चाहे हम उसे ले
या न। दूसरी बात यह हैं कि हम सामान्य रूप से दान का निषेध करते हैं, न कि
नाम लेकर एक-एक का। ऐसी दशा में यदि कोई विशेष वचन किसी कन्यादान आदि विशेष
दान के स्वीकार की आज्ञा देता हैं तो उससे उस सामान्य निषेध का विशेष अंश
में संकोच होकर यह तात्पर्य सिद्ध होगा, कि कन्यादानादि से भिन्न दानों का
स्वीकार शास्त्र निषिद्ध हैं, क्योंकि सामान्य शास्त्र को विशेष शास्त्र
बाँध लेता हैं। न कि उस कन्यादान स्वीकार वाले शास्त्र के विशेष वचन के बल
से सभी दानों का ग्रहण करना सिद्ध हो जायेगा। यदि ऐसा होने लगे तो फिर
शास्त्रों में बड़ा ऊधम मच जायेगा और 'मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि' अर्थात्
किसी भी प्राणी की हिंसा न करें।' यह जो वचन सामान्यत: सभी हिंसाओं का
निषेध करता हैं, उसके विरोधी 'अग्नीषोमीयं पशुमालभेत' अर्थात् 'अग्नीषोमीय
याग में पशु की हिंसा (वा स्पर्श) करना चाहिए' इस वचन के होने से उस
सामान्य वचन का सम्पूर्ण बोध होने पर सभी प्रकार की हिंसाएँ शास्त्र विहित
हो जायेगी। इसीलिए भगवान् पतंजलि ने महाभाष्य में कहा हैं कि :
प्रकल्प्य चापवादिविषयं तत उत्सर्गो निविशते।
इसका तात्पर्य वही हैं जो पूर्व दिखला चुके हैं कि विशेष वचन के होने पर
सामान्य शास्त्र का विशेष अंश में संकोच हो जाया करता हैं। बड़ी खूबी तो इस
प्रश्न में यह हैं कि जिस कन्यादान के स्वीकार से आप लोग दान लेना
ब्राह्मणों का उच्च धर्म सिद्ध किया चाहते हैं, उसे ब्राह्मण से लेकर
चाण्डाल पर्यन्त सभी करते हैं। तो फिर क्या आपकी इस दलील के अनुसार चाण्डाल
पर्यन्त सभी जातियों को दान ग्रहण करना चाहिए? तो फिर आप इस युक्ति से इतना
भी कदापि सिद्ध नहीं कर सकते कि जो दान न ले वह श्रेष्ठ ब्राह्मण ही नहीं
हैं।
तीसरा प्रश्न यह किया जाता हैं कि जैसे अन्य जातीय याचक, भिक्षु या पुरोहित
दलवाले ब्राह्मणों को पूजते या प्रणाम करते हैं, वैसे ही आपके अयाचक या
भूमिहार आदि ब्राह्मण भी किया करते हैं। तो फिर इनके विषय में सन्देह या
कुकल्पनाएँ क्यों न हों? परन्तु इस प्रश्न को भी सुनकर हँसी आती हैं
क्योंकि यदि इसी दलील के अनुसार अयाचक ब्राह्मणों के विषय में सन्देह किया
जाये अथवा वे ब्राह्मण ही समझे न जाये, तो फिर सभी ब्राह्मण कहलाने वालों
को अपनी ब्राह्मणता का बाजी दावा लिखना या उससे हाथ धोना पडेग़ा। क्योंकि
ऐसा प्रश्न करनेवाला जो ही याचक दल वाला ब्राह्मण होगा वही अपने गुरु या
पुरोहित को वैसे ही प्रणाम करता, या उनकी पूजा करता होगा जैसे कि अयाचक
ब्राह्मण किया करते हैं। क्योंकि गुरु या पुरोहित तो सभी के हुआ करते हैं।
तो फिर वह याचक दल वाला ब्राह्मण भी इसी दलील के मुताबिक ब्राह्मण न ठहरा।
इसी प्रकार उसके गुरु या पुरोहित के भी गुरु और पुरोहित होंगे और फिर उनके
भी वैसे ही होंगे और वे लोग भी अपने-अपने गुरुओं और पुरोहितों के पूजन और
प्रणाम करने से ब्राह्मण न ठहरे। इसका अन्त में नतीजा यह निकलेगा कि कोई भी
ब्राह्मण सिद्ध न हो सकेगा। यह तो वही 'सूद के लिए मूल के भी गँवाने' वाली
बात हुई।
बात तो असल यह हैं कि अधिकतर अयाचक ब्राह्मण तो पुरोहिती वगैरह करते ही
नहीं। ऐसी दशा में अगत्या याचक ब्राह्मणों को पुरोहित वगैरह बनाकर यदि
अयाचक ब्राह्मण उन्हें प्रणाम आदि करते हैं तो इसमें हानि ही क्या हैं? यदि
कोई ऐसा कहने का साहस करे कि सभी अयाचक ब्राह्मण सभी याचक ब्राह्मणों को
प्रणाम आदि करते हैं, तो यह बात कभी भी मानी नहीं जा सकती। जैसा कि प्रथम
ही कह चुके हैं कि ऐसे-ऐसे अयाचक दलीय ब्राह्मण वंश पड़े हुए हैं जिन्हें
याचक दल वाले प्रथम ही प्रणाम करते हैं। यहाँ तक कि उस दल के राजे-महाराजे
भी प्रणाम करते और पत्र वगैरह में भी लिखा करते हैं। इसके लिए प्रमाण
स्वरूप बहुत से पत्र और व्यवस्थाएँ प्रथम ही प्रकरण में प्रदर्शित कर दी गई
हैं। जिन्हें इस बात का आग्रह हो उन्हें हम ऐसे-ऐसे लाखों दृष्टान्त दिखला
सकते हैं। यदि कहीं-कहीं पुरोहितादि से भिन्न याचक दलवालों को भी अयाचक
ब्राह्मण लोग प्रणाम करते हों, तो इससे भी पुरोहित दलवालों की उत्तमता
सिद्ध नहीं हो सकती, किन्तु इसका कुछ और ही कारण हैं। वह यह कि जिन गुरु या
पुरोहित से भिन्न किसी-किसी याचक ब्राह्मणों को अयाचक ब्राह्मण कहीं-कहीं
प्रणाम कर देते हैं, उनके पूर्वज प्रथम बड़े-बड़े तपस्वी और शास्त्रज्ञ थे।
जिससे 'विप्राणां ज्ञानतो ज्यैष्ठयम्' अर्थात् ब्राह्मणों में अधिक ज्ञान
वाला ही ज्येष्ठ समझा जाता हैं, न कि अधिक अवस्था वाला' इस मनुवचन के
अनुसार उन्हें ज्येष्ठ समझकर गुरु या पुरोहित न होने पर भी अयाचक
ब्राह्मणों के पूर्वज प्रणाम कर दिया करते थे। जैसा कि करना उचित ही हैं और
याचक दल वाले भी किया करते थे और करते भी हैं। परन्तु सभी घुरहू कतवारू को
आँख मूँदकर प्रणाम न तो याचक ही और न अयाचक ही किया करते थे, या किया करते
हैं। काल पाकर यद्यपि उनके वंशजों में वह योग्यता न भी रह गयी जिससे उन्हें
प्रणाम करना उचित था, परन्तु लोक तो अन्धापरम्परा हैं। जो बात एक बार चल
पड़ी उसे रोकना सहज नहीं हैं, जैसाकि नीतिकारों ने कहा हैं कि :
गतानुगति को लोको न लोक: पारमार्थिक:।
अर्थात् ''संसार अन्धापरम्परा की तरह देखा-देखी किया करता हैं न कि सच्ची
या झूठी, अथवा योग्य, अयोग्य, बातों का विचार किया करता हैं।'' इसीलिए अब
तक उनके वंशजों को कहीं-कहीं लोग प्रणाम कर दिया करते हैं। इसके लिए दृढ़तर
प्रमाण एक तो याचकों का आचरण ही हैं और दूसरा यह हैं-जैसा कि सभी लोग जानते
और देखते हैं कि प्राय: प्रत्येक गाँवों में जो गोसाईं हुआ करते हैं,
जिन्हें लोग घरबारी गोसाईं या अतीथ कहा करते हैं और जिनके लड़के बाले भी
होते हैं उन्हें प्राय: सभी जाति के लोग जहाँ-तहाँ 'नमो नारायन बाबा!' कहकर
प्रणाम करते हैं। परन्तु यदि विचार दृष्टि से देखा जाये तो वास्तव में वे
किसी के प्रणाम के योग्य नहीं हैं, क्योंकि जैसा कि लिखा हैं कि जो
संन्यासी होकर स्त्री रख लेता या विवाह कर लेता हैं, वह और उसके वंशज पतित
हो जाते हैं। वे वचन इस प्रकार हैं :
चाण्डाला: प्रत्यवसिता: परिव्राजकतापसा:।
तेषां जातान्यपत्यानि चाण्डालै: सह वासयेत्। द.। 4। 20॥
येतुप्रव्रजितापत्या याचैषांवोजसन्तति:।
विदुरानामचाण्डाला जायन्तेनात्रासंशय:। अ.। 35। 165॥
यस्तु प्रव्रजिताज्जातो ब्राह्मण्यांशूद्रतश्यच:।
द्वावेतौ विद्धि चाण्डालौ सगोत्राद्यस्तु जायते। ग.। 42। 21॥
अर्थात् ''दक्षस्मृति का वचन हैं और अग्निपुराण में भी लिखा हैं कि जो
चाण्डाल, अन्य के छूने के अयोग्य, संन्यासी और तपस्वी (वानप्रस्थ) हैं, इन
चारों के लड़के बराबर ही होते हैं। अत: उन्हें चाण्डालों के साथ ही रखना या
खाना-पीना चाहिए। जो लोग संन्यास लेकर स्त्री से भोग करते हैं और उससे जो
लड़के उत्पन्न होते हैं वे सभी विदुर नामवाले चाण्डाल होते हैं इसमें संशय
नहीं हैं। गरुड़ पुराण के प्रेतखण्ड में लिखा हैं कि जो संन्यासी से जन्मा
हो, जो ब्राह्मण में शूद्र के वीर्य से पैदा हो, जो सगोत्र में ब्याह से
पैदा हो उन्हें चाण्डाल जानो।'' अग्निपुराण वाला ही श्लोक अत्रिस्मृति के
8वें अध्याय का 18वाँ हैं। इसीलिए इन लोगों का यात्रा वगैरह में दर्शन
निषिद्ध मानते हैं। न कि संन्यासी (दण्डी) का दर्शन निषिद्ध हैं क्योंकि वह
तो नारायण स्वरूप हैं। जैसा कि लिखा हैं कि :
दण्डग्रहणमात्रोण नरोनारायणो भवेत्।
अर्थात् ''ब्राह्मण दण्ड धारण करने से ही नारायण स्वरूप हो जाता हैं।'' और
नारायण का दर्शन सिवाय मंगल के अमंगल हो सकता नहीं। अस्तु, फिर भी लोग
उन्हें प्रणाम करते ही हैं। इसका कारण यह हैं कि इन गोसाइयों के पूर्वज
प्रथम सच्चे संन्यासी थे। इसी से लोग उन्हें '¬ नमोनारायणाय' कहकर प्रणाम
किया करते थे। परन्तु यद्यपि काल पाकर वे या उनके बाद के जो साधु
(संन्यासी) उस स्थान पर रहते थे; वे भ्रष्ट भी हो गये और स्त्री-लड़केवाले
हो गये। परन्तु लोग वही पुरानी लकीर के फकीर होकर अब तक वैसे ही प्रणाम
करते चले आते हैं, और वही '¬ नमोनारायणाय' बिगड़कर 'नमोनरायन बाबा!' हो गया।
तो क्या इतना होते रहने पर भी वे गोसाईं वास्तव में उन प्रणाम करने वालों
से श्रेष्ठ हो सकते हैं? बस, यही दशा अन्य याचक ब्राह्मणों की भी समझकर
सन्तोष कर लीजिए।
चौथा प्रश्न जो प्राय: हुआ करता हैं कि यदि अयाचक ब्राह्मण लोग उत्तम
ब्राह्मण हैं तो फिर दान लेकर क्यों नहीं पचा लेते? परन्तु यह भी निरी
अनभिज्ञता को प्रकट करता हैं। क्योंकि दान लेकर हज्म करना तो प्राय:
श्रेष्ठ ब्राह्मणों का कर्म हैं ही नहीं, प्रत्युत वे लोग उसे निन्दित कर्म
ही समझते हैं, यह बात प्रथम ही सिद्ध की जा चुकी हैं। और यदि वास्तव में
पूछा जाये तो जो याचक ब्राह्मण दान लेकर हज्म करने का अभिमान वाले हैं वे
भी यह नहीं समझते कि वे लोग दान लेकर उसे हज्म कर लेते हैं अथवा अपनी हज्म
करने वाली शक्ति का कुछ भी विचार न कर इतना दान ले रहे हैं कि जिससे उन्हें
बदहजमी हो रही हैं और अन्त में पेट के फट जाने से मर जायेगे। अर्थात्
उन्हें परलोक में नरकवासी होना होगा। क्योंकि प्रथम ही यह सिद्ध कर चुके
हैं कि बिना तप करने और वेद पढ़ने वाले के जो दूसरा ब्राह्मण प्रतिग्रह की
इच्छा भी करता हैं वह दान को लेकर ही पत्थर की नाव की तरह डूब जाता हैं।
जैसा कि मनु भगवान् ने कह दिया हैं कि :
अतपास्त्वनधीयान: प्रतिग्रहरुचिर्द्विज:।
अम्भस्यश्मप्लवेनेव सह तेनैव मज्जति॥
तो फिर कैसे कहा जा सकता हैं कि आजकल के निरक्षर भट्टाचार्य लोग दान को
हज्म करने वाले हैं? किन्तु हारकर यही मानना पड़ेगा कि उन्हें बदहजमी हो रही
हैं। परन्तु अयाचक ब्राह्मण लोग तो प्राय: कीचड़ में पाँव डालकर पीछे से
धोना और बदहजमी से तंग होना नापसन्द करते थे और करते हैं, क्योंकि
बुद्धिमान उसे ही कहते हैं जो कभी हीन कार्य न करे। यदि दान को हज्म करने
के ही अभिमान से आप श्रेष्ठ बनने की डींग हाँकते हैं, तो फिर महापात्रा या
महाब्राह्मण तो आपसे भी श्रेष्ठ सिद्ध हो जायेगे, क्योंकि जिस शय्यादान आदि
को आप भी हज्म नहीं कर सकते, उसे वे पचा जाने का दावा करते हैं। इतना ही
क्यों? शायद आपकी इस दलील के मुताबिक चाण्डाल सभी ब्राह्मणों से अथवा सारे
संसार से श्रेष्ठ ठहर गया, क्योंकि जिस ग्रहण काल के दान को आप लोग कोई भी
पचाने की शक्ति नहीं रखते, उसे वह हाँक देकर पचाने का दावा रखता हैं। इसलिए
ऐसे-ऐसे प्रश्नों की चर्चा भी नहीं करनी चाहिए, प्रश्नों से दूर रहें, नहीं
तो लेने के देने पड़ जायेगे। ये सब प्रश्न अत्यन्त प्रसिद्ध हैं, अत: इनका
स्वतन्त्र विचार कर दिया। ब्राह्मण तो दस प्रकार के ही हैं, ग्यारहवें कहाँ
से आ गये? इसका तो उत्तर हो ही चुका हैं कि अयाचक ब्राह्मण दशविधा
ब्राह्मणों से बाहर हैं नहीं। इसके अतिरिक्त 'सारस्वता: कान्यकुब्जा:'
इत्यादि श्लोक आधुनिक हैं। क्योंकि वे जितनी जगह मिलते हैं उतने ही प्रकार
से उलटा-पलटा लिखे हैं और किसी-किसी ने उनमें सर्यूपारी आदि पद घुसेड़कर
अन्य पद निकाल दिये हैं। जैसा कि पं. दुर्गादत्ता के दिग्विजय और
ब्राह्मणोत्पत्तिर्मात्ताण्ड आदि से विदित हैं। यथा :
ब्राह्मणोत्पत्तिर्मात्ताण्ड
कार्णाटकाश्च तैलंगा द्राविडा महाराष्ट्रका:।
गुर्जराश्चेति पंचैव द्राविडा विन्धयदक्षिणे॥ 16॥
सारस्वता: कान्यकुब्जा गौडा उत्कल मैथिला:।
पंच गौडा इतिख्याता विन्धयस्योत्तारवासिन:॥ 17॥ पृ. 3॥
त्रिहोत्राह्यग्निवैश्याश्चण् कान्यकुब्जा: कनौजिया:।
मैत्रायणा: पंचविधा एते गौड़ा: प्रकीर्त्तिता:। 3। पृ. 349॥
शैवब्राह्मणोत्पत्ति
सारस्वता: कान्यकुब्जा गौडाश्च मैथिलोत्कला:।
गौडा: पंच समाख्याता विन्धयस्योत्तारवासिन:॥ 23॥
महाराष्ट्रा द्राविडाश्च तैलंगा गुर्जरास्तथा।
कार्णाटा द्राविडा: पंच विन्धयदक्षिणवासिन:। 24। पृ. 12॥
पं. दुर्गादत्तादिग्वि
महाराष्ट्राश्च तैलंगा द्राविडा गुर्जरास्तथा।
कारणाटाश्च पंचैते दक्षिणात्या: प्रकीर्त्तिता:॥
सरय्वा: कान्यकुब्जाश्च सारस्वताश्च मैथिला:।
नागराश्चेति पंचैते पंच गोडा: प्रकीर्त्तिता:॥ पृ. 2॥
यदि शक्तिसंगमतन्त्र के भी होते तो उनकी ऐसी दुर्दशा न होती। अथवा उसमें
मानने पर भी वह भी आधुनिक ही हैं। साथ ही, यदि दस प्रकार के ही ब्राह्मण
माने जायेगे तो सर्यूपारी, सनाढय जिझौतिया और बंगाली आदि ब्राह्मणों की
क्या व्यवस्था होगी? वैसी ही यहाँ भी जान लीजिए। अवशिष्ट सब प्रश्नों या
बातों का विचार तो अच्छी तरह से प्रथम ही किया जा चुका हैं।
2. वंगीय ब्राह्मण सम्बन्ध
अब कान्यकुब्ज तथा अन्य देशों से बंगाल में गये हुए प्रसिद्ध कान्यकुब्ज और
सर्यूपारी ब्राह्मणों के साथ दो-एक भूमिहार ब्राह्मणों के विवाह सम्बन्ध
दिखला देते हैं :
मुर्शिदाबाद- लालगोला के राजा साहब योगेन्द्रनारायण राय गाजीपुर सुर्वत
पाली से गये हुए हैं और कौशिक गोत्री भूमिहार ब्राह्मण हैं। उनकी पुत्री की
शादी गाजीपुर-सुहवल निवासी श्री श्यामनारायण राय के पुत्र श्री सुरेन्द्र
राय एम.ए. से हुई थी और राजा साहब के दामाद श्री गिरीशनारायण राय के घर भी
श्री श्याम नारायण का सम्बन्ध हैं। उक्त राजा साहब के दामाद श्री शरदिन्दु
नारायण राय और श्री द्विजेन्द्र नारायण राय दो भाई मुर्शिदाबाद-जमुवाँ में
रहते हैं। उन्हीं शरदिन्दु नारायण राय की बहन का विवाह रिपन कॉलेज के
प्रिंसिपल डॉ. रमेन्द्र सुन्दर द्विवेदी जी से हुआ था, जो जिझौतिया
ब्राह्मण पुण्डरीक गोत्र के थे। उक्त राजा साहब के राजकुमार श्री
सत्येन्द्र नारायण राय और हेमेन्द्र नारायण राय की लड़कियों से
मुर्शिदाबाद-टेयाँ ग्रामवासी डॉ. नृसिंह प्रसाद द्विवेदी के पुत्रों की
शादी हुई हैं, कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं। मुर्शिदाबाद-शेखअलीपुर में श्री
शशिभूषण राय रहते हैं, जो सावर्ण्य गोत्र वाले भूमिहार ब्राह्मण बलिया के
नरही ग्राम से गये हैं। उनकी शादी राजशाही जिले के हरग्राम के निवासी
सर्यूपारी गर्ग गोत्र वाले श्री सुमेश्वर राय शुक्ल के यहाँ हुई हैं और उसी
ग्राम में मालदह-सिंहाबाद के राजा साहब भैरवेन्द्र नारायण राय की बहन का
ब्याह श्री रामचन्द्र शुक्ल के यहाँ हुआ हैं। राजा भैरवेन्द्र नारायण राय
किनवार ब्राह्मण गाजीपुर के सोनाड़ी से गये हैं। मुर्शिदाबाद-आलमशाही ग्राम
निवासी सर्वेश्वर पाण्डे से पूर्वोक्त श्री शशिभूषण राय की बहन का विवाह
हुआ हैं। बागडांडा निवासी
श्री मानवेन्द्र नारायण की बहन से जैसोर-वन्दनपुर निवासी मन मोहन पाण्डे
(मिनर्वा थियेटर वाले) का विवाह हैं और उनके भाई का विवाह मालदह-बुलबुल
चण्डी निवासी राजेन्द्र बाबू की स्त्री की बहन से हुआ हैं। ये दोनों जमुवाँ
पास खोसवासपुर निवासी श्री किष्टनाथ राय की कन्याएँ हैं। इत्यादि सहस्रों
विवाह सम्बन्ध वहाँ भी प्रसिद्ध-प्रसिद्ध सर्यूपारियों, कनौजियों और
जिझौतियों से हुए और होते हैं।
3. आवश्यक कर्त्तव्य
जैसे यह बात दिखलायी गयी हैं कि गोसाईं लोगों को प्रणाम करना बहुत ही
निन्दित और अनुचित हैं। परन्तु लोग अन्धा परम्परावश करते चले आते हैं और
समझदार होने पर पीछे से भी छोड़ देते हैं। उसी तरह यह भी देखा जाता हैं कि
बहुत से ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वंशों के आचार्य या मन्त्र देने वाले (कान
फूँकनेवाले) गुरु वेही गोसईं या निरक्षर भट्टाचार्य और दुराचारी याचक
दलवाले ब्राह्मण उसी पूर्वोक्त अन्धीपरम्परा के अनुसार चले आते हैं। परन्तु
उनको हटाकर अपने ही दल का गुरु बनाना चाहिए क्योंकि अब उनमें वह योग्यता न
रह गयी जो उनके पूर्वजों में थी। शास्त्रकारों का तो यहाँ तक कथन हैं कि
यदि गुरुवंश या आचार्य वंश अपढ़ और दुराचारी हो गया हो तो उसे आगे के लिए ही
नहीं छोड़ देना चाहिए, किन्तु जिस समय ही उसके इन दुर्गुणों का पता लग जाये
उसी समय उसे त्याग देना चाहिए। जैसा कि वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकाण्ड
में श्रीरामजी के प्रति लक्ष्मणजी ने कहा हैं कि :
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानत:।
उत्पथं प्रतिप्रन्नस्य शास्त्रौस्त्यागो विधीयते॥
अर्थात् ''गुरु भी यदि अभिमानी हो जाये, अपने कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य को न
जाने और शास्त्रनिन्दित काम करता हो तो उसको दण्डित करने और उसे त्याग देने
की आज्ञा शास्त्रों में हैं।
पूर्व ग्रन्थ के अवलोकन से ब्राह्मणों का सच्चा स्वरूप और उनके धर्मों का
यथावत् ज्ञान हो गया और यह विदित हो गया कि उनका सच्चा स्वरूप वही हैं जो
अयाचक नामधारी ब्राह्मणों का सदा से ही चला आता हैं। इसीलिए औशनसस्मृति में
लिखा भी हैं कि :
अहिंसैकपरो नित्यमप्रतिग्राहिणस्तथा।
सत्रिणो दाननिरता: ब्राह्मणा: पंक्तिपावना:॥
अर्थात् ''जो ब्राह्मण हिंसा और प्रतिग्रह (दान लेने) से रहित हों और सत्रा
(यज्ञ) करनेवाले एवं दान देने वाले हों, वे पंक्तिपावन कहलाते हैं, अर्थात्
जिस पंक्ति में बैठते हैं उसे पवित्र कर देते हैं।'' इसलिए हमारा वक्तव्य
इन अयाचक ब्राह्मणों के स्वरूप या धर्म के विषय में कुछ नहीं रह गया, जिसके
लिए विवाद या आकांक्षा हो। इसी से हम इन सब विषयों को अब यहाँ पर ही छोड़कर
ग्रन्थ के अन्त में ब्राह्मण आदि वर्णों के अत्यन्त उपयोगी और नित्य, अथवा
नित्य नहीं तो बहुधा पड़ने वाले विषयों का कुछ संक्षेपत: निरूपण कर देते
हैं। जिससे लोगों को अल्प श्रम से ही विशेष लाभ हो। मनु भगवान् ने अपनी
स्मृति के द्वितीय अध्याय में ब्राह्मण के जन्म से लेकर गृहस्थाश्रम में
प्रवेश में प्रथम के धर्मों को बतलाया हैं। ये संक्षेपत:वे हैं:
नामधोमं दशम्यां तु द्वादश्यां वास्य कारयेत्।
पुण्ये तिथौ मुहूर्ते वा नक्षत्रो वा गुणान्विते॥ 30॥
मंगल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्॥ 31॥
शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्॥ 32॥
ततश्च नाम कुर्वीत पिता वै दशमेऽहनि।
देवपूर्वं नराख्यं हि शर्मवर्मादिसंयुतम्॥ 3। 10। 8॥
शर्मवद्ब्राह्मणस्योक्तं वर्मेतिक्षत्रासंयुतम्।
गुप्तदासात्मकं प्रशस्तं वैश्यशूद्रयो:॥ 3। 10। 9।
चतुर्थे मासिर् कर्त्तव्यं शिशोर्निष्क्रमणं गृहात्।
षष्ठेऽन्नप्राशनं मासि यद्वेष्टं मंगलं कुले॥ 34॥
चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामेव धर्मत:।
प्रथमेऽब्दे तृतीये वार् कर्त्तव्यं श्रुतिचोदनात्॥ 35॥
गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्।
गर्भादेशकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विश:॥ 36॥
ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पंचमे।
राज्ञो बलार्थिन: षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे॥ 37॥
आषोडशाद्ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्र्तते।
आद्वाविंशात् क्षत्राबंधोराचतुर्विंशतेविंश:॥ 38॥
अत ऊधर्वं त्रायोऽप्येते यथाकालमसंस्कृता:।
सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिता:॥ 39॥
नैतैरपूतैर्विधिवदापद्यपिहि कर्हिचित्।
ब्राह्मान्यौनांश्च सम्बन्धानाचरेद्ब्राह्मण: सह॥ 40॥
कार्ष्णरौरवबास्तानि चर्माणि ब्रह्मचारिण:।
वसीरन्नानुपरूव्येण शाणक्षौमाविकानि च॥ 41॥
मौंजी त्रिवृत्समा कार्याश्लक्ष्णा विप्रस्य मेखला।
क्षत्रियस्य तु मौर्वीज्या वैश्यस्य शणतान्तवी॥ 42॥
कार्पासमुपवीतंस्याद्विप्रस्योर्ध्ववृत्तां त्रिवृत्।
शणसूत्रामयं राज्ञो वैश्यस्याविकसौत्रिकम्॥ 44॥
ब्राह्मणो वैल्वल्पालाशौक्षत्रियोवाटखादिरौ।
पैलवौदुम्बरौ वैश्यो दण्डानर्हन्ति धर्मत:॥ 45॥
केशान्तिकोब्राह्मणस्यदण्ड:कार्य: प्रमाणत:।
ललाटसम्मितो राज्ञ:स्यात्तु नासान्तिको विश:॥ 46॥
पिता पितामहा भ्राता ज्ञातयो गोत्रजाग्रजा:।
उपायनेऽधिकारीस्यात् पूर्वाभावे पर: पर:॥ वृद्धगर्ग॥
पितैवोपनयेत्पूर्वं तदभावे पितु: पिता।
तदभावे पितुर्भ्राता तदभावे तु सोदर:॥ वृद्धगर्ग॥
उपनीयगुरु:शिष्यंशिक्षयेच्छौचमादित:।
आचारमग्निकार्यं च सन्धयोपासनमेव च॥ 69॥
प्राक्कूलान्पर्युपासीन: पवित्रौश्चैपावित:।
प्राणायामैस्त्रिभि: पूतस्तत ओंकारमर्हति॥ 75॥
अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापति:।
वेदत्रायान्निरदुहद्भूर्भुव:स्वरितीति च॥ 76॥
त्रिभ्य एव तु वेदेभ्य:पादं पादमदूदुहत्।
तादिस्यृचोऽस्या:सावित्रया: परमेष्ठी प्रजापति:॥ 77॥
एतदक्षरमेतां च जपन्व्याहृतिपूर्विकाम्।
सन्ध्ययोर्वेदविद्विप्रो वेदपुण्येनयुज्यते॥ 78॥
सहस्रकृत्वस्त्वभ्यस्य बहिरेतत् त्रिकं द्विज:।
महतोऽप्येनसो मासात्तवचेवाहिर्विमुच्यते॥ 79॥
एतयर्चा विसंयुक्त: काले च क्रियया स्वया।
ब्रह्मक्षत्रियावडयोनिर्गर्हणां याति साधुषु॥ 80॥
ओंकारपूर्विकास्तिस्त्रो महाव्याहृतयोऽव्यया:।
त्रिपदा चैव सावित्री विज्ञेयं ब्रह्मणोमुखम्॥ 81॥
योऽधीतेऽहन्यहन्येतांस्त्रीणिवर्षाण्यतन्द्रित:।
स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूत:खमूर्तिमान्॥ 82॥
एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायाम: परन्तप:।
सावित्रयास्तुपरंनास्तिमौनात्सत्यंविशिष्यते॥ 83॥
विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टोदशभिर्गुणै:।
उपां:शुस्याच्छतगुण: साहस्रोमनस: स्मृत:॥ 85॥
पूर्वांसन्धयांजपंस्तिष्ठेत्सावित्रीमार्कदर्शनात्।
पश्चिमां तु समासीन:सम्यगृक्षविभावनात्॥ 101॥
पूर्वां सन्ध्यांजपंस्तिष्ठन्नैशमेनोव्यपोहति।
पश्चिमांतुसमासीनोमलंहन्तिदिवाकृतम्॥ 102॥
नतिष्ठति तु य:पूर्वां नोपास्तेय श्च पश्चिमम्।
स शूद्रवद्बहिष्कार्य: सर्वस्माद्द्विजकर्मण:॥ 103॥
विप्रोवृक्षस्तस्यमूलंचसन्ध्यावेदा: शाखाधर्मकर्माणि
तस्मान्मूलंयत्नतोरक्षणीयंछिन्नेमूलेनैवशाखानपत्रम्। वि.।
शय्यासनेऽध्याचरिते श्रेयसानसमाविशेत्।
शय्यासनस्थश्चैवैनं प्रत्युत्थायाभिवादयेत्॥ 119॥
ऊर्घ्वंप्राणाह्युत्क्रामन्ति यून:स्थविर आयति।
प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान्प्रतिपद्यते॥ 120॥
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृध्दोपिसेविन:।
चत्वारि सम्प्रवर्र्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्॥ 121॥
अकारश्चास्य नाम्नोन्ते वाच्य: पूर्वाक्षर: प्लुत:।
आयुष्मान्भव सौम्येति वाच्यो विप्रोऽभिवादने॥ 125॥
ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् क्षत्राबन्धुमनामयम्।
वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च॥ 127॥
उपाध्यायान्दशाचार्यआचार्याणां शतं पिता।
सहस्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते॥ 145॥
न हायनैर्नपलितैर्न वित्तोन न बन्धुभि:।
ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचान: स नो महान्॥ 154॥
विप्राणां ज्ञानतोज्यैष्ठयं क्षत्रियाणां तु वीर्यत:।
वैश्यानां धान्यघनत: शूद्राणामेव जन्मत:॥ 155॥
न तेन वृध्दो भवति येनास्य पलितं शिर:।
यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवा:स्थविरंविदु:॥ 156॥
यथाकाष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग:।
यश्च विप्रोऽनधीयानस्त्रायस्ते नामविभ्रति॥ 157॥
यथा षण्ढोऽफल: स्त्रीषु यथा गौर्गविचाफला।
यथाचाज्ञेऽफलंदानं तथा विप्रोनृचोऽफल:॥ 158॥
वेदमेव सदाऽभ्यस्येत्तापस्तप्स्यन्द्विजोत्ताम:।
वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तप: परमिहोच्यते॥ 166॥
नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसन्निधौ।
गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनोभवेत्॥ 198॥
यं मातापितरौ क्लेशं सहेते संभवे नृणाम्।
न तस्य निष्कृति: शक्या कत्तरुं वर्षशतैरपि॥ 227॥
तयोर्नित्यं प्रियं कुर्यादाचार्यस्य च सर्वदा।
तेष्वेव त्रिषु तुष्टेषु तप: सर्वं समाप्यते॥ 228॥
सर्वे तस्यादृता धर्मा यस्यैंतेत्रायआदृता:।
अनादृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफला: क्रिया:॥ 234॥
इसका अनुवाद यह हैं कि ''पुत्र के उत्पन्न होने के ग्यारहवें अथवा तेरहवें
दिन उसका नाम रखें अथवा अच्छी तिथि, अच्छे मुहूर्त और शुभ नक्षत्र में उसके
बाद भी जब चाहे तभी रखे। ब्राह्मण का नाम मंगल सूचक होना चाहिए। पुत्र का
नाम पिता ही रखे और वह नाम पुरुष वाचक और आदि में देवताओं के नाम से युक्त
हो जैसे सोम शर्मा आदि, न कि यमुना प्रसाद वगैरह। ब्राह्मण के नाम के अन्त
में शर्मा पदवी, क्षत्रिय की वर्मा, वैश्य की गुप्त और शूद्र की दास पदवी
होनी चाहिए। बच्चे को जन्म वाले (प्रसूति) गृह से चौथे मास में बाहर
निकालना और छठे महीने में अन्न प्राशन (अन्न खिलाना) उचित हैं, अथवा जैसी
कुल परम्परा हो वैसा ही करे। एक अथवा तीन वर्ष के होने पर बालक का मुण्डन
करवाना चाहिए। गर्भ के आठवें वर्ष ब्राह्मण का, ग्यारहवें वर्ष क्षत्रिय का
और बारहवें वर्ष वैश्य का उपनयन संस्कार (यज्ञोपवीत वा जनेऊ) होना चाहिए।
परन्तु यदि ब्राह्मण को ब्रह्मतेज की, क्षत्रिय को बल की और वैश्य को धन की
इच्छा हो तो क्रम से 5, 6 और 8 वर्षों में ही यज्ञोपवीत करे। जन्म से 16वें
वर्ष तक भी ब्राह्मण का, 22वें तक क्षत्रिय का और 24वें तक वैश्य का
यज्ञोपवीत कर देने से वे पतति नहीं हो सकते। परन्तु इसके उपरान्त बिना
यज्ञोपवीत के वे लोग गायत्री पतित और सत्पुरुषों द्वारा निन्दित होते और
व्रात्य कहलाते हैं। ये लोग प्रायश्चित्त¹ करके फिर संस्कार और यज्ञोपवीत
द्वारा
¹ व्रात्य लोगों के लिए प्रायश्चित्त मनुस्मृति के ग्यारहवें अध्याय में इस
प्रकार लिखा हुआ हैं:-
येषां द्विजानां सावित्री नानूच्येत यिथाविधि।
तांश्चारयित्वात्रीन्कृछान् यथाविध्युपनाययेत्॥ 191॥
अर्थात् ''जिन लोगों के संस्कार ठीक समय पर न होने से वे व्रात्य हो गये
हों, उनसे तीन कृछ् (प्राजापत्य) व्रत करवाकर पुन: विधिवत् उनके यज्ञोपवीत
करवावे।
प्राजापत्य का स्वरूप मनु भगवान् ने स्वयं आगे बतलाया हैं:-
त्रयहं प्रातस्त्रायहं सायं त्रयहमद्यादयाचितम्।
त्रयहं परंच नाश्नीयात् प्राजापत्यं चरन्द्विज:॥ 211॥
अर्थात् ''प्रथम तीन दिन तक दिन में, बाद तीन दिन तक रात्रि में और फिर तीन
दिन तक बिना माँगे किसी समय मिलने पर एक बार भोजन करे और फिर तीन दिन तक
भूखा ही रहे तो एक प्राजापत्य (कृछ्) व्रत होता हैं।''
सायंद्वार्विंशतिर्ग्रासा: प्रात: षड्विंशतिस्तथा।
अयाचिते चतुर्विंशत् परं चानशनं स्मृतम्॥
कुक्कुटाण्डप्रमाणं च यावांश्च प्रविशेन्मुखम्।
एतं ग्रासं विजानीयात् शुद्धयर्थं ग्रासमात्मन:॥
हविष्यंचान्नमश्नीयाद्यथा रात्रौ तथा दिवा।
यदि पवित्र न किये जाये, तो ब्राह्मण इनके साथ खान-दान, पठन-पाठन और विवाह
सम्बन्ध कभी भी न करें। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ब्रह्मचारियों को
बिछाने के लिए क्रमश: कृष्णमृग, रुरुमृग, और बकरे के चर्म और पहनने के लिए
सन, दुकूल और भेड़ी के बालों के कम्बल रखने होते हैं। ब्राह्मण ब्रह्मचारी
के लिए कमर में पहनने को तीन तागे वाली मूँज की मौंजी (मेखला) बनानी चाहिए,
क्षत्रिय के लिए मूर्वा औषधि की धनुष की ताँत की तरह और वैश्य को सन की तीन
तागे वाली। ब्राह्मण का जनेऊ रुई का, क्षत्रिय का सन का और वैश्य का भेड़ के
बाल का होता हैं। ब्राह्मण के लिए बिल्व अथवा पलाश, क्षत्रिय को वट या खदिर
और वैश्य के लिए (या गूलर के दण्ड बनाने चाहिए)। ब्राह्मण का दण्ड शिखा तक,
क्षत्रिय का ललाट तक और वैश्य का नासिका तक होना चाहिए। यज्ञोपवीत काल में
प्रथम तो पिता ही गायत्री का उपदेश करे, परन्तु उनके न रहने पर पितामह,
भाई, दायाद और गोत्र वाले क्रम से एक के न रहने पर दूसरे गायत्री का उपदेश
करें। परन्तु जब ये कोई भी न हो तो कुलीन ब्राह्मण ही करे। यज्ञोपवीत के
बाद गुरु शौच, आचार, अग्निहोत्र और सन्ध्योपासन शिष्य को सिखलावे। कुशों का
अग्रभाग पूर्व को करके उन पर बैठे और कुशों से शरीर पर जल छिड़के और तीन
प्राणायाम करके पुन: ओंकार युक्त गायत्री का उच्चारण करे। ओंकार में जो
'अं', 'उ' और 'म' ये तीन अक्षर हैं उन्हें और भू:, भुव: और स्व: इन
महाव्याहृतियों को परमात्मा ने क्रम से तीनों वेदों से मथ कर निकाला हैं।
और गायत्री मन्त्र के 24 अक्षरों में से जो आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण हैं,
उन्हें भी क्रम से तीनों वेदों से ही दुहकर भगवान् से निकाला हैं। इसलिए ये
सायं-प्रात:काल जो ब्राह्मण ओंकार, व्याहृति और गायत्री मन्त्र को
मिलाकर-ओं भूर्भुव:स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन:
प्रचोदयात्-जप करता हैं उसे सब वेदों के पाठ करने का पुण्य मिलता हैं¹A
¹ यद्यपि यह प्रमाण मिलता हैं :
ओंकार पूर्वमुच्चार्य भूर्भुव: स्वस्तथैवच।
अन्ते च प्रणवं दद्यादेतज्जपमुदाहृतम्॥
अर्थात् ''प्रथम ओंकार, फिर भूर्भुव: स्व: और उसके बाद 'तत्सवितु:' इत्यादि
और अन्त में पुन: ओंकार लगाकर जप करना चाहिए।'' तथापि देवीभागवत में लिखा
हैं कि :
सम्पुटैकषडोंकारा गायत्री त्रिविधा मता।
तत्रौकप्रणवा ग्राह्या गृहस्थैर्ब्रह्मचारिभि:॥
अर्थात् ''दो, छह और एक ओंकार वाला, इस प्रकार गायत्री मन्त्र तीन प्रकार
का हैं। उनमें से गृहस्थ और ब्रह्मचारी को एक ओंकार वाले का अर्थात् आदि
में ही ओंकार लगाकर जप करना चाहिए।'' इस वचन के अनुसार दो ओंकार वाला
वानप्रस्थ के लिए हैं, गृहस्थ और ब्रह्मचारी एक ही ओंकार लगावें, ऐसा ही
प्रतीत होता हैं मनुजी की भी ऐसी सम्मति प्रतीत होती हैं।
अर्थात् ''आपस्तम्ब लिखते हैं कि दिन में 26, रात्रि में 22 और बिना माँगे
24 ग्रास खावे। ग्रास मुर्गी के अण्डे भर के हो, अथवा मुख में जितना जा सके
उतने बड़े हो। सर्वदा हविष्य (खीर वगैरह, भोजन करना चाहिए। किसी के मत से
व्रात्यस्तोम भी प्रायश्चित्त के लिए करते हैं।''
एक मास तक ग्राम से बाहर एक हजार प्रतिदिन गायत्री जप करने से महापाप से भी
आदमी वैसे ही छूट जाता हैं, जैसे सर्प केंचली से अलग हो जाता हैं। सायं-
प्रात:काल जो द्विज इस गायत्री का जप और अग्निहोत्र आदि नहीं करता हैं उसको
सत्पुरुष निन्दित समझते हैं। ओंकार और तीन महाव्याहृतियों के सहित गायत्री
मन्त्र परमात्मा का मुख हैं। जो ब्राह्मण इस पूर्वोक्त गायत्री का तीन वर्ष
तक बराबर जप करता हैं वह स्वेच्छाविहारी और परमात्मा का स्वरूप हो जाता
हैं। ओंकार परमात्मा का स्वरूप हैं, प्राणायाम से बढ़कर तपस्या और गायत्री
से बढ़कर मन्त्र नहीं हैं और मौन रहने की अपेक्षा सत्य बोलना अच्छा हैं। सब
यज्ञों की अपेक्षा बोलकर भी गायत्री या अन्य मन्त्र का जप करना दस गुना फल
देता हैं, केवल ओष्ठ हिलते हुए जप करना सौगुना मन ते जप करना तो हजार गुना
फल देने वाला हैं। प्रात: काल में खड़ा होकर तारे दीखते रहने से सूर्य के
दीखने तक और सायंकाल में सूर्य दीखते रहने से तारे दीखने तक बैठकर जप करे।
प्रात:काल खड़े होकर गायत्री जपने से रात्रि-भर भूल-चूक वाले पापों का, और
सायंकाल बैठकर जपने से दिनभर के ऐसे पापों का नाश हो जाता हैं। जो एक दिन
भी प्रात: और सायं सन्ध्या नहीं करता वह शूद्र की तरह किसी भी द्विज कर्मों
का अधिकारी नहीं रहता हैं। ब्राह्मण रूप वृक्ष की जड़ सन्ध्या, शाखा वेद और
अन्य धर्म-कर्म पत्तो हैं, अत: सन्ध्या रूप जड़ की यत्नपूर्वक रक्षा करनी
चाहिए, क्योंकि जड़ के कटने पर शाखा और पत्ते एक भी नहीं रह सकते। अपने से
श्रेष्ठ माता-पिता वगैरह के आने के समय छोटे लोगों के प्राणाम ऊपर को
निकलते हैं, परन्तु उठकर उन बड़ों को प्रणाम करने से फिर शरीर में रह जाते
हैं। माता-पिता आदि बड़ों के साथ अथवा उनके सामने आसन या खाट पर न बैठे और
यदि बैठा भी हो तो उनके आने पर उठकर उन्हें प्रणाम करे। जो वृद्ध जनों को
नित्य प्रणाम और उनकी सेवा करते हैं उनकी आयु, विद्या, यश और बल बढ़ते हैं।
अपने से छोटे ब्राह्मण को प्रणाम करने पर 'हे सौम्य आयुष्मानन्भव' ऐसा कहना
चाहिए।
यदि समान अथवा अल्प अवस्था वाला विशेष अपरिचित कोई भी ब्राह्मण मिले तो उसे
प्रणाम न कर 'कुशलम्?' ऐसा पूछे, क्षत्रिय को 'अनामयम्?', वैश्य को,
'क्षेमम्?' और शूद्र को 'आरोग्यम्?' ऐसा केवल पूछ भर ले। दस उपाध्याय के
बराबर एक आचार्य, सौ आचार्य के बराबर एक पिता और हजार पिता के बराबर एक
माता श्रेष्ठ हैं। अवस्था अधिक होने, बाल पकने और अधिक धन और बन्धु वर्ग
होने से ब्राह्मण श्रेष्ठ नहीं होता। किन्तु जो भी वेदशास्त्र का ज्ञाता
हैं वही श्रेष्ठ हैं। अधिक ज्ञान वाला ही ब्राह्मण, अधिक बल वाला क्षत्रिय,
अधिक धन वाला वैश्य और अधिक अवस्था वाला शूद्र ही श्रेष्ठ माना जाता हैं।
इसलिए बाल पकने से ही ब्राह्मण श्रेष्ठ नहीं होता। किन्तु यदि अल्प अवस्था
वाला भी वेदज्ञ हो तो वही श्रेष्ठ हैं। जैसे काठ का हाथी और चमड़े का मृग
बेकार हैं, वैसे ही जो ब्राह्मण नहीं पढ़ता वह नाममात्र के ही लिए हैं। जैसे
स्त्री के लिए नपुंसक पति, गाय के लिए
गाय और मूर्ख को दान देना ये सब निष्फल हैं, वैसे ही वेद का न जानने वाला
ब्राह्मण ही निष्फल हैं। यदि ब्राह्मण को तप करना हो तो वह वेद का ही
अभ्यास करे, क्योंकि उसके लिए वही महान् तप हैं। ज्ञानोपदेश करने वाले गुरु
तथा श्रेष्ठजनों के सन्मुख नीचे पर बैठे। उनके सामने हाथ-पाँव फैलाकर न
बैठें। पुत्र के जन्म में माता-पिता को जो क्लेश होता हैं उसका उध्दार
पुत्र से सैकड़ों वर्षों में भी नहीं हो सकता। माता, पिता और ज्ञानोपदेश
करने वाले गुरु के इच्छानुसार ही सदा काम करे, क्योंकि उनके प्रसन्न रहने
से ही सब तपस्याओं का फल मिल जाते हैं। जो इन तीनों का आदर करता हैं, उसने
सब धर्म कर लिये। परन्तु जो इनका आदर करता हैं उसके सभी धर्म निष्फल हो
जाते हैं।
इसके बाद भगवान् मनु ने तृतीय अध्याय में इस प्रकार लिखा हैं :
असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितु:।
सा प्रशस्त्रा द्विजातिनां दारकर्मणि मैथुने॥ 5॥
महान्त्यपि समृध्दानि गीडजाविधनधान्यत:।
स्त्री सम्बन्धो दशैतानि कुलानि परिवर्जयेत्॥ 6॥
हीनक्रियं निष्पुरुषं निश्छन्दो रोमशार्शसम्।
क्षय्यामयाव्यपस्मारि श्वित्रिकुष्ठिकुलानि च॥ 7॥
आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्।
आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्म: प्रकीर्तित:॥ 27॥
न कन्याया: पिता विद्वान् गृह्णीयाच्छुल्कमण्वपि।
गृहण×छुल्कं हि लोभेन स्यान्नरोऽपत्यविक्रयी॥ 51॥
स्त्रीधानानि तु ये मोहादुपजीवन्ति बान्धवा:।
नारीयानानि वस्त्रां वा ते पापायान्त्यधोगतिम्॥ 52॥
कुविवाहैं: क्रियालोपैर्वेदानध्यायनेन च।
कुलान्यकुलतां यान्ति ब्राह्मणातिक्रमेण च॥ 63॥
पंच सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्कर:।
कण्डनी चोदकुम्भश्च वध्यते यास्तुवाहयन्॥ 68॥
तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभि:।
पंच क्लृप्ता महायज्ञा: प्रत्यहं गृहमेधिनाम्॥ 69॥
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ: पितृयज्ञस्तु तर्पणम्।
होमोदैवोबलिर्भौतोनृयज्ञोऽतिथिपूजनम्॥ 70॥
देवताऽतिथिभृत्यानां पितृणामात्मनश्च य:।
न निर्वपति पंचानामुच्छ्वसन्न स जीवति॥ 72॥
कुर्यादहरह: श्राद्धमन्नाद्येनोदकेन वा।
पयोमूलफलैर्वापि पितृभ्य:प्रीतिमावहन्॥ 82॥
वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृह्येग्नौ विधिपूर्वकम्।
आभ्य:कुर्याद्देवताभ्यी ब्राह्मणो होममन्वहम्॥ 84॥
अग्ने सोमस्यचैवादौ तयोश्चैव समस्तयो:।
विश्वेभ्यश्चैवदेभ्य: धान्वन्तरय एव च॥ 85॥
कुह्वैचैवानुमत्यै च प्रजापतय एव च।
सह द्याबापृथिव्योश्च तथा स्विष्टकृतेऽन्तत:॥ 86॥
एवं सम्यग्घविर्हुत्वा सर्वदिक्षु प्रदक्षिणम्।
इन्द्रान्तकाप्पतीन्दुभ्य: सानुगेभ्यो बलिं हरेत्॥ 87॥
मरुद्भ्यइतितुद्वारि क्षिपेदप्स्वद्भ्यइत्यपि।
वनस्पतिभ्यइत्येवं मुसलोलूखले हरेत्॥ 88॥
उच्छीर्षकेश्रियैकुर्याद्भद्रकाल्यै च पादत:।
ब्रह्मवास्तोष्पतिभ्यांतु वास्तुमध्ये बलिं हरेत्॥ 89॥
विश्वेभ्यश्चैवदेभ्यो बलिमाकाश उत्क्षिपेत्।
दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नक्तचारिभ्य एव च॥ 90॥
पृष्ठवास्तुनि कुर्वीत बलिं सर्वात्मभूतये।
पितृभ्यो बलिशेषं तु सर्वं दक्षिणतो हरेत्॥ 91॥
शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्।
वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वमेद्भुवि॥ 92॥
द्वौ दैवे पितृकार्येत्रीनेकैकमुभयत्रा वा।
भोजयेत्सुसमृध्दोऽपि न प्रसज्येत विस्तरे॥ 125॥
सत्क्रियां देशकालौच शौचं ब्राह्मणासम्पद:।
पंचैतान्विस्तरोहन्ति तस्मान्नेहेतविस्तारम्॥ 126॥
श्रोत्रियायैवदेयानि हव्यकव्यानिदातृभि:।
अर्हत्तामायविप्राय तस्मै दत्तां महाफलम्॥ 128॥
एकैकमपिविद्वांसं दैवे पित्रयेचभोजयेत्।
पुष्कलं फलमाप्नोति नामन्त्रज्ञान्बहूनपि॥ 129॥
ज्ञाननिष्ठाद्विजा:केचित्तपोनिष्ठास्तथापरे।
तप: स्वाध्यायनिष्ठाश्च कर्मनिष्ठास्तथापरे॥ 134॥
ज्ञाननिष्ठेषु कव्यानि प्रतिष्ठाप्यानि यत्नत:।
हव्यानि तु यथान्यायं सर्वेष्वेवचतरुष्वपि॥ 135॥
एष वै प्रथम: कल्प: प्रदाने हव्यकव्ययो:।
अनुकल्पस्त्वयं ज्ञेय: सदा सदि्भरनुष्ठित:॥ 147॥
मातामहं मातुलं च स्वस्त्रीयं श्वशुरं गुरुम्।
दौहित्रां विट्पतिं बन्धुमृत्विग्याज्यौचभोजयेत्॥ 148॥
न ब्राह्मणं परीक्षेत दैवे कर्मणि धर्मवित्।
पित्रये कर्मणि तु प्राप्ते परीक्षेत प्रयत्नत:॥ 149॥
चिकित्सकान्देवलकान् मांसविक्रयिणस्तथा॥ 152॥
भृतकाधयापको यश्च भृतकाध्यायपितस्तथा॥ 156॥
कुशीलवऽवकीर्णो च वृषलीपतिरेवच।
ब्राह्मैर्यौनैश्च सम्बन्धौ: संयोगं पतितैर्गत:॥ 157॥
हस्तिगोश्वोष्ट्रदमको नक्षत्रौर्यश्चजीवति॥ 162॥
आचारहीन: क्लीवश्च नित्यं याचनकस्तथा।
कृषिजीवीश्लीपदी च सदि्भर्निन्दित एवच॥ 165॥
एतान्विगर्हिताचारानपाङ्क्तेयान्द्विजाधामान्।
द्विजातिप्रवरो विद्वानुभयत्रा विवर्जयेत्॥ 167॥ याज्ञ.।
अग्रया: सर्वेषु वेदेषु श्रोत्रियो ब्रह्मविद्युवा।
वेदार्थविज्ज्येष्ठसामा त्रिमधुस्त्रिपर्णिक:॥ 219॥
स्वस्त्रीयऋत्विग्यामातृयाज्यश्वशुरमातुला:।
त्रिणाचिकेत दौहित्रा शिष्यसम्बन्धिबान्धावा:॥ 220॥
कर्मनिष्ठास्तपोनिष्ठा: पंचाग्निब्रह्मचारिण:।
पितृमातृपराश्चैव ब्राह्मणा: श्राद्धसम्पद:॥ 221॥
इन सब पूर्वोक्त श्लोकों का तात्पर्य यह हैं कि ''जो स्त्री माता के पाँच
पुरुषों तक की अथवा माता के गोत्र की न हो तथा पिता के सात पुरुषों तक की
और पिता के भी गोत्र की न हो उससे ही विवाह करना चाहिए। जिस वंश में जात
कर्म और प्रेत कर्म आदि न होते हों केवल लड़कियाँ हों, वेद न पढ़ा जाता हो,
शरीर में अधिक बाल होता हो, बवासीर हो, क्षय और अन्य रोग हों, श्वेत और
दूसरे प्रकार के कुष्ठ हों, धन-धान्य से पूर्ण भी इन दस कुलवालों के साथ
विवाह न करे। कन्या और वर दोनों को प्रीतिपूर्वक बुला, सुन्दर वस्त्रा पहना
और आभूषणों से अलंकृत कर शास्त्र ज्ञानी और शीलवान वर को जो विधिवत्
कन्यादान किया जाता हैं उसे ही ब्राह्म विवाह कहते हैं। कन्या का पिता वर
से कुछ भी न ले, क्योंकि ऐसा करना कन्या विक्रय कहलाता हैं। जो मनुष्य
मोहवश कन्या के बदले वर से द्रव्य, दासी, यान या वस्त्र आदि लेते हैं वे
पापी नरकगामी होते हैं। कुत्सित विवाह करने, सन्ध्या और अग्निहोत्र आदि के
न करने, वेदों के पठन-पाठन न करने और विद्वान् एवं तपस्वी ब्राह्मण का
निरादर करने से वंश नीच हो जाते हैं। गृहस्थों के यहाँ चूल्हा, चक्की,
ओखली, झाड़ई, जल के पात्र ये पाँच स्थान हिंसा के हैं, जिनसे प्रतिदिन पाप
हुआ करता हैं। इन्हीं पाँच हत्याओं को मिटाने के लिए महर्षियों ने गृहस्थों
को प्रति दिन पंच महायज्ञ करने को बतलाया हैं। वेद शास्त्रों तथा स्तोत्रा
आदि का पठन-पाठन ब्रह्मयज्ञ, तर्पण, पितृयज्ञ, अग्निहोत्र अथवा अन्य
गायत्री आदि मन्त्र द्वारा हवन देवयज्ञ, भोजन के समय काक वगैरह की बलि
(भाग) निकालना भूत यज्ञ और अतिथि सत्कार मनुष्य यज्ञ कहलाता हैं। जो इन
पाँच यज्ञों को नहीं करता, वह श्वास लेता हुआ भी मुर्दा हैं। प्रतिदिन
पितरों की तृप्ति के लिए अन्न, जल, दूध, मूल या फलों से ही श्राद्ध करे, और
इसी प्रकार पितृपक्ष आदि में भी। अग्निहोत्र की अग्नि से भिन्न अग्नि में
पकाए अन्न से बलि वैश्यदेव करने के लिए इन अगले मन्त्रों से हवन करे। (1)
अग्नये स्वाहा, (2) सोमाय स्वाहा, (3) अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा, (4)
विश्वेभ्गो देभ्य: स्वाहा, (5) धान्वन्तरये स्वाहा, (6) कुह्नैस्वाहा, (7)
अनुमत्यै स्वाहा,(8) प्रजापतये स्वाहा, (9) द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा, (10)
अग्नयेस्विष्टकृते स्वाहा। इसके बाद पूर्व दिशा में, (11) इन्द्रायनम:
इन्द्रपुरुषेभ्योनम:। दक्षिण दिशा में, (12) यमायनम: यमपुरुषेभ्योनम:।
पश्चिम दिशा में, (13) वरुणायनम: वरुणपुरुषेभ्योनम:। उत्तर दिशा में, (14)
सोमायनम: सोमपुरुषेभ्योनम:। द्वार में, (15) मरुद्भयोनम:, जल में, (16)
अद्भयोनम:, ओखली और मूसल पर, (17) वनस्पस्पतिभ्योनम:। घर के उत्तर-पूर्व
कोने या खाट के सिरहाने की ओर, (18) श्रियै स्वाहा। घर के दक्षिण-पश्चिम
कोने या खाट के पाँव के भाग की ओर, (19) भद्रकाल्यैनम:। मकान के मध्य में,
(20) वास्तोष्पतिभ्यां नम:, आकाशमें, (21) विश्वेभ्यो देभ्यो नम:, दिन में,
(22) दिवाचरेभ्यो भूतेभ्योनम:, रात में, (23)नक्तंचारिभ्यो भूतेभ्योनम:।
कोठे पर अथवा अपने पीछे, (24) सर्वात्मभूतयेनम:, दक्षिण मुख हो और जनेऊ को
अपसव्य (बायें) कर, (25) स्वधा पितृभ्य:, इस मन्त्र से दक्षिण दिशा में बचे
अन्न की बलि दे। थोड़ा दूसरा अन्न लेकर, (26) श्वभ्योनम:, (27)
पतितेभ्योनम:, (28) पापरोगिभ्योनम:, (29) वायसेभ्योनम:, और (30)
कृमिभ्योनम:। इन मन्त्रों से जमीन पर बलि दे। इसके बाद अतिथि को भोजन
करवावें।
बहुत धनी होने पर भी जब कभी श्राद्ध और देवयज्ञ करें तो देवयज्ञ में दो और
श्राद्ध में तीन अथवा दोनों एक ही एक ब्राह्मण खिलावें, अधिक नहीं। बहुत
ब्राह्मण खिलाने से एक तो अच्छे और सुपात्रा ब्राह्मण नहीं मिलते, दूसरे
उनका सत्कार ठीक नहीं होता, तीसरे उत्तम स्थान और चौथे उत्तम काल में
उन्हें भीड़ के कारण खिला नहीं सकते और पाँचवें पवित्रता भी नहीं रह जाती।
इसीलिए अधिक ब्राह्मणों को भोजन न करावें। अत्यन्त योग्य और वेदशास्त्रों
के जानने वाले ही ब्राह्मण को यज्ञ अथवा श्राद्ध में भोजन करवाना चाहिए,
तभी फल मिलता हैं। यज्ञ और श्राद्ध में एक-एक भी विद्वान् ब्राह्मण को
खिलाने से महाफल की प्राप्ति होती हैं, न कि बहुत से मूर्खों के खिलाने से।
कोई ब्राह्मण ज्ञानी, कोई तपस्वी, कोई वेद पढ़ने वाले और कोई यज्ञ आदि कर्म
करने वाले होते हैं। उनमें से श्राद्ध में केवल ज्ञानी को ही खिलाना चाहिए,
परन्तु देवकार्य में चारों प्रकार के ब्राह्मणों को। यदि इस प्रकार के
योग्य ब्राह्मण मिल सकें, तभी उन्हें श्राद्ध आदि में भोजन करावे। परन्तु
ऐसे ब्राह्मणों के न मिलने पर सर्वदा सत्पुरुष लोग जिन्हें खिलाया करते
हैं, वे ये हैं, अपने नाना, मामा, बहन के लड़के, ससुर, आचार्य, माता, पिता,
लड़की के पुत्र, दामाद, भाई- बिरादर, और यज्ञ कराने और करने वाले इनको
श्राद्ध में भोजन करावे। देव कार्य में तो खिलाने के समय ब्राह्मणों की
विशेष परीक्षा न भी करे, परन्तु श्राद्ध में तो यत्नपूर्वक परीक्षा करें।
दवा करने वाले (वैद्य), मूर्ति दिखाकर पैसे माँगनेवाले, मांस बेचनेवाले,
रुपया लेकर पढ़ने और पढ़ाने वाले, नाचने और गानेवाले, शूद्र अथवा अन्य जाति
की स्त्री को रखने वाले, पतितों (नीचों) के साथ पठन-पाठन करने वाले, हाथी,
गाय, घोड़े और ऊँटों को फँसाने वाले, ज्योतिषी, भ्रष्टाचार, नपुंसक, नित्य
या×चा करने वाले, अपने हाथों हल जोतने वाले और सत्पुरुषों द्वारा निन्दित
इत्यादि निषिद्ध, पंक्ति में बैठाने के अयोग्य और अधम ब्राह्मणों को
बुद्धिमान कभी भी यज्ञ या श्राद्ध में भोजन न करावे।
याज्ञवल्क्यस्मृति में भी लिखा हैं कि युवावस्था वाले वेदों के विलक्षण
ज्ञाता, सामान्यत: वेदों और उनके अर्थों के जानने वाले, सामवेद, ऋग्वेद और
यजुर्वेदों के कुछ-कुछ अंशों के पण्डित, बहन के लड़के, यज्ञ कराने वाले,
दामाद, यज्ञ करने वाले ससुर, मामा, लड़की के लड़के, शिष्य, दायाद,
(भाई-बिरादर), नातेदार, कर्मकाण्डी और तपस्वी, अन्य योग्य ब्राह्मण, पाँचों
अग्नियों की उपासना करने वाले, ब्रह्मचारी और माता-पिता के भक्त ब्राह्मण,
इतने ही लोगों को श्राद्ध में भोजन करवाना उत्तम हैं।
श्राद्ध का काल भी सामान्यत: मनुजी ने आगे कह दिया हैं :
यथाचैवापर: पक्ष: पूर्वपक्षाद्विशिष्यते।
तथा श्राद्धस्य पूर्वाह्णदपराह्णो विशिष्यते॥ 278॥
रात्रौ श्राध्दं न कुर्वीत राक्षसी कीर्तिता हि सा।
सन्ध्ययोरुभयोश्चैव सूर्येचैवाचिरोदिते॥ 280॥
अर्थात् ''जैसे श्राद्ध के लिए शुक्लपक्ष की अपेक्षा कृष्णपक्ष उत्तम हैं
वैसे ही दिन के पूर्वार्ध्द भाग से उत्तारार्ध्द भाग श्रेष्ठ हैं। रात्रि
राक्षसी हैं, इसीलिए रात्रि को, दिन-रात के सन्धिकाल में और सूर्य निकलने
के बाद ही तुरन्त श्राद्ध न करे।''
घर या सापिंड (मरे या जन्मे से 7वीं पीढ़ी तक) में किसी के मर जाने या जन्म
लेने से ब्राह्मण दस दिन तक अशुचि रहता और यदि जन्म या मरण के दस दिन के
भीतर ही दूसरा जन्म या मरण हो जाये, तो साधारण तया दस दिन के बाद ही दूसरे
जन्म और मरण का, भी अशौच मिट जाता हैं। जैसा कि मनु भगवान् ने पाँचवें
अध्याय में लिखा हैं :
अन्तर्दशाहे स्यातां चेत्पुनर्मरणजन्मनी।
तावत्स्यादशुचिर्विप्रो याव त्स्यादनिर्दशम्॥ 79॥
शुध्ययेद्विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिप:।
वैश्य: पंचदशाहेन शूद्रो मासेन शुद्धयति॥ 83॥
अर्थात् ''यदि जन्म के दस दिन के भीतर ही फिर जन्म और मरण हो जाये तो प्रथम
के दस दिन पूरे होने तक ही ब्राह्मण अशुचि रहता हैं। ब्राह्मण जन्म और मरण
में दस दिन तक अशुचि रहता हैं, क्षत्रिय बारह दिन तक, वैश्य पन्द्रह दिन तक
और शूद्र एक मास तक अशुचि रहता हैं। इस विषय का विशेष प्रचार आगे उत्तर
परिशिष्ट में मिलेगा। अशौच काल में नैमित्तिक कर्म दान आदि तो नहीं ही करने
चाहिए। यही सभी ऋषियों का मत हैं। परन्तु नित्यकर्म सन्ध्या आदि में विवाद
हैं। किसी का मत हैं कि-
सन्धयां प×चमहायज्ञान्नैत्यकं स्मृतिकर्म च।
तन्मध्ये हापयेदेषां दशाहान्ते पुन: क्रिया॥
मरणाशौचमाख्यातं जननेऽप्येवमेव च॥ जाबालि॥
अर्थात् ''जाबालिस्मृति में लिखा हैं कि जन्म या मरण काल में दस दिन तक
सन्ध्या, पंच महायज्ञ, अन्य नित्य कर्म और प्रतिमा पूजा आदि इन सभी का
त्याग कर देना और उसके बाद करना चाहिए।''
परन्तु निर्णय सिन्धु आदि ग्रन्थों में यह सिद्ध किया हैं कि अशौच काल में
भी नित्य कर्मों का त्याग नहीं होता हैं। इसीलिए अन्य ग्रन्थकारों ने यह
लिखा हैं कि सन्ध्या वगैरह नित्यकर्मों में भी जितने कर्म बिना जल के हो,
उन्हें तो कर ले, परन्तु आचमन या सूर्य को अर्घ प्रदानादि न करे। इसीलिए यह
विषय विवाद का हो गया और इनमें बहुत से मत हो गये। ऐसी दशा में चाहे बिलकुल
ही करे या केवल गायत्री आदि जप ले और प्राणयाम कर ले इसमें मर्जी की बात
हैं। परन्तु प्रतिमा की पूजा आदि तो नहीं ही करे। यह भी लिखा हैं कि :
अजागावौ महिष्यश्च ब्राह्मणो च प्रसूतिका।
दशरात्रोण शुद्धियन्ति भूमिस्थं च नवोदकम्॥
अर्थात् ''बकरी, गाय, भैंस और ब्राह्मणी ये सब पुत्रजन्म के दस दिन बाद
शूद्ध हो जाती हैं और जमीन पर पड़ा हुआ नया पानी भी शुद्ध ही होता हैं।''
सन्ध्या काल में प्राणायाम का मन्त्र यह हैं :
¬ भू: ¬ भुव: ¬ स्व: ¬ मह: ¬ जन: ¬ तप: ¬ सत्यम् ¬ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो
देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात् ¬ आपोज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्मभूर्भुव:
स्वरोम्।
जैसा कि योगी याज्ञवल्क्य ने लिखा हैं कि :
सव्याहृतिं सप्रणवां गायत्री शिरसा सह।
त्रि: पठेदायतप्राण: प्राणायाम: स उच्यते॥
अर्थात् ''ओंकार, सप्तव्याहृति, गायत्री मन्त्र और 'आपोज्योती' इत्यादि सिर
मन्त्र इन सबों को मिला तीन बार पढ़कर प्राणों के रोकने का नाम प्राणायाम
हैं।''
गायत्री मन्त्र से शिखा बन्धन करना और सूर्य को अर्घ भी देना चाहिए। जैसा
कि लिखा हैं कि :
स्मृत्वोंकारं च गायत्रीं निबध्नीयाच्छिखां तत:।
कराभ्यां तोपमादाय गायत्रीया चाभिमन्त्रितम्॥
आदित्याभिमुखस्तिष्ठॅस्त्रिरूधर्वं सन्ध्ययो: क्षिपेत्।
सकृदेव तु मधयाद्दे क्षेपणीयं द्विजातिभि:॥
अर्थात् ''ओंकार सहित गायत्री पढ़कर शिखा बाँधो। दोनों हाथों की अंजलि में
जल ले, गायत्री पढ़कर प्रात: और सायंकाल सूर्य की तरफ ऊपर को उसे तीन बार
फेंके परन्तु मधयाद्द में एक ही बार।
गायत्री मन्त्र के विषय में प्रतिदिन के लिए लिखा हैं कि :
अष्टोत्तारशतं नित्यमष्टाविंशतिरेव वा।
विधिनादशकं वापि त्रिकालेषुजपेद्बुधा:। व्यास॥
आरभ्यानामिकामधयं पर्वाण्युक्तान्यनुक्रमात्।
तर्ज्जनीमूलपर्यन्तं जपेद्दशसु पर्वसु॥
मध्यमांगुलिमूले तु यत्पर्वद्वितयं भवेत्।
तं वैं मेरु विजानायाज्जपे तं नातिलंघयेत्॥ गा. क.॥
अर्थात् ''प्रतिदिन 108, 28 अथवा कम से कम 10 बार तीनों काल में जप करे।
अनामिका ऍंगुली के मध्य पर्व (पोर) से आरम्भ कर क्रम से 10 पर्वों पर बराबर
जपे। परन्तु मध्यम अंगुली के जड़ के दो पर्वों को छोड़ दे, क्योंकि वे अंगुली
के मेरु हैं और जप में मेरु का लंघन नहीं किया जाता हैं।''
गायत्री मन्त्र का यह अर्थ हैं कि : ¬-ओंकार स्वरूप व सर्वरक्षक। भूर्भुव:
स्व:-तीनों लोकस्वरूप, या स्वयम्भू, सर्वाधार और आनन्द स्वरूप।
तत्-सम्पूर्ण वेदों और शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित। वरेण्यं-सबके भजन और
प्रार्थना के योग्य। सवितु:-जगत् और प्राणियों के कल्याण को उत्पन्न करने
वाले। देवस्य-स्वयं प्रकाश स्वरूप परमात्मा के। भर्ग:-ज्योति: स्वरूप को।
धीमहि- हम लोग ध्यान करते हैं। य:-जो ज्योति: स्वरूप। न:-हम लोगों की।
धिय:-बुद्धियों को। प्रचोदयात्-अपनी ओर, विचार
और सत्कर्मों में लगावे। अर्थात् ''सम्पूर्ण जगत् को रचने वाले और
प्राणियों के कल्याणकर्ता स्वयं प्रकाश स्वरूप परमात्मा के इस
ज्योति:स्वरूप का ध्यान हम
लोग करते हैं, जो ओंकार स्वरूप, और सर्वरक्षक तीनों लोक स्वरूप और स्वयंभू,
सर्वाधार, आनन्द स्वरूप, सब शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित और सभी लोगों की
प्रार्थना एवं भजन के योग्य हैं। वह ज्योति:स्वरूप हमारी बुद्धियों को अपनी
ओर, सत्कर्म और विचार में लगावे।''
पुराने यज्ञोपवीत (जनेऊ) के त्यागने का मन्त्र यह हैं :
एताबद्दिपर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया।
जीर्णत्वात्तवत्परित्यागो गच्छ सूत्रा यथासुखम्।
इस मन्त्र से जनेऊ को सिर की तरफ से निकाल कर पवित्र स्थान में रख दे। नवीन
यज्ञोपवीत धारण करने के बाद पुराने को निकालना चाहिए। धारण करने का मन्त्र
यह हैं :
यज्ञोपवीतं परमं पवित्र प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र यं प्रतिमु×च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तुतेज:
यज्ञो पवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि॥
इस मन्त्र को पढ़कर गृहस्थ को सर्वदा दो जनेऊ और ब्रह्मचारी को एक धारण करना
चाहिए। जनेऊ के विषय में ऐसा लिखा हुआ हैं :
पृष्ठवंशे च नाभ्यां च धृतं यद्विन्दते कटिम्।
तध्दार्यमुपवीतं स्य:न्नातिलम्बं नचोच्छितम्। छं. पं.॥
ब्रह्मचारिण एकं स्यात्स्नातस्य द्वे बहूनि वा॥
विना यज्ञोपवीतेन तौयं पिवति यो द्विज:।
उपवासेन चैकेन पंचगव्येन शुद्धयतिं।
विना यज्ञोपवीतेन विण्मूत्रोत्सर्गकृद्यदि।
उपवासद्वयं कृत्वा दानैंर्होमैस्तु शुद्धयति॥
सूतके मृतके चेव गते मासचतुष्टये।
नव यज्ञोपवीतानिं धृत्वा जीर्णानि संत्यजेत्॥ संग्रह॥
अर्थ यह हैं कि 'नाभि और पीठ पर होता हुआ जो यज्ञोपवीत कमर तक पहुँच जाये
वही उत्तम और धारण करने योग्य हैं, उससे छोटा या बड़ा नहीं। ब्रह्मचारी को
एक और गृहस्थ को साधारणत: दो जनेऊ पहनने चाहिए। जो द्विज बिना जनेऊ के पानी
पी लेता हैं वह एक दिन उपवास करने और पंचगव्य पीने से शुद्ध हो जाता हैं।
यदि बिना जनेऊ के मल-मूत्रा का त्याग कर दे तो दो दिनों के उपवास के बाद
दान और होम द्वारा शुद्ध हो जाता हैं। सूतक में, मृतक में और चार मास बीतने
पर नये यज्ञोपवीत को पहनकर पुराने को त्याग देना चाहिए।'' जनेऊ बनाने के
विषय में मदन पारिजात में लिखा हैं कि पवित्र देश में हाथ के कते पवित्र
सूत 96 चतुरंगुल (चौआ) का जनेऊ बनावे। चतुरंगुल (चौआ) चारों अंगुलियों को
सटाकर उनकी जड़ में बनाना चाहिए और दस बार गायत्री को पढ़कर जल से जनेऊ का
अभिमन्त्रण करना चाहिए। प्रवरग्रन्थि भी रहे।
स्नान काल में प्रतिदिन नीचे लिखे मन्त्रों से तर्पण करना चाहिए। देव तर्पण
में जनेऊ सीधा ही रहे, पितृ तर्पण में बायें कन्धो पर और ऋषि तर्पण में गले
में लटकना चाहिए, और देव तर्पण में प्रत्येक मन्त्र से एक-एक अंजली, ऋषि
तर्पण में दो-दो और पितृतर्पण में तीन-तीन देनी चाहिए।
देव तर्पण-ब्रह्मादयो देवास्तृप्यन्ताम्। ओं भूर्देवास्तृप्यन्ताम्। ओं
भुवर्देवास्तृप्यन्ताम्। ओं स्वर्देवाष्तृप्यन्ताम्। ओं
भूर्भुव:स्वर्देवास्तृप्यन्ताम्॥ ऋषि तर्पणओं सनकादिद्वैपाय-
नादयोऋषयस्तृप्यन्ताम्। ओं भूवर्ऋषयस्तृप्न्ताम्। ओं
स्वर्ऋषयस्तृप्ययन्ताम्। ओं भूर्भुव: स्वर्ऋषस्तृप्यन्ताम्॥ पितृ
तर्पण-ओंकव्यवाडनलादय: पितरस्तृप्यन्ताम्। भू: पितरस्तृप्यन्ताम्। ¬ भुव:
पितरस्तृप्यन्ताम्। ¬ स्व: पितृरस्तृप्यन्ताम्। ¬ भूर्भुव:
पितरस्तृप्यन्ताम्॥
इसके बाद आचमन कर, जनेऊ को सीधा करके 'यक्ष्म' तर्पण करे, अर्थात् नीचे
लिखे मन्त्र से जल के किनारे एक अंजलि दे। मन्त्र-
यन्मया दूषितं तोयं शरीरमलसम्भवात्।
तस्य पापस्य शुद्धयर्थं यक्ष्मैतत्तो तिलोदकम्॥
इसके बाद अपनी दक्षिण ओर तृण अथवा लता आदि में शिखा के जल को निचोड़ दे।
मन्त्र यह हैं-
लतागुल्मेषु वृक्षेषु पितरो ये व्यवस्थिता:।
ते सर्वे तृप्तिमायान्तु मयोत्सृष्टै: शिखोदकै:॥
ब्राह्मण को भोजन काल में संक्षेपत: यह विधि करनी चाहिए :
जल अथवा भस्म से चौकोना मण्डल बनाकर उसके ऊपर अन्न का पात्र रखे और '¬ नमो
भगवते वासुदेवाय' इस मन्त्र से हाथ में जल लेकर दाहिनी तरफ से थाली के
चारों ओर गिरावें। इसे पंक्ति वारण कहते हैं। पुन: हाथ जोड़कर अन्न की
स्तुति करे। उसका मन्त्र यह हैं : ''¬ नम: शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय
च मयस्कराय च नम: शिवाय च शिवतराय च'' इसके बाद हाथ में जल लेकर दिन में
'सत्यन्त्वत्तौनपरिषि×चामि' इस मन्त्र से और रात में 'ऋतं त्वा सत्येन
परिषि×चामि' इस मन्त्र से उस जल को अन्न पर छिड़क कर हाथ से अन्न का स्पर्श
करे। उसका मन्त्र यह हैं, 'तेजोसि शुकमस्यमृतमसि धाामनामासि। प्रियं
देवानामनाधृष्ट देव यजनमसि।' फिर इन तीनों मन्त्रों को पढ़कर थाली से उत्तर
एक से उत्तर दूसरी और उससे उत्तर तीसरी इस प्रकार तीन बलि दे। मन्त्र ये
हैं : '¬ भूपतये स्वाहा नम:। ओं भुवन पतये स्वाहा नम:। ओं भूतानां पतये
स्वाहा नम:।' बाद को बायें हाथ में जल लेकर '¬ अमृतोपस्तरणमसि' इस मन्त्र
से उसे पी जाये। और फिर जरा-जरा अन्न लेकर पाँच प्राणाहुति करे, अर्थात्
नीचे के मन्त्रों को पढ़-पढ़कर पाँच बार मुख में डाले। मन्त्र ये हैं : ¬
प्राणाय स्वाहा। ¬ अपानाया स्वाहा। ¬ व्यानाय स्वाहा। ओं समानाय स्वाहा। ओं
उदानाय स्वाहा।' फिर बायें हाथ में जल लेकर दोनों नेत्रों में लगावे।
पंक्ति वारण, प्राणाहुति और नेत्रा में जल लगाना, ये तीन काम तो भोजन काल
में अवश्य करके फिर भोजन करे। याद रहे प्राणाहुति पर्यन्त जितनी बलि वगैरह
दी जाती हैं वह केवल घृत या मीठा से मिश्रित अन्न या केवल अन्न की हो, न कि
उसमें नमक का सम्बन्ध हो। इसके अनन्तर विष्णु के स्मरणपूर्वक बायें हाथ से
शिखा को खोलकर चुपचाप भोजन करे। भोजन के बाद उच्छिष्ट अन्न में से बेर के
फल-भर की चित्राहुति पात्र की बायीं ओर दे। फिर दाहिने हाथ में जल लेकर 'ओं
अमृतापिधानमसि स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर उसका आधा पीकर शेष उसी 'चित्राहुति'
पर गिरा दे। फिर चुपचाप बायें हाथ से शिखा बाँधा, उसे चित्राहुति आदि को
काकों को देकर हाथ, मुँह आदि धो डाले और एक आचमन करके
अगस्त्यं वैनतेयं च शनिं च वडवानलम्।
अन्नस्य परिणामार्थं स्मरेद्भीमं च पंचमम्॥
इस मन्त्र को पढ़ता हुआ पेट पर हाथ फेरे। इति भोजन विधि:।
इति श्री ब्रह्मर्षि वंश विस्तरे पूर्व परिशिष्टम्॥
॥ श्री:॥
अगला
भाग
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