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सहजानंद समग्र/ खंड-2

 
स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-2

महारुद्र का महाताण्डव

मुख्य सूची खंड - 1 खंड-2 खंड - 3 खंड - 4 खंड - 5 खंड - 6

महारुद्र का महाताण्डव

कांग्रेस की उद्देश्य-प्राप्ति
कांग्रेस और स्थिर स्वार्थ
नेतृत्व और उसका विरोध
जनशक्ति की झाँकी
बाबू-दल का जन-दल से संघर्ष
अगस्त-क्रान्ति सही या गलत
किसान सभा विप्लवी शक्तियों की प्रतीक
ग्रामीण सर्वहारा जागरण

शोषितों का महाताण्डव
 

किसान कौन है?
धर्म और ईश्वर

कांग्रेस-तब और अब

 मौलिक मतभेद
आजादी की लड़ाई और उसका नेतृत्व
कांग्रेस भोगवाद की ओर
कांग्रेस की गलाघोंटू नीति

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महारुद्र का महाताण्डव

कांग्रेस की उद्देश्य-प्राप्ति

जिस उद्देश्य से कांग्रेस का जन्म हुआ था और जिसका स्पष्टीकरण, जिसका खुलासा नागपुर से लेकर लाहौर तक के कांग्रेस-अधिवेशनों में किया गया था, उसकी प्राप्ति 1947 के 15 अगस्त को हो गयी, वह उस दिन हासिल हो गया, ऐसा माना जाने लगा है; हालाँकि पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रश्न अभी खटाई में पड़ा ही हुआ है, और भारत में अभी तक उसकी जगह सिर्फ औपनिवेशिक स्वराज्य या डोमिनिया राज्य का झण्डा ही गवर्नरों तथा गवर्नर जनरल के मकानों पर फहरा रहा है, न कि स्वतन्त्र भारत का अपना झण्डा। फिर भी कांग्रेस के नेता इतना तो मानते ही हैं कि उसका वह लक्ष्य मिल गया। इसीलिए बम्बई में कांग्रेस का मन्तव्य उन्होंने बदल दिया।

प्रश्न होता है कि जो कांग्रेस अपनी आधी अवस्था तक, अपनी जवानी में मुट्ठीभर बुध्दिजीवियों और पूँजीपतियों की संस्था रही, उसमें यह निराला कायाकल्प कैसे हुआ, वह पीछे जनसमूह की जमात और संस्था क्यों मानी जाने लगी और बुढ़ापे में उसने अपना धयेय कैसे प्राप्त किया? सारांश, उसका क्रम-विकास होते-होते वह इस कद्र तगड़ी-तन्दुरुस्त कैसे हो पायी कि अपनी वृध्दावस्था में उसने जबर्दस्त साम्राज्यशाही को हिला-झुका दिया। यह भी सवाल स्वाभाविक है कि इसी दरम्यान उसी कांग्रेस से एकदम अलग और स्वतन्त्र किसान सभा जैसी अनेक जन-संस्थाएँ और वर्ग-संस्थाएँ कैसे बन गयीं, जिनका संचालन पुराने-से-पुराने और तपे-तपाये कांग्रेसी जन-सेवक ही करते हैं, मगर हकीकत तो यह है कि इन्हें आज कांग्रेस के चोटी के नेता फूटी आँखों भी देख नहीं सकते और अगर उनकी चले, तो उन्हें नेस्त-नाबूद करके ही दम लें? यह भी मजेदार बात है कि मेरे जैसा अधयात्मवादी किस प्रकार सबसे पहले उसी कांग्रेस में आया, वहीं से उस किसान सभा में दाखिल हुआ, अपने चिर-परिचित उस अधयात्मवाद को भूल-सा गया और सर्वथा-सर्वदा स्वतन्त्र किसान सभा की सर्वात्मना रक्षा के लिए बड़ी-से-बड़ी संस्था, शक्ति और वस्तु को बेमुरव्वती से लात मारने के लिए आज तैयार बैठा है। इसका चरम परिणाम क्या होगा, यह भी एक बड़ा सवाल है। अन्ततोगत्वा महारुद्र का महाताण्डव नृत्य होगा, या और कुछ?

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कांग्रेस और स्थिर स्वार्थ

आरम्भ में बेशक कांग्रेस 'भिक्षां देहि' कहनेवालों और शासकों के सामने झोली पसारनेवालों की जमात थी। 1885 से लगायत 1928 के दिसम्बर में नागपुर से पूर्व उसका काम था प्रस्ताव पास करना, रूठना बहस-मुबाहसे करना, अर्जी-प्रार्थना-पत्र भेजना, यहाँ से लेकर लन्दन तक शासकों के सामने जमात बाँधकर हाथ जोड़े पहुँचना और आरजू-मिन्नत करना और अन्त में कभी-कभी बेजान धमकियाँ भी दे देना। उस युग के कांग्रेसजन सिर्फ इतना ही कर सकते थे-उनकी पहुँच यहीं तक थी। उससे आगे वे जान सकते थे, गोकि थे वे दबंग, दिमागदार, प्रतिभाशाली पुरुष और अपने समाज में प्रभाव रखनेवाले मालदार। इसका कारण था, मुल्क के ऊँचे तबके के मुट्ठीभर लोगों की ही तो दरअसल वह कांग्रेस थी। ऐसे लोग ही पढ़े-लिखे होने के कारण संगठित-सामूहिक आन्दोलन और आवाज के महत्व को समझ सकते थे।

लेकिन, एक तो उनकी बिरादरी छोटी थी; दूसरे दिमागदार और मालदार होने के कारण उनमें दब्बूपन परले दर्जे का था। स्थिर स्वार्थवाले स्वभावत: दब्बू और डरपोक होते हैं और विद्या एवं लक्ष्मी गिने-गिनाये स्थायी स्वार्थों में हैं। गुलाम बनाने पर तुले बैठे राक्षसों से लड़कर ही अपना हक हासिल किया जा सकता है। मगर सर पर गट्ठर या घड़ा रखकर कोई भी सिपाही जूझ नहीं सकता, और स्थायी स्वार्थ उस गट्ठर या घड़े के समान ही तो है। यही वजह है कि आकाओं और शासकों की मर्जी से ही जूठन हासिल किया जा सकता था, उनने किया। साथ ही, उनने एक महान कार्य और भी कर डाला, जिसका उन्हें शायद ही खयाल रहा हो या जिसे वह शायद ही सम्भव समझते रहे हों। मधयमवर्ग के सबसे ऊँचे स्तर या तबके वाले इन लोगों के इस सीमित आन्दोलन के परिणामस्वरूप उनसे कुछ ही नीचे और सम्बध्द उच्च-मधयम वर्ग का दूसरा तबका जाग उठा, जिसमें अधिकांश सभी प्रकार के पढ़े-लिखे लोग होते हैं।

फलत: उन्नीसवीं सदी के बीतते-न-बीतते इस दूसरे दल ने आँखें खोलीं और क्षेत्र में कूद जाना तय कर लिया। 1885 से उस शताब्दी के अन्त तक कांग्रेस में जहाँ उच्च-मधयमवर्ग के ऊपरी भाग का दबदबा रहा, तहाँ उसके बाद उसके निचले भाग ने उसमें पैर जमाना चाहा और एतदर्थ कशमकश जारी की। पूरे पन्द्रह साल गुजरते-न-गुजरते लखनऊ में उस तबके के ऊपरी भाग की हार और निचले की जीत हुई। जिस प्रकार 1857 के आसपास वाले प्रथम विद्रोह के समय जो रहनुमाई, जो नायकत्व सामन्तवर्ग के हाथ में आया, वह कम-बेश तीस साल तक कभी ऊपर और कभी नीचे-कभी छिपके और कभी खुलके देखा जा रहा था, और 1885 में खत्म हो गया, ठीक उसी प्रकार उस वर्ग के उच्च स्तर के हाथ में रहने वाला नेतृत्व पूरे तीस साल बाद उसी वर्ग के निम्न स्तर को मिला। या यों कहिए कि जिस तरह सामन्तवर्ग का नेतृत्व उच्च-स्तर ने छीना और बाहरी दुनिया को इसका पता तक लगने न दिया, उसी तरह उसकी लीडरी निम्न स्तर ने छीन ली, हालाँकि उसे लखनऊ का समझौता नाम दिया गया है, जो उच्च मधयमवर्ग के उच्च एवं निम्न स्तरों या दलों के ही बीच दरअसल हुआ था। इस तरह सर फिरोजशाह मेहता प्रमृति के नेतृत्व के स्थान पर राष्ट्रीय आजादी के आन्दोलन का नायकत्व, उसकी रहनुमाई बाल गंगाधर तिलक आदि ने करनी शुरू कर दी, जो ज्यादा दिनों तक टिक न सकी और 1921 में नागपुर में महात्माजी के हाथों में कार्य-कारणवश-परिस्थिति के चलते-चली गयी। 1916 में लखनऊ में आयी और 1921 में नागपुर में चलती बनी।

जिन परिस्थितियों और जिन हालात के चलते महात्माजी राष्ट्रीय नेता के रूप में मैदान में आये, उनका विश्लेषण-विवेचन करने के पहले यहाँ हमें एक अहम मसले पर नजर दौड़ानी है। यह तो सभी समझदार मानते हैं कि गोकि 1857 वाला विद्रोह राष्ट्रीय आजादी की ही अस्पष्ट लड़ाई थी, फिर भी उसका नेतृत्व सामन्तवर्ग के ही हाथों में रहने से वह कुचल दिया गया। केवल उसकी आग कुछ समय तक खुलके, पीछे छिपे-छिपे, धक-धक जलती रही पूरे तीस साल तक। उसी आग को 1885 में कांग्रेस का नाम-रूप, इसकी सूरत-शक्ल मिली। जैसे 1857 को बाहरी दुनिया ठीक-ठीक समझ न सकी, वैसे ही 1885 को भी। मगर बात थी एक ही, इस तरह तीस साल तक राष्ट्रीय संग्राम का पहला पर्व चला।

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नेतृत्व और उसका विरोध

लेकिन, अगले तीस साल के दरम्यान उसके दो पर्व गुजरे, जैसाकि अभी-अभी कहा है। एक ही उच्च मधयम-वर्ग के दो स्तरों के बीच कुश्तम-कुश्ता होने के कारण उसे दो पर्व कहना ज्यादा ठीक है। पहले पन्द्रह साल तो सकुशल रहे, जैसे सामन्त-नेतृत्व के तीस साल। परन्तु बाद के शेष पन्द्रह दोनों स्तरों के परस्पर महाभारत के चलते बेचैनी से गुजरे और अन्त में उच्च-स्तर को मैदान छोड़ना पड़ा। इस तरह यद्यपि उच्च मधयम वर्ग का नेतृत्व भी तीस साल ही का जा सकता है, तथापि इसमें पहले सामान्त वर्ग के नेतृत्व जैसी बात अन्त तक न रहकर पूर्व के पन्द्रह साल ही रही। उस वर्ग के निम्न स्तर के शेष पन्द्रह साल नेतृत्व लेने की कुश्ती में बिताये थे। इसीलिए उसका नेतृत्व स्पष्टत: सिर्फ पाँच साल ही टिक सका। इस तरह साफ देखते हैं जैसे-जैसे जन-जागरण बढ़ता गया और भारत के पूरे समाज के भीतर अनेक स्तरों में क्रमश: आजादी की चाह की आग घुसती गयी, तैसे-तैसे नेतृत्व का काल घटता गया। जो भी नायकत्व किसी समय था, उसकी लेने के लिए इसके नीचे के स्तर ने जल्द-से-जल्द युध्द छेड़ा और अन्त में कामयाबी हासिल की। यही कारण है कि जहाँ मालवीय और तिलक प्रभु के नेतृत्व को लखनऊ के बाद प्राय: तीन साल की साँस मिली 1919 के जमाने तक, तहाँ महात्माजी के नेतृत्व के विरुध्द ठेठ 1921 में चौरी-चौरा और दूसरी जगह सक्रिय विद्रोह का श्रीगणेश हो गया। महात्मा ने तो तिलक-मालवीय नेतृत्व के विरुध्द 1919 में जंग जारी की थी एक साल के बाद। मगर चौरी-चौरा तो 1921 के शुरू में ही आया था वह उनकी अहिंसा के विरुध्द एक निर्जीव चैलेंज, जो टिक न सका इसीलिए उसे एक क्रियात्मक सूचना का नोटिस भी कह सकते हैं, 1930-32 में एक प्रकार से विराट रूप धारण करके उनकी सत्य-असत्य को दफना ही दिया, जहाँ तक उसकी आजादी की लड़ाई से ताल्लुक है इसे कौन नहीं जानता, जो इस समय का इतिहास जानता और भीतरी से उसका निरीक्षण करता है।

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जनशक्ति की झाँकी

अच्छा, अब उन हालतों का, उन परिस्थितियों का विचार करें, जिसने महात्मा गाँधी को आन्दोलन के लिए विवश किया और फलस्वरूप महाभारत का नेतृत्व उन्हें सौंपा। जैसाकि कह चुके हैं, उस महाभारत में तीन पर्व नागपुर-दिसम्बर, 1921 के पूर्व पूरे हो चुके थे। इससे भी लम्बी मुद्दत में सिर्फ सामन्त, स्थायी स्वार्थ वाले, बुध्दिजीवी और दिमागदार लोग ही मैदान में उतरे थे। बंग-भंग वाला आन्दोलन देश में दूसरी जगह फैलने पर भी एकमात्र पढ़े-लिखे बाबुओं का ही था, जिसके अगुआ तिलक थे, अरविन्द थे। वह जनान्दोलन न था, जनसमूह का आन्दोलन न था, जनता का सामूहिक आन्दोलन न था। इसलिए समूचे आन्दोलन में क्रमिक प्रगति होने पर भी और जन-जागरण होने पर भी अपना धयेय और मकसद हासिल न कर सका। जैसाकि मिस्टर मांटेग्यू ने अपनी रिपोर्ट में साफ लिखा है, ब्रिटिश सरकार का मूलाधार था जनता का सहयोग; फिर चाहे वह स्वेच्छापूर्वक हो या अनिच्छापूर्वक। यह भी सर्वमान्य बात है कि जनता के सामूहिक सहयोग के बिना कोई भी शासन टिक नहीं सकता, चल नहीं सकता। और, जब तक उसे वह सहयोग प्राप्त है, कोई भी ताकत उस शासन को डिगा-मिटा नहीं सकती। अब तक यही बात थी। बाबू सामन्त और मालदार हजार उछल-कूद करने पर भी सरकार को इसीलिए डिगा न सके कि उनने जनसमूह को इस काम में अपने साथ नहीं लिया। इसीलिए सब कुछ कर-कराकर थक गये। उनके सामने और मुल्क के सामने भी चारों ओर निराशा ही नजर आती थी।

इस कठोर सत्य को महात्माजी ने देखा और खूब ही देखा। इससे पूर्व दक्षिण अफ्रीका में उन्हें जनशक्ति की झाँकी मिल चुकी थी। उनने वहाँ जनान्दोलन की अपार महिमा का अस्पष्ट दर्शन किया था। भारत में भी खेड़ा, चम्पारण और रॉलेट कानून के सिलसिले में उन्हें इसकी झलक नजर आयी थी। उनने यह भी स्पष्ट देखा था कि मुल्क में सभी तरह के गर्जन-तर्जन आदि तो आजमाये जा चुके और नतीजा कुछ ठोस नहीं निकला; केवल जनान्दोलन की आजमाइश बाकी है।

बस, उनने गाँवों की ओर नागपुर में मुँह मोड़ा और जनान्दोलन की भेरी बजायी। उन्हें आजादी लेनी थी और उसका उपाय उनके सामने दूसरा था नहीं। वे विवश थे। अपनी दृष्टि से वे इसके खतरों को भी कुछ-कुछ देखते थे-बड़े खतरों को, जिनका सिग्नल उन्हें फौरन ही चौरी-चौरा में मिला। मगर मजबूरी थी। इतनी जल्द अलार्म सिग्नल बजेगा, उनने सोचा भी न था। उनके चलाये इस विराट् जनान्दोलन के फलस्वरूप शोषित-पीड़ित जनता के बहुतेरे स्वतन्त्र आन्दोलन महाकाय होकर चल पड़ेंगे, इसका तो शायद उनने ख्वाब भी नहीं देखा था। इस प्रकार चौथा पर्व चला और खूब ही चला। इसने मदमत्ता साम्राज्यशाही की जड़ एक बार तो बेमुरव्वती से हिला दी। बाबू लोग भी इसमें बलात् खिंच आये-दिमागदार बाबू लोग! उनका इसमें विश्वास न था। क्योंकि, थे तो वे तृतीय पर्व वाले लीडरों की जमात के ही। इसीलिए एक साल के भीतर, जैसा महात्मा ने कहा था, इस जनान्दोलन को सफलता न मिलने पर उन्हीं बाबुओं ने दास-नेहरू के नेतृत्व में पुनरपि वही गर्जन-तर्जन वाला अपना चिर-परिचित रास्ता पकड़ा। स्वराज्य पार्टी की असलियत यही थी।

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बाबू-दल का जन-दल से संघर्ष

इस तरह जनान्दोलन और बाबू-आन्दोलन में परस्पर कभी कुश्ती होती और कभी ठण्डक आती रही। फिर भी चुनावों के रूप में इस जनान्दोलन ने ही बाबू-आन्दोलन को भी ताकत दी। तो भी जन-पार्टी एवं बाबू पार्टी की रस्साकशी बराबर चालू थी। बाबू-दल वैधानिकता का कायल था, जिसके सीधो मानी हैं फूँक-फूँक कर पाँव देना। कहीं ऐसा न हो कि जन-शक्ति प्रबल होकर बाबू दल और उसके स्वार्थों को सदा के लिए दबा दे, इसीलिए वह 'दल सँभल-सँभल पग धरिए' को जपा करता था। पार्लिमेन्टरी प्रणाली के आन्दोलन का यही रहस्य है।

विपरीत इसके जन-पार्टी का नेतृत्व उससे भागता था और सीधी लड़ाई चाहता था; लेकिन कोई इससे यह न समझ ले कि वह विस्फोटकारी जनशक्ति से आतंकित न था। उसने भी इतिहास पढ़ा और उससे सबक सीखा था। वह भी जानता था कि अनियंत्रिात जन-शक्ति भी भूकम्प लाती और प्रलय कर देती है। साथ ही निरी वैधानिक पध्दति की निस्सारता को बखूबी जान लेने के कारण वह जनशक्ति को एकबार पूर्णरूपेण उभाड़ना भी चाहता था, जिससे लक्ष्य-सिध्दि हो सके। उसका यह भी इरादा था कि जनशक्ति को उद्बुध्द करने के लिए जनान्दोलन निर्वाध चलाकर ही उस शक्ति को नियन्त्रण में रखा जा सकता है, जिससे समय पर संहारक विस्फोट रोका जा सके। वह जनता का विश्वासपात्र बनकर ही उसका स्थायी नेतृत्व एवं नियन्त्रण करने के सपने देखा करता था और यह बात जनान्दोलन को रोक देने से सम्भव न थी। क्योंकि तब विराट् जनसमूह को शक करने की गुंजाइश थी कि ये नेता हमारे नहीं हैं। महात्माजी और श्री राजगोपालाचारी प्रभृति के उस समय के अपरिवर्तनवाद का यही रहस्य है। 1930, 1932 और खासकर 1934 में हिंसा-अहिंसा के नाम पर जनान्दोलनों को संकुचित करने तथा रोक देने के यही मानी हैं। प्रारम्भ में सभी व्यापक हड़तालों को पूर्णत: प्रोत्साहित करके और धरना देने के मार्ग को बढ़ावा देने के बावजूद पीछे छात्रों की हड़तालों, मजदूरों के धरने आदि को महात्माजी के द्वारा जली-कटी सुनाने का यही आशय है। यही कारण है कि 1936-38 आते-न-आते बाबू-दल की वैधानिकता की विजय हो गयी और पीछे चलकर 1939 तथा 1942 के जनान्दोलन उसी के पोषक के रूप में ही चलाये गये-उसी के पुछल्ले बना दिये गये। इस प्रकार दोनों में जो पारस्परिक भयंकर विरोध 1921 के बाद जान पड़ता था, वह मिट गया और दोनों में सामंजस्य हो गया। 1947 के 15 अगस्त वाले स्वराज्य का यही तथ्य है, उसकी यही असलियत है।

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अगस्त-क्रान्ति सही या गलत

यहाँ पर एक स्पष्ट बात कहने के लिए भी जी चाहता है। 1942 में अगस्त-क्रान्ति हुई, यह बातचीत तभी से चालू है और आज भी उसकी अहमियत बड़े जोर से बखानी जाती है। इसमें झगड़ने का न तो समय है और न इसकी जरूरत ही है। मगर प्रश्न तो यह है कि यह क्रान्ति जनशक्ति को-उस अनियंत्रिात जनशक्ति को, जो प्रलयंकर विस्फोट लाती है, महारुद्र का महाताण्डव करवाती है-बढ़ाने वाली पूर्ण रूप से पल्लवित-पुष्पित करनेवाली थी, या कि बाबू-दल की वैधानिक शक्ति को ही? जन शक्ति को भी उसने कुछ बढ़ाया हो सही; लेकिन उससे भी लाख गुना यदि बाबू-शक्ति को, बाबुओं के वैधानिक बल को बढ़ाया हो, तो मानना ही होगा कि जिस अगस्त-क्रान्ति का हमें गौरव है, फÂ है, उससे हम आगे बढ़ने के बजाय सब मिलकर पीछे ही गये। अप्रिय होने पर भी यह अत्यन्त विचारणीय बात है। और, यह तो मानना ही होगा कि बाबुओं की वैधानिक शक्ति इससे इतनी बढ़ी कि साम्राज्यशाही ने घुटने टेक उनके लिए गद्दी खाली कर दी। उन्हीं बाबुओं की संस्था-पार्टी-कांग्रेस के विरोध में खड़े होने की आज हिम्मत किसे है? क्रान्तिकारी शक्तियों को ये बाबू आज फूटी आँखों भी देख नहीं सकते। ये शक्तियाँ बिखरी हुई हैं, जिससे इन बाबुओं के दमन-दबाव का जमकर सामना करने में असमर्थ हैं। चीन, हिन्द-चीन, हिन्द-एशिया, मलाया और बर्मा में तो अगस्त-क्रान्ति जैसी कोई चीज हुई नहीं और सर्वत्र क्रान्तिकारी जनशक्तियाँ इन बाबुओं एवं उनकी सरकारों के छक्के छुड़ा रही हैं। चीन तो शायद शीघ्र ही इन बाबुओं के शिकंजे से बाहर चला जायेगा। बाकियों में भी कुछ ऐसा ही होनेवाला है। हाँ, इसमें कुछ देर हो सकती है। बर्मा आदि देशों में बाबू-दल विप्लवी शक्तियों को मिलाने के लिए काफी आगे बढ़ा भी है-इतना आगे, जिसकी कल्पना भी भारत की 'राष्ट्रीय' सरकार कर नहीं सकती। बर्मा को तो बिना उस क्रान्ति के ही पूर्ण स्वतन्त्रता मिल चुकी है, जबकि अगस्त-क्रान्ति का क्रीड़ा-स्थल हमारा भारत अभी तक ब्रिटेन का उपनिवेश ही है। इसी प्रकार की बहुतेरी बातें हमें सोचने को बाधय करती हैं कि अगस्त का तूफानी आन्दोलन गलत कदम था या सही।

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किसान सभा विप्‍लवी शक्तियों की प्रतीक

हाँ तो, हम उसी चौथे पर्व पर आयें और आगे बढ़ें। जब बराबर के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संघर्षों में, असहयोग और चुनावों में सरकार पछाड़-पर-पछाड़ खाने लगी-वही सरकार, जो पशुबल और प्रभुत्व में अपना सानी नहीं रखती थी; सो भी निहत्थी जनता के दृढ़ संकल्प के सामने, तो बलात् गाँवों की जनता को भान होने लगा कि हममें अपार शक्ति है, जिसे भूल गये थे। 1930-32 के सत्याग्रह और 1934 के केन्द्रीय चुनाव ने इस पर कसकर मुहर भी लगा दी। 1936-37 के चुनाव ने तो स्पष्ट ही बता दिया कि ग्रामीण जनता के पास अपरम्पार शक्ति है, जो किसी को झुका सकती है। इसी भाव ने, जनशक्ति के इसी ज्ञान ने किसान-आन्दोलन को जन्म दिया। जनान्दोलन का मूल तो गाँवों में ही था, उसके मूलस्तम्भ किसान ही थे। अहसयोग-आन्दोलन का कार्यक्रम प्रधानत: उन्हीं को धयान में रखकर तैयार हुआ था। अधिकांशत: किसान-आन्दोलन में खिंचे भी। फलत: अपनी अजेय शक्ति का ज्ञान विशेष रूप से उन्हीं को हुआ। उनने सोचा कि अगर हम अपार बलशाली साम्राज्यशाही को पछाड़ सकते हैं, तो इन जमींदार-मालगुजारों और सूदखोरों की क्या हस्ती? ये तो उसी साम्राज्यशाही के बनाये हुए हैं। जब हमने हाथी या सिंह को पछाड़ लिया, तो बिल्ली या चुहिया की क्या बिसात? यदि संगठित जनान्दोलन ने सरकार को मात किया, तो संगठित किसान-आन्दोलन ही जमींदारों को करारा पाठ पढ़ायेगा, यह निष्कर्ष किसानों और उनके सेवकों ने स्वभावत: निकाला। 1927-28 से ही यह आन्दोलन किसान सभा के रूप में जन्म लेकर क्रमश: पुष्ट और शक्तिशाली होता गया, ज्यों-ज्यों किसानों को अपनी अपारशक्ति के भान की मजबूती होती गयी। 1936-37 के बाद तो 1938-39 में या उससे पूर्व एक बार किसान सभा ने बिहार में, युक्तप्रान्त में या अन्यत्र सामन्तशाही शक्तियों एवं उनके हिमायतियों को जड़ से हिला दिया। आज जमींदारी मिटाने की व्यापक चिल्लाहट उसी का परिणाम है।

इस प्रकार राष्ट्रीय आजादी के महाभारत के चतुर्थ पर्व में होनेवाले कांग्रेस के जनान्दोलन ने ही अनिवार्य रूप से किसान-आन्दोलन को जन्म देकर बलवान बनाया। यह आन्दोलन या किसान सभा उन्हीं विप्लवी या विस्फोटकारी शक्तियों का प्रतीक है, जो भीषण भूकम्प लाती हैं और महारुद्र का महाताण्डव कराती हैं। समय-समय पर सोशलिस्ट पार्टी, फारवर्ड ब्लाक आदि विभिन्न वामपंथी दलों का जन्म उन्हीं प्रलयंकर शक्तियों को समयोचित पथ-दर्शन कराने के लिए ही हुआ है और इन दलों के नेता कर्मठ कांग्रेसजन ही रहे हैं या हैं, जैसे किसान सभा के नेता भी वही रहे हैं और आज भी हैं।

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ग्रामीण सर्वहारा जागरण

राष्ट्रीय महाभारत का पाँचवाँ पर्व किसान सभा प्रभृति की शक्ल में क्रान्तिकारी शक्तियों का यह प्रादुर्भाव ही है। नियमानुसार ये शक्तियाँ बाबुओं की प्रतिगामी शक्तियों के साथ घोर-संघर्ष करती हुई आगे बढ़ती ही जा रही हैं। यदि माता की उत्ताराधिकारिणी पुत्री या पिता का उत्ताराधिकारी पुत्र होता ही है, तो कांग्रेस और उसके जनान्दोलन से उत्पन्न किसान-आन्दोलन तथा किसान सभा प्रभृति को अनिवार्य रूप से कांग्रेस का उत्ताराधिकारी बनके उसकी गद्दी है। इसे कोई शक्ति रोक नहीं सकती। तभी वास्तविक राष्ट्रीय आजादी की स्थापना भी होगी।

महाभारत का पंचमपर्व 1949 तक ही पूरा हो गया। 1927-28 से शुरू होकर प्राय: पन्द्रह साल तक किसान-आन्दोलन सर्वाधिक शोषित-पीड़ित किसान जनता के उच्च-स्तर तक ही सीमित था। फलत: यह भी एक प्रकार से मधयमवर्गीय आन्दोलन ही था। खाते-पीते या साधारण किसान ही इसमें अधिकांश भाग लेते थे और यही स्वाभाविक भी था। मगर 1942 के बाद तो किसान सभा में गाँवों के एक प्रकार के सर्वहारा लोग ही प्रधानत: आने लगे। अब वहाँ उन्हीं की प्रधानता पायी जाती है, उन्हीं की आवाज सुनी जाती है और यही छठा पर्व है और यही अन्तिम भी होना चाहिए, अन्तिम है। समाज के सबसे ऊपर के तबके या स्तर से शुरू करके आजादी की यह आग, उसकी यह लगन और तन्मूलक जागरण धीरे-धीरे सबसे नीचे के स्तर में घुस रहा है और घुस गया है। उनके भीतर बेकली पहुँच चुकी है। गाँवों के अर्ध्द सर्वहारा जाग रहे और अपने हकों तथार् कर्तव्यों को, तत्सम्बन्धी कर्तव्यों को पहचान रहे हैं, पहचान चुके हैं। शहरों और कारखानों के पूर्ण सर्वहारा लोगों के साथ उनका सम्मिलित-सम्मेलन होना अभी बहुत हद तक बाकी है। उसमें थोड़ा समय लग सकता है। हो सकता है, 15 वर्ष की अवधि इसमें भी लगे, जिसमें छह-सात साल तो गुजर चुके हैं। उतने ही वर्ष, सम्भव है, और लगें और 1957 का समय इसे पूरा होने में आ जाये। ठीक है, 1757, 1857 और 1957 अपना महत्व इस संबंध में रखते भी हैं। वह सम्मेलन पूर्ण हुआ और बेड़ा पार।

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शोषितों का महाताण्डव

लेकिन, एक बात अब सत्य है। समस्त समाज के सबसे निचले स्तर में आजादी की तड़प की यह आग पहुँचकर धू-धू जलने लगी है, निरन्तर तेज होती जा रही है। यह कभी भड़केगी और बुरी तरह भड़केगी। गत गर्मियों में पटने में एक विराट् किसान रैली हुई थी। कुछ चतुर जमींदारों ने उसमें एकत्रिात किसानों को गौर से देखा था। दस साल पूर्व की रैलियों को भी उनने उसी तरह देखा था। इस बार उनका कहना था कि इसमें तो ज्यादातर भुक्खड़ किसान ही या खेत-मजदूर ही थे। इससे सिध्द है कि नीचे आग जा चुकी है, जो कभी-न-कभी विस्फोट लायेगी, ठीक वैसे ही, जैसे भूमि के नीचे की आग भूकम्प लाती है। ये भुक्खड़ करवटें बदलेंगे और उनके ऊपर लदे सभी स्तर और इस प्रकार समस्त समाज ही उलट जायेगा, धाँस जायेगा। यह अवश्यम्भावी है, अनिवार्य है। यह चीज कार्य-कारणवश होकर रहेगी, सो भी शीघ्र ही, 1957 तक जरूर ही, यदि उससे पूर्व न हुई। परिणाम में यह जीर्ण -शीर्ण और शोषण-चीत्कारों से पूर्ण समाज धवस्त होकर उसके स्थान पर शोषणहीन समाज बनेगा और संसार-भारत मंगलमय होगा। आज की भाषा में शोषित-पीड़ित जनता के इसी करवट बदलने को विप्लव या क्रान्ति कहते हैं। हम इसे ही प्राचीन भाषा में महारुद्र का महाताण्डव नृत्य कहते हैं। कहते हैं कि जब महारुद्र व्यापक अन्याय-अत्याचारों एवं कर्णभेदी क्रन्दनों से ऊबकर महाताण्डव नृत्य करते हैं, तो उनके पाँवों की चोटों से यह जमीन जहन्नुम जाने लगती, बाँहों की चपेटों से चाँद, सूरज और तारे कहाँ-के-कहाँ पड़ाक-पड़ाक जा गिरते, आकाश की धज्जियाँ उड़ जातीं और जटा की सटासट्ट मारों से स्वर्ग-बैकुण्ठ टूट-टाट के मिट्टी में मिलेंगे, ऐसा दीखता है। यद्यपि महारुद्र का यह ताण्डव उन्हीं अन्याय, अत्याचारों और क्रन्दनों के मिटाने के लिए ही होता है, तथापि उसका प्रारम्भिक परिणाम उल्टा ही दीखता है-

  'मही पादाघाताद्व्रजति सहसा संशय पद्‍म,
       पदंविष्णोर्भ्राम्याद्-भुजपरिघ-रुग्ण-ग्रहगणम्।
     मुहुर्द्यौ र्दौस्थ्यं यात्यनिभृत जटा ताडिततटा
     जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता।'

और, शायद उसी ताण्डव की तैयारी कराने के लिए ही, नहीं-नहीं, सम्भवत: उसी के साक्षात् दर्शन के वास्ते ही मैं कोरे अधयात्मवाद की निष्क्रिय दुनिया से भटक कर इस सक्रिय संसार, सक्रिय वेदान्तवाद में आ फँसा हूँ, कौन कहे!

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किसान कौन है?

आज बहुतों को यह पूछने की इच्छा होती है कि वे किसान कौन हैं, जिनके नाम पर तथा जिनकी तरफ से हम बोलते और काम करते हैं और जिन्हें हम पूरे क्रान्तिकारी बनाना चाहते हैं? इस समय तो मधयम श्रेणी के और बड़े-बड़े खेतिहर ही अधिकांश में किसान सभा और उसके काम के साथी हैं और अभी सभा की वर्तमान दशा में दूसरी बात हो भी नहीं सकती। साफ शब्दों में कह सकते हैं कि वही दोनों तरह के खेतिहर किसान सभा का उपयोग अपने हित और लाभ के लिए कर रहे हैं। साथ ही हम भी सभा को मजबूत करने के लिए या तो उन दोनों का उपयोग तब तक करते या करने की कोशिश करते हैं, जब तक खेतिहरों में सबसे निचले दर्जेवालों और उनके ऊपरवालों में अपने राजनीतिक और आर्थिक स्वार्थों और जरूरतों की पूरी जानकारी नहीं हो जाती और उनमें वर्ग-चेतना नहीं आ जाती। लेकिन, सच पूछिये तो, अर्ध्द सर्वहारा या खेत-मजदूर हो, जिनके पास या तो कुछ भी जमीन नहीं है या बहुत ही थोड़ी है और टुटपुँजिये खेतिहर, जो अपनी जमीन से किसी तरह काम चलाते और गुजर-बसर करते हैं, यही दो दल हैं, जिन्हें हम किसान मानते हैं, जिनकी सेवा करने के लिए हम परेशान और लालायित हैं और अन्ततोगत्वा वही लोग किसान सभा बनायेंगे, उन्हें ही ऐसा करना होगा। जबकि दूसरे लोग किसान सभा में रहते हुए भी किसान सभा के नहीं हैं, ये दोनों सभा में हैं और सभा के हैं। फलत: हमारी यह हमेशा कोशिश होनी चाहिए कि उनके पास पहुँचें, उन्हें उत्साहित करें, और किसान सभा में उन्हें लायें। जब तक हम इस यत्न में सफल नहीं हो जाते, तब तक हमारा काम बराबर अधूरा और अपूर्ण ही रहेगा। समाज के जो स्तर और दल जितने ही गरीब और नीचे हैं, उतने ही वे हमारे निकट हैं। इसीलिए जो सबसे नीचे के या खेत-मजदूर और हरिजन हैं, वे हमसे अत्यन्त निकट हैं। उनके बाद टुटपुँजिये खेतिहर आते हैं और बस वहीं पर किसानों का वर्ग खत्म हो जाता है। हम मधयम खेतिहरों को सिर्फ तटस्थ बना सकते हैं, ताकि शत्रु का पक्ष न लें। लेकिन हमारी आखिरी लड़ाई में वे साथ देंगे, यह आशा ही नहीं कर सकते।

लेकिन, अफसोस है कि ये असली किसान समाज के ऊपर तबके वाले हम लोगों में विश्वास नहीं करते-उन्हीं हम लोगों में, जो किसान सभा के विकास कीर् वत्तामान दशा में अधिकांशत: उसमें काम करते और उसे चलाते हैं। यह है भी ठीक ही। इसलिए हमारा यह अनिवार्यर् कर्तव्य है कि हम अपने अमल और बर्ताव के द्वारा उनके प्रति अपनी नेक-नीयती का सबूत दें और इस तरह अपने को उनका प्रिय पात्र बनायें।

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धर्म और ईश्वर

लेकिन इन असली किसानों को किसान सभा में लाने में हमारी सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि वे कट्टर भाग्यवादी बन गये हैं, उनने सभी कार्यारम्भ शक्ति खो दी है और भविष्य के लिए वे निराश हो गये हैं। खूबी तो यह है कि भागवान और धर्म के नाम पर ही उनकी यह दशा हो गयी है। ऐसा कहा जाता है कि धर्म और भगवान की ओर प्राचीनों का, ऋषियों का, और भविष्य-दर्शियों का ख्याल इसलिए गया और ये धर्म तथा ईश्वर इसलिए प्रकट हुए कि आत्मा और जीव की भूख को शान्त करें। अपने जीवन भर मैं संस्कृत-साहित्य, भारतीय दर्शनों तथा दूसरे दर्शनों का बड़े चाव और धयान से अधययन करता रहा हूँ और उनके द्वारा धर्म तथा भगवान के विषय में थोड़ा-बहुत जानने और समझने का दावा भी रखता हँ॥ मैंने गीता को भी हृदयंगम किया है और वह मुझे प्रिय है। लेकिन मुझे उनमें से किसी में भी उस अतर्लगत्ता का पता नहीं लगा, जिसमें 'अर्वाचीन धर्म' ने जनता को ढकेल दिया। इसलिए इस तरह धर्म को मिट जाना ही होगा क्योंकि हमारे जीवन में इसके लिए स्थान है ही नहीं। इसकी तो हालत यह है कि आज यह आत्मा की भूख शान्त करने के बजाय दरअसल कमानेवाली जनता के शोषकों और लूटनेवालों की लिप्सा और तृष्णा की ही सन्तुष्टि कर रहा है और उसके लिए वायुमण्डल तैयार कर रहा है। क्योंकि वास्तव में इसने उस जनता की आत्मा को मार डाला है, उसके भीतर की सभी आरम्भिक शक्तियों को खत्म कर दिया है और उसे कट्टर-भाग्यवादी बना दिया है। क्या मैं धर्माचार्यों, धर्मोपदेशकों और धर्मशिक्षकों से एक छोटा-सा प्रश्न करूँ? क्या सचमुच धर्म और सर्वशक्तिमान भगवान का यही काम है? और, अगर यही बात है तो अपने-आपको कायम रखने का इन्हें क्या हक है? वे इस भूमण्डल से मटियामेट क्यों न कर दिये जायें? किसान सभा के सभी कार्यकर्ताओं का यह पवित्रर् कर्तव्य है कि 'अर्वाचीन धर्म' की इस प्रवंचना का भण्डाफोड़ करें और ख्याल रखें कि जनता के दिल और दिमाग से इसका जादू एकदम मिट जाये। जब तक ऐसा नहीं हो जाये, जनता के लिए कोई आशा नहीं।

नोट- कांग्रेस से इस्तीफ़ा के बाद 1949  में यह प्रकाशित हुआ। -संपादक

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कांग्रेस-तब और अब

मौलिक मतभेद

छह दिसम्बर, 1948 को मैंने कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से और इसीलिए उसकी अखिल भारतीय कमिटी से लेकर नीचे की सभी कमिटियों की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया। हो सकता है, लोग इसकी वजह जानना चाहें। इसीलिए संक्षेप में उसे बता देना उचित मानता हूँ।

1920 के दिसम्बर में नागपुर के अधिवेशन से लेकर आज तक मैंने कांग्रेस कभी नहीं छोड़ी और यथाशक्ति उसकी सेवा की है। बीच में नेताजी श्री सुभाषचन्द्र बोस के साथ ही मेरे जैसे ही कुछ तुच्छ व्यक्तियों को भी कांग्रेस से हटाया गया था जरूर; मगर इसमें हमारी मजबूरी थी। हम उस समय कांग्रेस छोड़ना चाहते न थे। आजादी की जंग के दरम्यान ऐसा करना हम देश के साथ गद्दारी समझते थे चाहे उसकी नीति के संबंध में हाई कमाण्ड के साथ हमारा मौलिक मतभेद क्यों न था। उसी समय कांग्रेस के प्रमुख नेता साम्राज्यशाही से समझौता करने को परेशान थे। इसीलिए उनने बम्बई वाली अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के बैठक में किसानों, मजदूरों एवं शोषित जनता की सीधी लड़ाइयों को बन्द कर देना तय कर दिया, बावजूद समस्त प्रगतिशीलों एवं वामपंथियों के सम्मिलित विरोध के। वे यह भी चाहते थे कि कांग्रेस में एक ही विचारधारा रहे। यह खतरनाक बात थी। सुभाष बाबू के नेतृत्व में हमने इसका खुला प्रतिवाद किया। जिससे हाईकमाण्ड हम सबों पर टूट पड़ा। लेकिन इतना तो हुआ कि कांग्रेस में एक ही विचारधारा लाने की कोशिश बन्द हुई; कुछ समय तक तो जरूर ही।

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आजादी की लड़ाई और उसका नेतृत्व

कांग्रेस की दो बातें बुनियादी तौर पर महत्वपूर्ण रही हैं-आजादी की लड़ाई और उसका नेतृत्व। नागपुर में कांग्रेस ने जब करवट बदली, तो जंगे आजादी को साम्राज्यशाही के विरोध में सीधी लड़ाई और प्रत्यक्ष युध्द को-आगे रखा। यह परम्परा 1949 तक चली आयी। यह बात 1921, 1930, 1932 और 1942 में साफ देखी गयी। 1934 और 1934-39 में उसने अप्रत्यक्ष या वैधानिक संघर्ष की ओर पाँव बढ़ाया सही, फिर भी यही कहकर कि यह उसी प्रत्यक्ष युध्द का पोषक है, अंग है-उसी की तैयारी है। यह जंगे आजादी उसकी पहली बुनियादी और मौलिक चीज रही है। इसी के साथ नेतृत्व का भी प्रश्न रहा है। इस युध्द का कांग्रेस का और इसीलिए उसके द्वारा मुल्क का नेतृत्व किसके हाथों में रहे, कौन, कब, किस ओर मुल्क को, और कांग्रेस को भी, कैसे चलाये, यह सवाल उसकी दूसरी बुनियादी बात रही है। एक ही विचारधारा वाला झमेला इसी दूसरी बात का बाहरी रूप था, जो उठकर दब गया और पहली ही आगे रही-ऊपर रही 1945 वाले असेम्बली के चुनावों के पूरे होने तक। इसको कहने में अत्युक्ति नहीं है कि इन 25 वर्षों के दरम्यान सब मिलाकर कांग्रेस एक योग-संस्था रही है, योगियों की चीज रही है-उन धुनी मतवाले और लगन के पक्के लोगों की जमात रही है, जिनने मुल्क की आजादी अपने सामने रखी और उसके लिए सर्वस्व स्वाहा कर दिया, प्राणों तक की बाजी लगा दी और यम यातनाएँ झेलीं। योगी और साधक भी कभी-कभी चूकते हैं। मगर इससे क्या? योगी, योगी ही होते हैं। इस बीच भोगी लोग भी उसमें आसन जमाने की कोशिश करे थे, आ घुसते थे। फिर भी वह बेशक योग-संस्था ही रही।

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कांग्रेस भोगवाद की ओर

लेकिन, 1945 के चुनावों की सफलता के बाद उसमें पतन के चिद्द दीखने लगे और 15 अगस्त, 1945 के आते-न-आते वह खाँटी भोग-संस्था, भोगियों की जमात, उनका मठ बन गयी। महात्माजी के उस समय के व्यथापूर्ण उद्गार इसे साफ बताते हैं। यही कारण है, उनने अपने बलिदान के एक दिन पूर्व-29 जनवरी को बेलाग ऐलान किया था कि कांग्रेस तोड़ दी जाये और उसका स्थान लोकसेवक संघ ले ले। सारांश, कांग्रेस-जन योगी बने रहकर अब उसे लोकसेवक संघ के रूप में बदल दें। यही बात वे लिखकर भी दे गये-इसी की वसीयत कर गये। मगर भोगी लोग इसे कब मानते? उनने महात्मा की महान आत्मा को रुलाया और कांग्रेस की भोगवादिता पर कसकर मुहर लगा दी। महात्मा चाहते थे कांग्रेस चुनावों के पाप-पक में न फँसे; मगर उनके प्रधान चेलों ने न माना। कांग्रेस भोगियों का अव बन गयी है, यह तो चोटी के नेता लोग साफ स्वीकार करते ही हैं। कौन-सी सार्वजनिक सभा नहीं है, जिसमें वे यह बात कबूल नहीं करते, सो भी साफ-साफ धिक्कार के साथ!

भोगवादिता के साथ ही कांग्रेस में एक ही विचारधारा वाला प्रश्न भी बड़ी तेजी से उठा और महात्मा की महायात्रा के फौरन बाद ही दिल्ली वाली अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी ने फैसला हो गया कि उसके भीतर विभिन्न राजनीतिक दलों के लोगों के लिए अब गुंजाइश नहीं रही! ठीक ही है, ये राजनीतिक दल तो योगवादी ठहरे न? उन्हें तो शोषित-पीड़ित जनता की आर्थिक और सामाजिक स्वतन्त्रता दिलानी है न? इसीलिए उन्हें निरन्तर संघर्ष चलाना है न? फिर भोगियों के साथ उनकी पटे तो कैसे? यह फैसला मेरे जैसों के लिए नोटिस थी कि कांग्रेस से भागो, भागो, भागो! फलत: एक प्रकार से मैंने तय कर लिया था कि अब इसमें नहीं रहना है। क्योंकि 'जहाँ साँप का बिल, तहीं पूत का सिरहाना!' मगर कोई जल्दबाजी न थी। इसीलिए जब कांग्रेस के नये प्रतिज्ञापत्र पर हस्ताक्षर करने की बात आयी, तो मैंने प्रान्तीय कांग्रेस के अधिकारियों से छह-सात मास पूर्व ही लिखकर पूछा कि सर्वात्मना स्वतन्त्र किसान सभावादी मेरे जैसा आदमी क्या उस पर हस्ताक्षर कर सकता है? यदि मैं हस्ताक्षर करूँ, तो क्या यह अनुचित होगा। मैंने और भी प्रश्न किये; मगर आज तक उत्तार नदारद! सिर्फ यही कहा गया कि आपका पत्र दिल्ली मँगा लिया गयाहै!

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कांग्रेस की गलाघोंटू नीति

इधर कांग्रेस कमिटियों का वायुमण्डल ऐसा विषाक्त हो गया है कि जैसे गला घुट जाये! कम-से-कम मुझे तो ऐसा ही लगता है। एक नमूना पेश करता हूँ। कांग्रेसी वजारतें 1937 में भी बनी थीं और, 1939 तक हमने रेवड़ा जैसे सैकड़ों बकाश्त-संघर्ष चलाये। लेकिन कांग्रेस के निकालने या अनुशासन की धमकी कभी न दी गयी। यहाँ तक कि हमारे आदमियों ने असेम्बली में भी कांग्रेस पार्टी की बात किसानों के मामले में न मानी। फिर भी उन पर अनुशासन की तलवार न गिरी। मगर आज बड़ी मुस्तैदी से बकाश्त-संघर्ष रोका जाता है और ऐलान होता है कि कांग्रेसजन उसमें हर्गिज-हर्गिज न पड़ें। यह संघर्ष ही किसानों एवं किसान सभा की जान ठहरी और कांग्रेस में रहकर हम वही न करें, जान गँवा दें, यह कैसे होगा? यदि हमारी जमीन-जायदाद पर कोई लुटेरा धावा करे, तो भारतीय दण्ड-विधान की आत्म-रक्षा वाली धाराओं के अनुसार हम मारपीट एवं खूनखराबी भी कर सकते हैं और कांग्रेस में भी रह सकते हैं। मगर कांग्रेस के ही सिध्दान्तानुसार शान्तिपूर्ण लड़ाई, सत्याग्रह या संघर्ष करें, तो हमपर अनुशासन की तलवार पड़ेगी। यह अजीब बात है! यदि यह विषाक्त एवं गलाघोंटू वायुमण्डल नहीं, तो आखिर है क्या? तब जानबूझकर हम गला घुटने दें क्यों? आत्महत्या करें कैसे?

कहा जाता है, कांग्रेस की ही सरकार है। मगर है दरअसल सरकार की ही कांग्रेस, या यों कहिये कि सरकारी कांग्रेस। ठोस सत्य यही है। एक ताजा दृष्टि काफी है। हाल में प्रान्तीय कांग्रेस के अधयक्ष ने बयान दिया कि ऊख की कीमत फी मन दो रुपये से कम हर्गिज न हो। प्रान्तीय कार्यकारिणी ने और खुद प्रान्तीय कांग्रेस कमिटी ने भी सर्वसम्मति से तय कर दिया कि दो रुपये से कम कीमत न सिर्फ किसानों के लिए बल्कि चीनी के कारोबार के लिए भी घातक है। मगर सरकार ने क्या किया? युक्तप्रान्त में एक रुपये दस आने और बिहार में एक रुपये तेरह आने तय कर दिया और दिल्ली की सरकार ने इसी पर मुहर लगा दी! नहीं-नहीं, दिल्ली और यू.पी. की सरकारें तो सवा रुपये ही चाहती थीं। अब बोलिए कि कांग्रेस की सरकार है या सरकार की ही कांग्रेस? ऐसी दशा में कांग्रेस में रहना स्पष्ट ही सरकारपरस्त बनना है। और, मेरे जैसा आदमी यह कैसे करेगा? क्या किसान-मजदूर राज्य हो गया कि ऐसा करूँ? जब कांग्रेसपरस्ती के मानी सीधो सरकारपरस्ती हो गयी, तब मेरे लिए वहाँ स्थान कहाँ? पटना के प्रधान न्यायाधीश के शब्दों में अधिकार ने शासकों को नीचे गिरा दिया, दूषित बना दिया। फिर पतित परस्ती कैसी?

यह सभी बातें मन में महाभारत मचा ही रही थीं। इतने में ऊँट की पीठ पर अन्तिम तृण आ गया। दानापुर सब-डिवीजन में जो असेम्बली का उप-चुनाव जनवरी के मधय में हुआ, उसके लिए उम्मीदवार चुनने में कांग्रेसी कर्णधारों ने देश-सेवा की गर्दनिया दे, त्याग-बलिदान को ताक पर रख, खूनी जातीयता को ही तराजू बनाया और उसी पर तौलकर अपना उम्मीदवार घोषित किया। सभी जातियों के त्यागी, योगी धुनी लोग दानापुर इलाके में भरे पड़े हैं। मगर किसी की पूछ न हुई, हालाँकि लाख अनुनय-विनय की गयी। हंसों का निपट निरादर करके कौवे की पुकार हुई और कम-से-कम मेरे लिए यह असह्य था-ऊँट की कमर पर अन्तिम तृण था।

-1949 ई.
 

 

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