(11)प्रान्तीय
किसान कॉन्फ्रेंसें
सन्
1935
ई. में हाजीपुर में जो प्रान्तीय किसान
कॉन्फ्रेंस हुई थी उसके बाद अगले साल बीहपुर (भागलपुर) में होने को
थी। वह साल बीतते न बीतते हो भी गयी। श्री जयप्रकाश नारायण सभापति
थे। यहाँ तक कोई खास दिक्कतें न हुईं। वह तो आगे आने वाली थीं! हाँ,
बीहपुर में ही 'जनता'
नामक साप्ताहिक
पत्र
हिन्दी में निकालने और उसके लिए
'जन
साहित्य संघ' स्थापित करने का विचार
मित्रो
ने किया। मगर मैंने साफ कह दिया कि मैं उसमें पड़ नहीं सकता। अखबारों
और संस्थाओं के जो कटु अनुभव मुझे हुए थे उनके बल पर ही मैंने
'नाहीं'
की। खास कर पैसे का प्रश्न था और सार्वजनिक पैसे
को जिस लापरवाही से हम लोग देखते और प्रयोग या दुरुपयोग करते हैं वह
मुझे बराबर अखरता है। हजार कहने पर भी और कुछ दोस्तों के रंज हो जाने
पर भी, क्योंकि मैंने उनके गुण-दोष साफ
सुना दिये, मैंने 'हाँ'
नहीं ही किया। फिर भी श्री जयप्रकाश नारायण ने
मेरा नाम उसमें मेरी रजामन्दी के बिना ही दे दिया। मैं मुरव्वतवश
इनकार न कर सका। यही मेरी भूल थी। उसका फल भी चखना पड़ा।
हाँ,
तो
बीहपुर में दूसरे दिन सभापति जी किसी अनिवार्य काम से चले गये और
मुझे ही अध्यक्षता करनी पड़ी। हमारी सभा में झण्डे का सवाल पहले से ही
छिड़ा था। वहाँ वह तेज हो गया कि कौन-सा झण्डा रखा जाय। बहुत लोग लाल
और तिरंगे को एक ही साथ रखने के पक्ष में थे। इसको लेकर वहाँ बड़ी
चख-चुख रही। कुछ कांग्रेसी दोस्तों ने बड़ी गड़बड़ी भी मचाई। प्रस्ताव
तो यही रखा गया था कि इस मामले में सभी सभाओं से राय माँग कर फैसला
करें। मगर कॉन्फ्रेंस में ऊधाम मचाया गया। शाम का समय था। फिर रात हो
गयी। घण्टों कुछ लोग,
कुछ
जवानों और छात्रो को बहका के (हू-हू) और शोर करते रहे। मेरे साथी
बार-बार घबराये। मगर मैं ठण्डा रहा। कई बार समझाया,
हाथ
जोड़ा। पर,
जब वे लोग चुप
न हुए तो मैंने कहा कि इन्हें थक जाने दो। फिर काम होगा। हुआ भी वही।
जब वे लोग थक के ठण्डे पड़े तो फिर काम शुरू हो के पूरा हुआ। यदि मैं
घबराता,
तो सारा गुड़
गोबर ही हो जाता।
सन्
1937
में हमारी कॉन्फ्रेंस मुंगेर जिले के बछवारा में होने को थी। महन्त
सियाराम दास स्वागताध्यक्ष थे और पं. यदुनन्दन शर्मा सभापति। लेकिन
मुंगेर जिला कांग्रेस कमिटी,
प्रान्तीय कार्यकारिणी और प्रधानमन्त्री की सारी ताकत लगाकर उसका
विरोध किया गया,
ताकि
वह विफल हो जाये। फिर भी परिणाम यह हुआ कि किसान-सभा के इतिहास में
वह अद्वितीय कॉन्फ्रेंस हुई। उसमें लाखों से ज्यादा किसान सम्मिलित
हुए! हाँ लाखों से ज्यादा!
बात यह थी कि
उसी साल मुंगेर जिला कांग्रेस कमिटी ने प्रस्ताव कर दिया कि कोई भी
कांग्रेसी किसान-सभा में भाग न ले। पीछे उसका समर्थन प्रान्त की
कार्यकारिणी ने भी कर दिया। प्रधानमन्त्री का तो वह जिला ही ठहरा!
इधर
वहाँ के हमारे प्रमुख किसान कर्मी ठहरे पं. कार्यानन्द शर्मा जो
पक्के कांग्रेसी हैं।
स्वागताध्यक्ष
का भी वही हाल! इसलिए कठिनाई हुई।
स्वागताध्यक्ष
ने वहाँ के कांग्रेसी नेताओं के पाँव पड़ के आरजू की कि सम्मेलन होने
दीजिये। मगर वे तो अभिमान में चूर थे। डिस्ट्रिक्ट बोर्ड उनका,
कांग्रेस कमिटी उनकी और
मन्त्री
लोग उन्हीं के! फिर तो
'करैला
नीम पर चढ़ गया'!
इतना ही नहीं
कि सिर्फ वह प्रस्ताव पास हुआ। हमारे बछवारा सम्मेलन को विफल करने के
लिए कांग्रेस की सारी ताकत लगी। महीनों पहले सैकड़ों स्वयंसेवकों के
जत्थे बाजे-गाजे के साथ उस इलाके में भेजे गये,
ताकि
लोगों को गुमराह करें,
रोकें।
मगर नतीजा उलटा हुआ और उन्हें मुँह की खानी पड़ी। स्वागताध्यक्ष ने
अपने भाषण में सबको रुला दिया,
जब
उन्होंने सारी दास्तान सुनाई। स्वयं भी ऑंसू बहाते रहे। सभापति का
भाषण तो निराला ही रहा। उसमें सुधारवादी नेताओं की मनोवृत्ति की कड़ी
समालोचना थी।
सारांश,
उस
सम्मेलन ने हमारी धाक जमा दी। जब लोग लम्बे से पण्डाल में ऍंट सके
नहीं,
तो अलग भी
मीटिंग करनी पड़ी! लाउडस्पीकर के होने पर भी यह हालत थी!
वहीं बिहार
प्रान्तीय प्रथम ऊख सम्मेलन पं. यमुना कार्यी की अध्यक्षता में हुआ।
उसके बाद नेताओं तथा मन्त्रियों ने हमारे दमन की आशा छोड़ किसानों का
फायदा पहुँचाने की ओर ध्यान देना शुरू किया।
छठा बिहार
प्रान्तीय किसान सम्मेलन दरभंगा जिले के बैनी (पूसा रोड स्टेशन) में
सन् 1939
के शुरू में हुआ। दरभंगा जिले के कांग्रेसी नेता तो सदा से ही
किसान-सभा को फूटी ऑंखों देख न सकते थे।
फलत: सारी
ताकत से उसका
विरोध
किया। फिर भी लाखों किसान आये और हम पूर्ण सफल रहे। पण्डाल और उसकी
सजावट वहाँ की खास बात थी। पं. रामनन्दन मिश्र
स्वागताध्यक्ष
थे। उनके तथा पं. धनराज शर्मा,
पं. यमुनाकार्यी, डॉ.
रामप्रकाश शर्मा एवं उनके साथियों के अटूट परिश्रम और पूर्ण तत्परता
का नतीजा था कि
शत्रुओं
की एक भी न चली। उसके
अध्यक्ष
थे बड़हिया-टाल सत्याग्रह के योध्दा पं. कार्यानन्द शर्मा। खूबी यह
रही कि सभापति अपने लाल कुर्ती वाले सैकड़ों किसान सेवकों के साथ
प्राय: अस्सी मील पैदल चलकर नंगे पाँव ही वहाँ पहुँचे थे!
वहीं श्री
श्यामनन्दन सिंह एम.एल.ए. की अध्यक्षता में द्वितीय प्रान्तीय ऊख
सम्मेलन भी हुआ।
सन्
1939
के अन्त में होने के बजाय सन्
1940
के फरवरी मास में सातवाँ प्रान्तीय सम्मेलन चम्पारन जिले के मोतीहारी
में खूब ठाट-बाट के साथ हुआ। मोतीहारी में किसान आन्दोलन का जन्म तो
सन् 1927
ई. के बहुत कुछ बीतने पर हुआ ही। साथ ही,
उसे
गांधीवादियों के जिस प्रबल और संगठित विरोध का सामना करते हुए आगे
बढ़ना पड़ा वह एक निराली चीज है। वह गांधी जी का जिला माना जाता है।
वहाँ गांधीवाद के सिवाय और बातों का नाम लेना भी पाप समझा जाता था!
फिर तो किसान-सभा की बात
'काबे
में कुफ्र'
की बात
हो गयी! इसीलिए सारी दिक्कतें हुईं! मगर हमारे बहादुर और धनी
कार्यकर्ताओं ने खूब ही किया। आज तो वहाँ किसान-सभा काफी दृढ़ है।
फलत: सम्मेलन के पण्डाल आदि की रचना तो दर्शनीय थी ही। उसकी सफलता भी
अच्छी रही और कुछ बाहरी नेता भी आये। स्वागताध्यक्ष थे श्रीमहन्त
धनराजपुरी और सभापति श्री राहुल सांकृत्यायन।
वहीं पर मेरी
अध्यक्षता में बिहार प्रान्तीय तृतीय ऊख सम्मेलन बहुत जम के हुआ।
मेरा भाषण छपा था।
उसमें ऊख
वाले किसानों की सारी समस्याओं का पूरा विचार है। असल में ऊख वाले
किसानों की समस्या अब इतनी गहरी और पेचीदी हो गयी है कि उसे अच्छी
तरह हाथ में लिये बिना काम नहीं चल सकता। सचमुच प्रान्तीय ऊख-सम्मेलन
असल में मोतीहारी में ही हुआ। दस-बारह प्रस्ताव भी पास हुए जो सारी
समस्याओं पर पूरा प्रकाश डालते हैं। एक उपसमिति भी बनी जो विधान
तैयार करेगी। नियमित रूप से पदाधिकारी भी चुने गये। इसका सबसे सुन्दर
परिणाम यह है कि बिहटा के इलाके में जो बाकायदा ऊख संघ अब तक न था वह
बन गया और फी बीघा एक आना पैसा देकर ऊख वाले किसान उसके सदस्य बने
हैं। उसकी सफलता के फलस्वरूप प्रान्त भर में ऐसे ही ऊख संघ शीघ्र
बनेंगे। बिना ऐसा किये काम चल नहीं सकता।
(शीर्ष पर वापस)
(12)किसानों
के प्रदर्शन
सन्
1937
और सन् 1938 में बिहार
में किसानों के अनेक विराट प्रदर्शन पटना शहर में हुए,
जिनमें प्रान्त के कोने-कोने से लाखों किसान जमा
हुए। तारीफ तो यह कि किसान कोष के लिए वे लोग पैसे भी साथ लेते आये।
सिपाहियों की ही तरह कतार बाँध कर शहर में आये,
जिससे रास्ता भी बन्द न हुआ और लोग प्रभावित भी
खूब हुए! यों तो दूसरे शहरों में भी प्रदर्शन हुए। गया के पहले विराट
प्रदर्शन की बात सन् 1933 ई. में ही कह
चुके हैं। पटने के पहले प्रदर्शन की बात भी लिखी चुके हैं।
19वीं
नवम्बर को&सन्
1937
में ही किसान-माँग-दिवस प्रान्त भर में शान से
मनाया गया। हमने तय किया कि जितने चुनाव-क्षेत्र
असेम्बली के हैं,
प्रत्येक में किसानों का जमाव एक ही दिन और एक ही
समय हो। वहाँ से चुने गये कांग्रेसी प्रतिनिधि भी उसमें शामिल रहें।
यों न आयें तो किसान उन्हें खामख्वाह बुलायें और उन्हीं के सामने
अपनी माँगें वे पेश करें। हमने सभी स्थानों के लिए एक सम्मिलित माँग
तैयार की थी। एक ही दिन प्रान्त के सैकड़ों स्थानों से उन्हें
दुहरवाया। कोशिश यह रही कि चुनाव-क्षेत्र
के कोने-कोने से लोग जमा हो
जाये।
गाजे बाजे,
किसान गाने और नारों के साथ प्रदर्शन में आये।
इसमें हमें पर्याप्त सफलता मिली। फिर 26-11-37
को पटने में एक लाख किसानों का दूसरा प्रदर्शन हुआ।
इसी प्रकार
सन् 1938
ई. में भी पटने में दो भारी प्रदर्शन हुए। पहला तो हुआ गर्मियों में
बाँकीपुर के मैदान में। दूसरा भी वहीं हुआ,
मगर
बरसात में। गर्मियों में जो जमाव हुआ था उसका जुलूस भी सभा के बाद
शहर में निकला बड़े ठाट के साथ। किसान-सभा के कार्यालय में आ के उसकी
समाप्ति हुई। इसमें कांग्रेसी मिनिस्टर डॉ. महमूद आदि भी शामिल थे और
कुछ बोले भी। उन्हीं के सामने हमने किसानों की माँगें पेश कीं और
उन्हें मौका दिया कि वे क्या जवाब देते हैं। पीछे हमने उनकी बातों का
जवाब दिया और किसानों से राय भी ली।
जब बरसात में
हमने ता. 15-7-38
को प्रदर्शन की सूचना निकाली तो जमींदारों और सरकार ने बहुत विरोध
किया। असल में मेरे सम्बन्ध की
'लट्ठ
हमारा जिन्दाबाद'
वाली
बात तब तक काफी फैलाई जा चुकी थी। फलत: जमींदारों के अखबार ने झूठे
ही लिख के सरकार को उभाड़ा कि किसान लोग भाले,
बर्छे
और लाठी से लैस होकर आ रहे हैं। हमने इसका खण्डन तो कर दिया और
किसानों को यह भी आदेश दिया कि रास्ते में कहीं कोई छेड़े भी तो न
बोलें। क्योंकि पैदल ही आने वाले थे। फिर भी सरकार ने पटने में पुलिस
ऐक्ट और 144
धारा
लगा ही तो दी। शहर से बाहर और देहातों में जमींदारों के आदमी और
पुलिसवाले किसानों को भड़काते और डरवाते रहे कि मत जाओ,
गोली
चलेगी। ताहम कौन मानता है। खेती के दिन,
बरसात
और यह सभी कुचक्र होते हुए भी पचासों हजार किसान जमा हुए।
खड़ी फसल की
जब्ती वाला कानून बन रहा था। हमें उसका तीव्र प्रतिवाद करना था।
इसीलिए सारी शक्ति हमने लगा दी। हर प्रदर्शन के समय इसी तरह की खास
बातें रहती थीं। इस बार तो कांग्रेसी लोग भी विरोध कर रहे थे।
मिनिस्टरों के बँगलों के चारों ओर और असेम्बली भवन को भी घेर कर लाल
पगड़ीवाले खड़े थे। घुड़सवार और दूसरे हथियारबन्द भी थे। मिनिस्टरों की
यह हालत देख किसानों की ऑंखें खुल गयीं!
खैर,
सभा
हुई। हसबमालूम मैं ही सभापति था। हर बार मैं ही होता था,
सिवाय
पहली बार के। क्योंकि था नहीं। उसी में यह भी तय पाया था कि इस बार
असेम्बली भवन,
हाईकोर्ट,
सेक्रेटेरियट
की ओर जुलूस चलेगा और मैं ही आगे-आगे चलूँगा। किसी ऊँची सवारी पर चढ़
के,
ताकि किसान
इधर-उधर न जाये और असेम्बली में न घुसें,
जैसा
कि पहली बार जा घुसे थे। वही हुआ। एक मील लम्बा जुलूस था और खूबी यह
कि बहुत ही चौड़ी खचाखच सड़क भरी थी। थोड़ा-थोड़ा पानी भी पड़ता था। कई
घण्टे लगे। मैंने इतने नारे लगाये कि मुझे भी ताज्जुब था कि क्या हो
गया था। खूब मस्ती थी। हमने सरकारी महल्ले को उस दिन हिला दिया।
गत दोनों
प्रदर्शनों में दानापुर के गोलेदार लोग भीगा चना,
हरी
मिर्च और नमक ला के बाँटते थे,
ताकि
दूर से आये और भूखे किसान जलपान कर लें।
मुझसे पीछे
भेंट होने पर भी मुल्कराज आनन्द ने कहा कि इन प्रदर्शनों के समय वे
स्पेन में तथा दूसरे मुल्कों में थे। वहाँ वे इनका वर्णन पढ़ के उछलते
थे। कहते थे कि एक-एक प्रदर्शन से स्पेन की लड़ाई में वहाँ की किसान
मजदूर सरकार को काफी सहायता मिली। क्योंकि इनसे पता चलता था कि जब
किसानों में असन्तोष और बगावत के भाव भर रहे हैं तो अंग्रेजी सरकार
कमजोर हो रही है और उसके कमजोर होने का मतलब ही था स्पेनवालों की
हिम्मत का बढ़ना एवं उन्हें अधिक सहायता का मिलना! प्रदर्शनों का इतना
बड़ा महत्त्व है!
(शीर्ष पर वापस)
(13)बुध्दिभेद-लट्ठ
हमारा जिन्दाबाद
सन्
1937
की फरवरी में चम्पारन जिला कांग्रेस कमिटी ने एक
प्रस्ताव के द्वारा यह तय किया कि स्वामी सहजानन्द सरस्वती का जो
दौरा चम्पारन में होने वाला है वह रोका जाय,
उसमें कोई कांग्रेसी भाग न ले और स्वामी जी को
लिखा जाय कि आपके दौरे से यहाँ के लोगों में 'बुध्दि
भेद' पैदा होने का डर है। अत: यहाँ दौरा न
करें! मेरे पास वहाँ से कोई
पत्र
तो न आया। मगर मेरे दौरे को विफल करने में वहाँ के कांग्रेसियों ने
सारी शक्ति लगा दी! असल में चम्पारन ने तो पथ-प्रदर्शन मात्र किया।
मगर यह बात प्रान्त के कांग्रेस के लीडर नहीं चाहते थे कि किसान-सभा
कायम रहे। इसीलिए चम्पारन के बाद ही सारन में भी यही बात हुई और
मुंगेर की तथा प्रान्त की कांग्रेस कमिटी ने भी ऐसा ही किया। यह तो
पहले ही लिखा जा चुका है।
चम्पारनवालों
ने गीता के 'न
बुध्दिभेदजनयेद्'
का
अच्छा अर्थ लगाया। उन लोगों ने चाहा कि गांधीवाद के सिवाय वहाँ कोई
आवाज सुनाई न पड़े,
जैसी
कि तब-तक हालत थी। मगर मेरे पहले-पहल होने वाले दौरे के बाद
किसान-सभा स्थापित हो जाने पर उसमें खतरा था।
मगर मेरा
प्रोग्राम तो रुकता नहीं। अत: शुरू मार्च से चौबीस मीटिंगें जिले भर
में करने का प्रोग्राम शुरू हो गया! विरोध भी सारी ताकत लगाकर किया
गया! न सिर्फ लोगों को रोका गया,
वरन्
काले झण्डे का प्रदर्शन भी जगह-जगह किया गया! अजीब चहल पहल थी! मगर
मेरी तो हालत है कि
'रोके
भीम होय चौगुना'।
जहाँ तक याद है,
चौबीस
में बाईस मीटिंगें तो हुईं! तीन मीटिंगें न हो सकीं और एक अन्य नयी
मीटिंग हो गयी। ऐसा भी हुआ कि लौरिया जैसी जगहों में केवल
25-50
आदमी ही रहे।
बाकी दूर खड़े तमाशा देखते थे,
गोया
मीटिंग में जाने से पाप लगेगा!
कुछ
मीटिंगों में तो हजारों लोग आये,
खासकर
शहरों में और कई देहातों में भी। मोटे अन्दाज से फिर भी
40-50
हजार लोगों ने
मेरी बातें सुनीं। तारीफ थी हमारे नये कार्यकर्ताओं और प्रबन्धकों
की। 'जिमि
दशनन महँ जीभ बेचारी'
की दशा
में भी उनने सारी ताकत लगा दी। पीछे हम मीटिंगें करते थे,
और आगे
वे लोग बढ़ते जाते थे।
भित्तिहरवा
में तो जगह तक न मिल सकी! तब नूरमुहम्मद नामक एक मुसलमान जवान ने,
जो
मुझे जानता तक न था अपने खेत की कच्ची मटर उखाड़ डाली और वहीं सभा
करने को कहा! उस पर कितना दबाव पड़ा था वह पीछे पता चला। बायकाट की
धमकी के सिवाय उसके भाई के जो कुछ रुपये कहीं पड़े थे,
उन्हें
हड़प लेने तक की धमकी हुई,
पर,
उसने
एक न सुनी। उसके तैयार होने पर तो पीछे सड़क के ही पास जमीन मिली और
शामियाना भी। मैंने वहीं सभा भी की। मगर सभा के बाद सभी के साथ मैं
उस खेत पर गया और उसकी मिट्टी सिर पर लगाकर कहा कि किसान-सभा के
इतिहास में यह खेत और यह मुसलमान जवान अमर रहेंगे। ऐसे ही लोग इसकी
जड़ दृढ़ करेंगे। वह जवान उसके बाद इस साल मोतीहारी में कॉन्फ्रेंस के
समय मिला।
एक सभा में तो
जब विरोधियों की कुछ न चली तो मीटिंग में ही शोरगुल करते रहे और
बोलना चाहा। मैं बोलना बन्द करके चला आया। पीछे न जाने क्या-क्या बक
गये।
इसी दौरे में
जिला किसान-सभा का जन्म हुआ। दस दिन में दौरा खत्म हुआ। इसके बाद
दूसरा दौरा सन्
1938
के गर्मियों में हुआ। तब तक तो हमारे आदमी मजबूत हो चुके थे।
कांग्रेस के लोगों ने भी वैसा विरोध न किया। फिर भी मोटरें दौड़ीं।
मुकाबले में दूसरी सभाएँ की गयीं। लोगों को धमकियाँ दी गयीं। मगर
सुनता कौन था?
पहली
बार जो न आये वह पीछे पछताते रहे। अत: इस बार उन्होंने प्रायश्चित्ता
किया। उसके बाद तो जब मैं आश्विन में विजयदशमी के समय बेतिया मेले के
समय सभा करने गया तो सभा में ही वहाँ के नेता श्री प्रजापति मिश्र ने
पूर्व की भूलों के लिए क्षमा माँग ली। फिर तो झमेला ही खत्म हुआ।
उनकी माफी ने किसान-सभा की धाक जमा दी। उन्होंने गांधीवाद के
सिध्दान्त के अनुसार क्षमा माँग ली थी। ठीक ही था। मैं भी पिछली
बातें भूल ही गया!
चम्पारन के
पहले दौरे के बाद सारन (छपरा) जिले में भी दौरा हुआ। वहाँ भी
कांग्रेस के नेताओं ने खासा विरोध किया। राजेन्द्र बाबू और प्रान्तीय
कांग्रेस कमिटी का हुक्म छपवा कर बाँटा गया और इस तरह लोग रोके गये।
काले झण्डे भी कई जगह दिखाये गये!
भैरवा में
तो उनके साथी मारपीट पर उतारू थे। फलत: सभा छोड़ देनी पड़ी।
आगे-आगे मोटर पर कांग्रेस के नेता लोग दौड़ते जाते,
सभा स्थान पर हुक्मनामा सुनाते और मना करते थे।
मगर उनके जाने के बाद फिर लोग जमा हो जाते और मेरे जाने पर मेरी बात
सुनते थे। कटया में काले झंडे लेकर लड़के लोग नाकों (रास्ते की
मोड़ों) पर खड़े थे। मगर जब लोग टूट पड़े तो वे भी शामिल हो गये।
वहीं 'स्वामी जी लौट जाइये'
सुनाई पड़ा। मगर पहली बार के दौरे में भी हमारा
काम बन गया। जब 1938 की फरवरी में हम
दोबारा गये तो
विरोध
का वह तरीका छोड़ दिया गया! मगर शराबबन्दी वाली सरकारी लौरी पर चढ़कर
उसी के प्रचार के बहाने नेता लोग गये और हमारे चले आने पर एक-दो
सभाओं में ऊलजलूल बोले भी। पहले तो नहीं। मगर पीछे हमें मालूम हुआ,
फिर तो तीसरी या चौथी सभा में ही उनकी दुर्दशा
हुई। भैरवा में भी इस बार उन्हें मुँह की खानी पड़ी। सिवान में तो वे
लोग बोलने ही न पाये। लोग मेरे बाद उनकी सुनने को तैयार न थे।
गोपालगंज में मेरी सभा के बगल में ही सभा करके मेरे ही साथ जिला
कांग्रेस कमिटी के सभापति चिल्लाते थे। पर,
नतीजा कुछ न हुआ।
एक जरूरी बात,
मेरे
सामने एक भीषण समस्या इधर कुछ वर्षों से खड़ी थी। मैं समझने लगा था कि
कांग्रेस के नेता अन्त में किसानों को धोखा देंगे। नतीजा होगा कि
कांग्रेसी होने के नाते हम किसान-सभा वालों पर भी किसानों का
अविश्वास हो जायगा। फलत: इसका उपाय होना चाहिए। मगर रास्ता सूझता न
था। यदि किसान- सभा को कांग्रेस से अलग किसानों की खास संस्था कहते
तो वे लोग खामख्वाह कांग्रेस की अपेक्षा सभा में ज्यादा प्रेम करते!
फलत: कांग्रेस कमजोर होती! अगर ऐसा कुछ न कहते तो अन्त में गड़बड़ी का
खतरा था। अजीब पहेली थी। मेरी परेशानी तथा मनोवेदना बेहद्द थी।
इसी बीच सारन,
चम्पारन और मुंगेर में उक्त घटनाएँ हुईं,
जिन पर
प्रान्तीय कांग्रेस ने एक प्रकार से मोहर लगा दी! फलत:,
कुछ
रास्ता साफ हुआ।
लेकिन मेरे
ऊपर हिंसा का इलजाम लगाकर सन्
1938
की फरवरी में जो मेरी और किसान-सभा की निन्दा का प्रस्ताव प्रान्तीय
कार्यकारिणी ने खास राजेन्द्र बाबू की
अध्यक्षता
में पास कर दिया उससे मेरा रास्ता कतई साफ हो गया!
उन लोगों
ने ही किसान-सभा को कांग्रेस से अलग सिध्द कर दिया! इसका खूब प्रचार
भी किया। उनके ही आदमी कहने लगे कि अमुक व्यक्ति किसान-सभा वाले हैं
और अमुक कांग्रेसी।
मैंने उस
प्रस्ताव के बाद प्रान्तीय कार्यकारिणी से इस्तीफा दे दिया।
बात यह
थी कि मैं उसका मेम्बर था। फिर भी बिना मुझे एक मौका दिये ही मेरी
अनुपस्थिति में ही वह प्रस्ताव पास किया गया। अत: वह अक्षम्य था।
मेरे पास उस मीटिंग की खबर तक न पहुँची! फलत:,
मैं पूर्वोक्त दौरे के लिए छपरा चला गया। शायद
ठीक मीटिंग के दिन वह नोटिस बिहटा गयी हो। मगर इससे क्या?
मुझे तो खबर नहीं ही मिली। यदि ऐसी ही जरूरत थी
तो मुझे तार क्यों न दिया गया? मैं जानता
हूँ कि और मेम्बरों को तार दिया गया था और पीछे यह खबर छपी थी। चाहे
जो भी हो, मुझे तो खास तौर से खबर देना
जरूरी था। मीटिंग टल नहीं सकती थी क्या?
क्या इतना जरूरी था कि 13 फरवरी को ही
प्रस्ताव पास हो? क्या बिगड़ रहा था?
क्या छपरे वाले मेरे प्रोग्राम को जानबूझ कर चौपट
करना था, क्योंकि उसकी खबर पहले से ही छपी
थी? किसी भी हालत में मैं उस घोर अन्याय
को बर्दाश्त क्यों करता? मेरा
स्वाभिमान मुझे कहता था कि ऐसी कमिटी से फौरन हटो।
अब जरा
'लट्ठ
हमारा जिन्दाबाद'
या
डण्डा कल्ट (Danda cult)
की बात
सुनिये। वह मेरे
सम्बन्ध
में एक ऐतिहासिक चीज हो गयी है। उसकी ओर न सिर्फ कार्यकारिणी के उक्त
प्रस्ताव में इशारा था। प्रत्युत कानपुर में एक लम्बा वक्तव्य देकर
स्वयं बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने मेरे
सम्बन्ध
में उसका स्पष्ट उल्लेख किया था! कहा गया कि मैं किसानों से कहता
फिरता था कि जमींदारों से साफ कह दें कि
'कैसे
लोगे मालगुजारी, लट्ठ हमारा जिन्दाबाद'।
मगर मेरी सभी स्पीचों की शार्टहैण्ड रिपोर्ट तो बराबर दो सी.आई. डी.
के इंस्पेक्टर लिखा करते थे। अत: मैंने ललकारा कि उसे पढ़ कर यह चीज
सिध्द कीजिये तब जानूँ। श्री महादेव देसाई ने 'हरिजन'
में इसी बारे में लम्बा लेख मेरे ही
सम्बन्ध
में लिखा था। मैंने उनका जवाब भी करारा दिया था। वह हरिपुरा कांग्रेस
के समय अखबारों में निकला था। न जाने यह चीज कहाँ से और कैसे गढ़ी
गयी! मिथ्याप्रचार की हद की गयी! वाह रे सत्य!
धन्य
रे अहिंसा!
लेकिन यह जरूर
है कि मैं किसानों को आत्मरक्षार्थ लाठी या डण्डा चलाने को कहता था।
करता भी क्या?
किसान
थर्राते रहते,
जमींदार के अमले जूतों तथा डण्डों से उन्हें दुरुस्त करते और घर की
चीजें लूट लेते थे! यहाँ तक कि बहू-बेटियों की इज्जत नहीं बच पाती
थी! मैंने हजारों सभाओं में उन्हें समझाया सही कि यह गैरकानूनी काम
है। इसे बन्द कीजिये। नहीं तो ठीक न होगा। मगर सुने कौन?
किसान
तो मुकाबिला करेंगे नहीं। वे गरीब हैं,
कमजोर
हैं,
इसलिए केस में
भी पार पायेंगे नहीं। फिर क्या परवाह,
यही वे
सोचते थे।
तब मैंने
आत्मरक्षार्थ डण्डे आदि का प्रयोग किसानों को खुलेआम बताना शुरू
किया। जाब्ता फौजदारी कानून इसका समर्थन करता है यह भी उन्हें
समझाया। फिर तो किसानों की ऑंखें खुलीं। दो-एक जगह शैतानों को उनने
दुरुस्त भी किया। फलत: यह शैतानियत और वह आतंक राज्य सदा के लिए खत्म
हुआ। यही है मेरा डण्डावाद या डण्डाकल्ट। इससे गांधीवादी बिगड़े जरूर।
यहाँ तक कि मेरे साथी लोग भी काँय-काँय करने लगे कि अब इसे बन्द
करें। मगर मैंने साफ कह दिया कि यह उपदेश तो किसानों के लिए अमृत है।
इसे क्यों छोडे?
यह तो
कानूनी हक है। फिर क्या बात?
लोगों
ने कहा,
कांग्रेस इसे
रोकती है। मैंने जवाब दिया कि वह अहिंसा केवल आजादी की लड़ाई के लिए
ही है।
मगर इधर कुछ
ऐसा हो गया था कि सर्वत्र अहिंसा के नाम पर नामर्दी का पाठ पढ़ाया
जाने लगा था कि कहीं मत बोलो। हालाँकि,
गांधी
जी ने ही अहिंसा के नाम पर नामर्दी की अपेक्षा हिंसा को अच्छा कहा
है। सो भी बार-बार। मगर सुनता कौन था?
लेकिन
खुशी है कि इसी जून सन्
1940
ई. में पुन: वर्किंग कमिटी ने साफ कह दिया है कि अहिंसा का प्रयोग
सिर्फ आजादी के युध्द के ही लिए है,
न कि
और जगह के लिए भी। आज हमारे आका लोग भी इसे पसन्द करते हैं। क्योंकि
उन्हें जर्मनी के विरुध्द सशस्त्र युध्द की जरूरत है न?
यही है मेरा
डण्डाकल्ट और डण्डावाद। असल में मैं तो दण्डी संन्यासी कहाता ही हूँ।
मेरे पास बाँस का एक दण्ड सदा रहता है। मगर वह अब तक धार्मिक था।
लेकिन अब वह राजनीतिक और आर्थिक हो गया! इसीलिए उसी बुध्दि से मैंने
उसे अभी तक अपना रखा है। इस डण्डावाद ने उसमें मेरा नया प्रेम और
मेरे लिए नया महत्त्व पैदा कर दिया है। इसी के सम्बन्ध से शायद यह
डण्डावाद मेरे नाम से प्रसिध्द होने को था!
(शीर्ष पर वापस)
(14)बड़हिया,
रेवड़ा
सन्
1936
से लेकर 1939 तक बिहार
में कई
महत्त्व
पूर्ण लड़ाइयाँ किसानों ने लड़ीं,
जिनके करते न सिर्फ वे,
प्रत्युत बिहार की किसान-सभा काफी प्रसिध्द हुई।
यों तो उनकी छोटी-मोटी सैकड़ों भिड़न्तें जमींदारों और सरकार के साथ
हुईं। उनमें बड़हिया, रेवड़ा और मझियावाँ के
बकाश्त संघर्ष (सत्याग्रह) ऐतिहासिक हैं।
उनसे मेरा
घनिष्ठ
सम्बन्ध
भी रहा है। इसीलिए उनका संक्षिप्त वर्णन जरूरी है।
बड़हिया&इनमें
बड़हिया टाल का आन्दोलन सबसे पुराना है। वह कांग्रेसी मिनिस्ट्री बनने
के बहुत पहले सन्
1936
ई. के जून में
शुरू होकर सन्
1939
ई. के मध्य तक चलता रहा।
अभी भी आग
भीतर-ही-भीतर सुलग रही है। बड़हिया मौजा पटना से पूर्व ई. आई. आर. का
स्टेशन तथा मुंगेर जिले का बहुत बड़ा गाँव है। उससे
दक्षिण-पूर्व-पश्चिम और लाइन से दक्षिण की लाखों बीघा जमीन को बड़हिया
टाल सकते हैं। वह सख्त काली मिट्टी वाली है और उसमें सिर्फ रब्बी की
फसल होती है। वर्षा के शुरू में ही सारी जमीन पानी से भर जाती है और
अक्टूबर में सूखती है। उसे जोतने की जरूरत नहीं। सिर्फ बीज बो देते
और फागुन-चैत में तैयार फसल काट लेते हैं। फसल खूब उपजती है। इसीलिए
हजारों बीघे की खेती एक-एक जमींदार आसानी से करते हैं।
टाल में
टापुओं की तरह दूर-दूर पर गाँव बसे हैं। उनमें वर्षा में नाव से ही
आ-जा सकते हैं। सिर्फ एक हड़ोहर नदी बीच से गुजरती है। उसी का पानी
प्राय: सभी पीते हैं। शायद ही किसी-किसी गाँव में कुऑं है। फलत:
गन्दा पानी पीना ही पड़ता है। मुंगेर जिले में कांग्रेसी डिस्ट्रिक्ट
बोर्ड 15
वर्षों से है।
मगर गरीबों की खबर कौन ले?
वहाँ
पक्की सड़क का भला पता कहाँ?
वहाँ
के बाशिन्दे अधिकांश धानुक,
ढाढ़ी,
मल्लाह
वगैरह हैं। पुराने जमाने में वही जमीन के मालिक थे। बड़हिया तथा और
गाँवों के जमींदारों ने कल,
बल,
छल से
उनकी पीछे जमीनें छीन लीं। फिर भी बटाई के नाम पर उन्हें देते थे।
फलत:,
काश्तकारी
कानून के अनुसार उन जमीनों पर उन किसानों का कायमी हक हो गया है।
क्योंकि 12
वर्ष से ज्यादा तो सभी ने वे जमीनें जोती हैं।
बिहार के
जमींदारों के कब्जे में जो जमीनें हैं वे जिरात (सीर) और बकाश्त
(खुदकाश्त) दो ढंग की हैं।
सन्
1885
ई. से पहले जो जमीनें जमींदारों की खेती में लगातार 12
वर्ष रहीं, वही जिरात
कहाती हैं। वे तो निश्चित हैं। घट-बढ़ नहीं सकती हैं। मगर जो जमीनें
ऐसी न होने पर भी उनके कब्जे में कागजों में लिखी हैं वही बकाश्त
हैं। कानून यह है कि लगातार 12 वर्ष जिस
बकाश्त जमीन पर कोई रैयत (किसान) खेती करे
वह उसकी
कायमी (occupancy)
हो जाती
है। वैसा किसान फिर जिस बकाश्त को
1
साल भी जोतेगा वह भी उसकी कायमी हो जायगी। असल में किसान के पास कोई
मौरूसी या कायमी जमीन रहने पर ही जो भी जमीन वह जोतेगा वही कायमी
होगी। किसी मौजे में जिसके परिवार में 12
वर्ष तक लगातार खेती होती रहे वह ज्योंही बकाश्त जमीन जोतता है
त्योंही उसका कायमी हक उस पर हो जाता है।
इसी कानून के
अनुसार टाल के किसानों का हक हो गया था। मगर वे इसे जानते न थे।
जमींदारों को भी इसकी फिक्र न थी कि वे कभी जमीन पर दावा करेंगे।
जमींदारों ने प्राय: किसी के भी पास इसका सबूत रहने न दिया कि वह
जमीन जोतता है। रसीद या कागज-पत्र पर कुछ लिख के देते न थे! सारा काम
जबानी रहता था! फिर उन्हें फिक्र हो क्यों?
वे लोग
कांग्रेसी और प्राइम मिनिस्टर के लाड़ले हैं! इसलिए तो
'करैला
नीम पर ही चढ़ गया'।
इधर किसान
आन्दोलन ने जब किसानों में चेतना पैदा की और उन्हें उनका हक समझाया
तो उन्होंने उन जमीनों पर दावा किया। उधर जमींदारों ने उनका हक साफ
इनकार किया। बस,
यही
झगड़े की जड़ है। किसान केस तो लड़ सकते न थे। कारण,
कागजी
सबूत उनके पास न था। फलत: वहाँ के हमारे योध्दा पं. कार्यानन्द शर्मा
की राय से उन्होंने सत्याग्रह (सीधी भिड़न्त) शुरू किया। ऐसे ही
बकाश्त सत्याग्रह बिहार के रेवड़ा आदि गाँवों में हजारों जगह चले हैं।
किसानों ने,
उनके
सेवकों ने मारे खाईं,
हड्डिया तोड़वाईं,
वे जेल
गये,
लूटे गये! मगर
फिर भी जमीन पर से न तो हटे और न मार-पीट का उत्तर ही दिया। सैकड़ों
लालवर्दी वाले स्त्री-पुरुष इस संघर्ष का संचालन पं. कार्यानन्द
शर्मा के नेतृत्व में करते रहे। उनने हँस-हँस के सब कष्ट भोगे,
स्वयं
कार्यानन्द जी को दो बार उसी सिलसिले में जेल जाना पड़ा। दो-दो बार
घुड़सवार और हथियारबन्द पुलिस का धावा टाल में हुआ। पहली बार सन्
1937
के मार्च में
सैकड़ों की संख्या में,
और
दूसरी बार सन्
1939
में भी उन्हीं दिनों में। कभी तीन और कभी पाँच खास मजिस्ट्रेट भी
लगातार वहाँ रखे गये। यों तो जब फसल बोने का समय अक्टूबर-नवम्बर में
आया तभी खास पुलिस,
मजिस्ट्रेट और सवार भी पहुँचते ही रहे।
शर्मा जी पहली
बार सन् 1937
ई. में 5वीं
फरवरी को पकड़े गये और जून में छोड़े गये। उन पर तथा
19
और साथियों पर
120
बी., 117, 107
आदि धाराओं के अनुसार केस चले थे। वे पीछे खत्म हो गये! दो-ढाई सौ
किसान भी पकड़े गये। उन पर प्राय: झूठे केस चले। पीछे अधिकांश खारिज
हो गये। दूसरी बार शर्मा जी ता.
2-5-39
को गिरफ्तार हुए। उनके साथी भी पकड़े गये।
टाल के ही
सम्बन्ध में सन्
1936
के अक्टूबर में मुंगेर में,
सन्
1937
की फरवरी में शेखपुरा में,
1937
के अक्टूबर में लखीसराय में,
1938
के नवम्बर में लखीसराय में और
1939
के फरवरी में टाल में ही पाली में किसान सम्मेलन हुए। लखीसराय वाले
सम्मेलन में आते हुए सौ किसानों का जत्था श्री पंचानन शर्मा की
नायकता में बड़हिया में बुरी तरह पीटा गया! यों तो टाल के सत्याग्रह
में बूढ़े स्त्री- पुरुषों की हड्डिया भी टूटीं। मगर वे इतने शान्त
रहे कि सरकार के अफसरों को लाचार हो के कहना पड़ा कि सचमुच यही शान्ति
सेना है।
दूसरी
गिरफ्तारी के बाद ही पं. कार्यानन्द शर्मा और श्री अनिल मिश्र ने
'किसान-मजदूर
बन्दी राजबन्दी करार दिये जाये'
इस
माँग के लिए पूरे डेढ़ मास तक जेल में अनशन किया। अन्त में कांग्रेसी
मन्त्रियों ने उन्हें मरणासन्न समझ कर छोड़ा!
'किसान
बन्दी राजबन्दी'
इस
माँग के लिए श्री राहुल सांकृत्यायन को भी दो बार दस और अट्ठारह
दिनों तक अनशन करना पड़ा। वह हालत खराब होने पर ही जेल से दोनों बार
छोड़े गये। इसी सिलसिले में श्री जगन्नाथ प्रसाद और ब्रह्मचारी
रामवृक्ष (दोनों ही सारन जिले के हैं) ने पूरे
90
दिनों की भूख
हड़ताल जेल में की और मृत्युशय्या पर ही ये लोग भी रिहा हुए। यह सारी
घटनाएँ कांग्रेसी मन्त्रियों के समय में हुईं! मगर वे टस से मस न
हुए! उनने किसान या मजदूर बन्दियों को राजबन्दी नहीं ही माना!
पहली बार श्री
कार्यानन्द जी की गिरफ्तारी के बाद पं. यदुनन्दन शर्मा को हमने
प्रान्तीय किसान-सभा की ओर से टाल में भेजा। वे वहाँ चारों ओर घूमकर
देखभाल करते रहे। मुझे तो न जाने कितनी बार टाल में जाना पड़ा है।
सन्
1937
के जून में श्री राजेन्द्र बाबू,
श्री
कृष्ण सिंह आदि की एक कमिटी बनी। उनने कुछ फैसले भी किये,
गो
किसानों को उनसे ज्यादा लाभ न था। फिर भी हमने उन्हें मान लेने की
राय दी। मगर जमींदारों ने ही न माना। पीछे तो उस कमिटी का वह फैसला
ही दबा दिया गया।
फिर सन्
1938
के अक्टूबर में मुंगेर के कलक्टर ने एक दूसरी पंचायत बनाई और फैसले
का भार उसे सौंपा। उसने भी काफी गुड़ गोबर किया और बड़ी दिक्कत तथा
दूसरी बार शर्मा जी की अध्यक्षता में मुंगेर कचहरी पर ही धरना देने
के लिए किसानों के अनेक जत्थे पर जत्थे जाने लगे और शर्मा जी आदि की
गिरफ्तारी के बाद ही उसने कुछ किया। मुश्किल से केवल एक हजार बीघे
जमीन पर उसने किसानों का अधिकार बताकर उन्हें दिया। अभी उससे कुछ
ज्यादा ही जमीन पर किसानों का दावा बना है। कमिटी कुछ न कर सकी। हाँ,
इसी
बीच बड़हिया टाल से मिले कुसुम्भा टाल में
1800
बीघे जमीन पर जमींदार ने,
जो
पटने के कोई नवाब साहब हैं,
किसानों का हक मान लिया है।
सन्
1936
के जून में टाल के किसानों ने कलक्टर के पास पहली दरखास्त भेजी। उनके
दो जत्थे जाकर कलक्टर से मिले भी। उसी के बाद जमींदारों की नादिरशाही
शुरू हुई और इंच-इंच जमीन छीन ली गयी! फिर
1937
के बीतते-न-बीतते कमरपुर में किसान खूब पिटे। उलटे
32
के ऊपर 107
का केस भी जमींदारों ने चलाया। बस,
सारा
गाँव उजड़कर बाल-बच्चे,
पशु
आदि के साथ रवाना हुआ। साथ में लम्बे-लम्बे पोस्टरों पर जमींदार का
नाम और अत्याचार मोटे अक्षरों में लिखा था! कई दिन चलकर वे लोग
मुंगेर पहुँचे। रास्ते में ही धूम मची। मुंगेर में जब हर गली में
नारे लगाते हुए वे लोग घूमे तो खासी सनसनी फैल गयी! अन्त में कलक्टर
के दबाव से कुछ कांग्रेसी नेताओं की एक तीसरी कमिटी पंचायत करने के
लिए बनी। वह तो आज तक खटाई में ही पड़ी है।
इस प्रकार
बड़हिया टाल में जमींदारों के दुराग्रह एवं सरकार तथा मन्त्रियों की
कमजोरी,
बल्कि उनके
द्वारा जमींदारों को प्रोत्साहन देने और लीपापोती के कारण ही किसानों
के साथ न्याय न हो सका। हालाँकि उनने मर्दानगी से कष्ट भोगे और लड़ाई
लड़ी। उनके पथ-दर्शक भी पक्के मिले। सबसे बुरी दशा रेपुरा गाँव की है।
वहाँ के स्त्री-पुरुषों की मर्दानगी से मैं दंग रह गया। मगर उन्हें
एक इंच भी जमीन न मिली! वे भूखे नंगे हैं! तुम धन्य हो न्याय! धन्य
हो शोषण!
रेवड़ा-सन्
1938
ई. के अन्त में मसौढ़ी जिला पटना में पटना जिला
किसान सम्मेलन होने को था। उसके पूर्व ही बड़हिया टाल की परिस्थिति
नाजुक हो गयी थी। न तो
मन्त्री
लोग ही कुछ कर सके और न पंचायत कमिटियाँ या कांग्रेसी लीडर ही! किसान
ऊब रहे थे। वे भूखों मर रहे थे। हमने भी किसान-सभा की ओर से अभी तक
उन्हें सिर्फ उपदेश ही दिया था। बड़हिया टाल का सत्याग्रह व्यक्तिगत
रूप से शर्मा जी और हम लोग चलाते रहे सही। मगर किसान-सभा ने उसे खुल
कर अपने हाथ में लिया न था। असल में उसने तब तक सत्याग्रह तक कदम
नहीं बढ़ाया था। बिहार के हर कोने में यही हालत थी। कांग्रेसी
मन्त्रियों के जमाने में तो जमींदारों की हिम्मत और भी बढ़ी थी। खास
कर कांग्रेस-जमींदार समझौतों के करते। इसलिए जुल्म बढ़ रहा था। जमीने
धाड़ाधाड़ छिन रही थीं। फलत: किसान
सर्वत्र
ऊब चुके थे। खतरा था कि यदि हम शान्तिपूर्ण संघर्ष में उन्हें सभा की
ओर से न लगाते तो वे मारपीट और लूटपाट पर आ जाते।
इधर
दो-तीन मास पूर्व से ही पं. यदुनन्दन शर्मा ने हार कर रेवड़ा में,
जो गया जिले के नवादा सबडिवीजन में वारिसलीगंज से
8-10 मील
उत्तर
है,
किसानों को तैयार करने के लिए अपना कैम्प भी खोल
दिया था। वहाँ किसान-सेवक भर्ती करके उन्हें तालीम दे रहे थे।
रेवड़ा की हालत
यह थी कि वहाँ प्राय: डेढ़ हजार बीघा जमीन थी और सभी जमींदार ने नीलाम
करवा ली थी। वारसलीगंज के पड़ोसी साम्हे गाँव के श्री रामेश्वर प्रसाद
सिंह वगैरह उसके जमींदार हैं। गाँव में
5-6
सौ आदमी चिथड़ा पहने भूखों मरते थे। ब्राह्मणों की लड़कियाँ बेची गयीं
और जमींदार ने उसमें भी आधा मूल्य जमींदारी हक में ले लिया! शेष बाकी
लगान में! फिर भी जमीन न बची! बूढ़ी होने पर उनमें जो बची हैं उनने
अपनी कहानी हमें सुनाई! दो कद्दू कहीं छप्पर पर फला तो एक जमींदार का
हो गया! दो बकरे हुए तो एक उसका! गाँववालों से एक बार उसने दूध
माँगा। मगर नहीं मिला। था नहीं। उसने कहा,
जैसा
कि मुझे बताया गया,
कि
औरतों को दुह लाओ!
जमींदार के
पास,
मजिस्ट्रेट के
पास और मन्त्रियों तथा लीडरों के पास दौड़ते-दौड़ते किसान थक चुके थे।
अन्त में उनने पं. यदुनन्दन शर्मा को पकड़ा। उन्होंने भी जमींदार को
बहुत समझाया। तीस रुपये फी बीघा सलामी देकर भी जमीन लेने को किसान
तैयार हुए। इस प्रकार जमींदार चालीस हजार रुपये एक मुश्त पा जाता!
किसान कर्ज ला के या किसी प्रकार देते ही! मगर कौन सुने!
तब शर्मा जी
ने कहा कि खेत जोत लो और फसल काट लो,
जो भी
थोड़ा सा धान बोया है। किसानों ने उत्तर दिया कि हम उपदेश नहीं चाहते।
हमने तो समझा था,
आप कोई
रास्ता पकड़ायेंगे। मगर जब आप भी लेक्चर ही देते हैं,
तो
जाइये। हमें मरने दीजिये। और अगर नहीं तो आगे हल लेकर चलिये और
जोतिये। धान काटिये। पीछे हम भी रहेंगे,
आपके
साथ ही मरेंगे। शर्मा जी को यह बात लगी और वहीं डँट गये। मुझे खबर
भेज दी कि अब मैं जेल जाऊँगा। ऐसी ही हालत है। आप एक बार आयें और देख
जाये। बिना पूछे पड़ गया,
एतदर्थ
क्षमा चाहता हूँ। असल में दोनों शर्मा (कार्यानन्द और यदुनन्दन) ने
अभी तक बिना मुझसे पूछे ऐसा कदम कभी न बढ़ाया और न कोई खास काम ही
किया था। मैं वहाँ गया और पचीस हजार किसानों-स्त्री,
पुरुष,
लड़कों
की अपूर्व सभा थी! मैं भी हालत देख के दंग रह गया।
उसके बाद
मसौढ़ी कॉन्फ्रेंस के समय मैंने पहला वक्तव्य दिया कि अब कोई चारा
नहीं कि किसान-सभा आगे बढ़े और किसानों की सीधी लड़ाई-सत्याग्रह-का
नेतृत्व करे। नहीं तो किसान हमसे भी निराश हो जायेगे,
यही
समझ के कि हम भी सिर्फ लेक्चर ही देते हैं। ये लेक्चर और प्रस्ताव तो
पढ़े-लिखों के ही लिए हैं। वह इससे ऊबते नहीं। मगर जनता तो सदा काम
करती है और बोलती कम है। इसलिए अब उसे काम देना हमारा फर्ज है। हम
कांग्रेसी मन्त्रियों को परेशान करने के लिए नहीं,
किन्तु
अपनी हस्ती कायम रखने और अपना फर्ज अदा करने के लिए ही आगे बढ़ेंगे।
और जरूर बढ़ेंगे।
बस,
मन्त्रियों और जमींदारों में खलबली मच गयी। मुझे बहुत बुरा-भला सुनना
पड़ा। मगर सम्मेलन में मैंने अपील की कि रेवड़ा सभी किसानों का तीर्थ
बने और पुकार होते ही किसान पैदल ही चारों ओर से दौड़ पड़ें। अन्न,
धान की
सहायता करें। हुआ भी ऐसा ही। सैकड़ों आदमी वहाँ खाते रहते।
जेलयात्रियों की धूम थी। मैं भी ज्यादातर वहाँ जाता। शर्मा जी की
गिरफ्तारी के बाद तो वहीं रहने भी लगा। प्रान्तीय किसान कौंसिल की एक
बैठक भी वहीं हुई। सभी किसान नेता और कार्यकर्ता जमा हुए। सरकार
परेशान थी। सैकड़ों पुलिस के जवान,
उनके
अफसर,
खुफिया वाले
और दो मजिस्ट्रेट वहाँ रखे गये थे। मगर किसान आगे बढ़ते ही गये।
वहाँ की
स्त्रियों ने हमें विश्वास दिलाया कि मर्द पीछे जाये तो जाये। मगर हम
तो आपका साथ सदा देंगी। ह्निटेकर साहब जिला मजिस्ट्रेट बन के हमें
वहाँ सर करने आये थे। मगर स्वयं सर होके विलायत चले गये! सभी ताज्जुब
में थे कि क्या हो गया! उन लोगों को तो वहाँ खाना मिलना असम्भव था।
दूसरे गाँव में रहते थे! फिर भी दुर्दशा थी! जमींदार लाठी खाये साँप
की तरह फुँफकारता था,
मगर
बेकार। रेवड़ा जमींदार और सरकार दोनों ही के लिए आतंक बन गया!
गया जिला
कांग्रेस कमिटी ने भी हमारे सत्याग्रह का समर्थन किया था। बस,
प्रान्तीय कांग्रेस कमिटी बिगड़ी और प्रस्ताव करके कार्यकारिणी ने उसे
डाँटा। बिना आज्ञा लिये चलाये गये सत्याग्रह को उसने नाजायज ठहराया।
इससे
अधिकारियों को हिम्मत आयी। स्पेशल मजिस्टे्रट ने फौरन ही हमें हिम्मत
के साथ वह प्रस्ताव दिखाया। हम हँसे और बोले कि हमने यह सब बहुत देखा
है। फिर तो उनकी हिम्मत पस्त हुई।
किसानों की
दशा यह थी कि उनसे जो भी कोई कुछ पूछता और सुलह की बात करता तो मुँह
फेर देते और कहते कि पं. यदुनन्दन शर्मा से पूछिये। हम तो उन्हीं का
हुक्म मानेंगे। किसी की एक न चली और अन्त में हम जीते।
किसानों को
जमीन मिली,
जो
हलवाहे,
चरवाहे सभी को
दी गयी। बिना जमीन वहाँ एक घर भी न रहने पाया। शर्मा जी से कलक्टर
ह्निटेकर साहब ने जमींदार की ओर से समझौता किया। क्योंकि जमींदार ने
लिख कर उन्हें अधिकार दिया था। प्राय: डेढ़ सौ बीघा जमींदार को देकर
शेष जमीन किसानों को मिली। कांग्रेस की बकाश्त जाँच कमिटी ने डेढ़ सौ
बीघे पर जमींदार का कब्जा बताया था। इसीलिए मजबूरन उतनी जमीन देनी
पड़ी। आखिर करते क्या?
अपनी
ही कमिटी ने तो पहले ऐसा बताया था।
रेवड़ा में
पहले तो पुलिस हल आदि छीन ले जाती,
ज्यों
ही किसान खेतों पर जाते थे। क्योंकि नोटिस लगा के खेत जब्त किये गये
थे। पीछे तो एक-एक हल पर दस-बीस किसान लिपट जाते और छोड़ते न थे,
क्योंकि गरीबों को घाटा था छोड़ देने में। बस,
पुलिस
हार गयी! जिस दिन सभी किसान नेता वहाँ थे उस दिन औरतों ने ऐसे कमाल
का सत्याग्रह किया कि पुलिस शर्मिन्दा हो के लौट गयी।
'इनक्लाब
जिन्दाबाद' 'जमींदारी
नाश हो'
का नारा औरतों
ने पुलिस के सामने और पीछे भी लगाया। असल में पुलिस औरतों का लाठा
रोकने गयी थी। मगर औरतें दल बाँधा के डँटी रहीं और लाठा चलाती ही
रहीं। वही आखिरी भिड़न्त थी। फिर तो पुलिस को हिम्मत न हुई। हम लोग
सारा नजारा देखते और दूर से हँसते रहे। पीछे पास में भी गये।
त्रिपुरी
कांग्रेस के समय ही शर्मा जी साथियों के साथ जेल से रिहा कर दिये
गये। सरकार ने लड़ाई के दौरान में दफा
145
के द्वारा मजिस्ट्रेट से फैसला कराने का हजार प्रलोभन दिया,
तारीखें रखीं,
खबर
भेजी। मगर किसान नहीं गये और नहीं गये। तब अन्त में जीते।
मझियावाँ और
दूसरी जगहें-इन
लड़ाइयों के अलावे गया के ही मझियावाँ,
अनुवाँ, आगदा,
भलुवा, मझवे,
साँड़ा आदि गाँवों में किसानों ने सफलतापूर्वक
सत्याग्रह संग्राम किया। इसके सिवाय शाहाबाद के बड़गाँव,
दरिगाँव आदि में, सारन
जिले के अमवारी, परसादी,
छितौली आदि में,
दरभंगा के राधोपुर,
देकुली, पण्डौल,
पड़री (विथान) आदि में,
पटना के दरमपुरा, अंकुरी,
जलपुरा, तरपुरा,
वेलदारीचक आदि में भी किसानों ने बड़ी मुस्तैदी से
यह संघर्ष किया। चम्पारन और भागलपुर में भी संघर्ष हुए और लोग जेल
गये। पूर्णियाँ तो बहुत ही पिछड़ा हुआ है। वहाँ न तो किसान-सभा ही
मजबूत है और न वैसे
कार्यकर्ता
ही हैं। लेकिन खेद है कि मुजफ्फरपुर में न तो कोई संघर्ष हुआ और न
किसान-सभा का
इधर
कोई
महत्त्व
पूर्ण काम
ही नजर आया। हालाँकि सोशलिस्ट पार्टी के प्रमुख नेता उसी जिले के
हैं।
इधर
वहाँ की किसान-सभा ने अपने अस्तित्व का सबूत भी नहीं दिया है,
यह दु:ख की बात है।
मझियावाँ में
तो असल में औरतों ने ही सत्याग्रह किया और न सिर्फ उस गाँव की,
वरन्
आसपास के गाँवों की औरतों ने उसमें पूरा सहयोग दिया। जब टेकारी राज
के गुण्डे लाठियाँ लेकर खेतों पर से उन्हें हटाने गये तो डँटी रहीं
और गुण्डों को दो-तीन ने मिलकर पछाड़ा भी। और जब भाड़े की औरतें
जमींदार ने भेजीं तो उन बहादुर स्त्रियों ने इन भाड़ेवालियों को बात
की बात में भगा दिया। पटने के दरमपुरा में भी औरतों और बच्चों ने ही
लड़ाई जीती। वैसी बहादुरी मुझे और कहीं देखने को न मिली।
साँड़ा में भी
औरतों ने पुलिस का घेरा तोड़ कर खेत में हल जोता और पुलिस को भगाने को
विवश किया। अनुवाँ में खेतों पर ही झोंपड़े बना कर बाल बच्चों के साथ
सभी किसान जा डँटे। फिर तो सभी कोशिशें करके सरकार हार गयी। उन्होंने
144, 147
और 107
आदि धाराओं की भी परवाह न की और न कचहरी या जेल ही गये। उन्होंने कहा
कि या तो इसे ही जेल बना दीजिये या पशु आदि के साथ हमें जेल ले चलिए।
हम इन्हें छोड़ के कहाँ जाये?
दरभंगा के
राघोपुर में तो गोलियाँ भी चलीं। मगर खून से लथपथ होकर भी किसान डँटे
रहे। पण्डौल का सत्याग्रह तो कमाल का रहा। वहीं दरभंगा महाराजा को
पाठ पढ़ना पड़ा। देकुली में सैकड़ों किसान जेल गये और तबाह किये गये।
लेकिन वहाँ के सूदखोर जमींदार के नाकों दम करके ही छोड़ा। उसे एक आदमी
तक मिलना असम्भव हो गया! उसका ऐसा भीषण बहिष्कार किया गया। विथान में
होने वाली दरभंगा राज की नादिरशाही गरीबों ने धूल में मिला दी और
जमींदारी-शान खत्म कर दी। हमारे सभी प्रमुख कर्मी बराबर जेल में बन्द
रखे गये। फिर भी उनने हिम्मत न हारी।
अमवारी की बात
तो श्री राहुल सांकृत्यायन के उपवास को लेकर काफी प्रसिध्द हुई। वे
दो बार जेल गये और प्रतिज्ञा के अनुसार उपवास किया। पहली बार तो
सरकार (कांग्रेसी) किसान बन्दियों को राजबन्दी मानने को प्राय: तैयार
भी हो गयी थी। केवल राजबन्दी की परिभाषा में उसे दिक्कत थी। वह भी
करीब-करीब हल हो चुकी थी। मगर पीछे चुप्पी साधा गयी।
राजबन्दियों
के लिए न सिर्फ हमारे
8-10
प्रमुख कर्मियों ने प्राणों की बाजी लगा दी,
किन्तु
हमने प्रान्त भर में घोर आन्दोलन किया,
दिवस
मनाया। अखिल भारतीय किसान-सभा ने भी उसमें हमारा साथ दिया। मगर सरकार
टस से मस न हुई।
उस आन्दोलन से
हमने बहुत कुछ सीखा। उसमें कांग्रेसी नेताओं की मनोवृत्ति की पूरी
झाँकी हमें मिली। यही क्या कम था?
अमवारी
के सत्याग्रह से ही इसका श्रीगणेश हुआ और प्रान्त में यह बात फैली।
अमवारी में
श्री रामवृक्ष ब्रह्मचारी ने जो स्त्री-पुरुषों का अपूर्व संगठन किया
और वहाँ से पैदल
14 मील
सीवान तक जुलूस का जो सुन्दर प्रबन्ध किया,
जिसमें
स्त्रियाँ भी लाल कपड़ों में थीं,
सीवान
शहर में हमने उस जुलूस का जो महत्त्व देखा और उसने लोगों पर जो असर
किया वह सभी बातें चिरस्मरणीय रहेंगी। जब वहीं ब्रह्मचारी जी को आधी
रात के बाद पुलिस पकड़ने आयी,
तो
औरतों ने घेरकर ऐसा रोका कि पुलिस दंग रही। पीछे समझाने पर कठिनता से
हटीं। ब्रह्मचारी जी तो इस्पात के बने हैं। किसान बन्दियों को लेकर
पूरे 90
दिनों तक भूखे
रहे और मृत्युशय्या पर ही छूटे। न सिर्फ उनके गाँव सबलपुर को,
बल्कि
किसान आन्दोलन को और खासकर मुझे उन जैसा साथी पाने का गर्व है। श्री
कार्यानन्द,
श्री
यदुनन्दन,
श्री राहुल जी
जैसे मेरे गिने-चुने साथियों में वह हैं। बेशक जैसे मुंगेर के लिए
कार्यानन्द,
और गया
के लिए यदुनन्दन हैं। उसी तरह सारन (छपरा) के लिए राहुल जी हैं और
उन्हें वैसा ही साथी मिला है।
(शीर्ष पर वापस)
(15)इन
संघर्षों से शिक्षा
इन
संघर्षों में दो हजार से ज्यादा किसान और किसान सेवक
स्त्री,
पुरुष,
बच्चे-जेल
गये। बहुत ज्यादा पीटे गये। कुछ मारे भी गये। मगर किसान हिम्मत से
डँटे रहे। आज भी हिम्मत वैसी ही है। उन्होंने दिखला दिया कि
क्षेत्र
तैयार है,
हम तैयार
हैं। स्त्रियों ने जो बहादुरी दिखाई उसका मौका तो हमें और तरह से
मिलता ही नहीं। किसानों में श्रेणी की भावना ऐसी जाग्रत हुई और
दूर-दूर के किसानों ने उनमें ऐसा भाग लिया कि सभी दंग रहे। हलवाहे,
चरवाहे-बिना जमीन वाले भी उसमें शामिल रहे। सभी जातियों एवं धर्मों
के लोगों ने भाग लिया। दरभंगे में तो हाजी लोग भी जेल गये।
मैंने हाल में
पटने के बेलदारीचक में देखा कि दो किसानों को खेत में ही गोली से मार
दिया गया। मगर शेष किसान ठण्डे रहे और अपना काम करते ही रह गये। फलत:
जमींदार को पुलिस के डर से छिपना पड़ा। मगर किसानों को कभी ऐसी दिक्कत
नहीं हुई। मगर जहाँ जरा भी गड़बड़ी हुई कि उनमें भगदड़ मची और सारा काम
चौपट हुआ। घर-गिरस्ती भी खत्म हुई। इसीलिए मोतिहारी के प्रान्तीय
सम्मेलन में मैंने ही प्रस्ताव किया कि हर हालत में-यहाँ तक कि हमला
होने पर भी,
मौजूदा
हालत में पूर्ण शान्ति जरूरी है। क्योंकि जमींदारों ने यह सोचा है कि
हमले करें और अगर किसान जवाब दें,
तो
खूनखराबी में उन्हें फँसा के त्रस्त कर दें। सौ-पचास जगहें ऐसा होने
पर तो सारा आन्दोलन ही दब जायगा। इसीलिए मौजूदा हालत में साधारणतया
आत्मरक्षार्थ भी हिंसा को मैंने रोकने की राय दी।
इन संघर्षों
में हमने मुकदमे लड़ने से इनकार कर दिया। यों तो किसानों के लिए आमतौर
से मुकदमा लड़ना ही असम्भव है। असल में सत्याग्रह का खयाल और त्याग
एवं हिम्मत के बढ़ाने की भी बात थी। केस लड़ने से हमारा ध्यान भी बँट
जाता है और हममें कमजोरी भी आ जाती है। मगर कुछ दिनों के बाद
धीरे-धीरे जब मजबूती आ गयी तो हमने वह नीति नापसन्द की और जरूरत देख
के मुकदमे भी लड़ लिये। सब मिलाकर उससे फायदा ही हुआ। अब तो मैंने
निश्चय कर लिया की कानूनी अस्त्रा से जितनी मदद ली जा सके ली जाय।
क्योंकि हमारा सत्याग्रह गांधीजी वाला तो है नहीं। हमने तो इसमें
शान्ति आदि को अपनाया है केवल फायदा देख कर। मगर केस न लड़ने से आसानी
से हमारे अच्छे-अच्छे कार्यकर्ता ही जेल में ठूँस दिये जाते हैं,
ताकि
पथदर्शक बिना सारा संघर्ष ही बन्द हो जाय। इसीलिए मैं मानता हूँ कि
केसों को जरूरत समझ कर लड़ा जाय और जमानत पर लोग बाहर लायें जाये।
सबसे बड़ी बात
यह रही कि हमने संघर्ष शुरू करके सुलह की बात करना अब पसन्द किया।
प्राय: सर्वत्र ऐसा ही हुआ। हमने कभी इससे इनकार नहीं किया। मगर
अनुभव ने बताया कि यह चीज अच्छी नहीं। उसमें फँसा कर जमींदारों और
अधिकारियों ने हमें बहुत परेशान किया। दरभंगे में तो हमारे आदमियों
को बड़ा ही कटु अनुभव हुआ। कमबेश यही हालत अन्यत्रा भी रही। गया में
भी कुछ ऐसा ही हुआ। यहाँ तक कि रेवड़ा में भी हमें पीछे अनेक दिक्कतें
उठानी पड़ीं। वहाँ भी अभी तक कुछ-न-कुछ झमेला चलता ही है। इसलिए मैं
तो इस नतीजे पर पहुँचा कि साधारणतया हमें सुलह के झमेले में,
लड़ाई
छिड़ने के बाद,
पड़ना
ही न चाहिए। हार भले ही जाये। ऐसे मौके पर हार से भी फायदा होता है।
क्योंकि अपनी कमजोरियाँ मालूम हो जाती हैं।
हमने यह भी
देखा कि यदि मुस्तैदी और विश्वास के साथ काम करें तो रुपये,
अन्न
या आदमी के बिना काम नहीं रुकता। ये तीनों चीजें किसान ही मुहय्या कर
देते हैं,
सो भी आसानी
से। हमारी बड़ी भूल है यदि हम जनता की लड़ाई गैरों के पैसे और आदमियों
से जीतना चाहते हैं। मैं उस जीत को अगर वह हो भी जाय,
हार ही
मानता हूँ। क्योंकि किसान उसमें स्वावलम्बी तो बनेंगे नहीं और यही
लड़ाई का असली उद्देश्य है। वह हक तो कभी फिर छिन जायगा जो आज गैरों
के बल से मिला है। मैंने तो किसानों को देखा है कि वह सब कुछ कर सकते
हैं और भूखों मर के भी हमें मदद दे सकते हैं,
यदि
हममें नेताओं में विश्वास और मुस्तैदी हो। अगर यह विश्वास न हो तो हम
निश्चय ही हारेंगे,
यह भी
मैंने अनुभव किया।
(शीर्ष पर वापस)
(16)कोमिल्ला,
हरिपुरा,
गया और
पलासा
सन्
1938
ई. के मई
मास में अखिल भारतीय किसान-सभा का तीसरा अधिवेशन बंगाल के पूर्वीय
छोर पर कोमिल्ला में हुआ। मैं ही उसका
अध्यक्ष
था। मेरा भाषण अंग्रेजी,
हिन्दी और बंगला में छपा था। उस पर किसान-सभा के कुछ विरोधियों ने-जो
वामपक्षी कहे जाते हैं-कुछ आक्षेप भी पीछे किये थे। उसका करारा
उत्तर
मुझे देना पड़ा! लोग कहते हैं कि मुसलमान लोग किसान-सभा नहीं चाहते,
खासकर बंगाल के मुसलमान। मगर कोमिल्ला जिले में तो
95
फीसदी
मुसलमान हैं। वहाँ सरकार ने,
हक
की मिनिस्ट्री ने और कुछ अपने कहे जाने वालों ने भी
विरोध
में खूब ही प्रचार किया। यहाँ तक कि सरकार ने सभा होने में ही
दिक्कतें पेश कीं। मगर
बंगाल प्रान्तीय किसान-सभा के साथियों की मुस्तैदी और अथक उद्योग से
उसका काम सानन्द सम्पन्न हुआ। जिस परिस्थिति में उन्होंने सफलता
प्राप्त की वह असाधारण थी!
मेरे पहुँचने
पर जो जुलूस स्टेशन से चलकर शहर में घूमा वह लासानी था। विरोधी लोग
सोचते भी न थे कि जुलूस को वैसी सफलता मिलेगी। उसके बाद उन्हें तमाचे
लगे। फलत: सभा को सफल न होने देने में उनकी सारी शक्ति लगी। शहर के
चारों ओर गुण्डे तैनात हो गये और पीट-पीटकर आने वाले किसानों के
जत्थे लौटाये गये। हमारे प्रतिष्ठित साथी भी शहर में राह चलते पिटे
और कोई पुर्सां हाल न था! चारों ओर मुसलिम लीग वाले शोर करते और
जुलूस निकालते थे। कब कौन पिट जायगा,
यह
खतरा बराबर बना था! फिर भी किसान आये और खूब ही आये। वहाँ मैंने जब
धर्म के ढकोसले की पोल खोली तो मुसलमान किसान और मौलवी लोग लट्टू हो
गये! वे उछल पड़े! मैंने साफ समझाया कि कैसे रोटी खुदा से भी बड़ी है।
मेरे भाषण का
बंगला अनुवाद बीच-बीच में मेरे साथी श्री बंकिम मुखर्जी करते जाते
थे। क्योंकि लिखित भाषण के अलावे मैं जबानी भी बोला था। लेकिन जब
अन्त में मुझे बोलने को कहा गया तो मैंने इस शर्त्त पर बोलना स्वीकार
किया कि बंगला अनुवाद न हो और मेरी सादी हिन्दी ही किसान समझ सकें।
उन्होंने मान लिया और मुझे बुलवाकर ही छोड़ा। वहीं
'ओरे
भाई चासी,
सत्य कथा शुन'
नामक
बंगाली गीत पर मैं मुग्ध हो गया। न जाने उसे कितनी बार गवाया!
कोमिल्ला की
यात्रा में बंगाल में न जाने कितने ही स्टेशनों पर बंगीय युवकों का
दल स्वागतार्थ मिला। कई अभिनन्दन-पत्र भी मुझे मिले। मैं आश्चर्य में
था। मेरी पूर्व बंगाल की,
या यों
कहिये कि बंगाल की ही यह पहली यात्रा थी। वे मुझसे परिचित भी न थे।
थोड़ा सा जो किसानों में मैंने काम किया उसी का यह फल था।
यह चीज अच्छी
भी है और बुरी भी। अच्छी तो इसलिए कि सार्वजनिक सेवकों को प्रोत्साहन
मिलता है और इसी के बल पर कठिन-से-कठिन क्लेश वे भोग सकते हैं। मगर
बड़ी हानि यह है कि इस तरह बरसाती मेढक की तरह नेताओं की संख्या हम
बढ़ा देते हैं। जिसे हमने अच्छी तरह परखा नहीं और न ठोंक-ठाँक कर ठीक
ही किया,
उसे यों क्यों
माना जाय?
पीछे वही धोखा
दे तो?
आज तो किसानों
तथा मजदूरों के संघर्ष में सबसे ज्यादा खतरा नेताओं से ही है।
कोमिल्ला के
पहले ही उड़ीसा में प. नीलकण्ठ दास ने एक झमेला
1937
ई. की गर्मियों में खड़ा किया था। उनने स्वतन्त्रा किसान-सभा का विरोध
करते हुए कही डाला था कि जो कांग्रेस का मेम्बर न हो वह किसान-सभा का
भी मेम्बर नहीं बने,
ऐसा ही
किसान-सभा चाहिए। मैंने उन्हें उत्तर दिया कि उन्हें पता नहीं कि
कांग्रेस और किसान-सभा के दृष्टिकोण में यह मौलिक अन्तर है कि जहाँ
कांग्रेस राजनीतिक आईने में अर्थनीति और रोटी को देखती और राजनीति से
ही उस पर आती है तथा उसे राजनीति का साधान समझ के ही अपनाती है,
तहाँ
किसान-सभा अर्थनीति और रोटी के शीशे में ही राजनीति को देखती और वहाँ
तक पहुँचती है उसे साधान समझकर ही। इसीलिए स्वतन्त्र किसान-सभा
अनिवार्य है।
पं. जवाहर लाल
ने राष्ट्रपति की हैसियत से एक वक्तव्य में स्वतन्त्रा किसान-सभा का
समर्थन तो किया था। मगर लाल झण्डे पर आक्रमण किया और कहा था कि
किसानों का झण्डा तिरंगा ही होना चाहिए। इसी के बाद ही सन्
1937
में ही आल इण्डिया किसान कमिटी की बैठक नियामतपुर आश्रम (गया) में
हुई। उसने किसान-सभा सम्बन्धी मेरे उड़ीसा वाले वक्तव्य का समर्थन
करते हुए झण्डे के बारे में पं. नेहरू का लम्बा जवाब दिया। उसमें लाल
झण्डे का समर्थन भी किया। वहीं पर आल इण्डिया किसान-सभा का विधान
हमने पास किया। उसके बाद नवम्बर में कलकत्ते में उसकी फिर बैठक हुई
और लाल झण्डा किसान रखें,
यह
प्रस्ताव पास हो गया।
सन्
1938
के फरवरी में मैंने गुजरात का पहला दौरा किया। हरिपुरा कांग्रेस के
समय किसानों के जत्थे पैदल चल के आये और सुन्दर प्रदर्शन हो इसकी
तैयारी भी की। श्री इन्दुलाल जी याज्ञिक और उनके साथियों के अदम्य
उत्साह एवं कार्यपरता के कारण वह प्रदर्शन अपूर्व रहा।
20-25
हजार किसानों ने उसमें भाग लिया। सरदार बल्लभ भाई की आज्ञा थी कि
कांग्रेस नगर में कोई जुलूस नहीं निकाल सकता। मगर हमने उसे न माना और
खूब ही जुलूस घुमाया। शाम को सभा करके भाषण भी हुए।
गुजरात की उसी
यात्रा में मुझे पता लगा कि बारदोली का किसान सत्याग्रह केवल
10-15
फीसदी मध्यम श्रेणी और धनी किसानों की ही चीज थी। वहाँ के असली किसान
तो रानीपरज,
दुबला
और हाली कहे जाते हैं। इनकी जमीनें छिन कर केवल
10-15
फीसदी लोगों के हाथ चली गयी हैं। असली किसान लोग तो फसल का अर्ध्दभाग
बँटाई में देकर उन्हीं से धनियों से वही जमीनें लेते और जोतते हैं!
जुल्म यह कि मूँगफली और रुई की फसलों में भी आधा देना पड़ता है। अगर
फसल मारी गयी तो वे लोग नगद रुपये ही देने को बाध्य किये जाते हैं!
उनकी ओर अब तक न तो सरदार बल्लभ भाई का,
न
गांधी जी का और न कांग्रेस का ही ध्यान गया है।
ये हाली और
दुबला लोग महाजनों और धानियों के गुलाम होते हैं और उनकी राय के बिना
कहीं आ-जा नहीं सकते! यदि गये तो पकड़ मँगाये जाते हैं। कोई उन्हें
रखता भी नहीं!
मेरा दौरा
गुजरात के कई जिलों में खूब सफल रहा। उसी साल गुजरात प्रान्तीय
किसान-सभा की नींव पड़ी उसे श्री इन्दुलाल और उनके साथियों की लगन ने
आज तो काफी मजबूत कर दिया है। हमारी सभा के करते ही हाली लोगों की
गुलामी बहुत कुछ खत्म हो गयी है और साहूकारों की नादिरशाही नहीं के
बराबर रह गयी। हालाँकि,
अभी भी
जुल्म होते हैं। आज हालियों में हिम्मत है।
हरिपुरा
कांग्रेस में श्री सुभाष बाबू अध्यक्ष थे। उनने अपने भाषण में
किसान-सभा का समर्थन किया। इसके विपरीत सरदार बल्लभ भाई ने अपने भाषण
में बेमौके ही हम लोगों पर आक्रमण किया। फलत: विषय समिति में ऐसा
हो-हल्ला मचा कि मजबूरन सभापति ने उन्हें बीच में ही बैठा दिया! तब
कहीं शान्ति स्थापित हो
सकी!
सन्
1939
ई. के अप्रैल में रेवड़ा सत्याग्रह की सफलता के बाद और त्रिपुरी
कांग्रेस के पश्चात् शीघ्र ही गया में अखिल भारतीय किसान-सभा का चौथा
वार्षिक अधिवेशन आचार्य नरेन्द्रदेव की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ।
गया के हमारे असली स्तम्भ पं. यदुनन्दन शर्मा तो रेवड़ा सत्याग्रह के
सिलसिले में जेल में थे। वे अधिवेशन से एक ही मास पूर्व छूटे थे!
फलत: अधिवेशन की तैयारी का समय असल में
15
ही दिन मिला।
उसी दरम्यान प्राय:
8-10
हजार रुपये और
सामान आदि का संग्रह एवं सारी तैयारी करनी पड़ी। स्वागताध्यक्ष तो
हमने उन्हें ही पहले ही चुना था। बेशक,
हमारे
कार्यकर्ता लोग उसमें पिल पड़े। गया शहर से उत्तर का जितना इलाका है,
जिसमें
कुछ हिस्सा सदर सबडिवीजन का और शेष जहानाबाद का पड़ता है,
उसने
धान संग्रह करने और किसान सेवक दल को तैयार करने में कमाल किया।
प्राय: सब भार उसी इलाके के मत्थे पड़ा। नवादा ने भी थोड़ा-बहुत किया।
औरंगाबाद तो लापता ही रहा।
जमींदारों और
कुछ कांग्रेसी दोस्तों ने सारी शक्ति लगा कर उसमें विघ्न डालना चाहा।
किसानों को भड़काने के सैकड़ों रास्ते निकाले गये। न जानें कितनी
नोटिसें और कितने लेख विरोध में छापे गये। सभा में किसान न आये इसी
पर ज्यादा जोर रहा। बात यह थी कि थोड़े ही दिन पूर्व गया में दंगा हो
चुका था। इसलिए हिन्दू- मुसलिम संघर्ष की बात कह के भड़का देना आसान
था।
मगर हम भी
पूरे सजग थे। मीटिंगें करके गया शहर का वायुमण्डल हमने ऐसा कर दिया
कि वह खतरा ही जाता रहा। सम्मेलन में सवा लाख से ज्यादा किसान आये,
ऐसा
अनुमान औरों का था। पण्डाल गिरजाघर के मैदान में था। कम खर्च में वह
खूब ही शानदार था। सभी ने माना कि हम सब तरह से सफल रहे। किसान कोष
में पैसा देने की अपील तो किसानों से की ही थी। बीसियों बक्सों में
ताले लगाने के बाद ऊपर सूराख करके स्थान-स्थान पर रख दिया था।
लालवर्दी वाले सेवक किसानों को चेतावनी देते थे कि किसान कोष में
पैसा डालो। पैसे पड़े भी बहुत।
वहाँ मेरी राय
के विरुध्द कुछ दोस्तों ने प्रदर्शनी का झमेला खड़ा करके हमें बहुत
परेशान किया। इसमें खद्दर ही रहेगा इस पर हठ करके और भी दिक्कत पैदा
की। फलत: हजारों रुपये का घाटा हमें उठाना पड़ा। यदि किसानों के फायदे
की चीजें रहतीं और सभी ढंग के सामान आने पाते तो घाटे के बजाय नफा
रहता। वह तो कोई कांग्रेस की प्रदर्शनी थी नहीं।
उस मौके पर
पुलिस ने तो हमारे साथ पूरा सहयोग किया,
यह हम
कहेंगे। प्रतिनिधियों और दर्शकों के लिए ठहरने आदि का बहुत ही सुन्दर
प्रबन्ध था। रेलवे ने शुरू में थोड़ी गड़बड़ी की और बिना टिकट
स्वागतार्थ जाने के लिए भी प्लैट फार्म पर रोक लगायी,
मगर जब
हम बिगड़े तब इजाजत मिल गयी। मगर थोड़ी रोक का भी नतीजा उसे बुरी तरह
भोगना पड़ा। जब सभा के बाद समूची गाड़ी में बिना टिकट के किसान बैठ गये
और ट्रेन रोकना पड़ा। आखिर पुलिस ने रात में हमें खबर दी और जब हमने
मोटर से बजीरगंज में जाकर किसानों को समझा के हटाया,
तब
कहीं गाड़ी जा सकी। उनने ट्रेन ही रोक दी थी। उससे पहले मानपुर में भी
ऐसा ही हुआ था। वहाँ भी पुलिस के जवान हार चुके थे। तब हमने ही
किसानों को वहाँ भी हटाया था। असल में पं. यदुनन्दन शर्मा की
गिरफ्तारी के बाद पटना-क्यूल लाइन पर हजारों किसान गया जाते-आते थे,
जब-जब
उनका केस होता था। वे
कभी
टिकट लेते न थे। पहले भी हमें एकाध बार भरी ट्रेन में से उन्हें
उतारना पड़ा
था।
वहाँ के किसानों को इसका अभ्यास हो गया है। मगर खास-खास मौके
पर ही।
गया के
अधिवेशन में और प्रस्तावों के साथ विधान के संशोधान के लिए एक कमिटी
बनी। उसने पीछे किसान-सभा के विधान का संशोधान तैयार किया और उसे सन्
1939
ई. के जून में बम्बई में अखिल भारतीय किसान कमिटी ने पास किया। आज
उसी विधान के अनुसार किसान-सभा का काम हो रहा है।
उस सभा में एक
बात और हो गयी। सभापति जी ने लाल झण्डे के विपक्ष में अपने भाषण में
जो छपा हुआ था,
कुछ
बातें कही थीं। वे कुछ साथियों को खटकीं। फिर तो गड़बड़ी होते-होते
बची। बड़ी दिक्कत से हमने सँभाला। सभापति जी ने कहा था कि किसान-सभा
का रुख तिरंगे झण्डे के प्रति पूर्ण सम्मानात्मक नहीं है। प्रत्युत
उसे रखने का विरोधी जैसा है। मगर पीछे हमने नियामतपुर के तत्सम्बन्धी
वक्तव्य और उसके बाद वाले कलकत्ते के प्रस्ताव की प्रतिलिपि उनके पास
भेज कर उनसे पूछा कि इसमें आपकी लिखी बात कहाँ है और क्या कमी है
जिसे आप पूरा करना चाहते हैं?
मगर
उनने कोई उत्तर न दिया। फलत: झण्डे के बारे में हमारी किसान-सभा का
जो पहले से मन्तव्य था वही रहा। इस प्रकार लाल झण्डा,
जिस पर
हँशिये और हथौड़े का आकार बना हो,
किसान-सभा का झण्डा मान्य हुआ। फलत: बिहार प्रान्तीय किसान-सभा को भी
उसे ही मानना पड़ा। इस तरह उसका विवाद ही खत्म हो गया।
गया के बाद
पाँचवाँ अधिवेशन आन्धा्र देश में आमन्त्रित हुआ। सन्
1940
ई. के मार्च के अन्त में विजगापटम जिले के पलासा स्टेशन के पास काशी
बुग्गा में वह अधिवेशन हुआ। मगर उसकी ख्याति पलासा के ही नाम से रही।
अधिवेशन तो,
प्रतिदिन घोर वृष्टि के बावजूद सफल हुआ। पर्याप्त संख्या में किसान
उसमें सम्मिलित भी हुए। उसकी कई बातें तो उल्लेखनीय हैं। एक तो उसके
मनोनीत सभापति महापण्डित श्री राहुल सांकृत्यायन ऐन मौके पर गिरफ्तार
हो जाने के कारण वहाँ पहुँच ही न सके। केवल उनका छपा हुआ भाषण ही
पहुँचा और वह वितीर्ण हुआ। उनके अभाव में पंजाब के पुराने किसान सेवक
वयोवृध्द और योध्दा बाबा सोहन सिंह भकना ने सभापतित्व किया। पीछे तो
सभापति इस साल के लिए वही स्थनापन्न चुन लिये गये।
दूसरी घटना यह
हुई कि अधिवेशन के अन्तिम दिन जमींदारी प्रथा का पुतला जलाने की
घोषणा हो जाने से सरकार घबराई और मजिस्ट्रेट ने दफा
144
के अनुसार एक नोटिस सभापति जी,
स्वागताध्यक्ष श्री श्याम सुन्दर राव एम.एल. ए.,
श्री
प्रोफेसर रंगा आदि छ: आदमियों पर तामील की कि जो यह घोषणा हुई है कि
किसी जमींदार का पुतला जलाया जायगा,
उससे
अशान्ति फैल सकती है। इसीलिए ऐसा काम न किया जाय। पुलिस और
मजिस्ट्रेट को यह भी तमीज नहीं कि जमींदार का नहीं,
जमींदारी प्रथा का,
पुतला
जलाने को था। जो पुतला बना था उस पर यही लिखा था भी। फिर भी पुलिस की
बड़ी तैनाती थी और यह भी खतरा था कि रात में पुतला जलाने पर वह धरपकड़
के साथ शायद मारपीट भी करे। यह भी डर था कि जमींदारों के गुण्डे बीच
सभा में बैठे हों और ठीक उसी समय गड़बड़ी करें। इसलिए सभा के अन्त में
वह पुतला सभा के बीच में नहीं,
किन्तु
थोड़ी दूर हट के जलाया गया। अत: कोई बाधा न हुई। श्री इन्दुलाल जी ने
अपने भाषण में अधिकारियों को फटकारा भी। वे अपना सा मुँह ले के रह
गये। मैंने देखा कि दिन में उस पुतले को लेकर वहाँ के किसान जुलूस के
साथ बाजार में घूमे और उसे जूते,
लाठी
आदि से पीटते थे। मैंने अजीब उमंग उनमें देखी।
उसी अधिवेशन
के बाद ही श्री रंगा जी गिरफ्तार हुए और पीछे वहीं के भाषण के लिए
भारत रखा कानून के अनुसार उन पर केस भी चला। हालाँकि गिरफ्तारी तो
दूसरे कारण से हुई और एक वर्ष की सजा अलग ही थी।
500
रुपये जुर्माना भी था। इस प्रकार सभापति और उपसभापति दोनों ही जेल
में गये। मैं बचा उसका जेनरल सेक्रेटरी,
सो मैं
भी पलासा से लौटने के बाद
19वीं
अप्रैल को पकड़ लिया गया। लेकिन यह सब तो होना ही था और इसमें खुशी ही
थी। खेद की बात सिर्फ यही हुई कि प्राय: दो ही मास के बाद पलासा के
स्वागताध्यक्ष श्री श्याम सुन्दर राव को सरकार ने उनके गाँव में
नजरबन्द किया और उसके बाद ही उनका शरीरान्त हो गया!
पलासा में जो
प्रस्ताव हमने राष्ट्रीय युध्द और यूरोपीय समर के सम्बन्ध में पास
किया वह अखिल भारतीय किसान-सभा के इतिहास में एक ऐतिहासिक चीज रहेगी।
सरकार ने उसे पीछे जब्त भी कर लिया। पलासा में मैं ज्यादा न बोला।
पहले दिन जब लाल झण्डे का उत्थान मैंने किया तो हिन्दी में बोला। फिर
दूसरे दिन अन्त में
10-15
मिनट अंग्रेजी में ही भाषण किया।
(शीर्ष पर वापस)
(17)प्रान्तों
के दौरे
शुरू
से ही मैं इस बात की पूरी कोशिश करता रहा हूँ कि भारत के सभी
प्रान्तों में,
यहाँ तक कि बर्मा में भी किसान-सभाएँ बनें और उनका
सम्बन्ध
हमारी अखिल भारतीय सभा से हो। मुझे खुशी है कि इस काम में मुझे सफलता
हुई है। प्राय: सभी प्रान्तों में किसान-सभाएँ बन गयी हैं और कुछ
रियासतों में भी। यह ठीक है कि पश्चिमोत्तार-सीमाप्रान्त,
तमिलनाडु,
आसाम,
सिन्ध और महाराष्ट्र तथा महाकोशल की सभाएँ कमजोर हैं और अधिक
मुस्तैदी से काम कर नहीं सकती हैं। मगर यह भी ठीक है कि बन जरूर गयी
हैं। उनने थोड़ा बहुत काम भी किया है। आशा है,
अचिर भविष्य में उन्हें चुस्त और मजबूत बनाने में हम सफल होंगे।
बेशक हजार
चाहने पर भी मैं सीमा प्रान्त,
सिन्ध,
तमिलनाडु,
केरल,
कर्नाटक प्रान्तों के दौरे अब तक न कर सका। क्योंकि अवकाश ही न मिल
सका। आन्धा्र में भी सिर्फ पलासा ही जा सका। दौरा तो वहाँ भी नहीं ही
कर सका। इन सभी प्रान्तों के साथी मेरे ऊपर इसीलिए रंज भी हैं कि मैं
उनकी उपेक्षा करता हूँ। परन्तु मेरी मजबूरी को भी शायद वे समझते हैं।
किसानों के संघर्षों के करते बिहार से अब तक फुर्सत ही कम मिलती रही
है। फिर जाता कैसे?
जब-जब
मौका लगा तब-तब फिर भी गया ही। पंजाब में तो दो बार गया। मगर इधर तो
सर सिकन्दर ने रोक ही लगा दी। पारसाल जून में दिल्ली गया था। पंजाब
जाने की बात थी ही नहीं। वहाँ के साथियों ने लिखा जरूर था। पर,
मैंने
इनकार किया था। फिर भी दिल्ली में ही पंजाब सरकार की नोटिस एक साल
वहाँ न जाने के लिए मुझ पर तामिल हो गयी! अब अगर जाता भी तो सर
सिकन्दर पकड़ के फिर पंजाब से बाहर ही कहीं रख देता। तो फिर इस नाटक
से क्या मतलब?
इसीलिए
सीमाप्रान्त वालों से क्षमा माँग ली।
यहीं पर
प्रसंगवश एक जरूरी बात कह देना चाहता हूँ। जब मैं दिल्ली में ही था
तो अखबारों में आश्चर्य के साथ अपने सम्बन्ध की बात पढ़ी और मैं दंग
रह गया। बिहार के कांग्रेसी अंग्रेजी दैनिक पत्र
'सर्चलाइट'
ने
कलकते से अपने विशेष संवाददाता के द्वारा ऊपर किया गया हुआ बता के एक
पत्र छापा। उसके बारे में यह बताया गया कि किसी भूतपूर्व वायसराय ने
भारत में किसी के पास लिखा था। उसमें लिखा गया था कि स्वामी सहजानन्द
सरस्वती के विरोध से कांग्रेस कमजोर हो रही है। सरकार इससे फायदा
उठाये। उसका यह भी मतलब था कि मैं सरकार के साथ गुप-चुप सम्बन्ध रखता
हूँ और जानबूझ कर उसी के इशारे पर कांग्रेस का विरोध करता हूँ! मुझे
इस पर हँसी आयी। मैंने दिल्ली की खुली सभा में ही ऐसा कहने वालों को
ललकारा। पीछे तो एक वक्तव्य के द्वारा उस जाली पत्र का अक्षरश:
भण्डाफोड़ किया। फिर स्टेट्समैन ने भी उसे जाली बताया। लेकिन सत्यवादी
लोग कहाँ तक जाल करके विरोधी को गिराने के लिए तैयार होते हैं इसका
प्रमाण उस पत्र ने दिया। उफ! यह भयंकर सत्य!
गुजरात में तो
दो बार घूमा और प्राय: हर जिले में सभाएँ कीं। इस साल तीसरी यात्रा
थी और डाकोर के पास प्रान्तीय किसान सम्मेलन का सभापतित्व भी करना था,
20-21
अप्रैल को। तब तक
19वीं
को ही सरकार ने बन्द कर दिया। वहाँ रानीपरज में मैंने सभाएँ की हैं
और उन लोगों में जीवन लाने में साथियों का हाथ बँटाया है। मैंने उनका
नाच और गान देखा और आतिथ्य स्वीकार किया है। सचमुच किसान-सभा ने
उन्हें हाली तथा दुबला आदि को और खेड़ा के धाराला कहे जाने वाले
क्षत्रियों को आत्मसम्मान और साहूकारों से त्राण दिया है। रानीपरज की
एक गीत की पहली कड़ी का अर्थ ही यह है कि किसान-सभा में जरूर शामिल
हो। इसका नतीजा जरूर अच्छा होगा। हमारे स्वागत में लड़के-लड़कियों और
स्त्री-पुरुषों को हमने उमंग में पाया था।
युक्त प्रान्त
में तो तीन-चार बार गया। कुछ ही जिलों को छोड़ बाकी सभी में कई-कई
सभाएँ कर चुका हूँ। पचास-पचास हजार किसानों की सभाओं में अवधा में
भाषण देने का मौका भी मिला है। श्री हर्षदेव मालवीय के साथ ज्यादातर
जिलों में गया और उनने तथा उनके साथियों ने मीटिंगों का सुन्दर
प्रबन्ध किया। एक दौरे में तो रात में बलिया जिले में मोटर के साथ ही
एक कुएँ में गिरते-गिरते बचा था। रास्ता ही भूल गया और सारी रात मोटर
भटकती रही!
महाराष्ट्र,
बरार,
मराठी,
मध्यप्रान्त और महाकोशल में भी कहीं एक बार और कहीं दो बार जा चुका
हूँ और अनेक जिलों में सभाएँ भी हो चुकी हैं। बंगाल की बात पहले कही
चुका हूँ। आसाम के ग्वालपाड़ा जिले में इसी साल फरवरी महीने में गया
था और जिला किसान सम्मेलन की अध्यक्षता भी की थी। उत्कल में भी दो
दौरे हुए हैं। एक का तो वर्णन पहले ही आया है। दूसरी बार सन्
1939
ई. के अगस्त में गया था,
जब कि
कटक में सभा हुई और अकर्मण्य प्रान्तीय किसान-सभा को फिर कार्यशील
बनाया।
मैंने यह देखा
कि किसान सर्वत्र तैयार हैं। मगर हमारे कार्यकर्ता लोगों को या तो
उनमें विश्वास नहीं है,
या
कांग्रेस और दूसरे दलों के कामों में फँसे होने के कारण उन्हें अवकाश
ही नहीं है। मैंने आश्चर्य के साथ यह भी अनुभव किया है कि किसान-सभा
के काम में सोशलिस्टों से अपेक्षाकृत कहीं ज्यादा दिलचस्पी और
मुस्तैदी कम्युनिस्ट विचार वाले रखते हैं। कारण,
मैं
नहीं कह सकता। मगर इतने दिनों के अनुभव के आधार पर ही मैं यह बात
कहता हूँ। मैंने कई बार इसका उलाहना सोशलिस्ट साथियों को दिया भी है।
(शीर्ष पर वापस)
(18)त्रिपुरी
और उसके बाद
सन्
1939
ई. के
मार्च में त्रिपुरी (महाकोशल) में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। उसके
सभापति श्री सुभाषचन्द्र बोस चुने गये थे। यद्यपि कांग्रेस की
वर्किंग कमिटी या बड़े नेताओं ने लगातार ही दूसरी बार उनका सभापतित्व
नापसन्द किया और डॉ. पट्टाभि को उनके
विरोध
में खड़ा करके उन्हीं का समर्थन किया। फिर भी सुभाष बाबू जीत गये! यह
देश के बड़े नेताओं का ज्वलन्त अपमान था। इसे वे बर्दाश्त न कर सके और
अन्त में सुभाष बाबू इस्तीफा देने के लिए मजबूर किये गये। इसका
घृणिततम नाटक त्रिपुरी के पहले ही खेला जाना कैसे शुरू हुआ,
त्रिपुरी में उसके कौन-कौन से बीभत्स काण्ड हुए और उसके बाद
कलकत्ते
की आल इण्डिया कांग्रेस कमिटी में तथा पहले क्या-क्या षडयन्त्रा किये
गये यह मैं निकट से देख चुका हूँ। राजनीतिक गन्दगी में बड़े-से-बड़े
नेता तक इतना नीचे उतर सकते हैं जब कि
गांधी
जी ने उस पर सत्य और अहिंसा की मुहर लगा दी है ऐसा माना जाता है,
यह
मैंने प्रत्यक्ष देखा। सो भी
गांधी
जी का नाम लेकर ही ऐसा होते देखा!
जिस प्रकार
हरिपुरा में कांग्रेसी मन्त्रियों को बोलने का मुँह न रहा था;
क्योंकि उनके कामों से सर्वत्र किसानों में तथा औरों में असन्तोष की
अग्नि लहक रही थी,
इसीलिए
राजनीतिक बन्दियों की रिहाई का सवाल उठाकर सबों का ध्यान उसी ओर
आकृष्ट किया गया और बिहार तथा युक्त प्रान्त के मन्त्रियों से
इस्तीफे हरिपुरा के ठीक पूर्व दिलाकर गुत्थी सुलझाई गई। ठीक उसी
प्रकार त्रिपुरी के पूर्व गांधी जी के राजकोट वाले उपवास की रचना
करवा के,
या यों कहिये
कि उसकी शरण ले के सुभाष बाबू को गिराने की कुचेष्टा की गयी! गांधी
जी पर कांग्रेस का विश्वास हो,
भला इस
बात से कौन इनकार करे?
और
गांधी जी तो वहाँ थे नहीं कि पूछा जाता कि आप सुभाष को चाहते हैं या
नहीं?
उसी बहाने से
द्रविड़ प्राणायाम के रूप में सुभाष को फाँसी पर लटकाने का श्रीगणेश
त्रिपुरी की मायापुरी में किया गया,
जब कि
वह शख्स 105
डिग्री के ज्वर से आक्रान्त मरणासन्न वहीं पड़ा था! मेरे लिए यह असह्य
दृश्य था। इसीलिए बम्बई के बाद वही पहली कांग्रेस थी जिसमें मैं
बिलकुल ही मौन रहा! कुछ साथियों ने भी मेरी यह मनोवेदना समझी थी।
बात यह है कि
त्रिपुरी से पूर्व सुभाष बाबू से मेरी न तो बातचीत कभी थी और न
परिचय। केवल हरिपुरा के भाषण ने मुझे उनकी ओर आकृष्ट जरूर किया था।
जब देखा कि गांधी जी और श्री बल्लभ भाई के गढ़ में उन्होंने किसान-सभा
का अत्यन्त स्पष्ट समर्थन किया और प्रगतिशील विचारों का भी। उनकी
पूर्व प्रकाशित 'इण्डियन
स्ट्रगल'
(Indian Struggle)
को पढ़कर
कोई भी ताज्जुब कर सकता है कि
गांधीवाद
और
गांधी
जी के विचारों और कामों का शुरू से ही कट्टर
विरोधी
होकर भी उनके गढ़ में वह शख्स कैसे राष्ट्रपति बन सका। विरोधियों ने
जरूर ही उसका लोहा माना होगा।
लेकिन जब
दूसरी बार उनके राष्ट्रपति होने की बात उठी तो मैं नहीं पसन्द करता
था। क्योंकि डरता था कि लगातार दो बार होने पर अवश्य गांधी जी का
जादू उन पर लगेगा। फलत: उनके पुराने विचार बदलेंगे,
जैसा
कि औरों के बारे में मैंने अनुभव किया है। मगर जब चुनाव के दो-चार ही
दिन पूर्व किसान-सभा के ही काम से कलकत्ते गया और कुछ समाजवादी
साथियों ने समझाया कि सुभाष के समर्थन में हार या जीत हर दशा में लाभ
है,
तो मैं मान
गया। वहीं से लौटकर हमने और समाजवादियों ने वक्तव्य द्वारा केवल एक
दिन पहले उनका समर्थन किया। उसके बाद जब वे जीते तो वही समाजवादी लोग
नाचते रहे,
सारी
रात चैन नहीं लिया और न हमें लेने दिया। मगर फिर पीछे वही उनके सख्त
विरोधी बन गये! पर,
मुझे
तो विरोध का कारण आज तक न मिल सका।
त्रिपुरी में
उनकी भयंकर बीमारी के समय दो-एक बार उनसे बातें करने का जरा सा समय
पहले पहल मिला था। मगर वह तो कुछ न था। इसलिए वहाँ जो मेरी मनोवृत्ति
थी वह स्वाभाविक थी न कि उनकी घनिष्ठता के फलस्वरूप। सच बात यह है कि
समाजवादी साथियों ने अन्त में वहाँ जो रुख लिया और गांधी जी पर
विश्वास वाले प्रस्ताव का विषय समिति में विरोध कर के भी पीछे ऐसा न
किया,
वह चीज भी मैं
आज तक समझ न सका। यह बात मुझे बुरी भी लगी। मगर मैंने अपना विचार
वहाँ दबा रखा। प्रस्ताव के विरोध में वोट जरूर दिया। लोग जानते भी थे
कि मैं उसका विरोधी हूँ। मगर किसी से भी विरोध में वोट देने को न
कहा। इससे समाजवादी पार्टी में फूट होती और मैंने उसे उस समय बचाना
चाहा। प्राय: दो-चार को छोड़ उस पार्टी वाले भी सभी के सभी बड़े ही
क्रुध्द थे। मगर पीछे न जानें क्या समझ कर चुप रह गये। यह तो प्रकट
सत्य है। अखबारों में सभी बातें छपी थीं भी।
त्रिपुरी में
ही मैंने पहली बार कोशिश की कि सभी प्रगतिशील विचार वाले एक स्थान पर
बैठकर कोई सम्मिलित कार्यक्रम बनायें। मगर वहाँ असफल रहा।फिर भी पहली
बार यह प्रत्यक्ष देखा कि वामपक्षीय दल के लोग एक पार्टी के
सदस्यदूसरीपार्टी वालों पर कितना अविश्वास करते हैं। वहीं यह भी देखा
कि बड़े-से-बड़े नेता भीकिस प्रकार प्रतिनिधियों के कैम्प में जाकर
कनवांसिग करते थे! बुरी तरह बेचैन थे!
त्रिपुरी के
अवसर पर कई दिन पहले ही मैं जबलपुर जा पहुँचा और कटनी,
मण्डला
आदि में घूमा तथा सभाएँ कीं। मेरे साथी श्री इन्दुलाल जी तो थे ही।
वह तो पहले ही से वहाँ जा बैठे थे। वही तो किसानों की पैदल यात्रा और
प्रदर्शन का प्रबन्ध कर रहे थे। सचमुच एक दिन तो जबलपुर के पास से
त्रिपुरी तक हमें भी उसी दल के साथ पैदल जाना पड़ा। वह प्रदर्शन तो
खूब ही रहा। पैदल दूर-दूर से किसान आये और जुलूस एवं प्रदर्शन शानदार
रहा। झण्डा चौक में सभा हुई। कांग्रेस के वालंटियरों ने हमारा साथ
पूरा-पूरा दिया! कोई बाधा न रही। यह देख हमें खुशी हुई। न जानें
क्यों ऐसा हुआ?
शायद
बाधा देने पर वे लोग न मानते। इसी से स्वागत समिति ने बुध्दिमानी की।
वहाँ के किसान
कैम्प में हमारी कई सभाएँ हुईं और हमने किसानों को पूरा-पूरा तैयार
तथा अपने साथ पाया। महाकोशल में किसान-सभा की जड़ त्रिपुरी में ही
पड़ी।
त्रिपुरी के
बाद कलकत्ते में आल इण्डिया कांग्रेस कमिटी का तमाशा देखा। वहीं
अन्याय की चरम सीमा देखी। सुभाष बाबू ने राष्ट्रपति के पद से इस्तीफा
दिया। यह बात हम पहले नहीं चाहते थे। मगर पीछे तो हमें भी उचित जँची।
वामपक्षियों के सम्मेलन की एक कोशिश फिर वहाँ भी हुई। हमें लोग मिले
भी। मगर फल कुछ सन्तोषप्रद न हुआ समाजवादी और कम्युनिस्ट दोनों ही
संयुक्त वामपक्ष के विरोधी थे। यह बात हम समझ न सके।
त्रिपुरी के
बाद रामगढ़ में इस साल कांग्रेस हुई। बिहार को छोड़कर छोटानागपुर में
उसे करने का अर्थ हमारी समझ में नहीं आया! हम तो यही मानते हैं,
जैसा
कि अखबारों ने लिखा भी कि किसान-सभा के डर से ही वहाँ की गयी। पटना,
गया,
सोनपुर
आदि में तो कई लाख किसान जमा हो जाते और नेताओं की एक न चलती। हम जो
कहते किसान वही करते। मगर छोटानागपुर के घोर जंगल में यह असम्भव था।
वहाँ के किसान अभी पूरे जगे नहीं हैं और दो-तीन सौ मील से लाखों का
जाना आसान न था। फिर भी किसानों का प्रदर्शन तो रामगढ़ में भी अच्छा
हुआ। हालाँकि बिहार के लिहाज से अच्छा नहीं कहा जा सकता। ऐसा क्यों
हुआ यह कहने
को
यहाँ मैं तैयार नहीं,
हालाँकि जानता हूँ। बेशक हमारा जुलूस कांग्रेस के राष्ट्रपति के
जुलूस से कहीं शानदार और लम्बा था। कांग्रेस तो मेघ के कोप से असल
में
हुई ही नहीं और जो कुछ हुआ वह तो निरा तमाशा था। इसे सभी मानते
हैं।
इधर यह पहली ही कांग्रेस थी जिसके अन्दर या कांग्रेस नगर में मैंने
पाँव
तक नहीं दिया।
(शीर्ष पर वापस)
(19)समझौता
विरोधी
सम्मेलन
इधर
कांग्रेस के नेताओं और वामपक्षी पार्टियों के रुख से मैं निराश हो
गया था और ऊब कर सारा समय किसानों में ही लगाने का तय कर लिया था।
लोगों ने और कुछ साथियों ने इस पर यह भी दोषारोपण किया कि मैं तो
राजनीति को छोड़ शुध्द अर्थनीति
(Pure economism)
में पड़
गया। मुझे इनकी बुध्दि पर हँसी आयी और तरस भी।
मगर बराबर
राजनीति में रहने के कारण एकदम तटस्थ होना असम्भव था। सुभाष बाबू से
बातें भी होती रहती थीं। इधर जब देखा कि समझौते की मनोवृत्ति
कांग्रेसी नेताओं में धीरे-धीरे दृढ़ हो रही है और राष्ट्रीय आजादी का
युध्द वे अब न छेड़ेंगे,
तो कुछ
साथियों और सुभाष बाबू के साथ तय पाया कि रामगढ़ में कांग्रेस के समय
ही समझौता विरोधी सम्मेलन हो। फलत: उसकी तैयारी होने लगी। मगर समय
महीने भर का ही था। तुर्रा यह कि लोगों ने मुझे ही स्वागताध्यक्ष बना
दिया। जब मैंने जवाबदेही लेने से इनकार किया तो तय पाया कि मेरा नाम
तो रहे। पर,
जवाबदेही औरों पर रहे। मेरा नाम रहने से असर अच्छा होगा यही कहा गया।
हुआ भी ठीक यही। सम्मेलन के अध्यक्ष सुभाष बाबू का जुलूस लासानी था।
प्रकृति देवी ने भी सम्मेलन पर कृपा की और उसका खुला अधिवेशन जम के
हुआ। जहाँ लाखों लोग जमा थे। कांग्रेस के ठीक उलटा हुआ। हालाँकि
बड़े-बड़े नेताओं और पुराने साथियों तक ने इसमें बाधा डालने में कोई
कोर-कसर न की। उन्होंने बेहयाई तक कर डाली।
मेरे विचार से
उस सम्मेलन की सफलता का दारमदार यों तो अनेक साथियों पर है ही। पर,
पं.
धानराज शर्मा यदि न रहते तो यह बात कदापि न होती। सम्मेलन में मैंने
कहा था कि यही समय कूदने का है। उसी के बाद तो कूदकर मैं जेल में आ
बैठा। हमने यूरोपीय युध्द में सहायता का खुलेआम वहाँ विरोध किया और
विरोध करने की प्रतिज्ञा की। फलत: राष्ट्रीय सप्ताह में शुरू से अन्त
तक मैं बिहार प्रान्त में खुल के विरोध करता रहा। फलत: उसी अपराधा
में पकड़ा जाकर तीन साल के लिए जेल में बन्द किया गया। ता.
29-4-40
को यह दण्ड मिला।
(शीर्ष पर वापस)
(20)वामपक्ष
का मेल
मैं
अपने इस जीवन-संघर्ष की गाथा को पूरा करने के पहले एक जरूरी बात कह
देना चाहता हूँ,
जिसमें मैंने बहुत दिलचस्पी ली और अन्त में ऊब कर जिसे छोड़ा,
वामपक्षी मित्रा प्राय: कहा करते थे कि यदि आप चाहें तो वामपक्षीय
दलों का परस्पर मेल हो सकता है। मगर मैं इसमें पड़ता न था। परन्तु जब
त्रिपुरी के बाद पड़ा तो देखा कि इस मेल का
विरोध
होने लगा। जो सबसे समझदार थे वही ऐसा करते थे! लेकिन सन्
1939
के जून में
बम्बई में जब फारवर्ड ब्लॉक की पहली कॉन्फ्रेंस हुई तो श्री नरीमान
आदि ने मुझसे पूछा कि कोई कॉन्फ्रेंस वामपक्षियों की की जाय?
मैंने हाँ,
कहा। बम्बई जाने पर सद्भाव प्रदर्शनार्थ वहाँ गया भी और बोला भी।
उसके बाद सभी वामपक्षीय दलों की बैठक सुभाष बाबू के डेरे में हुई। कई
दिन की कोशिश के बाद आखिर मेल हुआ और संयुक्त वामपक्ष कमिटी
(Left Consolidation committee)
भी बनी।
उसमें सभी दलों के प्रतिनिधि रहे। मैं और प्रो. रंगा किसी दल के न
होने के कारण किसान-सभा के ही समझकर उसमें रखे गये। बम्बई में उस
कमिटी का काम खूब चला। बराबर बैठकें हुईं और आल इण्डिया कांग्रेस
कमिटी में किस प्रस्ताव पर क्या किया जाय,
कौन
क्या बोले,
क्या संशोधान लायें और कौन से प्रस्ताव लाये
जाये
आदि बातें तय हुईं।
उसी समय आल
इण्डिया कांग्रेस कमिटी में वर्किंग कमिटी के प्रस्ताव आये कि बिना
प्रान्तीय कांग्रेस की आज्ञा के कोई सत्याग्रह न करे और न प्रान्तीय
कमिटियाँ मन्त्रियों के रास्ते में दिक्कतें डालें। सीधा अर्थ था
बिहार का किसान सत्याग्रह बन्द करने का और कांग्रेस को मन्त्रियों के
अधीन करके वैधानिकता की छाप उस पर लगाने का। हम सबों ने दोनों का
विरोध करना तय किया। बहुत साथी बोले। सुभाष भी बोले। मैंने साफ कहा
कि मैं इसे मान नहीं सकता। आप साफ कहिये कि हम कांग्रेस से निकल
जाये। यह द्रविड़ प्राणायाम क्यों?
इसके
बाद मैं बम्बई से चला आया।
मगर वामपक्ष
कमिटी ने तय किया कि
9
जुलाई को भारत भर में इन दो प्रस्तावों का विरोध हो। बस,
यहीं
से फिर गड़बड़ी हुई। रायसाहब का दल तो
9
जुलाई को ही उस कमिटी से अलग हुआ। दूसरे दल अलग तो न हुए। मगर
9
जुलाई को विरोध दिवस बहुतों ने न मनाया। हमने तो पटने में जम के
मनाया। उसके बाद सुभाष बाबू कांग्रेस की चुनी कमिटियों से निकाले
गये। फिर भी देखा कि समाजवादी लोग ढीले पड़ रहे हैं। प्रान्तों में
कुछ न किया गया।
फिर कलकत्ते
में उस कमिटी की बैठक हुई जिसमें सभी दल वाले थे। लेकिन वे लोग उस
कमिटी से डर रहे थे ऐसा अन्दाज लगा। वहीं राष्ट्रीय-संग्राम सप्ताह
मनाने का तय पाया। मगर मैंने बहुत दर्द के साथ देखा कि हमारे
बड़े-से-बड़े समाजवादी पटने में बैठे रहे और मेरे लाख कहने पर भी उनने
31
अगस्त से 6
सितम्बर तक एक दिन भी उस सप्ताह में मीटिंग तक न की। मुझे बड़ी तकलीफ
हुई। पीछे तो बिहार कांग्रेस ने मुझे भी कांग्रेस से अलग कर दिया,
क्योंकि मैं सत्याग्रह चलाता ही रहा। रोका नहीं।
यूरोपीय युध्द
छिड़ने पर अक्टूबर में नागपुर में साम्राज्यविरोधी सम्मेलन
सभी दल
वालों से पूछ कर हुआ। मगर समाजवादी उसमें न आये। हालाँकि मैंने श्री
जयप्रकाश बाबू से पहले ही पूछ लिया था। मुझे खेद हुआ। फिर
11-12
अक्टूबर को हम सभी लखनऊ में मिले। मगर देखा कि समाजवादी अपनी डेढ़ ईंट
की मस्जिद अलग ही बनायेंगे। मैं उन्हें समझा कर हार गया। वहाँ से
बिहार में लौटा और अन्य समाजवादी साथियों से बातें कीं। वे राजी हुए
कि खुशी-खुशी मिल कर लड़ें। फिर भी न जानें क्यों बात कह के भी चुप्पी
साधा ली! बस, 7वीं
नवम्बर को मैंने एक लम्बा पत्र सबों को लिख कर सबों से नाता तोड़
लिया। पत्र में इसके सभी कारण दिये गये हैं।
(शीर्ष पर वापस)
(21)उपसंहार
मेरा खयाल था कि अन्त
में अपने मुख्य-मुख्य विचार भी लिख कर इस दास्तान को पूरा करूँ। मगर
इसकी काया यों ही विस्तृत हो गयी। इसीलिए मजबूरन वह खयाल छोड़ना पड़ा।
वे विचार अब अलग ही लिखे जायेगे ऐसा तय कर लिया है।
लेकिन इतना तो जान ही
लेना चाहिए कि मैं कमाने वाली जनता के हाथ में ही, सारा शासन-सूत्रा
औरों से छीनकर, देने का पक्षपाती हूँ। उनसे लेकर या उन पर दबाव डाल
कर देने-दिलवाने की बात मैं गलत मानता हूँ। हमें लड़कर छीनना होगा।
तभी हम उसे रख सकेंगे। यों आसानी से मिलने पर फिर छिन जायगा यह सत्य
है। यों मिले हुए को मैं सपने की सम्पत्ति मानता हूँ।
इसके लिए हमें पक्के
कार्यकर्ताओं और नये नेताओं का दल तैयार करना होगा। मगर जो किसानों,
मजदूरों आदि को आर्थिक प्रोग्राम के आधार पर कहीं-न-कहीं उनका संगठन
करके उनकी लड़ाई में सीधो शामिल न हों वह लोग उनके और हमारे नेता या
कार्यकर्ता नहीं हो सकते। मैं किताबी ज्ञान नहीं चाहता। केवल किताबी
ज्ञान से धोखा होता है। मैं लड़ाई और लड़ने वाले चाहता हूँ। मैं आर्थिक
लड़ाई को छोड़कर आजादी की लड़ाई का विरोधी हूँ। मैं आर्थिक युध्द को ही
आजादी के युध्द में परिणत करना चाहता हूँ। मैं सामाजिक, आर्थिक और
राजनीतिक क्रान्ति चाहता हूँ और यह दूसरे तरह हो नहीं सकती। मैं वैसे
ही लोगों का साथ दूँगा।
मगर दलबन्दियों से ऊब
जाने के कारण किसी भी राजनीतिक दल में शामिल होने से डरता हूँ। भरसक
किसी भी दल में शामिल न हूँगा।
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