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सहजानंद समग्र/ खंड-2

 
स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-2

किसान सभा के संस्मरण-V

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सन् 1937 ई. की जनवरी का महीना था। फैजपुर कांग्रेस से हम ताज़े-ताज़े वापस आये थे। असेम्बली-चुनाव की तारीखें सर पर थीं। जल्दी-जल्दी एक बार पटना जिले का दौरा ऐन चुनाव से पहले कर लेना था। मेरे साथ कांग्रेस के दूसरे भी नेता उस दौरे में शरीक थे। बखतियारपुर में एक मीटिंग करके बिहार शरीफ जाना था। शाम को वहीं मीटिंग थी। इस दरम्यान हरनौत थाने वालों का हठ था कि रास्ते में ही यह जगह है और ऐन सड़क पर ही। इसलिए यहाँ भी एक सभा जरूर हो ले। हमने इसकी मंजूरी दे दी थी। लोगों ने मीटिंग की तैयारी खासी कर ली थी। मगर हमारे विरोधी भी चुप न थे। वह इलाका ज्यादातर उन लोगों का है जिन्हें कुर्मी, कुर्मवंशी आदि कहते हैं। और जातियों की अपेक्षा कुर्मी लोग उधर ज्यादा बसते हैं। चुनाव के जमाने में बदकिस्मती से जाति-पाँति की बातें खूब चलती हैं। मगर वहाँ तो एक और भी वजह थी जिससे ये बातें तेज हो गयीं।

बखतियारपुर बाढ़ सब-डिविजन में पड़ता है और उससे दक्षिण बिहार सब-डिविजन है। कांग्रेस के भीतर ही बाढ़ और बिहार की सीटों को लेकर तनातनी चलती रही। बाढ़ के ही एक कुर्मी सज्जन, जो वकील हैं, चुने जाने के लिए बहुत ही लालायित थे। मगर कांग्रेसी नेताओं ने जब किसी कारण से उन्हें बिहार के लिए नामजद करना चाहा था तो वे तैयार न हुए और भीतर-ही-भीतर उनने गुटबन्दी ऐसी कर ली थी कि बिहार से एक गैर-कांग्रेसी कुर्मी चुन लिए जायँ। तैयारी ऐसी थी कि ऐन मौके पर कोई गलती जान-बूझ के कर दी जाये और दूसरा होने न पाये। इसीलिए उनने पीछे कबूल कर लिया था कि अच्छा, मैं बिहार की ही सीट से तैयार हो जाता हूँ। फिर भी भीतर-ही-भीतर तैयारी कुछ और ही थी। उनकी बदबख्ती से ठीक नामिनेशन के ही समय उस तैयारी का पता चल जाने के कारण उनका नामिनेशन कांग्रेस की तरफ से दाखिल न किया जा के एक और कुर्मी सज्जन का ही दाखिल किया गया। इससे कुर्मी समाज में कुछ खलबली मची। क्योंकि चुनाव को ले के उस जाति के भीतर ही दो दल हो चुके थे। कांग्रेस विरोधी कुर्मी सज्जन का भी नामिनेशन दाखिल हुआ था। उनका असर उस इलाके में ज्यादा था।

जिला कांग्रेस कमिटी का सभापति भी मैं ही था। किसान-सभा की तो बात थी ही। विरोधी लोग जीत जाते अगर मैं जरा भी उदासीन हो जाता। इसकी कोशिश भी की गयी। कांग्रेसी उम्मीदवार एक जालिम जमींदार हैं। इसलिए भी वे लोग सोचते थे कि अगर मैं उनकी मदद में न जाऊँ तो वे हारेंगे जरूर। मैंने उनकी जमींदारी में उन्हीं की जाति के किसानों का पक्ष ले के काफी आन्दोलन भी पहले किया था। इससे भी विरोधियों को आशा थी कि मैं चुनाव के मामले में ढीला पड़ जाऊँगा। मगर मेरी तो मजबूरी थी। जिला कांग्रेस कमिटी की तरफ से मुझे काम करना ही था। जवाबदेही भी मेरे ऊपर विजय के सम्बन्ध की थी ही। फिर बेईमानी कैसे कर सकता था? यदि ऐन मौके पर जिला के सभापतित्व से हटता तो भी ठीक न होता। हाँ, मैं चाहता तो था कि वे जालिम हजरत नामजद न हों। मगर कांग्रेसी नेता लोगों को इसकी परवाह कहाँ थी? वे तो सभी लोगों को उस समय असेम्बली में भेज रहे थे-ऐसों को भी जो न सिर्फ जालिम जमींदार थे, बल्कि दरअसल कांग्रेस से अब तक जिनका कोई ताल्लुक न था। इस धाँधली के विरुद्ध प्रान्तीय वर्किंग कमिटी में मैं बराबर लड़ता था। मगर अकेला ही था। बाकियों ने तो वैसा ही तय कर लिया था। अजीब हालत थी। पर करता ही आखिर क्या?

ऐसी दशा में मेरे ही ऊपर वहाँ के कांग्रेस विरोधियों का क्रोध था। वे जानते थे कि अगर मैं वहाँ न जाऊँ तो कांग्रेसी उम्मीदवार को चुटकी मार के वे हरा देंगे। कुर्मी जाति में भी दोनों उमीदवार दो अलग बिरादरियों के थे और अपनी-अपनी बिरादरी को ले के लोग परेशान थे। इसलिए बखतियारपुर में ही मुझे पता चला कि हरनौत की मीटिंग में कुछ गड़बड़ी होगी और विरोधी लोग ऊधम मचायेंगे। यही कारण था कि मैं पहले से ही तैयार होके गया था। गाँव के नजदीक पहुँचते ही देखा कि जहाँ एक दल लाल और तिरंगे झण्डे के साथ बाजे-गाजे से हमारा स्वागत करने को तैयार है, तहाँ उसके बाद ही काले झण्डे वाला दूसरा दल ‘स्वामी जी, लौट जायँ’ आदि के साथ हमारा विरोध कर रहा है। हम हँसते थे। हमारी मोटर विरोधियों के बीच से आगे बढ़ गयी। हम लोग सड़क से कुछ हट के एक बाग में गये जहाँ सभा की तैयारी थी। लोग तो पहले से थे ही। अब और भी जम गये।

सभा-स्थान में कई चौकियाँ एक साथ मिला के पड़ी थीं और उन पर दरी, कालीन वग़ैरह पड़े थे। हम लोग उन्हीं पर उत्तर रुख बैठे थे। स्पीचें हो रही थीं। और लोग बोल चुके थे। मगर मैं अभी बोल चुका था नहीं। अभी बोलने का सिलसिला जारी ही था। सभी का ध्यान उसी ओर था। इतने में एकाएक मुझे पता लगा कि मेरे दायें कन्धे पर जैसे तेज जलन सी हो गयी। तेज दर्द था। मगर लोगों ने देखा कि कोई आदमी अपनी लाठी मुझ पर चलाके बेतहाशा भागा जा रहा है। दौड़ो-दौड़ो, पकड़ो-पकड़ो की आवाज हुई। कुछ लोग दौड़ भी पड़े। मगर मैंने हठ करके सबों को लौटा लिया। मारने वाला निश्चिन्त निकल गया। असल में लाठी तो उसने मेरे माथे पर ही चलाई थी। मगर माथा बच गया बाल-बाल और वह जा लगी कन्धे पर। उससे पहले मैंने लाठी की चोट खायी न थी। इसी से मालूम पड़ा कि जैसे जलता अंगार गिर गया।

मैंने मारने वाले को पकड़ने से लोगों को इसलिए रोका कि उसमें खतरा था। अगर वह पकड़ा जाता, जैसा कि निश्चय था, तो लोग क्रोध में उतावले हो के जानें उससे कैसे पेश आते। भीड़ तो थी ही। अन्देशा था कि उसकी जान ही चली जाती। कम-से-कम इसका खतरा तो था ही। उसके बाद उसके दल वाले जानें क्या करते। हो सकता था कि वहीं करारी मार-पीट हो जाती। यही सोच के मैंने लोगों को रोका। परिणाम हमारे लिए सुन्दर हुआ। मीटिंग बेखटके होती रही। मेरी चोट पर लोगों को दवा की सूझी, पर, मैंने रोक दिया। चोट की जगह सूज गयी जरूर, वह काली भी हो आयी। मगर मैं ठण्डा रहा और सभा में खड़ा होके बोला भी। लोग ताज्जुब में थे। पर मुझे परवाह न थी। हाय-हाय करना या चिल्लाना तो मैंने आज तक जाना ही नहीं। फिर वहाँ कैसे हाय-हाय करता? मीटिंग के बाद बिहार शरीफ जाने पर चोट को धीरे-धीरे गर्म पानी से धोया गया ताकि दर्द शान्त हो। वहाँ भी सनसनी थी। मगर मैं तो वहाँ की सभा में भी बराबर बैठा रहा। बोला भी। इस प्रकार वह दौरा पूरा हुआ। कांग्रेसी उम्मीदवार तो जीते और अच्छीे तरह जीते।

मगर दो साल गुजरने के बाद हालत कुछ और ही हो गयी। मुझे निमन्त्राण मिला कि हरनौत में किसान-सभा होगी। खूबी तो यह कि जो लोग पहली बार मेरे सख्त दुश्मन थे वही इस बार मेरी सभा करा रहे थे। उनने मेरे स्वागत की तैयारी भी सुन्दर की थी। मैंने निमन्त्राण स्वीकार किया खुशी-खुशी। वहाँ जा के देखा तो सचमुच समाँ ही कुछ और थी। मीटिंग भी ठाठ-बाट से हुई। उनने प्रेम से मेरा अभिनन्दन भी किया। स्वागताध्यक्ष ने जो भाषण दिया वह दूसरे ढंग का था। लोग हैरत में थे। मैं भी चकित था। इतना तो सबने माना कि दो साल के भीतर किसान-सभा की ताकत बढ़ी है काफी। इसीलिए पहले के दुश्मनों को भी लोहा मानना पड़ा है, चाहे उनका मतलब इस बार कुछ भी क्यों न हो। हमारे लिए यही क्या कम गौरव की बात थी कि हमारे दुश्मन भी हमारे ही झण्डे के नीचे आके मतलब साधने की कोशिश करें? हाँ, हमें सजग रहना जरूरी था कि कहीं किसान-सभा बदनाम न हो जाये। सो तो हम थे ही और आज भी हैं। उस बदली हालत को देख के हमने यह समझने की भूल कभी न की कि वे लोग किसान-सभा के पक्के भक्त बन गये। ऐसा जानने में ही तो खतरा था और हमने ऐसा किया नहीं। लेकिन उन्हें मजबूरन किसान-सभा का नारा बुलन्द करना पड़ा है यह हमने माना। वह उनकी मजबूरी किसान-सभा के महत्त्व को समझ कर हुई और उनने समझा कि इसी का पल्ला पकड़ो तो काम चलेगा, या सचमुच किसान-सभा की सच्ची भक्ति के करते हुई, यह निराला प्रश्न है। इसका उत्तर उस समय दिया जा सकता भी न था। यह तो समय ही बता सकता था कि असल बात क्या है।

लेकिन वहाँ जो आशाजनक असली बात दिखी वह कुछ और ही थी। हमें वहाँ कुछ नौजवान और विद्यार्थी मिले जो कुर्मी समाज के ही थे। हमने उनमें जो कुछ पाया वही दरअसल हमारे काम की चीज थी। उसी पर हम मुग्ध भी हुए। अपनी उस यात्रा की सफलता भी हमने प्रधानतया उसी जानकारी से मानी। उन छात्रों और युवकों में हमने किसान-सभा और किसान-आन्दोलन की मनोवृत्ति पाई। हमने यह देखा कि वह लोग इसे अपनी चीज समझने लगे हैं। वह यह मानते नजर आये कि हम किसान हैं और हमारी असल संस्था किसान-सभा ही हो सकती है। इसमें वह अपने किसान समाज का उद्धार देखने लगे थे। यह मेरे लिए काले बादलों में सुनहली रेखा नजर आयी।

एक ओर चीज भी थी। उनने मुझे हस्तलिखित एक मासिक पत्र दिखाया। मैं उसका नाम भूलता हूँ। उनने कहा कि प्रतिमास लिख के वे लोग उसे खुद तैयार करते हैं। लेख और चित्र दोनों ही दिखे। दोनों ही हस्तलिखित-हस्तनिर्मित थे। उनने मुझसे आग्रह किया कि मैं उसे आद्योपान्त पढ़ के अपनी सम्मति लिख दूँ। समय मेरे पास न था। मगर मैंने उनकी इच्छापूर्ति जरूरी समझ उस ‘पत्र’ को शुरू से आखिरी तक पढ़ा। लेखक नये-नये छात्र और जवान लोग ही थे जिन्हें उसकी शिक्षा कभी नहीं मिली थी। व्याकरण वग़ैरह का ज्ञान भी उन्हें उतना न था। फिर भी जिन भावों को मैंने उन लेखों में पाया उनने मुझे मुग्ध कर दिया। लेखों की गलतियाँ तो मैं भूल ही गया। मेरे सामने तो भाव ही खड़े थे। देश के और कांग्रेस के बड़े-से-बड़े नेताओं के बारे में निर्भीक समालोचना उस मासिक पत्र के लेखों में थी, सो भी अनेक में। समालोचना भी ऐसी सुन्दर कि तबीअत खुश हो जाय। चुभने वाली बात बहुत ही अच्छे ढंग से दर्शाई गयी थी।

इतना ही नहीं। मुझे ताज्जुब तो तब हुआ जब मैंने देखा कि लेखों में मेरा और अन्य कई किसान-नेताओं का भी जिक्र है, उनकी बड़ाई है, उनके कामों की तारीफ है। साथ ही यह भी पाया कि कांग्रेसी नेताओं के मुकाबिले में हमारे को जन-हित की दृष्टि से अच्छा और महत्त्वपूर्ण बताया गया था। बातें कहने और लिखने का तरीका उनका अपना था। और यही ठीक भी था। बनावटी ढंग से बातें लिखना या लिखने में दूसरों की नकल करना कभी ठीक नहीं होता। हर बात में मौलिकता का मूल्य होता है। चाहे शैली कुछ भी हो-और मैंने तो निराली शैली को हृदय से पसन्द किया-मगर बातें तो मार्के की थीं, दुरुस्त थीं। यह भी नहीं कि हमसे उनकी कोई घनिष्ठता थी। हम तो उनमें किसी को जानते-पहचानते भी न थे। इसीलिए उनने जो कुछ लिखा वह उनके हृदयों का उद्गार था। कइयों ने लिखा था, न कि एक दो ने ही। कांग्रेसी नेताओं पर कुछ चुटकियाँ भी थीं, जो भद्दी न थीं। किन्तु अच्छी थीं।

लोग कहते हैं कि हमारे देश में जातीयता का अभिशाप कुछ करने न देगा। मैं तो निराशावादी हूँ नहीं, किन्तु पक्का आशावादी हूँ। मैंने वहाँ निराशावाद से उल्टी बातें पाईं। हालाँकि घोर जाति पक्षपात का इलाका वह है। हरनौत इसका अड्डा माना जाता है। मेरे खिलाफ तो वहाँ बवण्डर खड़ा हो चुका था। फिर भी युवकों के वे स्वाभाविक उद्गार हवा का रुख कुछ दूसरा ही बताते थे। मैं मानता हूँ कि सयाने होने पर उनके दिमाग में जहर भरने की कोशिश होगी, होती है। मगर मैंने वहाँ जो कुछ पाया वह बताता था कि वह जहर मिटेगा जरूर ही।

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सन् 1938 ई. के गर्मियों का मौसम था। मेरा दौरा किसान-आन्दोलन के सिलसिले में ही बाढ़ और बिहार सब-डिविज़नों में हो रहा था। बाढ़ शहर के पास के ही एक बड़े गाँव में सभा करने के बाद मैं घोर देहात में गया। वह देहात बाढ़ से दक्षिण है जिसे टाल का इलाका कहते हैं। मिट्टी निहायत ही चिकनी और काली है। बरसात में तो पाँव में चिपक जाती है ऐसी, कि जल्द छूटना जानती ही नहीं। मगर गर्मियों में सूख के ऐसी सख्त बन जाती है कि कंकड़ों की तरह पाँवों में चुभती है और काट खाती है। दूर-दूर तक पेड़-वेड़ नजर आते नहीं। कहीं-कहीं गाँव होते हैं। बरसात में पचासों मील लम्बी और बीसियों मील चौड़ी उस जमीन पर केवल जल ही नजर आता है। बीच-बीच में गाँव ऐसे ही देखते हैं जैसे समुद्र में टापू। लगातार तीन-चार महीने यही नजारा दीखता है। सिर्फ किश्तियों पर चढ़ के ही उन गाँवों में जा सकते हैं। उसी टाल के इलाके का एक भाग, जो बाढ़ से बहुत ज्यादा पूर्व और टाल के आखिरी हिस्से पर पड़ता है, बड़हिया टाल कहा जाता है। बड़हिया एक बड़ा सा गाँव जमींदारों का टाल के उत्तरी सिरे पर रेलवे का स्टेशन है, जैसे बाढ़, मुकामा वग़ैरह। इन बड़े-बड़े गाँवों की जमींदारियाँ उस टाल में हैं। इसलिए उस टाल के बनावटी टुकड़े बन गये हैं सिर्फ जमींदारियों को जनाने के लिए। उन्हें ही बड़हिया टाल, मुकामा टाल वग़ैरह कहा करते हैं। उसी टाल की जमीनों को लेकर बड़हिया इलाके के किसानों, जो अधिकांश केवल खेत-मजदूर और तथाकथित छोटी जाति के ही हैं, की लड़ाई हमारी किसान-सभा लगातार कई साल तक लड़ती रही है। इस लड़ाई में किसानों पर घोड़े दौड़ाये गये, लाठियाँ पड़ीं, भाले-बर्छे लगे, सैकड़ों केस चले, कई सौ जेल गये और क्या-क्या न हुआ। हमारे कार्यकर्त्ता और नेता भी जेल गये। वहीं लालकुर्त्तों वाले किसान-सेवकों के दल पहले-पहल तैयार किये गये। उनके बारे में तो उस टाल में तैनात अफसरों तक ने कह दिया कि सचमुच ही ये लोग शान्तिदल ;च्मंबम ठतपहंकमद्ध के आदमी हैं। जमींदारों के द्वारा लाठीराज और गुण्डाराज कायम कर देने पर भी उन्हीं ने वहाँ किसानों को हर तरह से शान्त रखा। वे भी उन्हीं किसानों के बच्चे थे। यही तो उस दल की खूबी रही है। हमने लड़ाई के नेतृत्व के लिए भी उन्हीं पिछड़े किसानों को स्वावलम्बी बनाया। पैसे वग़ैरह का काम भी उनने जैसे-तैसे ज्यादातर खुद ही चलाया।

हाँ, तो उसी टाल के दो गाँवों में हमने मीटिंगें कीं। पहले से ही उन मीटिंगों की तैयारी थी। उसके बाद फिर बाढ़ लौटने के बजाय बाहर ही बाहर बिहार के इलाके में हमें नूरसराय जाना था। रास्ता विकट था। बैलगाड़ी वग़ैरह से जैसे-तैसे हमें हरनौत जाना था। वहाँ से टमटम से नूरसराय आसानी से जा सकते थे। ठीक याद नहीं कि हमें टमटम की सवारी हरनौत में ही मिली, या उससे पहले ही पहुँची थी। मगर हरनौत के बाद तो हम जरूर ही टमटम से गये यह बखूबी याद है। असल में हरनौत के बाद की ही यात्रा महत्त्वपूर्ण थी। इसीलिए वह अच्छी तरह याद है।

हरनौत से बहुत दूर तक हम पक्की सड़क से ही गये। मगर आगे हमें पक्की सड़क छोड़ देना पड़ा। टमटम कच्ची सड़क से चलने लगा। हम कई साथी उस पर बैठे थे। शायद तीन थे। कुछ दूर जाने के बाद हमें एक अजीब लड़ाई देखने को मिली। जिस गाँव के पास यह हो रही थी उसका नाम-धाम तो हमें याद नहीं। हमने बहुत दूर से देखा कि तीन-चार छोटे-छोटे जानवरों की आपस में ही कुछ खटपट चल रही है। कभी एक खदेड़ता है बाकियों को, जो तीन की तादाद में थे, तो कभी वे तीन उस पर हमला करते हैं। बहुत देर तक मैं यह चीज देखता रहा। जब तक टमटम नजदीक न पहुँचा तब तक तो मुझे पता भी न चल सका कि ये कौन से जानवर आपस में लड़ रहे हैं। मगर धीरे-धीरे चक्कर काटता हुआ टमटम जब कुछ नजदीक आया तो मालूम हुआ कि एक छोटी सी बकरी अपने तीन नन्हें बच्चों के साथ एक ओर है, और तीन कुत्ते दूसरी ओर। इन्हीं दोनों के बीच वह कुश्तमकुश्ता चालू है। वह घण्टों चलता रहा, यह मैंने खुद देखा। पहले कब से था कौन बताये। मगर जबसे मेरी नजर उस पर गयी मैं बराबर वह निराली समाँ देखता था।

लड़ाई यों चलती थी। तीनों कुत्ते उस बकरी पर हमला करके चाहते थे कि बच्चों के साथ उसे मार के खा जायँ। मगर उनके जवाब में उन बच्चों को अपने पेट के पास जमा करके वह बकरी मारे गुस्से के अपना माथा और सींगें झुकाती और उन पर धावा बोलती थी जिससे वे तीनों ही भाग जाते थे। असल में जान पर खेल के जब वह उन पर टूट पड़ती थी तो वे हिम्मत हार के भाग जाते थे। मगर जब वह रुक जाती थी तो फिर उस पर टूट पड़ते थे। यही तरीका बराबर घण्टों चलता रहा। मेरी नजर एकटक उसी पर टिकी थी। ज्यों-ज्यों मैं नजदीक आता जाता था, त्यों-त्यों वह दृश्य देख-देख के मग्न होता था। मेरे शरीर के अंग-अंग और रोम-रोम खिलते जाते थे। नजदीक आने पर देखा कि बकरी छोटी सी ही थी। मगर गुस्से के मारे मौत की सूरत बनी थी, रणचण्डी बनी वह भी काफी परेशान थी। कुत्ते तो थे ही। उसकी अब तक जीत रही, इसलिए हिम्मत बनी थी। मगर कुत्तों का इरादा पूरा न हो सका था। वे तो उसका ही और अगर वह न हो तो कम-से-कम उसके तीनों बच्चों का ही गर्मागर्म खून पीना चाहते थे जो मिल न सका। इसलिए स्वभावतः उनमें पस्ती थी। फिर भी वह कुश्ती चालू थी। इतने में मेरे सामने ही बकरी का मालिक आ पहुँचा। उसने कुत्तों को मार भगाया और बकरी को घर पहुँचाया।

मेरे लिए वह दृश्य क्यों रोमांचकारी था और मैं उस पर क्यों मुग्ध था, इसकी वजह है। मेरे सामने हमेशा ही यह प्रश्न आया करता था कि किसान सब तरह से पस्त और पागल होने के कारण जमींदारों से डँट के मुकाबिला कर नहीं सकते और बिना मुकाबिला किए न तो जुल्मों से ही उन्हें छुटकारा मिल सकेगा और न उन्हें अपना अधिकार ही हासिल हो सकेगा। मैं जहीं जाता वहीं यह सवाल उठता था। मैं भी परेशान था। जवाब तो मैं देई देता। पूछने वालों को और आम किसानों को भी समझा देता कि वे कैसे विजयी हो सकते हैं, हो जायँगे। संसार में किसान कहाँ, कैसे विजयी हो चुके हैं यह बातें उन्हें कह के समझाता था। मगर आखिर यह सब कुछ परोक्ष और दिमागी दुनिया की ही बात होती थी। न तो मैंने ही कहीं किसानों की विजय देखी थी और न किसानों ने ही। सारी-की-सारी सुनी सुनाई बातें ही थीं। इसलिए मुझे खुद अपने जवाब से सन्तोष न होता था। मैं तो प्रत्यक्ष मिसाल चाहता था कि किस प्रकार अत्यन्त कमजोर भी जबर्दस्तों को हरा देते हैं। बराबर इसी उधेड़-बुन में रहता था कि बकरी की यह अनोखी और ऐतिहासिक लड़ाई देखने को मिल गयी! इससे मेरा काम बन गया। फिर तो यह भी देखा कि अकेली बिल्ली कैसे किसी आदमी पर विजय प्राप्त करती है।

मैंने आँखों देखा कि मामूली सी बकरी अपने तीन बच्चों को और अपने आपको भी, घण्टों दिलोजान से तीन कुत्तों के साथ करारी भिड़न्त करने के बाद भी, बचा सकी। यह तो प्रत्यक्ष चीज थी। अगर एक ही कुत्ता चाहता तो डरपोक और पस्त हिम्मत बकरी की हड्डियाँ चबा जाता। और वहाँ तो बकरी के तीन बच्चे भी थे। बकरी को ऐसी हालत में चबा जाना और भी आसान था। क्योंकि उसकी ताकत न सिर्फ अपने बचाने में खर्च हो रही थी, बल्कि उन तीन बच्चों के बचाने की परेशानी में भी बहुत कुछ खर्च होई जाती थी। फिर भी वह सफल रही और अच्छी तरह रही। क्यों? क्या वजह थी कि वह ऐसा कर सकी? इसका जवाब बातों से क्या दिया जाय? जिसने उस समय उस बकरी की सूरत और चेहरा-मुहरा नहीं देखा है और जिसने यह अपनी आँखों नहीं देखा कि वह किस तरह लड़ती थी, उसके दिमाग में इस सवाल का जवाब कैसे समायेगा, बैठ जायगा यह मुश्किल बात है। इसे ठीक-ठीक समझने के लिए वैसी घटनाओं को खुद देख लेना निहायत जरूरी है। वह एक घटना हजार लेक्चरों का काम करती है। क्योंकि वह तो ‘कह सुनाऊँ’ नहीं है। किन्तु ‘कर दिखाऊँ’ है। और बिना ‘कर दिखाऊँ’ के कोई बात दिल पर नक्श हो सकती नहीं।

असल में जब कोई पक्का मंसूबा और दृढ़ संकल्प करके जान पर खेल जाता है तो उसके भीतर छिपी अपार शक्ति बाहर आ जाती है। यही दुनियाँ का कायदा है। ताकत बाहर से नहीं आती। वह हरेक के भीतर ही छिपी पड़ी रहती है, जैसे दूध में मक्खन। जिस प्रकार मथने से मक्खन बाहर आ जाता है, ठीक उसी तरह जान पर खेल के लड़ जाने, भिड़ जाने पर वही भिड़न्त मथानी का काम करती है। फलतः छिपी हुई ताकत को बाहर ला खड़ा करती है। बकरी की लड़ाई से यह साफ हो जाता है। कहते भी हैं कि ‘मरता क्या न करता?’ अगर मामूली बकरी डट जाने पर सपरिवार अपने को तीन कुत्तों से बचा सकती है, तो किसान डँट जाने पर अपने हक की रक्षा क्यों न कर सकेगा?

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जब जवाबदेह कार्यकर्त्ता और लीडर ऐसा काम कर डालते हैं जिसे व्यवहार-बुद्धि (Common-Sense)मना करती है तो बड़ी दिक्कत पैदा हो जाती है। जनता में काम करना एक चीज है और केवल राजनीतिक चालबाजी दूसरी चीज। अखबारों में खबर छपवा देना कि फलाँ-फलाँ जगह मीटिंगें हुईं और अमुक-अमुक सज्जन बोले, यह एक ऐसी बात है जिसे हमारे कार्यकर्त्ता और लीडर आमतौर से पसन्द करते हैं। मीटिंग कैसी थी, उसमें ठोस काम क्या हुआ, या नहीं हुआ, इस बात की उन्हें शायद ही परवाह होती है। मैं इसे न सिर्फ गैर जवाबदेही मानता हूँ, बल्कि ठगी समझता हूँ। बाहरी दुनिया पर चन्द लोगों के प्रभाव और नेतृत्व का असर इससे भले ही जमे। मगर धोखा होता है। जनता का काम इससे कुछ भी होता नहीं। फिर भी हम इस प्रवाह में बहे चले जाते हैं। अखबारों की रिपोर्टें इसी तरह की अक्सर हुआ करती हैं। हम इतने से ही सन्तोष करते हैं। अपनी सालाना रिपोर्टों की तोंदें भी इन्हीं बलगमीं रिपोर्टों से भर डालते हैं। बाहरी दुनियाँ हमारी बड़ाई करती है कि हम बहुत काम करते हैं। यदि एक ही दिन में हमारी कई मीटिंगों की खबरें छप जायँ तब तो कहना ही क्या? तब तो हमारी महत्ता और लीडरी आसमान छू लेती है।

जब अपनी सफलता का हिसाब हम खुद इन्हीं झूठी रिपोर्टों से लगाते हैं तब तो किसानों और मजदूरों का भला भगवान् ही करे! तब पता लग जाता है कि हम कैसे सच्चे जन-सेवक हैं। हमारे दिलों में पीड़ित जनता की वास्तविक सेवा की आग कैसी जल रही है इसका सबूत हमें मिल जाता है। मगर असलियत तो यह है कि इन हरकतों से गरीबों का उद्धार सात जन्म में भी नहीं हो सकता। वे तो बावजूद इन मीटिंगों के भेड़-बकरियों की तरह कभी एक दल के और कभी दूसरे के हाथों मँड़ते ही रहेंगे। इस तरह हम उनके नेता बन के अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए उन्हें उनके शत्रुओं के हाथ बराबर बेचते ही रहेंगे। उनके उद्धार का रास्ता यह हर्गिज है नहीं। मगर बदकिस्मती से इस बात के कड़घवे अनुभव मुझे किसान आन्दोलन के सिलसिले में इतने ज्यादा हुए हैं कि गिनाना बेकार है।

एक बात और है। जवाबदेही का मतलब भी हम ठीक समझ पाते नहीं। किसी काम के पूरा करने में क्या-क्या करना होगा, कौन-कौन दिक्कतें आयेंगी, उनका सामना कैसे किया जायगा, उस सम्बन्ध में किस पर विश्वास करें, किस पर न करें, विश्वास करें भी तो कहाँ तक करें, वग़ैरह-वग़ैरह पहलुओं पर पूरा विचार करना भी जवाबदेही के भीतर ही आता है और यही उसके असली पहलू हैं। इन पर पूरा गौर किये बिना हम जवाबदेही को पूरा कर नहीं सकते और अगर हम इसमें चूकते हैं तो इसकी वजह या तो यही है कि हमने जवाबदेही को अभी तक जाना नहीं, या हमें इस बात का अनुभव नहीं कि कौन क्या कर सकता है, किसकी कौन सी दिक्कतें और अड़चनें हैं जिन्हें पहले समझ लेना जरूरी है। जब देहात के किसान या कार्यकर्त्ता किसी मीटिंग के प्रबन्ध की पूरीे जवाबदेही ले लेते हैं तो हम निश्चिन्त हो जाते हैं कि अब हमें कुछ करना है नहीं। हम तो मजे से चलेंगे और मीटिंग करके लौट आयेंगे।

मगर यह भारी भूल है। देहात के लोगों के लिए यह समझ लेना और सब बातों का पूरा-पूरा हिसाब लगा लेना आसान नहीं है। सब बातों के तौलने की जवाबदेही उन पर डालना ही भूल है। उस तौल का उनका तराजू भी देहाती ही होता है जो पूरा नहीं पड़ता। इसीलिए हमें खुद सारी चीजों की देख-भाल करना जरूरी है। मैंने देखा है कि हर मीटिंग के करने-कराने वाले आमतौर से यही समझते हैं कि दुनियाँ में बस यही एक मीटिंग है। इसी से सबका काम चल जायगा। इसके बाद आज ही कहीं और भी मीटिंग हमारे लीडर को करना है या नहीं इसकी परवाह उन्हें होती ही नहीं। कल, परसों भी उन्हें कहीं इसी तरह जाना है या नहीं, और अगर वे नहीं जा सके तो लोगों को वैसी ही निराशा होगी या नहीं, लोग वैसे ही बुरा मानेंगे या नहीं, जैसा कि तैयारी हो जाने पर हमारे यहाँ नेताओं के न आ सकने पर हम मानते हैं, यह बात भी वे लोग साधारणतया सोचते ही नहीं। फिर ठीक समय मीटिंग को पूरा करने की सारी तैयारी वे करें तो कैसे करें? लेकिन यह तो हमारे जवाबदेह कार्यकर्त्ताओं का ही काम है कि ये सारी बातें सोचें और उसी हिसाब से ऐसा प्रबन्ध करें कि ठीक समय पर सारा काम पूरा हो जाय। देहात के लोगों के कह देने पर ही सारी बात का विश्वास कर लेना बड़ी भारी गलती है। हमें उन लोगों की कमजोरियों को बिना कहे ही अपने ही अनुभव के आधार पर समझ लेना और तदनुसार ही काम करना चाहिए।

इस सम्बन्ध के कटु अनुभव मुझे यों तो हजारों हुए हैं और उनसे काफी तकलीफ भी हुई है। मगर कभी-कभी भीतर-ही-भीतर जल जाना पड़ा है। खासकर जब बड़े लीडर कहे जाने वालों ने ऐसी नादानी की है। इस बात की चर्चा एकाध बार पहले ही की जा चुकी है। मगर एक घटना बहुत ही मार्के की है। सन् 1939 ई. की बरसात गुजर चुकी थी। किसान लोग रबी बोने की तैयारी में खेतों को ठीक कर रहे थे। धान की फसल अभी तैयार न हुई थी। खेतों में ही खड़ी थी। मगर बरसात का पानी रास्तों से आमतौर से सूख चुका था। जहाँ तक अन्दाज है कार्तिक महीने की पूर्णमासी अभी बीती न थी। ठीक उसी समय पटना जिले के बाढ़ सब-डिविजन के हमारे एक किसान-नेता ने मेरे दौरे का प्रोग्राम तय किया। और मीटिंगों के अलावे उनने एक ही दिन दो मीटिंगों का प्रबन्ध किया। एक फतुहा थाने के उसफा गाँव में और दूसरी हिलसा थाने में हिलसा में ही। जब मुझे पता चला तो मैंने कहा कि देहात की मीटिंग के साथ दूसरी मीटिंग भी हो यह शायद ही सोचा जा सकता है जब तक कि मोटर का रास्ता न हो। लेकिन उनने न माना।

जब मीटिंग के दिन हम फतुहा स्टेशन पर आये तो मैंने उसफा के बारे में बार-बार पूछा कि कितनी दूर है, रास्ता कैसा है, आदि-आदि। उत्तर मिला कि बहुत दूर तक तो टमटम जायगा। फिर नदी के बाद तीन-चार मील हाथी से जाना होगा। मगर मेरे दिल ने यह बात नहीं कबूल की। खूबी तो यह थी कि मीटिंग के बाद हाथी से ही 4-5 मील चल के लाइट रेलवे की गाड़ी पकड़ना और शाम तक हिलसा भी पहुँचना जरूरी था। मैंने उनसे साफ कहा कि यह बात गैर-मुमकिन है। मुझे जो देहातों का अनुभव है उसके बल पर मैंने उन्हें साथ चलने से रोका और हिलसा जाने को कहा। उनसे यह भी साफ कह दिया कि हिलसा आने की मेरी उम्मीद छोड़ के आप खुद मीटिंग कर लेंगे। हाँ, अगर मुमकिन हुआ तो मैं भी आ जाऊँगा। मगर मेरी इन्तजार में आप कहीं बैठे ही न रह जायें। इसी समझौते के अनुसार मैं टमटम पर बैठ के एक कार्यकर्त्ता के साथ उसफा की ओर चला, इस आशा से कि जहाँ हाथी खड़ा रहने का इन्तजाम है वहाँ तक जल्दी पहुँच जाऊँ।

मगर गैर-जवाबदेही का एक नमूना फतुहा में ही मिला, जब हमारा टमटम सदर सड़क छोड़ के गली से चलने लगा। कुछ देर के बाद गली बन्द थी और उसकी मरम्मत के लिए पत्थर की गिट्टियाँ पड़ी थीं। बड़ी दिक्कत हुई। टमटम जाने की उम्मीद न थी। बहुत ही परेशानी के बाद जैसे-तैसे टमटम पार किया गया। वह परेशानी हमीं जानते हैं। फिर टमटम बड़ा कुछ दूर-कुछ ज्यादा दूर-जाने के बाद साइकिल से दौड़ा हुआ एक आदमी हमारे पीछे आता था और हमें पुकारता था। मगर देर तक हम उसकी आवाज सुन न सके और बढ़ते गये। जब वह नजदीक आ गया तो उसकी पुकार हमने सुनी। उसने कहा कि हाथी तो स्टेशन पर आ गया है, आप वहीं लौट चलें। हम घबराये और सोचा कि यह दूसरा संकट आया। लौटेंगे तो फिर उसी गली में टमटम निकालने की बला आयेगी। इसलिए साइकिल वाले से कह दिया कि जाओ और हाथी वहीं भेजो जहाँ पहले भेजने का तय पाया था। क्योंकि तुम भी तो कहते ही हो कि भूल से हाथीवान उसे स्टेशन ले गया है। इस पर वह बेचारा लौट गया। हम आगे बढ़े। मगर कुछी दूर और चलके टमटम वाले ने कह दिया कि ‘‘बस, बाबूजी, अब आगे टमटम जा न सकेगा। यहीं तक की बात तय पायी थी।’’

हम लोग उतर पड़े और पैदल चल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद मालूम हुआ कि इधर नदी-वदी कोई है नहीं। उसफा का रास्ता आगे से खेतों से हो के जायगा, यह कच्ची सड़क छूट जायगी। हम लोग कुछ दूर और चल के धान के खेतों के बीच एक पीपल के नीचे जा ठहरे। वहीं इन्तजार करने लगे कि हाथी आये तो चलें। पेड़ की छाया में कुछ लेटे भी। मगर चैन नहीं। मीटिंग में पहुँचने की फिक्र जो थी। इसीलिए रह-रह के हाथी का रास्ता देखते। कभी खड़े होते, कभी बैठ जाते। देखते-देखते एक घण्टा बीता, दो बीते। मगर हाथी लापता ही रहा। ताकते-ताकते आँखें पथरा गयीं। हम परेशान हो गये। मगर फिर भी हाथी नदारद! इधर दिन के दस-ग्यारह बज भी रहे थे। हमने सोचा कि कहीं ऐसा न हो कि हाथी की इन्तजार में बैठे-बैठे उसफा की भी मीटिंग चौपट हो। हिलसा जाने का तो अब सवाल ही नहीं। हमारे सामने यह तीसरी दिक्कत आयी। मगर हमने तय किया कि पैदल ही आगे बढ़ना होगा। रास्ता भी तो देखा था नहीं। फिर भी हिम्मत की कि पूछते-पाछते चले जायँगे। हमने पहले से ही होशियारी की थी कि साथ में कोई सामान नहीं लिया था। नहीं तो वहीं बैठे रह जाते। उसका जाना तो दूर रहा। फतुहा लौटना भी दूभर हो जाता। सामान कौन ले चलता? उस घोर देहात में कुली कहाँ मिलता? मुझे तो ऐसे मौके कई पड़े थे। इसीलिए तैयार हो के आया था कि पैदल भी चलूँगा यदि जरूरत होगी। फिर सामान साथ लाता क्योंकर?

हाँ, तो हम चल पड़े। रास्ते की बात पूछिये मत। केवाल की काली मिट्टी सूखी थी। वह पाँवों को कतरे जाती थी। जूता पहनने में दिक्कत यह थी कि रह-रह के कीचड़-पानी पार करना पड़ता था। इसलिए जूता महाराज हाथों की ही शोभा बढ़ा रहे थे। कभी-कभी पाँवों में भी जा पहुँचते थे। रास्ता भी कोई बना बनाया था नहीं। कहीं खेत और कहीं दो खेतों की मेंड़ (आर) से ही चलना पड़ता था। पूछने पर लोगों ने यही बताया कि फलाँ कोने में उसफा है। बस, वही दिशा देख के चल रहे थे। फिर भी काफी भटके। दूर-दूर तक कहीं गाँव नजर आते न थे कि किसी से रास्ता पूछें। सूनी जगह में पेड़ भी थे नहीं कि रामचन्द्र की तरह सीता का हाल उन्हीं से पूछते। पशु भी नदारद ही थे। यही हालत पक्षियों की थी। बहुत चलने पर कहीं-कहीं एकाध हल चलाने वाले किसान मिलते तो उन्हीं से पूछ लेते कि उसफा का रास्ता कौन है? फिर उसी अन्दाज से आगे बढ़ते। कातिक की धूप भी ऐसी तेज थी कि चमड़ा जला जाता था। प्यास भी लगी थी। मगर रास्ते में पानी पीना आसान न था। कहीं गाँव में कुआँ मिले तभी तो पिया जाय। मगर कुओं की हालत यह थी कि उनमें मुँह तक पानी भरा था। ऐसी हालत में उनका पानी पीना बीमारी बुलाना था। इसलिए प्यासे बढ़ते जाते थे। रास्ते में एक-दो गाँव भी मिले। वहाँ हमने उसफा की राह पूछ ली और बढ़ते गये।

चार या छः मील की तो बात ही मत पूछिये। आठ-नौ मील से कम हमें चलना न पड़ा। बराबर चलते ही रहे। फिर भी तीन घण्टे से ज्यादा ही वक्त वहाँ पहुँचने में लगा। हम परेशान थे। मगर चारा भी दूसरा था नहीं। मीटिंग में तो पहुँचना ही था, चाहे जो हो जाये। अन्त में एक गाँव मिला। हमने समझा यही उसफा है। किन्तु हमारा खयाल गलत निकला। आगे बढ़े। पता चला कि आगे वाला उसफा है। मगर नदी-नाले और पानी कीचड़ के करते रास्ता चक्कर काटता था। अन्त में कुछ लोग मिले जो सभा में जा रहे थे। तब हमें हिम्मत हुई कि अब नजदीक आ गये। अन्त में बाजे-गाजे वालों की भीड़ मिली। ये लोग स्वागतार्थ जमा थे। हमें इनके भोले-भाले पन पर दया आई। हम पहुँचेंगे भी या नहीं इसका खयाल तो इनने किया नहीं और स्वागतार्थ बाजे-गाजे के साथ जम गये। हमने समझा कि अब सभा-स्थान पास में ही होगा। मगर सो बात तो थी नहीं। अभी मीलों चलना था। बहुत देर के बाद गाँव में पहुँचे तो सारे गाँव में जुलूस घूमता फिरा। हमें क्या मालूम कि जुलूस घुमाया जा रहा है? गाँव भी शैतान की आँत की तरह लम्बा है। हम तो प्यासे मरे जा रहे थे और लोगों को जुलूस की पड़ी थी। पर, किया क्या जाये? देहात के लोग तो सीधे होते हैं। वे अगर सारी बातें समझ जायँ तो फिर जमींदारी कैसे रहने पायेगी? महाजनों की लूट चालू क्योंकर रहेगी? उनकी नासमझी और उनका भोलापन यही तो लूटने वालों की-शोषकों की-पूँजी है, यही उनका हथियार है।

जैसे-तैसे जुलूस का काम पूरा हुआ और हम लोग गाँव से बाहर बाग में पहुँचे जहाँ सभा का प्रबन्ध था। मगर मेरा तो गला सूख रहा था। इसलिए कुएँ से पानी मँगवा के भरपूर स्नान किया तब कहीं कुछ ठण्डक आयी। फिर पानी पिया। जरा लेटा। इतने में लोग भी जमा होते रहे। मुझे पता चला कि वहाँ शायद ही कोई पहुँच पाता है। बरसात में फतुहा से लेकर वहाँ तक केवल जलमय रहता है। जाड़े में भी आना गैरमुमकिन ही है। हाँ, गर्मी में शायद ही कोई आ जाते हैं। आमतौर से यही होता है कि मीटिंगों की नोटिसें बँट जाती हैं, लोग जमा भी होई जाते हैं। मगर नेता लोग ही नहीं पहुँच पाते। फलतः लोग निराश लौटते हैं। इस बात की आदत सी वहाँ के लोगों में हो गयी है। मोटर वग़ैरह का आना तो असम्भव है। बैलगाड़ी की भी यही हालत है। हाथी या घोड़े से आ सकते हैं। नहीं तो पैदल। मगर नेता और पैदल? मेरे बारे में भी लोग समझते थे कि शायद ही पहुँचूँ। इसीलिए मरता-जीता, थका-प्यासा जब मैं पहुँच गया तो लोगों को ताज्जुब हुआ!

यों तो उसफा में मिडिल स्कूल है। लाइब्रेरी भी है। फुटबाल वग़ैरह की खेल भी होती है। कांग्रेस की लड़ाई में वहाँ के कुछ लोग कई बार जेल भी गये हैं। फिर भी वह समूचा इलाका ही पिछड़ा हुआ है। सभाएँ शायद ही होती हैं। छोटे-मोटे जमींदार, जो उस इलाके में हैं, खूब जुल्म करते हैं। पुलिस का भी वहाँ पहुँचना आसान नहीं है। इसलिए जालिम लोग स्वच्छन्द विचरते हैं। लगातार कई साल के बीच मेरी वही एक मीटिंग थी जहाँ पुलिस पहुँच न सकी, सी. आई. डी. रिपोर्टरों का पहुँचना तो और असम्भव था। वे लोग हिलसा की मीटिंग में चले गये। यह भी एक अजीब बात थी। तमाशा तो यह हुआ कि मुझे लेने के लिए भेजा गया हाथी मीटिंग खत्म होते न होते वहाँ लौटा।

सभापति उस सभा में बनाये गये इलाके के एक छोटे से जमींदार। मुझे यह बात पीछे मालूम हुई। नहीं तो शायद ही ऐसा होने पाता। मगर मैंने लेक्चर जो दिया वह तो जमींदारी-प्रथा और जमींदारों के जुल्मों के खिलाफष् ही था। फिर भी न जाने सभापति जी कैसे पत्थर का कलेजा बना के सुनते रहे। मुझे उनके चेहरे से मालूम ही न पड़ा कि वे मेरे भाषण से घबरा रहे हैं। यदि घबराते भी तो मुझे परवाह क्या थी? मैं तो अपना काम करता ही। मैंने यह जरूर देखा कि लोग मस्त होके मेरी एक-एक बातें सुनते थे। मालूम पड़ता था, उन्हें पीते जाते हैं। उनका चेहरा खिलता जाता था, ज्यों-ज्यों सुनते जाते थे। मुझे यह भी पता चला कि उसफा के किसान जमींदारों के जुल्मों के खिलाफ लड़ने में जरा भी नहीं हिचकते। औरों की तरह पुलिस से भी वे भयभीत नहीं होते। यदि पुलिस जमींदारों या महाजनों का पक्ष अन्यायपूर्वक ले, तो उससे भी उनकी दो-दो हाथ हो जाती है। भविष्य के खयाल से यह सुन्दर बात है। हक के लिए मर-मिटने की लगन के बिना किसानों के निस्तार का दूसरा रास्ता हई नहीं।

हाँ, सभा के अन्त में एक मजेदार घटना हो गयी। कुछ नौजवान लोग स्कूलों या कॉलिजों के पढ़ने वाले से प्रतीत हुए। उनने यह कहा कि बिना स्वराज्य मिले ही यह आप जमींदार-किसान कलह क्यों लगा रहे हैं? थे वे जमींदारों के ही लड़के। मगर चालाकी से उनने आजादी की दलील की शरण ली और कांग्रेसी बन बैठे। मैंने उत्तर दिया कि झगड़े के लगाने की क्या बात? यह तो पहले से मौजूद ही है। अगर आपकी जायदाद कोई लूटने लगे तो क्या स्वराज्य की फिक्र में उससे लिपट न पड़ियेगा? क्योंकि झगड़ने पर तो आपकी ही दलील से स्वराज्य की प्राप्ति में बाधा होगी। हम तो किसानों को यही बताते हैं कि जो स्वराज्य उन्हें लाना है वह कैसा होगा, क्योंकि जमींदारों और किसानों का स्वराज्य एक न होगा-अलग-अलग होगा। जो एक का स्वराज्य होगा, वह दूसरे के लिए बला बन जायगा।

वे फिर बोले कि आप तो मिस्टर जिन्ना की सी बात कर रहे हैं। जैसे वह स्वराज्य मिलने के पहले उसका बँटवारा कर रहे हैं आप भी वैसा ही कर रहे हैं। इस पर मैंने उन्हें बताया कि आप मेरी स्थिति को ठीक समझी न सके। मैं तो किसानों को सिर्फ यही बताता हूँ कि सजग हो के स्वराज्य के लिए लड़ो ताकि वह उनका स्वराज्य हो, न कि जमींदारों और सूदखोरों का। मगर वह लड़ें जरूर। जमींदार वग़ैरह न भी लड़ें, तो भी वे अकेले ही लड़ें। अगर वे लोग भी लड़ें तो साथ मिल के ही लड़ें। मगर चौंकन्ने रहें ताकि मौके पर जमींदार लोग उन्हें चकमा दे के स्वराज्य को सोलहों आने हथिया न लें। लेकिन मिस्टर जिन्ना तो मुसलमानों को लड़ने से ही रोकते हैं। वे तो नौकरियों और असेम्बली की सीटों का बँटवारा चाहते हैं। उसके लिए हिन्दुओं से मिल के लड़ना नहीं चाहते। बल्कि बार-बार मुसलमानों को लड़ने से रोकते हैं। फिर मेरी उनके साथ तुलना कैसी? क्या कोई कह सकता है कि मैंने, किसान-सभा ने या किसानों ने कांग्रेस की लड़ाई में साथ नहीं दिया है? क्या मैंने कभी किसानों को रोका है?

इसके बाद वे लोग चुप हो गये। मगर किसानों ने सभी बातें समझ लीं। मैंने उनसे पूछ दिया कि तुम्हारे गाँव के जमींदार जो नवाब साहब हैं उनके स्वराज्य के लिए लड़ोगे या अपने स्वराज्य के लिए। उनने एक स्वर से सुना दिया कि अपने स्वराज्य के लिए! तब मैंने कहा कि ये सवाल करने वाले तो नवाब साहब का ही स्वराज्य चाहते हैं, गोकि साफ-साफ बोलते नहीं। मगर गोलमोल स्वराज्य का तो यही मतलब ही है। इन्हें डर है कि गोलमोल न कह के अगर स्वराज्य का स्वरूप बनाने लगेंगे तो किसान हिचक जायँगे। जिस स्वराज्य में जमीन के मालिक किसान न हों, अपनी कमाई को पहले स्वयं सपरिवार भोगें नहीं, उन्हें काफी जमीन मिले नहीं, सूदखोरों से उनका पिण्ड छूटे नहीं, जमींदारों के जुल्म से उनका पल्ला छूटे नहीं और भूखों मर के भी लगान, कर्ज वग़ैरह चुकाना ही पड़े वह उनका स्वराज्य कैसा? और अगर यह बातें न हों तो फिर जमींदार मालदारों का स्वराज्य कैसा? इसीलिए कहता हूँ कि किसान और जमींदार मालदार का स्वराज्य एक हो नहीं सकता। इस पर जय-जयकार के साथ सभा विसर्जित हुई। सभी अपने-अपने गाँव-घर गये।

अब सवाल आया वापस जाने और फतुहा में ठीक समय पर गाड़ी पकड़ने का। क्योंकि प्रायः शाम हो चली थी। हिलसा पहुँचने का तो प्रश्न ही न था। खतरा यह था कि फतुहा में भी बिहटा जाने वाली ट्रेन मिल सकेगी नहीं। यदि तेज सवारी मिलती तो मुमकिन था उसका मिलना। इसलिए मैंने इस बात पर जोर दिया कि अच्छी सवारी जल्द लाई जाय। मैंने सभा के पहले भी वहाँ पहुँचते ही कह दिया था कि सवारी का इन्तजाम ठीक रहे। आने में जो हुआ सो तो हुआ ही, जाने का तो ठीक रहे। नहीं तो कल का प्रोग्राम भी चौपट होगा। हिलसा तो रही गया। लोगों ने हाँ-हाँ कर दिया और सब ठीक है सुनाया। लेकिन मुझे तो शक था ही। क्योंकि ‘‘सब ठीक है’’ वाला जवाब जो फौरन मिल जाता है, बड़ा ही खतरनाक होता है। ऐसा मेरा अनुभव है सैकड़ों जगहों का। फिर भी करता ही आखिर क्या? इसलिए मीटिंग खत्म होते ही सवारी की चिल्लाहट मैंने मचाई। जवाब मिला, आ रही है। कुछ देर बाद फिर पूछा, तो वही ‘आ रही है’ का उत्तर मिला। कई बार यही सुनते-सुनते ऊब गया। आने के समय की पस्ती होने के कारण ही सवारी के लिए परेशानी थी। नहीं तो पैदल ही चल पड़ता। मगर जब देखा कि कुछ होता जाता नहीं, तो आखिर चल देना ही पड़ा पैदल ही। लोग रोकने लगे कि रुकिये, सवारी आती है। मगर मुझे अब यकीन न रहा। अतः रवाना हो गया। पीछे देखा कि वही पुराना हाथी चींटी की चाल से चला आ रहा है। मुझे रंज तो बहुत हुआ कि ये लोग धोखा देते हैं। भला इस मुर्दा सवारी से फतुहा कब पहुँचूँगा। ऐसी गैर जवाबदेही! इसके पीछे से लोग पुकारते जाते थे कि मैं रुकूँ। मगर मैं बढ़ता ही चला जाता था। सवारी की यह आखिरी दिक्कत ऐन मौके पर बहुत ही अखरी। किन्तु लाचार था। एक-दो मील चला गया। शाम हो रही थी। दूध भी न पी सका था। अतएव आगे के गाँववालों ने रोका। वे भी सभा में गये थे। एक वैष्णव ब्राह्मण ने बाहर ही कुएँ पर कम्बल डाल के मुझे बिठाया और फौरन ही गाय का दूध दुहवा के मुझे पीने को दिया। इतने में कुछ देर हो गयी और बूढ़ा हाथी भी आ पहुँचा। मैं उस पर चढ़ने में हिचकता था। इसके लिए तैयार न था। मगर लोगों ने हठ किया। रात का समय और अनजान रास्ता। कीचड़-पानी से हो के गुजरना, सो भी आठ-दस मील। टेढ़ी समस्या थी। दिन रहता तो पैदल ही चल देता खामख्वाह। मगर अँधेरी रात जो थी। इसलिए मजबूरन हाथी पर बैठना ही पड़ा। एक लालटेन भी आयी रास्ता दिखाने के लिए, मगर वह ऐसी मनहूस थी कि रोशनी मालूम ही न होती थी। फिर भी दूसरी थी नहीं। इसलिए वही साथ ली गयी। लेकिन वह फौरन ही बुझ गयी। अतएव पुकार के उसके मालिक के हवाले उसे हमने कर दिया और अँधेरे में ही अन्दाज से चल पड़े। आखिर करते ही क्या? हाथी एक तो बूढ़ा और कमजोर था। दूसरे थका भी था हमारी ही तरह। क्योंकि अभी-अभी स्टेशन से वापस आया था। तीसरे भूखा था। भलेमानसों ने उसके खाने का कोई प्रबन्ध किया ही नहीं और मेरे साथ उसे फिर चला दिया। यह अजीब बात थी। और अगर रात न होती तो वह भूखों ही मरता। एक कदम बढ़ता भी नहीं, लेकिन रात होने से उसका काम चालू था। हाथी तो रास्ते के खेतों में खड़ी फसल को नोचता-खाता ही चलता है। यही तो उसकी गुजर है। दिन में खेतवाले सजग रहते और चिल्लाते हैं, तूफान करते हैं। इसलिए पीलवान हाथी को रोकता-डाँटता चलता है जिससे उसका घात शायद ही लगता है। मगर रात में तो यह खतरा था नहीं। इसलिए हाथी का स्वराज्य था। धान के हरे-हरे खेत खड़े थे। उन्हीं से हो के हम गुजर रहे थे। हाथी खाता चलता था। किसानों की फसल की इस तरह तबाही हमें खलती जरूर थी। इसलिए आमतौर से हम हाथी पर चढ़ते नहीं। मगर हाथी की भूख को देख के हम भी मजबूर थे और हाथीवान से उसे रोकने की बात कहने की हिम्मत हमें न थी।

इस प्रकार चलते-चलाते एक नदी के किनारे चलने लगे। मालूम हुआ कि यह आम रास्ता फतुहा जाने का है। अब हमें यकीन हुआ कि रास्ता भूले नहीं हैं। ठीक ही जा रहे हैं। कुछ दूर यों ही चलते रहे फिर वह नदी हमें छोड़ के जाने कहाँ भाग निकली। नदियों की तो चाल ही टेढ़ी-मेढ़ी होती है। फिर उनकी किससे पटे? जो वैसी ही चाल के अभ्यासी हों वही उनके साथ निभ सकते हैं। हमें तो जल्दी थी फतुहा पहुँचने की। घड़ी पास ही थी। रह-रह के वक्त देखते जाते थे। अब हमें डर हो गया कि ट्रेन पकड़ न सकेंगे। क्योंकि अन्दाजा था कि फतुहा अभी दूर है। इतने में ही ट्रेन की रोशनी नजर आयी। हमने देखा कि पूरब से पच्छिम धक्धक्-चकमक करती रेलगाड़ी चलती जा रही है। उसे हमारी क्या परवाह थी। अगर उसके भीतर दिल नाम की कोई चीज होती और हमारा पता उसे होता तो शायद हमारे भीतर मचने वाले महाभारत को वह महसूस कर पाती। फिर भी हमारे लिए रुकती थोड़े ही। जो लोग समय के पाबन्द हैं और उसकी पुकार सुनते हैं वह किसी की परवाह न करके आगे बढ़ चलते हैं, बढ़ते ही जाते हैं। यही खयाल उस समय हमारे माथे में घूम गया। अपनी विफलता में भी इतनी सफलता, यह शिक्षा हमें मिली। हमने इसी से सन्तोष किया।

हाथी चलता रहा। इतने में लाइट रेलवे की ट्रेन भी दक्षिण से आयी और चली गयी। हम टुक-टुक देखते ही रह गये। आखिर चलते-चलाते हम भी फतुहा के नजदीक पहुँचे। जब हम पक्की सड़क पर आये तो हमें दो साल पहले की एक घटना याद आयी। हमें ऐसा लगा कि फतुहा के पास हमें बराबर दिक्कतें होती हैं, खासकर हिलसा के प्रोग्राम में। दो साल पहले भी ऐसा ही हुआ था कि हिलसा में मीटिग करके हम लोग टमटम से ही फतुहा चले थे ट्रेन पकड़ने। ट्रेन तो हमें मिली थी। मगर पास में पहुँचने पर उसी पक्की सड़क पर मरते-मरते बचे थे। बात यों हुई कि रात हो गयी थी और जिस टमटम से हम लोग आ रहे थे वह था हिलसा का ही। ज्यों ही वह उस स्थान पर पहुँचा जहाँ एक पुल है और दो सड़कें मिलती हैं त्यों ही एक बैलगाड़ी आगे मिली। टमटमवाले ने चाहा कि टमटम को बगल से निकाल दें। मगर उसके ऐसा करते ही घोड़ा पटरी के नीचे उतर गया और औंधे मुँह गिर पड़ा। असल में वहाँ सड़क के बगल में बहुत गहराई है। अगर टमटम उलटता तो हममें एक की भी जान न बच पाती। सभी खत्म हो जाते। मगर घोड़े के गिर जाने पर भी टमटम कैसे रुक गया यह अजीब बात है। हमारे साथी नीचे गिर पड़े। टमटम लटक के ही रह गया। उलटा नहीं। मगर मैं उसी पर बैठा ही रह गया। मेरे सिवाय सबों को चोट भी थोड़ी-बहुत आयी। घोड़ा तो मरी जाता अगर झटपट हम लोग टमटम से अलग उसे न कर देते और उठा न देते। खैर, वह उठाया गया और जैसे-तैसे स्टेशन के नजदीक पहुँचा। उस दिन की घटना हमें कभी नहीं भूलती। ऐसी ही घटनाएँ किसान-सभा के दौरे में दो-एक बार और भी हुई हैं। मगर इस बार की थी सबसे भयानक। हम तो बाल-बाल बचे। सो भी मुझे कुछ भी न हुआ। वही घटना हमें उस दिन स्टेशन पर फिर याद आ गयी कि हम उसी मनहूस स्थान पर पहुँच गये।

हाथी वहाँ से आगे बढ़ा और हम स्टेशन के दक्षिण रेलवे लाइन की गुमटी पर ही हाथी से उतर पड़े। हमें ऐसा मालूम हुआ कि किसी वीरान से आ रहे हैं जहाँ न रास्ता हो और न कोई सवारी-शिकारी। गाड़ी तो कभी की छूट चुकी थी। अब हमें उसकी फिक्र न थी। बल्कि इस बात की खुशी थी कि खैरियत से हम इस भयंकर यात्रा से लौट के स्टेशन तो पहुँचे। असल में एक चिन्ता के रहते ही अगर उससे भी खतरनाक बात सामने आ जाय तो चिन्ता खुद काफूर हो जाती है और नया खतरा आँखों के सामने नाचने लगता है। हमारी यही हालत हो गयी थी। हम स्टेशन पहुँचेंगे या नहीं, पहुँचेंगे भी तो कब और किस सूरत में, हाथ-पाँव टूटे होंगे, या खैरियत से होंगे, आदि बातें हमारे दिमाग में भर रही थीं। हमें फिक्र यही थी कि किसी सूरत से स्टेशन पर सकुशल पहुँच जायँ। यही वजह है कि पहुँच जाने पर हमारी खुशी का ठिकाना न रहा।

स्टेशन पर जाने के बाद दिक्कत हुई सोने की। सोने का सामान तो पास था नहीं। वह तो ट्रेन से चला गया था। यहाँ तक कि हाथ-पाँव धोने के लिए पानी लाने का लोटा भी नहीं था। इसलिए वेटिंग रूम में चुपके से अँधेरे में ही जा पड़े। मगर थोड़ी देर बाद स्थानीय कबीर-पन्थी मठ के कुछ विद्यार्थी हमें ढूँढ़ते आये । वे महन्त के जुल्म से ऊबे थे और हमारी प्रतीक्षा में थे। ट्रेन के समय खोज के लौट गये थे। वे फिर आये और हमें अपनी जगह लिवा ले गये। उस समय हम उनकी कुछ खास मदद कर न सके। फिर भी रास्ता बता दिया। सुबह की ट्रेन से हम बिहटा चले गये।

(शीर्ष पर वापस)

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किसान-सभा की स्मृतियाँ हैं तो इतनी कि पोथे लिखे जा सकते हैं। यह भी नहीं कि केवल कहानियों जैसी हैं। हरेक स्मृति मजेदार है। घटनाओं से पता चलता है कि किन-किन संकटों को, कब-कब, कैसे पार करके सभा की नींव मजबूत की गयी थी। कई बार तीन-तीन, चार-चार मील लगातार दौड़ते रह के ही किसी प्रकार सभा-स्थान में पहुँच सका, जैसा कि एक बार पटना जिले के दान्तपुर इलाके मगर पाल दियारे की रामपुर वाली सभा में हुआ था। सवारी का प्रबन्ध वे लोग न कर सके और जब देर से हम शेरपुर पहुँचे तो शाम हो चली थी। यदि कस के चार मील दौड़ते नहीं तो लोग निराश हो के चले जातेे।

इसी प्रकार एक बार खटांगी में, गया जिले में, सभा करनी थी। गया से मोटर से चले। पानी पड़ चुका था। सड़क पर नई मिट्टी पड़ी थी-कच्ची सड़क नयी-नयी बनी थी। मोटर धँस जाती थी। छः मील में छः घण्टे लग गये। रात हो गयी। अन्त में मोटर छोड़ के कई मील पैदल रात में ही अन्दाज से गये। तब तक सभा से लोग चले गये थे। मगर चारों ओर पुकारते हुए लोग दौड़े और मीटिंग की तैयारी में लगे। नतीजा यह हुआ कि रास्ते से ही लोग लौट पड़े। देर से तो खटांगी से लोग चले ही थे। इसीलिए रास्ते में ही थे। सभा भी दस-ग्यारह बजे रात में जम के हुई और खूब हुई।

सबसे मजेदार बात तो मझियावाँ बकाश्त संघर्ष के वक्त हुई। मझियावाँ खटांगी से उत्तर दो-तीन मील है। दोपहर को टेकारी पहुँचे थे। वहाँ से मझियावाँ चौदह मील है। बरसात का दिन, कच्ची सड़क, सवारी आने में देर। बस, पैदल ही चल पड़े। छः-सात मील चल चुकने पर सवारी मिली। बड़ी दिक्कत से अँधेरा होते-होते मझियावाँ पहुँचे। संघर्ष चालू था। चटपट लोगों को जमा किया। मीटिंग की, और सबों को समझा के चल पड़े। आधी रात को गया में गाड़ी पकड़नी थी। अगले दिन का प्रोग्राम फेल न हो इसीलिए ऐसा करना पड़ा। सवारी उतनी जल्दी कहाँ मिलती? पैदल ही चल पड़े। वह मामूली रास्ता नहीं है। केवाल की मिट्टी थी। पानी खूब पड़ा था। रात का वक्त था। ट्रेन पकड़ने की फिक्र थी। साथ में कुछ लोग थे। यही अच्छा था। एक टट्टू भी साथ कर दिया गया। ताकि थकने पर उस पर चढ़ लूँ। मेरी तो आदत टट्टू पर चढ़ने की नहीं। जब एक बार चढ़ा तो थोड़ी देर बाद मारे तकलीफ के उतर पड़ा। एक बजे के करीब जैसे-तैसे टेकारी पहुँचा। मोटर खड़ी थी। चढ़ के मोटर दौड़ाई। ट्रेन खुलते न खुलते दो बजे के करीब गया पहुँच के गाड़ी पकड़ी और पटना आया। खुशी इस बात से हुई कि इस परेशानी ने काम किया और मझियावाँ के किसानों ने-मर्दों से ज्यादा औरतों ने-लड़ के अमावाँ राज्य को अपनी माँगें स्वीकार करने को मजबूर किया। लाखों रुपये बकाया लगान के छूट गये और सस्ते लगान पर नीलाम जमीन वापस मिली। मझियावाँ श्री यदुनन्दन शर्मा की जन्मभूमि है।

लेकिन जितनी स्मृतियाँ अब तक लिपिबद्ध की जा चुकी हैं, उनसे हमारे आन्दोलन की प्रगति पर काफी प्रकाश पड़ता है और जानने वालों को मालूम हो जाता है कि यह किसान-सभा किस ढंग से बनी है। आसाम, बंगाल, पंजाब और खानदेश आदि की यात्राओं से इन्हीं बातों पर प्रकाश पड़ता है। उनका वर्णन स्थानान्तर में है भी। इसीलिए यहाँ लिखना आवश्यक समझा नहीं गया हैै। बिना खास जरूरत के पुनरुक्ति ठीक नहीं। इसीलिए चलते-चलाते एक मजेदार और महत्त्वपूर्ण घटना का जिक्र करके इसे समाप्त करना चाहता हूँ। वह घटना बहुत पुरानी नहीं है। बल्कि यूरोपीय युद्ध छिड़ जाने के बाद की है। अब तक मेरे साथ मिल के जिन लोगों ने किसान-सभा और किसान-आन्दोलन के चलाने की खास तौर से बिहार में और दूसरी जगह भी जिम्मेदारी ली थी उनकी मनोवृत्ति पर इस घटना से काफी प्रकाश पड़ता है। किसान-आन्दोलन को आगे ठीक रास्ते पर चलाने वालों के लिए इस बात का जान लेना निहायत ही जरूरी है। नहीं तो वे लोग धोखे में पड़ सकते हैं, गुमराह हो सकते हैं। असल में मुझे खुद इन बातों को समझने में कम से कम आधे दर्जन साल लग गये हैं तब कहीं इन्हें बखूबी समझ पाया हूँ। इसीलिए दूसरों के सामने इन्हें रख देना मुनासिब समझता हूँ। ताकि उन्हें भी आधे या एक दर्जन साल इनकी जानकारी के लिए गुजारने न पड़ें। यह पहले ही कह देना चाहता हूँ कि किसी का नाम न लूँगा। मुझे यह बात लाभकारी नहीं जँचती है।

जब कांग्रेस की वर्किंग कमेटी ने अपनी अहिंसा का जामा उतार फेंका और गांधी जी को सलाम करके यह फैसला सन् 1940 के मध्य में कर लिया कि यदि

('मेरा जीवन संघर्ष' में स्वामीजी ने जयप्रकाश नारायण का नाम लिया है-सम्पादक)

अंग्रेजी सरकार भारत में भी राष्ट्रीय सरकार (Natioal Governmeat) बना दे और यह घोषित कर दे कि भारत को पूर्ण आजादी का हक है तो कांग्रेस इस यूरोपीय लड़ाई की सफलता के लिए मदद करेगी। गोकि प्रस्ताव के शब्द कुछ गोल-मटोल और वकालती थे। फिर भी राष्ट्रपति और दूसरे जिम्मेदार नेताओं के वक्तव्यों से उनका आशय यही निकला। ठीक उस समय जेल में हमारे साथ ही रहने वाले कुछ सोशलिस्ट नेताओं को एक नयी पार्टी बनाने की सूझी। इसके लिए उनने लम्बी-चौड़ी दलीलें दीं। और उनके आधार पर एक कार्य-पद्धति भी तैयार की। उनने यह भी साफ-साफ स्वीकार किया कि अब कांग्रेस एक प्रकार से खत्म हो गयी। अब वह आजादी के लिए नहीं लड़ेगी। वह हमारे काम की अब रह नहीं गयी। गो सरकार ने फिलहाल वर्किंग कमेटी की माँग कबूल नहीं की जिससे वह दफना दी गयी है। मगर किसी भी समय वह कब्र से खोद निकाली जाकर जिलाई जा सकती है। अब कांग्रेसी नेता अंग्रेजी साम्राज्यशाही से गँठजोड़ा करके उसी के हथियारों से उठती हुई जनता को दबाना चाहते हैं। क्योंकि अब उन्हें इस मुल्क की आम जनता (Masses)से भय होने लगा है। इसलिए उनके साथ संयुक्त मोर्चे का सवाल अब रही नहीं गया।

ऐसी हालत में अब हमें क्या करना चाहिए, इसके बारे में उनने अपना निश्चित मत प्रकट किया कि अब हमें किसान-सभा को ही किसानों की राजनीतिक संस्था के रूप में संगठित करना होगा। इसी बात पर हमें पूरा जोर देना जरूरी है। साथ ही, मजदूरों के भी संगठन पर काफ़ी जोर देंगे और समय पा के इन दोनों संस्थाओं को एक सूत्र में बाँधेंगे। इस तरह जो एक सम्मिलित संस्था बनेगी वही भारत की पूर्ण आजादी के लिए लड़ेगी और उसे लायेगी भी। इसलिए अब हम लोगों की सारी शक्ति उसी और लगनी चाहिए। इसीलिए उनने यह भी निश्चय किया कि एकाध को छोड़ बाकी सभी वामपक्षी दलों का भी एक सम्मिलित दल बनना चाहिए। वही दल इस नये कार्यक्रम को अच्छी तरह पूरा करने में सफल होगा। सब दलों के मिल जाने से हमारी ताकत बढ़ जायगी। उन्हें इस बात का विश्वास भी था कि एक को छोड़ सभी दल मिल जायँगे।

उनने अपना यह मन्तव्य मुझसे भी प्रकट किया। मैंने भी उस पर पूरा गौर किया। लेकिन वामपक्षी कमिटी (Left consolidation committee) के इतिहास को देखकर मुझे विश्वास न था कि सबको मिला के कोई ऐसा एक दल बन सकेगा। वामपक्ष कमिटी का जितना दर्दनाक और कटु अनुभव मुझे है उतना शायद ही किसी को होगा। मैंने उसके सिलसिले में वामपक्षियों की हरकतों से ऊब के कभी-कभी रो तक दिया था। किसी का दिल उसमें लगता न था। मालूम होता था जबर्दस्ती फँसाये गये हैं। सभी भागना चाहते थे। यदि एक दल उसमें दिलचस्पी लेता तो दूसरा और भी दूर भागता था। अजीब हालत थी। पहले तो मुझे उसमें लोगों ने फँसा दिया। मगर पीछे पार्टियों के नेता इधर-उधर करने लगे। सभी भाग निकलने का मौका देखते थे। भला फँसा के भी कोई संयुक्त दल बन सकता है?

जब मुझसे उनने राय पूछी, तो मैंने अपना पक्का खयाल कह सुनाया। मैंने कहा कि वामपक्षी दलों को एक-दूसरे पर विश्वास हई नहीं। और जब तक यह बात न हो मेल मुवाफ़िक़त कैसी? वह तो परस्पर विश्वास के आधार पर ही बन सकती और टिक सकती है। लेफ्टकंसोलिडेशन की बात मैंने उन्हें याद दिलाई और कहा कि मेरे जानते उसके विफल होने की बात वजह यही थी उस समय एक दल उसकी जरूरत समझता था तो दूसरा नहीं। अगर दो ने जरूरत समझी तो बाकियों ने नहीं। यही हालत आज है। आज आप लोग उसकी जरूरत समझते हैं सही। मगर दूसरे नहीं समझते। और जब तक सभी दल इस बात को महसूस न करेंगे कि एक पार्टी सबकों को मिलाकर बनाये बिना गुजर नहीं, तब तक कुछ होने-जाने का नहीं। तब तक आपकी यह नई पार्टी बनी नहीं सकती। मैंने यह भी कह दिया कि मैं तो अब किसी पार्टी में शामिल हो नहीं सकता। मैंने तो यही तय कर लिया है कि किसान-सभा के अलावे और किसी पार्टी-वार्टी से नाता न रखूँगा। मैं पार्टियों की हरकतें देख के ऊब सा गया हूँ। इसलिए मैं पार्टी से अलग ही अच्छा। मिहरबानी करके मुझे बख्श दें। इसके बाद उस समय तो मुझ पर इसके लिए जोर न दिया गया और दूसरी- दूसरी बातें होती रहीं। मगर पीछे जब तक एक बार कइयों ने मिला के फिर दबाव डालने की कोशिश की, तो मैंने धीरे से उत्तर दे दिया कि पहले और पार्टियाँ मिल लें तो देखा जायगा। अगर मैं अभी उस नयी पार्टी में शामिल हो जाऊँ तो किसान-सभा की मजबूती में बाधा होगी। क्योंकि आप लोग पार्टी की ओर से मुझ पर दबाव डालेंगे ही कि जिम्मेदार जगहों पर उसी पार्टी के आदमी किसान-सभा में रखे जायँ, और पार्टी-मेम्बर की हैसियत से मुझे यह मानना ही पड़ेगा। नतीजा यह होगा कि दूसरी पार्टियों के अच्छे से अच्छे कार्यकर्त्ताओं के साथ मैं न्याय न कर सकूँगा और वे ऊब के हमारी सभा से खामख्वाह हट जायँगे। फिर सभा मजबूत हो कैसे सकेगी? इसलिए मैं इस झमेले में नहीं पड़ता।

मगर इस आखिरी बात के पहले ही कुछ और भी बातें हुईं। नयी पार्टी के बारे में उनके दो महत्त्वपूर्ण निश्चय थे और वे थे भी कुछ ऐसे कि मैं घबराया। मुझे पता चला कि उनके वे दोनों ही निश्चय अटल से हैं। इसीलिए मुझे ज्यादा घबराहट हुई। फिर भी उन पर मैंने इसे प्रकट न किया। मैं भी चाहता था कि जरा उनके हृदय को टटोल देखूँ। उन दोनों में एक बात यह थी कि बहुत ही विश्वासपूर्वक तीन ही महीने के भीतर वे कम से कम पच्चीस हजार पक्के क्रान्तिकारियों का सुसंगठित दल तैयार करने का मंसूबा बाँध चुके थे। उनकी बातों से साफ झलकता था कि यह कोई बड़ी बात न थी। इस बारे में उनने औरों को कितनी ही दलीलें दी थीं। वह इस मामले में इतने विश्वस्त और निश्चिन्त मालूम पड़ते थे कि मुझे आश्चर्य होता था।

इसीलिए मैंने उससे दलीलें शुरू कीं। कहा कि मैं तो जिन्दगी में अभी पहली ही बार सुनता हूँ कि तीन ही महीने में अव्वल दर्जे के क्रान्तिकारियों की पचीस हजार की संख्या में तैयारी आसानी से की जा सकती है? क्या आप इतिहास में ऐसी एक भी मिसाल पेश कर सकते हैं? कांग्रेस के चवन्नियाँ मेम्बर भी अगर हम किसानों और मजदूरों के भीतर बनाने लगें तो तीन महीने में पचीस हजार सदस्य बनाना आसान न होगा। मगर उसी मुद्दत में उन्हें संगठित भी कर देना जिससे जवाबदेही का कोई काम कर सकें, यह असम्भव सी बात है। क्रान्तिकारियों का संगठन और भेड़-बकरियों का जमावड़ा क्या दोनों एक ही बातें हैं। मुझे तो हैरत मालूम पड़ती है। किसी भी क्रान्तिकारी पार्टी में आने के लिए बरसों परीक्षा करना ही चाहिए। तभी हम मेम्बरों की असलियत और उनकी कमजोरियाँ समझ सकते हैं, उन्हें हमें बरसों सख्ती से जाँचना होगा। तब कहीं कुछी लोग खरे उतर सकते हैं। यह कोई खोगीर की भर्ती तो है नहीं कि जिसे ही पाया भर्ती कर लिया।

उनसे दलीलें करने के साथ ही मेरे दिल में यह खौफ पैदा हो गया कि क्रान्ति और रेवोल्यूशन के नाम पर यह एक निहायत ही खतरनाक पार्टी बनेगी अगर उसके मेम्बर इसी ढंग से बनाये गये। मध्यम वर्ग और काम-धाम से खाली लोगों में जोई बहुत ऊँचे मनोरथ रखता होगा, जिसे ही लीडरी का नशा होगा, जोई देश-सेवा और क्रान्ति के नाम पर न सिर्फ अपनी पूजा करवाना चाहेगा, बल्कि मौज उड़ाने की फिक्र रखेगा, जोई लम्बी-लम्बी बातें हाँक के लोगों को धोखा देना चाहेगा, जिसी के भीतर कोई मजबूती न होगी, किन्तु सिर्फ देखावटी और बाहरी वेश-भूषा ही जिसकी सारी सम्पत्ति होगी ऐसे ही भयंकर और खतरनाक लोग इसमें आसानी से आ धमकेंगे, यदि उनके आराम का सामान मुहैया हो जाय। मैंने सोचा कि किसानों और मजदूरों की सेवा के नाम पर ये लोग उनके लिए प्लेग बन जायँगे। जो लोग कहीं चोरी-डकैती वग़ैरह की शरण लेते उनके लिए यह बहुत ही सुन्दर पेशा हो जायगा। हाँ, पैसे की आसानी होना जरूरी है।

मेरी दलीलों का उन पर कुछ ज्यादा असर होता न दिखा। ऊपर से उनने सर हिलाया जरूर और कबूल किया कि यह दिक्कतें तो हैं। फिर बोले कि अच्छा देखा जायगा। उतने नहीं तो कम लोग ही मेम्बर होंगे। यह कोई जरूरी नहीं कि पचीस ही हजार खामख्वाह बनें। मैंने देखा कि मेरे विचारों का उन पर कोई असर न पड़ा। उनने केवल संख्या को ही पकड़ा है। मैं इस प्रकार की मेम्बरी की बुनियाद को ही बुरा और खतरनाक मान कर उनसे बातें करता था। मगर उनने इतना ही माना कि इतनी बड़ी तादाद शायद आसानी से मिल न सके। उनने यह गलती महसूस ही न की कि मेम्बरी वाला उनका सारा खयाल और रास्ता ही गलत है, धोखे का है। हम दोनों इस मामले में, उतनी बातचीत के बाद भी दोनों ध्रुवों पर रहे। हम दोनों की नजरें एक-दूसरे के खिलाफ थीं। उनका मेल न था। फिर भी मैंने उन्हें याद दिलाया कि ऐसे ही कच्चे मेम्बरों को लेके तो आप ही लोग अब तक झगड़ते रहे हैं। ऐसे लोग तो बराबर बेपेंदी के लोटे की तरह कभी इधर कभी उधर लुढ़कते ही रहते हैं। कभी इस पार्टी में तो कभी उसमें जाते रहते हैं। इसी से झगड़े होते हैं कि दूसरे दल आपके मेम्बरों को फोड़ते हैं। हालाँकि इसमें भूल आप ही की है कि कच्चे लोगों को सदस्य बनाते हैं। आप खुद ‘रहे बाँस न बाजे बाँसरी’ क्यों नहीं करते? उनने कहा कि ‘‘हाँ, यह तो ठीक है।’’

फिर उनके एक दूसरे खयाल पर भी मैंने उज्र किया। नयी पार्टी के लिए पैसे का प्रश्न था। बिना आर्थिक संकट पार किए कोई भी पार्टी चल नहीं सकती। इसीलिए उनने इस मसले का भी हल सुझाया था। मगर मैं उससे और भी चौंका। मुझे साफ मालूम हो गया कि ऐसा होने पर ऐरे-गैरे मनचले लोगों की भर्ती आसानी से हो सकेगी। आर्थिक झमेले हल हुए और पैसे की दिक्कत नहीं कि मेम्बर बनने वालों का ताँता बँधेगा। वह तो यही मजा चाहेंगे-‘‘जो रोगी को भाये सोई वैद्य बताये’’ वाली बात यहाँ सोलहों आने ठीक उतरेगी।

असल में पैसा जमा करने का जो उपाय उनने सुझाया वह यह न था कि हम किसान-मजदूर जनता से थोड़ा-थोड़ा करके जमा करेंगे। इस बात का तो उनने नाम ही न लिया। बूँद-बूँद करके तालाब भरने का खयाल उन्हें रहा ही नहीं। उनके सामने लम्बे-लम्बे प्रोग्राम और खर्च के मद थे। पार्टी का प्रेस, अखबार, ऑफिस, साहित्य, दौरा वगैरह ऐसी बातें थीं जो उनके दिमाग में चक्कर काट रही थीं। और इनके लिए तो काफी पैसा चाहिए ही। मेम्बरों को भी तो आराम से रखना ही होगा। नहीं तो उनके डटने में दिक्कत का खयाल था। और पचीस हजार की तादाद भी काफी बड़ी होती। वर्तमान समय के मुताबिक उनका खर्च-वर्च भी कम नहीं ही चाहिए। चबेनी और सत्तू या सूखी रोटी खा के तो क्रान्ति हो नहीं सकती। इस प्रकार तो क्रान्तिकारी लोग गुजर कर सकते नहीं। इसलिए महीने में कई लाख रुपये उनके खर्च के ही लिए चाहिए।

यह साफ ही है कि इतना रुपया गरीब लोग दे सकते नहीं। पैसे-पैसे करके उनसे इतनी लम्बी रकम वसूल करना गैर-मुमकिन ही है। क्रान्तिकारी लोग ऐसा मामूली काम करने के लिए होते भी नहीं। उनका काम बहुत बड़ा होता है। यह तो छोटे लोगों का-मामूली वर्करों का काम होता है। इसलिए पैसा जमा करने का कोई दूसरा ही रास्ता होना चाहिए, उनने यही सोचा। बताया भी ऐसा ही। खासी रकम हाथ लगने का रास्ता ही उनने ढूँढ़ निकाला था और उसी का जिक्र मुझसे भी किया था। मैं सुनता था। साथ ही हँसता भी और घबराता भी। उनके लिए वह क्रान्ति का चाहे सुगम से भी सुगम मार्ग क्यों न हो, मगर मेरे लिए तो वह बहुत ही खतरनाक दीखा। वैसे पैसे से उनकी नयी पार्टी मठ भले ही बन जाय जहाँ मौज उड़ाने वाले ही रहते हैं। मगर मेरे जानते वह किसानों और मजदूरों की पार्टी हर्गिज नहीं बन सकती थी।

मैंने उनसे बातें शुरू कीं। मैंने कहा कि यह भी कि निराली सी बात है कि आपकी पार्टी के लिए पैसे का मुख्य जरिया किसान-मजदूर या शोषित जनता हो नहीं, किन्तु कुछ दूसरा ही हो। आपने मेम्बरों की भर्त्ती ही जो बात बताई है उससे तो स्पष्ट ही है कि केवल मध्यमवर्गीय लोग ही उसमें आयेंगे। किसान-मजदूर तो आयेंगे नहीं, शायद ही एकाध आयें तो आयें। इस प्रकार जितने नेता होंगे वह तो उनमें से आयेंगे नहीं। वह तो बाहरी ही हांेगे। और पैसे की दिक्कत जब पूरी हो जाती है तब तो खामख्वाह बाहरी ही लोग रहेंगे ही। इसे कोई रोक नहीं सकता।

अब रही पैसे की बात। सो भी उस दुखिया जनता से आने वाला है नहीं जैसा कि आप ही बताते हैं। वह भी तो बाहर से ही आयेगा-बाहरी ही होगा। उसी पैसे से काम का सारा सामान मुहैया किया जायगा-पेपर, लिटरेचर, ऑफिस वगैरह। इस प्रकार आदमी, पैसा और सामान ये तीनों चीजें बाहर की ही होंगी। किसानों और मजदूरों के भीतर से तीन में एक भी चीज न होगी। हरेक लड़ाई के लिए जरूरी भी यही तीन हैं-आदमी, पैसा और सामान। और ये तीनों ही बाहर से ही मिल गये। इन्हीं से क्रान्तिकारी लड़ाई चलाई जायगी ऐसा आप कहते हैं चलाई जा सकती है और सम्भव है उसे सफलता भी मिले और क्रान्ति भी आ जाय। मगर वह क्रान्ति किसानों और मजदूरों की होगी यह समझना मेरे लिए गैर-मुमकिन है। वह तो उसी की होगी जिसके आदमी, पैसे और सामान से वह आयेगी। दूसरे के सामान से दूसरे के लिए कोई भी चीज आये यह देखा नहीं गया। फिर क्रान्ति जैसी चीज के बारे में ऐसा सोचना निरी नादानी होगी।

मैं तो यही जानता हूँ और पढ़ा भी ऐसा ही है कि अगर किसानों और मजदूरों के हाथ में हुकूमत की बागडोर लानी है जिसे क्रान्ति कहिये या कुछ और ही कहिये, तो उन्हीं को इससे लड़ना और कट मरना होगा। जब तक उन्हीं के बीच से नेता और योद्धा पैदा न हांेगे, पैदा न किये जायँगे तब तक उनका निस्तार नहीं। लड़ते तो वे हईं। जेल जाते हैं, लाठी खाते हैं, गोलियों के शिकार होते हैं मगर उनके नेता बाहरी होते हैं। उनके बीच से नहीं आते। अब तक एकाध जगह को छोड़ सर्वत्र ऐसा ही होता रहा है। नतीजा यह हुआ है कि क्रान्ति होने पर भी उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ है। उनकी गरीबी, लूट, परेशानी, भूख, बीमारी, निरक्षरता ज्यों की त्यों बनी रह गयी हैं। दुनियाँ की क्रान्तियाँ इस बात का सबूत हैं। फ्रांस, इंगलैण्ड, जर्मनी, अमेरिका, इटली वग़ैरह देशोें में क्रान्तियाँ तो हुईं। मगर कमाने वाले सुखी होने के बजाय और भी तकलीफ में पड़ गये। गोकि लड़ने और मरने में वही आगे थे। यह क्यों हुआ। इसीलिए न, कि उन लड़ाइयों और क्रान्तियों का नेतृत्व, उसकी बागडोर दूसरे के हाथ में थी? इसलिए मैं यही मानता हूँ कि जो बाहरी नेता हैं उनका काम यही होना चाहिए कि किसानों और मजदूरों के भीतर से ही नेता पैदा कर दें। उसके बाद क्रान्ति वही खुद लायेंगे। हमारा प्रधान काम क्रान्ति लाना न होकर उसके लिए किसानों और मजदूरों के भीतर से ही नेता पैदा कर देना मात्र है। इतना कर देने के बाद उन्हीं के नेतृत्व में जो क्रान्ति होगी उसमें हम जो भी सहायता कर सकेंगे वह उचित ही होगी। मगर अपने ही नेतृत्व में क्रान्ति लाने के मर्ज से हमें सबसे पहले बरी होना होगा। यह दूसरी बात है कि किसानों और मजदूरों के भीतर से ही पैदा होने वाले नेताओं के नेतृत्व और हमारे नेतृत्व में कोई अन्तर हो-दोनों एक ही हो। यह खुशी की बात होगी। मगर नेतृत्व की जाँच की कसौटी हमारा नेतृत्व न होकर उन्हीं वाला होगा यह याद रहे। हमारे नेतृत्व से उनका नेतृत्व मिलने के बजाय उनके ही नेतृत्व से हमारा नेतृत्व मिलना चाहिए।

यही बात पैसे-रुपये की भी है। जिसे विजयी होना है उसको अपने ही पैसे रुपये से-उसी के बल पर-लड़ना होगा। तभी सफलता मिल सकती है। उधार या मँगनी की रकम से लड़ने में धोखा होगा-अगर बीच में नहीं तो जीत के बाद तो जरूर ही होगा। कहने के लिए वह जीत किसान-मजदूरों की होगी। मगर होगी वह दरअसल उन्हीं की जिनके पैसे लड़ाई में खर्च हुए हैं। पैसे वाले आदमियों को, उनके ईमान को, उनकी आत्मा को ही खरीदने की कोशिश करते हैं और आमतौर से खरीद भी लेते हैं। ऊपर से चाहे यह भले ही न मालूम हो। मगर भीतर से तो हमारी आत्मा बिक जाती ही है अगर हम दूसरों के पैसों का भरोसा करें। जबान से हम हजार इनक़िलाब और किसान-मजदूर राज्य की बातें बोलें। मगर इनमें जान नहीं होती। ये बातें कुछ कर नहीं सकतीं। दिल से हम पैसे वालों की ही जय बोलते हैं, उन्हीं की राय से, उन्हीं के इशारे पर चलते हैं जैसे मोटर का हाँकने वाला उसे अपने कब्जे में रखता है, नहीं तो वह कहीं की कहीं जा गिरेगी, किसी से लड़ जायगी। ठीक वैसे ही पैसे वाला हमें और हमारी लड़ाई को अपने काबू में ही सोलहों आने रखता है। यही वजह है कि हमारी राय में किसानों और मजदूरों की लड़ाई उन्हीं के पैसे से चलाई जानी चाहिए। उस लड़ाई के लिए असली और खासा भरोसा किसान मजदूरों के ही पैसे पर होना चाहिए। दूसरों की परवाह हर्गिज नहीं चाहिए। इतने पर भी अगर कहीं से कुछ आ जाय तो उसे खामख्वाह फेंक देने से हमारा मतलब नहीं है। मगर उस पर दारमदार होने में ही खतरा है। उधर से लापरवाही चाहिए।

सामान की भी यही बात है। खाना, कपड़ा, अखबार, साहित्य, ऑफिस वगैरह सभी चीजें जिसके हाथ में रहेंगी वही लड़ाई को चाहे जैसे चलाएगा। ये सामान लड़ाई के मूलाधार हैं, बुनियाद हैं, प्राण हैं। इसीलिए हम इनके लिए गैरों पर निर्भर कर नहीं सकते। नहीं तो ऐन मौके पर खतरा होगा, रह-रह के खतरे खड़े होते रहेंगे। जब न तब इन सामानों के जुटाने वाले नाक-भौं सिकोड़ते रहेंगे और हमसे मनमानी शर्तें करवाना खामख्वाह चाहेंगे। यही दुनियाँ का कायदा है-यही मानव-स्वभाव है। आखिर कोई दूसरा आपको पैसा क्यों देगा? या कहीं और जगह से पैसा लाने में हजार खतरे का सामना करने के बाद पैसा मिलने पर उसे हमें क्यों देगा? अपने लिए, अपने बाल-बच्चों के लिए उसी पैसे से जमीन-जायदाद क्यों न खरीद लेगा? कोई रोजगार, व्यापार क्यों न चलायेगा? धर्म और परोपकार का नाम इस सम्बन्ध में, इस स्वार्थी और व्यवहारतः जड़वादी (materialist in practice)संसार में, लेना अपने आपको धोखा देना है, व्यावहारिकता से आँख मोड़ लेना है। झूठी कसमें खाई जाती हैं और कचहरियों में गंगा-तुलसी, कुरान-पुरान तक की शपथें जो आये दिन ली जाती हैं वह क्या धर्म और परोपकार के ही लिए? वह काम दुनियावी फायदे और जमीन-जायदाद के ही लिए किया जाता है यह कौन नहीं जानता? इसी प्रकार धर्म और परोपकार के नाम पर देने वाले धनी और चतुर आमतौर से हजार गुना फायदे को सोचकर ही देते हैं चाहे कहीं चुनाव में वोट मिलने में आसानी हो, कारबार में आसानी हो या मौके पर बड़ी जमा और बड़ा अधिकार मिल जाने में ही उससे मदद मिले। मगर यही बात होती है जरूर। वे लोग पहले से ही हिसाब-किताब लगा के और दूर तक सोच के ही इस धर्म और उपकार के काम में पड़ते हैं, यह हमें हर्गिज भूलना न चाहिए।

इसीलिए हमारा तो पक्का मन्त्रा होना चाहिए कि अपने हकों के हासिल करने के लिए जो लड़ाई किसान-मजदूर लड़ना चाहते हैं उसके लिए आदमी, रुपया और सामान ;डमदए डवदमल ंदक डंजमतपंसद्ध खुद जुटायें, अपने पास से ही मुहय्या करें। खुद भूखे नंगे रहके यह काम उन्हें करना ही होगा। दूसरा रास्ता है नहीं। हमें उनसे दो टूक कह देना चाहिए कि अगर वे ऐसा नहीं करते, इसके लिए तैयार नहीं हैं तो हम उनकी लड़ाई से बाजी दावा देते हैं-हम उसमें हर्गिज न पड़ेंगे। हम उनसे साफ-साफ कह दें कि इस तरह उसमें पड़ने पर तो हम उन्हें खामख्वाह धोखा देंगे, गो हमें सस्ती लीडरी जरूर ही मिल जायेगी। इतना ही नहीं, बिना किसानों के धन, जन के गैरों की आशा पर उनकी लड़ाई छेड़ने में हमें जमींदार मालदारों से सौदा करने में भी आसानी हो जायगी और हमारा अपना काम बन जायगा। मगर ऐसा घोर पाप और धोखेबाजी करने को हम तैयार नहीं।

मगर मेरी इतनी लम्बी-चौड़ी दलील और बातचीत का असर उन पर कहाँ तक पड़ा यह कहना आसान नहीं है। मुझे तो कुछ ऐसा मालूम पड़ा, लक्षण कुछ ऐसे ही दिखे कि मेरी बातों को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया गया। मुझे खुश करने के लिए कुछ मीठी बातें जरूर कह दी गयीं। मगर उनके दिले में मेरी बात घुस न सकी ऐसी मेरी पक्की धारणा है। ऐसी बात मानने और कहने के लिए मेरे पास सबूत भी है। उनने जो कुछ निश्चय किया था वह न तो किसी के दबाव से और न झोंक में आ के। वह तो वर्षों ठण्डे दिल से सोचने-विचारने और महीनों बार-बार अपने दिल-दिमाग के मथने के बाद इस नतीजे पर पहुँचे थे। यह कोई नयी बात भी नहीं थी। पढ़े-लिखे भी वह काफी हैं। इसीलिए इन बातों की पूरी जानकारी रखते हैं। ऐसी हालत में यह तो उनके दिल की आवाज थी, दिल का प्रवाह था जो इस रूप में प्रकट हुआ था। उनके विचार की जो सरसवाही धारा थी, खयाल का जो कुदरती बहाव था वही इस तरह जाहिर हुआ था, उसी की यह शक्ल बाहर आयी थी। इन्सान के दिल-दिमाग की जैसी बनावट और तैयारी होती है वह ठीक वैसा ही सोचता है। लोगों के जो विचार और खयाल बनते-बनते पक्के होते और बाहर आते हैं वह आसानी से बदले जा नहीं सकते। फिर मेरी बातों का असर क्यों होने लगा? इतना ही नहीं। उसके बाद जो बातें उनने इधर-उधर कीं उसमें यहाँ तक कह डाला कि स्वामी जी भी हमारे साथ हैं। इस पर मैंने उलाहना भी दिया। मगर चुप्प! इतना ही नहीं। एक बार उसके बाद भी फिर ऐसा ही कह डाला।

(शीर्ष पर वापस)

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अन्त में इन संस्मरणों के सम्बन्ध में दो एक बातें कह के इस लम्बी गाथा को, जिसका खात्मा होना आसान नहीं, खत्म कर देना चाहता हूँ। हो सकता है कि कभी मौका आने पर बची बचाई हजारों घटनाओं को लिपिबद्ध किया जा सके। क्योंकि वे बहुत कुछ महत्त्व रखती हैं। सबों में कुछ न कुछ खूबी है। सबकी सब किसान-आन्दोलन के किसी न किसी पहलू पर प्रकाश डालती हैं। यों तो जाने कितनी हजार मीटिंगें हो गयी हैं जो कोई खास महत्त्व नहीं रखती हैं। असल में हमारे मुल्क में यह किसानों का संगठित आन्दोलन-किसान-सभा का आन्दोलन-बिलकुल ही नया है। इसीलिए इसमें हजारों दिक्कतें आती गयी हैं। हम सभी इस मामले में एकदम नये रहे हैं-हमें इसकी कुछ भी जानकारी नहीं रही है। अनुभव के बल पर ही आगे बढ़े हैं इसीलिए मुसीबतों का सामना होना जरूरी था। दूसरे देशों के आन्दोलनों की भी हमें जानकारी विशेषरूप से थी नहीं। मोटी-मोटी बातें जहाँ-तहाँ लिखी मिलती थीं। वह भी अधूरी ही थी। आन्दोलन की प्रगति कैसे हुई, इसका पता कतई न था। कब, किन दिक्कतों का मुकाबला, किस परिस्थिति में वहाँ वालों ने कैसे किया, इसे हममें से कौन जानता था? मैंने हजार कोशिशें कीं, एतत्सम्बन्धी साहित्य ढूँढ़ने में सर मारता रहा। जाने कितने ही क्रान्तिकारी कहे जाने वालों से ऐसी किताबें बताने या देने को कहा। मगर कौन सुनता था? असल में पता भी किसे था कि वहाँ कब, क्या हुआ। इसीलिए सभी मजबूर थे। इसीलिए फूँँक-फूँक के हम आगे बढ़े।

जब आज चौदह साल के बाद पीछे नजर घुमाते हैं तो हमें पता लगता है कि हम कहाँ से कहाँ चले गये। हमें यह भी आश्चर्य होता है कि हमें क्यों इतनी कम दिक्कतों और मुसीबतों से जूझना पड़ा। अनजान आदमी के रास्ते मंे तो पग- पग पर रोड़े अटकते हैं। सो भी किसान-आन्दोलन जैसी विकट चीज की कोशिश में। हमारे चारों ओर विरोधियों का गुट था। सभी कमरबन्द खड़े थे कि कब मौका पायें और सारी चीज खत्म कर दें। हम तो पहले-पहल सन् 1920 ई. में कांग्रेसी राजनीति में ही आये थे। वहीं से सन् 1927 ई. में किसान-सभा बनाने की ओर झुके। मगर हमारे इस काम में कांग्रेसी साथियों ने और नेताओं ने भी, पहले तो कम पीछे ज्यादा, विरोध किया। पहले वे लोग समझी न सके कि क्या हो रहा है। इसलिए यदि किसी का विरोध भी था तो वह दबा था। पीछे तो जैसे-जैसे किसान-सभा मजबूत होती गयी वैसे-वैसे विरोध भी प्रबल होता गया। यहाँ तक कि इधर कुछ दिनों से कांग्रेस की सारी ताकत सभा के खिलाफ हो गयी। हमारे पुराने साथियों में भी बहुतेरे डूब के पानी पीने लगे। वे भी इस आन्दोलन से भयभीत हो गये। मगर हम बढ़ते ही रहे हैं और बढ़ते ही जायँगे यही विश्वास है।

अब तक जो कुछ संस्मरण लिखे गये हैं वे मधुर तो हईं। साथ ही पढ़ने वालों के लिए आन्दोलन के भीतर झाँकी का काम देते हैं। जिन्हें कुछ भी किसान-सभा में चसका है उन्हें इनसे काफी हिम्मत और सहायता मिलेगी जिससे काम बढ़ा सकें। वे देखेंगे कि किसान-आन्दोलन कोई फूलों का ताज नहीं है। इसीलिए कमजोर लोग शुरू में ही हिचक जायँगे। यह ठीक ही है। इसमें कितना धोखा है इसकी भी जानकारी पढ़ने वालों को हुए बिना न रहेगी। इससे सच्चे और ईमानदार किसान-सेवकों को खुशी होगी और खतरे की जानकारी भी। तभी तो उससे मौके पर बच सकेंगे। अब तक तो सभा की जड़ कायम करनी थी। मगर अब उसे आगे बढ़ के असली काम करना है। इसलिए बहुत ढंग के खतरों से खामख्वाह बचना होगा। इस बात में संस्मरणों से मदद मिलेगी। गरम बातें और नरम काम का खतरा हमें अब ज्यादा है। इसलिए अभी से सजग हो जाना होगा। हमें मन भर बातें नहीं चाहिए। बल्कि बिना उन बातों के यदि केवल काम ही हो और रत्ती भर भी हो तो कोई हर्ज नहीं। उसमें धोखा नहीं होगा। बातें तो धोखा देती हैं। किसान-सभा का पूरा इतिहास और उस सिलसिले की सारी मुसीबतें मैंने अपनी जीवनी में लिखी हैं।

अन्त में एक बात कह देनी है। हमारी आदत है तारीखें भूल जाने की। ठीक साल और तारीख याद रखी नहीं सकते। इसी तरह स्थानों के नाम भी भूल जाते हैं। ये संस्मरण इस भूल से मुक्त नहीं हो सकते। इसीलिए क्षमा चाहते हैं। हमें इस बात से थोड़ा ढाँढ़स मिला जब हमने चीन के महान् कम्युनिस्ट नेता के बारे में पढ़ा कि वे तारीखें याद रख नहीं सकते हैं। मगर क्षमा तो फिर भी हम चाहते ही हैं।
 

 

 

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