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                बारहवाँ
                
                
                अध्याय 
              
               यह 
              तो पहले ही कह चुके हैं कि दसवें 
              अध्याय 
              में जिस योग का उल्लेख विभूति के साथ हुआ है वह विराट्दर्शन या 
              विश्वरूपदर्शन का ही दूसरा नाम है। इसे प्रमाणित भी किया जा चुका है। 
              यदि यह बात न होती तो जहाँ अन्य सभी 
              अध्यायों 
              की समाप्ति वाले वाक्य में 
              'सांख्ययोग:', 
              'कर्मयोग:' आदि लिख के 
              सांख्य, कर्म प्रभृति के साथ योग का 
              उल्लेख बराबर ही किया गया है, तहाँ केवल 
              इसी ग्यारहवें 
              अध्याय 
              में सिर्फ 'विश्वदर्शनं'
              इतना ही क्यों लिखा जाता  ?
              सभी प्रामाणिक भाष्यों एवं टीकाओं में यही पाया 
              जाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जब यह विश्वरूपदर्शन निर्विवाद 
              रूप से स्वयमेव योग है तो पुनरपि योग शब्द के नाहक पुनरुक्ति क्यों 
              करना ? जहाँ विवाद की गुंजाइश हो वहीं 
              उसका लिखा जाना ठीक था।  
              
                  
              इस प्रकार 
              विश्वरूपदर्शन की बात खत्म करके आगे बढ़ने की बात आती है। वहीं 
              तेरहवें अध्याय में पायी भी जाती है। वहाँ उन्हीं पदार्थों का 
              दार्शनिक ढंग से विश्लेषण तथा विवेचन किया है जिन्हें ग्यारहवें 
              अध्याय में दिखाया गया है। यह बात वहीं विशेष रूप से बतायेंगे और 
              दिखायेंगे कि मनन का सिलसिला क्यों नहीं टूटना चाहिए। बल्कि यह बात 
              तो पहले भी कही चुके हैं कि निदिध्यासन,
              
              समाधिया प्रयोगके बाद भी मनन की जरूरत होती ही है। नहीं तो सारी 
              बातें भूल हीजायँ और किया-कराया सब कुछ चौपट हो जाये। इसीलिए उससे 
              पूर्व का यह बारहवाँ अध्याय भी मनन के ही रूप में प्रसंग से आ गया 
              है। यह प्रसंग भी ग्यारहवें के अन्त के चार और खासकर आखिरी दो 
              श्लोकों के ही चलते आया है। इस प्रासंगिक बात को बीच में पूरा कर 
              लेना भी जरूरी था। तभी असली बात का सिलसिला ठीक-ठीक चल सकता था।
               
              
                  
              बात यों हुई 
              कि कृष्ण ने अपना साकार विराट् रूप दिखा के अर्जुन से साफ कह दिया कि 
              इसके जानने और देखने का कोई दूसरा उपाय नहीं है,
              सिवाय 
              इसके कि अनन्य-भक्ति की जाय। उनने यह भी कह दिया कि जो कुछ भी किया 
              जाय वह भगवदर्पण बुध्दि से ही। जब तक यह न होगा यह दर्शन असम्भव है। 
              यह ठीक है कि सिर्फ दर्शन हो के ही खत्म हो न जायगा। किन्तु दर्शक को 
              मुक्ति भी मिलेगी। फिर भी इस दर्शन के रास्ते मुक्ति तक पहुँचना 
              दुर्लभ चीज है। इससे अर्जुन के दिल में फौरन ही यह ख्याल होना जरूरी 
              था कि ऐं, 
              कृष्ण तो इसी 
              साकार की उपासना और भक्ति को यज्ञादि से भी बड़ी चीज मानते तथा इस 
              साकार दर्शन को दुर्लभ कहते हैं। मगर यहाँ तो बराबर ही देखा-सुना 
              जाता है कि निराकार ब्रह्म में ही विवेकी लोग दिन-रात लगे रहते हैं। 
              आखिर ऐसा क्यों होता है 
              ? यदि 
              यही उत्तम मार्ग है तो लोग उसमें क्यों पड़ते हैं 
               ? 
              यह भी नहीं कि 
              मामूली लोग ही उधर जाते हैं। नहीं,
              नहीं। 
              वह तो बड़े-बड़े अगड़धत्तों  और विवेकियों का ही मार्ग है। बल्कि 
              जनसाधारण के लिए तो वह दुर्लभ ही है। इसलिए यह तो मानना ही होगा कि 
              वह मार्ग भी उत्तम ही है। खुद कृष्ण ने भी तो पहले उस पर बहुत ही जोर 
              दिया है। फिर उत्तम क्यों न हो 
               ? 
              मगर अभी-अभी 
              इनने जो कुछ कह दिया उससे तो साकार की उपासना ही अच्छी साबित होती 
              है! यह तो अजीब घपला है! यह पहेली तो निराली है! 
              
                  
              इसीलिए उसने 
              चटपट कृष्ण से पूछ ही तो दिया कि बात क्या है 
               ? 
              रास्ते तो 
              दोनों आपके ही बताये हैं। इसीलिए अब साफ-साफ कहिए न,
              कि इन 
              दोनों में कौन अच्छा है 
               ? 
              इन दोनों पर 
              चलने वालों में जोई अच्छे और कुशल होंगे मैं उन्हीं को पसन्द करूँगा।
              'योगवित्तामा:'
              शब्द 
              देने का भी मतलब है। योग तो उपाय ही ठहरा,
              जिसे 
              मार्ग कहिए या रास्ता। इन दोनों मार्गों के जानकार और इन पर अमल करने 
              वाले लोग योगवित् हुए,
              यह भी 
              ठीक ही है। मगर दोनों में ज्यादा कुशल कौन हैं,
              अच्छे 
              कौन हैं, 
              योगवित्ताम 
              कौन हैं यही बता दीजिए तो काम चले,
              यही 
              आशय अर्जुन का है। दरअसल ग्यारहवें अध्याय के समूचे प्रसंग में अन्त 
              के वचनों को सुन के ही अर्जुन को एकाएक यह ख्याल हो आया और उसने 
              फौरन उसे जाहिर कर दिया। उसने बहुत ज्यादा इस बारे में सोचा-विचारा 
              नहीं। नहीं तो शायद उसे ऐसा पूछने की जरूरत होती ही नहीं। उसे 
              खुद-ब-खुद सन्तोष और समाधान हो जाता। 
              
                  
              क्योंकि छठे 
              अध्याय के बाद भी कृष्ण ने निराकार आत्मा में लगने तथा उसके अनन्य 
              चिन्तन की बात कही ही है। छठे अध्याय में या उससे पहले तो यह बात खूब 
              ही आयी है। सांख्ययोग तो दरअसल यही है भी और उसी से गीता का श्रीगणेश 
              हुआ है। ज्ञान का जो रूप पहले भी और खासकर चौथे तथा छठे अध्याय में 
              आया है वह कितना महत्तवपूर्ण है! उसकी प्राप्ति के लिए यत्न करने पर 
              भी कितना जोर दिया है! यही नहीं। यदि ग्यारहवें अध्याय के अन्तवाले 
              इन श्लोकों को ही देखें तो उनमें क्या लिखा है 
               ? 
              उनमें यह कहाँ 
              कहा गया है कि ज्ञानमार्ग या निराकार ब्रह्म की समाधि से भी यह साकार 
              चिन्तन या सगुण की भक्ति श्रेष्ठ है 
               ? 
              वहाँ तो इतना 
              ही कहा है कि वेद,
              तप,
              दान और 
              यज्ञ से भी यह दर्शन होने को नहीं। इसलिए अनन्य भक्ति करो। यह तो 
              नहीं कहा कि ज्ञान और समाधि से भी यह होने को नहीं। यदि वेद,
              तप,
              दान और 
              यज्ञ से इस उपासना को श्रेष्ठ बताया,
              तो 
              बुरा क्या किया ?
              यह तो 
              ठीक ही है। ये चारों तो बेकार हैं यदि इनके करते भगवान् में भक्ति न 
              हो। यह भी नहीं कि यज्ञ शब्द से ज्ञान भी लिया जाय। ऐसा करना तो दूर 
              की कौड़ी लाना हो जायगा। हम तो यह भी कह चुके हैं कि ग्यारहवें 
              अध्याय का यज्ञ शब्द ज्ञान को छोड़ के और यज्ञों को ही,
              और 
              आमतौर से प्रसिध्द यज्ञों को ही बताता है। जिस ज्ञान से इस भक्ति को 
              तरजीह देनी हो,
              जिससे 
              इसे श्रेष्ठ कहना हो उसी का नाम सीधे न लिया जाकर यज्ञ के रूप में ही 
              उसे ला के इसकी विशेषता बताई जाय,यह 
              निराली समझ का काम है। जब आगे बारहवें में स्पष्ट ही वही बात अर्जुन 
              कहता है, 
              तो कृष्ण को उससे पहले कहने में क्या हिचक हो सकती थी,
              यदि 
              उनका वही आशय होता 
               ? 
              
                  
              इसीलिए अगत्या 
              मानना ही होगा कि कृष्ण का ऐसा कोई आशय न था। नहीं तो साफ ही बोल 
              देते। सो भी तीसरे अध्याय में अर्जुन के यह कहने के बाद,
              कि 
              गोलमोल बातें कह के,
              ऐसा 
              लगता है कि आप मुझे घपले में डाल रहे हैं,
              कृष्ण 
              के लिए यह जरूरी हो गया था कि स्पष्ट कहें। उनने बराबर ऐसा ही किया 
              भी है। इसीलिए पुनरपि अर्जुन को यह इल्जाम लगाने का मौका नहीं मिल 
              सका है। मगर अगर ऐसा ही मानें,
              जैसा 
              कि कुछ लोग कहते हैं,
              तब तो 
              यहीं पर उस इल्जाम का सुन्दर मौका था और अर्जुन को वही कहना भी चाहता 
              था। लेकिन यह तो अर्जुन भी नहीं कहता है कि साकार उपासना को कृष्ण ने 
              श्रेष्ठ कहा है। वह तो इतना ही मानता है कि दोनों ही पर कृष्ण का जोर 
              काफी है। मगर ग्यारहवें अध्याय में प्रसंग साकार का ही है। इसीलिए 
              उसने खुद पूछा कि आया दोनों रास्ते बराबर ही हैं या इनमें कोई 
              श्रेष्ठ भी है। दोनों पर बराबर ही जोर देना उसे मालूम हुआ था जरूर। 
              फिर भी हरेक तो दोनों को कर नहीं सकता। इसलिए दोनों में एक को उसे 
              चुनना ही होगा। इसी से वह पूछता भी है कि कौन सा एक अच्छा है। 
               
              
                  
              अच्छा,
              मान 
              लें कि अर्जुन दोनों में किसी एक की विशेषता ठीक ही समझ न सका था। 
              इसीलिए तो उसने पूछा। फिर भी कृष्ण ने उत्तर में साकारोपासना को 
              उत्तम करार दे दिया। लेकिन यह भी अजीब बात है। ग्यारहवें अध्याय के 
              अन्त में साकार की बात सम्भव थी। उसी का तो वहाँ प्रसंग ही था। इसलिए 
              स्वभावत: अर्जुन का झुकाव उसी ओर होना था। ताहम निश्चय न कर सकने के 
              कारण ही उसने पूछ दिया। इतना तो मानना ही होगा। किन्तु जरा यह भी तो 
              सोचें कि आखिर वह पूछता ही क्या है। यही न,
              कि 
              दोनों में योगवित्ताम कौन हैं 
               ? 
              और योग का 
              अर्थ 'समत्वं 
              योग उच्यते'
              तो हो 
              नहीं सकता। क्योंकि उसमें छोटे-बड़े का क्या प्रश्न,
              
              उत्तम-मध्यम की क्या बात 
               ? 
              वह तो एक ही 
              तरह का होता ही है। और दोनों ही योगी हों यह तो गैरमुमकिन भी है। योग 
              के मूल में तो आत्मदर्शन है न 
               ? 
              वह साकारोपासक 
              को होगा ही कैसे 
              ? तब 
              तो यह उपासना ही बेकार होगी। इसलिए यहाँ योग का अर्थ उपाय,
              रास्ता 
              या मार्ग ही मानना होगा। हम तो कही चुके हैंकि योग का उपाय अर्थ भी 
              होता ही है। अर्जुन के पूछने का तो केवल इतना ही आशय है कि कल्याण का 
              मार्ग जानते हैं तो दोनों ही। मगर उन जानने वालों मेंकुशल कौन है 
              ? 
              
                  
              असल में मार्ग 
              तो सबके लिए एक होता नहीं। वह तो योग्यता या अधिकार के हिसाब से ही 
              जुदा-जुदा होता है। मार्ग जानने वाले की कुशलता का भी यही मतलब होता 
              है कि जिसे जिसके योग्य समझे उसे वही बताये;
              न कि 
              सब धान पूरे बाईस पंसेरी ही तौलने लगे। तब तो अनर्थ ही होगा। किसी के 
              लिए उसकी योग्यता के अनुसार जो मार्ग सर्वोत्तम हो सकता है वही दूसरे 
              के लिए बेकार या हानिकारक भी हो सकता है। इसीलिए चतुर उपदेशक और 
              जानकार की जरूरत होती है। अर्जुन के पूछने का यही आशय है। कृष्ण ने 
              उत्तर भी इसी दृष्टि से दिया है। जनसाधारण के लिए तो साकारोपासना ही 
              श्रेष्ठ है। कारण,
              
              निराकार की बात उनकी पहुँच के बाहर ही ठहरी। जंगल में फल पके भी तो 
              गाँववालों के किस काम के 
               ? 
              
                  
              कृष्ण के 
              उत्तर का यही आशय है कि जनसाधारण को वहीं से शुरू करना होगा। उनके 
              लिए वही श्रेष्ठ है,
              
              सर्वोपरि है। निराकार वाले तो बिरले ही होते हैं। उस दशामेंतोलोग 
              अपने आप पहुँच भी जाते हैं। इसलिए उस पर जोर देने की अपेक्षा इसी 
              परजोर देनाउचित भी है। जनसाधारण की,
              आम 
              लोगों की ही बात जो ठहरी। इसीलिए यदि ज्ञान-मार्गसेइसे उत्तम कहा है 
              तो उसका ऊपर लिखा आशय समझ लेने से भ्रम न होगा। इसी बात कोअर्थवाद की 
              रीति, 
              प्ररोचना या 
              प्रशंसा भी कहते हैं। क्योंकि ऐसा करने से ही जनसाधारण इसतरफ 
              झुकेंगे।  
              
              यही आशय मन 
              में रख के- 
              
              अर्जुन 
              उवाच 
              
              एवं 
              सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते। 
              
              ये 
              चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमा:॥1॥ 
              
                  
              अर्जुन ने 
              पूछा (कि) इस तरह निरन्तर भगवान् में लगे हुए जो लोग तुम्हारी-भगवान् 
              की-साकार-उपासना करते हैं। और-जो अविनाशी,
              
              निराकार या अक्षरब्रह्म में लगे रहते हैं,
              इन 
              उपाय जानने और करने वालों में सबसे चतुर कौन हैं 
              ?।1। 
              
              
              श्रीभगवानुवाच 
              
              
              मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। 
              
              
              श्रध्दया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता:॥2॥ 
              
                  
              श्रीभगवान् ने 
              उत्तर दिया (कि) मुझ (साकार भगवान) में मन को जुटाके निरन्तर उसी में 
              पूर्ण श्रध्दा के साथ लगे हुए जो लोग उपासना करते हैं,
              मेरे 
              जानते वही अत्यन्त कुशल जानकार हैं।2। 
              
              ये 
              त्वक्षरमनिर्देश्य: मव्यक्तं पर्युपासते। 
              
              सर्वत्रगमचिन्त्यं 
              च कूटस्थमचलं धारुवम्॥3॥ 
              
              
              संनियम्येन्द्रियग्रामं 
              सर्वत्र 
              समबुध्दय:। 
              
              ते 
              प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहितेरता:॥4॥ 
              
              क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्त 
              चेतसाम्। 
              
              
              अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवदिभरवाप्यते॥5॥ 
              
                  
              विपरीत इनके 
              जो सर्वत्र समदर्शी लोग सभी इन्द्रियों को काबू में करके अक्षर,
              न 
              बताये जा सकने वाले,
              अदृश्य 
              सर्वव्यापी,
              चिन्तन 
              के अयोग्य,
              
              निर्विकार एकरस,
              
              क्रियाशून्य और स्थिर (ब्रह्म) की पूर्ण उपासना या समाधि करते हैं,
              समस्त 
              संसार के हित में लगे हुए वे लोग 
              (भी) 
              मुझ भगवान् को ही प्राप्त करते हैं (सही)। (मगर) निराकार में जिनके 
              चित्त चिपक चुके हैं। ऐसे लोगों को (पहले) दिक्कतें बहुत ज्यादा 
              (होती हैं)। क्योंकि शरीरधारियों के लिए अव्यक्त में जा लगना असम्भव 
              सा ही होता है। 3।4।5। 
              
                  
              यहाँ एकाध 
              बातें विचारणीय हैं। इन श्लोकों में उन्हीं समदर्शियों का वर्णन है 
              जिनका 'विद्याविनयसम्पन्ने' 
              (5।18-21)
              में 
              पाया जाता है। इसीलिए उनके बारे में, 
              'उपासते'
              के 
              पहले 'परि'
              लगा के 
              पूर्ण उपासना या समाधि के ही रूप में उनकी स्थिति का वर्णन किया है। 
              पाँचवें श्लोक में 
              'अव्यक्तासक्तचेतसाम्'
              में जो
              'आसक्त'
              पद आया 
              है उससे भी यही सिध्द हो जाता है कि वे समाधि की पूर्णावस्था वाले ही 
              हैं। ऐसी दशा में जो अन्त में कहा है कि अव्यक्त में लगन का होना 
              शरीरधारियों के लिए असम्भव सा ही है उसका यह मतलब हर्गिज नहीं है कि 
              ऐसे लोगों को कोई कष्ट होता है। वे तो पहुँचे हुए हईं। उन्हें क्या 
              दिक्कत होगी  ?
              वे तो 
              दिक्कतें पार कर गये हैं। शायद 
              'दु:खं'
              पद को 
              देख के लोग ऐसा आशय निकालना चाहते हैं। वे इसमें इससे पहले के 
              'क्लेशोऽधिकतर:'
              से भी 
              सहायता लेते हैं। मगर यह क्लेश तो उस दशा में पहुँचने से पहले का ही 
              है। वहाँ पहुँच के कैसा क्लेश 
               ? 
              कहने का आशय 
              यही है कि बहुत ही ज्यादा दिक्कत से बिरला कोई उस दशा में पहुँच पाता 
              है। इसीलिए वह असम्भव या अप्राप्यसी ही वस्तु है। 
              'दु:खं'
              विशेषण 
              जब क्रिया में लगता है तो उसका कष्ट अर्थ नहीं होता,
              किन्तु 
              सब मिला के 'प्राय: 
              असम्भव' 
              यही अर्थ हो 
              जाता है। यह बहुत ही मार्के की बात है। किन्तु इधर ध्यान न देके लोग 
              ऊल-जलूल अर्थ कर बैठते हैं। हाँ,
              इस 
              अर्थ से यह सिध्द होता है जरूर कि वह मार्ग बहुत ही कष्टसाध्य है। 
              कृष्ण का यही आशय है। ऊँचे दर्जे की बात ठहरी और वह जनसाधारण के लिए 
              असम्भव सी हो तो ठीक ही है।  
              
                  
              दूसरी बात
              'सर्वभूतहितेरता:'
              की है। 
              इसके पहले भी एक बार (5।25 
              में) आत्मज्ञानियों के ही सम्बन्ध में यह शब्द आया है। इसका अर्थ है
              'सभी 
              पदार्थों के हित में लगे हुए'।
              'सर्वभूतात्मभूतात्मा' 
              (5।7)
              भी 
              उन्हीं को कहा गया है,
              जिसका 
              अर्थ है कि सभी पदार्थों की आत्मा ही उनकी आत्मा बन गयी है। इन दोनों 
              के मिला देने पर इसका आशय यही हो जाता है कि सर्वत्र वे अपनी ही 
              आत्मा देखते हैं। इसीलिए सभी के हितसाधन,
              भलाई 
              या कल्याण ही में संलग्न रहते हैं। नीति का इससे उत्तम और व्यापक 
              सिध्दान्त होई नहीं सकता। इस पर अधिक विवाद करने की गुंजाइश यहाँ 
              नहीं है। इसीलिए इसका विशद विवेचन आगे के लिए छोड़ देते हैं। मगर इतना 
              तो कहना ही पड़ता है कि जो लोग 
              ''अधिकांश 
              लोगों के अधिक से अधिक हित''
              (The greatest good of the 
              greatest number) 
              वाला 
              सिध्दान्त हीर् 
              कर्तव्यर्कत्ताव्य 
              का निर्णायक तथा पथदर्शक मानते हैं उनसे गीता सहमत नहीं है। यह तो 
              सभी पदार्थों के हित को ही अपना पथदर्शक मानती है। केवल स्वार्थ,
              दूरदर्शी स्वार्थ और उच्च स्वार्थ की गोलमाल 
              बातों की तो यहाँ पूछ भी नहीं है। गीता तो मनुष्यों के हित से भी आगे 
              जा के सभी प्राणियों तक पहुँचती है और उन्हें भी अपना के आगे बढ़ने पर 
              सभी पदार्थों के हित को ही देखती है। क्योंकि करने वाले की आत्मा तो 
              कहीं सीमित न हो 
              के अपरिमित है। फलत: सभी पदार्थों को अपने गोद में रख लेती है।
               
              
                  
              गीता के इस 
              महान् मन्तव्य के निकट केवल माक्र्स का ही सिध्दान्त पहुँच पाता है। 
              क्योंकि माक्र्स तो समूचे समाज का ही आमूल परिवर्तन करके उसका 
              पुनख्रनर्माण चाहता है जिससे किसी एक को भी किसी प्रकार की असुविधा 
              जरा भी न रह जाय। प्रकृति,
              
              रोगव्याधि तथा मृत्यु आदि पर भी विजय प्राप्त की जा सके। सभी तरह की 
              बीमारियों,
              
              प्राकृतिक उपद्रवों,
              
              युध्दों और संघर्षों पर मानव-समाज का ऐसा आधिपत्य हो जाय कि ये जड़मूल 
              से मिट जायँ और अखण्ड शान्ति सर्वत्र विराजने लगे। यदि मानव-समाज को 
              आराम दे सकें भी तो प्राकृतिक उपद्रवों,
              रोगों 
              और युध्दों से मनुष्यों,
              
              पशु-पक्षियों और जमीन,
              पहाड़,
              घर-बार 
              वगैरह का संहार होता ही रहेगा। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि सभी 
              भूतों का हित हो गया 
               ? 
              सभी भूतों के 
              हितों का साधन किया जा रहा है 
               ? 
              इन उपद्रवों 
              को निर्मूल करने में जब तक सफलता न मिले तब तक यह बात कही जा सकती 
              नहीं। इसलिए उस सफलता के लिए जो लोग दत्तचित्त हैं और समाज को नये 
              साँचे में ढालना चाहते हैं सचमुच वही 
              'सर्वभूतहितेरता:'
              कहे जा 
              सकते हैं। या नहीं,
              तो 
              ऐसों के निकटवर्ती तो वे अवश्य ही माने जा सकते हैं। उनमें तथा 
              सर्वभूतहितेरतों में बहुत ही कम अन्तर रह जायगा।  
              
              ऐ तु 
              सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा:। 
              
              
              अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥6॥ 
              
              तेषामहं 
              समुध्दत्तर् मृत्युसंसारसागरात्। 
              
              भवामि 
              नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥7॥ 
              
                  
              हे पार्थ, 
              (इनके 
              विपरीत) जो लोग सभी कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ (साकार भगवान्) 
              को ही सबसे बढ़ के मानते हुए तथा अनन्यभाव से मेरा ध्यान करते हुए 
              मेरी उपासना करते हैं,
              मुझी 
              में अपने चित्त को चिपका देने वाले ऐसे लोगों का (इस जन्म) मरण रूपी 
              संसार-सागर से जल्द ही उध्दार कर देता हूँ।6।7। 
              
              मय्येव 
              मन आधात्स्व मयि बुध्दिं निवेशय। 
              
              
              निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय:॥8॥ 
              
              
                  (इसलिए) 
              मुझी में मन जोड़ दे (और) बुध्दि को भी मुझी में लगा दे। (परिणाम यह 
              होगा कि) इसके-मरने के-बाद या इतना कर लेने पर बेशक तू मुझमें ही 
              निवास करेगा-मेरा ही स्वरूप हो जायगा।8। 
              
              अथ 
              चित्तां समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्। 
              
              
              अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं 
              धनंजय॥9॥ 
              
                  
              लेकिन यदि,
              हे 
              धनंजय, 
              मुझमें चित्त 
              को निश्चल रूप से लगा नहीं सकता,
              तो (इस 
              बात के) अभ्यासरूपी उपाय से ही मुझे (क्रमश:) प्राप्त करने का संकल्प 
              कर ले।9। 
              
                  
              यहाँ 
              'आप्तुं 
              इच्छ'-'पाने 
              की इच्छा कर ले'
              का ही 
              अभिप्राय हमने 'संकल्प 
              कर ले' 
              लिखा है और 
              यही उचित भी है। इच्छा मात्र से तो कुछ होता जाता नहीं,
              जब तक 
              संकल्प न कर लें।  
              
              
              अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।  
              
              
              मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिध्दिमवाप्स्यसि॥10॥
               
              
                  (और 
              अगर) अभ्यास भी न कर सके तो मदर्थ कर्म करने में ही लग जा। (क्योंकि) 
              मदर्थ कर्मों को करते हुए भी (धीरे-धीरे) इष्टसिध्दि प्राप्त कर ही 
              लेगा।10। 
              
              
              अथैतदप्यशक्तोऽसि कत्तर मद्योगमाश्रित:। 
              
              
              सर्वकर्मफलत्यागं तत: कुरु यतात्मवान्॥11॥ 
              
                  
              लेकिन यदि 
              मुझे ही अर्पण करते हुए यह करने में भी असमर्थ हो तो मन पर अंकुश 
              रखके सभी कर्मों के फलों की परवाह छोड़ दे।11। 
              
                  
              आगे बढ़ने के 
              पूर्व यहाँ कुछ विचार कर लेना जरूरी है। 
              6, 7 
              श्लोकों में जो बातें कही गयी हैं उन्हीं का उपसंहार आठवें में है। न 
              कि कोई नयी बात। यही है साकार भगवान् की अनन्य भक्ति,
              जिसका 
              उल्लेख ग्यारहवें अध्याय के अन्त में आया है और बारहवें के शुरू में 
              जिसके बारे में ही प्रश्न हुआ है। मगर यह पूर्ण भक्ति है,
              उसकी 
              आखिरी निष्ठा या स्थिति है। यह भी तो कही चुके हैं कि ग्यारहवें के 
              अन्तिम श्लोक में जो कुछ कहा गया है वह पूर्ण भक्ति ही न हो के पहले 
              की सीढ़ियाँ भी उसी में आ गयी हैं,
              
              हालाँकि उनका इतना स्पष्ट वर्णन होना वहाँ असभव था। अतएव प्रश्न के 
              बाद उनकी स्पष्टता अपने आप यहाँ हो जाती है और बाद के तीन (9-11)
              श्लोक 
              यही काम करते हैं। इनमें 
              9वाँ 
              पहली बात कहता है कि यदि पूर्ण भक्ति की दशावाला मन न हो पाया हो और 
              इधर-उधर दौड़ता हो तो अभ्यास ही उसे काबू में करने का उपाय है। इस 
              अभ्यास की बात पहले खूब ही आ चुकी है। लेकिन यदि वह बहुत ही गन्दा हो 
              और इतना चंचल हो कि अभ्यास भी न हो सके,
              तो 
              दसवें श्लोक में बाद की सीढ़ी के रूप में कहा गया है कि 
              'यत्करोषि' 
              (9।27)
              के 
              अनुसार भगवदर्पण बुध्दि से कर्म ही करते जाओ। फिर तो समय पा के 
              अभ्यास को योग्यता आई जाएगी। किन्तु यदि दुर्भाग्य से यह भी न हो 
              सकने वाला हो और मन अत्यन्त पतित हो,
              तो 
              आखिरी बात यह है कि सभी भले-बुरे कर्मों के फलों को ही भगवान् के 
              अर्पण करके बेफिक्र बन जाओ। यही बात ग्यारहवें श्लोक में है। यदि 
              ग्यारहवें अध्याय के अन्तिम श्लोक के 
              'मत्कर्मकृन्मत्परम:'
              का 
              यहाँ के दसवें के 
              'मत्कर्मपरम:'
              से 
              मिलान करें तो पता चल जायगा कि उस श्लोक में इन सीढ़ियों का समावेश 
              जरूर है। इस प्रकार मन की निरन्तर साकार भगवान् में जोड़ देने की 
              पूर्ण भक्ति के नीचे क्रमश: तीन सीढ़ियाँ हैं-अभ्यास,
              
              भगवदर्पण कर्म और कर्मफलों को ही भगवदर्पण करना। यही कारण है कि इन 
              श्लोकों में क्रमसूचक पद न रहने पर भी हमने वैसा ही अर्थ किया है।
               
              
                  
              ये तीनों 
              क्रमश: नीचे की सीढ़ियाँ कैसे हैं यह जान लेना भी जरूरी है। यह तो 
              मोटी बात है कि उधर से हटने पर बार-बार मन को खींच के लगाना ही होगा। 
              दूसरा रास्ता हुई नहीं। इसे सभी लोग यों ही समझ भी सकते हैं। मगर जब 
              मन इतना गन्दा हो कि भगवान् की ओर बिलकुल जाये ही नहीं,
              तो 
              अभ्यास क्या करेंगे खाक 
               ? 
              वज्र की धरती 
              को मामूली कुदाल से खोद के उधर ही पानी बहाने का यत्न जिस तरह बेकार 
              होता है वैसा ही यह भी है। कुदाल से तो वज्र कटे-टूटेगा ही नहीं उलटे 
              कुदाल ही टूटेगी और परिश्रम बेकार होगा। फिर भी वैसी दशा में 
              क्रियाओं में तो मन जायेगा ही। फिर चाहे भली में जाये या बुरी में। 
              अतएव अब यह कर सकते हैं कि उन सभी क्रियाओं को,
              कर्मों 
              को ही भगवदर्पण करें और इस प्रकार कर्मों के द्वारा ही मन को वहाँ तक 
              पहुँचाने का यत्न करें;
              यदि 
              सीधे नहीं जाता है। और अगर यहाँ भी वह चारों पाँव चित हो के वैसा 
              करने से इन्कार करे तो 
               ? 
              ठीक भी है। 
              कर्मों के करने में पहले से ही ऐसा ख्याल हो जाना कि यह भगवान् की 
              पूजा है, 
              आसान नहीं है। 
              सो भी जब मन बहुत ही पापी और पतित है। कर्मों के कर लेने पर तो यह 
              बात होई नहीं सकती। क्योंकि तब तो उन पर हमारा कोई अधिकार रही नहीं 
              जाता। वे तो हाथ से छूटे हुए तीर हो गए। फलत: कर्मों के पहले या उनकी 
              दौरान में भी यह ख्याल होना प्राय: असम्भव है। इसलिए अन्त में यही 
              बताया है कि फलों को ही भगवान् के समर्पण करो। असल में कर्म करने के 
              पहले तो जोश रहता है। इसीलिए कुछ भी सूझता ही नहीं। मगर कर चुकने पर 
              ठण्डक होती है और पश्चात्ताप होने लगता है कि उफ,
              ठीक 
              नहीं किया। यह भी आम बात है कि पतित मन वाले ज्यादातर बुरे ही कर्म 
              करते हैं। इसलिए पीछे दिमाग दुरुस्त होने पर सोच लिया कि चलो इनके 
              फलों को ही भगवान् को समर्पित करें। इस तरह भले फल तो शायद ही थे जो 
              गये, 
              मगर बुरे तो 
              प्राय: सभी थे और सभी गये-खत्म हो गये। इसी आशय से 
              'सर्वकर्म 
              फलत्यागं' 
              कहा है। सर्व 
              कहने से बुरे-भले सभी आ जाते हैं। इस प्रकार चक्कर काट के फल और कर्म 
              के द्वारा मन को वहाँ तक पहुँचाते हैं। यही अन्तिम सीढ़ी है। 
               
              
                  
              कहते हैं कि 
              किसी वेश्या का कोई नौकर था। वह प्रतिदिन सुन्दर-सुन्दर फूल उसके लिए 
              चुन लाता था। एक दिन रास्ते में फूल लिए आ रहा था। अकस्मात् उनमें 
              दो-एक फूल नीचे गिर पड़े। उसने जो उन्हें उठाने की कोशिश की तो देखा 
              कि फूल विष्ठा पर ही जा पड़े हैं। अब तो विवश था और कलेजा मसोसकर रह 
              गया। फिर कुछ सोच के बोला, 
              'विष्णवे 
              स्वाहा'। 
              कभी सुना था कि विष्णु को अर्पण करने से पुण्य होता है। उसने जब कोई 
              उपाय न देखा तो हार के पुण्य ही लूटना चाहा। कहानी तो बताती है कि 
              उसी के करते उस पतित को भी बैकुण्ठ का दर्शन मिला। मगर हमें उससे 
              मतलब नहीं है। हमें तो यहाँ इतना ही कहना है कि वेश्या के नौकर की ही 
              तरह पीछे हार के कर्मों के फलों को भगवान् के अर्पण किया जा सकता है। 
              यह कोई असम्भव बात नहीं है। हाँ,
              है यह 
              सबसे नीचे की,
              छोटी 
              और आखिरी बात। 
              
                  
              अब हमें 
              प्रसंगवश उन लोगों से एक प्रश्न करना है जो साकार भगवान् की भक्ति को 
              ही दरअसल सबसे बड़ी चीज गीता के मत से बताने पर तुले बैठे हैं। हमने 
              गीता के ही श्लोकों के आधार पर,
              जो इसी 
              अध्याय के इसी मौके के ही हैं,
              कम से 
              कम चार प्रकार की भक्तियों को दिखाया है। इन्हें तो वह भी मानेंगे 
              ही। क्योंकि यह तो हमारी अपनी मनगढ़न्त चीजें हैं नहीं। तो अब वही 
              बतायें कि इनमें कौन सी भक्ति सबसे ऊँची है जिसका ढिंढोरा गीता ने 
              पीटा है  ?
              ज्ञान 
              और समाधि की अपेक्षा जो ऊँची चीज उन्हें जँचती है वह इनमें कौन सी है
               ? 
              चारों तो हो 
              नहीं सकती हैं। और अगर चारों ही हों,
              तो गजब 
              होगा। क्योंकि सांख्य,
              ज्ञान 
              या समाधि की अपेक्षा उस आखिरी भक्ति को भी श्रेष्ठ ठहराने की हिम्मत 
              जिसे हो वह सचमुच बहादुर है,
              दिलेर 
              है! अगर यह कहा जाये कि सबसे ऊपर वाली श्रेष्ठ है तो क्यों 
               ? 
              गीता ने तो 
              सबों को ही एक ही सिलसिले में गिनाया है। यह भी तो नहीं कहा है कि 
              इनमें फलाँ से ही हमारा आशय है।  
              
                  
              लेकिन अगर 
              हमारी कही बात मानी जाए तब तो वस्तुस्थिति का सवाल होता ही नहीं। तब 
              तो मार्ग का सवाल ही रहता है और अधिकारियों के हिसाब से ये चारों ही 
              अच्छी हैं-जो जिसके योग्य हो,
              जिसका 
              अधिकारी हो वह उसे ही करे। क्योंकि जनसाधारण के अनुकूल चारों ही हैं। 
              इनमें भी जो सबसे नीचे की है वही सबसे ज्यादा लोगों के लिए सम्भव 
              होने से उस दृष्टि से वही सबसे श्रेष्ठ है,
              इस 
              कहने में कोई हर्ज नहीं है। क्योंकि वह ज्ञान की जगह लेने या सचमुच 
              उससे भी ऊँचा दर्जा लेने तो जाती नहीं। यहाँ तो काम चलाने की ही बात 
              है।  
              
                  
              इसी अभिप्राय 
              से आगे का-12वाँ-श्लोक 
              भी इस मौके पर ठीक-ठीक आ बैठता है। यों तो इस श्लोक की बड़ी फजीती की 
              गयी है। हरेक टीकाकार ने अपने ही ख्याल के अनुसार इसे बुरी तरह 
              घसीटा है। किन्तु हमारे जानते जो इसका सीधा-सादा अर्थ है वह यों है। 
              फलत्याग के द्वारा  मन को थोड़ी सी शान्ति और थोड़ा सा चैन मिलना शुरू 
              हो जाता है। जो धीरे-धीरे बढ़ता जाता है। असल में जोश में आ के नासमझ 
              लोग जितनी मुश्तैदी से भले-बुरे काम कर बैठते हैं,
              पीछे 
              जोश ठण्डा होने पर उतनी ही ज्यादा उन्हें बेचैनी और घबराहट होती है,
              
              अशान्ति होती है। क्योंकि उन कर्मों के भयंकर परिणाम ऑंखों के सामने 
              नाचने जो लगते हैं। मगर ज्योंही उनने यह समझा कि फल तो भगवदर्पण हो 
              गये, 
              कि उन्हें 
              खामख्वाह चैन और शान्ति की प्राप्ति फौरन ही हुई। यह स्वाभाविक बात 
              है। चाहे पीछे कुछ हो,
              मगर 
              तत्काल मन की घबराहट और उसका उद्वेग तो जाता रहा। और एक बार ऐसा होते 
              ही उनने जो इसका तत्काल मजा चख लिया तो फिर यही बात रह-रह के करने 
              लगे। इस तरह उलटे धक्के से मन की शान्ति होते-होते ध्यान की योग्यता 
              होती है। फिर यह ध्यान चाहे सीधे भगवान् में मन लगा के हो,
              या 
              भगवदर्पण बुध्दि से कर्म करके हो। यह तो आदमी की दशा और योग्यता पर 
              ही निर्भर करता है। इसलिए ध्यान के भीतर भगवदर्थक कर्म भी आ गया। 
              क्योंकि उसके द्वारा  भी मन की एकाग्रता ही तो होती है। हाँ,
              सीधे 
              ही तो और अच्छी बात हो। इस तरह जब एकाग्रता हुई और ध्यान का रास्ता 
              खुला, 
              तो जो बात 
              पहले दिल में बैठती ही न थी वह भी बैठने लगी। अनन्य भावना से भगवान् 
              की भक्ति करें,
              चाहे 
              निराकार की हो,
              या 
              साकार की-निराकारवाली को ही आत्मदर्शन या समदर्शन भी कहते हैं-यह बात 
              पहले तो दिल में बैठती ही न थी। मगर अब मन पर काबू होने से बैठी। यही 
              है ज्ञान। इसके बाद ही फौरन अभ्यास की सीढ़ी आ जाती है। क्योंकि यह 
              ज्ञान होते ही एकाएक मन पूर्ण स्थिर तो हो जायगा नहीं। अतएव अभ्यास 
              तो करना ही होगा। इस प्रकार अभ्यास करते-करते अनन्य भक्ति आप ही हो 
              जायगी। यदि साकार में मन टिकाने का अभ्यास होगा तो उसकी नहीं तो 
              निराकार की ही। 
              
                  
              इस प्रकार 
              देखने से पता चल गया कि अभ्यास से ज्ञान,
              ज्ञान 
              से ध्यान और ध्यान से भी कर्मों के फलों के त्याग को जो बड़ा या 
              अच्छा बनाया है वह केवल इसीलिए कि वह क्रमश: नीचे की ही सीढ़ियाँ हैं। 
              फलत: आम लोगों के काम की चीजें वही हैं। न कि सचमुच ही उनका दर्जा 
              ऊँचा है। ऐसा मानना तो निरा पागलपन ही न हो के इससे पूर्व के श्लोकों 
              के उलटा जाना भी हो जायगा। हाँ,
              हमने 
              जो कुछ कहा है उसे मानने में ही यह बात न होगी। इसी के साथ 
              10वें 
              श्लोक में  'क्योंकि'
              के 
              अर्थ में जो 'हि'
              आया है 
              वह भी दुरुस्त सिध्द होगा। क्योंकि हमारे रास्ते से तो 
              12वाँ 
              पहले के तीन श्लोकों की ही बातों की पुष्टि करता है न 
               ? 'त्यागाच्छान्तिरन्नतरम्'- 
              'त्याग 
              के अनन्तर ही शान्ति'
              यह भी 
              हमारे अर्थ में ठीक-ठीक लग जाता है। इतना ही नहीं। अभ्यास के बाद 
              निराकार और साकार दोनों की ही अनन्य भक्ति हो सकती है,
              हमारे 
              इस कथन का 12वें 
              के बाद वाले श्लोकों से भी पूरा सम्बन्ध जुट जाता है। क्योंकि उनमें 
              जिस दशा का और जिस समदर्शन का विवरण 
              13 
              से 
              19 
              तक के श्लोकों 
              में है उसमें और 
              'विद्याविनयसम्पन्ने' 
              (5।18-21)
              वाले 
              समदर्शन में जरा भी अन्तर नहीं है। 
              'विद्याविनय'
              वाला 
              आत्मज्ञानी का ही है यह तो सभी मानते हैं। इसलिए यहाँ भी उसी को 
              मानने में कोई उज्र नहीं हो सकता है। साकार भक्ति का भी पर्यवसान उसी 
              में है; 
              क्योंकि उस 
              समदर्शन के बिना तो मोक्ष होई नहीं सकता। यही कारण है कि स्थितप्रज्ञ,
              भक्त 
              और गुणातीत-तीनों ही-के वर्णन एक से ही हैं।  
              
              श्रेयो 
              हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाध्दयानं विशिष्यते। 
              
              
              ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥12॥ 
              
                  
              क्योंकि 
              अभ्यास से अच्छा-काम का-तो ज्ञान है,
              ज्ञान 
              से भी अच्छा ध्यान है (और) ध्यान से भी अच्छा-कारगर-है कर्मों के 
              फलों का त्याग। (क्योंकि इस) त्याग से फौरन ही शान्ति मिलती है॥12॥ 
              
              
              अद्वेष्टासर्वभूतानांमैत्रा:करुणएवच। 
              
              
              निर्ममोनिरहंकार:समदु:खसुख:क्षमी॥13॥ 
              
              
              सन्तुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चय:। 
              
              
              मय्यर्पितमनोबुध्दिर्यो मे मद्भक्त: स मे प्रिय:॥14॥ 
              
                  
              हमारा जो योगी 
              भक्त किसी पदार्थ से द्वेष न करे,
              सबके 
              साथ मैत्री और करुणा का भाव रखे,
              ममता 
              और अहन्ता-माया-ममता-से रहित हो,
              सुख और 
              दु:ख में एक रस रहे,
              
              क्षमाशील हो,
              बराबर 
              सन्तुष्ट रहे,
              मन को 
              काबू में रखे,
              दृढ़ 
              निश्चयवाला हो और मन एवं बुध्दि को हममें ही जिसने अर्पित 
              कर-बाँध-दिया हो वही हमारा प्रिय है।13।14। 
              
              
              यस्मान्नीद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:। 
              
              
              हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय:॥15॥ 
              
                  
              जिससे न तो 
              लोग (किसी भी तरह) उद्विग्न हों,
              जो 
              लोगों से भी उद्विग्न न हो सके और जो हर्ष,
              क्रोध,
              भय और 
              उद्वेग-घबराहट या परेशानी-(इन सबों) से रहित हो वही मेरा प्रिय है।15। 
              
              
              अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष  उदासीनो गतव्यथ:। 
              
              
              सर्वारंभपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥16॥ 
              
                  
              जो मेरा भक्त 
              बेफिक्र या बेपरवाह,
              पवित्र,
              चतुर 
              (और) पक्षपात रहित (हो),
              जिसमें 
              भय या परेशानी न हो (और) जो सभी प्रकार के संकल्पों से सर्वथा रहित 
              हो वही मेरा प्रिय है।16। 
              
              यो न 
              हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति। 
              
              
              शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय:॥17॥ 
              
                  
              जिस भक्त को न 
              तो किसी चीज से खुशी हो और न रंजिश,
              जिसे न 
              तोकोई चिन्ता हो न आकांक्षा और जो बुरे-भले सभी से नाता तोड़ चुका हो 
              वही मेरा प्रियहै।17। 
              
              सम: 
              शत्रौ 
              च मित्रो च तथा मानापमानयो:। 
              
              
              शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: संगविवर्जित:॥18॥ 
              
              
              तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्। 
              
              अनिकेत: 
              स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर:॥19॥ 
              
                  
              जो शत्रु और 
              मित्र में सम है-जिसके शत्रु-मित्र हुई नहीं,
              
              मान-अपमान में भी जो सम है-विचलित नहीं होता,
              
              शीत-उष्ण, 
              सुख-दु:खादि 
              में भी जो एक ही तरह रहे,
              जिसे 
              कहीं भी आसक्ति न हो,
              निन्दा 
              और स्तुति जिसके लिए एक सी हों,
              जिसकी 
              जबान काबू में हो, 
              (आवश्यकता 
              होने पर कामचलाऊ) जोई मिल जाये उसी से जो संतुष्ट हो जाए,
              जिसका 
              कोई घरबार न हो और जो अचल बुध्दिवाला हो,
              वही 
              मनुष्य मेरा प्रिय है।18।19। 
              
              ये तु 
              धार्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते। 
              
              श्रद्दधाना 
              मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया:॥20॥ 
              
                  
              जो भक्तजन 
              मेरी ऊपर बताई इन धर्मयुक्त (एवं) अमृततुल्य बातों के अनुसार 
              श्रध्दापूर्वक चलते और मेरे सिवाय अन्य किसी की परवाह नहीं करते वह 
              मेरे अत्यन्त प्रिय हैं।20। 
              
                  
              यहाँ 
              13वें 
              श्लोक में जो मैत्र और करुण शब्द हैं वह 
              ''मैत्री 
              करुणामुदितोपेक्षाणां सुखदु:खपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्ता 
              प्रसादनम्'' (योग.
              1।33)
              के 
              अनुसार मैत्री तथा करुणा गुणवालों के ही वाचक हैं। जैसे साबुन से 
              कपड़े की मैल हटाते हैं वैसे ही चित्त की मैल हटाने और उसे न आने देने 
              के ही लिए ये दोनों गुण माने गये हैं। यदि सुखिया के साथ मैत्री न हो 
              तोर् ईर्ष्या हो सकती है। इसी तरह दुखिया पर करुणा न हो तो दु:ख से 
              द्वेष हो सकता है। यही दोनों भारी मैल हैं।  
              
                  
              इसी प्रकार 
              उद्वेग का अर्थ है घबराहट। जिसके आचरण या रहन-सहन से औरों को तथा 
              औरों के कामों से जिसे परेशानी जरा भी न हो वही सच्चा भक्त है।
               
              
                  
              
              सर्वारम्भपरित्यागी का अर्थ है किसी भी भले-बुरे काम का संकल्प न 
              करे। क्योंकि संकल्प के बाद जो कामना होती है वही फँसाती है। 
               
              
                  
              उदासीन के 
              मानी हैं, 'कोई 
              मेरे कोई जिये,
              फक्कड़ 
              घोल बताशा पिये'
              यानी 
              दुनिया के झमेलों का जिस पर कोई असर न हो-जो किसी ओर न झुके। 
              
                  
              यद्यपि इन 
              श्लोकों में सम शब्द दोई बार आया है और उसी के अर्थ में तुल्य एक बार 
              आया है; 
              तथापि अन्त के 
              सात श्लोक समदर्शन का ही चित्रण करते हैं और यही है आत्मज्ञान। इस 
              अध्याय में प्रतिपादित भक्ति का रहस्य तो बताई चुके हैं और वही इसका 
              विषय है।  
              
                  
              इति श्री. 
              भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्याय:॥12॥ 
              
                  
              श्री. जो 
              श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका भक्ति-योग नामक बारहवाँ 
              अध्याय यही है। 
                
                
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