मध्य भाग-पूर्व खण्ड
(1)संन्यास के उपरान्त
जहाँ तक मुझे स्मरण हैं, मेरे संन्यास की बात पं. हरिनारायण पाण्डे के
अलावे और किसी को पहले मालूम न थी। मगर गाजीपुर से हटते ही सनसनी मची और
अगर मैं भूल नहीं करता हूँ तो मैंने संन्यासी होते ही घरवालों को एक पत्र
भी लिख दिया कि अब मेरी आशा छोड़ दें। फिर क्या था, उन पर तो वज्र ही गिरा।
किन-किन आशाओं से और मनोरथों को लेकर उन लोगों ने मुझे पढ़ाया था।
घर-गिरस्ती के काम से मुझे बचपन से ही अलग रखा और मैं उन मामलों में
अनभिज्ञ ही रहा। वे समझते थे, लड़का होनहार हैं, पढ़-लिख के कुछ अच्छा धन और
यश कमायेगा और उनके कष्ट और आर्थिक संकट दूर करेगा। लेकिन एकाएक सभी चीजें
खत्म हो गयीं, जैसे मनोराज्य और सपने की दुनियाँ की रही हों! पीछे मैंने जो
कुछ देखा उससे तो यही पता लगा कि सभी लोग अर्ध्दमृत से हो गये और बेहोश थे।
श्री हरिनारायण जी पर तो उनके गुस्से का ठिकाना न रहा। क्योंकि उनने जानते
हुए भी न बताया यह उन लोगों की धारणा जबर्दस्त थी।
खैर, तो खबर पाते ही कुछ आदमियों के साथ मेरे चचेरे भाई साहब अपारनाथ मठ
में आये। उनने बड़ा रोना-गाना फैलाया, तूफान किया और मुझे एक बार घर ले चलना
चाहा, ताकि और सबों को समझा-बुझाकर आश्वासन तो दे दूँ। मगर मैं कब सुनने
वाला था? फिर गुरुजी को उन लोगों ने जा पकड़ा और किसी प्रकार कह-सुन के
उन्हें राजी किया कि एक-दो दिनों के ही लिए मुझे ग्राम पर जाने की अनुमति
दे दें। वे राजी हो गये और मुझे कहा कि ''जाने में कोई हर्ज नहीं हैं, जाओ
और सभी को ढाँढ़स और आश्वासन देकर लौट आना''। फिर तो मुझे तैयार होना ही
पड़ा। फलत: उन लोगों के साथ रेल पर बैठकर एक बार पुन: ग्राम पर पहुँचा।
लेकिन वहाँ तो गजब का तूफान था। चारों ओर से रोना-धोना जारी था। अजीब समा
थी, निराला वायुमण्डल था। देखकर पत्थर भी पिघल जाता। मालूम होता था, घर,
दीवार, पेड़, खेत, आदमी सभी रोते और करुणार्द्र थे। लेकिन सर्वोपरि दुखिया
पिताजी और चाचीजी यही दो थे। उनसे तो बातें करना असम्भव था। यद्यपि वैराग्य
से मेरा दिल लबालब होने के कारण मोहममता छोड़ बैठा था और सख्त हो गया था।
फिर भी कुछ-न-कुछ असर उस अत्यन्त करुण वायुमण्डल का होके ही रहा।
और लोगों से तो प्रश्नोत्तर हुए ही और मैंने यथाशक्ति सभी को निरुत्तर
किया। गाँव और आस-पास के भी लोगों की भीड़ थी और नातेदार एवं सगे-सम्बन्धी
भी हाजिर थे। सभी के साथ मेरे इस काम के औचित्य-अनौचित्य के सम्बन्ध में
वाद-विवाद होता रहा। पं. हरिनारायण पाण्डे जी भी आये मगर एक तरफ चुपचाप
बैठे रहे। केवल उन्हीं को कोई शोक न था और भीतर से वे सम्भवत: खुश भी थे।
वह भी उत्तर-प्रत्युत्तर सुनते रहे। चाची के साथ जो बातचीत हुई उससे मैं
उन्हें किसी भी प्रकार आश्वासन देने में आखिर तक असमर्थ ही रहा, मुझे यही
लक्षित हुआ। असल में माँ से कम मेरा लाड़-प्यार उन्होंने नहीं किया था और
बुढ़ापे में मुझसे सुख की बड़ी आशा उन्हें थी जो पूरी न हुई। स्त्री का दिल
बहुत नरम भी होता हैं। परलोक वाली मेरी बात वह समझ न सकीं और रोती ही रह
गईं। इसी दर्द में पीछे कुछ ही वर्षों में उनका देहान्त भी हो गया ऐसा मुझे
मालूम हुआ। हाँ, पिताजी को तत्काल मैं आश्वासन दे सका ऐसा भान मुझे हुआ।
उन्होंने बुढ़ापे में खबर लेने के लिए जब सवाल किये तो मैंने उत्तर दिया कि
कई भाई तो अभी मौजूद ही हैं और अगर मेरे साथ आप चलें तो मैं आपकी बराबर
सेवा करूँगा। मैंने यह भी कहा कि तीन भाई आपके लिए इस दुनियाँ में फिक्र
करेंगे और मुझे परलोक के लिए रखिये। आखिर वहाँ भी तो कोई चाहिए। इस पर
उन्होंने पूछा कि ''क्या तुम्हारे इस सुकर्म का फल मुझे परलोक में
मिलेगा?'' मैंने उत्तर दिया कि ''जरूर।'' बस, फिर वह चुप हो गये। इसी से
मैंने अन्दाज किया कि उन्हें आंशिक आश्वासन मिला। मगर वह भी शोक के मारे
संग्रहणी से ग्रस्त हुए और पता लगा कि उसी से मरे भी। चाची और पिता दोनों
ही पचास वर्ष से कम के शायद न थे और इस महान शोक ने उन्हें सम्भलने न दिया।
हाँ, इसी दर्म्यान में एक और बात हो गयी। लोगों ने मंसूबा बाँध कि होशियार
लोगों के द्वारा समझा-बुझा के किसी प्रकार मुझे फिर घर में रख लिया जाये और
गैरिक वस्त्र उतार फेंकवाया जाये। इसी दृष्टि से एक खाकी जी, जो बड़े
महात्मा, फलाहारी, प्रतापी, पूज्य और प्रवीण माने जाते और आस-पास में ही
रहते थे, बुलाये गये। उन्होंने मुझसे बहुत दलीलें कीं भी। असल में वे तो
निरे खाकरमाने वाले ही थे, पढ़े-लिखे तो थे नहीं, फलत: तर्क-दलीलों में मेरे
सामने टिक न सके। अन्त में उन्होंने गाँव-घर के लोगों को कह दिया कि इनको
रोक रखने की कोई आशा नहीं। यह विचार आप लोग छोड़ दें। यह काफी सोच-समझ कर
इसमें पड़े हैं। इसके बाद ही खाकी जी दिन में जब सोने चले तो मैंने पूछा कि
ऐसा क्यों? उन्होंने कहा कि ''मैं तो रात में जगता और दिन में ही सोता हूँ,
क्योंकि गीता में कहा हैं कि ''या निशा सर्व भूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:'' इस पर मैंने उनसे कहा कि
गीता का यह वचन इस मामूली नींद और दिन-रात के सम्बन्ध में न होकर विवेकी और
अविवेकी के व्यवहार और विचार के बारे में हैं। मैंने इसे सुरेश्वरवार्तिक
के ''काकोलूक निशेवायं संसारोऽध्यात्मवेदिनो'' आदि से सिद्ध किया जिसमें
गीता के इसी बचन का उल्लेख हैं। इसी पर खाकी जी चुप हो गये। इस प्रकार पहली
बार मैंने देखा कि साधु-महात्मा कहे जाने वाले लोग किस प्रकार अर्थ का
अनर्थ करते हैं। गीता के उस श्लोक की यह निराली और नयी व्याख्या मैंने पहले
पहल सुनी।
लेकिन इन सभी बातों का असर यह हुआ कि मेरा बेहद सख्त-दिल धीरे-धीरे
द्रवीभूत हो चला और मुझे खतरा हुआ कि यदि अधिक दिन ठहरा तो दलीलों और
तर्कों से जो बात न हो सकी वह अनायास ही इस करुणापूर्ण वायुमण्डल से हो
जायेगी। फलत: मैं इस माया-मोह में पड़कर संन्यास को छोड़ यहीं रहने को लाचार
हो जाऊँगा। सच कहिये तो मैं एकाएक दहल उठा और घबरा कर काशी फौरन ही रवाना
हो गया। यदि लोगों को इसका पता लगता तो न जाने क्या होता? पर, मैंने बताया
नहीं और देर हो रही हैं यही दलील देकर चलता बना।
वायुमण्डल का मनुष्य के दिल और दिमाग पर कैसा आश्चर्यजनक असर होता हैं।
इसका प्रत्यक्ष अनुभव मुझे वहीं पहली बार हुआ। लोग कहा करते हैं
मौनप्रार्थना और मूकवेदना की बात और साधु-फकीरों या बड़े लोगों के द्वारा
होने वाले जादू के जैसे प्रभाव की बात। पतंजलि ने योगसूत्रों में योगी के
चमत्कार की अनेक बातें लिखी हैं। कहते हैं कि स्वामी विवेकानन्द जैसे घोर
नास्तिक और विलक्षण तार्किक के दिल को श्री रामकृष्ण परमहंस के एक साधारण
वाक्य ने पलट दिया। असल में वाक्यों, दलीलों, या जादू-मन्तर की कोई बात
नहीं हैं। जो बात आप कहते हैं करना चाहते हैं उसे हृदय से कहिये, कीजिये।
उसके बारे में ईमानदारी और पूरी सच्चाई से काम लीजिये। जरा भी दिखावटीपना न
रहने दीजिये। बाहर और भीतर एक ही ढंग की बात रहे। फिर देखिये कि आप के
चारों ओर एक बिजली का सा वायुमण्डल पैदा हो जाता हैं या नहीं और उसका फौरन
असर और लोगों पर पड़ता हैं या नहीं। जो परिस्थिति और जो वायुमण्डल अकृत्रिम
होगा, स्वाभाविक होगा वह बिजली का सा असर जरूर करेगा। इसीलिए नीतिकारों ने
कहा हैं कि जो बात सोचो, वही बोलो और वही करो तो महात्मा हो गये और अगर
इसमें गड़बड़ हो तो दुरात्मा।
''मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्।
मनस्यन्य द्वचस्यन्यत्कर्मण्यन्यद्दुरात्मनाम्''।
मैं मन (दिमाग), वचन (जबान) और कर्म (काम) के साथ दिल को अपनी ओर से जोड़
देता हूँ। इन चारों में एक ही बात रहने पर-इनमें परस्पर सामंजस्य रहने और
मतभेद न रहने पर-इन्सान में अभूतपूर्व शक्ति पैदा हो जाती हैं। मैंने उस
समय से लेकर आज तक इस सिद्धान्त को हजारों बार स्वयं अनुभव किया और ऐसा
करने के फल को आजमा देखा हैं। मैं अंग्रेजी की सिन्सीयरिटी (Sincerity) और
आँनेस्टी (Honesty) में ही इन चारों का समावेश मानता हूँ।
(शीर्ष पर वापस)
(2)योग और भ्रमण
मैं यहाँ पर यह बता देना चाहता हूँ कि संन्यास लेने के पूर्व मेरे हृदय में
रह-रह के यह विचार आता था कि ''आखिर मेरा यह पढ़ना-लिखना सिर्फ इसलिए हैं न,
कि धन कमाकर खाऊँ, पहनूँ या दूसरों को खिलाऊँ, पहनाऊँ? लेकिन जंगल के
जानवरों और पशुओं को कौन खिलाता हैं? वे तो स्वयं न खेतीबारी करते और न
खाने-पीने की सामग्री जुटाने की चिन्ता ही रखते । तो भी अच्छी तरह
खाते-पीते ही हैं। फिर मैं क्यों इसके लिए फिक्रमन्द होकर मरूँ? मुझे तो
कोई दूसरा ही खिलाये-पिलयोगा।'' यही विचार मुझे परेशान कर रहा था और आखिर
इसी ने मुझे घर-बार से जुदा किया। मैं तो खाने-पीने की चिन्ता कतई छोड़कर
भगवान की एकमात्र प्राप्ति के ही लिए दिन-रात प्रयत्न करने के विचार से
संन्यासी बना और जंगल की शरण लेने को उद्यत हुआ। दूसरा कोई भी ख्याल मेरे
दिल और दिमाग में न था। मैं तो इसी में मस्त था।
हाँ, यह ठीक हैं कि पहले थोड़ा-बहुत योग का चसका लगा था। इसीलिए फिक्र जरूर
थी कि कोई अच्छे योगी को ढूँढ़ कर उससे प्राणायाम और योगाभ्यास सीखूँ।
सांसारिक कामों से मुझे ऐसी घोर घृणा थी कि कह नहीं सकता। यह भी जान लेना
चाहिए कि सिवाय प्राणायाम, योगाभ्यास, ध्यान, समाधि, वेदान्तचिन्तन और
तत्सम्बन्धी विचारों के बाकी को मैं सांसारिक काम ही मानता था।
भोजनाच्छादनादि तो प्राणायाम प्रभृति के साधन थे। फिर भी इन्हें भी मैं
बाधक ही माने बैठा था। कारण, कुछ समय तो ये ले ही लेते थे और उतनी देर
ध्यान आदि से विमुख होई जाना पड़ता था। इसलिए उन्हें भी भार समझ उनसे
लापरवाह ही रहता था। गीता का अभ्यास तो बराबर करता था। अन्य वेदान्त ग्रन्थ
भी कुछ पढ़ चुका था। लेकिन फिर भी यह दशा थी।
आज जो अर्थ गीता का मैं समझता हूँ उसे निराला ही समझता था उन दिनों। नहीं
तो वह हालत नहीं होती। गीता के बारे में आगे अवसर पाकर ज्यादा लिखा जायेगा।
चाहे कितना ही उच्चकोटि का परोपकारी काम क्यों न हो, उस समय मेरी दृष्टि
में वह नाचीज सांसारिक काम ही था! फिर देश कोश की बात का कहना ही क्या?
जैसा आज के अधिकांश या प्राय: सभी साधुनामधारी देशसेवा आदि को छोटी चीज तथा
अपना अकर्तव्य समझते हैं, वही दशा उस वक्त मेरी समझिये। फर्क इतना ही था कि
देशसेवा आदि को तब जानता तक न था कि वह कोई खास चीज या काम हैं, जिससे मेरा
कोई सम्बन्ध होना चाहिए। मेरा तो एकमात्र कर्तव्य था भगवान की प्राप्ति।
मैं तो पागलों की तरह उसे ही ढूँढ़ने निकला था।
हाँ, तो मैं ग्राम से लौट कर काशी में ही गर्मियों में ठहरा। कह नहीं सकता
कि पहले से ही या संन्यास लेने के बाद ग्राम पर जाने पर ही, मुझे मालूम था
कि गर्मी बीतते न बीतते पं. हरिनारायण जी भी संन्यास लेंगे। दोनों की राय
यही थी कि संन्यासी होने के बाद ही भारत में भ्रमण करेंगे। और सबसे पहले एक
अच्छे योगी को, जहाँ कहीं हो, प्राप्त करेंगे। पण्डित जी एकाध योगी के बारे
में कुछ जानते भी थे। इसीलिए उन्हीं की प्रतीक्षा में मैं काशी में किसी
प्रकार दिन काटता रहा। इसी बीच में ही मुझे घसीट कर लोग गाजीपुर भी ले गये,
जिसके सिलसिले में
श्री सरयू प्रसादजी मास्टर की बात पहले लिखी जा चुकी हैं। क्योंकि फिर तो
बरसात आते ही हम दोनों भ्रमण में निकले तो कई वर्षों के बाद काशी लौट सके।
एक दिन एकाएक अपारनाथ मठ में देखता हूँ कि एक परिचित जैसे व्यक्ति
गैरिकवस्त्र पहने आ निकले और मुझे पूछकर मेरे पास आये। सहसा मैं भौंचक सा
रह गया और देखा कि संन्यासी के वेश में वही श्री हरिनारायण जी हैं बस, अब
क्या था? मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। अभी आषाढ़ की बूँदाबाँदी हुई ही थी और
हम लोग चुपचाप मठवालों से बिना कहे ही फौरन प्रयाग की ओर चल पड़े उन्होंने
किसी दण्डी संन्यासी से दीक्षा ली थी सही। मगर दण्ड उनके हाथ में भी न था।
अपने गुरु महाराज से बिना कहे ही वह भी चले आये। मैंने भी यहाँ मठ में
गुरुजी से नहीं कहा और चुपके से दोनों ही चल पड़े। पहले घरवालों से छिपाकर
संन्यासी बने दोनों ही, और संन्यासियों से भी छिपाकर भागे। बात यह थी कि
जानने पर बाधा जरूर होती। क्योंकि बाबा लोग कहते कि चातुर्मास्य (वर्ष) में
संन्यासी को भ्रमण करना शास्त्र निषिद्ध हैं। फिर तो विवश होना पड़ता।
मगर यहाँ तो भगवान और योगी से शीघ्र ही मिलने की बेचैनी थी, प्रीतम के
दर्शनों के लिए आँखें प्यासी थीं। फिर धर्मशास्त्र कैसा? क्या विचित्र बात
हैं धर्मशास्त्र के अनुसार संसार से विरक्त संन्यासी बने और जरूरत होने पर
उसी धर्मशास्त्र को जानबूझ कर ठुकराया, जब यह पता चला कि वह आगे बाधक होगा!
यह किसी नास्तिक की बात नहीं हैं। तब तो हम दोनों पूरे आस्तिक थे और सभी
पोथी-पुराणों को पूरा-पूरा मानते थे। असल में ध्येय और स्वार्थ दुनियाँ में
सबसे बड़ी चीज हैं और उसकी वेदी पर बड़े-से-बड़े पदार्थ जान या अनजान में
बलिदान होई जाते या कर ही दिये जाते हैं। उस समय हमने यह महान सत्य हृदयंगम
किया न था। हालाँकि, अमल किया उसी के अनुसार। इसे तो ईधर आकर समझा हैं। फिर
भी स्वभाववश, या यों कहिये, कार्य-कारणवश यही बात पहले उस समय अकस्मात हो
गयी।
आगे बढ़ने के पहले मैं अपारनाथ मठ के बारे में भी कुछ बातें कह देना चाहता
हूँ। वह कोई आज के प्रचलित मानी में मठ न था। आजकल जैसे मठाधीश साधुनामधारी
बनते हैं और बड़ी-बड़ी जायेदादें रखके गुलछर्रे उड़ाते हैं, सो बात उस मठ के
बारे में न थी। वह किसी मठाधीश की सम्पत्ति न थी। असल में, कहते हैं, पहले
काशी में बाबा अपारनाथ नामक कोई सिद्ध महापुरुष रहते थे। उन्हीं के चमत्कार
से मुग्ध होकर किन्हीं श्रीमान् लोगों ने उनके निवास के नाम से दो आलीशान
पत्थरों के बने बड़े-बड़े मकान बनवा दिये, जिनमें एक का नाम अपारनाथ का टेकरा
और दूसरे का नाम अपारनाथ मठ हैं। दोनों ही में बिना आश्रय और घर-बार के
विरागी संन्यासी रहते थे। शायद आज भी रहते हैं, गो कि, ईधर सुना था, कुछ
लोगों ने किसी बहाने उन मठों पर आंशिक प्रभुत्व जमाने की कोशिश की थी। ऐसे
संन्यासी कुछ दिन वहाँ रहते थे। फिर बाहर घूमघाम आते थे। भ्रमण के बाद शायद
कोई-कोई थोड़े-बहुत पैसे भी लाते थे और वहाँ रह के उन्हीं से काम चलाते थे।
यों तो सभी के लिए जहाँ-तहाँ अन्नसत्रों या अन्यक्षेत्रों में बना-बनाया
भोजन दिन-रात में एक बार मिलता था। शाम के लिए केवल कहीं-कहीं जलपान मात्र
का प्रबन्ध था। अधिकांश विरक्त और संस्कृत व्याकरण, दर्शनादि पढ़ने वाले ही
बूढ़े-जवान और कम उम्र के भी गेरुवाधारी वहाँ रहते थे। काशी की यह भी
परिपाटी हैं कि रह-रह के भण्डारा के नाम पर इन साधुओं के बड़े-बड़े भोज,
हलवा, पूड़ी आदि के होते रहते हैं। उनमें साल भर के लिए कामचलाऊ वस्त्र मिल
ही जाते हैं। पढ़ने-लिखने वालों को कभी-कभी श्रीमान् लोग रुपये-पैसे या
पुस्तकादि भी दिया करते हैं। ऐसा भी होता हैं कि अधिकांश पढ़ने-लिखने वालों
के अभिभावक या तो उनके गुरु महाराज होते हैं और उन्हें कोई फिक्र नहीं
रहती, या बाहर से भक्तों और भक्तानियों या चेले-चाटियों के पास से पैसे
लाकर वे लोग काम चलाते हैं।
अपारनाथ मठ ऐसा ही हैं। उसके आँगन में एक तुलसी-चौरा जैसी ऊँची जगह बनी
हैं। उसमें एक बड़ा-सा ताक हैं। उस पर मिट्टी के बहुत बड़े दीपक में सेरों
तेल भरा रहता हैं और अखण्ड दीपक जलता रहता हैं। वह कभी बुझने नहीं पाता। एक
साधु बराबर उसकी फिक्र में रहता हैं। वहीं बगल की कोठरी में बनी
अपारनाथ-बाबा की समाधि की पूजा भी वही बराबर करता हैं। उस दीपक के बारे में
यह प्रसिद्धि हैं कि किसी भी कुर्त्ता, सियार आदि जहरीले जानवर के काट खाने
पर जख्म पर उस दीपक का तेल मालिश करने और अच्छा न होने तक उस स्थान को पानी
से बचा देने से जख्म अच्छा हो जाता और जहर भी शान्त हो जाता हैं। जो उसमें
से तेल लेता हैं वही उसमें दूसरा डाल कर भर देता हैं। यही नियम वहाँ चालू
था। शायद आज भी होगा। मैंने वहाँ दो बार मिलाकर वर्षों गुजारे हैं। काशी
में तो बराबर बहुत वर्ष रहा हूँ। मैंने हजारों लोगों को तेल ले जाते देखा
हैं। दूर-दूर से आकर लोग ले जाते थे।
सन 1907 ई. की बरसात का दिन था और हम दोनों ही पैदल चल पड़े। गंगा के उत्तर
किनारे चलते-चलते हम लोग दो-चार दिनों में इलाहाबाद के पास गंगा के पूर्व
किनारे झूँसी जा पहुँचे। रास्ते की कहानी याद नहीं। यह ठीक हैं कि संन्यासी
के रूप में हम दोनों की यह पहली यात्रा थी, हालाँकि, श्री हरिनारायण जी
तीर्थ-यात्रा के बहाने पहले भी काफी भ्रमण कर चुके थे। वैराग्य का भूत सिर
पर सवार था। इसलिए हमें कष्टों की परवाह क्या थी? न रहने का ठिकाना और न
खाने का। दूसरे के घर में रात में ठहरना और खाना भी, चाहे कोई ठहराये और
खिलाये या टका सा जवाब दे। चारा तो कोई था नहीं। हम दोनों ही थे भी पूरे
मस्त राम। दबाव डाल कर माँगने का हक भी न था। सिर्फ भिक्षावृत्ति थी और
धर्म की राह थी। पास में न तो पैसा था और न कोई सामान। कपड़ा भी नाममात्र को
ही था। किसी प्रकार कामचलाऊ। छाता तो रखना मना था ही। फिर अगर कपड़े भीगे तो
और भी दुर्गति। आखिर संन्यासी का धर्म ही तो ठहरा और हमें तो पूरी आस्था थी
इस धर्म पालन में। फलत: हमने तो तय कर लिया था कि चाहे जो हो, पूरा-पूरा
धर्म निभायेंगे।
हमें याद नहीं कि झूँसी पहुँचने तक किसी विशेष संकट का सामना करना पड़ा, कभी
भोजन न मिला या कपड़े लथपथ होने से दिक्कत हुई। भोजन भी तो एक ही समय चौबीस
घण्टे में करना था। न तो कोई नाश्ता और न जलपान। चाय-पानी का तो सवाल ही न
था। पण्डित जी भी यद्यपि जवान ही थे। लेकिन मेरी तो केवल अट्ठारह-उन्नीस
वर्ष की अवस्था थी, जिसमें भूख-प्यास बहुत सताती हैं। लेकिन, आखिर, दृढ़
संकल्प भी तो कोई चीज हैं। इस अवस्था में तो कई बार भोजन चाहिए, नहीं तो
भूख से सिर और कलेजा फटा पड़ता हैं। मगर निश्चय कर लिया था कि एक ही बार
चौबीस घण्टे में खाना। और अगर एक-दो बार कोशिश करने पर एक दिन न मिला तो
फिर बार-बार उसकी परवाह छोड़ अगले दिन के लिए तय करके उस दिन चुपचाप बैठ या
सो जाना। झूँसी तक तो नहीं, लेकिन आगे चलकर ऐसे मौके बहुत बार आये, जब
दिन-रात गुजर चुकने पर ही भोजन मिल सका। 30, 36 या 40 घण्टे तक कभी-कभी
गुजरे और एक बार तो पूरे 52 घण्टों के बाद भोजन मिल सका। इससे एक फायदा
जरूर हुआ कि भूख पर हमारा अधिकार हो गया। अब वह हमें खुल के सता नहीं सकती
थी। खाना-पीना न मिलने पर क्या होगा, यह जो डर का महाभूत सभी के सिर सवार
रहता हैं और हम पर भी था, वह सदा के लिए हट गया। इस मानी में तो हम पक्के
संन्यासी बन गये।
हमने देखा हैं, जो संन्यासी यों भ्रमण नहीं करते, वे बराबर कमजोरी दिखलाते
हैं। वे लोग अच्छे पढ़े-लिखे, ज्ञानी-विरागी होने पर भी खाने-पीने के मामले
में हिम्मत हार बैठते हैं। साथ ही, हम तो उस समय पक्के भाग्यवादी और
भगवानवादी थे। हमारा तो विश्वास था कि न तो भगवान मरा हैं और न हमारा भाग्य
जल गया हैं या बन्धक रखा जा चुका हैं। फिर खाने-पहनने की क्या फिक्र? हमें
तो ख्याल था कि-
''का चिन्ता मम जीवने यदि हरिर्विश्वम्भरो गीयते''
फिर हम चिन्ता क्यों करते? नतीजा हुआ कि मस्ती के साथ आगे बढ़ते गये। पास
में था सिर्फ एक कमण्डलु, और शायद कुछ गीता आदि पुस्तकें। इस प्रकार झूँसी
पहुँचे और वहाँ एक मठ में जा ठहरे।
मठ में कुछ साधु लोग रहते थे और कोई सम्पत्ति विशेष हमारे जानते न थी। शायद
भक्तों की भेंट और चढ़ावे वगैरह से ही काम चलता था। हम वहाँ प्राय: महीनों
रह गये। मठ के सभी लोग और उसके प्रबन्धक, मैं नाम भूल गया, बहुत ही सज्जन
थे। वह हमसे प्रेम करते थे। वहीं हमने पहले सन 1905 ई. वाले बंगभंग के
आन्दोलन और उससे पैदा होने वाले तूफान की खबर यों ही किसी प्रकार सुनी। यह
बात हमें ठीक-ठीक याद हैं। मगर उसमें हमें तो कोई स्वाद न था। 'असल में
बन्दर अदरक का स्वाद क्या जाने' वाली बात भी थी, साधु-संन्यासियों की
दुनियाँ कैसी निराली होती हैं? यों तो अच्छा भोजन, वस्त्र और मठ जरूर
चाहिए, जो साधारण गृहस्थों को दुर्लभ हो। फिर भी ''दुनियाँ से हमें क्या
काम? इन सांसारिक झंझटों से हमें क्या लेना-देना हैं?'' कहके देशसेवा और
सार्वजनिक काम से वे घृणा करते हैं! गोया सुन्दर अन्न-वस्त्र दुनियाँ से
बाहर हैं, इसीलिए उनसे विमुख नहीं होते! लेकिन हमारी तो वह हालत थी नहीं।
हमे प्रचण्ड वैराग्य था। फलत: उस राजनीतिक आन्दोलन ने हमें जरा भी प्रभावित
नहीं किया। मेरी तो और भी विचित्र दशा थी। अंग्रेजी से तो ऐसी घृणा थी कि
कुछ पूछिये ही न। उसे तो मैं बिल्कुल ही भुला देना चाहता था। इसीलिए
अँग्रेजी का एक शब्दोचारण भी मेरे लिए असह्म था। नतीजा भी यही हुआ कि आठ-दस
वर्षों के भीतर मैं उसे भूल-सा गया। मालूम होता था, उसके ज्ञान पर एक
पर्दा-सा पड़ गया हैं और उसके नीचे वह धुँधला-सा नजर आता हैं। आगे चलकर फिर
मेरी प्रवृत्ति अंग्रेजी की ओर कैसे हुई, किस प्रकार मेरे भीतर उसका
सुप्तप्राय ज्ञान जगा और धीरे-धीरे पुष्ट हुआ, यह आगे लिखा जायेगा।
झूँसी में प्राय: मठ की छत पर मैं बिना कोई बिस्तर डाले ही रात को सोया
करता था। आषाढ़ की गर्मी तो बुरी होती ही हैं और पानी पड़ने के बाद छत ठण्डी
हो जाने से उस पर सोना अच्छा लगता हैं। मैंने यही किया। पर, कुछ दिनों बाद
शरीर में बहुत दर्द होने के साथ ही खूब तेज बुखार आया, जो महीनों बना रहा।
लोगों ने दर्द को सर्दी के कारण समझ पहली बार इस जीवन में मुझे चाय पिला
दी। उससे दर्द तो खत्म हो गया। लेकिन उसी जगह तेज बुखार ने ले ली। ज्वर की
गर्मी इतनी तेज हुई कि मैं बेचैन और थोड़ी देर बेहोश हो गया। पहली बार की
चाय का यह कटु अनुभव हुआ। लोग कहते हैं, वह ज्वर दूर करती हैं। पर मेरे सिर
तो उलटी गुजरी। जीवन भर में इसके सिवाय एक बार और चाय पीने का मौका लगा
हैं, जबकि मैं योगी की तलाश में घूमता-घूमता मध्यभारत की देहात में राजगढ़
ब्यावरा पहुँचा और वहाँ की देहात में एक जगह जाड़ों में ठहरा था। वहाँ के
लोगों को चाय पीने की सख्त आदत हैं। जाड़ा ज्यादा होता हैं। मुझे भी एक दिन
उन्होंने चाय पिला दी। बस, फिर क्या था, पेशाब में सुर्खी आ गयी और डरकर
फौरन मैंने चाय बन्द कर दी। फिर तो सुर्खी चली गयी। तब से कभी चाय पीने का
नाम मैं नहीं लेता। उसकी हिम्मत ही नहीं होती। असल में वह इतनी गर्म हैं कि
मेरा शरीर उसे बर्दाश्त नहीं कर सकता।
हाँ, तो ज्वर पीछे घटा सही, मगर कुछ-न-कुछ बना रहा। इस बीच एक
कषायवस्त्रधारी जवान संन्यासी बाबा वहीं आ पधारे। उन्होंने मुझे देखा और
दवा दी कि ज्वर हट जाये। फिर वह चलते बने। मैं उनकी दवा खाता रहा। कई खुराक
खाने के बाद एक दूसरे अनुभवी संन्यासी बाबा आ गये। उन्होंने वह दवा देख ली।
वह तो देखते ही चौंक उठे और मुझे कहा कि ''यह जहर क्यों खा रहे हैं? यह तो
कच्चे लोहे का भस्म हैं। तवा के जले पेंदे का बुरादा बना कर भस्म के नाम पर
कोई नादान आप को दे गया हैं। यह तो मार डालेगा।'' मेरा ज्वर तो छूटा नहीं
और यह नयी बला मालूम हो गयी। मैंने उसे उठा फेंका। मुझे रोज ज्वर नहीं आता
था। एक या दो दिन का अन्तर देकर आता था। हम दोनों ने तय कर लिया कि यहाँ से
अब चल ही देना ठीक हैं, और चल पड़े, त्रिवेणी पार होकर प्रयाग से चित्रकूट
जाने वाली पक्की सड़क पकड़ कर उसी ओर, हमारी इच्छा थी कि चित्रकूट होते आगे
बढ़ें। तुलसीकृत रामायण में उसका बहुत ही सुन्दर वर्णन पढ़ा था। कामदगिरि आदि
का बार-बार उल्लेख वहाँ आया था। इसीलिए वहाँ जाने की उत्कट अभिलाषा थी। ठीक
याद नहीं, शायद एक या दो दिनों के बाद ही शंकरगढ़ स्टेशन (जी. आयी. पी.
रेल्वे) के पास वाले गाँव में हम लोग जा पहुँचे। कह नहीं सकते, वही गाँव
शंकरगढ़ हैं या दूसरा। बहुत दिन गुजरने पर स्मृति ठीक नहीं रही। वहाँ वर्ष
में हम लोग ठहर गये। पहाड़ की तली में वह गाँव हैं। पहाड़ तो ज्यादा ऊँचा
नहीं हैं। हाँ, गाँव की अपेक्षा ऊँचा जरूर हैं। रात में हम लोग गाँव में
ही, एक स्थान पर सोते थे। वहाँ वाले झाल, ढोल वगैरह की सहायता से उसी जगह
खूब ही मस्त होकर रामायण गाते थे। मैंने बचपन में और उसके बाद भी रामायण का
गाना बहुत ही सुना हैं। मगर दो ही स्थानों का खूब चित्ताकर्षक और सुन्दर
पाया हैं। एक तो वहाँ का और दूसरा उसके दो-तीन वर्ष बाद बलिया जिले में,
गंगा तट पर, भरौली गाँव का, जिसे उजियार-भरौली भी कहते हैं। दोनों जगह लोग
बहुत ही अच्छा गाते थे। लेकिन अब तो शायद वह परिपाटी प्राय: उठ ही गयी।
हाँ, तो रात में गाँव में रहते और दिन भर, सिवाय खाने-पीने के समय के,
पहाड़ी पर पड़े रहते। बरसात के दिनों में पहाड़ी स्थान बहुत ही रमणीय लगता
हैं। एक बात जरूर थी कि न जाने कहाँ से इतनी ज्यादा मक्खियाँ उस गाँव में
थीं कि खाने-पीने में बड़ी दिक्कत होती थी। उतनी मक्खियाँ मैंने आज तक और
कहीं नहीं देखी हैं। इसलिए भी दिन बाहर ही काटते थे।
कुछ दिन ठहर कर आगे बढ़े और करबी होते चित्रकूट पहुँचे। चित्रकूट गाँव के
पास वाली नदी को मंदाकिनी कहते हैं। उसी के तट पर वह बसा हैं। उस समय वहाँ
के पेड़े की बड़ी प्रसिद्धि थी, जैसा मथुरा के पेड़ों की। न जाने अब क्या दशा
हैं। हम लोग आगे चल के कामदगिरि के पास पहुँचे। वर्ष का समय और रात में
बाहर टिकना यह ठीक न समझ हमने कामदगिरि की परिक्रमा में उसकी चारों ओर बने
वैष्णव साधु नामधारियों के मन्दिरों और मठों के द्वार खटखटाये कि वे रात
में ठहरने दें। मगर एक स्वर से सभी ने नाहीं की। हालाँकि, यह जानकर हमारे
क्रोध और घृणा की सीमा न रही कि सभी मठों में न जाने कितनी ही माई-दाईयाँ
रहा करती हैं। फिर तो बाबा लोगों के चरित्र का खुदा ही हाफिज। हार कर किसी
टूटे- फूटे लावारिस स्थान में जैसे-जैसे रात गुजारी।
आज भी कामदगिरि बहुत ही सुन्दर लगता हैं। खास कर वर्षकाल में उसके ऊपर कोई
चढ़ने नहीं पाता। कहते हैं, उसके शिखर पर श्री रामचन्द्र की चरणपादुका बनी
हैं। कामदगिरि को वहाँ कामतानाथ कहते हैं।
दूसरे दिन अनुसूया नामक स्थान देखने के लिए प्रमोद वन होते ही हम लोग चले।
असल में तो हनुमान धारा नामक स्थान, जहाँ पानी का प्रपात पहाड़ से जारी रहता
हैं, सबसे दर्शनीय और रमणीय हैं। मगर वर्ष में वहाँ घोर जंगल में जाना
असम्भव हैं। अत: दूर से उसका दर्शन कर सन्तोष किया और अनुसूया पहुँचे।
घूमते-घामते देर लगी और चौथे पहर कामदगिरि को लौटे। सामने कामदगिरि था।
बहुत ही निकट मालूम हुआ। लेकिन पहाड़ दूरी की दृष्टि से कितना धोखा देते
हैं, यह बात पहले-पहल हमें उसी दिन विदित हुई। हमें चलते-चलते कई घण्टे लग
गये और रात होते-होते हम वहाँ मुश्किल से पहुँच सके। बीच का रास्ता भी इतना
बीहड़ था कि कुछ कहिये मत। न जाने बीसियों नदी-नाले मिले, सो भी काफी चौड़े।
खैरियत यही थी कि उनमें ज्यादा पानी न था। नहीं तो लौटना असम्भव हो जाता!
असल में पहाड़ी नदी-नाले वर्ष होती रहने पर ही भरे होते हैं और वह हटी कि
इनके सूखते देर नहीं लगती।
जब हम अनुसूया गये तो हमें पता लगा कि वहाँ जो एक पुराना वैष्णव साधु रहता
था, उसके पास सोलह या बीस हजार रुपये जमा थे। वह अकेला ही था। लोभ के मारे
किसी को पास न रखता था कि खर्च होगा। लोगों को बताता भी न था कि इतने पैसे
पास में हैं। उस समय वह मर चुका था। चोरों को किसी प्रकार पता चल गया कि
उसके पास पैसे हैं। असल में उन लोगों को रुपये की महक मिलती हैं। फिर क्या
था, एक रात को धीरे से दो-चार चोर वहाँ पहुँचे और कुटिया की छत पर, जहाँ
वैरागी बाबा रहते थे, चढ़ गये। बाबा को जगाकर खजाने का पता पूछा और लेकर चल
देना चाहा। मगर वह तो नाहीनुकुर करते ही रहे कि बच्चा साधुओं के पास कैसे
कहाँ? फिर भी, उन जैसे साधुओं को तो वे लोग खूब ही पहचानते हैं। फलत:,
आखिरकार उन्हें मार कर छत से नीचे गिरा दिया और सभी रुपये लेकर चलते बने।
उन्होंने शायद सोचा कि जिन्दा रहने पर चिल्लायेगा और पीछे पुलिस को खबर
देगा। इसलिए 'रहे न बाँस, न बाजे बाँसरी'। ऐसे रुपयों का तो कुछ ऐसा ही
अन्त होना चाहिए। साधु लोग भी इस प्रकार पैसे रखते हैं और इस प्रकार भ्रष्ट
होते हैं, यह बात अनुसूया और कामदगिरि के मठों की बातें जान कर मुझे
पहले-पहल ज्ञात हुई।
प्रमोद वन आचारी वैष्णवों का अच्छा अव माना जाता हैं। जब तक हम वहाँ रहे,
हमारे साथ उनकी कुछ शास्त्र चर्चा भी होती थी। लेकिन हमें तो वहाँ टिकना न
था। सोचा, अब फिर यमुना पार होकर फतहपुर, कानपुर की ओर चलें। इसलिए चल पड़े।
चित्रकूट के नजदीक की ही कहानी हैं। एक दिन मैदान में ही थे कि भयंकर
आँधी-पानी का सामना हुआ, ऐसा भयंकर कि आज तक भूला नहीं। दौड़ कर गाँव में
जाना भी असम्भव था। पास के खेत में एक छतरीनुमा झोंपड़ी थी-बहुत ही छोटी थी।
दौड़कर उसके नीचे खड़े हो गये। तूफान था कि गजब और बिजली ऐसी कड़कती थी कि
कलेजा दहला देती थी। बहुत देर तक यह बला रही। वह छतरीनुमा झोंपड़ी नीचे तथा
चारों ओर खुली थी। उधर ऐसी ही बनती हैं। इसलिए पानी के झंकोरों ने हमें
बुरी तरह भिगा दिया था। मालूम होता था, हर बार कि बिजली हम पर गिरी और वह
झोंपड़ी ही एक प्रकार से उससे बचाती हुई मालूम पड़ी। बहुत देर तक आँधी-पानी
की इस बला का सामना करना पड़ा। शाम होते-न-होते जब वह हटी तो पानी से लथपथ
हम दोनों पास के गाँव में गये और जैसे-तैसे रात गुजारी।
हमने उसी रास्ते में जीवन में पहली बार देखा कि बुन्देलखण्डी लोग निराले
जूते बनाते हैं, जो एड़ी की तरफ ऊपर तक चढ़े होते हैं। पुश्तपाँव के ऊपर भी
आगे से आया हुआ हाथी के कान जैसा चमड़ा पड़ा रहता हैं। असल में वहाँ काँटे
बहुत होते हैं। खेत भी उनसे भरे होते हैं। उनसे बचने के लिए ये बनते हैं।
हलवाहे और मजदूर-मर्द, औरत, बच्चे सभी-ये स्वदेशी जूते पहनते हैं। नहीं तो
काँटों से पाँव खून-खून हो जाये। उत्तर की ओर चलते-चलते हम यमुना के तट पर
राजापुर गाँव में पहुँचे। असल में चित्रकूट से एक सड़क यमुना पार जाने के
लिए राजापुर आती हैं। पहले तो कच्ची थी। अब, न जानें, उसकी क्या दशा हैं।
इसलिए अनजान में ही हम वहाँ अकस्मात आ पहुँचे। हमें अत्यन्त प्रसन्नता हुई
कि जिस तुलसीदास की रामायण में हमें अपार भक्ति रही उसी तुलसीदास की
जन्मभूमि में पहुँच गये। हम पढ़ा करते थे कि ''राजापुर यमुना के तीरा, तुलसी
वहाँ बसै मतिधीरा।'' आज उसका साक्षात्कार हो गया। हमने बहुत कोशिश की कि
उनके हाथ की लिखी रामायण की प्रति वहाँ मिले तो देखें या अगर उनका कोई खास
दर्शनीय स्थान हो तो, उसका ही दर्शन करें। मगर महज मामूली जगह के सिवाय और
ऐसी कोई बात हमें नहीं दिखाई या बताई जा सकी। न जानें, इस समय वहाँ उनके
जन्म-स्थान की स्मृति में कुछ विशेष बातें ढूँढ़-ढाँढ़ कर निकाली गयी हैं या
नहीं और कोई विशेष आयोजन वहाँ हैं या नहीं। आज तो ऐसी बातों का युग हैं,
मगर तीस-चालीस वर्ष पूर्व यह बात न थी। देखा कि जितना प्रेम तुलसीदास और
उनकी भूमि से हमें हैं उसका शतांश भी वहाँ वालों को नहीं हैं।
अस्तु, एक ही दिन वहाँ हम ठहरे और बरसात में लबालब भरी यमुना को अगले दिन
पार किया। राजापुर यमुना के ठीक किनारे पर था और गाँव धीरे-धीरे कट कर गिर
रहा था। नहीं मालूम आज उसकी क्या हालत हैं, गिर कर और जगह जा बसा या यमुना
माई ने रहम की और बच गया।
एक दिन की बात हैं। फतहपुर जिले के खागानगर में दोपहर की भिक्षा (संन्यासी
लोग भोजन को भिक्षा कहते हैं) करके हम लोग आगे बढ़े और कुछ दूर जाकर एक गाँव
से बाहर पेड़ों की छाया में सोये थे कि ठण्डी हवा के साथ तेज बारिश आयी।
भागते हुए गाँव में पहुँचे तो कहीं ठहरने को स्थान न मिला। एक जर्जर मकान
धर्मशाले के नाम से था। वहाँ गये तो उसे कूड़े करकट से भरा पाया और खूब चूता
भी था। ईधर मुझे ज्वर भी तेज था। एक बात भूल ही गया। उस दिन किसी भक्त जन
ने खूब मिठाई-पूरी खिलाई थी। ज्वर की बारी उसी दिन थी। दूसरी चीज खाने को
मिली नहीं और एक ही बार चौबीस घण्टे में खाना था, फिर करते क्या? हाँ, तो
लाचार होकर सब कूड़ा एक कोने में, जहाँ चूता न था, जमा किया, क्योंकि समूचा
मकान पानी से भरा था, और उसी पर पाँव रख के दीवार के सहारे खड़ा हो गया।
बैठने के लिए जगह कहाँ? देह ज्वर से जलती थी। हवा-पानी दोनों ही गजब के थे
और मैं खड़ा था। उस दशा का अनुभव कौन कर सकता हैं? लेकिन उसी तरह खड़े-खड़े
पानी की मूसलाधार गुजार ली और पानी छूटते ही आगे बढ़ना चाहते थे। ज्वर उतर
चुका था। मगर शाम हो चुकी थी और गाँव के किसी सज्जन ने वहाँ आकर अपने घर पर
चलने को कहा। फलत: रात वहीं कटी। सुबह होते ही आगे चल पड़े।
हमारे साथी ने कहा था कि ज्वर कैसा भी क्यों न हो यदि महादेव बाबा के सामने
बैठकर उनका ध्यान किया जाये तो तीन दिनों के ध्यान के बाद ही वह जरूर हट
जाता हैं। हम दो दिन ध्यान कर चुके थे। तीसरे दिन फिर ज्वर आया रास्ते में
ही ज्वर से दबे हुए हम जैसे-तैसे फतहपुर के पुराने शिव मन्दिर में शाम को
पहुँचे और शिवजी के सामने जा डटे। हम तो धार्मिक ठहरे ही हमें पूरा विश्वास
था। कुछ देर के बाद पसीना शुरू हुआ और हम लथपथ हो गये। फिर भी बैठे रहे।
अन्त में ज्वर जो उस दिन गया जो सदा के लिए विदा हुआ, कम-से-कम बहुत समय के
लिए तो जरूर ही। यह भी आश्चर्य की बात हैं कि मिठाई-पूड़ी खा के और पानी में
लथपथ हो के खड़े-खड़े जिस ज्वर को एक रोज बर्दाश्त करना पड़ा वही एकाएक उस दिन
खत्म हो गया! हमारे जानते उसके बाद भी बहुतों के ज्वर इस प्रकार की आराधना
से छूटे हैं। दिमागदार लोग चाहे इसका कारण दिमाग की तद्विषयक दृढ़ धारणा को
ही बतायें या और कुछ कहें। हमें उससे मतलब नहीं। हम तो कोई सिद्धान्त
स्थापित करने चले हैं नहीं। किन्तु अपने जीवन के संघर्ष की एक अनुभूत घटना
का उल्लेख मात्र करना हमारा काम हैं।
यहाँ एक बात और भी कह देनी हैं। जब-जब चलने में परिश्रम होता था तो मैं
देखता था कि शरीर के ऊपर पानी के शीकर जैसी कोई चीज निकल आती थी। उसके ऊपर
निहायत ही बारीक सफेद पर्दा जैसा होता था। हाथ से मसलते ही यह चीज खत्म हो
जाती थी। पर, पुन: पैदा हो जाती थी। मैंने अन्दाज किया कि कच्चे लोहे का ही
यह असर था। बचपन में जिस पित्त के प्रकोप और संग्रह (जमा होने) की बात पहले
कही हैं और हिन्दी मिड्ल की पढ़ाई के समय जो ज्यादा कुनाइन खाई थी। इन दोनों
के साथ मिलकर यह कच्चा लोहा गजब करने पर आमादा हो गया। इस भयंकर त्रिपुटी
ने मुझे भयभीत कर दिया। लक्षणों से ऐसा लगता था कि पेशाब की तथा दूसरी
इन्द्रियों पर भी इसका भयंकर असर होगा, जिससे लोग खामखाह कहेंगे कि यह जवान
संन्यासी कहीं व्यभिचार में फँस कर सिफ़लिस और सुज़ाक से आक्रान्त हैं। इस
धारणा ने मुझे बहुत ही विचलित किया। मगर हिम्मत मैंने न हारी और साथी को भी
कुछ न बताया। केवल ताकीद और संयम से रहने लगा। फलत: कुछ ही दिनों के बाद वे
सभी कुलक्षण खत्म हो गये और मैंने न जाने किसे-किसे धन्यवाद दिया। यह ठीक
हैं कि खून में उसकी गर्मी घुस गयी और शरीर के अष्टधातुओं पर उसने खूब असर
किया। मगर बाहरी चिद्द फिर कोई भी दृष्टिगोचर न हुए।
हम पैदल ही फतहपुर से आगे बढ़े और कानपुर में कई दिन ठहरे। रात में एक बाग
में रहते और दिन में शहर में भिक्षा कर आते। सरसैयाघाट की पहले-पहल जानकारी
मुझे उसी समय सन 1907 ई. की वर्ष के दिनों में हुई। पीछे तो कानपुर जाने का
मौका सैकड़ों बार लगा हैं। कानपुर से आगे गंगा का किनारा छोड़ झाँसीवाली लाइन
की बगल से जाना हमने तय किया। क्योंकि हमारा विचार था मध्यप्रान्त के
खण्डवा जिले के ओंकारेश्वर में जाकर हिन्दुओं के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में
से एक
श्री ओंकारेश्वर नाथ जी का दर्शन नर्मदा के बीच में करना और वहीं पास के
जंगल में श्री कमल भारती नामक योगी से मिल कर योगाभ्यास सीखना। पैसे पास थे
नहीं। शास्त्रों के अनुसार न तो हमें पैसे रखने की आज्ञा थी और न हमारी
इच्छा ही थी कि रखें। पैदल यात्रा में अनुभव और मजा भी था। अत: पैदल ही
बढ़े।
(शीर्ष पर वापस)
(3)
क्षुधा के अनुभव-अन्य घटनाएँ
हमारी यात्रा उरई आदि स्थानों से होकर हुई। हम ज्यों-त्यों आगे बढ़ते गये
खाने- पीने का कष्ट विशेष होने लगा। फलस्वरूप हमें एक-एक दिन में बहुत
ज्यादा चलना पड़ता था। क्योंकि जंगली प्रदेश होने से हम समझते थे कि दूर
जाने पर शायद कोई शहर या सम्पन्न गाँव मिले और भोजन की प्राप्ति आसानी से
हो जाये। परिणाम यह हुआ कि हम झाँसी होते ललितपुर तक किसी प्रकार पहुँच
सके। हम दोनों काफी कमजोर हो गये और चलने की हिम्मत न होती थी। अब तो चौबीस
घण्टे का प्रश्न ही न था। प्राय: डेढ़ और दो दिनों पर एक बार मुश्किल से यदि
भोजन मिल जाता तो हम गनीमत समझते! सभी जातियों के यहाँ भोजन करते थे भी
नहीं। सिर्फ ब्राह्मण के ही घर भरसक करते थे और ऐसा न होने पर क्षत्रिय के
घर में शायद ही कभी। कट्टरपन जो था और पोथी-पत्रो का ज्ञान भी तो ताजा ही
था।
ललितपुर में, हमें ख्याल हैं, कई दिन ठहरे और जरा थकावट दूर की। असल में
गंगा के किनारे तो लोग संन्यासियों को जानते-मानते हैं। क्योंकि सह्त्रो
वर्षों से असंख्य संन्यासी बराबर पैदल ही गंगा तट में घूमते रहे हैं।
हजारों स्थान पर उनकी कुटिया भी बनी हैं। इसीलिए उधर ठीक रहता हैं अब भी।
मगर झाँसी और बुन्देलखण्ड के जंगलों में संन्यासी क्यों जाने लगे? इसीलिए
वहाँ के लोग समझ भी नहीं पाते थे कि हम कौन और क्या हैं और हमें क्यों
खिलाना-पिलाना चाहिए। इसी से ज्यादा कष्ट हुआ और ललितपुर में विश्राम करने
की नौबत आयी।
वहाँ एक ठाकुरबाड़ी में, जो सजी-धजी थी, हम एक दिन गये। वह शहर
से बाहर तालाब के किनारे थी ऐसी याद-सी हैं। हमने वैष्णव साधुओं की तरह
ठाकुरजी को जमीन पर लोटकर (साष्टांग) दण्डवत नहीं किया। किन्तु यों ही जरा
सिर झुका लिया। फिर बैठ गये। पुजारी पढ़े-लिखे थे। उन्हें यह बात रुची तो
नहीं। फिर भी सभ्यतापूर्वक कहने लगे कि महापुरुष (संन्यासी को महापुरुष
कहते हैं), लोग भगवान को साष्टांग क्यों नहीं करते? इस पर हम लोगों का उनके
साथ कुछ देर तक मनोविनोद और शास्त्रीय कथनोपकथन होता रहा। वह खूब दिलचस्प
था।
आखिर, एक स्थान पर ज्यादा टिकना अवांछनीय समझ हमने बीना होते सागर और वहाँ
से नर्मदा पहुँचने की सोची। मगर चलने की तो हिम्मत न थी। इसलिए ललितपुर के
स्टेशन मास्टर से कहा कि किसी प्रकार बीना तक हमें पहुँचा देने का यत्न
करें। हमने उसे अपनी मजबूरी सुना दी। वह बेचारा तैयार हो गया। पैसा तो कहाँ
खर्च करता। उसने कहा कि ट्रेन आते ही गार्ड से कह दूँगा और आप लोग निरबाधा
चले जायेगे। ट्रेन आयी। मैं उसके पास ही था। उसने गार्ड से अंग्रेजी में,
कुछ कहा भी जो मैं सुनता था। गार्ड का चमड़ा गोरा था, उसने अंग्रेजी में,
मुझे देखकर, उत्तर दे दिया कि यह साधु नहीं, यह तो लड़का मात्र हैं “He is
not a Sadhu, but a more child” कुछ इसी ढंग के उसके शब्द थे जिनमें एकाध
आज बत्तीस वर्षों के बाद कदाचित भूलने पर भी वे आज तक कानों में गूँजते
हैं। गार्ड ने क्या समझा कि ये शब्द मैं समझूँगा और इन्हें अमर बना रखूँगा।
मगर यह निराली घटना थी जो जीवन में पहली-बार हुई। अब तक कभी मुफ्त रेल में
चढ़ने की इच्छा न की थी और इस बार यदि की भी, तो बेबसी थी। फिर भी चोरी से न
चढ़ कर गार्ड की दया का भिखारी बने। लेकिन उसने वह प्रार्थना ठुकरा दी। उसे
अपनी अक्ल का घमण्ड था कि वह साधुओं को पहचानता था। मुझे तो उसने निरा लड़का
समझा।
लेकिन इससे हमारा निश्चय और भी पक्का हो गया कि जरूर गाड़ी से चलेंगे।
चुपके-चोरी हजारों रेल में चढ़ते और निकल भागते हैं। कोई गार्ड नहीं कहता कि
ये लड़के हैं, साधु नहीं हैं, वे ऐसा मौका देते ही नहीं। क्योंकि काफी
चतुर-यार होते हैं। मगर हमने जब चोरी से चढ़ना ठीक न समझा तो घृणापूर्वक
ठुकराये गये। बस, फिर क्या था, हम दोनों गाड़ी में जा बैठे। स्टेशन मास्टर
ने भी अपना फर्ज अदा कर दिया था, गार्ड से कहने मात्र से ही। उसे हमारी
क्या फिक्र? मगर एक गरीब प्वांइट्स मैन ने कहा कि बीना से एक स्टेशन पहले
ही आप लोग उत्तर जाइयेगा, नहीं तो बीना में टिकट का झमेला होगा। उसने यह भी
कहा कि वहाँ (पहले स्टेशन) का स्टेशन मास्टर भला हैं। ठीक ही हैं,
प्वाइंट्समैन तो गरीब दुखिया था। फिर वह हमारे जैसे दुखियों का कष्ट क्यों
न पहचानता?
(शीर्ष पर वापस)
(4)
सीनाजोरी और अजीब घटनाएँ
फिर तो चोरी के बजाये सीनाजोरी करके हम लोग ट्रेन पर चढ़े। हमें जिद्द हो
गयी कि चाहे कुछ हो, चढ़े बिना नहीं मानेंगे। मैं तो इस प्रकार के अपने
स्वभाव का उल्लेख पहले ही कर चुका हूँ। मनुष्य को समय-समय पर निर्भीक,
लापरवाह और साहसी तो होना ही चाहिए। नहीं तो फिर वह मनुष्य ही कैसा? खैर,
हमारी ट्रेन चल पड़ी। तेज गाड़ी थी। दोपहर के पहले का समय था। शायद ज्यादा
दिन न आया था। जब प्वाइंट्समैन के बताये स्टेशन पर ट्रेन लगी तो हम दोनों
ही उसके कहे मुताबिक निश्चिन्त होकर उतरे ही थे कि हमसे स्टेशन वालों ने
टिकट माँगा और न दे सकने पर स्टेशन मास्टर ने बिगड़ कर कहा कि ''ये दोनों
चोर हैं, गार्ड साहब, बीना ले जाकर इनसे झाँसी (क्योंकि जंक्शन हैं) तक का
चार्ज लीजिए'' फिर उसने हमें गार्ड के हवाले कर पुन: ट्रेन में चढ़ने को
विवश किया। पता नहीं गार्ड ने क्या सोचा। उसने हमें ललितपुर में देखा तो था
ही और 'केवल बच्चा' बताया था। वहाँ की बात उलटी हुई। जो स्टेशन मास्टर हमें
शरण देने वाला बताया गया वह पुलिस का पक्का आदमी जैसा निकला। शायद बेचारे
प्वाइंट्समैन की जानकारी ठीक न थी, या इस बीच में पहला स्टेशनमास्टर बदल कर
कोई नया आया था। मगर उस स्टेशन पर और किसी ने भी हमारे साथ हमदर्दी न
दिखाई।
जो हो, हम लोग फिर ट्रेन में बैठे और थोड़ी देर में बीना पहुँच गये। ट्रेन
लगते ही हम दोनों फौरन उतरकर जो फाटक पर पहुँचे तो टिकट जमा करने वाले ने
टिकट माँगा। हमने अपनी बात साफ कह दी और उसने कहा ''जाइये महाराज'' फिर
क्या था, हमारी खुशी का ठिकाना न रहा। यहाँ भी उलटी बात हुई फँसने का खतरा
पूरा-पूरा था। मगर बाल-बाल बचे। न जाने वह गार्ड बेचारा कहाँ रहा। हम तो
स्टेशन के बाहर चले आये और हमें उसका पता क्या? शायद उसने पीछे हमारी खबर
ली हो और सोचा हो कि शिकार भाग गया। पर हम तो सामने से आये और साफ कहके
आये। कोई छिप-छिपाके तो आये नहीं। और हमारा कोई यह फर्ज भी न था कि गार्ड
से कहने जाते, या उसकी इन्तजार करते और उसके तशरीफ लाने पर ही बाहर आने की
कोशिश करते। हमने तो उन सबों की ऐंठ और निराली समझ देख जिद्दवश यह मार्ग
पकड़ा था और साहस के बल हम अपनी सफलता उन्हें दिखाना चाहते थे। सो तो सफल
हुए ही।
स्टेशन से बाहर होते ही शहर की ओर चले, क्योंकि भोजन का समय हो गया था। हम
यह जानते थे कि उधर शहरों में घीवालों की आढ़तें होती हैं। हमने यह भी अनुभव
किया था कि घी-वाले हमारे जैसे साधुओं को देखते ही फौरन पूड़ी-मिठाई खिला कर
विदा कर देते थे। बस, हम भी घी के एक आढ़तिया को ढूँढ़ते हुए पहुँचे और उसने
फौरन हमें खूब डँट के मिठाई-पूड़ी का भोजन कराया। भोजन के समय भी और उसके
बाद भी आज तक याद आने पर हमने सैकड़ों बार सोचा हैं कि यदि बीना से पहले
वाले स्टेशन पर ही हम उतर पड़ते और कोई छेड़ता नहीं, तो बीना वाली वह
मिठाई-पूड़ी कौन खाता? मालूम होता हैं, उसी ने वहाँ बाधा डाल उतरने न दिया
और बीना तक पहुँचा दिया। जहाँ झाँसी तक के चार्ज की वसूली तो खटाई में पड़ी
रही ही उलटे हमने अच्छी तरह भोजन किया। ऐसे ही मौकों पर तो लोग भाग्यवाद और
तकदीर का सहारा लेते हैं। ऐसे ही मौकों के अनुभव से किसी कवि ने कह दिया
हैं कि,
''अन्दलीबो को कफस में आबोदाना ले गया''
(शीर्ष पर वापस)
(5)
बावन घण्टे के बाद
बीना से हम सागर की ओर बढ़े। क्योंकि हमें नर्मदा पार करके नरसिंहपुर की
देहात में कड़कबेल स्टेशन के पास माने गाँव जाकर वहाँ से खण्डवा होते
ओंकारेश्वर जाना था, जैसा कि पहले कह चुके हैं। रास्ता बिलकुल ही जंगली था।
जंगली और तथाकथित छोटी कोमों के ही लोगों की बस्तियाँ कहीं-कहीं मिलती थीं।
उनमें अगर कोई कहीं दीखने में अच्छे (सुखी) लोग मिलते तो वे प्राय: जैनी
होते थे। फलत: भोजन मिलना मुहाल हो गया। हमें अपनी सारी जिन्दगी और सारी
यात्रा में वैसे कष्ट का सामना कभी नहीं करना पड़ा। बड़ी ही सख्त परीक्षा थी।
गाँवों के लोग तुलसीकृत रामायण जैसी अत्यन्त लोकप्रिय पुस्तक तक को नहीं
जानते और हमसे प्रश्न करते थे कि आप लोगों की जाति क्या हैं? फिर खिलाता
कौन? इसीलिए भूख से परेशान हो जाना पड़ता था। जिस प्रकार ललितपुर से पहले
भूख की गर्मी से नाक से खून तक गिरने लगा था। वही हालत ईधर भी होने लगी। एक
दिन तो यह नौबत गुजरी कि पूरे बावन घण्टे तक हमें खाना न मिला। जब रास्ते
में छोटे-छोटे जंगली करौंदों को तोड़कर हमने खाना चाहा तो उनमें बीज ही बीज
पाया। उससे पूर्व एक दिन छत्तीस या चालीस घण्टे के भीतर दोनों को मिलाकर
सिर्फ एक छटाँक चना मिल सका था। तब कहीं भोजन मिला। खैर, बावन घण्टों में
हमें पूरे अट्ठाईस मील चलने भी पड़े। उसके बाद नर्मदा के किनारे के एक शहर
में, जिसका नाम भूलता हूँ, हम पहुँचे। वहाँ एक दाक्षिणात्य ब्राह्मण के घर
किसी भोज में हमें भरपेट अच्छा खाना मिला।
वहाँ पर ठीक उस भोजन के समय भी एक अजीब घटना हो गयी। हम खा रहे थे। एक चतुर
आदमी ने हमसे प्रश्न किया कि आपको रुपये भेजने हों तो हमसे कहिये, हम भिजवा
देंगे। हम यह बात समझ न सके। उसने कई बार ऐसा ही कहा। तब हमने पूछा कि बात
क्या हैं? आखिर में रहस्य खुला कि बहुत से गेरुवाधारी लोग रुपये जमा करते
रहते हैं और बाल-बच्चों के पास भेजा करते हैं। उधर नर्मदा तट में ऐसा होता
हैं और वह मनुष्य यह बात जानता था। इसी से उसने हमसे मन-ही-मन मजाक के रूप
में ऐसा कहा। पर, उसे पता क्या हम पैसों से कितनी दूर थे। हमने उसे सब
बातें स्पष्ट कह दीं। लेकिन हमारे जीवन में यह पहला ही मौका था जब हमने
साधु-संन्यासियों के ऐसे घृणित कर्मों का पता पाया।
सागर के बाद रास्ते में एक और मजा भी आया। एक दिन हम पैदल चलते-चलते जंगल
से गुजर रहे थे। वह बड़ा ही घना था। उसके बीच के सड़क से हम जा रहे थे। जाड़े
के दिन थे। एकाएक शाम हो गयी और किसी गाँव का पता न लगा। अन्दाज हुआ कि
गाँव दूर हैं। बस, हमने पक्की सड़क पर जंगल में ही ठहर जाना ठीक समझा। मगर
कपड़े कम थे और रात में जानवरों के खतरे भी थे। इतने में ही एकाएक हमें सड़क
पर ही आग नजर आयी। गाड़ीवान लोग वहीं ठहरे थे और जलती आग छोड़कर चले गए थे।
ऐसा हमें अन्दाज लगा। बस, जैसे-तैसे लकड़ियाँ जला कर हमने रात काटी और अपनी
जान बचाई। आग के पास जानवर नहीं आते यह हमें ज्ञात था। शाम से सुबह तक एक
आदमी भी उस रास्ते आता-जाता न दीखा। इससे हमने समझा कि वह रास्ता रात के
चलने का न था।
(शीर्ष पर वापस)
(6)
नर्मदा पार माने गाँव में
हमने नर्मदा के उत्तर तटवर्ती उस शहर में रात गुजारी और अगले दिन उसे पार
किया। जीवन में पहली बार उस नर्मदा माई का दर्शन हुआ जिसकी महिमा बहुत सुना
करते थे। हमें बचपन में यह भी बताया गया था कि जो वैष्णव आचारी बहुत ही
कट्टर होते हैं वह नर्मदा में पाँव नहीं देते। उनकी धारणा हैं कि नर्मदा
में तो असंख्य शिवलिंग (शिवमूर्तियाँ) हैं। अत: उनके सम्पर्क वाला जल
स्पर्श करने से धर्म चला जायेगा। वैष्णवों और शैवों की इस नादानी और
मूर्खतापूर्ण कट्टरता को क्या कहा जाये? धर्म के नाम पर ही ऐसी बेवकूफी
सम्भव हैं।
खैर, हमने नर्मदा की तेज धारा की अनवरत रगड़ से गोल और चिकने पत्थरों का
समूह वहाँ देखा और समझ लिया कि इन्हें ही शिवलिंग के नाम से पूजा जाता हैं।
नर्मदा पार होकर नरसिंहपुर पहुँचे और रात में वहीं ठहरे। दूसरे दिन पूर्व
की ओर चले और ख्याल नहीं कि एक या दो दिनों में मानेगाँव पहुँचे। इसका
उल्लेख पहले किया हैं। आगे बढ़ने के पूर्व यह कह देना हैं कि लगातार कई
महीनों के मस्ताना पर्यटन ने हमें पक्का बना दिया। अनुभव भी खूब हुए। पहले
तो हमें भूख इतना सताती थी कि बेचैन हो जाते थे। अगर एक समय भोजन न मिले तो
आफत। एकादशी या उपवास करना भी असंभव था। फलाहार करने पर भी हम तिलमिला जाते
थे। मगर यह सभी बातें जाती रहीं। अब तो यदि चौबीस घण्टे में एक बार भोजन
मिल जाता तो हम मस्त रहते।
नरसिंहपुर जिले (मध्यप्रान्त) के मानेगाँव नामक ग्राम में एक बहुत ही
सम्पन्न क्षत्रिय मालगुजार रहते थे। बिहार, बंगाल, युक्तप्रान्त के
जमींदारों के ही स्थान पर करीब-करीब उनके जैसे ही मध्यप्रान्त के मालगुजार
होते हैं। खेद हैं, मैं इस समय उनका नाम भूल रहा हूँ। उनके चार सुयोग्य
लड़के थे जब हम वहाँ पहुँचे। हमारे साथी एक बार गृहस्थ की दशा में जा चुके
थे। इसीलिए फिर हम दोनों गए। वे संन्यासियों के बड़े ही सेवक थे। पहले तो
नहीं, पर, पीछे हमारे साथी को उन्होंने पहचाना और उन्हें संन्यासी देख खुश
हुए। उन्होंने घर के सामने ही लम्बेबाग में दो मन्दिर शिव और विष्णु के
पूर्व पश्चिम बनवा रखे थे। उन दोनों के बीच में पक्की लम्बी फर्श थी। इससे
साफ था कि उनके यहाँ शैव वैष्णव के झगड़े की नादानी की गुंजाईश न थी। स्वयं
उन्हें वेदान्त-दर्शन का बड़ा-ही शौक था। हालाँकि, संस्कृत के अनभिज्ञ थे।
लेकिन वेदान्त के जितने ग्रन्थ हिन्दी में लिखे गए, या संस्कृत आदि से
जिनका कहीं भी अनुवाद हिन्दी में हुआ था उन्हें उनने ढूँढ़कर मँगा लिया था।
इतना ही नहीं सबों को पढ़ा और समझा था। उनके गुरु एक अच्छे विद्वान विरक्त
संन्यासी थे। उनसे ही उन्होंने सब ग्रन्थ पढ़े थे और ज्ञान प्राप्त किया था।
इसीलिए उस संन्यासी के और उसके करते अन्य संन्यासियों के भी परमभक्त वे बन
गए थे।
उस विरक्त महात्मा की भी विचित्र कथा हैं। हमसे बाबू साहब ने कहा कि लाख
कोशिश करने पर भी वे यहाँ ठहरते ही नहीं। महीना-आधा महीना रह के चुपचाप
निकल जाते हैं और भटकते फिरते हैं, कष्ट भोगते हैं। फिर कुछ दिनों बाद
अचानक आ जाते और उसी तरह चले भी जाते हैं। सौभाग्यवश वे वहीं थे उसी सामने
वाले बाग में जो सुन्दर पक्का बँगला था उसी में ठहरते थे। हम लोग उनसे
मिलने गए। देखा कि बँगले के भीतर दीवारों में अलमारियाँ बनी हैं और उनमें
पुस्तकें सजी-सजाई हैं। ठाकुर साहब की सभी पुस्तकें यहीं थीं। महात्मा जी
संस्कृत पढ़े-लिखे थे। हमारे वार्त्तालाप में उनने बताया कि क्यों बराबर
वहाँ टिकते नहीं।
उनका कहना था और हमारे आज तक के अनेक अनुभवों ने उसे ठीक माना हैं कि
गृहस्थ लोग पहले तो खूब ही प्रेम करते और जी-जान से सेवा करते हैं। वे ऐसा
करते-करते विरागी साधु-सन्तों को फँसा लेते हैं। लेकिन जब देखते हैं कि ये
महात्मा लोग एक प्रकार से उनके आश्रित और आलसी बन गए, फलत: बाहर जा नहीं
सकते तो जान या अनजान में अनादर करना शुरू कर देते हैं। साधु बेचारा भी
लाचार बर्दाश्त करता हैं। क्योंकि आराम के जीवन ने बहुत दिनों के बाद
साधारण गृहस्थ और उसमें वस्तुगत्या कोई अन्तर रख छोड़ा ही नहीं। इसलिए कहीं
चले जाने में उन्हें कष्टों और भूख-प्यास का महान भय सताता रहता हैं। इस पर
हमने उनसे कहा कि इन बातों को जानते हुए भी आप कैसे फँस सकते हैं? सजग
रहिये और जब ऐसा देखिये तो सटक सीताराम हो जाइये। यों रह-रह के भागने का
क्या मतलब? आप अपने को इतना दुर्बल दिल का क्यों मानते हैं कि फँस जायेगे?
उन्होंने उत्तर दिया कि जब बिजली एकाएक चमकती हैं तो मजबूत से मजबूत दिल
वालों की आँखें खामख्वाह झप जाती हैं। यही हालत इन्द्रिय-सुखों की हैं। वे
बड़े से बड़े त्यागी, विरागी और विवेकी तक को फँसा लेते और बन्धन में डाल
देते हैं। इसीलिए मैं रह-रह के बाहर भागता और क्षुधा-तृषा आदि के कष्टों का
सामना करता हुआ अपने को भीतर और बाहर दोनों ही तरफ से दृढ़ रखना चाहता हूँ।
बात तो ठीक ही हैं। हमने सह्त्रो संन्यासी देखे हैं जो प्रारम्भ में विरागी
और त्यागी होते हुए भी इसी प्रकार सांसारिक बन गए। हालाँकि, अन्त तक अपने
आप को महात्मा ही समझते रहे।
उस त्यागी संन्यासी का उसके प्राय: वर्षों बाद अचानक दर्शन हमें हृषीकेश
में मिला। मगर फिर वहाँ से भी वे एकाएक चलते बने। जहाँ तक स्मृति बताती
हैं। हम लोग मानेगाँव महीनों रह गए। वहाँ खूब वेदान्त चर्चा होती थी। ठाकुर
साहब चतुर और पठित पुरुष थे। इसलिए तर्क-वितर्क और वेदान्त के सूक्ष्म
प्रश्नों पर उनसे वार्त्तालाप खूब ही होता था। ठाकुर साहब का कहना था कि
यथाशक्ति मैं चार दान करता हूँ। बाहर से जो कोई साधु-फकीर या भूखा-नंगा आता
हैं उसे अन्न-वस्त्र देता हूँ। कोई भी निराश लौटने नहीं पाता। मुक्त दवा
देने का भी प्रबन्ध कर रखा हैं, जिससे देहातों में असहायों को औषधि दान कर
सकूँ। पुस्तकालय और वेदान्त ग्रन्थों का संग्रह कर के लोगों को ज्ञान देता
हूँ। आनरेरी मजिस्ट्रेट की हैंसियत से निष्पक्ष और सुलभ न्याय का दान करता
हूँ। बातें भी ठीक ही थीं। हमने अपनी आँखों देखा। अपने चारों सुपुत्रों को
भी उनने यही शिक्षा दी थी कि बराबर चारों दान जारी रखें। इस प्रकार मैंने
उन्हें कोरा वेदान्ती नहीं पाया। किन्तु वेदान्त ज्ञान का व्यावहारिक रूप
उनमें देखा। असल में वे आदर्श गृहस्थ थे।
काश, और लोग भी उनसे यह शिक्षा ग्रहण करते और वैसे ही वेदान्ती हमारे देश
में असंख्य पाए जाते! यहाँ तो वेदान्त ज्ञान विषयलालसा, धन संग्रह और
कर्तव्य विमुखता का साधन बन गया हैं। वेदान्ती कहा करते हैं कि हम तो अखण्ड
निर्लेप ब्रह्मस्वरूप हैं। हमारा कोई कर्तव्य हैं नहीं। कहते हैं कि
वेदान्तियों के मुहल्ले में कोई मुर्गी कहीं से भटक कर आ निकली तो उन्होंने
उसे उदरस्थ कर लिया और पीछे पूछने पर उत्तर दिया कि संसार तो स्वप्नवत
मिथ्या हैं। फिर तुम्हारी मुर्गी कहाँ से आयी?
मैं भी जब आज इतने दिनों के बाद उक्त ठाकुर साहब के चारों दानों और वेदान्त
ज्ञान का विचार करता हूँ तो अपने ऊपर तरस आता हैं कि उन दिनों तो मैं पक्का
वेदान्ती था, फिर भी उन जैसा कर्तव्यपरायण और व्यावहारिक मनुष्य क्यों न
बना? आखिर उन्हें देख कर भी मुझे यह अक्ल बहुत दिनों तक-प्राय: दस वर्षों
तक-क्यों न सूझी और भटकता फिरा? असल में मेरा वेदान्त तब अपरिपक्व था और
उनका था परिपक्व। इसी से मुझे तब यह बात न सूझी। पीछे परिपक्व होने पर सूझी
हैं। लेकिन मैंने उनके उन चारों दानों को हृदय से पसन्द किया यह इसकी सूचना
थी कि मेरे भीतर कोई प्रसुप्त सी चीज हैं जो कालान्तर में उस ओर मुझे
घसीटेगी।
अस्तु जीवन में पहली बार वहीं पर हमने खीर खाई जिसमें नमक भी मिला था। कहा
गया कि ईधर यह चाल हैं। पता नहीं, अब हैं या नहीं।
(शीर्ष पर वापस)
(7)
ओंकारेश्वर की ओर
महीनों बाद एक दिन हमने ठाकुर साहब से विदाई ली और फिर पश्चिम की ओर चल
पड़े। खण्डवा जाना था। जहाँ तक हमें याद हैं, बाबू साहब ने कड़कबेल स्टेशन पर
अपने आदमी को भेज हम-दोनों के लिए खण्डवा या ओंकारेश्वर तक का टिकट दिलवाकर
ट्रेन पर चढ़ा दिया। अत: हम आसानी से ओंकारेश्वर तो जरूर पहुँच गए। परन्तु
भ्रमणवाला मज़ा न मिल सका। खण्डवा से छोटी लाइन ओंकारेश्वर होती उज्जैन की
तरफ जाती हैं। हम उसी से ओंकारेश्वर पहुँच गए। नर्मदा जी में स्नान करके
मध्यधार में स्थित पहाड़ी पर जाकर बाबा ओेंकारेश्वरनाथ जी का दर्शन किया और
उन पर नर्मदा जी का जल चढ़ाया।
लोग कहते हैं कि श्री शंकराचार्य और श्री मण्डन मिश्र का जो प्रसिद्ध
शास्त्रर्थ हुआ था और जिसमें हारकर श्री मण्डन मिश्र श्री सुरेश्वराचार्य
के नाम से शंकर के शिष्य हो गए थे, वह माहिष्मती पुरी में हुआ था। शंकर
दिग्विजय में लिखा भी गया हैं कि ''माहिष्मतीं मण्डन मण्डितां स:''। हमने
ओंकारेश्वर में ही माहिष्मती का पता पाया जो उससे कुछ पश्चिम नर्मदा के तट
पर हैं। उस 'विजय' में यह भी लिखा हैं कि रेवा (नर्मदा) की लहरों से शीतल
वायु माहिष्मती में बहती थी-रेवा मरुत्कम्पित सालमाल:। फिर समझ में नहीं
आता कि मिथिला में क्योंकर मण्डन मिश्र को घसीटने की कोशिश होती हैं। शायद
'मिश्र' उपाधि देखकर ही। परन्तु हजारों वर्ष पूर्व आज वाली वंश-परम्परागत
मिश्रादि उपाधियों का तो नाम भी न था। तब तो (मिश्र) और (पाद) शब्द आदर और
विद्वत्ता के अर्थ में कभी-कभी प्रयुक्त होते थे। ऐसा मुझे पुराने ग्रन्थों
में मिला हैं।
ओंकारेश्वर जी के दर्शन के बाद हमें बाबा कमलभारती जी के दर्शन की चिन्ता
हुई। वह वहीं पर नर्मदा के उत्तर तट में जंगलों में कुटी बनाकर रहते और
योगाभ्यास करते थे। ऐसा हमें बताया गया था। परन्तु वहाँ पूछने से पता चला
कि वे योगी-ओगी न थे। उन्होंने तो केवल औषधियों और संयम के बल से कालाकल्प
मात्र किया था। इससे तगड़े एवं हृष्टपुष्ट हो गए थे। इसी से उनके भक्तों ने
उनके योगी होने की घोषणा कर डाली थी। लेकिन गाँव-घर और पास-पड़ोस के लोग तो
आदमियों या वस्तुओं का पूरा आदर नहीं करते हैं यह समझ हमने पूछा कि उनके
शिष्य कोई हैं या नहीं। बताया गया कि एक नागा नौजवान खूब खाक रमाने वाले
उनके उत्तराधिकारी हैं। बस, हमारे लिए यह काफी था और हम उस कुटिया पर गए।
पता लगा कि नागा महाराज गुफा में बन्द हैं, पीछे निकलेंगे, शाम को या रात
में। हमने समझा योगाभ्यास करने गए होंगे। अत: रात में वहीं ठहरना पड़ा। जब
निकले तो उनसे बातें होने पर वे कोरे साबित हुए। हमें पता लगा कि कमल भारती
वाली गुफा में घुसकर वे खूब सोते और आराम करते हैं। इसे ही सीधे-सादे
भक्तजन मानते हैं कि योगाभ्यास करते हैं। बस, इतने से उनकी पूजा-प्रतिष्ठा
होती रहती हैं।
वहाँ हमें जो निराशा हुई वह वर्णनातीत हैं। जिस बात के लिए इतनी खाक छानी
और अपार कष्ट झेले वह बेबुनियाद सिद्ध हुई। लेकिन बस था ही क्या? हमने देखा
हैं कि यों ही योगी और सिद्ध महात्मा होने की प्रसिद्धि कराके धार्मिक और
अन्धविश्वासी आसानी से संसार में ठगा जाता हैं। फिर भी इस पहले धक्के से
हमारा विश्वास सच्चे योगियों के अस्तित्व से न डिगा और हमने आगे बढ़ने की
ठानी।
जब वहाँ से उत्तर पैदल ही बढ़े तो होलकर (इन्दौर) की रियासत में होकर चलने
लगे। एक स्थान, जिसका नाम हम ठीक याद नहीं कर पाते, पर शायद बढ़वान हैं, में
हमें एक सुन्दर जगह मिली। वहाँ एक पतला झरना बहकर सुन्दर कुण्ड में गिरता
दीखा। लोगों का कहना हैं, यह सरस्वती की धारा हैं। इसीलिए तीर्थ स्थान की
तरह वहाँ लोग स्नानादि करते हैं। यह सरस्वती विचित्र हैं। जगह-जगह इसकी
धाराएँ बतायी जाती हैं। कहते हैं कि यह नदी तो गुप्त हैं। केवल स्थान-स्थान
पर प्रकट हो जाती हैं। हम आगे फिर इस सरस्वती की बात लिखेंगे जो सिद्धपुर
में, जहाँ कपिल महाराज ने अवतार लिया, ऐसा माना जाता हैं, दूर तक फैली हुई
बहती हैं। हालाँकि, उसमें जल नाममात्र को ही रहता हैं। फिर मेहसाना के निकट
पाटन (बड़ौदा-स्टेट) में भी हमें वही सिद्धपुर वाली धारा मिली।
खैर, जो हो, वहाँ रहके हम आगे बढ़े और मऊ छावनी होते खास इन्दौर में पहुँच
गए। उधर हमने जैन मतवालों के स्थान और मकान बहुत देखे और मन्दिर भी। उनके
साधु भी नजर आए। वे नाक के ऊपर से एक छोटे कपड़े का पर्दा मुँह के नीचे तक
लटकाए रहते हैं। एक लम्बे धागे में छोटा कपड़ा लगाकर धागा सिर के पीछे बाँध
देते हैं और कपड़ा नाक-मुँह पर लटका रहता हैं। कहते हैं कि उससे गर्म साँस
दूर तक फैलकर वायु में व्याप्त जीवों का नाश नहीं कर पाती। यह और कुछ नहीं
सिर्फ अहिंसा की पूजा का नतीजा हैं! वे छोटे डण्डे में बँधे सूतों के
गुच्छे वाली झाड़ई भी साथ में रखते हैं। उन्हें जहाँ बैठना होता हैं उसी से
झाड़कर बैठते हैं, ताकि कीड़े-मकोड़े दब कर चूतड़ के नीचे मर न जाये! सूत की
झाड़ई नरम होती हैं। इससे उससे कीड़े नहीं मरते। मगर चलने में क्या होता हैं?
वहाँ कौन सी झाड़ई देकर पाँव उठाते और डालते हैं? यदि चलना-फिरना और साँस
लेना ही बन्द कर दिया जाये तभी उनकी अहिंसा शायद पूरी होगी। वे लोग हाथ में
एक लम्बा काष्ठ दण्ड भी रखते हैं। उसका अभिप्राय गलत या सही मुझे बताया गया
कि मार्ग में कहीं विष्ठा मिलने पर वे उसी से उसे फैला देते हैं, ताकि
शीघ्र सूख जाये, जिसके सड़ कर उसमें कीड़े पैदा होने और मरने से बच जाये।
औरतें भी उसी सूरत में मिलीं। कुछ जैन साधु-साधुनियों को श्वेत वस्त्र पहने
देखा और कुछ को पीत। मगर सिर पर बाल शायद ही किसी को रहा हो। जैसे लम्बे
ज्वर के बाद सिर के बाल गिर पड़ते हैं और एकाध ही जहाँ-तहाँ नजर आते हैं और
चेहरा भी पीला एवं मनहूस नजर आता हैं। हू-ब-हू वही हालत सबों की देखी! कहते
हैं कि नहाने धोने में देह, वस्त्रादि मलने-दलने से हिंसा होती हैं। इसीलिए
वे लोग शायद ही कभी नहाते हों। फलत: देह में गर्मी ज्यादा रहने से चेहरा
फीका पड़ जाता और बाल गिर पड़ते हैं। बात क्या हैं, कह नहीं सकता। मगर सबों
की सूरत देख कर मुझे हैंरत हुई कि वह धर्म किस काम का जिसमें जीतेजी ऐसी
दुर्दशा हो? कम-से-कम शरीर चुस्त हो, चेहरे में रौनक हो, वह हँसता हो,
शरीर-वस्त्रादि स्वच्छ हों तो समझा जाये कि मन भी स्वच्छ और स्वस्थ होगा।
क्योंकि मन का घर तो शरीर ही हैं और अगर घर ही डगमग या गन्दा हैं तो उसमें
रहने वाले की क्या हालत होगी यह सहज ही जान सकते हैं।
सन 1907 के जाड़ों के दिन थे, या कि सन 1908 का श्रीगणेश था, कह नहीं सकता,
जब हम इन्दौर पहुँचे। वहाँ हमने बादशाही बाग में पले चीते वगैरह देखे।
उन्हें लोहे के घेरे के भीतर रोज मांस खाने को दिया जाता था। हमने एक दिन
देखा कि भीतर घुस के एक मेहतर सफाई कर रहा था। जब बड़ा-सा चीता उसकी ओर चला
तो उसने हाथ में रखी पतली-सी मामूली छड़ी से उसे मारा और वह हट गया! हमें
आश्चर्य हुआ। शायद वही रोज चीते को मांस देता था। इसलिए एक प्रकार का नाता
जुट जाने से चीता उसका लिहाज करता था। नहीं तो पतली लकड़ी की परवाह न कर उसे
चबा जाता।
जाड़ों में हमारे ओठ फटने लगे थे। इसलिए आँख के सिवाय सभी चेहरों को कपड़े से
ढँककर हम चलते थे। एक दिन रास्ते में इन्दौर राज्य की पुलिस ने हमसे कहा कि
मुँह खोलकर चलना होगा शायद उसे ख्याल हो कि हम कोई भगोड़े या फरार मुँह
छिपाये चल रहे हैं। लेकिन हम तो दो ही एक रोज में वहाँ से आगे उज्जैन की ओर
बढ़ चले। फलत: पुलिस से कोई भिड़न्त हमारी न हो सकी।
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