(7)बनारस
जेल-अनशन
गाजीपुर से बहुतेरे साथियों के साथ हम बनारस जेल भेजे गये। भेजने के पूर्व
ही हमारे गले से वह तख्ती (तौक) हटा ली गयी। हम इसका रहस्य समझ न सके।
बनारस के जिला जेल में हम सभी पहुँचाये गये। वहाँ कुछ लोग पहले ही युक्त
प्रान्त के और जिलों से लाये जा चुके थे। उनकी संख्या अभी अधिक
न थी। लेकिन रोज ही आने वालों का ताँता बँधा
रहता था। वहाँ हमें अपने कपड़े पहनने को मिल गये। खाने-पीने का वहाँ स्वतन्त्र
प्रबन्ध
था। लोग अपना खाना बनाने की फिक्र अलग कर लेते थे। इसलिए मेरे खाने का
प्रश्न हल हो गया और अनशन की जरूरत नहीं रही। वहीं जेल में काशी के परिचित
लोग भी कभी-कभी मिल जाया करते थे। हमारे दण्डी साथी भी मिल गये। हाँ,
मेरा दण्ड जेल में साथ ही गया और हिफाजत से पड़ा रहता
था। वहीं पर पहले पहल विशेष रूप से श्री कृपलानी से परिचय हुआ। उनके साथ
गांधी-आश्रम
(खादी केन्द्र) के बीसियों युवक भी थे। श्री सम्पूर्णानन्दजी से तो काशी
में मेरा पहले का ही परिचय था। वह भी जेल में आ गये थे। गोरखपुर के बाबा
राघव दास से मुलाकात वहीं हुई। युक्तप्रान्त के हर जिले के प्राय: तीन- चार
सौ राजबन्दी वहाँ जमा हो गये थे। उनमें सभी
धर्मों
और सम्प्रदायों के मानने वाले लोग थे।
आज जो लोग गांधीवाद के पुजारी बन गये हैं वह उस समय क्या करते थे इसका
नमूना मैंने वहाँ पाया। पता चला कि युक्तप्रान्त के सभी जिलों के पहले
दर्जे के राजबन्दी वहीं रखे जाने को थे। सरकार का यही निश्चय था। इसलिए उसी
श्रेणी के लोग वहाँ लाये गये थे। फलत: उनकी मनोवृत्ति से पूरा पता चल
जायेगा कि कितनी दूर तक गांधीजी के आदेशों को वे मानते थे।
एक दिन ऐसा हुआ कि शाम को नियमानुसार गिनती होने में गड़बड़ी हुई।
श्री कृपलानी जी का ही दल
उसका कारण बना। उन लोगों ने अपने में से
एकाध
लड़कों को न जाने कैसे-कैसे कई बार छिपाया कि हर बार गिनती पूरी करने पर भी
वह ठीक नहीं हो सकी। फिर सेण्ट्रल जेल के जेलर और उनके आदमी भी आये। रात
ज्यादा हो गयी,
वे गिनती करने लगे। फिर भी सफल होते न देख अन्त में
'हो गई' कह के वे लोग
चलते बने और द्वार बन्द कर दिया। तब से उन्हें चिढ़ाने के लिए 'हो
गई, हो गई' निकाला
गया। जेलवालों को देखते ही ये लोग हँस देते और 'हो
गई, हो गई' कह देते।
लोहे के तसलों को कभी-कभी बहुत रात तक ये लोग बजाते रहते और
ऊधम
मचाते रहते। वही एक दल था जो यह सब बातें करता था। आज तो वही
गांधीजी
का पक्का अनुयायी माना जाता
हैं।
मिस्टर हार्वी नामक एक ईसाई सज्जन वहाँ के सुपरिन्टेण्डेण्ट थे और थे भी
बहुत भले। मगर सरकारी नौकर थे यही उनका भारी
अपराध
था। उन्हें किस कदर हमारे साथियों ने बार-बार
दिकत
किया यह कहा नहीं जा सकता। यह देखकर एक दिन मेरे जी में सहसा यह आया कि
मिस्टर हार्वी ही
गांधीजी
के आज्ञाधारी
इस मानी में हैं कि इतने शान्त हैं और हमीं लोग उनकी अपेक्षा जरायमपेशा
जैसे मालूम पड़ते हैं।
बाँदा जिले के कुछ लोग वहाँ थे। पता लगा कि उनमें एक लम्बी दाढ़ी वाले
ब्रह्मचारी जी भी हैं। वह पीछे एकाएक अनशन करने लग गये। एक-दो दिनों के बाद
इसकी चर्चा उनके साथियों में चली और वे लोग भी उसमें पड़ गये। तीन-चार या
छ:-सात दिनों के बाद शेष लोगों में भी सनसनी मची और सबों की मीटिंग की
तैयारी हुई कि अब बाकियों का क्या कर्त्तव्य हैं। उसी समय मैं भी बुलाया
गया। तभी मुझे पता चला कि यह अनशन हफ्तों से चल रहा हैं। पहले यह बात इतनी
न फैली थी। मीटिंग में मैंने देखा कि सभी लोग अनशन करने की ओर झुक रहे हैं।
मुझे ठीक न जँचा।
न जाने क्यों मैं स्वभाव से ही अनशन का और खासकर जेल के अनशन का,
विरोधी
रहा हूँ।
मैंने प्रश्न किया कि आखिर जान देने की तैयारी क्यों की जाये?
कोई बड़ा कारण भी तो हो। कहा गया कि जब साथी लोगों ने हफ्तों से कर रखा हैं
तो हमें भी अब उसमें पड़ना ही चाहिए। मैंने कहा कि यह रास्ता ही गलत हैं।
किसी के आगे बढ़ जाने से हमें भी उसमें पड़ना ठीक नहीं। हाँ,
अगर जिस उद्देश्य से वे लोग इसमें पड़े हैं वह ठीक
हैं
और उसका तकाजा
हैं
कि हम पड़ें तो जरूरी ही हमें भी अनशन करना चाहिए। लेकिन अगर वही गलत
हैं
तो हमें साफ-साफ उनसे कह देना चाहिए कि वह भी अनशन तोड़ दें।
मगर शान की बात लेकर लोगों ने मेरी बात अनसुनी कर दी। बोले कि अब हफ्तों के
बाद उन्हें मना करना ठीक नहीं,
वे मानेंगे भी नहीं। अत: हमारी मर्यादा का तकाजा हैं कि हम इसमें पड़ जाये।
यह अजीब दलील थी। लेकिन कुएँ में भाँग पड़ी थी। मेरी सुनता कौन?
शान की बात ऐसी ही होती हैं और इसी ने न जानें कितनों को बर्बाद किया हैं,
पथभ्रष्ट किया हैं।
बात यह थी कि उक्त ब्रह्मचारी जी का कहना था कि हम तो राजबन्दी हैं,
चोर-डाकू हैं नहीं। अत: हमें खूब घी,
दूध,
हलवा वगैरह खाने को मिलना चाहिए। उन्होंने कितना मिले यह भी कुछ बताया था
जो मुझे ठीक याद नहीं। वे अनशन के दिनों में लोकमान्य तिलक का फोटो सामने
रख के बराबर बैठे रहते थे। यह बात तो गलत थी,
गांधीजी के आदेश के विपरीत थी और हानिकर भी थी,
जैसा कि आगे लिखा हैं। लेकिन कही तो चुके हैं कि गांधीजी की परवाह किसे थी?
मर्यादा एवं प्रतिष्ठा
(prestige)
की बात भी तो थी।
फलत: सबने खाना-पीना छोड़ दिया। लाचार होकर मुझे भी छोड़ना पड़ा। यह भी बता
दूँ कि इससे पूर्व भी दो-एक बार विवश होकर जेल के बाहर कई वर्ष पूर्व मुझे
अनशन करना पड़ा था। एक बार तो छ: दिनों तक कुछ भी खाया-पीया न था। एक बार
शायद तीन दिनों तक। बस,
यही दो बार। यह तीसरा मौका था। पहली दो बार तो अन्तरात्मा की पुकार से
मजबूर था। लेकिन इस बार दूसरी ही मजबूरी थी। इसीलिए जहाँ पहले अनशन कतई खले
न थे,
तहाँ यह तीसरा खूब ही खला। अनशन लगातार चार दिनों तक चलता रहा और चौथे दिन,
जहाँ तक याद हैं,
शाम को टूटा। जब भूख लगती तो ठण्डा पानी पीने से कुछ शान्ति मिलती। अनशन का
यही कायदा हैं।
तीन दिनों तक कष्ट बढ़ता गया। मगर चौथे दिन कम हो गया। कहते हैं कि प्राय:
तीसरे दिन तक जठरानल तेज होता रहता हैं। पेट में जो कुछ स्थूल मल या पदार्थ
बचा-बचाया रहता हैं उसे जलाता हैं। यह बात आम तौर से तीन दिन में हो जाती
हैं। किसी-किसी को चार दिन लगते हैं। ज्यों ही यह काम पूरा हुआ कि जठरानल
भीतर घुस के सूक्ष्म मल को जलाने लगता हैं। फलत: चौथे या पाँचवें दिन भूख
की तकलीफ कम हो जाती हैं। फिर जब सभी मल को जलाकर शरीर को शुद्ध और नीरोग
कर देता हैं तो ऊपर आता हैं। उसकी कोई अवधि नहीं। वह तो संचित सूक्ष्म मल
पर निर्भर करता हैं कि आँत और नाड़ियों में कितना हैं,
कम हैं या ज्यादा। लेकिन जब मल को जलाकर वह एक बार फिर बाहर (ऊपर) आता हैं
तो शरीर में सनसनाहट मालूम होती हैं। वह झन-झन करता हैं। इस अवस्था में
खाना न मिलने पर रक्त-मांस को जलाने लगता हैं। तब असली कमजोरी शुरू होती
हैं। अगर देर तक भोजन न मिला तो मौत हो जाती हैं। क्योंकि खून और मांस को
जलाने के बाद कुछ रह जाता नहीं जहाँ प्राण रह सके। उपवास चिकित्सा वाले ये
सब बातें बताते हैं।
हाँ,
तो जब सबने उपवास शुरू किया तो बाहर के मित्र लोग आने लगे और समझाना-बुझाना
शुरू हुआ। आखिर,
यह तो बेसिर-पैर की बात थी। सो भी उन दिनों जब गांधी की बातें सबकी जबानों
पर थीं। जब नौकरी,
कौंसिल की मेम्बरी,
वकालत,
सरकारी रिआयेतें और पदवियाँ आदि सभी चीजों पर हमने लात मारी तो यह मामूली
सी खान-पान की रिआयेत किस खेत की मूली ठहरी?
फलत: इसे लोग कैसे महत्त्व देते?
इसी से बाहर के सभी लोग ताज्जुब में थे कि यह क्या हो रहा हैं। जेल के बाहर
सभी कष्टों को भोगने की तैयारी सबने की थी और जानबूझकर जेल में आये थे कि
यही खाना-पीना मिलेगा। अच्छे खाने-पीने का प्रश्न भी कभी न उठाया,
न उठाया गया था। फिर एकाएक यह क्या?
बात तो ठीक ही थी।
इसीलिए बाहरी दोस्तों और लोगों के समझाने के बाद आखिर चौथे दिन लोगों को
अपनी नादानी सूझी और अनशन तोड़ना पड़ा। यदि मेरी बात मान लेते तो इस जिल्लत
से तो बच जाते। यह कहकर सन्तोष करना कि हमारे बाहरी नेताओं और मित्रों ने
विवश किया,
कोई समझदारी नहीं। यह तो अनशन तोड़ने के लिए एक बहाना मात्र कहा जा सकता
हैं। क्योंकि अनशन का जो ध्येय था वह तो पूरा न हुआ। सरकार के कानों पर जूँ
तक,
कम-से-कम उस समय,
न रेंगी। पीछे उसके फलस्वरूप सरकार ने भले ही कुछ सोचा हो। क्योंकि शायद
कहा जा सकता हैं कि लखनऊ में फर्स्टक्लास के राज बन्दियों को जो खाने-पीने
की सुविधा मिली उस पर इस अनशन का असर जरूर था। चाहे जो हो,
लेकिन अनशन तोड़ने के समय तो यह बात कुछ भी न थी। फिर भी वह टूटा और सबने
खाया-पीया। अगर मैं भूलता नहीं तो उस ब्रह्मचारी जी ने जल्दी में खाने-पीने
में ऐसी गड़बड़ी कर दी कि उन्हें हैंजा भी हो गया और शायद वह मर भी गये।
लेकिन अनशन टूटते-न-टूटते सरकार ने तय कर लिया कि बनारस जेल अब फर्स्टक्लास
के बन्दियों के लिए न रख के लखनऊ जिला जेल ही उनके लिए ठीक किया जाये। यह
भी चर्चा होने लगी कि उन्हें अच्छा खाना-पीना यहीं से दिया जाये,
या जल्द यहाँ से लखनऊ ही भेजे जाये। ठीक इसी समय मैंने एक पेचीदा प्रश्न
उठाया जिसके चलते मुझे दूसरा बड़ा कटु अनुभव हुआ।
हम सबों के साथ हर जिले से सैकड़ों लोग जेल गये थे। अब अगर अच्छे खाने-पीने
की बात चलती हैं तो इसका नैतिक परिणाम बुरा होगा और हममें जो साधारण कैदी
रह जायेगे वह क्या समझेंगे?
यही न,
कि जब बिना स्वराज्य मिले ही सरकार की दी हुई रियायतों को हमने स्वीकार कर
लिया और साथियों को यों ही छोड़ दिया,
तो स्वराज्य मिलने पर उसकी परवाह कौन करेगा?
यही ख्याल रह-रह के मुझे सताता था। यह भी मैं सोचता कि हमारा कितना पतन हो
जायेगा अगर हमने ये सुविधाएँ स्वीकार कीं। तब नौकरियाँ,
वकालतें,
कौंसिलें आदि क्यों छोड़ीं?
वह भी तो आखिर सरकार की रिआयेतें ही हैं। यह तो वही हुआ कि
'जन्म
भर सेई काशी,
पर मरने की बेर मगह के बासी'!
यह तो गुनाह बेलज्जत वाली ही बात हो जायेगी और सरकार की भेदनीति पूर्णतया
सफल हो जायेगी। क्योंकि हमारे वे साथी जो साधारण कैदी बन के रहेंगे,
पीछे हमारा साथ छोड़ देंगे।
मैंने श्री कृपलानी जी तथा औरों के समक्ष यह प्रश्न उठाया और कहा कि मैं तो
ये रिआयेतें स्वीकार न करूँगा। उन्होंने भी कहा कि ठीक ही हैं,
स्वीकार तो नहीं ही करना चाहिए। लेकिन जब अनशन की बात सोची तो समझना कठिन
हो गया कि वह ऐसा क्यों कहते हैं। फिर भी जब सबों की,
और खास कर नेताओं की राय हुई तो ठीक ही था। यों तो राय न होने पर भी मैं तो
इन्कार करता ही। यह तो सिद्धान्त की बात थी और जो आदमी संन्यासी होकर भी
सिद्धान्त के ही लिए राजनीति में आया वह सिद्धान्त को छोड़ने क्यों लगा?
यह भी बात थी कि मैं तो गांधीजी के आदेशों का पालन अक्षरश: करता था। कष्ट
सहन का आदेश तो वे बराबर देते रहते ही थे।
बात यों हुई कि गाजीपुर के चार राजबन्दियों को,
जिनमें मैं भी एक था,
फर्स्टक्लास या फर्स्टडिवीजन का सलूक किया जाना सरकार ने निश्चय किया।
सौभाग्य या दुर्भाग्य से सबसे पहले यह बात हमीं लोगों के मत्थे गुजरी। पीछे
औरों को भी यह सहूलियतें दी गयीं। लेकिन तब तक तो हम बनारस जेल से फैजाबाद
जेल में जा चुके थे। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट मिस्टर खारे छाट के आने के
पहले जेल सुपरिन्टेण्डेण्ट ने हमसे यह कहा। बाकी साथियों से अलग रहने की
बात भी हुई। हमने साफ इन्कार किया कि न तो हमें आपके गद्दे चाहिए और न घी,
दूध आदि। हम तो ऐसे ही भले हैं। हमारे तीन साथियों ने भी ऐसा ही कहा। इतना
ही नहीं। हमने यहाँ तक कह दिया कि आप हमें अपना घी,
दूध जबर्दस्ती खिला-पिला नहीं सकते यह याद रहे। फिर मजिस्ट्रेट भी आये।
उन्हें भी हमने वही जवाब दिया। इस पर उनने कहा कि तो फिर चक्की चलानी होगी।
हमने उत्तर दिया कि उसे तो पहले से ही सोच कर आये हैं। हमारे तीन साथियों
ने तो यहाँ तक कह डाला कि चक्की चलाना क्या,
गोली भी खायेंगे। हमने यह भी कह दिया कि गाजीपुर के
35
आदमी अब तक जेल में हैं। हम
31
को छोड़ क्यों दें?
सब एक ही तरह रहेंगे। फिर तो मजिस्ट्रेट साहब चले गये।
इसके बाद फौरन ही वहाँ से कुल
105
बंदी फैजाबाद जेल भेजे गये जहाँ दूसरे दर्जे या सेकेण्ड क्लास के कैदी रखे
जाने को थे। इस प्रकार हमें चक्की तो फिर भी न मिली। हमने उस समय भी देखा
और अपने चले जाने पर तो खासतौर से सुना कि दूसरे जिलों के हमारे साथी बुरी
तरह परेशान थे कि उन्हें फर्स्टक्लास मिला या नहीं उनकी बेचैनी का ठिकाना
नहीं था। कभी जेलर से,
तो कभी औरों से पूछने में सभी के सभी हैंरान थे।
खूबी तो यह कि एक ने भी फर्स्ट क्लास
इन्कार
न किया,
सिवाय बाबा राघव दास के, जो
हठ करके मामूली कैदियों के लिए बना भोजन ही खाते थे।
यह कितने दर्द,
कितने आश्चर्य और कितने पतन की बात थी! यह मेरा दूसरा
कड़घवा अनुभव था कि
गांधीजी
की आज्ञा लोग कहाँ तक मानते हैं।
(शीर्ष पर वापस)
(8)फैजाबाद
जेल
अस्तु,
हमें एक दिन सुबह तड़के तैयार होने को कहा गया। हमने
सोचा बनारस कैंट स्टेशन पर गाड़ी में चढ़ना होगा। मगर प्रदर्शन से बचने के
ख्याल
से सरकार ने एक स्पेशल ट्रेन शिवपुर स्टेशन पर तैयार रखी थी। हम लारियों
में भर-भर के वहीं पहुँचाये गये। गाजीपुर से आने के समय इस समय भी रेलगाड़ी
की खिड़कियों पर जाली लगा दी गयी थी! शायद हमारे भाग जाने का डर था! विदेशी
सरकार की अक्ल पर हमें तरस आयी। हम तो खुशी-खुशी जेल आये थे। जरा-सी जबान
हिलाने से बाहर जा सकते थे। फिर भागते क्यों?
मगर कायदे की पाबन्दी तो होनी ही चाहिए और वे कायदे उस
जमाने में बने थे जब राजबन्दी नामधारी
कोई चीज थी नहीं। तभी से बदले ही न गये। किसे गर्ज थी कि बदले?
राजबन्दी लोग कुछ अपमान समझेंगे तो सरकार के लिए उस समय
यही क्या कम था? मगर बावजूद इस जाली के साथ चलने
वाली पुलिस को जो परेशानी रास्ते में हुई उसने इसे बेकार साबित कर दिया।
गाड़ी चली जा रही थी। जहाँ तक याद हैं,
जब शाहगंज स्टेशन आया तो हमारे साथी,
सभी बन्दियों ने खाना माँगा। साथ के सार्जेण्ट और दूसरे पुलिसवालों ने कहा
कि चना खा सकते हैं। लोगों ने इन्कार किया और पूड़ी चाही। पुलिसवालों ने
पूड़ी देने से साफ नाहीं की। इसी में बढ़ते-बढ़ते बात बढ़ गयी। मैंने बीच में
पड़ के किसी प्रकार उसे खत्म किया। याद नहीं,
आखिर में पूड़ी ही खाने को मिली या क्या?
लेकिन साथियों ने धमकाया कि अच्छा हम देखेंगे। इसके बाद मैं सो गया। मुझे
तो खाना वाना कुछ था नहीं।
एकाएक रास्ते में स्टेशन आने के पहले ही शोरगुल मचा और मैं जगाया गया। बात
यह थी कि एक ने गाड़ी रोकने की साँकल खींच दी और गाड़ी खड़ी हो गयी। क्रोध से
लाल सार्जेण्ट और पुलिस वाले दौड़कर वहाँ पहुँचे और पूछा किसने खींची?
खींचने वाले ने खम ठोंक कर कहा,
हमने। सार्जेण्ट साहब आपे से बाहर होकर बोले,
''ले
चलो इन्हें अपने डब्बे में। इन पर रिपोर्ट होगी।''
इस पर औरों ने कहा,
''किसे-किसे
कहाँ ले चलोगे?
हम तो
105
हैं सभी एकेबाद दीगरे खींचेगे और ट्रेन चलने ही न देंगे। फिर हमें ले जाओगे
कहाँ?''
अब तो बेचारा सार्जेण्ट और उसके साथी बुरी तरह घबराये। आखिर मैं जगा तो
समझा-बुझाकर शान्त किया। फिर गाड़ी बढ़ी। मगर पुलिसवाले भी भीतर-ही-भीतर जलते
और इस अपमान का बदला लेने की बात सोचते रहे। चाहे जो हो मगर साथियों ने तो
पूड़ी वाले झगड़े का बदला भरपूर ही चुकाया।
जब गाड़ी फैजाबाद छावनी स्टेशन पर रुकी तो हमें उतरने का हुक्म हुआ। सभी उतर
पड़े। सामान भी अपना-अपना साथ ही था। वह भी उतरा। अब पुलिस ने गाड़ी रोकने का
बदला चुकाने के लिए कहा कि बिना दो-दो को एक साथ हथकड़ी लगाये चलने न देंगे।
खूबी यह कि जेल ले चलने के लिए सवारी का प्रबन्ध भी न था। हम लोगों ने कहा,
अच्छा हथकड़ी लगने लगी। शायद सबों को लग भी गयी। लेकिन चलने के समय हमने
सामान ले चलने से इन्कार कर दिया यह कह के हमारे एक-एक हाथ बँधे जो हैं।
फिर तो पुलिसवाले पुनरपि बुरी तरह झिंपे और आखिर हथकड़ी खोलनी पड़ी। इस
प्रकार हम लोग फैजाबाद जेल में,
जो स्टेशन के पास ही हैं,
दाखिल हो गये। रास्ते में गाना और नारे तो चलते ही थे। शहर के लोग भी देखने
आ गये थे। हम लोग बैरकों में गये और डेरे डाले। मैंने सेल या तनहाई वाली
बैरक पसन्द की। हम
40-50
साथी,
जो ज्यादा शान्तिप्रिय थे,
वहीं बराबर रहे। पीछे तो चारों ओर से दूसरे दर्जे के राजबन्दी वहाँ ज्यादा
आ गये थे। जेल खूब आबाद थी। गाजीपुर के कुछ हमारे साथी थे। वही मेरा खाना
अलग पकाते थे। इसकी इजाजत मिली थी।
हम जो अलग तनहाई में रहते थे उसका खास कारण था। शोरगुल,
झगड़े वगैरह बहुत होते थे। इस तरह लोग सारा समय,
जो बड़ा कीमती था;
यों ही बिताते थे। जेल वालों से भी बराबर झगड़े करते रहते थे। यह बातें मुझे
असह्य थीं। इसलिए अलग रहना पसन्द किया। जेल का सुपरिन्टेण्डेण्ट दक्षिण
भारत का रहने वाला बड़ा ही भला आदमी था। मगर उसके भी नाकों दम थी।
एक बार ऐसा हुआ कि होली आ गयी। हमारे दोस्तों ने कहा कि हम तो होली
जलायेंगे। आखिर जेल वालों से झमेले खडे क़रने के बहाने तो चाहिए ही। बेचारा
सुपरिन्टेण्डेण्ट समझाकर थक गया। मगर माने कौन?
धर्म के नाम पर दावा ठोंका गया कि हिन्दुओं का त्योहार हैं! न जाने इनमें
कितने लोग बाहर इस धर्म का पालन करते थे! उसने गांधीजी की दुहाई दी। मगर
कोई सुने भी तो। आखिर उसने हारकर लकड़ी मँगा दी और कहा कि सेण्टर में कहीं
जलाकर धर्म पूरा कीजिये। दोस्तों ने यहाँ तक किया कि उन लड़कियों की तो होली
जलाई ही। इन्हीं के साथ पानी खींचने के लिए कुओं पर जो तख्ते वगैरह लगे थे
उन्हें भी तोड़ताड़ कर जला दिया। लाख मना करने पर भी न माना। हमने तो अपने
बैरक का दरवाजा बलात बन्द कर उसे बचा लिया। मगर बाकी कुओं की लकड़ियाँ साफ
हो गयीं। यह तो निरा पागलपन था। भला पानी कैसे भरा जायेगा,
यह भी सोचना था। दोस्त लोग इतने पागल थे कि सुनते न थे। फलत:
'अलार्म'
करके बाहर से हथियारबन्द पुलिस बुलानी पड़ी। फिर तो होश फाख्ता! सभी मिट्टी
के शेर बैरकों में जा घुसे। पूछने पर किसी का पता भी न लगा। कोई भी स्वीकार
करने को तैयार न हुआ कि हमने कूएँ के तख्ते जलाये। यदि बाहर से पुलिस न आती
तो जो पाते वही जलाने पर तुल गये थे। यह थी हमारी उस समय की भलमनसी। खैर,
जैसे तैसे मामला ठण्डा हुआ।
मुश्किल से हमारा एक मास गाजीपुर और बनारस मिलाकर गुजरा होगा और शायद ही दो
या तीन महीने हम फैजाबाद रह पाये। फिर तो हम भी लखनऊ भेज दिये गये। फैजाबाद
जेल में हमारा एक दल था। वह नियमों की पूरी पाबन्दी करता था। उससे जेलवाले
कभी कोई शिकायत नहीं रखते थे-बराबर खुश रहते थे। हम सभी एक ही जगह रहते थे।
मैं उन लोगों को गीता पढ़ाया करता था। दूसरी-दूसरी बातों पर भी प्राय: शाम
को मैं उपदेश दिया करता था। दार्शनिक और हिंसा-अहिंसा की भी विवेचना हुआ
करती थी। इस प्रकार हमारे दिन शान्ति से गुजरते थे।
उसी जेल में,
जब एक दिन फैजाबाद के मारवाड़ी सज्जन लोगों से मिलने आये और हमसे भी मिले,
तो हमने उनसे एक नन्हीं सी गीता भेज देने को कहा। उन्होंने फौरन खरीद कर
भेज दिया। सचमुच वह नन्हीं सी हैं। उससे नन्हीं गीता मैंने नहीं देखी हैं।
वही मेरे साथ तब से बराबर रही हैं। खास कर जेलों में तो जरूर रहती आयी हैं।
इस बार भी बगल में मौजूद हैं। यह पहली बार मिली ता.
26-3-22
को। इस पर जेल की तारीखें लिखी हैं। यह मेरी सबसे प्यारी चीज हैं। इसके
पीछे इतिहास हैं।
(शीर्ष पर वापस)
(9)गीता का
अर्थ समझा
यों तो गीता मेरे जीवन का एक अभिन्न अंग सदा से ही रही
हैं।
मैंने गीता का विचार सब ग्रन्थों की अपेक्षा कहीं ज्यादा किया
हैं।
इसे पढ़ा-पढ़ाया भी खूब ही
हैं।
मगर एक बड़ी भारी कसर के साथ। जैसी कि परिपाटी संस्कृत के पण्डितों और छात्रों
की
हैं,
मैंने सदा ही उसका मनन भाष्यों और टीकाओं के आधार
पर,
उन्हीं की सहायता से किया था। पचासों टीकाएँ और भाष्य
मेरे पास मौजूद हैं। संस्कृत में जितनी भी टीकायें और जितने भाष्य मिल सके
हैं मैंने सबों का संग्रह किया
हैं।
उन्हीं की सहायता से गीता का अर्थ समझने-समझाने की बार-बार कोशिश मैंने तब
तक की थी। स्वतन्त्र
रूप से समस्त गीता के मनन करने का शायद ही अवसर मिला हो। इसकी जरूरत भी
नहीं समझी जाती थी। कभी मैंने स्वयं ऐसा सोचा भी नहीं। कभी-कभी कुछ श्लोकों
के बारे में ऐसा हुआ। मगर सारी गीता के बारे में कभी नहीं। इसका एक परिणाम
हुआ कि बुद्धि
और विचारशक्ति पंगु हो गयी। गीतार्थ के बारे में उसमें स्वतन्त्र
ऊहापोह की शक्ति आने ही न पायी। यह बड़ी भारी भूल थी,
जबर्दस्त कमी थी।
एक बात और थी। पहले से ही कुछ सिद्धान्त निश्चित कर रखे थे,
दूसरों से जानकर या अन्यान्य ग्रन्थों को पढ़-पढ़ाकर। ऐसा तो होता ही रहता
हैं। बिना पढ़े ही कुछ सिद्धान्त तो लोग मानते ही हैं। आजकल तो भारतवर्ष के
निरक्षर बूढ़े,
जवान,
मर्द,
औरतें सभी कर्मवाद,
प्ररब्धवाद और भगवानवाद की दुहाई देते रहते हैं। जिससे बातें कीजिये तकदीर,
कर्म और भगवान की दया की बातें बघाड़ता हैं। बात करने का शऊर नहीं। फिर भी
बड़ी-बड़ी दार्शनिक बातें इसी तरह छाँटता रहता हैं। यदि उनके विपरीत बोलिए तो
बुरा मानता और हँस देता हैं। उसे समझाना साधारण काम नहीं।
वंश परम्परागत संस्कार और बचपन की दकियानूसी मण्डली का ही
यह असर उस पर होता
हैं।
ठीक यही बात पढ़े-लिखों की भी होती हैं। कुछ बातों को पहले से ही दिल में
रखते हैं और ग्रन्थों में उन्हीं को ढूँढ़ते हैं। उन्हीं की पुष्टि करते
हैं। हमारे भीतर भी यही बात थी। कुछ सिद्धान्त हमने निश्चित किये थे और
गीता में जब न तब उन्हीं की ढूँढ़ते थे,
पाते थे। यह भी एक प्रकार की पंगुता ही हैं। इसके करते भी गीतार्थ
स्वतन्त्र रूप से हम समझ न सके।
गीता का महत्त्व तो बहुत सुना था,
लोगों से भी और पोथी-पुराणों में भी। मगर हमें तब तक कुछ ऐसी खास बात उसमें
मिली थी नहीं। इसीलिए हमें कभी-कभी आश्चर्य होता था कि ऐसा क्यों माना जाता
हैं। कभी-कभी सुनते थे कि कुछ लोग-स्वदेश और विदेश-घूम-घूम कर आम जनता में
गीता पर उपदेश देते रहते हैं हम यह समझ न पाते थे। हम तो जानते थे कि गीता
में अद्वैत दर्शन और अध्यात्मवाद हैं। उसे जन साधारण कैसे समझते होंगे। यही
सोचते थे। हिन्दी,
अंग्रेजी,
मराठी आदि की टीकाओं ने भी हमें कुछ ऐसा न सुझाया था।
ऐसी दशा में फैजाबाद जेल में कुछ तो परिस्थितिवश और कुछ ऐसा ख्याल भी हो
आया कि गीता का स्वतन्त्र मन्थन किया जाये। इसीलिए उस नन्हीं सी गीता का ही
परायण,
चिन्तन,
मन्थन हमने शुरू किया। मजबूरी तो थी ही। आखिर भाष्यादि मिलते भी कहाँ से?
जहाँ रखे थे वहाँ से मँगाना आसान तो था नहीं। आते-आते भी समय लग जाता। यह
भी सोचा कि कौन यह फिक्र करने जाये?
बहुत दिन भाष्य पढ़े,
टीकाएँ पढ़ीं। जरा यों भी तो देखें। एक प्रकार की उत्सुकता भी थी। इस प्रकार
हमने स्वतन्त्र रूप से बिना किसी की सहायता के उसका मनन शुरू किया।
शुरू करते ही मजा आने लगा। फिर तो चसक गये। जो लोग हमसे पढ़ते थे
प्रश्नोत्तर भी करते थे। उत्तर देना ही पड़ता था। इस तरह जब हमने गीता का
अभ्यास शुरू कर दिया तो कुछ ही दिनों में हमारी आँखों के पर्दे खुल गये।
हमें एक निराली दुनिया नजर आयी। हमने नया अर्थ उसमें पाया। अर्थ तो प्राय:
पुराना ही था। मगर उसमें नयी रोशनी थी,
नयी आभा थी,
नया तेज था,
जिसने हृदय को खिला दिया। हमारे जीवन में यह पहला ही मौका था जब हमने गीता
का रहस्य समझा और जीवन की बाधाओं तथा चिन्ताओं से निश्चिन्त हो गये। जीवन
भर वेदान्त और अन्य दर्शनों के पढ़ने से जो शान्ति उपलब्ध न हो सकी वही हमें
गीता की कृपा से फैजाबाद जेल में प्राप्त हो गयी। हमारा जीवन स्थिर हो गया
(My life be came
settled)
मैंने तब समझा कि गीता का
महत्त्व
इतना क्यों माना जाता
हैं।
गीता पर उपदेश देने वालों को भी तभी समझ पाया कि क्यों आम जनता में ऐसा वे
लोग कहते हैं। यही कारण
हैं
कि उस नन्हीं सी गीता से मेरा अपार प्रेम
हैं।
सुन्दर खादी की जिल्द बनाकर बराबर एक बेठन में उसे लपेट रखता हूँ।
लखनऊ जाने के कुछ ही दिन पूर्व फैजाबाद में मुझे आम और अपच की शिकायत हो
गयी। अत: कुछ खा-पी न सकता था। हार कर जेलवाले रोज थोड़ा दही देते थे। उसे
ही पीता था। इसी बीच सरकार ने जेलवालों से हमारे बारे में पूछताछ की,
वे चारों फर्स्टक्लास के कैदी हैं। वे वहाँ कैसे हैं। उनका हाल लिखिये।
जेलवालों ने हमसे पूछा तो हमने सारी दास्तान कही। उन्होंने यही बातें शायद
सरकार को लिख दीं। क्योंकि दूसरा कारण तो कोई था नहीं। हमसे उनने यह भी कहा
कि आप लोग यहाँ रहने न पायेंगे,
लखनऊ भेज दिये जायेगे। यहाँ यह भी कह देना हैं कि हमारे तीन साथियों ने जब
देखा कि शेष लोग तो लखनऊ चले गये,
इन्कार न किया और मजा कर रहे हैं,
तो उन्हें भीतर से ग्लानि हुई। वे अपनी भूल पर पश्चात्ताप भी करने लगे थे।
(शीर्ष पर वापस)
(10)लखनऊ
जेल
एक दिन अचानक जेलर ने आकर कहा कि आप चारों ही लखनऊ जाने के लिए तैयार हो
जाये।
आप लोग तो फर्स्टक्लास के कैदी हैं। इसलिए सरकार का हुक्म
हैं
कि यहाँ नहीं रह सकते। उन्हें लखनऊ भेजो। हम लोग तैयार हो गये। मैं तो यह
बात नापसन्द करता था। लेकिन एक खुशी भी हुई कि साथियों को,
जो कभी स्वतन्त्र
भारत के
कर्त्ता-धार्त्ता
बनेंगे,
जरा नजदीक से देर तक देख सकेंगे और आगे के लिए निष्कर्ष
निकालेंगे। हमारे तीन साथियों को तो खुशी हुई कि लखनऊ चल कर घी-दूध
उड़ायेंगे औरों की तरह।
यह भी एक निराली बात थी कि बेमुरव्वती के साथ इन्कार करने पर भी प्रथम
श्रेणी का व्यवहार हमसे हटाने को सरकार तैयार न थी। महाभारत में एक स्थान
पर लिखा हैं कि जब मैं दुनिया के पदार्थों को तिरस्कार की दृष्टि से देखता
और बेमुरव्वती से इन्कार करता हूँ तो वे मेरे पास गिरे पड़ते हैं। मगर जब
चाहता हूँ तब न जाने कहाँ चले जाते हैं! उसी का नमूना हमें देखने को मिला।
हाँ,
तो हम लोग ट्रेन में बैठे और लखनऊ स्टेशन पर जा धमके। वहाँ से जिला जेल में
पहुँचाये गये। वहाँ सभी पुराने साथी फिर मिले। वहीं पर मुरादाबाद के एक
साथी ने हमसे बातें करके हमारी आम वाली तकलीफ के निवारणार्थ जल चिकित्सा का
प्रयोग बताया। उनकी सब बातें सुनकर मैं उसके लिए तैयार हो गया। क्योंकि यह
चीज मेरे स्वभाव के अनुकूल ही थी। मैं स्वभाव से ही दवाइयों का विरोधी एवं
संयम का समर्थक हूँ और जलचिकित्सा में यही दोनों बातें हैं। फिर वह मुझे
रुचती क्यों नहीं?
फलत: उसके लिए टब मँगवाया और सोचा कि केवल रोटी खाऊँगा जो उस चिकित्सा के
अनुकूल हैं। जलचिकित्सा की बात आगे लिखी हैं।
लेखनऊ जेल में हमारे तीन साथी तो सभी चीजें खाने-पीने लगे। मगर मैंने तो
इन्कार किया था। फलत: यदि वह बात रखनी थी तो या तो जेलवालों से साफ कह देता
कि मैं ये चीजें नहीं लेता जैसा कि बाबा राघव दास करते थे या चीजें आने
देता। लेकिन उन्हें काम में न लाकर किसी कैदी को देता। मैंने दूसरा मार्ग
स्वीकार किया। पहले रास्ते में मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि कुछ खास प्रचार भले
ही हो जाये कि मैंने फिर भी इन्कार किया उन रिआयेतों को स्वीकार करना।
परन्तु कोई और लाभ नहीं। मैं ऐसे प्रचार और ऐसी ख्याति को ज्यादा पसन्द
नहीं करता। इसलिए सामान सभी आते थे। मगर मैं चुपचाप सब चीजें उस कैदी को
देता था जो मेरा काम करने और पानी वगैरह लाने के लिए दिया गया था। सिर्फ
आटा ले लेता। सो भी एक समय के खाने भर ही। पर,
जलचिकित्सा में तो चोकर मिला हुआ आटा चाहिए। इसलिए थोड़ा आटा जेलवालों को
लौटाकर बदले में चोकर लेता और उसे ही आटे में मिलाता था। केवल उसी की रोटी
बिना साक,
दाल,
घी,
दूध,
आदि के ही खा लेता। एक ही समय भोजन करता। रोटी बनाने में तरद्दुद होता देख
और जलचिकित्सा के लिए अनुकूल समझ मैंने कलकत्ते से
'इक
मिककुकर'
मँगवा लिया। जलचिकित्सक ने भी इसे पसन्द किया। मैं उसी में रोटी पकाता।
रोटी पकाना क्या था,
आटा गूँधकर एक कटोरे में रखता और कुकर में चढ़ा देता था। भाफ से वह पूरा
सिद्ध हो जाता था,
वही मेरा भोजन था जिसे पूरे डेढ़ घण्टे में खाता था।
कभी-कभी पतली रोटियाँ बना के तले-ऊपर कटोरे में उन्हें रख देता। वे आपस में
चिपक न
जाये
इसलिए दो रोटियों के बीच जरा सा सूखा आटा छिड़क देता। चाहे रोटियाँ हों
या गूँधे
आटे का एक ही पिण्ड हो,
स्वाद समान ही होता था। बेशक मिठास बहुत होती थी।
यह चीज बराबर आठ-नौ महीने चलती रही। इतना ही नहीं,
जेल से बाहर आने पर भी प्राय: बहुत दिनों तक वही खाता
रहा। कुकर से मेरा पहला परिचय लखनऊ जेल में हुआ और तभी से वह मेरा पक्का
साथी हो गया
हैं।
कभी गेहूँ की दलिया भी पकाता और कभी-कभी खरा गेहूँ ही सिझा लेता। दलिया से
भी मेरा प्रेम वहीं हुआ और तबसे फल के बाद वह मेरा
प्रधान
भोजन बन गई। यदि फल हो तो ठीक ही
हैं।
नहीं तो दलिया चाहिए।
लुईकुने ने,
जो जलचिकित्सा के आविष्कर्ता हैं,
कहा हैं कि मनुष्य को अपना स्वाभाविक भोजन करना चाहिए जो फल और साग-पात के
सिवाय और कुछ नहीं हैं।
सो भी पहले हरा फल,
न होने पर सूखा, उसके अभाव
में खड़ा-खड़ा कच्चा गेहूँ, उसके अभाव में उसका
आटा चोकर के साथ ही और आटे के अभाव में उसकी रोटी। बस,
एकेबाद दीगरे यही हमारा खाद्य
हैं।
मैंने कभी कच्चा आटा भी खाया और खड़ा गेहूँ भी। मैंने अनुभव किया कि थोड़े ही
गेहूँ या आटे में तृप्ति हो जाती
हैं।
असल में देर करने पर खाद्य पदार्थ में एक प्रकार की स्वाभाविक मिठास भी
प्रतीत होती
हैं।
खाने का मूलमन्त्र
हैं
खूब चबा के खाना और पानी या
दूध
पीना जरा-जरा सा मुँह में चारों ओर चला-चला के,
जिसे अंग्रेजी में सिप
(Sip)
करना कहते हैं। खाने और पीने में यदि ऐसा किया
जाये
तो अपच आदि की शिकायत तो हर्गिज रह नहीं सकती।
प्रथम श्रेणी की सुविधाओं की बात निराली ही निकली। सरकार ने एक प्रकार से
लोगों को ठग ही लिया जहाँ तक खाने-पीने का प्रश्न था। पहले तो,
जहाँ तक याद हैं,
हरेक आदमी को रोजाना डेढ़ रुपये मिलते थे। मगर थोड़े ही दिनों में वह बन्द कर
दिये गये। यह बात बनारस जेल में ही थी। लखनऊ जेल में आने पर,
मेरे समय में तो रुपयों की जगह घी,
चीनी,
दूध वगैरह सामान मिलने लगा था। मैं नहीं जानता कहाँ तक सही हैं,
क्योंकि मेरे सामने की बात नहीं हैं,
लेकिन जैसा कि मुझे बताया गया कि जब रुपयों को केवल खाने-पीने में न लगाकर
हमारे कुछ साथी और तरह से भी खर्च करने या जमा करने लगे तो सरकार ने उनके
बजाये सामान
(Ration)
देना शुरू कर दिया। लेकिन यह बात भी बराबर जारी न रही। कुछ समय बीतने पर
एकाएक सरकार की ओर से कहा गया कि मामूली कैदियों के ही खाने-पीने का सामान
आप लोगों को भी मिलेगा। यदि ज्यादा खाना-पीना
हैं
तो घर से मँगाकर खा-पी सकते हैं!
मैंने देखा कि बहुतेरे लोग तो मुर्झा गये। वे बाहर से मँगा सकते न थे। फिर
भी कुछ लोगों ने तो बाहर से मँगा-मँगा के खाया ही। आखिर करते भी क्या?
आदत तो बिगड़ गई थी। बिना मँगाये काम चलता न था। सरकार ने भी हमारी
कमजोरियाँ खूब समझीं। वह जान गई कि ये लोग अब चसक गये हैं। खामख्वाह घर से
मँगा के खायेंगे ही,
यदि चाहेंगे। इस प्रकार उसने भिगा-भिगा के हमें मारा चाहे हमें होश भले ही
नहीं हुआ। मैंने तो देखा कि सब प्रकार से मैं ही अच्छा रहा। उस मौके पर जो
आनन्द मुझे हुआ वह वर्णनातीत था। मैंने साफ देखा कि यह तो
'गुनाह
बेलज्जत'
वाली बात थी और मैं बाल-बाल इससे बचा।
(शीर्ष पर वापस)
(11)जेल के
विशेष अनुभव
ऊपर लिखी अपने लोगों की कमजोरियों के अलावे और भी कई बातें वहाँ देखीं।
जाने के थोड़े ही दिनों बाद हमने देखा कि कुछ लोगों की एक
'हलवा
पार्टी'
बनी। उसे ही वे लोग
'राक्षस
पार्टी'
भी कहते थे।
बहुत लोगों को घी,
दूध,
आदि एक जगह जमा करके हलवा वगैरह पकता और खाया जाता था।
इसी से 'हलवा पार्टी नाम'
पड़ा। हँसी-मजाक और
ऊधम
तो मचता ही रहता था। कभी नाटक,
कभी स्वांग और कभी कुछ और हरकतें होती रहती थीं।
दिन-रात कुहराम मचा रहता था। उसी से उसे 'राक्षस
पार्टी' भी कहते थे। आखिर राक्षसों का तो काम ही
हैं
भोग करना,
ऊधम
मचाना। इस हलवे की बीमारी की यह हालत हो गई कि जब सरकार ने घी वगैरह देना
बन्द कर दिया तब भी हलवा बनना न रुका। सबों को जो थोड़ा-थोड़ा तेल मिलता था
उसी को जमा करके हलवा बनाते थे।
यह भी देखा कि जो लोग खान-पान में छूत-छात की बात रखते थे उनके चौके में
राक्षस पार्टी के लोग बलात घुसकर भोजन छू देते और उन लोगों को दिकत करते
थे। इससे भी हो-हल्ला होता था। बात बुरी भी थी,
ऐसा कहा जा सकता हैं।
मगर मैं भी तो छूत-छात वालों में ही था।
पर,
मुझे कभी किसी ने इस प्रकार
दिकत
न किया। बात असल यह थी कि और लोगों की छूत-छात एक प्रकार की बनावटी चीज थी।
क्योंकि जब सुन्दर मिठाइयाँ या इस प्रकार की चीजें कहीं से किसी के पास आती
थीं तो वे लोग भी उनमें शामिल हो जाते थे। मगर रोटी,
भात में छुआछूत मानते थे। लेकिन मैं तो सभी में समान
व्यवहार रखता था। इसलिए उन लोगों के ढोंग को राक्षस लोग मिटाना चाहते थे।
पर, मेरा तो ढोंग न था। फिर मुझे क्यों
दिकत
करते?
जेल में ही पं. जवाहर लाल नेहरू से विशेष बातचीत और परिचय का मौका मिला। एक
दिन हमारी-उनकी बातें दोपहर को,
खाने के बाद,
होने को थीं। वे दूसरे वार्ड में रहते थे। मैंने कहा कि धूप ज्यादा हैं,
आपको आने में कष्ट होगा। मैं ही चला आऊँगा। मैंने समझा था कि आनन्द भवन में
पले हैं। उनने चट उत्तर दिया कि वकील की हैंसियत से खाने के बाद ही मध्य
दोपहरी में कचहरियों में दौड़ने की तो आदत हुई। फिर तकलीफ का क्या प्रश्न?
अत: मैं ही आऊँगा आप के पास। मैं इस उत्तर के लिए तैयार था नहीं। फलत:
अवाक् रह गया। उनकी इस एक ही बात ने मेरे दिल में उनके लिए बहुत उच्च स्थान
बना दिया। बहुत कम लीडर और नेता ऐसे बेतकल्लुफ और बाहरी दिखावे से अलग रहते
हैं। यह हमारी राजनीति की बड़ी भारी कमी हैं। जन साधारण का और साधारण
कार्यकर्त्ताओं का जो असल में सब कुछ करने वाले होते हैं,
हृदय कभी जीता नहीं जा सकता बिना इस सादगी और दिखाऊपन के अभाव के।
अमीरी तो हमारी राजनीति के लिए प्लेग
हैं।
वहीं पर रहते समय असौढ़ा (मेरठ) के चौधरी
रघुवीर नारायण सिंह भी आये।
मेरा-उनका पुराना परिचय था। वे बहुत बड़े जमींदार और रईस हैं। अमीरी भी उनकी
खूब रही
हैं।
मैंने उनसे पूछा कि आप अपना आराम छोड़कर भला इसमें क्यों पड़े?
वे पढ़े-लिखे तो अच्छे हैं और बुद्धि
भी उनकी काफी तेज
हैं,
मगर अंग्रेजी-दाँ नहीं हैं। इसीलिए मुझे आश्चर्य हुआ कि
इस राजनीति में वे कैसे फँसे मगर उनकी बातों से पता लगा कि वे खूब समझबूझ
के इसमें पड़े थे। उनकी तीक्ष्ण बुद्धि
ने जमाने का रुख उन्हें बता दिया था। फलत: उनने समझ लिया था कि जमींदार
बच नहीं सकते यदि वे मुल्क की जन आजादी में न पड़ें। इसलिए उन्होंने
अपना फर्ज अदा किया और अपने जमींदार
भाईयों
को भी न सिर्फ जबानी,
बल्कि अमली उपदेश दिया। इससे उन पर मेरी श्रद्धा
बढ़ गई। मैंने यह भी देखा कि आराम तलब
धनाढय
लोगों पर भी राजनीति का अच्छा असर
हैं।
फलत: इस राजनीति में स्वयं मेरी लगन और तेज हो गई।
वहीं पर प्रोफेसर धर्मवीर जी एम.ए. मिले। शान्त और पानी के जैसे ठण्डे
स्वभाव के आदमी और सादगी के मूर्ति स्वरूप मैंने उन्हें पाया। ऐसे योग्य
सज्जन को पुलिस ने जब पकड़ा था तो कमर में रस्सी बाँधकर पैदल ही हिन्दू
काँलेज से सुनसान रास्ते से थाने लाई थी! इससे लोगों ने समझा कि कोई
मुस्टण्ड चोर-डाकू हैं! वे दिन-रात स्लेट लेकर गणित में ही रमते रहते थे।
उन्हें दूसरा काम रुचता ही न था।
बहुत से मौलाना लोग साथ ही थे। फलत: इस्लाम के बारे में चर्चा होती रहती
थी।
बात कुछ ऐसी
हैं
कि हम लोग एक-दूसरे के
धर्मों
को ठीक-ठीक जानते नहीं। इसीलिए उनके बारे में बहुत बदगुमानी रहती
हैं।
बेशक वह बेबुनियाद होती
हैं।
जो कट्टर
धार्मिक
होते हैं वह तो और भी अपने
धर्म
के सिवाय अन्य
धर्मों
को जानते ही नहीं। अगर कुछ जानते भी हैं तो उलटा ही।
बचपन में मेरी भी यही हालत थी। मैं
इस्लाम
से सख्त नफरत करता था। उसे बुरा मानता था। मेरा
ख्याल
था कि वह तो जोर-जबर्दस्ती और मारकाट सिखाता
हैं।
उसमें अन्य
धर्मों
के प्रति सहनशीलता तो कतई
हैं
नहीं। बेशक आज तो यह
धारणा
जड़ से खत्म हो गयी
हैं!
मगर राजनीति में आने के पूर्व तक यह बनी थी।
असहयोग के युग में मौलानाओं के कुछ लेक्चर कहीं-कहीं सुनकर और हिन्दुओं की
कदर करते उन्हें देखकर उस धारणा पर थोड़ा सा धक्का जरूर लगा था। मगर फिर भी
वह बनी हुई थी। जेल में जाने पर वह निर्मूल हो गयी। उसके बाद तो मुझमें
धीरे-धीरे उस मामले में आमूल परिवर्तन हो गया।
असल में वहाँ मौलाना लोगों ने कुरान शरीफ की
आयेतें
पढ़कर यह दिखाया कि मन्दिर,
और गिर्जे आदि
धर्म
स्थानों की इज्जत करने या उनकी तौहीनी (अप्रतिष्ठा) न करने का आदेश उसी
कुरान में दिया गया
हैं।
उन्होंने यह भी कहा कि कुरान का कहना
हैं
कि हर मुल्क में समय-समय पर पैगम्बर हुआ करते हैं।
उसी मुल्क की भाषा में लोगों को उपदेश देते हैं। इससे उनने यह दिखाया कि
राम,
कृष्ण, ईसा आदि को पैगम्बर न
मानने की वजह कहाँ
हैं?
प्रत्युत इससे तो सिद्ध
होता
हैं
कि वह भी पैगम्बर थे। संस्कृत या यहूदी भाषा में,
जो उन मुल्कों की भाषा थी,
लोगों को उपदेश दिया। इस प्रकार वह भी एक जमाना हमारे मुल्क में था जब हरेक
धर्मों
के दोषों को न देख उनके गुणों को ही ढूँढ़ निकालने की कोशिश होती थी। मैंने
तो स्वयं इसका अनुभव किया। और आज भी एक जमाना
हैं
जब हम ठीक उलटे चलने लगे हैं।
हाँ,
तो मुझे तो इससे बड़ा लाभ हुआ। पीछे तो मैंने स्वयमेव कुरान का हिन्दी
अनुवाद आद्योपान्त पढ़ा और अपने दिल को साफ किया।
लखनऊ जेल में भी मैं साथियों के एक दल को गीता पढ़ाता था। वह दल अच्छे-अच्छे
अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों का था। उनमें अनेक लोकमान्य तिलक का गीता रहस्य पढ़
चुके थे। वह यह भी जानते थे,
कम-से-कम उनमें कुछ तो जरूर ही,
कि मैंने गीता रहस्य की कई बातों का युक्ति-युक्त खण्डन समाचार-पत्रों के
द्वारा किया था। इसलिए वे विशेष रूप से मुझसे तर्क-वितर्क करते थे। शांकर
सिद्धान्त से कहाँ क्या मतभेद तिलक को हैं यह जानना भी चाहते थे। इस प्रकार
अच्छा आनन्द आता था। मेरे पास तो वही नन्हीं सी गीता थी। उसी के आधार पर
उनका समाधन करता था।
असल में गीता रहस्य के बारे में मेरी खास शिकायत एक ही हैं कि
तिलक ने शंकर के सिद्धान्त
को न समझकर ही उन पर कटाक्ष किये हैं।
बात यह
हैं
कि आम तौर से लोगों में श्री शंकराचार्य के मत के प्रति भ्रान्त
धारणा
हैं।
लोग मोटी तौर से ही उनके सिद्धान्त
को जानते हैं। तिलक भी दुर्भाग्य से उसी
धारणा
के शिकार हो गये थे।
शंकर का तो जीवन ही कर्ममय और कर्मयोगी का रहा। उनने अपने गीता भाष्य के
आरम्भ में ही साफ कह दिया
हैं
कि ज्ञानियों के कर्म को तो मैं कर्म मानता ही नहीं,
जिस प्रकार
भगवान
कृष्ण के क्षत्रियोचित
कर्मों को कर्म नहीं मानता,
'ज्ञानिनां कर्म तु कर्मैव न भवति,
यथा भगवत: कृष्णस्य क्षात्रां चेष्टितम्'।
शंकर तो कर्म उसे ही कहते हैं जो कर्ता को अपना फल सुखदुखादि देने में
समर्थ हो। ज्ञानी का,
और इसलिए कृष्ण का भी कर्म तो कर्म
हैं
नहीं। क्योंकि वह उन्हें सुख-दुख
बन्धन
में डाल नहीं सकता।
इसीलिए जहाँ एक ओर शंकर ने ऐसे कर्म का समर्थन और आजीवन स्वयं अनुष्ठान
किया,
तहाँ दूसरी ओर अज्ञान या आसक्ति मूलक कर्म के त्याग या
संन्यास का सारी शक्ति लगाकर समर्थन भी किया। ऐसी दशा में शंकर को
कर्मयोग का विरोधी
कहना उनके साथ घोर अन्याय नहीं तो और क्या
हैं?
उस जेल में कुछ ऐसे साथी भी मिले जिनने आगरे की तरफ तथा संयुक्त प्रान्त की
दूसरी जगहों में शुद्धि का काम किया था। यों चाहे जो भी हो,
लेकिन जब वे लोग अपने-अपने अनुभव सुनाते और बातें करते तो कम-से-कम उस समय
कट्टरता का पता मालूम नहीं होता था। जिस प्रकार मुसलमानों की कट्टरता उस
समय जाती रही। ठीक उसी प्रकार कट्टर से कट्टर आर्य समाजियों की कट्टरता भी
मालूम न पड़ती थी। इसे ही कहते हैं एक ही विपत्ति
(Common enemy)
के मारे लोगों का एका तथा मतभेद का भुला देना। इसीलिए पाण्डवों की विजय के
बाद जब कृष्ण मथुरा जाने लगे तो कुन्ती ने बहुत क्लेश से कहा कि हमारे लिए
तो विपत्तियाँ
ही अच्छी थीं जब बराबर आपका दर्शन होता रहता था। आज तो उनके हट जाने पर आप
चलने को तैयार हैं
'विपद:सन्तु न: शश्वत्तात्रा तत्रा जगद्गुरो। भवतो
दर्शनं यस्मादपुनर्भव-दर्शनम्'। आज जो फिर
हिन्दू-मुसलिम एक-दूसरे के खून के प्यासे से मालूम पड़ते हैं उनके लिए तो
असहयोग युग ही ठीक था। काश, वह आज भी समझ
पाते कि दोनों का उस समय का एक ही शत्रु
आज भी बरकरार
हैं।
(शीर्ष पर वापस)
(12)जल
चिकित्सा
यहीं पर प्रसंगवश जलचिकित्सा का कुछ वर्णन कर देना जरूरी
हैं।
असल में उसने मुझे न सिर्फ लाभ ही किया,
प्रत्युत अपना भक्त सदा के लिए बना लिया। मैंने उसकी
पूरी पद्धति
का अच्छी तरह अभ्यास किया। उस पर नोट भी तैयार किये। उसके आचार्य लूईकुने
(Louis kuhne)
की दोनों किताबें
'आरोग्यता की नयी विद्या'
(New science of Healing)
और
'मुखाकृति विज्ञान'
(Science of Facial
Expression)
मैं अच्छी तरह पढ़ के समझ चुका था। इतना ही नहीं। मैंने उसकी
एकाध
बातों और सिद्धान्तों
के आधार
पर पीछे
एकाध
उपसिद्धान्त
ढूँढ़ निकाले और उनसे लाभ उठाया,
उठवाया। दृष्टान्त के लिए उसने जो कहा
हैं
कि शुद्ध
रेत यदि भोजन के बाद ज्यादे-से-ज्यादा एक तोला चुभलाकर खाया
जाये
तो कठिन-से-कठिन कोष्ठबद्धता
(Constipation)
को हटा देता
हैं,
उसकी मैंने अनेक लोगों पर परीक्षा की। उसमें सफल होने
पर पेट के दर्द और मसूढ़े फूलने पर भी मैंने उस बालू का प्रयोग करके सफलता
पायी। असल में विकृत वायु या अधिक
वायु को सोख लेना बालू का काम
हैं
ऐसा समझते ही मैंने दर्द आदि में उसका प्रयोग किया। हाँ,
बालू में मिट्टी का अंश जरा भी न हो। वह खूब धो के साफ
किया गया हो। न बहुत मोटा हो और न अत्यन्त महीन। गंगा की रेत सबसे अच्छी
होती
हैं।
दाँत के दर्द,
मसूढ़ों की सूजन और पेट की पीड़ा में भी वही विकृत वायु
कारण
हैं।
इसलिए उसका प्रयोग लाभदायक
हैं।
हाँ,
कुने ने जो
दूध
को मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं माना
हैं
मैं उसे नहीं मानता। मेरा
ख्याल हैं
कि लाखों वर्ष तक बराबर
दूध
पीने के कारण मनुष्य का एक तरह का स्वाभाविक भोजन
दूध
भी बन गया
हैं।
मैंने कुने की इस चिकित्सा का निरन्तर प्रयोग करके यह निष्कर्ष निकाला हैं
कि यदि हम भोजन में संयम रखें,
ऊलजलूल न खायें और अच्छी तरह भूख लगने पर खूब चबाकर खायें तो रुपये में
बारह आने बीमारी तो इसी से ही दूर रहेगी। शेष में पौने चार आने नियमित रूप
से व्यायाम करने या टहलने से। सिर्फ एक ही पैसा मौका रह जाता हैं औषधि के
लिए।
व्यायाम में भी टहलना सबसे उत्तम हैं ऐसा मेरा अनुभव हुआ हैं। मैंने
दण्ड-बैठक,
दौड़,
आसन आदि सभी का अभ्यास करके इस टहलने से मिलाया और इसे सर्वोत्तम पाया हैं।
यह स्वाभाविक भी हैं।
अगर ये बातें हम करें और जलचिकित्सा न करें तो भी सदा नीरोग रहेंगे ऐसा
मेरा विश्वास हैं। मैंने अपने बारे में ऐसा करके देखा हैं भी। केवल दिमागी
ही बात नहीं करता हूँ। मेरा जो शरीर रोगों का घर हो गया था वही आज इतना
स्वस्थ हैं कि
10-12
वर्षों से कभी बुखार आया ही नहीं। फोड़े,
फुंसी या जख्म वगैरह का तो कहना ही क्या?
इसके लिए मैं जलचिकित्सा का सदा ऋणी रहूँगा,
हालाँकि बहुत दिनों से वह छूट गयी हैं।
मैं घड़ों में ठण्डा पानी रख के उसी में हिप्वाथ लेता था। गर्मियों में
सिट्ज बाथ तो होता ही नहीं। इसके लिए तो बहुत ठण्डा जल चाहिए जो जाड़े में
ही सम्भव हैं। इसीलिए जब जाड़ा आया तो सिट्जबाथ शुरू किया। हिप्बाथ में कमर
को पानी में डुबोकर पेड़ई पर भीगे कपड़े से धीरे-धीरे रगड़ते हैं और सिट्जबाथ
में मूत्रोन्द्रिय पर। मगर सिट्जबाथ में पानी से ऊपर बैठना होता हैं। जब
दाँतों में दर्द होता था तब या यों भी स्टीमबाथ (भाप से) लेता था। स्टीमबाथ
के बाद तो हिप्बाथ जरूरी हैं। मैंने वहीं ऐसा करते देखा और पीछे तो स्वयं
अनुभव भी किया कि सख्त-से-सख्त ज्वर भी तीन बार थोड़ी-थोड़ी देर या यों कहिये
कि दिन भर में स्टीमबाथ के साथ हिप्बाथ लेने पर ज्वर खामख्वाह भाग जाता
हैं। जल में भी ऐसा किया गया था। बाहर तो मैंने कई बार ऐसा किया,
कराया हैं। इससे शीघ्र ही मेरी आम वाली शिकायत दूर हो गयी और भूख तेज हो
गयी। बाथ दिन में तीन बार,
सुबह,
शाम,
दोपहर को लेता था और खूब टहलता था। मैंने देखा कि बच्चों की तरह बाथ के बाद
दौड़ने का जी चाहता था। बाथ के बाद शरीर में गर्मी लाना जरूरी हैं। फिर चाहे
दौड़ के हो,
टहल के हो या कसरत करके। बीमार लोगों को तो कम्बल वगैरह से देह ढँकने से ही
ऐसा हो सकता हैं। मैंने यह देखा कि अगर दाँतों में दर्द हो या मसूढ़ों में
सूजन हो तो किसी बर्तन में पानी खूब गर्म करके उसका मुँह बन्द रक्खा जाये
और उसे खोलकर वह भाप मुँह के भीतर ली जाये तो फौरन दर्द भागता हैं। मगर
ठण्डा होने पर फिर हो जाता हैं। इसलिए रह-रह के बार-बार ऐसा करने पर सूजन
भी चली जाती हैं और दर्द भी हट जाता हैं।
मुझे तो पहले-पहल बाथ के अभ्यास के बाद ही दाँतों में दर्द हुआ। उससे पूर्व
कभी न हुआ था। फिर तो वह दर्द बराबर होता रहा हैं। सिर्फ कुछी दिनों से
उसने पिण्ड छोड़ा हैं। सो भी जब मैं उसके बारे में काफी सजग हो गया हूँ। अब
भी लापरवाही करने पर फौरन हो जायेगा। असल में पायरिया की बीमारी की यही
हालत हैं। वह भीतर-ही-भीतर थी। बाथ लेने पर प्रकट हो गयी। दबी बीमारियाँ
उसमें अवश्य प्रकट होतीं और काफी तेज हो जाती हैं। इसे हीलिंग-क्राइसिस कहा
जाता हैं। इसका अर्थ हैं कि वह बीमारी उभर गयी और कुछी दिनों में सदा के
लिए खत्म हो जायेगी,
यदि हम घबड़ाकर जलचिकित्सा छोड़ न दें। जितनी ही जल्द और तेज यह
हीलिंग-क्राइसिस होगी उतना ही शीघ्र वह रोग हटेगा यही माना जाता हैं।
इसीलिए कम उम्र में इस चिकित्सा का ज्यादा असर होता हैं। शरीर में जीवन
शक्ति जितना अधिक होगी उतना ही शीघ्र यह क्राइसिस होकर बीमारी चली जायेगी।
कुने की यह भी मान्यता हैं कि फॉरेन मैटर या मल ही बीमारी हैं। और वह एक
हैं। ज्वर,
दर्द,
प्लेग,
हैंजा आदि उसी के विभिन्न रूप हैं। इसलिए वह इसी बात की कोशिश करता हैं कि
शरीर में नया मल जमा होने न पाये और पूर्व संचित मल निकाल दिया जाये। यही
जलचिकित्सा का मूल सिद्धान्त हैं। भोजनादि के संयम और दूसरी बातें इसी के
लिए उसने बतायी हैं। भोजन में गर्म मसाले का वह सख्त दुश्मन हैं। उससे भी
ज्यादा नमक का। आयुर्वेद ने भी यही माना हैं कि सभी रोगों की जड़ मल ही हैं
'सर्वेषामेव
रोगाणां निदानं कुपिता मला:'।
इसीलिए संयम पर उसने भी जोर दिया हैं। पुराने वैद्य लोग तो ज्वरादि की दशा
में अनशन को ही प्रधान उपाय मानते हैं। इसलिए कुने का मत बहुत कुछ आयुर्वेद
से मिलता-जुलता हैं। कुने ने यह भी कहा कि बाथ का नागा भी सप्ताह में एक
दिन या महीने में दो-चार दिन होना चाहिए।
हमने यह देखा हैं कि हिन्दी में बहुत सी किताबें इस बारे में लिखकर उनमें
खाने-पीने के बारे में ऊलजलूल लिख मारा गया हैं। नमक आदि खाने की राय दी
गयी हैं। यह बात गलत हैं। यह ठीक हैं कि शीघ्र-से-शीघ्र लेकर देर-से-देर
समय में बीमारियों से छुटकारा इस चिकित्सा से हो सकता हैं। शरीर की जीवन
शक्ति और बीमारी के पुरानेपन ही पर यह निर्भर हैं। बहुतेरे तो
12
तथा
16
वर्ष निरन्तर यह प्रयोग करने के बाद नीरोग हुए हैं।
(शीर्ष पर वापस)
(13)मेरा
निष्कर्ष
खैर,
लखनऊ जेल में निरन्तर आठ-नौ महीने तक यह धामा-चौकड़ी,
यह उच्छृंखलता और यह मनमानी घरजानी देखकर मैंने कुछ
निष्कर्ष निकाला। वहाँ मैंने देखा कि शायद ही कोई जेल नियमों की अवहेलना न
करता हो। चोरी से अखबार तो आते ही थे। सरकार जिन समाचार-पत्रों
को भेजती थी उनके सिवाय दूसरे भी आते थे। आपस में चन्दे करके एक-एक अंक के
चार-चार आने खर्चे जाते थे। यह भी देखा कि जेल अधिकारी
जिसी पर रंज हुए उसी को हटाकर नैनी जेल भेज दिया। नैनी जेल तो उस समय जेलों
का जेल माना जाता था। वहाँ लोगों को बड़े कष्ट दिये जाते थे। इसीलिए पीछे तो
ऐसा देखा कि कितने ही लोग जेलवालों की चापलूसी में लगे रहते थे,
ताकि नैनी जाना न पड़े। कोई किसी की सुनता तो था नहीं।
चोरी से चिट्ठियाँ तो लिखी ही जाती थीं। इन सब बातों से शायद ही कोई बचा
हो।
इससे मैं इस नतीजे पर जेल में ही पहुँचा कि राजनीति को नैतिक
(Relegious and moral)
रूप देकर इतनी जल्दी जो
गांधीजी
ने इसे सार्वजनिक बना दिया वह बड़ी गलती हुई। उन्हें अपना कदम पीछे ले जाना
पड़ेगा। यदि इसे ठीक-ठीक ले चलना
हैं
तो अब तक का बना-बनाया सारा महल गिरा देना होगा। सिर्फ नींव रखनी होगी। उसी
पर
धीरे-धीरे
फिर से महल खड़ा करना होगा। नहीं तो यह आन्दोलन कोरी राजनीति,
दूषित राजनीति के सिवाय और कुछ रह न
जायेगा।
यदि
गांधीजी
ने शीघ्र पीछे कदम न उठाया तो उन्हें पछताना होगा। मैंने जो कुछ गुप्त
समितियों के सख्त नियमों के बारे में सुना और रौलट रिपोर्ट में पढ़ा था उसी
के आधार
पर सोचता था कि
गांधीजी
को उसी सख्ती से काम लेना होगा। यदि मेम्बरों के बनाने में वैसी कड़ाई न
की गयी तो बुरा होगा। मैंने साफ देखा कि हमारी राष्ट्रीयता केवल जुबान
पर ही
हैं।
हममें जाति-पाँति की बातें इतना ज्यादा घर कर गयी दीखीं कि मुझे दर्द हुआ।
ऐसी दशा में राजनीति को नैतिक बनाना तो सपने की चीज मालूम हुई। जब राजनीति
ही अपना स्थान हमारे भीतर ठीक-ठीक न कर सकी,
तो फिर उसे सुधारने
का क्या अर्थ हो सकता था?
मेरी धारणा तो थी कि ये सब त्रुटियाँ मालूम होते ही गांधीजी उपाय करेंगे।
हालाँकि पीछे के अनुभवों ने बताया कि मेरे ख्याल गलत थे। गांधीजी ने सभी
बातें जानीं और बखूबी जानीं। मगर क्या किया?
अखबारों में लिखने और लेक्चर देने से सामूहिक
आन्दोलन में, जो जन-आन्दोलन
हैं,
नैतिक परिवर्तन हो नहीं सकता। वह तो कुछ चुने हुए लोगों
में ही हो सकता
हैं।
इसके लिए तो बेमुरव्वती से कसौटी तैयार करके उसी पर परखना और तब कहीं सदस्य
बनाना ठीक था। मगर तब तो यह जन-आन्दोलन रही नहीं जाता।
'हाँ' सम्भव था,
धीरे-धीरे
समय पाकर फिर जन-आन्दोलन का रूप इसे मिल जाता। मगर कुछ साल तक तो यह बात
होने की न थी।
गांधीजी के लिए दूसरा रास्ता यही था कि राजनीति को नैतिकता या धर्म-नीति का
जामा पहनाने का विचार ही वे छोड़ देते।
मगर गण आन्दोलन भी बनाये रखना और उसे
धर्मनीति
के मार्ग पर ले चलने की आशा भी करना,
ये दोनों बातें, एक साथ चलने
की नहीं। असम्भव हैं। तो भी
गांधीजी
ने यही किया
हैं।
परिणाम
आँखों
के सामने
हैं।
सत्य,
अहिंसा और सदाचार के नाम पर कांग्रेस में केवल दम्भ,
प्रवंचना, हिंसा और असत्य का
बाजार गर्म
हैं।
खूबी तो यह कि जो लोग स्पष्ट वक्ता हैं उनके लिए
गांधीजी
के दल में स्थान नहीं और बगला भगत लोग सर्वेसर्वा बने बैठे हैं!
धर्म
के नाम पर ये चीजें होती ही थीं। मगर जब
धर्म
आ गया राजनीति में,
तो यहाँ भी वही बाजार गर्म
हैं।
इसे गांधीजी जैसा अनुभवी एवं व्यवहारकुशल आदमी न जानता हो यह बात दिमाग में
समाती ही नहीं। इसीलिए बहुतों के लिए यह एक भीषण पहेली हो रही हैं कि ऐसा
क्यों होता हैं?
गांधीजी इसे क्यों चलने देते हैं?
मेरे लिए भी बहुत दिनों तक यही पहेली थी। पर,
अब तो मैं सही बातें समझ गया। सच्ची बात तो यह कि राजनीति और धर्म-नीति का
विरोध पुराने लोग मानते आये हैं।
याज्ञवल्क्य ने अपनी स्मृति में इसीलिए
धर्मविरोधिनी
राजनीति का मौका आने पर उसे छोड़ देने को कहा
हैं,
'अर्थशास्त्रतुबलवद्धर्मशास्त्र
मिति स्थिति:'।
दोनों का सामंजस्य करना ही भूल
हैं।
(शीर्ष पर वापस)
(14)जेल से
बाहर
बारह महीने के बाद
सन
1923 ई. के शुरू में ही मैं लखनऊ जेल से बाहर आया। मेरा
जुर्माना पच्चीस रुपये था। किसी ने बिना मुझसे पूछे ही दे दिया था। फलत: एक
मास और जेल में रहने का मौका ही न लगा। बाहर आने पर पहले तो गाजीपुर आया।
जुलूस बनाकर लोग स्टेशन पर लेने आये। अच्छी उमंग थी।
मगर बाहर का वायुमण्डल दूषित और मनहूस हो गया था। जेल से निकलने के बाद
देशबन्धु दास और पं. मोतीलाल नेहरू के उद्योग से सत्याग्रह जाँच कमिटी
कांग्रेस की तरफ से बनी थी। उसने देश के कोने-कोने में जाकर सत्याग्रह की
तैयारी की जाँच तो क्या की,
उसे छोड़ फिर कौंसिलों में जाने का रास्ता साफ करना शुरू किया! गांधीवादियों
का तो खासकर,
और दूसरों का भी,
कहना था कि वह तो बड़ी ही मनहूस चीज थी। उसने देश के वायुमण्डल को और भी
दूषित कर दिया। इसी गड़बड़ी में गया में सन
1922
ई. के दिसम्बर में देशबन्धु की अध्यक्षता में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। मगर
देशबन्धु की कौंसिल-प्रवेश-नीति उसमें स्वीकृत न हो सकने से और भी गड़बड़ी
हुई।
उस समय कांग्रेस में दो प्रचण्ड दल थे। एक दास साहब और नेहरू का
परिवर्तनवाही
(Pro
changer)
और दूसरा श्री राजगोपालाचारी आदि का अपरिवर्तनवादी
(No changer)
दोनों की लड़ाई बहुत वर्षों तक चलती रही। आज तो समय ने ऐसा पलटा खाया
हैं
कि राजगोपालाचारी पक्के से भी पक्के
परिवर्तनवादी
बन गये हैं। दास,
नेहरू की भी नाक काट रहे हैं!
मगर असली दिक्कत सत्याग्रह जाँच कमिटी के करते नहीं हुई। वह जिस परिस्थिति
के फलस्वरूप थी वही परिस्थिति या उसके उत्पन्न करने वाले लोग ही असल में
जवाबदेह थे इस मनहूस वातावरण के लिए। हालाँकि,
उस समय मैं इस बात को समझ न सका। जिस समय सेना उमंग से बढ़ती जा रही हो और
सारे मुल्क में जोश लहरें मार रहा हो,
ठीक उसी समय बिना लक्ष्य-प्राप्ति के ही,
एकाएक
'रुक
जाओ'
की आज्ञा देकर हथियार रखवा देने की बात का परिणाम दूसरा होई क्या सकता था?
जब मैं बनारस जेल में था तभी चौरी-चौरी की घटना हुई। फलस्वरूप गांधीजी ने
बारदोली में सत्याग्रह स्थगित करने की घोषणा कर दी। उसी का परिणाम यह था।
हम लोग तो यह घोषणा पढ़कर स्तब्धा और क्षुब्धा थे। हालाँकि गांधीजी जो
करेंगे ठीक ही करेंगे यह अटल-विश्वास उस समय मेरा जरूर था।
अचानक लड़ाई रोक देना जब कि हार का भी कोई लक्षण न हो,
निराली बात थी! इसीलिए आगे बढ़ने वाली शक्तियाँ
ईधर-उधर
अपना रास्ता ढूँढ़ने लगीं।
अहिंसा के बाल की खाल गांधीजी की तरह खींचना तो कोई जानता न था। अत:
जन-साधारण के और देशबन्धु तथा नेहरू जैसे नेताओं की भी समझ में यह बात न आ
सकी। इसीलिए वे लोग क्षुब्धा थे और लड़ाई को ऐसा रूप देना चाहते थे जिसमें
आन्तरिक प्रेरणा या दैवी पुकार जैसी किसी चीज की जरूरत न हो। वह निरा भौतिक
हो। इसीलिए उन लोगों ने पुन: कौंसिल प्रवेश का प्रश्न उठाया। सन
1923
के बीतते-न-बीतते वे लोग इसमें सफलीभूत भी हुए। रूस आदि देशों के इतिहास
में भी यह देखा गया हैं कि जब बाहर कोई जबर्दस्त भिड़न्त नहीं होती और जनता
में कुछ ठण्डक रहती तो
पार्लियामेण्टों
और
धारा
सभाओं में ही घुसकर बाहर आग बनाये रखने की कोशिश की जाती थी।
हाँ,
तो गाजीपुर में मैं काम करता रहा और लोगों को जगाने में तल्लीन था। लेकिन
खाना-पीना अब कुछ ऐसा हो गया था कि बाहरी दौड़-धूप बर्दाश्त नहीं कर सकता
था। मेरा ऐसा अनुभव हुआ कि दूध के बिना दिमागी काम करने के लायक आमतौर से
हमलोग रही नहीं जाते। मैंने तो न सिर्फ दूध,
किन्तु मसाला वगैरह सभी छोड़ दिया था। मसाला तो बहुत पहले ही छूटा था। पर,
नमक जेल में छूटा। वह अब तक छूटा ही हैं। शायद बाहर आने पर नमक खाने की
कोशिश होती। मगर उसी साल नमक पर टैक्स बढ़ जाने से एक और भी कारण मिल गया और
नमक का त्याग जारी रहा। इन सब चीजों का फल यह हुआ कि मैं कमजोर बहुत हो
गया। फिर भी घूमना जारी था। फलत: सन
1923
ई. की गर्मियों में लू का थोड़ा असर हो जाने से खाना-पीना कुछ भी रुचता ही न
था। प्यास लगती थी। मगर पानी भी अच्छा नहीं लगता था। बड़ी परेशानी हुई। अन्त
में मैं फिर बक्सर के इलाके में सिमरी चला गया। वहाँ जौ की पतली सी दलिया
पानी में पकाकर खाता और आम भून कर उसके गूदे से देह की मालिश करता रहा। इस
प्रकार धीरे-धीरे लू का असर गया और मैं फिर काम करने लायक हो गया। इसके बाद
मैंने गौ के
दूध
का सेवन पुन: शुरू कर दिया।
बाकी खान-पान पूर्ववत
रहा। मुझे फिर कोई बाधा
नहीं हुई।
लेकिन मैं गाजीपुर पुनरपि चला गया। वहाँ कुछ पैसे जिला कांग्रेस कमिटी के
लिए जमा किये। इस समय दो घटनाएँ हुईं। एक तो मैंने पं. जवाहर लाल नेहरू से
लिखा-पढ़ी शुरू की कि प्रान्त के सभी जिलों और जिलों के भी सभी हिस्सों में
काम जारी रखने के बजाये हमें थोड़े ही इलाके में सारी शक्ति लगानी चाहिए।
गांधीजी का तो यही बल हैं कि वह अपनी कमजोरी को साफ स्वीकार करते हैं। हमें
भी वही करना चाहिए। मेरा अनुभव बताता था कि यदि हम थोड़ी दूर में ही जगह-जगह
जम के
(intesive)
काम करें तथा सफलता प्राप्त करें तो बाकी जिले या जिलों के हिस्से-स्वयमेव
आकृष्ट हो
जायेगे
और हमारी पद्धति
अपनायेंगे। इस प्रकार अन्त में हम सफल होंगे।
मगर जवाहर लाल जी का कहना था कि जहीं पर काम न होगा उसी स्थान का बुरा असर
(re-action)
काम वाले इलाके में पड़ेगा और वहाँ भी गड़बड़ी होगी। इसीलिए वे समूचे प्रान्त
में विस्तृत
(Extensive)
काम के हिमायती थे। इस प्रकार जेल से आने के थोड़े ही दिनों बाद से लेकर
बहुत दिनों तक मेरा-उनका
पत्र
व्यवहार बराबर चलता रहा। अन्त में उन्होंने मेरे दृष्टिकोण को स्वीकार
किया। मगर तब तक तो रही-सही शक्ति भी क्षीण हो चुकी थी और थोड़ी सी जगहों
में भी जम के काम करना असम्भव था।
लू से अच्छे होने और पैसा एकत्र करने के बाद दूसरी बात यह हुई कि हमारे
कार्यकर्त्ता लोग इन पैसों को यों ही खर्च कर देना चाहते थे। मगर मैं इसका
विरोधी था। जनता के पैसे की एक-एक कौड़ी मैं पवित्र मानता हूँ और उसे ज्यादे
से ज्यादा लाभकारी कामों में खर्चने का हिमायती हूँ। इसलिए मैंने साथियों
का विरोध किया। जब देखा कि वे लोग नहीं मानते तो जिला कांग्रेस कमिटी का
आँफिस गाजीपुर शहर से हटाकर मुहम्मदाबाद (यूसूफपुर) में काजी निजामुलहक
साहब के बँगले पर लाया। वे उसके प्रेसिडेण्ट थे। जमींदार होते हुए भी
कांग्रेस के साथ बराबर रहे। शरीफ तो इतने बड़े कि कहिये मत।
प्रसिद्ध नेता डाँ. अंसारी का असली घर यूसूफपुर में ही था। काजी साहब के वे
दामाद भी थे। उनसे मेरी खूब पटती थी। वहीं रह के मैंने सोचा कि जो भी
पाँच-सात सौ रुपये हैं इन्हें खादी में लगा दूँ। नहीं तो खर्च होई जायेगे।
कांग्रेस का कोई और कार्यक्रम था भी नहीं। सिमरी में मैंने पहले से ही खादी
का काम शुरू कर दिया था। बस,
वही काम बढ़ाया और सब पैसे उसी में लगा दिये। असल में गाजीपुर में खादी का
कोई काम न होने से सिमरी में ही चालू करना पड़ा। वहाँ काम तो था ही। सिर्फ
विस्तार किया और खादी तैयार होने लगी। वहाँ रूई भी होती थी,
चर्खे भी चलते थे। अब खादी बुनी जाने भी लगी। लेकिन साथियों से तनातनी तो
चलती ही रही। असल में ऐसे झमेले तो मुझे बराबर ही करने पड़े हैं। खासकर
सार्वजनिक कोष को ही लेकर। आज भी उनसे पिण्ड नहीं छूटा हैं। आगे भी छूटने
की आशा नहीं दीखती।
मैं
1923
और
1924
में गाजीपुर में ही रहा और वहीं से युक्त प्रान्तीय कांग्रेस कमिटी और आल
इण्डिया कांग्रेस कमिटी का मेम्बर था। वहीं से अहमदाबाद वाली आल इण्डिया
कांग्रेस कमिटी की बैठक में गया था। इसका उल्लेख पहले हुआ हैं। आगे भी
होगा। उन दिनों गांधीजी का जोर था कि कांग्रेस के मेम्बर वही हों जो चार
आने के बजाये अपने हाथ का कता सूत दें। श्री पुरुषोत्तम दास टण्डन इसके
समर्थक थे। युक्त प्रान्तीय राजनीतिक सम्मेलन जो गोरखपुर में
1924
में हुआ उसमें उन्होंने इसे पास करवाना चाहा। मगर वहाँ के प्रमुख लीडर बाबा
राघव दास इसके विरोधी थे,
हालाँकि जेल में चर्खे के पीछे उनने बड़े झमेले किए कि चर्खा मिले। वे बराबर
कातते भी थे। पर ईधर उनकी धारा पलट गयी थी। टण्डन जी ने देखा कि मैं ही सूत
वाला,
जिसे
'यार्न
फ्रेंचाइज'
(yarn franchise)
कहते थे,
प्रस्ताव पेश करूँ तो ठीक हो। एक बाबा (संन्यासी)
ईधर
और दूसरे बाबा
उधर।
मैं बराबर तकली कातता भी था। वहाँ भी साथ ही थी। उनने मुझसे कहा कि वह
प्रस्ताव न लाइयेगा?
मैं तैयार हो गया और लाया। राघव दास जी ने
विरोध
किया। जिला भी उन्हीं का था फिर भी मेरा प्रस्ताव पास हो गया। इस पर कुछ
प्रेसवालों ने मुझे अलग ले जाकर मुझे
तकली कातते हुए का फोटो बलात
लिया।
उसी समय एक मजेदार घटना हो गयी। काशी के श्री शिवप्रसाद गुप्त ने मजाक में
कहा कि संन्यासी होकर यह क्या सूत की बात लाते हैं?
मैंने चट उत्तर दिया कि मैं अपना धर्म बखूबी जानता हूँ और आपका भी। आपसे
मुझे सीखना नहीं हैं। सभी हँस पड़े। वे चुप हो गये!
आखिरकार परिवर्तन और अपरिवर्तनवादियों का गृह-कलह किसी प्रकार
शान्त हो इसका रास्ता कोई न निकला। दास-नेहरू प्रयत्न जोरों से जारी था।
उधर श्री भगवान दास जी काशी वाले बराबर गांधीजी पर जोर देते रहे कि
स्वराज्य की परिभाषा कर डालिए,
नहीं तो खतरे हैं। मगर गांधीजी ने तब तक न सुना। तब उनने अपनी योजना तैयार
करके दास साहब को दी। उनकी पार्टी ने उसे पास भी कर लिया। फिर सोचा गया कि कांग्रेस में बिना
दो में एक पार्टी की जीत के शान्ति न होगी। सो भी दास साहब की ही पार्टी की
जीत से यह सम्भावना थी। अन्त में दिल्ली में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन
करके फैसले की बात तय पायी। मौलाना अबुल कलाम आजाद उसके अध्यक्ष चुने गये।
मैं भी उसमें शामिल था। बड़ी चहल-पहल थी।
मौलाना ने अपने भाषण में कौंसिल पक्ष का समर्थन किया। फिर क्या था,
दास साहब को विजय की आशा हुई। अन्त में गांधीजी ने दोनों दलों का समझौता
करा दिया। तय पाया कि कांग्रेस मैन चाहें तो कौंसिलों में जा सकते हैं या
लोगों को भेज सकते हैं। मगर यह काम कांग्रेस के नाम से नहीं होगा। फलत:
स्वराज्य-पार्टी के जन्म का सूत्रपात हुआ। उसी पार्टी की ओर से कौंसिल
चुनाव की लड़ाई आगे लड़ी गई। यहाँ यह कह दूँ कि मैं उस समय पक्का
अपरिवर्तनवादी था।
दिल्ली में यह जो दोनों दलों में समझौता हुआ वह दास-नेहरू के अधिक प्रयत्न
का फल था। वहीं मैंने देखा कि स्वराज्य पार्टी का काम जोरों से चलाने के
लिए दास साहब ने अंग्रेजी के नये फॉरवर्ड
(Forward)
नामक दैनिक
पत्र
का विज्ञापन आदि खूब बँटवाया। तभी से वह
पत्र
चालू हुआ। वही पीछे नाम बदल कर
'लिबर्टी और एडवांस' के रूप
में क्रमश: निकलता आया
हैं।
सरकार के आक्रमण के कारण नाम बदलने पड़े थे।
कलकत्ते के पं. श्यामसुन्दर चक्रवत्ती कट्टर अपरिवर्तनवादी थे। जब उन्होंने
दोनों दलों के समझौते की बात जानी तो अपने अंग्रेजी पत्र
(Servant)
में लिखा कि
श्री चित्तरंजन दास और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी में,
जो दो विरोधी
दलो
के नेता हैं, कौन-सी समानता
आ गयी, सिवाय इस बात के कि दोनों ही संक्षेप में
सी. आर.
(C.R.)
कहे जाते हैं?
फिर दोनों में कैसे समझौता हो गया?
बात तो ठीक ही थी।
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