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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-1

पूर्वार्ध्द-द्विविध ब्राह्मण विचार - 4

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ब्रह्मर्षि वंश विस्तार

4. आचार-व्यवहार

अब हम ब्राह्मणों के आचार-व्यवहारों पर दृष्टिपात करते हुए इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के आचार-व्यवहारों का भी वर्णन करते हैं। प्रथम ही दिखला चुके हैं कि क्यों कहीं-कहीं इनमें तम्बाकू इत्यादि पीने का अभ्यास हो गया और क्योंकर आजकल भी सभी ब्राह्मणों में बहुत से ऐसे व्यवहार घुसते चले आते हैं और चले आयेंगे। जिन्हें प्राचीन लोग अनुचित समझते थे और समझते हैं। यद्यपि पूर्व समय में ब्राह्मणादि तम्बाकू का खाना, पीना अथवा सूँघना निषिद्ध अथवा बुरा समझते थे। क्योंकि वह स्वदेशी वस्तु न होकर अज्ञात, विदेशी और मादक वस्तु हैं। तथापि आजकल अथवा इससे कुछ पूर्व भी लोगों की घृणा उससे एकदम जाती रही। सिवाय अज्ञान और दम्भमूलक मिथ्या अभिनिवेश और दिखावे के कुछ न गया। क्योंकि प्राय: मुसलमान लोग ही इसे इस देश में लाये। अतएव संस्कृत कोष में इसके लिए कोई पर्याय शब्द नहीं मिलता और न तो धर्मशास्त्रों में ही इसका वर्णन हैं। उन्हीं मुसलमानों के संसर्ग से या देखा-देखी कोई ब्राह्मण उसे पीने लगा और कोई खाने और कोई सूँघन में ही प्रवृत्त हो गया। कोई-कोई तो दोनों या तीनों करने लगे जो आज तक सभी ब्राह्मणों में पाये जाते हैं। यही दशा क्षत्रियादि जातियों की भी हैं।

यदि पीने का ही विचार करिए तो समस्त गौड़ सनाढय, जिझौतिया, सारस्वत, गुजराती, दक्षिणात्य, बंगाली और उत्कल प्रभृति इसे पीते हैं। कोई हुक्का पीता हैं और कोई बीड़ी या सिगरेट। आरा जिले में तथा मिथिला में भी प्राय: बहुत से सर्यूपारी कहलाने वाले पीते हैं। हाँ, केवल बहुत से कान्यकुब्जों, सर्यूपारियों और मैथिलों में दिखलाने मात्र के लिए यह बात रह गयी हैं क्योंकि पीने वाले बहुत कम हैं। तथापि अब तो धीरे-धीरे अंग्रेजी सभ्यता के प्रचार से ऐसा हो रहा हैं कि सिगरेट देवता कम-से-कम अंग्रेजी के विद्यार्थियों के मुख से बात कर रहे या करना चाहते हैं और यह आशा प्रतीत होती हैं कि थोड़े ही दिनों में इंजन की तरह मुख से फुक-फुक धुऑं निकालने में एक ब्राह्मण बच्चा भी न बचेगा। क्योंकि यवनों की घनिष्ठता कुछ देशों में न थी। कान्यकुब्ज, सर्यूपार और मिथिला में उनका इतना प्रभाव न था जितना पश्चिम, बंगाल, पंजाब और दक्षिण में था। इसलिए इस देश में उसकी कुछ कमी थी। परन्तु अंग्रेजी सभ्यता तो घर-घर घुस रही हैं और अंग्रेजों के भी प्रधान व्यवहार की ये वस्तुएँ हैं। इसीलिए सभी इसका प्रयोग क्यों न करने लग जायेगे? प्रथम तो इसके रोकने के लिए सभाएँ भी न होती थीं और न जगह-जगह व्याख्यानों की झड़ ही लगा करती थी। परन्तु आजकल तो इसके रोकने का बहुत यत्न हो रहा हैं, तो भी इसके प्रचार की (सो भी विदेश के बने सिगरेट की) उन्नति छोड़कर अवनति देखने में नहीं आती। इसलिए पूर्वकाल में इसके प्रयोग करने वालों का अपराध ही क्या था? क्योंकि जब कोई विलक्षण कालचक्र में आ जाता हैं, तो प्रकृति उसे बलपूर्वक करा ही डालती हैं, कारण कि प्रकृति में उसी के भाव भर जाया करते हैं। इसी से जबकि यवन काल में उसका भाव प्रकृति में कम था, उस समय तम्बाकू के पीने वाले बहुत कम थे। यहाँ तक कि हमने प्राय: सभी अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के वृध्दों से पूछा हैं, तो मालूम हुआ हैं कि इन लोगों में भी इसका विशेष प्रचार प्राय: 40 या 50 वर्षों से ही हुआ हैं। परन्तु इसी समय से लेकर उस भाव की उन्नति ही होती गयी हैं। इसीलिए आज प्रकृति ने लोगों पर ऐसा दबाव डाला कि थोड़े दिनों में हजारों उपाय करने पर भी कोई भी इससे बचना नहीं चाहता।

हाँ, इस समय तक सभी समाजों में तम्बाकू न पीने वालों की भी कुछ संख्या हैं। किसी में कम किसी में अधिक। परन्तु इससे क्या? जो मैथिल या कान्यकुब्ज अभी तक इसके न पीने की डींग मारा करते थे, वे लोग ही इसके विशेष रूप से व्यवहार करने वाले हैं। प्राय: सभी के पास बड़े-बड़े बटुवे (कपड़े की थैली) हुआ करते हैं। जिनमें तम्बाकू (खाने या सूँघने की) और सुपारी भरी रहती हैं। मैथिलों और कान्यकुब्जों या सर्यूपारियों पर ही क्या? सभी देश के ब्राह्मण पर खाने और सूँघने वाला भूत सवार हो रहा हैं। क्या पीना ही खराब और खाना या सूँघना अच्छा हैं? यह बात किसी धर्मशास्त्र या पुराण में लिखी हैं? जैसा ही पीना, वैसा ही खाना या सूँघना। बल्कि पीने की अपेक्षा खाना-सूँघना और भी खराब हैं। क्योंकि पीने से तो धुएँ के रूप में उसके दुष्ट परमाणु मस्तिष्क वा उदर में थोड़े-थोड़े जाते हैं, परन्तु खाने और सूँघने वाले के तो साक्षात् ही। कारण कि नासिका और नुखों में लोग जबरदस्ती से ठूँस दिया करते हैं। इसलिए पीनेवालों की अपेक्षा खाने और सूँघनेवालों को तो और भी बड़ा रोग लग गया हैं। इससे जो खाने वा सूँघने वाले होकर पीने वालों की निन्दा करते हैं, उनकी तो वही दशा हैं कि ''अपना तो ढेंढर न देखे और दूसरों की फुल्ली निहारे''। हाँ जो लोग, चाहे अयाचक दल के ब्राह्मण हों, अथवा याचक ब्राह्मणों में से हो, किसी प्रकार से उसका व्यवहार नहीं करते, वे भले ही सब लोगों को ही, जो पीने, सूँघने या खाने वाले हैं, नीचा दिखला सकते हैं। इसलिए इस विषय में जो चालाक और दाम्भिक हैं उन लोगों में छल और धोखे से दूसरों को नीच बनाने के सिवाय और कोई तत्त्व नहीं हैं, क्योंकि कोई भी इससे बचा नहीं हैं।

यदि खाने और सूँघने वाला पीने वाले की निन्दा करता, या उसे नीचा दिखलाता हैं, तो जैसा कि कह चुके कि पीने वाला खाने और सूँघने वाले की और भी निन्दा कर सकता और उसे नीचा दिखला सकता हैं। क्योंकि जैसा कि कभी कह चुके हैं कि तम्बाकू के वैदेशिक होने के कारण संस्कृत साहित्य में इसका वाचक कोई शब्द नहीं हैं। इसीलिए धर्मशास्त्रों में भी उसकी विधि या निषेध नहीं हैं, जिससे पीना खराब और मुँह एवं नाक में भूसे की तरह ठूँसना अच्छा लिखा हो। कहीं-कहीं मनुस्मृति आदि में गौड़ी सुरा के पीने का जो निषेध हैं, वह तो गुड़ आदि से बनी हुई जल की तरह पीने योग्य, का ही हैं, क्योंकि वही जल की तरह पी जा सकती हैं और तमाल तो काले-काले पत्तों वाला बड़ा सा वृक्ष होता हैं, न कि तम्बाकू का नाम तमाल हैं। जैसा कि रामायण में लिखा हैं :

नाथ देखु यह विटप विशाला। पाकर जम्बु रसाल तमाला॥

इससे पुराणों के नाम पर कल्पित श्लोक बनाकर 'तमाल पत्र दर्पण आदि पोथियों में केवल तम्बाकू के पीने की जो निन्दा की गयी हैं वह पक्षपात और परस्पर द्वेष मात्र हैं।

हाँ, सामान्य रीति से अज्ञात वैदेशिक पदार्थ होने के कारण सभी प्रकार के अन्य पदार्थों की तरह उसके भी खाने, पीने और सूँघने सभी का निषेध समझा जायेगा। इसलिए यदि किसी ने धर्मशास्त्रों के नाम पर केवल पीने की निन्दा के एक-दो मनगढ़न्त श्लोक बना लिये हों, तो उसकी वंचकता मात्र हैं क्योंकि खाने और सूँघने के विषय में भी ऐसे बहुत से कल्पित श्लोक बन सकते हैं।

परन्तु यदि सभी प्रकार के खाने, पीने, सूँघने की निन्दा के श्लोक मिलें तो वे सत्य की दृष्टि से माने जा सकते हैं। क्योंकि वस्तुत: मादक द्रव्य होने से अन्य मादक द्रव्यों की तरह उसका किसी प्रकार का भी सेवन अच्छा नहीं हो सकता, प्रत्युत हानिकारक ही हो सकता हैं। जो वैद्यकादि ग्रन्थों में कहीं-कहीं उसका निषेध आता हैं, वह भी सामान्य रीति से खाने, पीने सभी का हैं। इसलिए विचारदृष्टि से तम्बाकू का खाना, पीना और सूँघना सभी एक प्रकार के और निन्दित हैं। अत: सभी को छोड़ना चाहिए, न कि अन्ध परम्परा का अनुसरण करके खाने एवं सूँघने को तो हथिया लेना और केवल पीने में दोष बतलाना उचित हैं। इसीलिए पं. भीमसेन शर्मा ने सन् 1915 ई. के अपने 'ब्राह्मण सर्वस्व' पत्र के एक अंक में युक्तियों और वैद्यकादि ग्रन्थों का प्रमाण देकर इसके खाने और सूँघने आदि सभी की निन्दा की हैं और सभी को समान ही ठहराया हैं।

दूसरा व्यवहार जिसे लेकर इन अयाचक दल वाले ब्राह्मणों की निन्दा की जाती हैं और एक तरफ डिगरी दी जाती हैं वह इनमें सब जगह तो नहीं, परन्तु काशी और पश्चिमी प्रदेशों के जिलों और बड़े-बड़े बाबुआनों में नमस्कार, प्रणाम और पालागन की जगह 'सलाम' की प्रथा हैं। यद्यपि दरभंगा, मुजफ्फरपुर आदि तिरहुत के और छपरा, गाजीपुर, बलिया वगैरह जिलों में नमस्कार, प्रणाम और पालागन की ही प्रथा प्रचलित हैं। तथापि जो पूर्वोक्त स्थानों में कहीं-कहीं 'सलाम' की रीति पड़ गयी हैं उसका कारण तो प्रथम ही दिखला चुके हैं कि यवनों का घनिष्ठ संसर्ग होने से उनके-से ही आचार-व्यवहार हो गये, और नमस्कार की जगह सलाम करने में ही लोग गौरव समझने लगे। परन्तु जो लोग वहाँ तक नहीं पहुँच सकते थे, या कुछ विवेकी होते थे, उन ब्राह्मणों में प्रणाम, नमस्कार की ही प्रथा पड़ी रह गयी। इसीलिए मिथिला प्रान्त में मैने ही कई जगह बाबुआनों में देखा हैं कि जब वहाँ की उनकी याचक ब्राह्मण प्रजा पत्रों में नमस्कार शब्द का प्रयोग करती हैं, तो वे लोग, यह समझकर कि प्रजा लोग हमारी बराबरी का दावा करते हैं और प्रतिष्ठा नहीं करते, रंज होते हैं और नमस्कार शब्द को काटकर सलाम लिखने को कहते हैं। इस बात में जिसे सन्देह हो वह स्वयं जाकर अथवा मेरे साथ चलकर अच्छी तरह देख सकता हैं। क्या यह बात पूर्वोक्त सिद्धान्त को पुष्ट नहीं कर रही हैं?

काशीस्थ भूतपूर्व पण्डित प्रवर काकाराम शास्त्री के विषय में एक ऐसा ही आख्यान हैं। वे भी तो महियाल ब्राह्मण ही थे। इसलिए उनके भगिनी पति (बहनोई) कोई प्रतिष्ठित महियाल, जो फौजी हवलदार थे, उनसे मिलने के लिए जब काशी में आये, तो शास्त्री जी ने अपने विद्यार्थियों को इशारा किया कि उनको भी प्रणाम या नमस्कार करें। परन्तु ऐसा करने पर बहनोईजी ने विद्यार्थियों से कहा कि ''भाई! प्रणाम या नमस्कार तो उन्हें ही (शास्त्रीजी को) करो, मुझे तो सलाम किया करो।'' क्या यह आख्यान पूर्वोक्त धारणा का पोषक नहीं हैं? आजकल तो इसके सैकड़ों क्या हजारों उदाहरण हैं। क्या आजकल के अंग्रेजी पढ़ने वाले वकील, बैरिस्टर या अफसर लोग प्रणाम, नमस्कार की जगह परस्पर 'गुडमार्निंग' (Good morning) या सलाम नहीं करते? यहाँ तक की स्कूल के विद्यार्थी भी उसी का अभ्यास करते हैं। चाहे परस्पर तो कभी प्रणाम आदिशब्दों का प्रयोग भी हो जाये। परन्तु जब से वे लोग बड़े-बड़े अंग्रेज और मुसलमान अफसरों से मिलते हैं, तो क्या वहाँ भी नमस्कार या प्रणाम शब्द का ही प्रयोग होता हैं? क्या स्कूलों और कॉलेजों में सभी छात्रा 'गुडमार्निंग' (Good morning) नहीं करते? फिर उसी बारम्बार के अभ्यास से परस्पर भी वही करने लग जाते हैं, और लग जायेगे। ठीक इसी प्रकार यवन राजाओं के यहाँ सलाम शब्द का प्रयोग होते-होते अभ्यास पड़ जाने से धीरे-धीरे परस्पर और प्रजाओं के साथ भी उसी सलाम शब्द का प्रयोग जहाँ-तहाँ हो गया। इसी से केवल राजा बाबुओं और काशी, जौनपुर, मिर्जापुर आदि में ही इस 'सलाम' शब्द का प्रचार विशेष हैं, क्योंकि यहाँ यवनों का विशेष सम्बन्ध रहा हैं। इसीलिए पंजाब आदि क्षेत्रों में ब्राह्मणों के प्राय: बहुत से आचार यवनों के-से हो गये हैं। क्या अन्य ब्राह्मण जमींदार की प्रजा यदि मुसलमान हो तो वह मालिक को सलाम न करेगी? क्या इससे उसकी निन्दा या हीनता हो सकती हैं? फिर इन अयाचक दल वाले ब्राह्मणों की प्रजाओं का कहीं-कहीं सलाम करना देख क्यों लोगों को नशा हो जाता हैं, इसका कारण हम नहीं समझते।

परन्तु थोड़ी-सी जगह को छोड़कर अधिकांश स्थानों में तो प्रजा के साथ अथवा परस्पर भी प्रणाम, नमस्कार या पालागन ही होते हैं। इसीलिए इतिहास लेखक अंग्रेजों ने भी इस बात को स्पष्ट शब्दों में कहा हैं। जैसा कि मिस्टर फिशर बी. ए. (F.H. Fisher B.A.) ने आजमगढ़ के गजेटियर के 65वें पृष्ठ में लिखा हैं कि :

“They are saluted with the pranam-or pailagi, and return the salutation with sa blessing or ‘ashirbad’.”

अर्थात् ''भूमिहार ब्राह्मणों को लोग प्रणाम या पालागन शब्द से प्रणाम किया करते हैं, जिसके बदले में वे लोग 'आशीर्वाद' दिया करते हैं।''

इसलिए सलाम शब्द से ये अयाचक दल के ब्राह्मण हीन नहीं समझे जा सकते। हाँ, यह शब्द जब प्रतिष्ठित समझा जाता था, तो था, अब तो इसकी प्रतिष्ठा नहीं हैं, इसलिए इसमें प्रतिष्ठा समझना भूल हैं। किन्तु अब तो यही उचित हैं कि इस 'सलाम' शब्द को सर्वदा के लिए ही तिलांजलि दे दी जाये और परस्पर नमस्कार एवं प्रणाम शब्दों के ही व्यवहार हो। क्योंकि ब्राह्मणों के लिए परस्पर इन संस्कृत शब्दों का ही प्रयोग उचित हैं और उसी से शोभा भी हैं। हाँ, प्रजा लोग पालगी कर सकते हैं। परन्तु सलाम शब्द तो कहीं भी न रहना चाहिए। इसमें बड़ा भारी दोष तो यह हैं कि जिसे लोग समझते ही नहीं। क्योंकि यदि कोई नीच जाति या प्रजा होकर 'सलाम' करे, तो झटपट उत्तर में भी सलाम ही निकल आता हैं, जिससे बराबरी हो जाती हैं। यदि वहाँ आशीर्वाद शब्द का प्रयोग होता अथवा जीओ, खुश रहो इत्यादि, तब तो कोई हर्ज नहीं होता। परन्तु प्राय: ऐसा नहीं होता। यदि ऐसा हो तो नीच लोग यदि सलाम भी करें, तो एक प्रकार से हर्ज नहीं हैं, परन्तु पालागन तो बहुत अच्छा हैं।

तीसरी प्रथा दृष्टि देने योग्य यह हैं कि कुछ जगह अयाचक दल वाले बड़े-बड़े लोग भी पुरोहित दल वाले छोटे-छोटे बच्चों को भी प्रणाम करते हैं। यद्यपि यह प्रथा सब जगह नहीं हैं, तथापि जहाँ कहीं हैं उसके होने का उचित कारण आगे प्रसंगवश दिखलायेंगे। जिससे यह स्पष्ट हो जायेगा कि ऐसा करना केवल भूल से हैं, न कि दूसरी दृष्टि से। इसलिए हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि केवल अपने गुरु या पुरोहित को छोड़कर, सो भी केवल पूजते समय, बाकी उसी ब्राह्मण को प्रणाम या पालागन करना चाहिए, चाहे वह अयाचक हो या याचक, जो विद्यादि सद्गुण सम्पन्न अथवा अवस्था या दर्जे में अपने से श्रेष्ठ हो, जैसे चाचा बड़ा भाई इत्यादि। अन्यों के साथ तो समानता का ही व्यवहार रखना चाहिए, चाहे प्रथम अपने ही 'नमस्कार' करना चाहिए या वे ही करें, जैसा कि पटना चौक के निवासी पं. रामजीवन भट्ट और उनके पुत्र कृष्ण भट्ट अयाचक ब्राह्मणों के साथ करते थे और करते हैं। परन्तु छोटे-छोटे बच्चे, चाहे याचक दल के हों अथवा अयाचक दल के, यदि केवल प्रणाम करें, तो आशीर्वाद के ही योग्य हैं, नहीं तो अपने घर वे और अपने घर आप रहें। यही निष्कृष्ट सिद्धान्त हैं। जिसका प्रचार मिथिला आदि के अयाचक ब्राह्मणों में हैं, जिनमें से प्रसिद्ध-प्रसिद्ध दृष्टान्तों को प्रमाण के साथ आगे दिखलायेंगे। इसलिए सर्वत्रा इसी के प्रचार की नितान्त आवश्यकता हैं। इसमें संकोच या मुरव्वत का काम नहीं हैं, क्योंकि धार्मिक कामों में ऐसा नहीं किया जाता।

5. आस्पद, उपाधियाँ या पदवियाँ

यद्यपि इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों तथा अन्य ब्राह्मणों की पदवियों के विषय में प्रथम ही बहुत कुछ कह चुके हैं और यह भी दिखला चुके हैं कि राय, सिंह, पाण्डे और तिवारी आदि उपाधियाँ क्योंकर ब्राह्मणों को दी जाने लगीं और कब से। साथ ही, यह भी कहा गया हैं कि प्रथम राय, सिंह आदि उपाधियाँ दी गयीं। जिनकी देखा-देखी ही पाण्डे, तिवारी आदि पदवियों का आविर्भाव हुआ और फिर उनमें भी रद्दबदल होती रही। अर्थात् जो पाण्डे, तिवारी थे, वे सिंह कहलाने लगे इत्यादि। अब इस जगह इसी बात को दृष्टान्तों और प्रसारणों द्वारा, दिखलाकर, जिन लोगों की भ्रम मूलक ऐसी धारणा हैं कि राय, सिंह इत्यादि ब्राह्मणों की उपाधियाँ नहीं हैं, उनके इस भ्रम का संशोधन किया जायेगा। बहुत से कहलाने के लिए पण्डित इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों की कहीं-कहीं राय, सिंह, प्रभृति उपाधियों को देखकर चकरा जाते हैं और उनका माथा ठनकने लगता हैं, जिससे बहुत कुछ अनाप-सनाप बक जाते हैं। परन्तु यदि उन्हें कभी मिथिला में जाने या वहाँ के ब्राह्मणों के नाम सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता, तो उनको सूझ जाती कि ब्राह्मणों की उपाधियों का ठिकाना नहीं हैं। मैथिल मूर्ध्दन्य महाराजा दरभंगा का नाम ऑनरेबल सर रामेश्वर सिंहजी तथा इनके प्रथम के राजे, महाराजे रुद्र सिंह, महाराज छत्रासिंह तथा महाराज लक्ष्मीश्वरसिंह इत्यादि कहलाते थे। इनके चचा बाबू तुलापति सिंह थे।

संक्षेप में इतना ही समझ लेना चाहिए कि राघवपुर आदि ग्रामों में जितने धनी श्रेत्रिय हैं वे सभी बाबू और सिंह उपाधि वाले होते हैं। ब्राह्मण के नाम के साथ जिस बाबू शब्द को देखकर लोगों की बुद्धि चक्कर खाने लगती हैं, वह मिथिला प्रदेश में रसोईदार मैथिल तक के लिए बोला जाता हैं और उसके नाम के साथ यदि बाबू शब्द न जोड़ा जाये तो बुरा मानता हैं। बनैली के मैथिल राजा करीत्यानन्द सिंहजी प्रसिद्ध ही हैं। यहाँ तक कि काशी प्रांत में जिस ठाकुर शब्द को ब्राह्मण के नाम के साथ देखकर झट फैसला किया जाता हैं कि ये ब्राह्मण नहीं, किन्तु क्षत्रिय हैं, वहीं ठाकुर शब्द मिथिला के ब्राह्मणों की प्रधान उपाधि हैं। महाराज दरभंगा के प्रथम पूर्वज महेश ठाकुर थे, जिन्होंने राज्य का उपार्जन किया था। महामहोपाध्याय

श्री कृष्णसिंह ठाकुर के नाम के साथ सिंह और ठाकुर दोनों शब्दों का प्रयोग होता हैं और वे बड़े भारी विद्वान् भी हैं। यदि उन शब्दों को अनुचित समझते तो अपने नाम से हटा देते। काव्यप्रदीप नामक संस्कृत साहित्य ग्रन्थ के कर्ता पं. गोविन्द ठाकुर प्रसिद्ध ही हैं और मुजफ्फरपुर जिले के अथरी ग्रामवासी मिथिला के गणनीय विद्वान् पं. मुक्तिनाथ ठाकुर को कौन नहीं जानता?

इस जगह इस बात का विचार कर लेना चाहिए कि जो मैथिल मिथिला छोड़कर बहुत दूर पूर्व या पश्चिम में जा बसा हैं, परन्तु मिथिला के ब्राह्मणों के साथ उसका विवाह सम्बन्ध अथवा आना-जाना लगा हुआ हैं। क्या वह अपने मिथिलावासी मैथिल ब्राह्मणों के इन सिंह और ठाकुर आदि रूप उपाधियों का परित्याग कर देगा? अथवा उनके प्रयोग करने से ब्राह्मण न समझा जायेगा? क्योंकि उस देश में उपाधियाँ ब्राह्मण से भिन्न क्षत्रियादि के ही नाम के साथ बोली जाती हैं। क्या आपने देखा हैं जिस मैथिल की पदवी मिथिला में ठाकुर हैं, वह अन्य देशों में जाकर अपने नाम के अन्त में ठाकुर न कहकर कुछ और कहता हैं? सारांश यह हैं कि कोई कहीं भी रहे, परन्तु अपने प्राचीन सम्बन्धियों के विचारों, आचारों और व्यवहारों को नहीं छोड़ता, चाहे वह किसी भी देश का कोई भी ब्राह्मणादि हो। बस यही दशा इन जमींदार, भूमिहार आदि ब्राह्मणों की भी समझ लीजिए। क्योंकि मिथिला में ये लोग भी बहुतेरे मैथिलों की तरह ठाकुर कहलाते हैं, जैसे श्री अनूपलाल ठाकुर और श्री अयोध्याप्रसाद ठाकुर मुखतार आदि। प्राय: दिघवैत और दूसरे भी ठाकुर ही कहलाते हैं। इसीलिए वहाँ से हटकर यदि शाहबादादि प्रान्तों में चले आये हैं तो वहाँ भी ठाकुर ही कहलाते हैं। और काशी के आस-पास के बड़े-बड़े जमींदार, बाबुआन तथा महाराज द्विजराज श्री काशिराज प्रभृति सभी का सम्बन्ध मिथिला में बहुत दिनों से बराबर पाया जाता हैं और वहाँ यह ठाकुर शब्द, जैसा कि कह चुके हैं कि बड़ी प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता हैं, इसलिए उसी सम्बन्ध से अन्यत्रा भी जहाँ-तहाँ उसका प्रचार होता गया। इसलिए उससे कोई हानि नहीं हैं और न दूसरी कल्पना की जा सकती हैं।

यदि क्षत्रियादि भी अन्य देशों में ठाकुर कहलाते हैं तो कहलायें, उससे इन ब्राह्मणों की हानि क्या हैं? वे लोग भी जमींदार हैं, इसलिए जमींदार के अर्थ में ठाकुर कहलाते हैं। परन्तु भूमिहारादि ब्राह्मणों में ठाकुर शब्द ब्राह्मण और पूज्य, बुद्धि से ही प्रयुक्त होता हैं, जैसा कि मिथिला में दिखला चुके हैं। चाहे ये लोग भी जमींदार हो यह दूसरी बात हैं। यदि ऐसा न माना जाये तो दूसरे देशों में अहीर, कुर्मी आदि भी ठाकुर कहलाते हैं तो फिर क्षत्रियों के भी ठाकुर शब्द में गड़बड़ मच जायेगी और मैथिलों का तो कहना ही क्या हैं? नाऊ लोग भी तो सभी देशों में ठाकुर बोले जाते हैं। तो, क्या इससे क्षत्रिय भी किसी देश में ठाकुर न बोले जाये? इसलिए यह ठाकुर शब्द किसी एक जाति के लिए कहीं भी निश्चित नहीं हैं, किन्तु जिस जाति में जहाँ जैसा प्रचार हैं, एवं उसके अनुसार ही अन्यत्रा भी प्रचार हैं, तो जैसा एक जगह समझा जाता हैं वैसा ही दूसरी जगह भी समझा जाता हैं और जायेगा। चाहे वहाँ दूसरी जातियाँ भी उसी शब्द से क्यों न बोली जाती हो। इस पूर्वोक्त सिद्धान्त के स्थिर हो जाने से पूर्वोक्त आजमगढ़ के गजेटियर के 65वें पृष्ठ में जो फिशर साहब ने लिखा हैं कि :

“An indeed often speak of themselves as Bhumihar Thakurs. The word Thakur, however, is in Azamgarh Rarely used as the name of a caste equivalent to Kshatri or Rajputs.” ऐसा ही और भी कहीं-कहीं लिखा हैं।

इसका अर्थ यह हैं कि ''वास्तव में भूमिहार लोग अपने को बहुधा भूमिहार ठाकुर कहा करते हैं। यह ठाकुर शब्द आजमगढ़ में कभी-कभी उस जाति के लिए बोला जाता हैं, जो क्षत्रिय या राजपूतों के बराबर हो।''

इसका यथोचित खण्डन हो गया। और भी समझना चाहिए कि जब नाई या कुर्मी लोग भी अकसर सभी जगह ठाकुर ही बोले जाते हैं, तो वहाँ क्षत्रिय के ही लिए ठाकुर शब्द कैसे हो सकता हैं? और जब भूमिहार ब्राह्मण अपने को केवल ठाकुर न कहकर नाम के आगे जोड़ते हैं, जैसा कि साहब बहादुर भी केवल ठाकुर न कहकर 'भूमिहार ठाकुर' लिखते हैं। और जैसा कि पूर्व में महेश ठाकुर या गोविन्द ठाकुर आदि कह चुके हैं। या जैसा कि नाऊठाकुर इत्यादि। तो फिर नहीं मालूम कि किस प्रकार से उन्होंने केवल ठाकुर के बराबर ही किसी नाम के आगे जुटे हुए ठाकुर शब्द का अर्थ लगाया? इसलिए यह सब कथन इस बात को सिद्ध कर रहा हैं कि उन लोगों को इसका तत्त्व विदित नहीं था। हाँ, यदि इस ठाकुर शब्द पर इतना आक्रमण हैं, तो हम इन जमींदार, भूमिहार नामधारी ब्राह्मणों से यह अनुरोध करेंगे कि कम-से-कम काशी के प्रान्त में वे इस शब्द का प्रयोग न करें। क्योंकि संसार में 'तुष्यतु दुर्जन:' अर्थात् ''यदि दुर्जन लोग तुष्ट हो जाये तो हम इसे स्वीकार भी कर लेंगे'' यह भी तो न्याय हैं।

अस्तु, इसी प्रकार चौधुरी, खाँ, राय और राउत तथा ईश्वर प्रभृति भी उपाधियाँ मैथिलों में ही पाई जाती हैं। जिनमें से बहुतों को तो थोड़ा आगे चलकर दिखलायेंगे। तथापि दुलारपुर के तुरन्तलाल चौधुरी प्रसिद्ध ही हैं। एवं मिथिला मिहिर का ता. 5-2-16 ई. का अंक देखने से, जिसमें उस वर्ष में होने वाली बेगूसराय की सप्तम मैथिल महासभा का विवरण हैं, यह स्पष्ट हो जाता हैं। उसमें लिखा हैं कि ''तीसरे दिने वैवाहिक कुरीति पर बाबू बबुआ खाँ बहुत उत्तम व्याख्यान देलन्हि'' तथा उसी में बीरसायर निवासी पं. जीवनाथ राय व्याकरण तीर्थ, गुणपतिसिंह, चनौर के बाबू यदुनन्दनसिंह झा, बनैली-रामनगर के कुमार सूर्यानन्द सिंह इत्यादि नाम आये हैं, जो सभी मैथिलों के ही हैं। किसी ने सभा में चन्दा दिया और किसी ने कुछ दिया। इसलिए पूर्वोक्त डॉ. विल्सन ने अपने पूर्वोक्त ग्रन्थ के द्वितीय भाग के 193 और 194 पृष्ठों में स्पष्ट ही लिख दिया हैं कि भूमिहार ब्राह्मण भी मैथिल ब्राह्मण ही हैं, क्योंकि इनकी और उनकी पदवियाँ एक-सी हैं। जैसा कि :

“There are certainly fewer distinction recognized among the Mathilas than among any other of the great division of Brahmans in India”. Those mentioned to me in Bombay, Calcutta and Benares and the following—

“(1) the Ojhas, Ujhas or Jhas, (2) The Thakuras, (3) The Misras, (4) The Puras, (5) The Shrotriyas, (6) The Bhumihars; these are land holders and cultivators. Mr. Celebrooke says no more than three surnames are in use in that district, Thakura, Misra, Jha each appropriate in any family Besides these there are the Chawdhari, Raya, Parihasta, Khan and Kunara.”

इसका भाव यह हैं कि भारतवर्ष में जितने ब्राह्मणों के अन्य भेद हैं उनमें जितने छोटे-छोटे दल हैं उनकी अपेक्षा मैथिल ब्राह्मणों में छोटे-छोटे दल कम पाये जाते हैं। मैथिलों के जिन छोटे-छोटे दलों का वर्णन मुझसे बम्बई, कलकत्ता या बनारस में किया गया हैं, वे ये हैं:-''(1) ओझा, ऊझा अथवा झा, (2) ठाकुर, (3) मिश्र, (4) पूर, (5) श्रेत्रिय, (6) भूमिहार, जो कि जमींदार और खेती करनेवाले हैं। मिस्टर कोलब्रुक ने लिखा हैं कि मिथिला प्रान्त में तीन पदवियाँ ब्राह्मणों में विशेष रूप से प्रचलित हैं-(1) ठाकुर, (2) मिश्र, (3) झा, जिनमें से प्रत्येक प्रतिवंश में बोली जा सकती हैं। इन तीनों के अतिरिक्त चौधुरी, राय, परिहस्त, खाँ और कुँवर ये पदवियाँ भी प्रचलित हैं। दरभंगा, वनगाँव के मैथिल ब्राह्मण खाँ कहलाते हैं।

पूर्व मिथिला का अन्त और पश्चिम में पंजाब इन्हीं के मध्य में ही ये अयाचक दलवाले ब्राह्मण पाये जाते हैं, अत: वहाँ भी राय, सिंह, चौधुरी और राउत आदि सभी पदवियाँ हैं। राउत शब्द राजपुत्र का अपभ्रंश हैं, क्योंकि प्राकृत भाषा में आर्यपुत्र को अज्जउत कहा करते हैं। अत: जिनके पूर्व पुरुष प्रथम राजा थे, वे ब्राह्मण लोग राजपुत्र कहलाते-कहलाते, आज राज शब्द का 'रा' होकर और पुत्र का 'उत', वे ही सब लोग राउत कहलाने लगे। ये सभी उपाधियाँ सम्पूर्ण प्रदेश घूमने से जो चाहे वह मालूम कर सकता हैं। इनमें से दृष्टान्त के लिए यदि आप प्रयाग से अक्टूबर,नवम्बर 1910 ई. का मुद्रित 'श्री कान्यकुब्ज' पत्र देखें तो उसके 22वें पृष्ठ में पं. रघुनन्दन सिंह दीक्षित का नाम एवं 38वें-39वें पृष्ठों में पं. अयोध्या सिंह तिवारी पं. बिहारी सिंह तिवारी, पं. जीवन सिंह तिवारी और पं. पुलन्दर सिंह का नाम पायेंगे और फतहपुर जिला, तहसील खजुहा, गाँव बरारी में चौधुरी कोकलसिंह प्रभृति कान्यकुब्जों को पायेंगे। कान्यकुब्जों के सभी पत्रों को देखें तो प्रभृति भी आपको मिल जायेगे। घूमने की भी आवश्यकता न होगी। विशेष कहाँ तक लिखा जाये। कान्यकुब्ज कुल कौमुदी के 144वें पृष्ठ में लिखा हैं कि ''जो ब्राह्मण कान्यकुब्जों में 20 विश्वेवाले अर्थात् सबसे श्रेष्ठ हैं, वे महत्तार कहलाते हैं।'' यही महत्तार शब्द बिगड़कर महतो हो गया। उसके 127वें पृष्ठ में लिखा हैं कि ''रोहन (नाम हैं) रौतापुर के तिवारी कहलाये। इसी से (रौतापुर के रहने से) राउत भी कहे जाते हैं। शिवानन्द देवकली के दूबे थे, जिन्हें ठाकुर ब्राह्मण भी कहते हैं।'' पृष्ठ 64 में लिखा हैं कि ''कुछ काल पीछे बाज-बाज आस्पदों के बजाय सांकेतिक पद बादशाहों और राजाओं ने भी ब्राह्मणों के कर दिये। जैसे भट्टाचार्य, चौधुरी, राउत, ठाकुर और चौकसी।'' इसी प्रकार सर्यूपारियों में भी बहुत से मिलेंगे। शाहाबाद जिले में गाँव के गाँव सर्यूपारी सिंह पदवी वाले हैं। यहाँ तक कि बक्सर से पूर्व एक ग्राम 'सिंहनपुरा' कहलाता हैं, जहाँ के सर्यूपारी सिंह कहलाते हैं। गौड़ों, सास्वतों और सानाढय आदि ब्राह्मणों में तो राय, सिंह की भरमार हैं। बड़े-बड़े जमींदार सभी सिंह कहलाते हैं और चौधुरी भी। गाजीपुर के श्री शिवनाथसिंह सारस्वत ही (महियाल) ब्राह्मण थे, जो प्रथम से ही यहाँ आकर बस गये। सरस्वती के लेखकों में से पं.अयोध्या सिंह उपाध्याय कोलोग जानते ही हैं। वे सनाढय ब्राह्मण ही हैं। इसी प्रकार जहाँ ढूँढ़ेगें वहीं सभी मिल सकते हैं। कान्यकुब्ज दर्पण के 29-32 पृष्ठों में राय, सिंह और साह पदवी वालों के नाम भरे हैं।

हाँ, इतनी बात हैं कि मिथिलादि देशों तथा कन्नौज में राय, सिंह के आगे कहीं-कहीं ठाकुर, दीक्षित तिवारी आदि भी जोड़ देते हैं और कहीं-कहीं नहीं भी। जैसा कि पूर्व दृष्टान्तों से विदित हो गया होगा। परन्तु उचित हैं जिसका जो प्राचीन आस्पद (उपाधि) तिवारी आदि हो, उसे अवश्य राय अथवा सिंह आदि शब्दों के आगे जोड़ दे, नहीं तो धर्मशास्त्र सिद्ध शर्मा शब्द को ही उनके आगे लगा दे, अथवा उनको निकालकर शर्मा शब्द को ही केवल रखे, अथवा पाण्डे आदि भी जोड़ दे। इसमें मर्जी की बात हैं।

इसलिए आजकल किसी अयाचक दलवाले ब्राह्मण को अपने नाम के आगे प्राचीन शर्मा या तिवारी, पाण्डे आदि पद लगाये देख जो कोई बुद्धि के शत्रु यह दलील कर बैठते हैं कि यदि आपकी यह पदवी प्रथम से थी तो आप लोग उसका प्रथम प्रयोग क्यों न करते थे? उनको उन कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों को देख और पूछकर अपनी अनभिज्ञता का परिचय कर लेना चाहिए। साथ ही, विचारने की बात हैं कि 'शर्मा' उपाधि तो सभी ब्राह्मणों की धर्मशास्त्रों से सिद्ध हैं जैसा कि मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में लिखा हैं कि :

शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्॥ 3 अ. 2 मनु.
शर्म देवश्च विप्रस्य वर्म त्राता च भूभुज:।
भूतिर्दत्ताश्च वैश्यस्य दास: शूद्रस्य कारयेत्॥ यम.॥
शर्म वद्ब्राह्मणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रा संयुतम्।
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयो:॥ विष्णुपु.॥

सबका निचोड़ यह हैं कि ''ब्राह्मणों के नाम के अन्त में शर्मा और देव शब्द होने चाहिए, एवं क्षत्रिय के नामान्त में वर्मा और त्राता, वैश्य के गुप्त, दत्ता आदि और शूद्र के नामान्त में दास शब्द लगाना चाहिए।'' अब हम आप ही से पूछते हैं कि सभी ब्राह्मणों के नाम के आगे इन नवोद्भूत तिवारी, पाण्डे, सिंह, ठाकुर और भट्टाचार्य प्रभृति उपाधियों के प्रबल प्रवाह ने जब उनका नाम निशान तक आज मिटा दिया हैं, तो फिर क्या आज उसके नये सिरे से प्रयोग करने वाले आपके सिद्धान्तानुसार अपराधी समझे जाये? अथवा 'शर्मा' उनकी उपाधि ही प्रथम की न समझी जाये? इसलिए ऐसी कुकल्पनाएँ विद्वानों को शोभा नहीं देतीं और मूर्खों को कोई रोक भी नहीं सकता।

इन सभी कथन का निष्कर्ष यही हैं कि राय, सिंह और चौधुरी आदि उपाधियाँ रखने से भूमिहार आदि ब्राह्मणों में त्रुटि नहीं आ गयी, जिससे किसी प्रकार इनका पूर्व गौरव घट गया हैं। क्योंकि ये ब्राह्मण मात्र में प्रचलित उपाधियाँ हैं। हाँ, इतना हम अवश्य कहेंगे कि इन सभी आधुनिक उपाधियों को सभी ब्राह्मण छोड़कर धर्मशास्त्रादि सिद्ध शर्मा, ऋषि, देव, आचार्य और उपाध्याय रूप उपाधियों का ही अब से प्रयोग करें। क्योंकि अब आधुनिक किसी भी राय, सिंह अथवा पाण्डे, तिवारी प्रभृति पदवियों में तत्त्व नहीं रह गया और न उनसे कोई प्रतिष्ठा ही हैं। बल्कि निरक्षर, निरुद्योग और कर्म धर्म शून्यों में ये अन्धा परम्परा की पदवियाँ अब अत्यन्त अयोग्य प्रतीत होती हैं।

विवाह सम्बन्ध

हम प्रथम ही सिद्ध कर चुके हैं कि त्यागी, महियाल, पश्चिम, भूमिहारादि ब्राह्मण दल सभी देश के कर्मवीर, धनी और प्रतिष्ठित अयाचक ब्राह्मणों का एक दल हैं, जो उसी समय बना जिस समय कान्यकुब्ज, मैथिल, गौड़, सारस्वत और सर्यूपारी आदि ब्राह्मण दल बन रहे थे। अब इस प्रकरण के अन्त में उसी की पुष्टि के लिए इन अयाचक ब्राह्मणों का प्रतिष्ठित मैथिलों, कान्यकुब्जों, सर्यूपारियों और गौड़ों से विवाह सम्बन्ध दिखलाते हुए इनके श्रेष्ठ ब्राह्मण होने में प्रसिद्ध-प्रसिद्ध पण्डित प्रवरों की सम्मतियाँ दिखलाकर इस प्रकरण को समाप्त करेंगे। जिनके दिखलाने से बहुतों की अनभिज्ञता मूलक कुकल्पनाएँ समूल विनष्ट हो जायेगी और उनको अपनी पण्डिताई का पता लग जायेगा। उस सम्बन्ध को नाम बनाम दिखलाने से प्रथम ही हम उसके विषय में दो-एक बातें कह दिया चाहते हैं। एक तो यह कि जब काशी में भूमिहार ब्राह्मण महासभा की बैठक हुई थी तभी महाराज द्विजराज काशिराज ने अपनी वक्त्तृता में इस बात का वर्णन किया था कि इन अयाचक ब्राह्मणों का मैथिलों, कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों और गौड़ों के साथ विवाह सम्बन्ध होता था और हैं यद्यपि उन्होंने इसके रोकने के लिए अपनी सम्मति प्रकाशित की थी, परन्तु हम उस अंश से सहमत नहीं हैं। क्योंकि रोकने में उनका तात्पर्य यह था कि हम लोग अयाचक ब्राह्मण हैं, इसलिए हमारा सम्बन्ध उन्हीं में होना चाहिए, न कि याचक ब्राह्मणों में भी। परन्तु जैसा कि हम प्रथम ही कह चुके हैं और आगे भी विदित होगा कि अयाचक दल में भी बहत से अयाचक हैं और इन अयाचकों का साक्षात् सम्बन्ध उन्हीं से होता हैं। क्योंकि दरिद्रों के साथ लोग कब करने वाले हैं। और उन अयाचकों का भी अपने दल के अयाचकों के ही साथ होता हैं, इस प्रकार से तीन, चार या पाँच सम्बन्ध के बाद सम्भवत: याचक भी जुट जाते हैं। तो इससे क्या? वे लोग कुछ दूसरे तो हैं नहीं, केवल आचार-भेद होने से उनके मत से साक्षात् सम्बन्ध न होना चाहिए। क्योंकि परम्परा सम्बन्ध तो संसार में किसी के साथ भी बचा नहीं हैं। सभी ब्रह्मा या ऋषियों की सन्तानें हैं। यदि कोई आदमी किसी चाण्डाल का स्पर्श नहीं करता तो साक्षात् ही नहीं करता, परन्तु परम्परा स्पर्श तो रहता ही हैं। क्योंकि दोनों उसी पृथ्वी पर रहते हैं। बल्कि हम तो साक्षात सम्बन्ध को ही पसन्द करते हैं और बहुत जगह ऐसा होता भी हैं।

एक बात और भी हैं कि जैसे भूमिहार ब्राह्मण अयाचक हैं वैसे ही याचक दल में भी तो बहुत से अयाचक हैं। तो क्या वे लोग सम्बन्ध करना ही छोड़कर बिना ब्याहे रह जाये? हाँ प्राय: जहाँ तक होता हैं साक्षात सम्बन्ध करना ही छोड़ देते हैं। वैसे ही आप लोगों (भूमिहारादि ब्राह्मणों) में भी हैं। इसलिए कोई भी हर्ज नहीं। यदि आप कहें कि हम लोगों ने तो संकल्पपूर्वक दान का परित्याग किया हैं, न कि याचक दल वाले अयाचकों ने, इसलिए उनका दृष्टान्त नहीं दिया जा सकता। सो तो ठीक नहीं हैं। क्योंकि जैसा कि हम अच्छी तरह सिद्ध कर चुके हैं कि क्रमश: याचकों से अचायक होते गये और कभी-कभी अयाचक से याचक भी इत्यादि। इसलिए संकल्पपूर्वक दान त्यागने में कोई प्रमाण नहीं हैं। यह तो ऐच्छिक धर्म हैं।

दूसरे यह कि मैथिल परमहंस महोपदेशक नामक एक महात्मा ने भी 'ब्राह्मण सम्बन्ध' नाम की एक छोटी-सी पुस्तक लिखी हैं। यद्यपि उसमें विशेष रूप से मैथिलों और भूमिहार ब्राह्मणों के ही सम्बन्ध दिखलाये गये हैं। तथापि उसके चौथे पृष्ठ में लिखा हैं कि ''पंजी के पूर्व मैथिल, कान्यकुब्ज, सरवरिया और पश्चिम ब्राह्मण में सम्बन्ध था,'' इत्यादि।

इसी जगह यह समझ लेना चाहिए कि मैथिल ब्राह्मणों में दो प्रकार के विवाह प्रचलित हैं, एक तो उनकी सौराष्ट्र की केवल विवाह सम्बन्धिनी सभा में होता हैं, जहाँ पर कन्या विक्रय प्रधान धर्म माना गया हैं। जिसके लिए 'मिथिला मिहिर' प्रभृति पत्र और मैथिल महासभा चिल्लाती ही रह गयी, मगर कुछ न हुआ इस विवाह से बड़ा भारी अनर्थ यह होता हैं कि रुपये देकर अन्य जातियाँ भी वहाँ से लड़कियाँ ब्याह लाती हैं, क्योंकि वहाँ के विवाह का दारमदार पंजीकारों पर होता। जो बड़े ही लालची होने के कारण किसी से विशेष घूस पाते हैं उसी का नाम पंजी में लिख देते हैं। फिर क्या? अब तो वेद वाक्य ही हो गया और उसके मैथिल होने में कोई सन्देह नहीं रहा। क्योंकि मैथिलों का निर्भर उसी काल्पनिक पंजी पर ही होता हैं। इस विषय में बहुत बार विचार और लिखा-पढ़ी 'मिथिला मोद' प्रभृति उनके पत्रों में भी हो चुकी हैं। और भागलपुर की मैथिल महासभा में इस विषय का एक प्रस्ताव भी हो चुका हैं। यद्यपि इस प्रकार के विवाह पर पुराने लकीर के फकीर मैथिलों को बड़ा अभिमान हैं, तथापि सच पूछिये तो यह विवाह नहीं, किन्तु अनर्थ हैं। परन्तु यह विवाह प्राय: अप्रसिद्ध और गरीबों का ही हैं। दूसरे प्रकार का विवाह, जिसे पुराने ढंग के मैथिल अच्छा नहीं समझते, युक्त प्रान्तादि की रीति पर तिलक, दहेज देकर और लड़के-लड़कियों के घर-बार देखकर हुआ करता हैं। जिसमें पूर्व ब्याह की तरह गड़बड़ मचने की सम्भावना भी नहीं रहती। क्योंकि सौराष्ट्र सभा वाला विवाह दो ही चार दिनों में हो जाता हैं। परन्तु इसमें तो परीक्षा के लिए पूर्ण समय मिलता हैं। इस विवाह को मैथिल लोग 'तिलकौआ विवाह' कहते हैं। यह केवल प्रतिष्ठित और धनी एवं जमींदार मैथिलों में हुआ करता हैं। और यही दूसरे प्रकार का विवाह उन लोगों का पश्चिम ब्राह्मणों के साथ होता हैं। क्योंकि दोनों दल जमींदार और प्रतिष्ठित ही हैं। इसलिए यह कहने का भी अवकाश नहीं रहा कि मिथिला के विवाह का तो कुछ ठिकाना ही नहीं, वहाँ तो धोखे से अन्यों के साथ भी हो जाता हैं। क्योंकि धोखे की बात प्रथम प्रकार के ही विवाह में रहती हैं, न कि दूसरे प्रकार के विवाह में भी। यदि पश्चिम ब्राह्मणों और मैथिलों का परस्पर विवाह सच्ची रीति से होता न रहता, तो भागलपुर की मैथिल महासभा में उसके रोकने का प्रस्ताव क्यों किया जाता, जिसका विवरण आगे मिलेगा?

इसके सिवाय ता. 11 जनवरी, 1916 ई. के भारतमित्रा में भी इसी विषय की साम्पादकीय टिप्पणी ऐसी निकली हैं कि ''मैथिलों और भूमिहारों के वैवाहिक सम्बन्ध होते हैं इससे भूमिहार काशीनरेश के ब्राह्मण होने में सन्देह करना व्यर्थ हैं, सम्पादक महोदय को कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों के साथ भूमिहार, जमींदारादि ब्राह्मणों के सम्बन्ध विदित न थे। इसलिए उन्होंने उनका वर्णन नहीं किया, यह दूसरी बात हैं। इस सम्पादकीय टिप्पणी को देखते ही किसी दरभंगा निवासी मैथिल जीवछ मिश्र का माथा ठनक उठा और चटपट उन्होंने सम्पादकजी को बड़े रोष के साथ लिख भेजा कि आपने विवाह सम्बन्ध के विषय में जो लिखा हैं वह सब गलत हैं। जो विवाह मैथिलों के नाम पर होते हैं, वे बनावटी मैथिलों के ही नाम पर, न कि सच्चे मैथिल कभी भी भूमिहार ब्राह्मणों के साथ विवाह करते हैं। अत: आपको यह बात विचार कर लिखनी थी इत्यादि। यह ता. 11 जनवरी के बाद के भारतमित्रा के किसी अंक में संक्षेप से प्रकाशित हैं।

इस पर पुन: ता. 25-1-16 ई. के अंक में पूर्व लेख का सम्पादकीय उत्तर निकला कि ''किसी पिछले लेख में हमने लिखा था कि जब भूमिहारों का मैथिलों से वैवाहिक सम्बन्ध होता हैं, तब भूमिहारों के ब्राह्मण होने में सन्देह नहीं किया जा सकता। इस पर दरभंगे के श्रीयुत् जीवछ मिश्र हम पर बहुत बिगड़े हैं, परन्तु इसका कोई कारण हमारी समझ में नहीं आता। जब एक समाज का मनुष्य किसी दूसरे समाज के विषय में कुछ लिखता हैं, तब उसका हाल वह दूसरे से ही सुनकर लिखता हैं, क्योंकि भीतर की बात विशेष घनिष्ठता हुए बिना वह नहीं जान सकता। परमहंस महोपदेशक नाम के एक सज्जन ने कई वर्ष हुए हमारे पास एक पुस्तक छपने को भेजी थी, जिसमें उन्होंने यह बात लिखी थी। हमारे यहाँ तो वह पुस्तक नहीं छपी, पर वह छप गयी या नहीं यह भी हमें मालूम नहीं हैं, क्योंकि वह यहाँ से लौटा दी गयी थी। उसके बाद हमने एक मैथिल वैष्णव से यही बात पूछी थी और उन्होंने भी परमहंसजी का समर्थन किया था। इस कारण हमने परमहंसजी की बात प्रामाणिक समझी और उसे लिख दिया...। जीवछजी को अच्छी तरह खोज कर लेना चाहिए और यदि हमारी बात ठीक न ठहरे तो सूचना पाने पर हम सहर्ष उसका खण्डन प्रकाशित कर देंगे।''

इसके बाद उक्त मिश्रजी की लेखनी जो रुकी सो आज तक रुकी ही हैं। फिर ता. 28-1-16 ई. के अंक में यह प्रकाशित हुआ कि ''मोकामे से श्रीयुत् आदित्य नारायण सिंह लिखते हैं : आपने गत मंगलवार के 'भारतमित्रा' में दरभंगे के श्रीयुत् जीवछ मिश्रजी के क्रोधा का जिक्र करते हुए लिखा हैं कि 'जब भूमिहारों का मैथिलों से वैवाहिक सम्बन्ध होता हैं तब भूमिहारों के ब्राह्मण होने में सन्देह नहीं किया जा सकता हैं।' आपका कथन निस्सन्देह युक्तिसंगत और सत्य हैं। भूमिहारों तथा मैथिलों के अनेक वैवाहिक सम्बन्ध हुए और होते हैं। इसके अतिरिक्त अनेक मैथिल और भूमिहार धन के बढ़-घट जाने पर मैथिल से भूमिहार और भूमिहार से मैथिल कहलाने लगते हैं। यदि में कथन पर किसी को विश्वास न हो और इसकी सत्यता जानना चाहे तो मैं उसके साथ घूमकर इसकी सत्यता दिखा दूँगा। इसके सिवाय आपने भी श्रीयुत् जीवछ मिश्रजी को अपने कथन की सत्यता प्रमाणित करने के लिए खण्डन करने की आज्ञा दे दी हैं। देखें मिश्रजी खण्डन में क्या लिखते हैं।''

इस पर मिश्रजी की ओर से किसी की लेखनी न उठी, और अन्त में काशीवासी पं. शयामनारायण शर्मा सं. 'भू. ब्रा.' का एक लेख ता. 8-2-16 ई. के अंक में प्रकाशित होकर यह लिखा-पढ़ी बन्द हो गयी। वह लेख यों हैं :

''गत पौष शुक्ल सप्तमी को प्रकाशित 'दैनिक भारत मित्रा' की सम्पादकीय टिप्पणी 'मैथिलों और भूमिहारों के वैवाहिक सम्बन्ध होते हैं, इससे भूमिहारों के ब्राह्मण होने में सन्देह करना व्यर्थ हैं', देखकर दरभंगा निवासी श्री युत जीवछ मिश्रजी आपे से बाहर हो गये हैं और गत किसी अंक में सम्पादक महोदय को उलाहना देते हुए आप लिखते हैं कि पूर्वोक्त विवाह सम्बन्ध की बात मिथ्या हैं। भूमिहारों के साथ जिन मैथिल के ब्याह होते हैं वे कल्पित मैथिल हैं इत्यादि। परन्तु मैं कहता हूँ कि यदि वास्तव में सच्चे मैथिलों के साथ भूमिहार ब्राह्मणों के ब्याह नहीं होते, तो गत सन् 1911 ई. में भागलपुर की मैथिल महासभा के अधिवेशन में इनके रोकने का प्रस्ताव क्यों किया जाता? और उसके लिए एक सिलेक्ट कमिटी क्यों बनाई जाती? इसका विवरण उसी वर्ष के 29 अप्रैल के 'मिथिला मिहिर' नामक उन्हीं लोगों के पत्र में इस प्रकार हैं :

''तदनन्तर एकटा महाशय (नाम हमरा विस्मृत भैगेल अछि, मि. मि. स) ई प्रस्ताव कैलन्हि जे बहुतो मैथिल ब्राह्मण भूमिहार ब्राह्मण सँ सम्बन्ध करैत छथि। एहि विषय में सभा क दिश स प्रबन्ध होवाक चाही, जाहि सही सम्बन्ध बन्द हो। सर्व सम्मति सही निश्चय भेल जे एहि विषयक ऊपर विचार करवा कर हेतु एकटा सिलेक्ट कमिटी नियत कैल जाय।'' बनावटी मैथिलों के नाम पर जो विवाह सम्बन्ध होते थे या होते हैं, वे तो कन्या विक्रय द्वारा कन्या-विक्रय-स्थान 'सौराष्ट्र' नाम्नी मैथिलों की प्रसिद्ध वैवाहिक सभा में हुआ करते हैं। परन्तु भूमिहार ब्राह्मणों के साथ सम्बन्ध में तो तिलक-दहेज की रीति पर होते हैं, जैसी प्रथा संयुक्त प्रान्तादि देशों में प्रचलित हैं और जिसे मैथिल लोग 'तिलकौआ' ब्याह कहा करते हैं।

क्या दरभंगा प्रान्तस्थ दुलारपुर निवासी मैथिल तुरन्तलाल चौधुरी का विवाह उसी प्रान्तस्थ शेरपुर ग्राम के जलेवार मूलवाले भूमिहार ब्राह्मण खगन चौधुरी के घर नहीं हुआ हैं, या वे सच्चे मैथिल नहीं हैं? अथवा उन्हीं के घर देवधा वाले भू. ब्रा. रामबकस राय सनैवार की लड़की का ब्याह नहीं हुआ हैं? क्या उसी प्रान्त में दहौरा निवासी मैथिल (योग्य श्रेणी के) वनमाली सरस्वती (सरस्वती बाबू) प्रभृति के घर में ठाहर ग्राम के सगोत्र वल्लीपुर निवासी दामोदर चौधुरी की बहन का विवाह नहीं हुआ हैं? जिस ठाहर ग्राम में नया नगरस्थ सनैवार भू. ब्रा. चौधुरी झरूला सिंह तथा ऊदनसिंह की बहनों का सम्बन्ध हैं। तथा कुरसों ग्रामस्थ मैथिल चित्रा नारायण चौधुरी का ब्याह भिरहा ग्रामस्थ बेलखण्डी राय की पुत्री से और नन्दूराय के घर में कुरसों के सगोत्र दसौत वाले प्यारेलाल चौधुरी के पुत्र का ब्याह क्या नहीं हुआ हैं? जिन भिरहा वाले नन्दूराय मैथिल के लड़के का सकरपुर ग्रामवासी सनैवार भू. ब्राह्मण नथुनी राय के घर में सम्बन्ध हैं। इत्यादि 12 गाँव भिरहा आदि वाले अनरिये मैथिलों का सम्बन्ध भू. ब्राह्मणों से नया नगरादि ग्रामों में हैं और भिरहावाले बड़े-बड़े योग्य¹ और पंजीबद्ध मैथिलों में मिले हुए हैं। यदि आवश्यकता हो तो सहस्त्रों ऐसे सम्बन्ध नाम बनाम दिखलाये जा सकते हैं। यदि मैथिल मिश्रजी को सन्देह हो तो उन ग्रामों में

¹ 'ब्राह्मण सम्बन्ध' नाम की पुस्तक से स्पष्ट हैं कि मैथिल मूर्ध्दन्य श्रेत्रिय दरभंगा महाराज का भी सम्बन्ध परम्परया भूमिहार ब्राह्मणों से मिलता हैं।

जा जाँच कर अपना सन्तोष कर ले। मैथिल और भूमिहार ब्राह्मण सम्बन्ध वालीपुस्तक 'ब्राह्मण' सम्बन्ध नाम्नी दरभंगास्थ रामेश्वर प्रेस में छप चुकी हैं। जिन्हें इच्छा हो'बा. महावीर सिंह, ग्राम गंगापुर, पो. ताजपुर-दरभंगा के पते से मँगा ले। मुफ्त मिलती हैं।'

इसके सिवाय बनावटी मैथिलों के विवाह तो केवल लड़कियों के हुआ करते हैं क्योंकि वहाँ लड़के वालों को बनावटी बनने का अवसर मिलता हैं, परन्तु लड़की वाले के तो घर जाना पड़ता हैं और दो-चार दिन रहना भी पड़ता हैं। इसलिए बनावट हो तो पता ही लग जाये। परन्तु मैथिलों और भूमिहार (पश्चिम) ब्राह्मणों के सम्बन्ध तो लड़की और लड़के दोनों के ही होते हैं, जैसा कि आगे विदित होगा। अन्त में हम दरभंगा के नया नगरवासी श्री पारसमणि सिंह नामक अतिवृद्ध अत्यन्त अनुभवी और विचारशील पश्चिम ब्राह्मण रत्न सज्जन को हार्दिक धन्यवाद देते हैं, जिनकी ही सहायता से विशेष रूप से नाम बनाम सम्बन्ध संगृहीत हुआ हैं जैसा नाम हैं वे वैसे ही हैं। और परमहंसजी तो धन्यवाद के पात्र हैं ही। क्योंकि सम्बन्ध संग्रह का सूत्रापात उन्हीं का किया हुआ हैं, जिसमें प्रमाण स्वरूप पूर्वोक्त 'ब्राह्मण सम्बन्ध' नामक पुस्तक ही हैं।

अब विवाह सम्बन्ध दिखलाया जाता हैं। उसमें भी प्रथम मैथिल ब्राह्मणों के ही साथ अयाचक ब्राह्मणों का सम्बन्ध दिखलाकर पीछे कान्यकुब्जों, सर्यूपारियों और गौड़ों के साथ दिखलाया जायेगा। क्योंकि अभी मैथिलों के सम्बन्ध में बहुत सी बातें कह चुके हैं। इस स्थान पर इतना समझ लेना चाहिए कि जिन मैथिलों का अयाचक, पश्चिम या भूमिहार ब्राह्मणों के साथ विवाह सम्बन्ध होता हैं वे सामान्यत: दो प्रकार के प्रसिद्ध हैं, एक तो दोगमियाँ और दूसरे दोगमियों से अन्य। दोगमियाँ नाम उस प्रान्त में उन मैथिलों का हैं, जिनका सम्बन्ध पश्चिम (भूमिहार) ब्राह्मणों से भी हैं और मैथिलों ब्राह्मणों से भी। वे दोनों ब्राह्मण दल में विवाह के लिए जाते हैं, अत: दोगमियाँ कहलाते हैं। उनसे वे अन्य हैं जिनके सम्बन्ध केवल मैथिलों से ही हैं। यद्यपि जिनका सम्बन्ध केवल मैथिलों से ही हैं वे भी परम्परया पश्चिम ब्राह्मणों से दोगमियों के द्वारा विवाह सम्बन्ध में मिल जाते हैं, जैसा कि आगे स्पष्ट हो जायेगा, और कहीं-कहीं ऐसे भी मैथिल हैं जो दोगमियाँ न भी कहलाने पर साक्षात् पश्चिम ब्राह्मणों से सम्बन्ध करते हैं। तथापि दोगमियों का सम्बन्ध पश्चिम ब्राह्मणों के साथ साक्षात् और प्रसिद्ध हैं जिसे सभी जानते हैं, परन्तु अन्यों का या तो अधिकतर साक्षात् सम्बन्ध हैं ही नहीं या हैं भी तो कम होने से उतना प्रसिद्ध नहीं हैं। इसलिए वे दोगमियाँ नहीं कहलाते।

मैथिलों और पश्चिम (भूमिहार) ब्राह्मणों के सम्बन्ध इस प्रकार हैं-

(1) परगना लोआम, जिला दरभंगा, ग्राम दुलारपुर, मूल अड़ैवारनान पुर, गोत्र वत्स, तुरन्तलाल चौधुरी मैथिल का विवाह सरैसा, जिला दरभंगा, ग्राम मऊ शेपुर, गोत्र शांडिल्य अथवा वत्स, मूल जलैवार, खगन चौधुरी और पोखन चौधुरी पश्चिम ब्राह्मण की बहन से हैं। जिससे उत्पन्न पुत्र बच्चा चौधुरी उर्फ कारी चौधुरी का विवाह ग्राम भवानीपुर जमसम, परगना हाटी, जिला दरभंगा में किसी योग्य श्रेणी वाले मैथिल के घर में हैं। इसके अतिरिक्त नीचे के सभी विवाह दरभंगा जिले के ही हैं।
(2) पूर्वोक्त तुरन्त लाल चौधुरी के ही घर नयानगर स्टेशन के पास ग्राम देवधा, मूल सनैवार, गोत्र भारद्वाज, रामबकस राय की लड़की का विवाह हैं, जो पश्चिम ब्राह्मण हैं।
(3) दुलारपुर के मगनी राम चौधुरी मैथिल का विवाह भिरहा ग्राम में, परगना जखलपुर, मूल अनरिये, गोत्र शांडिल्य, पारसमणि राय दोगमियाँ मैथिल की कन्या से हैं, जिन भिरहावाले अनरियों का सम्बन्ध देवधा, नया नगर इत्यादि ग्रामवाले सनैवार मूल के पश्चिम ब्राह्मणों में भरा हैं।
(4) दुलारपुर के ही मनोहर चौधुरी का विवाह ग्राम माखनपुर बसहा, मूल ब्रह्मपुरिये, ब्रह्मपुर गोत्र शांडिल्य, चुरामन चौधुरी की बहन से हैं। ये ब्रह्मपुरिये मैथिल भी सनैवार पश्चिम ब्राह्मणों से मिले हुए हैं।
(5) पूर्वोक्त भिरहा ग्राम के नन्दूराय मैथिल के पुत्र का विवाह ग्राम सकरपुरा, मूल सनैवार पश्चिम ब्राह्मण नथुनीराय की भतीजी से हैं।
(6) उसी भिरहा नन्दूराय के घर परगना भरौरा ग्राम भरौरा, छोटे झा और जगतमणि झा का सम्बन्ध हैं।
(7) भिरहा वाले बेलखण्डी राय मैथिल, मूल अनरिये का भी सम्बन्ध सकरपुरा के पश्चिम ब्राह्मणों से हैं।
(8) जिस बेलखण्डी राय की कन्या का विवाह झंझारपुर स्टेशन के पास कुरसी ग्राम, मूल जलैवार, अवध नारायण चौधुरी के पिता चित्रानारायण चौधुरी मैथिल से हैं।
(9) पूर्वोक्त भिरहा वाले नन्दूराय के ही घर में कुरसी ग्राम वाले प्यारे लाल चौधुरी के पुत्र बच्चा चौधुरी का विवाह हैं।
(10) भिरहा ग्राम के शीतल राय मैथिल के भतीजे लालजी राय के पुत्र बच्चन राय का विवाह ग्राम मालपुर के सनैवार पश्चिम ब्राह्मण नथुनी राय की बहन से हैं।
(11) जिस भिरहा वाले शीतल राय के घर से दरभंगा शहर से पश्चिम पंचोभ गाँव के कीर्तिनारायण चौधुरी के पुत्र द्वारिका नाथ चौधुरी मैथिल का विवाह हैं।
(12)पूर्वोक्त शीतल राय के पुत्र रामकिशुन राय की विवाह बस्ती बढ़ौना ग्राम, परगना सरैसा में बबुई काल चौधुरी मैथिल मूल मर्रैं मगरौनी की पुत्री से हुआ।
(13) उसी बढ़ौना के इशरू चौधुरी नयानगर वाले सनैवार पश्चिम ब्राह्मण विन्धयेश्वरी प्रसाद सिंह के नाना हैं।
(14) उसी बढ़ौना के बद्री चौधुरी का विवाह मौजे भथाही परगना विसारा में फतेह नारायण सिंह कोदरिया पश्चिम ब्राह्मण के सगोत्र (गोतिया) के घर में हुआ हैं और उसके निस्सन्तान होने से बद्री चौधुरी उसके हिस्से के मालिक हैं।
(15) उन्हीं बद्री चौधुरी के पुत्र बबुवे लाल चौधुरी का विवाह मैथिल के ही घर ग्राम पकड़ा, जिला भागलपुर, परगना छई में श्री गूदर सिंह के यहाँ हैं।
(16) बढ़ौना के ही देवी लाल चौधुरी के पुत्र रक्षाराम चौधुरी का विवाह जिला पटना ग्राम (स्टेशन भी) पुनारक में श्री यदुनन्दन सिंह भूमिहार ब्राह्मण सावर्ण्य गोत्र वाले के घर हुआ हैं।
(17) बढ़ौना के ही कुंजी लाल चौधुरी का विवाह जिला मुंगेर ग्राम (स्टेशन) खगरिया के श्री जानकी प्रसाद सिंह पश्चिम ब्राह्मण सावर्ण्य गोत्री की बहन से हैं।
(18) बढ़ौना के ही पदार्थ सिंह चौधुरी का विवाह जिला मुंगेर, गाँव तथा स्टेशन बरही श्री सन्तोष सिंह पश्चिम ब्राह्मण की भतीजी से हैं। बस्ती बढ़ौना वाले मैथिलों का स्टेशन मुहीउद्दीन नगर हैं। बढ़ौना वालों का सम्बन्ध शांडिल्य गोत्री अनरियों में भी हैं जो सनैवार मूल के पश्चिम ब्राह्मणों से मिले हुए हैं।
(19) बद्री चौधुरी के सम्बन्धी सूबाराय मैथिल अनरिये या ब्रह्मपुरिये ग्राम देकुली, परगना जबलपुर।
(20) प्रयागदत्ता चौधुरी की बहन के लड़के श्री लक्ष्मीनारायण राय मैथिल, अनरिये, गाँव पतैली।
(21) तिल्लू चौधुरी के सम्बन्धी हरिहर राय अनरिये ग्राम जगन्नाथपुर।
(22) तिल्लू चौधुरी के सम्बन्धी रामगोविन्द झा ग्राम फुलेरा, मूल जलैवार, गोत्र वत्स अथवा काश्यप।
(23) बस्ती गाँव, स्टेशन मुहीउद्दीन नगर, जगदीश राय मैथिल मूल जलैवार का विवाह भथाही ग्राम में अवधासिंह कोदरिया की लड़की से।
(24) बढ़ौना के गंगू चौधुरी की पुत्री का विवाह रामसुन्दर झा से, ग्राम बेला, मुजौना के पास, परगना सरैसा।
(25) पूर्वोक्त पनचोभ गाँव से उत्तर सिमरी गाँव में रहने वाले मैथिल मेवालाल चौधुरी के भतीजे का विवाह भिरहा में दिगम्बर राय के यहाँ हैं। यह मेवालाल दरभंगा के महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह के मुँहलग्गू और मधुबनी के प्रसिद्ध बाबू दुर्गादत्ता के तहसीलदार थे।
(26) दरभंगा से दो कोस पश्चिम ग्राम कलि गाँव के मैथिल ज्ञानीलाल चौधुरी का विवाह भिरहा वाले भाईलाल की लड़की से।
(27) उसी कलिगाँव के कुँवर चौधुरी भिरहा वाले धर्मलाल राय के भगिना (बहन के लड़के) हैं अथवा थे।
(28) पूर्वोक्त जगन्नाथपुर के हरिहर राय अनरिये मैथिल का ब्याह सनैवार ही ब्राह्मण नया नगर निवासी भुजंगा सिंह की लड़की से और देवधा में सनैवार ही ब्राह्मण लक्ष्मण राय की लड़की से।
(29) बैरमपुर के अनरिये मैथिल बच्चू राय की शादी नया नगर वाले भुजंगासिंह के घर हैं। इस तरह 12 गाँव वाले अनरिये मैथिलों का सम्बन्ध 12 गाँव वाले सनैवार पश्चिम ब्राह्मणों से एक में एक मिला हुआ हैं। जिन भिरहा प्रभृति गाँववाले अनरियों का सम्बन्ध कुरसों दसौत इत्यादि ग्रामों में तथा योग्य श्रेणी के मैथिलों में भी हैं।
इसी प्रकार केवटा, आसिनचक प्रभृति गाँवों के ब्रह्मपुरिये मैथिल शांडिल्य गोत्री भी सनैवार इत्यादि मूल के ब्राह्मणों में मिले हुए हैं, जैसे
(30) केवटा के गजराज चौधुरी की तीन लड़कियों के विवाह नया नगर में सनैवार ब्राह्मण नरसिंह दत्ता सिंह, रघुवर शरण सिंह और जालिम सिंह से हुए।
(31) केवटा के वर्तमान सेठ रामाश्रय चौधुरी के बाबा रघुवर दयाल सिंह की बहन से नयानगर जीवलाल सिंह का विवाह था।
(32) आसिनचक के रामदयाल चौधुरी की बहन का विवाह नया नगर वाले महोदय सिंह से।
(33) रामपुर कचहरी के सनैवार ब्राह्मण दिगम्बर राय के पिता लेखा राय की लड़की से देकुली के अनरिये या (ब्रह्मपुरिये) हरख राय के पुत्र सूबाराय का विवाह हुआ।
(34) केवटा के सेठ की लड़की से भिरहा वाले दिगम्बर राय का ब्याह हुआ।
(35) वर्तमान सेठ श्री रामाश्रय सिंह चौधुरी के चचेरे भाई का विवाह पूर्वोक्त बढ़ौना वाले प्रयाग दत्ता चौधुरी की लड़की से हैं।
(36) और बढ़ौना के ही उदय सिंह चौधुरी के घर में नया नगरवाले अमृत प्रसाद और बलदेव सिंह के विवाह हैं।
(37) विभूत पुर नरहन के द्रोणवार ब्राह्मण श्री द्वारिका प्रसाद सिंह के भाई हरिकृष्ण सिंह का विवाह ग्राम बदलपुरा, बेगूसराय स्टेशन के पास, जिला मुंगेर में श्री वेदनारायण सिंह के भाई चमन सिंह की पोती से हुआ हैं, और वेदनारायण सिंह की पुत्री का विवाह केवटा के सेठ छत्राधारी चौधुरी के पुत्र वर्तमान सेठ श्री रामाश्रय सिंह चौधुरी से हुआ हैं। इन छत्राधारी चौधुरी के पिता रघुवर दयाल चौधुरी दरभंगा के पास के विलौठी ग्राम के रामाधीन राय मैथिल के मामा थे। जिस रामाधीन राय की पुत्री का विवाह बछौल परगना, दरभंगा, ग्राम भरतपट्टी, टोले वरदेपुर में बच्चा ठाकुर मैथिल के पुत्र से हुआ।
(38) सेठ छत्राधारी चौधुरी की पुत्री का विवाह दरभंगा से 4 कोस पूर्व वैगनी नेवादा ग्राम में सुवंशलाल झा के घर में हुआ।
(39) दरभंगा-खिरहर के श्री भातू प्रसाद चौधुरी दिघवैत पश्चिम ब्राह्मण के मामा दुलारपुर के भाई जी चौधुरी और खुशी चौधुरी हैं। क्योंकि भातू प्रसाद के मामा देवघा के मधूसिंह भाई जी चौधुरी के मामा हैं। भातू चौधुरी के पिता रामशिष्ठ चौधुरी और खुशी चौधुरी के पिता हंसराज चौधुरी थे।
(40) कुशेश्वरस्थान के पास केवटगाँव के श्री काली प्रसाद सिंह द्रोणवार भूमिहार ब्राह्मण और दरभंगा से पूर्व पोखराँव ग्राम के मैथिल कौशिकी दत्ता चौधुरी, इन दोनों के विवाह विभूतपुर के पास बेगूसराय सब डिवीजन के मेंघौल गाँव में वंशीराय मैथिल की पुत्रियों से हुए, जिस वंशी राय का लड़का जगद्वीप वर्तमान हैं।
(41) विसुनपुर, बेगूसराय के पास जिला मुंगेर, के श्री रामचौधुरी मैथिल, मूल मर्रै मगरौनी की पुत्री का विवाह नयानगर वाले श्री पारसमणि सिंह के पोते से हुआ हैं।
(42) गाँव केशावे, मूल दधिअरे, काश्यप गोत्री मैथिल बाला राय की लड़की का विवाह श्री पारसमणि सिंह के भाई से हुआ।
(43) गाँव नाव कोठी, मूल सुरोरे कांटी, गोत्र गौतम मैथिल चौधुरी अयोध्या प्रसाद का विवाह नयानगर के श्री शिवनन्दन सिंह की फुफेरी बहन से हैं। जो मुहम्मदपुर गाँव की रहने वाली हैं और जिसका मूल सिहोरिया और गोत्र शांडिल्य हैं।
(44) गाँव जोगियारा मूल सिहोरिया अथवा सिहुलिया (सोहगौरिया) श्री खूब लाल सिंह के पुत्र ईश्वर दयाल सिंह का विवाह जिला मुंगेर गाँव बीरपुर, छोटी गंडक के तट में, मैथिल मूल सुरगणै, गौत्रा पराशर श्री अनूप सिंह के भाई डोमन सिंह की पोती से और दोनों की फुआ से श्री शिवनन्दन सिंह नया नगर वाले के दादा चौधुरी रामदयाल सिंह का विवाह था। जिस शिवनन्दन सिंह के यहाँ गंगापुर के श्री रामबहादुर सिंह द्रोणवार ब्राह्मण का विवाह हैं।
(45) देवधा वाले सनैवार ब्राह्मण रामेश्वर प्रसाद सिंह का विवाह केवटा में रामदीन चौधुरी मैथिल ब्रह्मपुरिये के घर में हैं।
(46) पूर्वोक्त भिरहा वाले धर्मलाल राय की पुत्री का विवाह ग्राम ठाहर, परगना जखलपुर, मूल पनचोभे भानपुर, गोत्र सावर्ण्य, मैथिल भगवान् दत्ता चौधुरी से।
(47) उसी ठाहर ग्राम में मैथिल जीवन चौधुरी के यहाँ नया नगर के चोधारी झरूला सिंह की बहन का विवाह और खेदन चौधुरी के घर, चौधुरी ऊदन सिंह की बहन का विवाह हैं।
(48) ठाहर के सगोत्र (गोतिया) बल्लीपुर में, सकरी स्टेशन के पास दहौरा ग्राम के वनमाली सरस्वती प्रभृति (सरस्वती बाबू) योग्य श्रेणी के मैथिल के घर के किसी लड़के का विवाह हुआ हैं, अर्थात् वर्तमान महीन्द्र नारायण सरस्वती का बल्लीपुर में मातृक (ननिहाल) हैं। जिस सरस्वती बाबू का सम्बन्ध श्रेत्रिय महाराजा दरभंगा से भी हैं।
(49) जिस कुरसों का सम्बन्ध प्रथम पश्चिम ब्राह्मणों से दिखला चुके हैं, उसी कुरसों के अवधा नारायण चौधुरी की पुत्री से बनमाली सरस्वती दहौरा वाले का विवाह था, जिसके पुत्र लक्ष्मी नारायण सरस्वती हैं।
(50) बल्लीपुर के ही वंशी चौधुरी का विवाह परगना सरैसा, ग्राम वमैया, मूल अरिनये, भोली चौधुरी की कन्या से हुआ।
(51) ग्राम लामा उजान, मूल जलैवार गरौल, गोत्र काश्यप, वंशी लाल चोधारी मैथिल का विवाह देवधा ग्राम में सनैवार मूल के ब्राह्मण बालमुकुन्द राय की कन्या से हुआ।
(52) नयानगर वालों के आदि पुरुष श्री पीताम्बर सिंह से भिरहा वाले मैथिल रंगलाल राय के बाप की फुआ का विवाह था।
(53) पूर्वोक्त केशावे ग्राम के दधिअरे मूल वाले सभी मैथिलों की लड़कियों के विवाह नया नगर गाँव में हैं।
(54) ग्राम पटोरी, परगना सरैसा के सहदौलिया पश्चिम ब्राह्मण मणि मिश्र के पुत्र का विवाह पूर्वोक्त बस्ती ग्राम के गोपाल राय मैथिल की बहन से हैं।
(55) बछवारा स्टेशन के पास नाड़ीपुर के मैथिल मोहन राय की पुत्री से पटोरी के गणपति मिश्र के पुत्र का विवाह हैं।
(56) परगना पिड़ारुच, गाँव पिड़ारुच, गोत्र गौतम, मूल खौवाड़े नानपुर, मित्रालाल चौधुरी के पिता का विवाह जिला मुंगेर, परगना नयीपरु, गाँव मराँची मूल जलैवार जाले, गोत्र वत्स खेदू ईश्वर मैथिल की बहन से हुआ।
(57) उसी खेदू ईश्वर की बहन का विवाह भिरहा वाले वेलखण्डी राय से।
(58) लोहार-भवानीपुर के योग्य श्रेणी के मैथिल बच्चू चौधुरी के पितामह का विवाह भूमिहार ब्राह्मणों के यहाँ मगध देश में था।
(59) समौल ग्राम के फतुरीठाकुर के घर महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह का दूसरा विवाह हुआ और उसी घर में बनैली का सम्बन्ध हैं। बनैली का सम्बन्ध तो पश्चिम ब्राह्मणों के यहाँ दिखाया जा चुका हैं।
इस प्रकार से दलसिंगसराय स्टेशन से 15-20 कोस उत्तर, दक्षिण और 20- 22 कोस पूर्व, पश्चिम प्राय: सरैसा परगना और उसके आस-पास हजारों मैथिल और पश्चिम ब्राह्मणों के सम्बन्ध होते चले आये हैं, कहाँ तक गिनाया जा सकता हैं।
(60) जिस दुलारपुर का सम्बन्ध पश्चिम ब्राह्मणों से सिद्ध कर चुके हैं, उसी दुलारपुर का सम्बन्ध भौड़खौवाड़े मूल में उस ग्राम में हुआ हैं, जिसमें महामहोपाध्याय श्रीकृष्णसिंह ठाकुर महाराज दरभंगा के सगोत्र रहते हैं। (
61) वर्तमान दरभंगा नरेश महाराजा सर रामेश्वरसिंह जी का विवाह मंगरौनी पारसमणि झा की पुत्री से हुआ हैं जो कटिरबूझा की पितिऔत (चचेरी) बहन हैं। कटिरबू झा का विवाह कारज के बुच्ची चौधुरी की फुआ से हैं। बुच्ची चौधुरी की चचेरी बहनों का ब्याह सोनबरसा, भागलपुर के गोरेलाल कुँवर और गौरीपुर के लालजी ठाकुर (चौ.) से हैं। कारज ग्राम का सम्बन्ध पूर्वोक्त मुंगेर के मरांची ग्राम में लक्खी बाबू के घर और पनचोभ ग्राम का सम्बन्ध मरांची हैं, और मरांची का तथा पनचोभ का भी सम्बन्ध पश्चिम ब्राह्मणों से प्रथम ही दिखला चुके हैं।
(62) मूल वेलौंचे सुदई, ग्राम समौल के दौहित्रा कुल में स्वर्गीय श्रीमान् महाराज बहादुर दरभंगा नरेश श्रेत्रिय लक्ष्मीश्वर सिंह का विवाह था। जो छोटी महारानी साहिबा अभी वर्तमान हैं, और समौल का सम्बन्ध दुलारपुर और हाबी भौआड़ में हैं। जिस दुलारपुर का सम्बन्ध प्रथम ही पश्चिम ब्राह्मणों से दिखला चुके हैं
और हाबी भौआड़ का भी सम्बन्ध दिखलायेंगे। इस प्रकार जब मैथिल शिरोमणि श्रेत्रिय महाराज दरभंगा भी भूमिहार (पश्चिम) ब्राह्मणों से विवाह में मिले हुए हैं, और योग्य श्रेणी के भी मैथिलों का सम्बन्ध दिखला चुके हैं, तो अन्य मैथिलों का क्या कहना हैं?
(63) जिस कारज ग्राम का सम्बन्ध पश्चिम ब्राह्मणों से सिद्ध हो चुका हैं उसी का सम्बन्ध परगना सरैसा, सलेमपुर गाँव में हैं और सलेमपुर का सम्बन्ध मैथिल राजा बनैली से हैं।
(64) खिरहर, दरभंगा के दिघवैत ब्राह्मण श्री रामजुल्म चौधुरी और दुलारपुर के तुरन्त लाल चौधुरी दोनों मौसेरे भाई हैं। इनकी माताएँ परस्पर बैमात्र बहनें हैं और दोनों का ननिहाल समस्तीपुर के निकट झहुरी ग्राम में हैं।
(65) नेहरा के श्री गोपी चौधुरी का सम्बन्ध पूर्वोक्त बरारी (भागलपुर) के मैथिल बाबू के यहाँ हैं और श्री गोपी चौधुरी का सम्बन्ध पूर्वोक्त मरांची ग्राम (मुंगेर) में नन्हा ईश्वर और नूनू ईश्वर मैथिल के घर भी हैं। जिस मरांची का सम्बन्ध प्रथम ही पश्चिम ब्राह्मणों से दिखला दिया गया हैं। इस प्रकार से बनैली के मैथिल महाराजा श्रीकरीत्यानन्द सिंह और बरारी के मैथिल बाबुआन और उनके सम्बन्ध में जितने बाबुआन हैं। सभी पश्चिम ब्राह्मणों से मिले हुए हैं और राजा बनैली का सम्बन्ध महामहोपाध्याय श्रीकृष्ण ठाकुर से हैं, इसलिए उनका भी सम्बन्ध सिद्ध हो गया। इस प्रकार से यदि परम्परा सम्बन्ध का मिलान किया जाये तो मिथिला के किसी भी मैथिल ब्राह्मण का सम्बन्ध इन अयाचक (पश्चिम) ब्राह्मणों से बच नहीं सकता। इसीलिए परमहंसजी ने लिखा हैं कि ''धाखजरी, कुरसों, वल्लीपुर, दसौत, दुलारपुर, नवादा और नेहरा प्रभृति के कुटुम्ब (सम्बन्धी), कुटुम्ब के कुटुम्ब और उनके कुटुम्ब में सभी सोति (श्रेत्रिय), योग्य और पंजीबद्ध (मैथिल) हैं।'' क्योंकि मिथिला में विख्यात ये सभी ही हैं। अब नाम बनाम सम्बन्ध न दिखलाकर केवल उन ग्रामों के कुछ नाम ही लिखते हैं, जिनमें प्राय: पश्चिम ब्राह्मण दोगमियाँ मैथिल और अन्य मैथिल रहा करते हैं और जिनका परस्पर विवाह सम्बन्ध हैं।

(1) नीचे लिखे हुए नाम प्राय: उन ग्रामों के हैं, जिनमें पश्चिम ब्राह्मण रहते हैं और उनका सम्बन्ध दोगमियाँ मैथिलों अथवा अन्य मैथिलों से हैं। वे ये हैं-जिला मुंगेर, परगना नयीपुर में दहिया, रसलपुर, दामोदरपुर, आगान, आलापुर, चिल्हाई, पाली, बनहरा, अम्बा, रामपुर, सजात, नरहरपुर, ताजपुर, चड़िया, हरपुर नयाटोला, फतहा, रसीदपुर, आगापुर, लाड़ेपुर, बछवारा, तेमुहा, सर्यूपुरा, प्रभृति एवं परगना भुसाड़ी में मेघौल, हरखपुरा आदि ग्रामों में सुरगणै मूल पराशर गोत्र वाले ब्राह्मण रहते हैं। दरभंगा जिले के सरैसा परगने के भथाही, सुस्ता, चाँदीचौर प्रभृति 12 ग्रामों में कोदरिये मूल के ब्राह्मण रहते हैं। जलालपुर, रामपुर, सुरौली, मऊ, शेरपुर प्रभृति ग्रामों में जलैवार मूल वाले रहते हैं। देवधा, पटसा, नयानगर, रामपुर, दुधौना, कचहरी रामपुर, सकरपुर, खडहैंया, मधोपुर, सिहमा आदि ग्राम सरैसा परगने में सनैवार ब्राह्मणों के हैं। मुंगेर में बदलपुरा, मालती, बहादुर नगर प्रभृति ग्राम मर्रैं मगरौनी मूल के ब्राह्मणों के हैं। इनके अतिरिक्त विभूतपुर, महथी आदि ग्रामों को भी जानना चाहिए। इन पूर्वोक्त ग्रामों में या तो पश्चिम ब्राह्मण रहते हैं, अथवा वे मैथिल भी रहते हैं जिनके बहुत दिनों से पश्चिम ब्राह्मणों से अधिक सम्बन्ध होते-होते वे भी पश्चिम ब्राह्मण हो गये हैं।
(2) अब नीचे उन ग्रामों के नाम हैं जिनमें प्राय: दोगमियाँ मैथिल रहा करते हैं-भिरहा, बन्दा, जगन्नाथपुर, दसौत, जोड़पुरा, बमैया, बेलसण्डी, सिहमा, पतैली, ढरहा, रुपौली प्रभृति ग्रामों में जिला दरभंगा, सरैसा परगने में अनरिये मूल के शाण्डिल्य गोत्री मैथिल रहते हैं। लछिमिनियाँ, पवरा और कांकड़ आदि ग्रामों में टकवारे मूल वाले वत्स गोत्री मैथिल रहते हैं। अख्तियारपुर, मथुरापुर, ऐस झखड़ा, गुर्महा, तिसवारा, महेशपुर, बाजीतपुर, खजुटिया, बस्ती, बढ़ौना, तोयपुर, ब्यासपुर, सूर्यपुर, गाऊपुर, कुम्हिरा मोरवा, नौवाचक, भोजपुर प्रभृति ग्रामों में जलैवार मूल के वत्स गोत्री मैथिल सरैसा परगने में रहते हैं। उदयपुर आदि ग्रामों में परिसरै मूलवाले शाण्डिल्य गोत्री रहते हैं। पोखराम और मोतीपुर प्रभृति ग्रामों में गर्ग गोत्री वसे हैं, मूलवाले बसते हैं। केवटा और आसिनचक प्रभृति ग्रामों में ब्रह्मपुरिये ब्रह्मपुर मूल के गौतम गोत्री रहते हैं। नारी ग्राम करमहेउड़रा मूल वाले रहते हैं।
(3) इन दोगमियों और पूर्वोक्त पश्चिम ब्राह्मणों का भी सम्बन्ध जिन-जिन ग्रामों में होता हैं उन मैथिल ग्रामों को अब दिखलाते हैं। जैसे, गरौल, दसौत, कुरसों, शेरपुर, कथवार, विष्णुपुर और मकरम पुर आदि में जलैवार गरौल मूल के मैथिल रहते हैं। हाबी भौआड़, वाथो, धाड़ोड़ा, बिठौली, मोहली, सिमरामा, उफरदहाँ, पौड़ी, बैहड़ा आदि ग्रामों में बेलौचे बेहड़ा मूल वाले रहते हैं। बल्लीपुर, गाहड़, बनहार, वड़गामा, ठाहर, हसनपुर, बैजनाथपुर, गैघट्टा, टेंगरहा, गूदरघाट और प्रमाना प्रभृति ग्रामों में पनचोभे भानपुर मूल वाले रहते हैं। सहाम, पटनियाँ, डुमरी, जमुवाँ, मोहद्दीपुर आदि गाँवों में टकवारै नीमा मूल के रहते हैं। पड़री, बोरंज, दहियार, बलिगामै डरहार और गोविन्दपुर प्रभृति ग्रामवासी मैथिल खौवाड़ सिमड़वार मूल के हैं। गंगा पट्टी सेनुवार आदि ग्रामों में ऊनैवार मूल के हैं। कुशोथर आदि में भुसवड़ै मूल वाले तथा लवानी आदि ग्रामों में कोइयारै जड़ैल मूल वाले रहते हैं। इसी प्रकार थलवार, मँझौलिया कारज, मिश्रौलिया, पिड़ारुच, पनचोभ और देवराम प्रभृति भी उन्हीं मैथिलों के ग्राम हैं जिनका साक्षात् अथवा परम्परया अयाचक दल ब्राह्मणों से सम्बन्ध हैं।

मैथिल ब्राह्मणों के प्रसिद्ध चार विभाग हैं, जिनमें सबसे श्रेष्ठ श्रेत्रिय, उनके बाद योग्य, पंजीबद्ध और चौथे जैवार हैं। इन चारों का सम्बन्ध पश्चिम ब्राह्मणों से दिखलाया जा चुका हैं। सम्भव हैं कि कहीं-कहीं मूल, गोत्र या ग्राम दिखलाने में अन्तर पड़ गया हो, परन्तु बात तो ठीक ही निकलेगी। जैसे काशी के प्रान्त में स्थान या डीह कहलाता हैं, यथा-पिण्डी के तिवारियों का पिण्डी स्थान हैं। वैसे ही उसी स्थान को पश्चिम में निकास और मिथिला में मूल कहते हैं और जिन ग्रामों में उनके पूर्व पुरुष रहते थे तथा जिनको किसी प्रकार से उपार्जन किया था, उन दोनों को मिलाकर प्राय: मूल की जगह वहाँ व्यापार होता हैं। जैसे पनचोभे भानपुर इत्यादि। एक बात और भी मैथिलों के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य यह हैं कि उनके बहुत से मूल और गोत्र वे ही हैं, जो पश्चिम ब्राह्मणों के; जैसे दिघवै या दिघवैत मूल, गोत्र शाण्डिल्य दोनों का एक ही हैं। इसी प्रकार, कोथवे या कोथवैत मूल, गोत्र विष्णुवृद्ध। सुरगणै मूल, गोत्र पराशर, कोदरिये मूल, शाण्डिल्य गोत्र बसहैं या वसमैत मूल, गोत्र गर्ग। जनकपुर पिपरा के सुबा गोपालमिश्र बसमैत ही ब्राह्मण थे। जलैवार मूल, गोत्र वत्स या काश्यप। पनचोभे मूल, गोत्र सावर्ण्य एवं दधिअरै, चकवार और सनैवार प्रभृति को भी जानना चाहिए। यह भी इस बात में दृढ़ प्रमाण हैं कि मैथिलों और पश्चिम ब्राह्मणों का सम्बन्ध घनिष्ठ था और हैं।

सनैवार ब्राह्मणों के पूर्व पुरुष दो भाई थे, गोपालराय और केसरीराय। जिसमें से केसरीराय की सन्तान पटसा प्रभृति ग्रामों में हैं और गोपालराय की नयानगर प्रभृति में। 2-3 वर्षों से ही पटसावाले राघवराय आदि पश्चिम ब्राह्मणों से पृथक् हो मैथिलों में मिले हैं। यद्यपि अभी तक नयानगर वालों से उनका खान-पान पूर्ववत् हैं। सरैसा परगने के लोमा ग्राम में प्रथम कोदरिये ब्राह्मणों के आदि पुरुष रहते थे। वहीं से कुछ लोग भथाही और सुस्ता प्रभृति ग्रामों में जा बसे, जो भूमिहार ब्राह्मण या पश्चिम ब्राह्मण कहलाते हैं। क्योंकि भूमिहार ब्राह्मण महासभा के सेक्रेटरी श्री रघुनन्दन सिंहजी सुस्ता ग्राम के ही कोदरिया ब्राह्मण हैं। उसी लोमा ग्राम से कुछ लोग धाखजरी ग्राम में जा बसे और पंजीबद्ध होकर मैथिलों में मिल गये। जो मुकुन्द मिश्र प्रभृति अब अपने को कोदरिये लोआम अथवा धाखजरी लोआम कहते हैं। ये सब बातें क्या दोनों दल की एकता को सिद्ध नहीं करती हैं?

परमहंसजी की पुस्तक 'ब्राह्मण सम्बन्ध' देखने से विदित होता हैं कि बहुत से मैथिल पश्चिम (भूमिहार) ब्राह्मणों से ही हुए हैं। दृष्टान्त के लिए पूर्वोक्त भारद्वाज गोत्री दुमटिकारों को लीजिए। आगे चलकर कान्यकुब्ज और सर्यूपारियों के सम्बन्ध दिखलाने के समय दिखलायेंगे कि वास्तव में सर्यूपारी ब्राह्मण ही दुमटिकार के तिवारी या पाण्डे आदि कहलाते हैं। इसलिए ठीक नाम दुमटिकार या दुमटिकारिये होना चाहिए परन्तु भूल से लोग डोमकटार, डम्म या दम्मकटरिये इत्यादि कहने लग गये हैं। पिलखवाड़ ग्राम वासी पंजीकार जयनाथ शर्मा मैथिल ने जो मैथिल ब्राह्मण वंशावली बनाई और सुगौना के बालकृष्ण शर्मा ने छपाई हैं, उससे भी भारद्वाज गोत्र के वर्णन में दम्मकरिये मूल आया हैं। चाहे इस समय मैथिलों ने उनका नाम बदल डाला हो, या वे लोग फिर पश्चिम ब्राह्मणों में ही मिल गये हों, परन्तु एक समय पश्चिम से ही मैथिल हुए थे। अब भी दरभंगा स्टेशन के पास मिर्जापुर में डोमकटरिये मैथिल रहते हैं। इस बात को भी परमहंसजी ने सिद्ध किया हैं कि पश्चिम से मैथिल, फिर मैथिल से पश्चिम और पुन: मैथिल हो जाने वाले भी ब्राह्मण बहुत से हैं। दृष्टान्त के लिए, सुरौरे मूल वाले पश्चिम से मैथिल बने और फिर पश्चिम बने। जैसे सबौड़ा से एघु, एघु से नावकोठी, मोहनपुर चाँदपुरा, बन्दोवार और खम्हार। सबौड़ा से ही रामदीरी, गौड़ा, बिजलपुरा, सोंगडाहा और अम्बा आदि हैं। गौड़ा से नौला, और नौला से पुन: मैथिल हुए, जैसे उजियारपुर।

परमहंसजी ने भूमिहार (पश्चिम) ब्राह्मणों के इस कथन के खण्डन में कि मैथिलों से विवाह नहीं होना चाहिए, यह दिखलाया हैं कि द्रोणवार ब्राह्मणों के वंश की जड़ तो मैथिलों से ही हैं। फिर निषेध किसका होना चाहिए? क्योंकि कान्यकुब्ज, देवकली के पाण्डे साधोराम के पुत्र राजा अभिमान के पुत्र राय गंगाराम ही द्रोणवार ब्राह्मणों के आदिपुरुष हैं। जिनसे गंगापुर और नरहन आदि सभी हुए हैं। उन राय गंगाराम का एक विवाह चकवारों के मूल ग्राम चाक के निवासी राजा सिंह चकवार मैथिल की पुत्री भाग रानी से और दूसरा तिसवारा ग्राम वासी पं. गोपी ठाकुर मैथिल ब्राह्मण ही की पुत्री मुक्ता रानी से हुआ था। जिनमें से एक के छह और दूसरी के तीन पुत्र हुए। इन्हीं नौवें से सम्पूर्ण द्रोणवार वंश हैं। इसलिए सच पूछा जाये तो मैथिल और भूमिहार ब्राह्मणों में बिलकुल ही भेद नहीं हैं। इसलिए पूर्वोक्त डां. विलसन और बंगदेशी ब्राह्मण लाहिरी महाशय ने अपने बंगभाषा के 'पृथिवीर इतिहास' में भूमिहार ब्राह्मणों को मैथिल ब्राह्मण लिखा हैं और इसीलिए मैथिल भाषा के बाभन शब्द का व्यवहार भूमिहार ब्राह्मणों में होता हैं, जिसका नाम लाहिरी महाशय ने भी लिया हैं। जैसा कि आगे स्फुट होगा।

अब सर्यूपारियों और कान्यकुब्जों के साथ भी जमींदार या भूमिहार ब्राह्मणों का विवाह सम्बन्ध दिखलाते हुए प्रथम सर्यूपारियों के साथ ही दिखलायेंगे। क्योंकि सर्यूपारी कहलाने वालों की ही संख्या काशी के आसपास बहुत हैं। इतना ही समझ लेना और उसी से अन्दाज कर लेना चाहिए कि मैथिलों के शिरोमणि महाराजा दरभंगा और महामहोपाध्याय श्रीकृष्ण सिंह ठाकुर का सम्बन्ध स्पष्ट दिखलाया गया हैं, यों तो मिलाने से सभी के साथ पहुँच सकता हैं। उसी प्रकार इस तरफ मिलान करने से ईधर भी कोई नहीं बच सकते।

जिला प्रयाग, परगना अरैल, गाँव पनासा आदि के भारद्वाज गोत्री भूमिहार ब्राह्मणों का उसी जिले में सम्बन्ध नीचे लिखा हैं। भूमिहार ब्राह्मण हीरापुरी पाण्डे कहलाते हैं, जिनका सम्बन्ध काशी के गौतम आदि भूमिहार ब्राह्मणों से हैं। वे लड़के वाले और सर्यूपारी ब्राह्मण प्राय: लड़कियों वाले हैं। परन्तु कहीं-कहीं विपरीत भी हैं, जो कह देंगे।

लड़के वाले भू. ब्रा. के नाम लड़की वाले सर्यूपारी पते सहित
(1) रामकुमार सिंह
(2) माताबदल सिंह
(3) ठाकुर प्रसाद सिंह
(4) राम किशोर सिंह
(5) शिवबालक सिंह
(6) अलोपी सिंह
(7) शीतल सिंह
(8) जगन्नाथ सिंह
(9) ठाकुर प्रसाद सिंह
(10) बाबूसिंह मेधई
(11) माताबदल सिंह
(12) माताबदल सिंह
(13) राधामोहन सिंह
(14) रामकृपाल सिंह''
(15) रामकृपाल सिंह
(16) काशी प्र. सिंह
(17) विन्धयेश्वरी प्र.
(18) वैरीसाल सिंह
(19) भोदू सिंह
(20) दानसिंह, मचैयाँ पाण्डे, भारद्वाज गोत्री
पं. महावीर पाण्डे, ग्राम पँवर, गौतम गोत्र परगना अरैल
पं. शीतलाबख्श पाण्डे '' '' ''
पं. बवोलराम पाण्डे, ग्राम पँवर, गोत्र गौतम, परगना अरैल
पं. सूर्यदीन '' '' '' ''
पं. रामप्रसन्न तिवारी, ग्राम विरौल, गोत्र वसिष्ठ, परगना अरैल
पं. दुर्गाप्रसाद तिवारी, ग्राम चाका ''
'' '' '' '' ''
पं. विन्दा प्रसाद तिवारी, चाका, अरैल।
'' '' '' '' '' ''
पं. मदन मोहन '' '' '' ''
पं. रामरतन '' '' '' ''
पं. शिवनन्दन राम '' शिन्धुवार
पं. '' '' '' ''
 '' दातादीन पाण्डे, ग्राम पँधार, गौतम
'' सम्पतराम तिवारी, सिन्धुवार, वसिष्ठ
'' महावीर प्रसाद '' ''
'' '' '' '' ''
पं. माताप्रसन्न पाण्डे वामपुरी, चौकी, पराशर,खैरागढ़।
'' '' '' '' ''
पं. माताप्रसन्न पाण्डे वामपुरी, चौकी, पराशर,खैरागढ़।

अब रामगढ़ देवरी, वसही, लकहा खाईं के भारद्वाज गोत्री, भूमिहार ब्राह्मणों के नाम हैं।

(21) शिवजगत सिंह, रामगढ़
(22) शत्रुहन सिंह ''
(23) इन्द्रजीत सिंह
(24) गयाप्रसाद सिंह, देवरी
(25) भरत सिंह 
(26) चन्द्रभान सिंह, वसही
(27) गयाप्रसाद सिंह, देवरी
(28) गंगोत्री सिंह, लकठहा
(29) रामकृपाल सिंह
(30) छत्राधारी, खाईं
(31) ब्रजमण्डल ''
पं. दातादीन पाण्डे, ग्राम पँवर, गौतम गोत्र, परगना अरैल।
'' विन्दाप्रसाद तिवारी, चाका, वसिष्ठ,
'' मदन मोहन तिवारी '' ''
'' बोधीराम पाण्डे, पँवर, गौतम, अरैल
'' शिवनन्दन तिवारी, सिंधुवार, वसिष्ठ
'' बोधीराम पाण्डे, पँवर, विरौल, अरैल
'' रामनारायण तिवारी, विरौल, वसिष्ठ
'' मदनमोहन तिवारी, चाका, अरैल
'' सम्पतराम '' '' ''
'' हरिचन्द पाण्डे पँवर, गौतम ''
'' शिवनन्दनराम तिवारी, सिन्धुवार, '' वसिष्ठ

अब खैरागढ़ परगना के वसिष्ठ गोत्री भूमिहार ब्राह्मणों के नाम देते हैं, उनकी उपाधि मिश्र हैं।

(32) महावीर सिंह, बिहगना
(33) चौ. ठाकुरप्रसाद सिंह
(34) रघुनाथ सिंह, रामनगर
पं. शीतलबख्श पाण्डे, पँवर, गौतम, अरैल
'' बिन्दुराम तिवारी, सिन्धाुवार, वसिष्ठ
'' दुर्गा प्रसाद '' चाका ''
लड़के वाले सूर्यपारियों के नाम पते सहित लड़की वाले भू. ब्राह्मणों के नाम पते सहित।
(35) पं. गंगाराम तिवारी उनवलिया के, ग्राम बसही कोटहा, परगना अरैल, गोत्र वसिष्ठ
(36) रामसुन्दर तिवारी
(37) समयलाल तिवारी
(38) रामफल पाण्डे, मलैयाँ, गाँव मलाका, तहसील सुराम, इलाहाबाद, गोत्र सांकृत, अब महरू डीह में रहते हैं।
श्री पितापालसिंह, ग्राम पुरैनी, परगना अरैल, भारद्वाज गोत्री पाण्डे।
श्री शिवसरन सिंह '' '' ''
श्री जयगोपाल सिंह, ग्राम पुरैनी, परगना अरैल
जसवन्त सिंह, गौतम, गं जारी, गंगापुर, कुसवार परगना, बनारस।
श्री जसवन्त सिंह की लड़की का विवाह रामफल पाण्डे, मलैयाँ से हुआ था। वह अभी तक जीती हैं। यद्यपि जसवन्त नावल्द हो गये और उनके दामाद गंगापुर में हैं।
(39)शिष्ट नारायण सिंह; ग्राम गठौली, परगना, अरैल, गोत्र गौतम मिश्र
(40) शिव प्रसाद सिंह कठौली, परगना खैरागढ़, इलाहाबाद,
गोत्र भारद्वाज, पाण्डे।
(41) ननकूसिंह कठौली
(42) लौलीन सिंह ''
(43) शिव सम्पत सिंह
(44) शिवरतन सिंह
(45) शिव दर्शन सिंह
(46) हनुमान सिंह
(47) शिवटहल सिंह
(48) झग्गा सिंह
(49) राजनारायण सिंह
(50) भोलीसिंह
(51) कोलई सिंह
(52) हनुमान सिंह
(53) कालिका सिंह
(54) गणेश सिंह
(55) आत्मनारायणसिंह
(56) शिवशंकर सिंह, कठौली
खैरागढ़,   प्रयाग।
(57) सूर्यनारायण सिंह
(58) कामता सिंह
(59) भवानीचरण सिंह
(60) रामकृपाल सिंह
रामसेवक तिवारी उनवलिया के, ग्राम वसही कोटहा, परगना अरैल, गोत्र वसिष्ठ
पं. माताभीख तिवारी, मरौ, परगना केवाई, कठौली, परगना इलाहाबाद
पं. शिवलाल तिवारी, हरिपुर '' ''
पं. अयोध्या दूबे, खेमापट्टी, परगना मही, इलाहाबाद
पं. रामावतार दूबे '' '' ''
पं. शिवदीन पाण्डे, मिसिरी गड़ौरा, परगना केवाई, प्रयाग।
पं. रामदीन पाण्डे '' '' ''
पं. गंगाराम दूबे, कोट, '' ''
पं. यदुनन्दन शुक्ल, कृपालपुर '' ''
पं. स्वयंवर मिश्र, धर्म पूरा के, गूदनपूरा, खैरागढ़।
पं. रामभरोस उपाध्याय, सुरियाँवाँ, भदोही, मिर्जापुर।
पं. कोलाहल उपाध्याय, कोड़र, भदोही, मिर्जापुर।
पं. कालिका, रामदीन उपाध्याय'' अबरना ''
पं. परसन उपाध्याय बरमोहनी '' '' ''
पं. रघू अपा. दोहिया भदोही, मिर्जापुर
पं. नागेश्वर दूबे, वरमोहनी '' ''
पं. झींगुर दूबे, कवल '' '' ''
पं. रामदास दूबे, वरमोहनी, भदोही, मिर्जापुर।
ईश्वरीराम उपाध्याय, सुरियाँवाँ, ''
पं. सम्पतिराम '' पतूलकी, ''
पं. रामकुमार '' वसवरा, ''
बोधाराम उपाध्याय, अवरना, ''

पूर्वोक्त ब्राह्मणों में से जिनके गोत्र में सन्देह था उनका गोत्र निश्चित रूप से नहीं लिखा गया हैं, परन्तु इसी पूर्वोक्त पते से मालूम किया जा सकता हैं।

अब दो-चार प्रसिद्ध-प्रसिद्ध कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के साथ भी सम्बन्ध दिखलाकर फिर कान्यकुब्ज और सर्यूपारी दोनों के साथ मिले हुए सम्बन्ध एक साथ दिखलायेंगे:

(61) परगना सुराम, जिला प्रयाग, आनापुर के श्री देवकीनन्दन सिंह तथा आसपास वाले बहुत से ग्रामों में जो अयाचक (भूमिहार) ब्राह्मण रहते हैं वे सर्यूपारी ब्राह्मण, शाण्डिल्यगोत्री, पहिती पुर के पाण्डे, सूक्ष्ममति पाण्डे के वंशज हैं। यह बात उन लोगों की छपी हुई वंशावली से विदित हैं, परन्तु बहुत दिनों से भूमिहार ब्राह्मणों के साथ विवाह सम्बन्ध करते-करते वे लोग इन्हीं में मिल गये हैं। दृष्टान्त के लिए श्री देवकी नन्दन सिंह की बहन का विवाह काशी के श्री अलरव सिंह से था, जिनके पुत्र कृष्णप्रसाद सिंह हुए। और स्वयं श्री देवकीनन्दन का विवाह जिला आजमगढ़ के सूर्यपुर में कुढ़नियाँ भूमिहार ब्राह्मण श्री राम गोविन्द सिंह की फुआ से था।
(62) उसी विवाह से जो लड़कियाँ श्री देवकी नन्दन की हुईं, उनमें एक का विवाह जिला फतेहपुर, गाँव वीरसिंहपुर, परगना कोड़ा जहानाबाद के कान्यकुब्ज ब्राह्मण काश्यप गोत्री सीरू के घर हुआ था, जिनके साथ अभी तक आना-जाना बना हैं।
(63) उनकी दूसरी लड़की का विवाह जिला फतहपुर, स्टेशन बिन्दकी रोड, गाँव सुलतानागंज में कान्यकुब्ज ब्राह्मण हरनारायण सिंह और सुदर्शन सिंह सीरू के अवस्थी गोत्री के घर हुआ था, जिनके वंश में इस समय शंकर सिंह गन्धार्वसिंह वगैरह मौजूद हैं और आते-जाते भी हैं।
(64) जिला कानपुर, बिठूर, के चौधुरी खुमान सिंह अवस्थी, गोत्र काश्यप के यहाँ आनापुर श्री सिद्धनारायण सिंह की फुआ का ब्याह हैं। खुमान सिंह के घर में अब शिव सिंह हैं।
(65) इसी प्रकार श्री प्रसिद्धनारायण के पिता की फुआ का ब्याह जिला बस्ती, तहसील हरैया, ग्राम त्रिगनौता, राम नारायण ओझा खैरी के, वत्स गोत्री सर्यूपारी के घर था, जिनके पुत्र अवधबिहारी ओझा का आना-जाना अब तक पूर्ववत् हैं।
(66) श्री सिद्धनारायण की पिता की फुआ का ही सम्बन्ध जिला बस्ती, परगना अमोढ़ा, गाँव नाथपुर विसनैयाँ, कश्यप गोत्री त्रिफला पाण्डे लक्ष्मीनारायण से था। (67) जिला गोरखपुर, गाँव महावनखोर में बैसी के दीन मिश्र से उनकी तीसरी फुआ का सम्बन्ध हैं। ये दोनों सर्यूपारी हैं।
(68) जिला प्रयाग, परगना सुराम, कल्याणपुर के विक्रमाजीत सिंह आदि भी आनापुर के सगोत्र पहिती पुर के पाण्डे हैं। परन्तु ये लोग अब जमींदार ब्राह्मण कहलाते हैं। विक्रमाजीत की लड़की का सम्बन्ध सर्यूपारी से जिला सुलतानपुर, गाँव व परगना बेरौंसा में मंगलराम, शिवचरण राम नगवा के शुक्ल गर्ग गोत्री के घर हैं।
(69) उसी ग्राम के कामताप्रसाद सिंह की लड़की का विवाह बेरौंसा के शीतलराम शुक्ल और बाबू शुक्ल के यहाँ हैं।
(70) वहीं के महावीर प्रसाद सिंह की पुत्री बेरौंसा के बालगोविन्द राम शुक्ल के घर ब्याही हैं।
(71) वहाँ के ही सुखनन्दन प्रसाद सिंह की पुत्री का विवाह बेरौंसा में शालग्राम शुक्ल के घर हैं। इसके अतिरिक्त महरूडीह, सराय गाँव, मलाका गाँव परेशपुर, चौहारे, आनापुर, इस्माईल पुर, सराय हरीराम, चतुरी पुर, सराय गोपाल और चौरा रोड आदि ग्रामों के जमींदार ब्राह्मणों का सम्बन्ध बेरौंसा आदि 10 या 12 ग्रामों के नगवा शुक्लों में भरा हुआ हैं,
(72) जैसे कि बेरौंसा के भगवती शुक्ल महरूडीह वाले बैजनाथ प्रसाद सिंह की चर्चा की कन्या के पुत्र हैं इत्यादि। अब कान्यकुब्ज और सर्यूपारियों के साथ मिले हुए सम्बन्ध दिखलाये जाते हैं :
(73) जिला मिर्जापुर, कठिनहीं ग्राम के कामता प्रसाद पाण्डे और दुर्गाप्रसाद पाण्डे पिण्डी के तिवारी शाण्डिल्य गोत्री सर्यूपारी ब्राह्मण हैं। उनका सम्बन्ध, प्रयाग-झूंसी के पन्नालाल, बेनी प्रसाद तिवारी के घर से हैं, जो खोरिया के तिवारी सर्यूपारी हैं और जिनकी कोठी आगरा-बेलनगंज में हैं। उन्हीं पन्नालाल, बेनी प्रसाद के पुत्र से जिला प्रयाग, परगना चायल, चरवा के श्री रामशरण सिंह पाण्डे की लड़की ब्याही हैं। यह कौशिक गोत्री टेकार के पाण्डे हैं, परन्तु अब भूमिहार ब्राह्मणों से मिले हुए हैं। क्योंकि उन्हीं रामशरण सिंह की लड़की का विवाह पूर्वोक्त पनासा के श्री ब्रजबिहारी सिंह उर्फ मटर सिंह से भी हैं। और मटर सिंह की फुआ का विवाह जिला बनारस ग्राम खोचवा के श्री महावीर प्रसाद सिंह से हैं, जो गौतम भूमिहार ब्राह्मण पिपरा के मिश्र हैं।
(74) उसी पूर्वोक्त कटिनहीं के पाण्डे के घर जिला प्रयाग, परगना करारी, बेरौंचा गाँव के निवासी कुसुमी के तिवारी, शाण्डिल्य गोत्री, त्रिपाठी बूआ सिंह के दो पुत्रों के विवाह हुए हैं और बूआ सिंह का, या जिला बाँदा के ही मडौर आदि 24 ग्रामों में रहने वाले त्रिपाठी नृपति सिंह, माधाव सिंह, रघुवीर सिंह, अवधासिंह, शिवपालसिंह और रामशरणसिंह प्रभृति सर्यूपारी कुसुमी तिवारियों के- जो अब जमींदार ब्राह्मणों के सदृश हो रहे हैं-पुत्रों का विवाह सम्बन्ध सावर्ण्य टिकरा के पाण्डे लोगों में होता हैं, जो छप्पन गाँववाले बोले जाते हैं और जिला प्रयाग, परगना कड़ा में रहते हैं। जैसे परसरा गाँव के विश्वनाथ, ठाकुरदीन, चन्द्रदयाल पाण्डे आदि बिसरा के सूर्यपाल, बलदेव पाण्डे प्रभृति। असवा के रामरत्न, भागीरथ पाण्डे आदि। बालक मऊ के सुखनन्दन राम, जगमोहन राम पाण्डे प्रभृति। ककोड़ा के शिवसहाय राम, रघुवीर राम पाण्डे आदि। विदनपुर के रामप्रसन्न राम पाण्डे प्रभृति। टिकरा डीह के रामजियावन पाण्डे, मथुरा प्रसाद पाण्डे प्रभृति हैं और इन छप्पन वाले टिकरा के पाण्डे लोगों का सम्बन्ध सुराम परगना के पूर्वोक्त आनापुर इत्यादि ग्रामों और पनासा प्रभृति ग्रामों के पूर्वोक्त भूमिहार ब्राह्मणों में खुल्लमखुल्ला होता हैं और पूर्वोक्त चरवा ग्राम में भी होता हैं, जिसका सम्बन्ध पनासा आदि में दिखला चुके हैं। चरवा ग्राम में रामशरण सिंह, रामनिधि सिंह और रामप्रताप सिंह इत्यादि 150 घर सर्यूपारी या जमींदार ब्राह्मण रहते हैं। चरवा के पास टाटा गाँव में भी ब्रह्मदत्ता सिंह तिवारी इत्यादि के घर भी छप्पन गाँव वालोंका विवाह सम्बन्ध होता हैं। टाटा गाँव के पास चौराडीह में मथुरा प्रसाद सिंह तिवारी, साना जलालपुर में श्री कल्लू सिंह तिवारी, सिंहपुर में भग्गूसिंह, फरीदपुर में छेदी सिंह एवं कमालपुर, सुधावल, नीमी और साना प्रभृति 12 गाँवों में सर्यूपारी रहते हैं, जो अबप्राय: जमींदार ब्राह्मण हो रहे हैं और भारद्वाज गोत्री दुमटिकार के तिवारी कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त चरवा में टेकार के कौशिक गोत्री पाण्डे और परसरा इत्यादि गाँवों में सावर्ण्य गोत्री टिकरा के पाण्डे लोगों को कह चुके हैं और टिकरा डीह भी बतला चुके हैं।
     बस, इन्हीं टिकरा और दुमटिकार के पाण्डे और तिवारियों में से मगध में टिकारी के महाराज तथा अन्य भूमिहार ब्राह्मण भारद्वाज गोत्र या अन्य गोत्रों के हैं, जो अब तक बहुत जगह पाण्डे, तिवारी और दूबे इत्यादि उपाधियों से मगध और तिरहुत प्रभृति प्रान्तों में प्रसिद्ध हैं और कहीं-कहीं राय, सिंह और चौधुरी भी बोले जाते हैं। दुमटिकार के तिवारी और पाण्डे प्रभृति ये छप्पन वाले ब्राह्मण अपने पूर्वजों का मगध के टिकारी स्थान से आना बतलाते हैं। सम्भव हैं कि उन लोगों ने वहाँ से आने से ही उसी टिकारी के स्मरणार्थ टिकरा नामक ग्राम बसाया हो।
     इसी नाम को लोग भूल से दुमकटार, डोमकाटर, डोमकटार इत्यादि भिन्न-भिन्न रूपों में भिन्न-भिन्न स्थानों में व्यवहार करते और तदनुसार ही बहुत सी मिथ्या कल्पनाएँ भी किया करते हैं। परन्तु शुद्ध नाम दुमटिकार या दुमटेकार हैं। इसीलिए सर्वत्रा इसी का व्यवहार होना चाहिए। ये लोग वास्तव में सर्यूपारी ब्राह्मण हैं।
(75) पूर्वोक्त छप्पनवालों के लड़कों का विवाह सम्बन्ध फतेहपुर जिले में सिराथू स्टेशन के पास सोनही के तिवारियों में होता हैं। जो भदवा, बह्मनौली और इचौली आदि 12 गाँवों में रहते हैं और कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं।
(76) चरवा गाँव के ब्राह्मण रामशरणसिंह जिनका सम्बन्ध पनासा आदि में दिखला चुके हैं- के दायाद माता दयाल सिंह की लड़की का विवाह जिला प्रतापगढ़, परगना नवाबगंज, ग्राम बम्हनपुरा के लक्ष्मीनारायण मिश्र, मैनच के वत्स अथवा कात्यायन गोत्री से हुआ हैं, जिसका पुत्र नारायणदास मिश्र हैं।
(77) माता दयाल सिंह की पुत्री, प्रयाग-कटरा नवाई जयसिंह में जय (ज्वाला) शंकर दूबे, कमलाकान्त दूबे, बेलवा सौरी के गोत्र वत्स के घर भी ब्याही गयी हैं।
जिन कुसुमी के तिवारी बुआसिंह प्रभृति का सम्बन्ध भूमिहार ब्राह्मणों में दिखला चुके हैं उन्हीं की लड़कियों के विवाह रीवाँ और प्रयाग में सर्यूपारियों के यहाँ नीचे लिखे जाते हैं।
(78) जिला रीवाँ, ग्राम रंग पतेरी, बलदेवप्रसाद तिवारी के घर मण्डौर के नृपतिसिंह की।
(79) जिला रीवाँ, ग्राम मटियारी, पं. अयोधयाप्रसाद मिश्र, पड़रहा के वसिष्ठ गोत्री के घर माधावसिंह की।
(80) जिला प्रयाग, गाँव बादशाही मण्डई, बैजनाथ मिश्र पिपरा के, गौतम गोत्री के यहाँ रघुवीर सिंह की।
(81) जिला प्रयाग, गाँव बहादुर गंज, महादेव शुक्ल, मामखोर के गर्गगोत्री के घर अवधासिंह की।
(82) प्रयाग, परगना सुराम, किलहनापुर, रुद्रप्रसाद मिश्र, धर्मपुर लगुनी वाले के यहाँ शिवपालसिंह की।
(83) प्रयाग, परगना सुराम, गाँव बाँधापुर, सुखनन्दन राम पण्डित के घर रामशरण सिंह तिवारी की लड़कियों के विवाह हैं। कुसुमी तिवारी लोग बेरौंचा और मण्डौर के अतिरिक्त तारी, मऊ, अहिरी, सुरोधा और अखौड़ा आदि गाँवों में रहते हैं।
(84) प्रयाग में दो या तीन कोस पर जसड़ा स्टेशन के पास यमुना तट में बेरौल ग्राम के सर्यूपारी रामनारायण तिवारी आदि तिवारियों में पनासा और सुराम परगना के भूमिहार ब्राह्मणों के सम्बन्ध हैं।
पूर्वोक्त अरैल परगना के पनासा आदि और सुराम परगना के कल्याणपुर आदि ग्रामों के भूमिहार ब्राह्मणों से बदर्का के मिश्र, कात्यायन गोत्र के कान्यकुब्ज ब्राह्मणों का सम्बन्ध हैं, जो जिला इलाहाबाद, परगना मिर्जापुर चौहारी के भागीपुर आदि ग्रामों में रहते हैं। जैसे :
(85) भागीपुर के पं. विन्धयेश्वरी बख्शसिंह मिश्र का सम्बन्ध अरैल के वराँव गाँववाले राजासाहब श्री राघवेन्द्रनारायण सिंह के घर ही हैं।
(86) विन्धयेश्वरी बख्श के भतीजे रामानन्दसिंह मिश्र की भतीजी का विवाह प्रयाग के सिरसा रामनगर में भूमिहार ब्राह्मण श्री आदित्यनारायण सिंह के घर हैं, जो गाना के मिश्र, वत्स गोत्री हैं।
(87) इसी प्रकार से जिस चरवा आदि के रामशरण सिंह वगैरह का सम्बन्ध भूमिहार ब्राह्मणों से दिखला चुके हैं उसी चरवा के रामनाथ सिंह और काशी प्रसन्न सिंह के घर में भी पूर्वोक्त विन्धयेश्वरी बख्श के लड़के का विवाह हैं।
(88) विन्धयेश्वरी बख्श के छोटे भाई का विवाह चौरा के अम्बिका प्रसाद सिंह तिवारी, दुमटिकार के, भारद्वाज गोत्री के घर हैं। जिन चौरावालों का भूमिहार ब्राह्मणों से सम्बन्ध सिद्ध हो चुका हैं अब उसी विन्धयेश्वरी बख्श का सम्बन्ध अन्य कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों से दिखलाते हैं :
(81) विन्धयेश्वरी बख्श की लड़की का विवाह जिला फैजाबाद, गाँव अंजना, रामलाल मिश्र, मार्जनी के वसिष्ठ गोत्री, सर्यूपारी के घर हैं।
(90) विन्धयेश्वरी बख्श की बहन का विवाह जिला प्रतापगढ़, गाँव भकड़ा, काशी नाथ मिश्र सुगौती के, गौतम गोत्री सर्यूपारी के यहाँ हैं।
(91) उनकी ही दूसरी बहन का विवाह जिला जौनपुर, गाँव पहितियापुर, हूबेराज दूबे, राज किशोर दूबे, सरार के, भारद्वाज गोत्री, सर्यूपारी के घर हैं।
(92) उनकी तीसरी बहन का विवाह जिला प्रतापगढ़ गाँव छेमर सरैया, प्रयाग मिश्र, मऊ के, कश्यप गोत्री, सर्यूपारी के यहाँ हैं।

भागीपुर के अतिरिक्त बदर्का के मिश्र नीचे लिखे गाँवों में रहते हैं।
(1) गाँव हुसेनपुर-जिला प्रतापगढ़ (1) दुर्गा प्रसाद सिंह। धीनापुर जिला प्रयाग,
(2) मातादयालसिंह। जिला प्रतापगढ़, गाँव वरदहा (3) शीतलदीनसिंह। गाँव केसरुवा (4) सूर्यसिंह। गढ़चम्पा, भानपुर, सिंगही और महम्मदपुर में भी बदर्का के मिश्र रहा करते हैं। (5)गाँव केसरुवा गाँव में राम सुखसिंह, (6) बरदहा में जानकी सिंह और (7) इस्माइलपुर में शिव शंकर सिंह रहते हैं। इन लोगों के सम्बन्ध इस प्रकार हैं :

(93) जिला प्रतापगढ़ गाँव छेमर सरैया, शीतलदीन मिश्र, मऊ के, कश्यप गोत्री के घर में श्रीयुत् राम सुख सिंह की लड़की ब्याही हैं।
(94) जिला प्रतापगढ़, गाँव डोमीपुर, जानकी मिश्र, मऊ के, कश्यप गोत्री के यहाँ जानकी सिंह की लड़की ब्याही हैं।
(95) प्रतापगढ़, सरुवा के शिवमंगल मिश्र मऊवाले के यहाँ शिवशंकर सिंह की पुत्री ब्याही हैं।
(96) प्रतापगढ़ शेखपुर, देवकीनन्दन उपाध्याय, खोरिया के, भारद्वाज गोत्री सर्यूपारी के यहाँ भागीपुर के विन्धयेश्वरी बख्शसिंह मिश्र की पुत्री का विवाह हैं।
(97) मिर्जापुर के ओधी आदि गाँव के गौतम गुरईसिंह, राम मनोरथ सिंह वगैरह की पुत्रियों के विवाह रीवाँ के तिलिया पाँती गाँव के पाठकों के घर हैं और वहाँ के एक पाठक ओधी में गोद लिये गये हैं।
(98) जिला प्रयाग, परगना चायल, गाँव मर्दापुर के वृजलाल पाण्डे, नागचौरी के, की बहन मातादयाल सिंह, सराय राघो, परगना नवाबगंज, प्रयागवाले से ब्याही हैं। वृजलाल पण्डित अभी तक आठ-दस गाँवों के पुरोहित हैं।
(99) पं. इन्द्रनारायण द्विवेदी, मन्त्री किसान सभा का भतीजा विरौंचा के कुसुमी तिवारियों के यहाँ ब्याहा हैं। उनकी लड़की का ननिहाल ककोड़ा हैं।
(100) पं. बलराज सहाय उपाध्याय, वकील (प्रतापगढ़) के भतीजे का विवाह भैरो प्रसाद सिंह कल्याणपुर, सुराम, प्रयागवाले की पुत्री से हैं और बलराज सहाय के पुत्र का विवाह गयाप्रसाद पाण्डे, मिर्जापुर के घर हैं।

इसके बाद अब त्यागियों (तगे) और गौड़ों के भी कुछ विवाह सम्बन्ध दिखलाते हैं। इसमें हरेक नाम के आगे विवाहित का निर्देश हैं और इसके आगे गाँव और जिले लिखे हैं। विवाह इस प्रकार हैं :

वरपक्षीय त्यागी ब्राह्मण कन्यापक्षीय गौड़ ब्राह्मण
(1) गंगाराम, स्वयं, गोविन्दपुरी, अम्बाला
(2) मधुसूदन दास, स्वयं, गोविन्दपुरी, अम्बाला
(3) आया राम, स्वयं, गोविन्दपुरी, अम्बाला
(4) दीननाथ स्वयं, गोविन्दपुरी, अम्बाला
(5) आशाराम, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर
(6) कृष्णदत्त, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर
(7) मूलराज, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर
(8) शादीराम, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर
(9) प्रतापसिंह, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर
(10) धर्मसिंह, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर
(11) नानकचन्द्र, पुत्र, गोवर्धनपुर, सहारनपुर
(12) शम्भूदयाल, पुत्र, गोवर्धनपुर, सहारनपुर
(13) कालीराम, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर
(14) हरजस शर्मा, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर
(15) जीराजसिंह, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर
(16) अमीचन्द, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर
(17) अमीचन्द, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर
(18) बादामसिंह, पुत्र, विजैपुरा, सहारनपुर
(19) सीसराम, पुत्र, विजैपुरा, सहारनपुर
(20) मुख्तारसिंह, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर
(21) गिरधारीलाल, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर
(22) पृथ्वीसिंह, स्वयं, बड़ागाँव, सहारनपुर
(23) सीसूसिंह, स्वयं, सहारनपुर
(24) मनसाराम, स्वयं, रुल्हाकी, सहारनपुर
(25) गोविन्दराम, पुत्र, मेहरवानी, सहारनपुर
(26) रामचन्द्र, स्वयं, मेहरवानी, सहारनपुर
(27) आशाराम, स्वयं, सुलतानपुर, सहारनपुर
(28) ईश्वरदत्ता, स्वयं, गोविन्दपुरी, अम्बाला
(29) बुधाराम, पुत्र, गोविन्दपुरी, अम्बाला
(30) मोलड़सिंह, स्वयं, नुकड़, सहारनपुर
(31) रिसालसिंह, .... अघियाना, सहारनपुर
(32 बख्तावरसिंह, ... अघियाना, सहारनपुर
(33) मुखराम ... अघियाना, सहारनपुर
(34) गंगासिंह, स्वयं, शिकारपुर, दिल्ली
(35) सीसासिंह स्वयं, शिकारपुर, दिल्ली
(36) रामप्रसाद, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव
(37) भनवानसहाय, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव
(38) खुशहाली, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव
(39) बालाराम, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव
(40) किसुनराम, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव
(41) उदयराम, स्वयं, शिकारपुर, दिल्ली
(42) कूड़ेसिंह, स्वयं, शिकारपुर, दिल्ली
(43) खुशिया, स्वयं, शिकारपुर, दिल्ली
(44) साखीराम, स्वयं, केशवपुर, दिल्ली
(45) तृखाराम, स्वयं केशवपुर, दिल्ली
(46) मोहरा, स्वयं, धर्मपुर, गुरुगाँव
(47) परसा, स्वयं, मोमेढरी गुरुगाँव
(48) लक्ष्मण, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव
(49) देवीसहाय, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव
(50) प्रभु, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव
(51) लच्छू, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव
(52) जीराम, स्वयं, धर्मपुर, गुरुगाँव
(53) शादीराम, स्वयं, धर्मपुर, गुरुगाँव
(54) हातम, स्वयं, भगेल, बुलन्दशहर
(55) चन्दसेन, स्वयं, दलेलपुर, बुलन्दशहर
(56) रामचन्द्र, पिता सुलखनी, अम्बाला पटियाला
(57) फतेह सिंह, स्वयं, धर्मपुर, गुरुगाँव
(58) हरज्ञान, स्वयं, मोमेढरी, गुरुगाँव
(59) हरजस, स्वयं, मोमेढरी, गुरुगाँव
(60) नत्थाराम...हैंबतपुर, अम्बाला
(61) मथुरादास...ओंड़ाना, करनाल
(62) द्वारकादास...जटलाना, करनाल
(63) रामजीदास...तेहमा, अम्बाला
(64) शालिग्राम,...छोली, अम्बाला
(65)पं. उमादत्तापुत्र, साँभली, करनाल
तुलसीराम, बहन, मुलाना,अम्बाला
कालीराम पुत्री, छजरौली, अम्बाला
गीताराम, पुत्री, दसानी, अम्बाला
बद्रीदास पुत्री, अम्बाला, अम्बाला
मोल्हड़मल, पुत्री, छजरौली, अम्बाला
कन्हैयालाल, पुत्री, सरमोरनाहन, अम्बाला
गीताराम, पुत्री, साल्हापुर, अम्बाला
परशुराम, बहन, मुजाफत, अम्बाला
शंकरलाल, बहन, दसानी, अम्बाला
तेलूराम, बहन, हरियावास, अम्बाला
बद्रीप्रसाद, बहन, दसानी, अम्बाला
माड़ेराम, बहन, दसानी, अम्बाला
देवीचन्द, पुत्री, जगाधारी, अम्बाला
श्री निवास, पुत्री, गामली, अम्बाला
रामजीदास, बहन, खूड़ा, अम्बाला
अनन्तराम, बहन, ममेदी, अम्बाला
मनसाराम, बहन, गढ़ीलौकरी, अम्बाला
दौलतराम, बहन, हरियावास, अम्बाला
दौलतसिंह, बहन, तेहिमा, अम्बाला
रामप्रसाद, पुत्री, माँड़खेड़ी, अम्बाला
नत्थूराम, पुत्री, हरियावास, अम्बाला
तेलूराम, पुत्री, काटकी, बधावली, अम्बाला
रुल्हाकी, नन्दराम, पुत्री, रायपुरडमोली अम्बाला
रामजीदास, पुत्री, भूड़ ब्राह्मण, अम्बाला
हरिशंकर, पुत्री, मारवा, अम्बाला
रामजीसहाय, पुत्री, विलासपुर, अम्बाला
हीरालाल, पुत्री, माँड़खेड़ी, अम्बाला
प्रभुदयाल, पुत्री, करनाल, करनाल
सूर्यभान, बहन, यारा, करनाल
देवीचन्द, पुत्री, जटलाना, करनाल
राजमीदास, ... साँच, करनाल
खुशीराम, ... कोहण्ड, करनाल
गोपीनाथ, ... जालखेड़ी, करनाल
जसराम, भतीजी, दुजाणा, रोहतक
सत्तू, बहन, मकसूदपुर, रोहतक
गंगाराम, बहन, सागीहेड़ा, रोहतक
रामरीख, पुत्री, मकसूदपुर, रोहतक
पीरूशर्मा, पुत्री, मकसूदपुर, रोहतक
हरीराम, पुत्री, मकसूदपुर, रोहतक
शिवकरन, पुत्री, मकसूदपुर, रोहतक
बख्शीराम, फुआ, दिवाना, रोहतक
नानकचन्द, बहन, दिवाना, रोहतक
हरदेव, बहन पेरवल, रोहतक
बद्रीप्रसाद, पुत्री, नागल, रोहतक
कूड़ेसिंह, नम्बरदार नागल, रोहतक
नन्दपण्डित, बहन, मकसूदपुर, रोहतक
शोबला, बहन, कन्नौर, रोहतक
लेखी, पुत्री, भागई, झींद
सौजीराम, पुत्री, सितोबपुर, झींद
धर्मा, नम्बरदार, पुत्री, भावास, झींद
छबीले, पुत्री, घिराना, झींद
शादीराम, बहन, सितोबपुर, झींद
तोताराम, बहन, समसपुर, झींद
बल्लराम, पुत्री, डण्डिकारामपुर, झींद
नत्थू, पुत्री, कुरुथल, गुरुगाँव
बिशनलाल, बहन, शाहपुर, मछोड़ा,
पतिराम, पुत्री, बाबल, हिसार
जयराम, पुत्री, थानेजी, दिल्ली
शुण्डराम, पुत्री, रोढ़कामुवाना, दिल्ली
मुंशीलाल....कुतुबपुर, मुजफ्फरनगर
उमरावसिंह,...तेवड़ा, सहारनपुर
गणेशीलाल, ...सुलतानपुर, सहारनपुर
दीनदयाल, ...सुलतानपुर, सहारनपुर
दीनदयाल सुलतानपुर, सहारनपुर
पं. कुन्दनजी, भतीजी, जलवाना, करनाल
वरपक्षीय गौड़ ब्राह्मण कन्यापक्षीय त्यागी ब्राह्मण
(66) केशव, स्वयं, कन्नौर, रोहतक
(67) यमुनादास, स्वयं, सलौधा, रोहतक
(68) जीराम, स्वयं, भैंसावल, रोहतक
(69) दुब्बाबुधा, स्वयं, मकसूदपुर, गुरुगाँव
(70) डॉ. गीताराम, स्वयं, करनाल, करनाल
(71) शिवचरण, पिता, डीघ,
(72) सुन्दरलाल, स्वयं, लाड़वा, करनाल
(73) जगन्नाथ, स्वयं, बीजलपुर, अम्बाला
(74) बिहारीलाल, पुत्र, बीजलपुर, अम्बाला
(75) विश्वम्भरदास जज, पोता, सरकोरनाहन, अम्बाला
(76) छज्जूराम, पुत्र, ईसोपुर, अम्बाला
(77) मोहनलाल, पुत्र, गदौली अम्बाला
(78) राजाराम, स्वयं, सुलखनी, अम्बाला
जयलाल, बहन, शिकारपुर, दिल्ली
तूखाराम, बहन, हस्तसाल, दिल्ली
मोमचन्द, बहन, झटिकरा, गुरुगाँव
मोहराम, पुत्री, धर्मपुर, गुरुगाँव
नानकचन्द, पुत्री, गोविन्दपुरी, अम्बाला
करनाल साहब सिंह, गोविन्दपुरी, अम्बाला
गंगाराम, पुत्री, गोविन्दपुरी, अम्बाला
गंगाराम, पुत्री, गोविन्दपुरी, अम्बाला
आशाराम, पुत्री, गोविन्दपुरी, अम्बाला
लायकराम, पुत्री, गोविन्दपुरी, अम्बाला
रामस्वरूप, पुत्री, गोवर्धनपुर, सहारनपुर
जगराम सिंह, पुत्री, गोवर्धनपुर, सहारनपुर
दीनदयालु, पुत्री, गोवर्धनपुर, सहारनपुर

(79) झटिकरा, गुरुगाँव का निवासी मोल्हड़ रोहतक के मांडू ग्राम के गौड़ों का नाती हैं और अब मांडू में ही नाना की जायदाद पर रहता हैं।
(80) शिवलाल त्यागी, रेवला, दिल्लीवाले की बहन ग्राम दतौर, रोहतक में पं. हिरौड़ाजी गौड़ से ब्याही गयी, जिसके पुत्र खीमा का विवाह रोहतक जिले के कसार गाँव में हैं।
(81) मेरठ, असौंढ़ा के रईस और तालुकेदार चौ. रघुबीर नारायण सिंहजी के चिरंजीव सुपुत्र चौ. रघुवंश नारायण सिंह का विवाह गोवर्धनपुर, जिला सहारनपुर के रईस चौ. रूपचन्दशर्मा की पुत्री से हैं। इसी गोवर्धनपुर के सगोत्र और भाई-बिरादर इन गाँवों में रहते हैं:-सढौलीहरिया, (पं. रामजी दास), उमरी (पं. परमानन्द), अम्बष्टा वरिजादा (पं. मंगलसेन), रनदेवा (पं. सुगनचन्द) वगैरह। ये लोग गौड़ कहाते हैं और गौड़ों के साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध रखते हैं। चौ. रूपचन्दजी शर्मा वगैरह के साथ भी इनका खान-पान ज्यों का त्यों बना हैं। पूर्वोक्त गोविन्दपुरी, अम्बाला वालों के सगोत्र और सगे भाई-बिरादर जो गौड़ कहलाते हैं, इन गाँवों में रहते हैं:-गदौली (स्वामी भाऊराम, सीताराम), कोराली (भ्यावी मोहनलाल), डिगौंली (चौ. हरिवंश, इच्छाराम), नलेड़ा, रायपुर (पं. तुलसीराम) वगैरह। पूर्व के दो गाँव अम्बाला में हैं और शेष तीन सहारनपुर में। इनका भी खानपान गोविन्दपुरी वालों के साथ हैं। गोविन्दपुरी के सगोत्र पं. राजेन्द्र मिश्र वकील अमृतसर में रहते हैं। भगल, गेझा, कुलेसरा, सुलतानपुर, गिगरोड़ा ये पाँचों गाँव कौशिक गोत्री त्यागियों के जिला बुलन्दशहर में हैं। इनका निकास (डीह या मूल स्थान) पसोर हैं। मगर पसोर वाले इनके सगोत्री होने पर भी गौड़ कहे जाते हैं।

इस विवाह सम्बन्ध के देखने से स्पष्ट प्रतीत होता हैं कि जैसे मैथिल ब्राह्मणों में कुछ ऐसे हैं जो पश्चिम और मैथिल दोनों से विवाह सम्बन्ध करते हैं, वैसे ही गौड़ों में भी कुछ ऐसे हैं जो त्यागियों और गौड़ों के साथ विवाह करते हैं। नागल, जिला रोहतक के पं. बद्री प्रसाद 12 गाँवों के पुरोहित हैं और उनके यहाँ त्यागियों का सम्बन्ध दिखलाया गया हैं। इसके सिवाय यह भी देखा जाता हैं कि एक भाई त्यागी हैं तो दूसरा गौड़ हो गया और बहुत से गौड़ धीरे-धीरे जमींदारी के कारण त्यागी हो गये और होते जा रहे हैं और कितने ही त्यागी वंश गौड़ हो गये हैं। उदाहरण के लिए पं. हेमचन्दजी तहसीलदार सरधाना जो पहाड़पुर, सहारनपुर के निवासी थे गौड़ ब्राह्मण कहे जाते हैं। मगर जिस ग्राम धानूखेड़ी, करनाल से उनके पूर्वज आये थे वहाँ उन्हीं के भाई लोग अब भी त्यागी ही कहलाते हैं। इसी धानूखेड़ी से ही सहारनपुर के पहाड़पुर और नुकड़ में गये हुए पं. हरप्रसादजी तथा पं. हरिप्रसादजी के पूर्वज गौड़ ब्राह्मण हो गये और अभी तक उन लोगों के वंशज गौड़ ही हैं। गाँव फेराहेड़ी, सहारनपुर के त्यागियों के कुछ बिरादर रुड़की तहसील के ज्वालापुर में जा बसे और दानवाही होकर गंगापुरोहित गौड़ कहलाते हैं। हर की पैड़ियों का दान वही लेते हैं। उनमें इस समय सरदार परमानन्दजी हैं। खेड़ी जिन्नारदार, सहारनपुर से कुछ त्यागी वंश वाले जालखेड़ी, करनाल में चले गये और उन्हीं के वंश में पं. गोपीचन्दजी प्रभृति दानग्राही हो गये। राना जसमोर, जिला सहारनपुर के पुरोहित के वंशज चौ. फतह सिंह वगैरह तेवड़ा, जिन्नारदार, सहारनपुर में जाकर जमींदारी करने से त्यागी हो गये। परन्तु अभी तक दोनों दल में सम्बन्ध करते हैं। पूर्वोक्त खेड़ी ग्राम से ही कुछ लोग करोंदी में जाकर ग्राही गौड़ कहाते हैं और बड़गाँव, तहसील नुकड़ में भी जाकर दानग्राही ही हैं। मगर इन्हीं के भाई जालखेड़ी, करनाल में त्यागी हैं और ग्राही एवं त्यागी दोनों के यहाँ विवाह करते हैं।

जैसे इस समय पश्चिम ब्राह्मणों में पुरोहिती करने वाले बहुत हैं और पहले से भी हजारीबाग जिले के चतरा और इटखोरी थाने के बाभनों (भूमिहार ब्राह्मणों) का पेशा पुरोहिती हैं और यही पेशा कागजों में लिखा जाता हैं। वे माहुरी वैश्यों, राजपूतों और कायस्थों के पुरोहित हैं। देव-गया के सूर्यमन्दिर के पुजारी खेदा पाण्डे वगैरह भी सोनभदरिया बाभन मयूरभट्ट के वंशज हैं। ठीक उसी तरह त्यागियों में भी कहीं-कहीं पहले से ही पुरोहिती करने वाले पाये जाते हैं। दृष्टान्त के लिए जमधारपुर, तुगलपुर, खानपुर, गजरौला, जिला बिजनौर के तगे (त्यागी) रवे राजपूतों के पुरोहित हैं। जरौला के पुरोहित नाथूराम और सलेखू राम वगैरह हैं। लंढौरा रियासत, जिला सहारनपुर के पुरोहित ताँसी ग्राम, तहसील रुड़की के त्यागी ब्राह्मण हैं। पाँचों पुरियों के सरदार और हर की पैड़ी के दानग्राही पं. दिसौंदीरामजी त्यागी वंश से ही हैं जिनके पुत्र सरदार परमानन्दजी वर्तमान हैं। इसी प्रकार और भी बहुत से दृष्टान्त ढूँढ़ने से मिल सकते हैं। जिसको मिथिला में मूल और मूल में काशी, सर्यूपार एवं कन्नौज में स्थान और डीह बोलते हैं, उसे ही पश्चिमी जिलों में निकास कहते हैं। करनाल जिले के जितने ग्राम विवाह सम्बन्ध में दिखलाये गये हैं वे प्राय: पानीपत, थानेसर और करनाल तहसील के हैं, सहारनपुर वाले सहारनपुर, नुकड़ के और अम्बाला वाले अम्बाला और जगाधारी तहसील के हैं। नाहन तहसील भी हैं। गोविन्दपुरी की तहसील जगाधारी और गोवर्धनपुर की नुकड़ हैं। ये दो गाँव बहुत प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित हैं एवं इन्हीं गाँवों का सम्बन्ध दोनों दलों में बहुत ज्यादा हैं। सढौलीहरिया, उजरी और डिगौली देवबन्द तहसील में हैं। नलेड़ा रुड़की में हैं। गदौली, कोरालो नारायण गढ़ में हैं।

इस प्रकार से यह स्पष्ट हो गया हैं कि अयाचक ब्राह्मण दल पूर्व में मिथिला से लेकर पश्चिम में अम्बाला, करनाल और पंजाब के झेलम तक फैले हुए हैं। इनमें से पूर्व वाले मिथिलावासी और पश्चिम छोर वाले या काशी पुरी से पश्चिम के रहने वाले दोनों ही याचक (पुरोहित) दलवाले ब्राह्मणों के विवाह द्वारा एक में एक मिले हुए हैं। यहाँ तक कि दोनों दिशाओं में प्रतिष्ठित और प्रधान जो-जो हैं उन सभी का सम्बन्ध अयाचक ब्राह्मणों से मिलता हैं। इसलिए यदि मध्य के अर्थात् काशी और गण्डक के बीच वालों से अन्य ब्राह्मणों के विवाह सम्बन्ध, अज्ञान या किसी अन्य कारणवश क्योंकि वहाँ के याचक दल वाले प्राय: दीन हैं, नहीं भी मिलते हैं तो कोई हर्ज नहीं हैं और इससे ये मध्य के अयाचक ब्राह्मण अन्य ब्राह्मणों से पृथक् नहीं समझे जा सकते हैं। प्रत्युत ब्राह्मण समाज के ही सुन्दर और हृष्ट-पुष्ट अंग हो सकते हैं। क्योंकि जब इनके दल का आदि और अन्त दोनों ही ब्राह्मण मात्र से घनिष्ठ मिलाव रखता हैं और अन्य ब्राह्मणों से भिन्न नहीं मालूम हो रहा हैं, तो मध्य में यदि किसी कारण से न मिलने से भेद भी प्रतीत होता हो तो विवेकीजन उस भेद को सत्य न समझ मिथ्या ही समझते हैं। जैसे यदि किसी रस्सी को अण्डाकार (0) में फैला देंवे, तो यद्यपि उसके दो छोर मिले हुए हैं और बीच का भाग एक दूसरे से दूर पड़ गया हैं, परन्तु सभी की सभी रस्सी ही समझी जाती हैं, न कि बीच का हिस्सा रस्सी से भिन्न कुछ और ही समझा जाता हैं। क्योंकि ''जो चीजें किसी एक ही चीज के बराबर होती हैं वे आपस में भी बराबर होती ही होती हैं'', यह इस जगह भी अच्छी तरह लगाया जा सकता हैं। इसीलिए वेदान्त का सिद्धान्त हैं कि ब्रह्म में अज्ञान होने से प्रथम और अज्ञान नाश के पश्चात् यदि जीव और ब्रह्म का वस्तुत: भेद नहीं हैं, तो मध्य में अर्थात् अज्ञान काल में, जो भेद प्रतीत होता हैं वह मिथ्या ही हैं, क्योंकि जो राजा निद्रा से पूर्व और निद्रा टूटने पर भी अपने को राजा ही समझता हैं, वह यदि निद्रा दोष से स्वप्न देखता हुआ अपने को राजा न देख भिक्षुक के रूप में देखता हैं, तो उससे वह वस्तुत: भिखमँगा न होकर उस समय भी राजा ही रहता हैं और विचार शक्ति उसे राजा ही समझते हैं, चाहे वहस्वयं अपने को प्रचण्ड निद्रा अथवा अज्ञान दोष से राजा न समझे वह दूसरी बात हैं। इसीलिए भगवान् श्री गौडपादाचार्य ने माण्डूक्योपनिषद् की कारिकाओं में लिखा हैं कि :

आदावन्ते च यन्नास्तिर् वत्तामाने पि तत्ताथा।वितथै: सदृशा: सन्तौ वितथा इव लक्षिता:॥ 6, प्र. 3॥

और उसी के ऊपर भगवान् श्री शंकराचार्य का भाष्य ऐसा हैं कि

यदादावन्ते च नास्ति वस्तुमृगतृष्णादि, तन्मधये पि नास्तीति निश्चितं लोके। तथेमे जाग्रद्दृश्या भेदा आद्यन्तयोरभावाद्वितथैरेव मृगतृष्णिकादिभि: सदृशत्वाद्वित था एव, तथा प्यवि तथा इव लक्षिता मूढैर नात्मविदि्भ:।

इन दोनों वचनों का तात्पर्य यह हैं कि जो वस्तु आदि और अन्त में रहे, परन्तु मध्य में प्रतीत हो, तो उसे मध्य में भी मिथ्या ही समझना चाहिए। यही संसार की रीति हैं। केवल मूर्ख लोग ही उसे सत्य समझते हैं। क्योंकि मरुस्थल में मृगतृष्णा का जल मृग के विचार से प्रथम भी न था और आगे भी न रहेगा, केवल बीच में ही मालूम होता हैं। इसीलिए वह मिथ्या हैं। यही दशा इस प्रकार के पदार्थों की हैं। क्योंकि वे भी उसी तरह के हैं। फिर उन्हें सत्य मानना मूर्खता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

जब यह स्पष्ट रूप से दिखला चुके हैं कि मैथिल, कान्यकुब्ज, गौड़ और सर्यूपारी सभी ब्राह्मणों में इन अयाचक दल के ब्राह्मणों के लड़के और लड़कियों दोनों के ही विवाह होते हैं, प्रत्युत मिथिला में लड़कियों के ही अधिक और सर्यूपारी प्रभृति में लड़कों के ही और लड़कियों के कम अथवा दोनों जगह बराबर ही और यही दशा गौड़ों की भी हैं तो बंगाल, बिहार और उड़ीसा की 1911 ई. की मनुष्य गणना की रिपोर्ट में मनुष्य गणना के सुपरिन्टेण्डेण्ट ने जो उसके पाँचवें भाग के प्रथम खण्ड के जाति विवरण नामक 11वें प्रकरण में 444वें पृष्ठ के नोट में लिखा हैं कि :

It is reported that in Purnea there have been a few Cases of Babhans marrying Maithil Brahman girls, but none of Maithil Brahmans taking wives from among Babhans.

अर्थात् ''यह कहा जाता हैं कि पुरनिया जिले में चन्द बाभनों (पश्चिम ब्राह्मणों) ने मैथिल ब्राह्मणों की लड़कियों से विवाह किया हैं, परन्तु किसी भी मैथिल ब्राह्मण ने बाभनों (पश्चिम ब्राह्मणों) की लड़कियों से विवाह नहीं किया हैं।'' इससे समझ लेना चाहिए कि रिपोर्ट लिखने वाले को ब्राह्मण समाज या भारत के समाज मात्र का कितना ज्ञान था या सभी वैदेशिक लेखकों को रहा करता हैं। इसीलिए ऐसी दशा में वे लोग जिस किसी भारत समाज के विषय में जो कुछ न लिख डालें उसी में आश्चर्य हैं और केवल उन्हीं के आधार पर समाज के तत्त्व का निर्णय करना कितनी भूल हैं। हाँ, यदि किसी समाज के ही मनुष्य ने, जो उसके विषय में पूर्ण परिचित हो, लिखा हो तो उसके अनुसार वैदेशिक के भी लेख मानने में कोई हर्ज नहीं हैं। भला यह कितनी बड़ी भूल हैं कि जब आज तक दोनों तरफ बराबर सैकड़ों लड़के-लड़कियों के विवाह हो रहे हैं, तो केवल चन्द ही बतलाना, सो भी बीते हुए, न कि वर्तमान? उसी मनुष्य गणना की रिपोर्ट में पूर्वोक्त ही स्थान में जो यह लिखा गया हैं कि :

The name Bhumihar Brahman has been recognized by Government, and they are now returned as Babhan (Bhumihar Brahman). It was however, impossible to have given them a name and status not recognized by their co-religionisto, and also because in the returns they would have been merged in the main body of Brahmans, and all record of them as a community would have been lost.

अर्थात् ''गवर्नमेण्ट ने भूमिहार ब्राह्मण नाम को स्वीकार किया हैं। इसलिए अब ये लोग 'बाभन (भूमिहार ब्राह्मण)' इस प्रकार से रिपोर्ट वगैरह में लिखे जाते हैं। इन लोगों को ऐसा नाम (ब्राह्मण) और ऐसा स्थान देना असम्भव था, जिसे कि इनके सधर्म (समान धर्म वाले ब्राह्मण, क्षत्रियादि) स्वीकार नहीं करते। और ऐसा करने से, अर्थात् केवल 'ब्राह्मण' लिख देने से, ब्राह्मणों में ही वे लोग भी मिल जाते और इनके एक पृथक् समाज होने की सब बात ही लुप्त हो जाती।'' इससे पहला कारण जो यह दिखलाया गया हैं कि इन लोगों (भूमिहार ब्राह्मणों) को ब्राह्मण-क्षत्रियादि ब्राह्मण नाम देना स्वीकार नहीं करते, वह कहाँ तक सत्य हैं इसके लिए विशेष कहने की आवश्यकता नहीं हैं। क्योंकि जब सभी ब्राह्मणों के साथ इन लोगों से विवाह सम्बन्ध और खान-पान मिले हुए हैं, तो हम नहीं समझते कि इससे अधिक ब्राह्मण स्वीकार करना किसको साहब बहादुर ने समझा हैं। क्या अन्य ब्राह्मणों में भी एक-दूसरे को ब्राह्मण स्वीकार करने के लिए सिवाय खान-पान और विवाह सम्बन्ध के और भी कोई रजिस्टरी वगैरह की जाती हैं? क्या कोई ब्राह्मण अपने से भिन्न क्षत्रियादि के साथ विवाह वगैरह करते देखा गया हैं?

बल्कि उधर तो मैथिल केवल मैथिल को ही ऐसा स्वीकार करता हैं ऐसे ही अन्य ब्राह्मण भी, परन्तु ईधर तो सभी ब्राह्मण स्वीकार कर रहे हैं। इसलिए इससे बढ़कर और क्या होना चाहिए? क्योंकि एक काम केवल बातों से ही किया जाता (Theoratical) हैं, परन्तु दूसरा कार्य रूप में परिणत (Practical) करके दिखलाया जाता हैं। उनमें से द्वितीय पक्ष को ही श्रेष्ठ मानते हैं और इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के विषय में दूसरा ही पक्ष हैं, इसे सिद्ध ही कर चुके हैं।

 

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