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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-4

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

किसान क्या करें


किसान कैसे लड़ते हैं?

बात क्या है? 

कोई यह समझने की भूल न करे कि इस पुस्तिका में लिखी बातें निरी कहानियाँ हैं और मैंने उनका संग्रह कर दिया है। असल में गत बारह वर्षों में अधिकांश बिहार में और अन्‍यत्र भी किसानों के द्वारा चलाई जाने वाली अपने हकों की जिन लड़ाइयों का मैंने स्वयं अनुभव किया है और बहुत नजदीक से देखा है कि किसान उन्हें किस प्रकार चलाते रहे हैं, उन्हीं का संग्रह यहाँ किया गया है।

    यों तो ऐसी सैकड़ों लड़ाइयाँ बिहार में, विशेष रूप से किसान सभा की देख-रेख में ही, लड़ी गई हैं। मगर उनमें जिनसे, या जिनके जिन अंशों से, किसानों और किसान-कार्यकर्ताओं को भविष्य में अपना संग्राम चलाने में सहायता मिल सकती है, केवल उन्हीं को मैंने चुन लिया है। जिन लड़ाइयों का आगे वर्णन है, उनमें किसानों की विजय हुई है, यह खूबी है,चाहे पीछे प्रकारान्तर से उन्हें भले ही परेशान या तबाह किया गया हो।

    किसानों का युद्ध-क्षेत्र धीरे-धीरे बढ़ रहा है और आए दिन बकाश्त जमीन या इसी प्रकार की दूसरी बातें लेकर किसानों को जमींदारों तथा औरों के साथ संघर्ष करने के मौके ज्यादा आ रहे और आने वाले हैं। इसलिए आशा है, आगे लिखी घटनाएँ अवश्य उनका पथ-प्रदर्शन करेंगी। इन्हें पढ़कर हम उनकी त्रुटियों को भी जान सकते और भविष्य में उनसे बच सकते हैं।

सेंट्रल जेल, हजारीबाग                                                                 स्वामी सहजानन्द सरस्वती
आषाढ़ शुक्ल, विष्णुशयनी एकादशी,   15.7.40
पं. 1997 वि.

घटनाएँ

(1)

भागलपुर जिले में, गंगा के किनारे, उत्तर ओर, सोनबरसा गाँव है। गाँव बड़ा है और ब्राह्मणों की बस्ती है। कुछेक को छोड़, साधारण श्रेणी के ही किसान वहाँ बसते हैं। उस इलाके में मिस्टर ग्राण्ट की जमींदारी है। उनकी दो कोठियाँ नारायणपुर और लत्तीपुर में हैं। एक तो अंग्रेज, दूसरे जमींदार। फिर तो 'करैला नीम पर चढ़ गया'। सो भी ग्राण्ट साहब कोई ऐसे-वैसे अंग्रेज नहीं। वह बड़े ही चलते-पुर्जे और तपाक वाले थे।
    उनकी न सिर्फ भारत सरकार और प्रान्तीय सरकार तक ही चलती थी, वरन् ठेठ अंग्रेजी सरकार और पार्लियामेंट में भी उनकी धाक थी। फलत: यदि संयोग से कभी यहाँ उनकी सुनवाई न होती, तो वहीं प्रश्न करवाते और पार्लियामेंट के मेम्बरों के द्वारा अपना काम बना लेते थे। इसीलिए यहाँ के छोटे-बड़े सभी हाकिम-हुक्काम उनसे डरते और पनाह माँगते थे। किसी के ऊपर उनकी जरा-सी नजर बिगड़ी कि उसकी खैरियत नहीं।
    परिणामस्वरूप अपनी बड़ी जमींदारी में, जेठ के महीने के मध्‍याह्न के सूर्य की तरह तपते थे। किसी किसान या मजलूम की क्या मजाल कि चूँ करे। सभी थर्राते रहते और बिना जबान हिलाए ही उनके जुल्मों को चुपचाप सहते थे, क्योंकि 'न तड़पने की इजाजत थी, न फरियाद की थी। घुटके मर जाएँ, मर्जी यही सैयाद की थी।' उनके छोटे-मोटे अमलों की नादिरशाही और मनमानी-घरजानी का, ऐसी हालत में, आसानी से अन्दाज लगाया जा सकता है। वे किसानों के लिए यमराज से भी बढ़ कर थे।
    जैसा कि जमींदारों और सभी शासकों का कायदा होता है, ग्राण्ट साहब और उनके मैनेजर ने हर गाँव के प्रभावशाली और चलते-पुर्जे लोगों को चुन-चुन कर अपने अमले बना लिया था और अपने किसी न किसी काम में लगा दिया था। फिर तो बाकियों के लिए कोई चारा न था, सिवाय इसके कि ऑंख मूँद कर उनका लोहा मानें और उनकी मर्जी के खिलाफ साँस भी न लें। यदि गरीब और पीड़ित किसान अत्याचारों और जुल्मों से ऊब कर कोई प्रतिकार करना चाहते भी, तो बेबस थे, क्योंकि आज की तरह वह जमाना किसान सभा का न था कि जालिमों को नाकों चने चबवाने का काम आसानी से हो जाता। तब तो किसान अत्यन्त विशृखंल और अप्रबुद्ध थे। हाँ, धीरे-धीरे उनमें जागृति आने जरूर लगी थी।
    किसानों का तो एक ही बल है, संगठन। और, वह उस समय उनमें था नहीं। अगर ऊब कर वे स्वभावत: संगठित होना चाहते भी, तो कोई मददगार न थे, प्रत्युत बाधक और फोड़ने वाले ही ज्यादा थे। कारण, धनी और प्रभावशाली लोग तो साहब के डबल गुलाम पहले से ही बने हुए थे और वे थे उनके पूरे नमक हलाल। इसीलिए ज्यों ही बेचारे गरीब सुगबुगाते कि उस्ताद लोग आकर उन्हें ठण्डा करने लग जाते। कभी भय, कभी तकदीर और कभी भगवान की बात लाकर उन्हें पस्त कर देते थे।
    'ग्राण्ट साहब गोरे तो हैं ही, तिस पर तुर्रा यह कि सात समुन्दर पार आकर यहाँ जमींदारी कर रहे हैं। यह करम की बात और भगवान की मर्जी नहीं तो और क्या है? उनके पूर्वजन्म की कमाई के बिना यह कैसे सम्भव हो सकता है?'
    यही दलील उभड़ते हुए किसानों को ठण्डा करने में जादू का काम कर जाती थी और सीधे-सादे किसान कलेजा मसोस कर रह जाते थे। साहब उन्हें उजाड़ डालेंगे, यह भय का भूत तो अलग था ही।
    लेकिन कहते हैं कि 'जुल्म की टहनी सदा फलती नहीं' इसलिए एक न एक दिन मिस्टर ग्राण्ट का अत्याचार इन गरीबों को उभाड़े बिना नहीं रह सकता था। जब कई बार कोशिश करके भी वे साहब का बाल बाँका न कर सके प्रत्युत स्वमेव तबाह हो गए, तो निराशा की दशा में अधीर बन गए और मतवालों की-सी दशा में आ गए और सोचने लगे कि साहब से जैसे हो निपटना ही चाहिए, चाहे परिणाम कुछ भी क्यों न हो।
    बिल्ली बड़ी ही कमजोर होती और आदमी से डर कर भागती है। लेकिन आखिर सब चीजों की सीमा होती है और डर भी मजबूरन कभी छोड़ना ही पड़ता है। आप उसी बिल्ली को खदेड़ते-खदेड़ते किसी ऐसे मकान में पहुँचा दें जिसमें एक ही दरवाजा हो, भागने के लिए खिड़कियाँ या रास्ते न हों; अन्त में वह दरवाजा भी बन्द कर यदि आप बिल्ली के पीछे पड़ जाएँ तो नतीजा क्या होगा? वहाँ भी जान बचाने की कोशिश वह करेगी जरूर और इधर-उधर कूदे-फाँदेगी भी। मगर बचाव की कोई आशा न रहने पर वह भागना बन्द कर पीठ को दीवार की ओर और मुँह आपकी ओर कर सारी शक्ति से गुर्राना शुरू करेगी, जैसे कोई बाघिन हो। इतना ही नहीं। आप पर झपटेगी भी और अगर जान लेकर आप न भागे तो पंजे से आपका पेट भी फाड़ेगी या कम से कम मुँह नोंच लेगी जरूर।
    जान बचाने के लिए अब तक वह भागती फिरती थी। अब आप भागिए, नहीं तो खैरियत नहीं।
    यह उलटी बात क्यों हो गई? बिल्ली को बाघिन किसने बनाया? निहायत डरपोक और कमजोर बिल्ली में यह अपार शक्ति एकाएक कहाँ से आ गई?
    असल में संसार का यही नियम है। जुल्म की ऑंच में तपकर लोग इस्पात बन जाते हैं। उनकी कमजोरियाँ जल जाती हैं। जब चारों ओर से हारने के बाद ऊब कर मनुष्य जान पर खेल जाता और मतवाला (desperate) बन जाता है, तो उसके भीतर सोई हुई शक्ति का स्रोत एकाएक उमड़ पड़ता है। शक्ति कहीं बाहर से नहीं आती। वह तो हमारे भीतर ही रहती है, ठीक जैसे दूध में घी रहता और दीख नहीं पड़ता है। मगर जिस प्रकार मथने से मक्खन के रूप में वह जमा होकर नजर आता है, ठीक उसी प्रकार जुल्म और अत्याचार की बार-बार की आवृत्ति प्रसुप्त शक्ति के लिए मथनी का काम करती है। प्रचंड निराशा के बाद जब 'मरता क्या न करता' के अनुसार हम जान पर खेलते हैं, तो वह शक्ति अनायास आगे आकर दुर्गा की तरह हमारी मदद करती और शत्रु को पछाड़ती है। हिन्दू लोग जो मानते हैं कि कलियुग के बाद सत्ययुग आता है, उसका यही अर्थ है। पहले दर्जे के परस्पर विरोधी पदार्थ मिल जाते हैं(extremes meet)। इस अंग्रेजी कहावत का भी यही आशय है।
    इसी नियम के अनुसार आखिर सोनबरसा के किसान भी तैयार हो ही गए। गंगा के दियारे की जमीन का झगड़ा था। हजारों बीघे फर्स्ट क्लास की जमीन थी। वह तो सोना थी। किसान कहते कि जमीन हमारी है, गाँव वालों की है; साहब के मैनेजर कहते कि यह तो साहब की है। सब उपाय करके किसान थक गए। मगर नतीजा कुछ न हुआ। साहब टस से मस न हुए।
    बेशक, कानून तो है। मगर पीड़ितों के लिए तो वह ठीक वैसे ही है, जैसे कि वन में पका बेल वानर के लिए। गरीबों की आखिर कानून मदद ही क्या करेगा? वह तो अमीरों और धनियों के लिए है। कचहरियाँ उन्हीं की, हाकिम उन्हीं की बातें आसानी से सुनते, बड़े-बड़े वकील-बैरिस्टर उन्हीं को मिलते और पुलिस तथा फौज उन्हीं की सहायता के लिए चटपट पहुँच जाती है। इसीलिए कहते हैं कि रुपया कानून की छाती पर कोदों दलता है : 'Money rules the law'। फलत: इस झमेले में पड़कर किसान सिर्फ घर का आटा गीला करते हैं। उनके हाथ कुछ लगता नहीं। जहाँ देखो रुपए की पूछ है और यही चीज गरीबों के पास नहीं होती।
    थाने से ही पैसे का प्रसंग शुरू होकर ठेठ ऊपर तक चला जाता है। निरुपाय होकर गाँव के सभी किसान एक दिन एकत्र हुए और सोचने लगे कि क्या किया जाए और उस जमीन पर अपना कब्जा कैसे जमाया जाए। देर भी नहीं कर सकते थे क्योंकि जमीन पर जंगल की तरह सरसों लगी थी और पक चुकी थी, जो देर होने से गिर कर खत्म हो जाती। सभी उदास थे। कोई अक्ल न चलती थी।
    इतने में श्री रामरूप कुमर नामक एक गठीले, पर अपढ़, किसान ने कहा कि हम तो हजारों हैं और साहब हैं अकेले। नौकर-चाकर मिलाकर पचास-सौ होंगे। यदि पुलिस या फौज जाएँ तो ज्यादा से ज्यादा दो-तीन सौ हो जाएँगे। फिर भी तो हम उनसे कई गुना रहेंगे। ऐसी हालत में चलो जान पर खेल कर सभी चलें और सरसों काट लें। आखिर भूखों मरने से और दवा या वस्त्र के बिना घुल-घुल कर जान देने से तो अच्छा है कि या तो सरसों काट कर घर में धरें या गोली के घाट उतर जाएँ। मर जाने पर तो भूख, प्यास, बीमारी, जाड़ा आदि सभी से पिंड छूट ही जाएगा। यदि जेल चले गए तो वहाँ भी हमारे मकान से कहीं सुन्दर पक्का मकान, हमारे खाने से लाख दर्जे अच्छा खाना। और हमारे कपड़ों से कई गुना अधिक और अच्छा कपड़ा मिलेगा ही। वहाँ तो दवा भी मिलेगी। यहाँ तो मर जाते हैं और कोई पूछने वाला नहीं। फिर परवाह किसकी? असल में हमारा शत्रु यह भय ही है और इसे ही मार भगाना हमारा पहला फर्ज है। जो मौत और जो जेल इतनी अच्छी चीजें हैं, जो हमारी हजार दिक्कतों की आसान दवाइयाँ हैं, उन्हीं से भय?
    सबकी ऑंखें अकस्मात् खुल गईं और मालूम पड़ा कि समस्या सुलझ गई। सबके कलेजे बाँसों उछल पड़े और सबों में मुर्दानगी की जगह मर्दानगी उमड़ पड़ी। सभी बोल उठे कि ठीक है, ठीक है अब लिया, तब लिया। अब तो मामला सर ही है। फिर रामरूप ने ही प्रश्न किया, मान लीजिए जमीन पर कब्जा हो गया, तो भी बँटवारे के समय दिक्कत होगी और हम लोग आपस में ही झगड़ पड़ेंगे। फिर तो बना बनाया काम चौपट हो जाएगा और साहब की बन आएगी। आखिर आज तक वह हमारी ही फूट के बल पर बैठा है न? वह तो पुनरपि उसी फूट और आपसी कलह से लाभ उठावेगा और बिल्लियों के झगड़े में बन्दर बनेगा।
    एक बात और। जब हमें साहब जैसे जबर्दस्त शत्रु से भिड़ना और उसे अच्छी तरह पछाड़ना है, तो पूरी तैयारी कर लेनी चाहिए। लाठी चलाने की नौबत होगी, जेल जाना होगा, मरना होगा, रुपए खर्चने होंगे और समय-समय पर अनेक ऐसे ही काम करने होंगे। कब कौन, कितने आदमी, कितने रुपए या कितना सामान देगा इसका भी निपटारा अभी हो जाना चाहिए ताकि निश्चिन्त होकर हमारी लड़ाई चले, नहीं तो बीच में ही गड़बड़ी होगी और आग लगने पर कुऑं खोदने का सवाल पैदा हो सकता है।
    यह बात भी सभी को पसन्द आई और सबने कहा, भाई रामरूप जी, आप ही यह गुत्थी भी सुलझाइए और आज से आप ही हमारे नेता बनिए। हमने मँगनी और उधार के बाहरी नेता बहुत देखे। मगर कुछ हुआ-हवाया नहीं। वे पढ़े-लिखे जरूर होते हैं, और आप अपढ़ हैं। मगर आखिर गेहूँ, चावल, चना, घी, मलाई आप ही और हम ही तो पैदा करते हैं न? भलेमानस, ये पढ़े-लिखे कब ऐसा करते हैं? वे तो हमारी कमाई का ही घी-हलुवा खाकर, लेक्चरों और बड़ी-बड़ी बातों के जरिए, सिर्फ उसकी बदहजमी मिटाते हैं। आखिर शरीर से कोई काम तो वे लोग करते नहीं, यहाँ तक कि पैदल घूमते-फिरते भी नहीं। टहलने भी चलते हैं तो उनके बजाए प्राय: उनकी मोटर या घोड़ागाड़ी ही टहलती है। फिर ये चीजें पचें तो कैसे? इसीलिए उन्हें लेक्चर देना पड़ता है। उससे 'एक पंथ दो काज' होता है। अन्न की बदहजमी के साथ ही अक्ल की बदहजमी मिट जाती है। यदि न बोलें तो उनकी बहुत ज्यादा पढ़ी-लिखी बुद्धि उनके पेट और दिमाग के भीतर ही उछल-कूद मचाती रहती है। लेकिन हम तो अपनी मोटी बुद्धि से यही जानते हैं कि हजार लेक्चरों से न तो एक दाना गेहूँ, चावल पैदा होता है और न पैसे-भर घी, दूधा। और इन चीजों के बिना तो दुनिया का, उन नेताओं का खुद भी, काम ही नहीं चलता। लेक्चर के बिना तो कोई भूखों मरता नहीं। इसलिए हम लोग ही अच्छे। इसीलिए हम चाहते हैं कि अब गेहूँ, घी, दूध की तरह नेता और लीडर भी हम अपने ही बीच पैदा करें। तभी हमारा निस्तार होगा। हमारे कष्टों को हमारा ही आदमी समझ सकता है। बाहरी क्या समझेंगे? 'जाके पाँव न फटे बिवाई। सो क्या जाने पीर पराई?' सबकुछ पैदा करके भी भूखों हम मरते हैं, या हमारे नेता? फिर वे क्या समझने लगे कि हमें क्या तकलीफें हैं? इसलिए हमारा नेता हम में से होना चाहिए।
    सभी को यह बात अच्छी लगी और हाँ, हाँ बोल बैठे सबके सब। तब रामरूप ने कहना शुरू किया, आज त्याग और बलिदान का समय है। हो सकता है, इस समय 'सबसे ज्यादा त्याग हम करेंगे, हम करेंगे' ऐसी होड़ या ऐसी प्रतियोगिता दुर्भाग्य से हममें परस्पर न हो, और बलिदान में बड़ा हिस्सेदार बनने को शायद कोई तैयार न हो। फिर भी जमीन मिलने पर तो जरूर ही 'हम धनी हैं, बड़े हैं, इसलिए हमें ज्यादा मिले और फलाँ आदमी गरीब है, उसे कम मिले;' 'हमारे पास ज्यादा हल-बैल हैं और हमारा परिवार भी बड़ा है, मगर अमुक सज्जन के पास इन दोनों बातें में एक भी नहीं है, इसलिए हमें ज्यादा और उन्हें कम जमीन मिले।' ये बातें उठेंगी। इसलिए मैं चाहता हूँ कि आदमी और परिवार का खयाल न करके, सिर्फ हल-बैलों के विचार से शुरू से ही हिस्सेदारी तय कर दी जाए। यह सच भी है कि आखिर जमीन जोती जाती है हल-बैलों से ही, न कि धन और परिवार से। इसलिए आज ही हम क्यों न तय कर लें कि ये हल ही हिस्सेदार हैं? फिर गाँव-भर के हलों को, या फी हल दो बैल के हिसाब से बैलों को ही, गिन कर हिस्सेदारों की संख्या यहीं पर हम निश्चित क्यों न कर लें? आगे जब-जब रुपए की जरूरत हो, लाठी चलाने वालों का काम पड़े, जेल-यात्रियों की आवश्यकता हो, या मौत के आलिंगन का मौका आए, तो इन्हीं हलों के हिसाब से सभी लोग अपना हिस्सा बेखटके क्यों न चुकाया करें?
    यह बात भी सबने पसन्द की और कहा, भाई रामरूप जी ने तो आज सचमुच ही वास्तविक किसान नेता होने का परिचय दे दिया। उन्होंने हमारी सारी उलझनें सुलझा दीं। भला यदि कोई बाहरी नेता होता, तो ये भीतरी बातें क्या समझता? यह सुलझन और यह रास्ता तो ठीक हमारे ही लायक है। ओह। इसे हम कितनी आसानी से समझ गए। बस, अब कोई भी तितिम्मा और बखेड़ा आगे खड़ा होगा ही नहीं। सचमुच ही लड़ाई में तो बड़ा हिस्सा कोई भी नहीं लेना चाहता। यही मानव स्वभाव है। मगर जमीन के बँटवारे के समय अवश्य ही यह तूफान खड़ा होता, जिसका समाधान हमारे भाई ने, हमारे नेता ने कर दिया। हम तो हल के हिसाब से ही त्याग और बलिदान में हिस्सा लेते-लेते इसी हिस्सेदारी के अभ्यासी बन जाएँगे क्योंकि इसमें समय लगेगा। जल्दी तो यह झमेला निपटेगा नहीं। आखिर ग्राण्ट साहब कोई साग-मूली तो हैं नहीं कि जल्दी ही हम लोग उन्हें आसानी से गटक जाएँगे, या वह स्वयं मुर्झा जाएँगे। हमें तो लोहे के चने चबाना होगा। अत: इसके लिए अभी से तैयार हो जाना चाहिए। ऐसी दशा में हम खामख्वाह इस हल वाली हिस्सेदारी के अभ्यस्त हो जाएँगे। फलत: बँटवारे के समय न तो किसी को खयाल ही होगा और न हिम्मत ही होगी कि ज्यादा या कम का दावा करे।
    इसके बाद फौरन हलों की गिनती की गई। सारे गाँव में कुल साढ़े तीन सौ हल ठहरे। बस, ये ही साढ़े तीन सौ हिस्सेदार ठहराए गए और उस दिन सभा बर्खास्त हुई।
    मगर यह बात छिपने वाली तो थी नहीं। साहब के दलाल और टुकड़खोर फौरन कोठी में पहुँचे और उन्होंने सारी दास्तान उन्हें सुना दी। साहब भी हैरान थे कि यह क्या हो गया। न कोई नेता आया और न मीटिंग वगैरह हुई, फिर एकाएक यह क्या हो गया ? उनके दिमाग में यह बात आ ही न सकी। उनका होश-हवास उड़-सा गया।
    उन्हें ताज्जुब हुआ कि रूस की सोवियत प्रथा एकाएक कैसे टपक पड़ी? किसने यह फितूर पैदा किया? उन्होंने सोचा कि चुपके से कोई बाहरी आदमी खामख्वाह आया और वह या तो गाँव में ही ठहरा है या यह मन्त्र देकर चला गया।
    उन्होंने अपने जासूसों और दलालों से रह-रह कर पूछना शुरू किया, सच बताओ, कोई बाहरी आदमी आया था या नहीं? सबने एक स्वर से नाहीं की। साहब को विश्वास न हुआ और सैकड़ों ढंग से जाँचा-पूछा। मगर आखिर कोई आया हो तब न। लोगों ने कहा कि नेता या बहकाने वाले कोई सुई थोड़े ही हैं कि जो ही चाहेगा छिपा कर रख लेगा।
    बात भी तो ठीक ही है। मगर पूँजीवालों, जमींदारों या गैरों पर शासन करनेवालों के दिमाग में तो सदा यही खब्त सवार रहता है कि पीड़ितों को, किसानों, मजदूरों और दूसरे कमाने वालों को, बाहरी लोग ही भड़काते और बहकाते हैं। नहीं तो ये बेचारे तो सीधे-सादे होते हैं। ये तो कभी भी धनियों, जमींदारों या सरकार का विरोध करना जानते ही नहीं।
    इन शासक और शोषक भलेमानुसों के दिमाग में यह मोटी बात आती ही नहीं कि जिसे बीमारी होती है वह स्वयं दवा के लिए चिल्लाता है। जो भूखा-प्यासा होता है, वह खुद अन्न-पानी की पुकार मचाता है। आखिर किसान-मजदूर भूखे-नंगे तो होते ही हैं। बीमारियों में कीडे-मकोड़े की तरह वे ही हजारों मर भी जाते हैं, न कि नेता। शोषक यह भी नहीं सोच सकते कि तेज भूख लगने और भयंकर दर्द पैदा होने पर कुम्भकर्णी नींद भी टूट ही जाती है। सोए हुए लोग भी भूख और दर्द की शान्ति का उपाय ढूँढ़ने लगते हैं। वे खुद डाक्टरों को बुलाते है। न मिलने पर कोई न कोई रास्ता निकालते ही हैं। जादू-टोना और जन्तर-मन्तर की सृष्टि इसी आतुरता और अन्य उपाय न मिलने, का ही तो फल है। कहते भी हैं कि जरूरत आविष्कारों की जननी है : 'Necessity is the mother of invention.*
    शोषितों और मजलूमों की जरूरतों ने ही नेताओं को पैदा किया है, न कि नेताओं ने जरूरतें पैदा की हैं। इसीलिए बाहरी नेताओं पर रोक लग जाने पर मजलूमों के भीतर से ही उनके नेता पैदा होते हैं। वे ही धुऑंधार लड़ाई चलाते भी हैं। बाहरी नेता तो सुलह-सपाटे की बात भी सोचते हैं, मगर उनके भीतर के नेता तो एक ही बात जानते हैं कि या तो पीड़ित और शोषित ही रहेंगे, या उनके लूटने वाले ही। दोनों तो रह नहीं सकते, क्योंकि बाहरी नेताओं की तरह किताबें पढ़ कर तो सब बातें वे जानते नहीं। वे तो स्वयं भुक्तभोगी होते हैं।
    यह भी स्वाभाविक ही है कि बीमार या भूखा आदमी रोग और भूख के साथ समझौता करने की बात सोच ही नहीं सकता। किसान और मजदूर यह बखूबी जानते हैं कि उनकी बीमारी और उनकी भूख के कारण कौन हैं, उनकी कमाई को कौन लूटते हैं। इसमें किसी बाहरी आदमी के समझाने की जरूरत ही नहीं।
    इसलिए आखिर मिस्टर ग्राण्ट को मानना ही पड़ा कि गाँव वालों ने बिना किसी बाहरी इशारे या मदद के खुद-ब-खुद यह काम किया है और अब हमें सिर्फ उन्हीं से सीधे लड़ना होगा। यह काम जरा कठिन है, यह भी वह समझने लगे। बाहरी लोगों पर तो कोई रोक मजिस्ट्रेट साहब या पुलिस के जरिए लगा कर ही आसानी से काम चल जाता है। और नहीं हुआ तो सहस्रमुखी कानून की किसी धारा में ही लाकर उन्हें पकड़वा दिया। वे होते भी हैं एक-दो ही।
    मगर यहाँ तो आफत है। सैकड़ों हैं, हजारों हैं; गाँव का गाँव ही है। फिर इन पर कोई नोटिस भी तो आसानी से नहीं लग सकती है।
    बहुत सोच-साच कर अन्त में उन्होंने तय किया कि हथियारबन्द पुलिस लाकर ही उन्हें रोक सकते हैं, हालाँकि इसमें खर्च काफी होगा, स्थानीय पुलिस थोड़े ही है कि बिना कौड़ी-खर्चे ही दौड़ी चली आएगी। हथियारबन्द पुलिस के लाने में तो पास के पैसे कटेंगे। मगर किया क्या जाए? मजबूरी है।
    उसने यह भी सोचा कि जब इस प्रकार संगठन है, तो हथियारबन्द जवान भी तो आखिर किसानों के ही बच्चे, सो भी इसी जिले या प्रान्त के हैं। कहीं वे भी न किसानों में मिल जाएँ। इसलिए हथियारबन्द गोरखे (नेपाली) ही लाना ठीक है।
    इसके बाद, फौरन मजिस्ट्रेट के पास खुद ही पहुँचे और सारी कहानी सुना कर गोरखों की मंजूरी ली। वे रवाना भी हो गए। साहब ने समझा कि इसी बार इन बिगड़े दिमाग वालों को सदा के लिए दुरुस्त कर ही छोड़ेंगे, नहीं तो रह-रह कर यह बला सिर उठाती ही रहेगी।
    इधर किसानों को भी सब बातें मालूम हो गईं। उन्होंने भी देखा कि मामला बेढब है।
    इतने में खबर लगी कि हथियारों से लैस गोरखे यह आए, वह आए। अन्त में सचमुच ही ऐन गंगा की करारी धारा के किनारे उसी झगड़े वाली जमीन के पास वे लोग पहुँच भी गए।
    सोनबरसा में सनसनी थी। घबराहट भी थी। मगर रामरूप कुमर बेफिक्र थे। जब किसानों ने यह खबर उन्हें दी, तो उन्होंने कहा कि फी हल तीन-तीन आदमी के हिसाब से फौरन कम-से-कम एक हजार आदमी कमरबन्द जमा हो जाएँ।
    लेकिन असल सवाल तो यह था कि राइफलों और बन्दूकों के सामने खाली हाथ या लाठी लिये ये हजार आदमी आखिर करेंगे ही क्या? ये तो बकरे की तरह केवल बलिदान हो जाएँगे। इसका क्या उपाय?
    रामरूप ने कहा, उपाय जरूर होगा। घबराने की क्या बात? हम तो देहाती किसान हैं और उपाय भी वैसा ही करेंगे जो देहाती हो, सुलभ हो।
    मगर लोग अचम्भे में थे। उनके दिमाग में यह बात आती न थी कि राइफलों और बन्दूकों के मुकाबले देहाती पदार्थ क्या हो सकता है। यही कानाफूसी चारों ओर हो रही थी।
    तब तक रामरूप ने कहा कि हमारे गाँव में सूखे बाँस तो कटे-कटाए बहुत होंगे और होंगे पचास हाथ लम्बे भी। सभी ने कहा, बाँसों की क्या कमी?
   और किरासन का तेल और फटे-पुराने कपड़े?
    उत्तर मिला, ये दोनों भी जितना चाहिए मिल सकते हैं।
    इस पर रामरूप ने हुक्म दिया, बात की बात में सैकड़ों बाँस, किरासन तेल और फटे पुराने कपड़े खूब जमा किए जाएँ।
    लोगों ने सुनते ही, पलक मारते, तीनों चीजों का ढेर लगा दिया। फिर हुक्म हुआ कि पचास बाँसों के पतले छोरों पर ये कपड़े खूब ज्यादा लपेटे जाएँ, ताकि घंटों जलते रहे और खत्म न हों।
    लोग ताज्जुब में थे कि इस होली का क्या मतलब? इससे गोरखों की राइफलें कैसे मानेंगी? मगर अपने नेता की आज्ञा फौरन पूरी की गई।
    फिर, सभी बाँसों के कपड़े किरासन तेल से तर कर दिए गए।
    अब रामरूप ने कहा, हजारों आदमी तैयार हो जाएँ मुकाम पर चलने के लिए। याद रहे कि सरसों काटने के लिए सबके पास एक-एक हँसिया भी जरूर रहे।
    बात की बात में सब लोग तैयार हो गए। उसके बाद हरेक बाँस के कपड़े में आग लगा दी गई और 'इन्कलाब जिन्दाबाद' के नारों के साथ दस-दस बीस-बीस आदमियों ने, जैसा कि रामरूप ने कहा, एक-एक बाँस उठा लिया और उन सबों के जलते सिरे आगे करके सभी रवाना हो गए। दिन में एक साथ पचास बाँसों से निकलने वाली लपट सभी को चकाचौंध में डालने वाली हो गई।
    किसान फिर भी आश्चर्य में थे कि यह क्या तमाशा है।
    पलक मारते ही गाँव से निकल उस जमीन के नजदीक वे लोग जा पहुँचे, जहाँ हथियारबन्द गोरखे तैनात थे। दूर से साहब भी देख रहे थे। उन लोगों ने एक साथ पचासों लुक्काड़ जलते देख सोचा कि यह क्या? हजारों आदमी तो लुक्काड़ के पीछे थे। उनका गिरोह साफ नजर आता न था। न तो गोरखे और न साहब ही इसका रहस्य समझ सके। फलत: घबरा गए। क्या करें, क्या न करें,वे लोग इसी आगा-पीछा में थे।
    राइफलें या बन्दूकें सीधी भी न कर सके थे कि लुक्काड़ों वाला दल उनके पास आ गया। अब तो घबरा कर भागने की सोचने लगे क्योंकि हजारों के बीच जान का खतरा था। राइफल या बन्दूक ठीक-ठीक चला सकना भी असम्भव था। साहब तो जरा दूर थे। इसलिए वह तो भाग गए। मगर हक्के-बक्के गोरखों की क्या दशा हुई, इसका कोई प्रमाण न मिल सका। इतना सभी कहते हैं कि वे लापता हो गए।
    कुछ का कहना है कि जान बचाने के लिए सभी गंगा में कूद गए और डूब गए, क्योंकि धारा बहुत तेज थी, गहराई भी काफी थी। दूसरों ने कहा कि किसानों ने ही सबों को उठा कर बीच धारा में फेंक दिया और सभी डूब मरे। यह भी खयाल है कि तैरते-तैरते सभी, या कुछ लोग, कहीं दूर जा निकले और बच गए। मगर इतना सही है कि जिस काम के लिए वे आए थे वह तो नहीं ही हुआ। किसानों ने उनकी राइफलों एवं बन्दूकों का यह बहुत ही सुन्दर देहाती, पर लासानी, जवाब ढूँढ़ निकाला। अपढ़ देहाती दिमाग ऐसे ही होते हैं, बशर्ते कि मन में पक्का-पक्की ठान लें।
    इस प्रकार बिना एक बूँद रक्त बहाए, एक लाठी या गोली खाए, और एक भी जान दिए, किसानों की विजय हुई। फौरन ही सारी की सारी सरसों उन्होंने काट कर घर पहुँचा दी। देर होने में खतरा था कि साहब कोई और तूफान करता और वह खेत में ही पड़ी रह जाती।
    अब तो पचासों हजार रुपए की सम्पत्ति किसानों के घर जा पहुँची। वे उन्हीं रुपयों से साहब से बहुत दिनों तक निपट सकते थे। कई हजार आदमियों को सारी सरसों काटने और ढोने में देर भी न लगी। हाथों-हाथ काम हो गया। यही तो सामूहिक शक्ति की महिमा है। अलग-अलग काटते तो न जाने कितनी देर होती और कितने पचड़े खड़े हो जाते।
    उधर साहब की जान तो बची, मगर समूची कोशिश विफल हो जाने से उन्हें मर्मान्तक वेदना हुई। खून-खराबी वगैरह का केस भी नहीं कर सकते थे। सबूत ही क्या था? गोरखे मरे या बचे इसका कोई प्रमाण तो था नहीं। फिर, किसने किसको मारा, यह भी बतानेवाला कोई नहीं था। वहाँ तो जादू का काम हुआ और रामरूप की गँवार बुद्धि ने बाजी मार ली।
    साहब ने पीछे हजार कोशिशें कीं कि किसानों को फँसाएँ। गोरखों के खून को साबित करने के लिए उन्होंने आकाश-पाताल एक कर दिया। बहुत छान-बीन की गई। खूब दौड़-धूप हुई। मगर नतीजा कुछ न निकला। सोनबरसा का एक कुत्ता भी साहब की ओर से न भौंकता था। पास-पड़ोस के लोग भी साहब से खुश थोड़े ही थे; समय-समय पर उसने सबों को परेशान जो किया था।
    जो उनसे खूब हिले-मिले थे, वे भी किसानों की अभूतपूर्व विजय से अत्यन्त प्रभावित थे। फलत: उनके विरुद्ध जबान हिलाने की हिम्मत न कर सकते थे।
    असल में विजय का परिणाम ऐसा ही होता है कि शत्रु भी विरोध में कुछ करने को तैयार नहीं हो सकते। समस्त वायुमण्डल ही बदल कर कुछ और हो जाता है। इसीलिए तो कहते हैं कि जीतने वाले के साथी सभी हो जाते हैं, पर हारने वाले का कोई नहीं।
    इस प्रकार, श्री रामरूप जी के नेतृत्व में किसानों ने उस जमीन पर दखल जमा लिया। साहब की हिम्मत ही न हो सकी कि पास आएँ। गाँव में जो लोग भीतर से उनके साथी थे, वे भी अपूर्व विजय और निराले संगठन को देखकर दब गए। पीछे चल कर सारी की सारी जमीन साढ़े तीन सौ हलों में बराबर बाँट दी गई। किसी ने कुछ भी चीं-चपड़ न की। सबने खुशी-खुशी अपना-अपना हिस्सा स्वीकार कर लिया।
    उसके बाद, जब कभी भी मुकदमा लड़ने या लाठी चलाने की नौबत हुई, तो हलों के हिसाब से अनायास ही काफी रुपए और काफी जवान जमा हो जाते थे। फिर तो विजय ही विजय थी।
    एक बार मैं वहाँ गया था। मेरा सामान दूसरी जगह पहुँचाने के लिए बैलगाड़ी की जरूरत हुई। किसी ने श्री रामरूप कुमर से कहा। फिर क्या था। साढ़े तीन सौ गाड़ियाँ आने की नौबत हो गई। मगर हमने रोका कि जरूरत ही क्या है।
    हमने जब-जब रामरूप को देखा तब-तब हम खुश हुए। पूर्ण शान्त और तगड़ा जवान, हँस कर बोलने वाला। किसानों को ऐसा ही लीडर चाहिए, न कि हम लोगों जैसे बातूनी और ढपोरशंख।
    सोनबरसा का यह संगठन दुर्भेद्य चक्रव्यूह था, जिसके भीतर किसान अकंटक राज्य करते थे। पीछे सुना कि बहुत दिनों के बाद गाँव के कुछ धनियों को घूस देकर साहब ने फोड़ा और किसानों पर जैसे-तैसे केस चलवाए।
    मगर ग्राण्ट साहब और उनकी जमींदारी तकुवे की तरह सीधी तो हो ही गई।
   
 
(2)
 
गया जिले के कुर्था थाने में मुहम्मदपुर नाम का एक गाँव है। वहाँ श्री दशरथ सिंह आदि बहुत से किसान बसते हैं। घटना बहुत दिन पहले की है। उनके जमींदार पड़ोस के ही लारी मौजे के श्री आदित्य प्रसाद सिंह, श्री प्रकाल सिंह वगैरह हैं। मुहम्मदपुर से दो ही तीन मील दूर लारी है। किसान लोग बराबर पैसे-पैसे लगान चुकता कर देते थे। वे जमींदारों से छपी हुई रसीद लिया करते थे। कानून के अनुसार छपी-छपाई रसीद ही देना बाजिव भी है। मगर रसीदों में एक कानूनी कसर रह गई थी जिसके करते आगे चल कर किसान काफी तबाह हुए।
    असल में रसीद के ऊपर जमींदार का नाम वगैरह भी छपा रहना चाहिए। लेकिन बाजारू रसीदें ऐसी रहा करती हैं कि उनमें जमींदार का नाम नहीं छपा होता। ऐसी रसीदों में आसानी होती है और सस्ती मिलती हैं। फलत: साधारण जमींदार प्राय: उन्हें ही खरीद लेते और उन पर अपना नाम लिखकर किसानों को दिया करते हैं। यह आम बात है।
    फिर भी कानून की दोहाई देने वाली सरकार तथा उसकी लाड़ली पुलिस इस अन्धेरखाते को रोकती नहीं। उनकी ऑंखों के सामने यह गड़बड़ी बराबर चलती रहती है। किसान बेचारा तो नाम वाली बारीकी समझ नहीं सकता। वह तो छपी-छपाई रसीद देख कर ही सन्तुष्ट हो जाता है। यह भी चतुर किसानों की बात है।
    लेकिन सीधे-सादे किसान तो या तो जमींदार के हाथ की नन्ही-सी पुर्जी से ही सन्तोष करते हैं, या उसकी भी परवाह न करके जमींदारों पर ही विश्वास करते हैं। मैंने हजारों को कहते सुना है कि हमारे मालिक (जमींदार) बेईमानी थोड़े ही करेंगे।
    उन्हें यह पता नहीं कि जमींदारी की जड़ ही बेईमानी और मुल्क के साथ गद्दारी (द्रोह) है। यह कायम ही हुई इसी तरह। किसान तो भूखों मरें, उनके बच्चे छटाँक-भर दूध के लिए बिलबिलाएँ, उनकी माता-बहनें चिथड़े पहन अर्द्ध नग्न हो दिन काटें और दवा के बिना अकाल काल कवलित हो जाएँ। मगर उन्हीं की कमाई से जमींदार के कुत्ते दूध, घी में स्नान करें, उनकी तवायफें गुलछर्रे उड़ाएँ और सुन्दर, से सुन्दर गेहूँ, चावल तथा कपड़े घुन और कीड़े खा जाएँ। यह रोज की बात है।
    मगर क्या यह इनसान का काम है? क्या किसान और उसके कलेजे के टुकड़े नन्हे-नन्हे बच्चे जमींदारों के कुत्तों और कीड़े-मकोड़ों से भी गए-गुजरे हैं? नहीं तो फिर किसानों के पास ही वे लोग कुछ छोड़ क्यों नहीं देते? कौड़ी-कौड़ी लगान की, सूद और तावान के साथ, वसूली के लिए बेहाल क्यों रहते हैं?
    फिर भी उन पर विश्वास करें? सो भी वे ही किसान जिनके साथ आए दिन अमानुषिकतापूर्ण व्यवहार।
    ठीक वैसी ही बाजारू रसीद श्री दशरथ सिंह प्रभृत मुहम्मदपुर के किसानों के पास भी थी। मगर वह इसका रहस्य क्या समझें? फलत: निश्चिन्त थे।
    इसी बीच ऐसा मौका आया कि किसी काम से कुछ किसान जमींदारों के घर गए थे। काम देने-पावने का ही था। बात ही बात में किसी बिगड़े दिल जमींदार ने किसानों को गाली दे दी। सौभाग्य या दुर्भाग्य से जमींदार और किसान एक ही बिरादरी के हैं। अतएव, बर्दाश्त न कर सके। ऐसा मौका यह पहला ही आया। फिर बर्दाश्त करते तो कैसे?
    कुछ जातियों को हमने दबा रखा है। उन्हें नीच तथा कमीना भी नाम दे रखा है। उनका प्रसिद्ध नाम है 'रेयान' या रैयान। बाकी लोग अपने को 'अशराफ' कहते हैं। दूसरे भी उन्हें ऐसा ही कहते हैं। अगर सिर्फ जमींदार ये दो भेद बना लेते तो खैर एक बात थी। मगर बदकिस्मती से किसानों के दिमाग में भी 'रैयान' शब्द घुस गया है। मैंने फटे तथा विदीर्ण कलेजे को थाम कर किसानों को ही अपने हलवाहों चरवाहों को 'रैयान' कहते सुना है। सच बात तो यह है कि किसानों के मुँह से यह शब्द सुन कर मुझे जो वेदना हुई है वह और मौकों पर शायद ही हुई हो। अपने ही पड़ोसियों और भाइयों को, जिनके बिना किसानों का काम एक मिनट भी नहीं चल सकता और जो उनके असली हाथ-पाँव हैं, इस तरह घृणापूर्ण शब्दों से याद करना पागलपन की पराकाष्ठा है।
    किसान याद रखें, एक दिन आएगा, सो भी शीघ्र ही, जब ये ही 'रैयान' उनकी और अपनी, दोनों की, लड़ाई जीतेंगे। मेरा यह पक्का विश्वास है। सो भी अनुभव के आधार पर।
    इसलिए अच्छा हो कि यह बुरी तरह चुभने वाला 'रैयान' शब्द संगठित रूप से किसान हटा दें और कभी इसे जबान पर न लाने का संकल्प कर लें।
    खैर, तो दशरथ सिंह वगैरह 'रैयान' तो थे नहीं। तब गाली क्यों बर्दाश्त करते? इसीलिए जमींदार का जवाब कुछ वैसे ही ढंग से उन्होंने भी चटपट दे दिया। बस, मामला बेढब हो गया। भला जमींदार यह चीज बर्दाश्त करे।
    आम तौर से यही समझा जाता है कि जमींदारों की भी वही बिरादरी और वही धर्म होते हैं, जो किसानों के। मगर यह बात, यह खयाल, सरासर गलत है।
    जमींदारों की नकली और दिखावटी जाति-बिरादरी भले ही किसानों से मिलती हो और धर्म भी भले ही वैसा ही हो, तो भी उनकी असल जाति और ही होती है और वह सबों की एक ही होती है। इसीलिए जहाँ किसी एक धर्म या जाति के जमींदारों ने किसानों के खिलाफ आवाज उठाई कि सभी जमींदार, बिना जाति और धर्म के विचार के, सियार की तरह हुऑं-हुऑं मिला देते हैं।
    इसलिए उनकी बिरादरी एक है। धर्म भी एक ही है। वह किसानों से निराला ही है भी। ऊपरी धर्म और बिरादरी तो धोखे में डालने के लिए है। असल में जमींदारी, जोर-जुल्म और रुपया-पैसा यही उनकी जाति है, यही उनका धर्म है। इसका नाश वे हर्गिज बर्दाश्त नहीं कर सकते। हाँ, ऊपरी जाति-धर्म भले ही नष्ट हो जाए, कोई परवाह नहीं। इसीलिए दशरथ सिंह प्रभृत की समझ गलत थी कि उनकी बिरादरी वही है जो जमींदारों की। यही कारण है कि जमींदारों ने उसी दम तय कर लिया कि किसानों को सबक सिखाया जाए ताकि ऐसा समझने की नादानी वे आइन्दा कभी न करें।
    किसान लोग तो लारी से घर चले गए। मगर जमींदारों ने सलाह की कि समूचे मुहम्मदपुर के किसानों पर चार साल के बकाया लगान की नालिश की जाए और उन्हें तबाह किया जाए। वे लोग लगान चुकती की रसीदें पेश करके मुकदमे को खारिज न करवा दें, इसलिए वही बाजारू रसीद वाला नुक्स निकाला गया। सोचा गया कि वे रसीदें इनकार कर दी जाएँगी कि जाली हैं। कहेंगे, हम ऐसी रसीदें भला क्यों देने लगे? तब सवाल होगा कि अच्छा, तो आप लोग जो रसीदें देते हैं वे ही अदालत में पेश करें। मगर दूसरी रसीदें तो पास में हैं नहीं। ऐसी दशा में नालिशफिर गड़बड़ी में पड़ जाएगी। अगर नामवाली रसीद अभी छपवाकर पेश भी करें तो गुजर नहीं, क्योंकि अदालत में तो पुरानी रसीदों की माँग होगी और वे तो असम्भव हैं।
    इसके बाद वे लोग गया में एक वकील साहब के पास पहुँचे। वह उनमें से एक जमींदार के दामाद हैं, साथ ही किसानों के बड़े हिमायती माने जाते थे। आज भी तो उनका और उनके साथियों का ऐसा ही दावा है। उसके बाद किसानों के माथे सवार होकर वे बहुत आगे बढ़े भी हैं।
    मगर, वकालत पेशा ही कुछ ऐसा है कि जरूरत पड़ने पर गुरु का भी गला काटने की सलाह वकील लोग दे सकते हैं। गंगा, तुलसी और बाइबिल, कुरान उठवा कर झूठी कसमें तो रोज ही खिलवाते हैं। इस प्रकार, जब अपने भगवान और खुदा का ही गला काट डालते हैं तो किसान का गला तो बहुत ही नर्म है। उसको काटना बकरे के गले से भी आसान है। किसानों की हिमायत भी तो अपना काम निकालने के लिए ही थी। अपना काम बिगाड़ कर किसानों की भलाई के लिए हिमायत की जाती है,ऐसा जो किसान माने, वह मूर्ख है। वैसे, सच्चे हिमायती तो बिरले ही होते हैं।
    खैर, वकील साहब की तो पाँचों घी में हो आईं। सम्बन्धी के सम्बन्धी और मुवक्किल के मुवक्किल मिले। उनके लिए तो सोने में सुगन्‍ध मिली। उन्होंने चटपट रास्ता सुझा ही तो दिया। राय दी कि किसी प्रेस वाले को कुछ ज्यादा पैसे देकर मिलाया जाए। वह रसीदें छापकर अपने कागजों में पाँच-सात वर्ष पहले दर्ज करे। फिर वे ही रसीदें पेश की जाएँ कि पुरानी हैं। सबूत में उस प्रेस वाले के पुराने रजिस्टर दाखिल हों जिनमें यह जालसाजी की गई हो। काम तो आसान नहीं। मगर, पैसे से सब हो सकता है।
    एक बात और भी की जाए, नहीं तो सब गुड़ गोबर हो जाएगा। कुछ किसान मिलाए जाएँ। ये नई रसीदें पाँच-सात वर्ष की पुरानी तारीखों में काटकर उन्हें दी जाएँ और उन्हें राजी किया जाए, गवाही देने और उन्हें अदालत में पेश करने के लिए कि ये ही रसीदें वे पहले से पाते आ रहे हैं।
    इस प्रकार सब षडयंत्र ठीक हो गया और पूरी तैयारी भी कर ली गई।
    मुहम्मदपुर के किसानों को तो मालूम नहीं कि उनका गला रेतने के लिए क्या-क्या हो रहा है। वे तो निश्चिन्त थे। इधर भीतर ही भीतर सारी तैयारी करके उन पर रेंट सूट (लगान का केस) दायर कर दिया गया। जब किसानों को इसकी नोटिस मिली तब वे चौंके कि यह क्या? दौड़े-दौड़े गया पहुँचे। वहाँ से फिर जहानाबाद। वहाँ पता लगाया, तो बात सही निकली। फिर भी वे तो फूले थे कि रसीदें पेश कर देंगे, फलत: पहली पेशी में ही यह केस खत्म हो जाएगा।
    मगर, मुकदमा पेश होते ही पता चला कि बात कुछ और ही है। तारीखों पर तारीखें पड़ीं। किसानों ने बड़ी दौड़-धूप की। उन्होंने पैसे भी काफी खर्चे। मगर बन्दिश ऐसी पक्की थी कि उनकी एक न सुनी गई और उनके खिलाफ पूरे दस हजार रुपए की डिग्री हो गई। हाकिम ने न तो किसानों के बयानों को ही माना और न उन रसीदों को ही। उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित हुई। ये ही आज के कानून और न्यायालय। भला गरीब और अपढ़ इनसे कब पार पा सकते हैं?
    अपील करते-कराते वे लोग हाईकोर्ट तक का दरवाजा खटखटा कर निराश हो गए। डिग्री बहाल की बहाल रही। उलटे और भी खर्च उस पर जुटता गया और सूद भी। किसानों का खर्च और उनकी परेशानी तो अलग थी ही।
    कहते हैं कि वे लोग दो बार हाईकोर्ट तक पहुँच कर थक गए। इसके बाद गवर्नर के पास भी दरखास्तें गईं। छोटे अफसरों का तो कहना ही क्या? मगर नतीजा कुछ न हुआ, सुनवाई कहीं न हुई।
    इतने में किसान सभा का जमाना आ गया। किसान पंडित यदुनन्दन शर्मा के पास गए और उन्हें लेकर मुझे भी पकड़ा कि जमींदारों से मेल-जोल करवा दें। वे वकील साहब तो हम दोनों के पूरे परिचित थे। जमींदारों से भी मेरा परिचय था। मैंने भी कोशिश की, केवल इसलिए कि किसानों को सन्तोष हो जाए।
    वकील साहब तो चुप रहे, मगर जमींदारों ने मुझे खुश करने के लिए मेरे सामने बातें मान लीं और तय कर देने को कहा। तय क्या करना था। कुछ रकम छोड़ कर, कुछ की किस्तें कर देनी थीं।
    लेकिन पीछे जमींदार लोग बदल गए। मैंने पत्र लिखा। मगर उत्तर नदारद।
    तब हमने दशरथ सिंह को राय दी कि अब सीधी लड़ाई लड़ो, गाँव पर किसान सभा का आश्रम खोल कर कुछ कार्यकर्ता रखो। इधर वे चारों ओर प्रचार और तैयारी करें, उधर तुम लोग अपने बाल-बच्चों के साथ आसपास के गाँवों में जाकर सभी लोगों से हाथ जोड़ कर कह दो कि तुम्हारी जमीन नीलाम होने पर कोई लेने या जोतने को तैयार न हो, हमारे कार्यकर्ता भी इसमें सहायता करेंगे।
    किसानों ने यही बात अक्षरश: की। फलत: देहात के किसानों पर असर हो गया कि सचमुच ये हमारे भाई हैं। हम क्यों इनकी जमीन छीनें? जब आप खुद दु:खी बन कर बाल-बच्चों के साथ किसानों के पास गिरिए, तो वे जरूर आपका साथ देंगे। ऐसा मैंने कई मौकों पर देखा है। यहाँ तक हुआ है कि जमींदारों ने बिना जमीन वाले मजदूरों को बुला कर किसानों की जमीन में से थोड़ी दी थी, बाकी में उन्हीं के द्वारा अपनी खेती करवाते थे। मगर जब मेरी राय मान कर किसान उन मजदूरों के पाँवों पर पड़े, तो वे जमीन छोड़ कर चले गए और मजबूरन जमींदार ने जमीन फिर पुराने किसानों को ही दी।
    परिणामस्वरूप जब मुहम्मदपुर की पूरे अस्सी बीघे जमीन नीलाम करवा कर जमींदारों ने दूसरे किसानों से आबाद करानी चाही, तो सब ने साफ इनकार किया कि भाई की जमीन हम क्यों छीनें? यहाँ तक कि सौ-सौ रुपए फी आदमी को देकर कुछ पाही किसान ग्वालों से उन्होंने खेती करवानी चाही। लेकिन साफ इनकार।
    वह जमीन गाँव के सामने उससे मिली हुई पूर्व ओर है। उसमें बहुत अच्छा धान होता है। किसान लोग, नीलाम होने के बाद भी, उसे बराबर जोतते-बोते और फसल काटते रहे। जमींदार हैरान थे। उनकी एक न चलती थी।
    लाचार उन्होंने उस जमीन पर दफा 144 की नोटिस करवाई। मगर नोटिस न तो तोप है, न तलवार, न लाठी और न कटीला तार, कि जमीन में जाना और खेती करना बन्द करवा दे। नोटिस के बाद भी तो जमीन पर पहले ही जैसे किसान का हल चलता है, चल सकता है, और धान वगैरह पैदा होता ही रहता है। तब फिर वे मानने और रुकने क्यों लगे?
    कहते हैं,खेत पर और आदमी पर नोटिस लग गई। मगर हजार रोशनी लेकर और कोशिश करके देखें, तो जमीन या आदमी पर वह नोटिस लगी हुई नजर आती नहीं। वह तो सिर्फ हमारे गन्दे दिमाग में लग जाती है।
    हाँ, यदि हक की बात हो तो मानें भी।
    मगर उस जमीन पर हक तो असल में किसानों का ही था, और अगर रुपए तथा बुद्धि के बल पर कानून को जबर्दस्ती किसानों के विरुद्ध किया जाए तो किसानों का यह एकमात्र पवित्र कर्तव्य हो जाता है कि उस कानून को न मानें,उसे मानने से साफ इनकार कर दें। तभी कानूनों की छाती पर चलने वाली रुपए की यह चक्की बन्द हो सकती है। दूसरा रास्ता नहीं। जब तक ऐसा न होगा तब तक धनी, या जमींदार, जालफरेब तथा अन्याय के द्वारा उनका हक छीनने की कोशिश बन्द नकरेंगे।
    वहाँ के किसानों ने यही किया। नोटिस की परवाह न की और उस साल भी फसल तैयार करके काट ली।
    जब अगले वर्ष भी किसानों ने फसल तैयार कर ली, तो काटने के पहले ही जमींदारों ने उसे जब्त करा कर पुलिस का एक अच्छा दल उसकी रखवाली के लिए तैनात करवा दिया। जमींदारों ने कहा, बोएँ किसान और जब्त करवा-करवा कर काटें हम, बस इसी से वे लोग सर हो जाएँगे।
    जमींदार भीतर ही भीतर खूब खुश थे कि भली तैयार फसल हाथ लगी। मगर किसान और हमारे कार्यकर्ता निश्चिन्त थे। उन्होंने तय कर लिया था कि चाहे कुछ हो, जमींदारों के हाथ फसल न लगने देंगे। फलत: सुबह, शाम और दिन या रात में, जब भी मौका लगता, इधर-उधर से कुछ न कुछ धान वे लोग उड़ा ले जाते थे। जब जमींदार लोग जानबूझ कर बेईमानी पर उतर आए थे, तो फिर किसान क्यों नाहक युधिष्ठिर बनने का दावा करते? यह तो पहले दर्जे की नादानी होती। इसलिए मौका देखकर कुछ न कुछ बराबर नोचते रहते। रात में जब पुलिसवाले सो जाते, तब खासतौर से काट लेते। काटते भी इस होशियारी से कि आसानी से मालूम तक न होता। बीच-बीच में से खींच लेते।
    अधिकांश तो उन्होंने यह किया कि धान की फसल की मलाई ही निकाल ली और सिर्फ उसका डण्ठल ही खड़ा रहने दिया, ताकि दूर से देखने वाले समझें कि फसल खड़ी ही है। जब धान की प्राय: सभी अच्छी-अच्छी बालें खींच ली गईं, तो डण्ठल और पुआल खड़ा रहने में हर्ज ही क्या था?
    पुलिस ने कटवा कर फसल जब खलिहान में रखी, तो वहीं से धान के बोझे और बण्डल गायब हो गए। एक बण्डल के चार बना कर एक रख दिए और तीन को गायब कर दिया। इससे बंडलों की गिनती में तो फर्क न पड़ा और असल माल जैसे चूहों के पेट में चला गया। आखिर ये सैकड़ों दोपाए चूहे दिन-रात लगे जो रहे। उन्हें नींद हराम जो थी। पुलिस भी तो आखिर किसानों के ही परिवारों से आती है। तो क्या उसे गरीबों पर दर्द नहीं होता? और अगर जरूरत होने से उसकी थोड़ी-बहुत पूजा-प्रतिष्ठा कर दी जाए, पत्र-पुष्प अर्पण कर दिया जाए, तो कहना ही क्या। बात तो यह है कि यदि सैकड़ों आदमी संकल्प करके किसी काम में पड़ जाएँ और चैन न लें, तो उसमें सफलता जरूर ही मिलती है। यही बात महमद (मुहम्मद) पुर में भी हुई।
    अन्त में जब जमींदार ने धान को पुआल से अलग करवा कर साफ करवाया और तौला, तो कुल सवा सौ मन कच्ची तौल से धान निकला। जमीन थी पूरे अस्सी बीघे। उधर पुलिस लाने और महीनों रखने में पूरे नौ सौ रुपए खर्च हुए थे। धान मुश्किल से डेढ़-दो सौ रुपए का हुआ होगा। बस, जमींदारों की हिम्मत खत्म थी। अगर इसी प्रकार दो-चार वर्ष लगातार किसानों की तैयार फसल जब्त करवाने और काटने का काम वे लोग जारी रखते, तो जमींदारी ही बिक जाती। इसलिए उन लोगों का हिसाब गलत निकला। इसे ही कहते हैं 'सौ सुनार की और एक लुहार की'। उन्होंने हजारों रुपए खर्च करके धान लेने की तैयारी की, मगर किसानों ने अनायास ही उनके मंसूबे पर पानी फेर दिया।
    फलत: उन लोगों ने दशरथ सिंह वगैरह किसानों को खुद बुलवा कर कहा, जाइए, हम लोग हारे। आप लोग जीते। अब दस हजार रुपए की डिग्री खर्च, इस बीच के कई साल का लगान, और पुलिस वगैरह लाने का खर्च सब खत्म हुआ। आप लोग खेत जोतें और हमें भी हमारा मुनासिब हिस्सा देते रहें, यही कहना है।
    किसान खुशी-खुशी घर आए। इस अपूर्व विजय पर खूब उत्सव मनाया गया। इसकी प्रसिद्धि देहात में चारों ओर हो गई। इससे अन्य जमींदारों की भी हिम्मत टूट गई।
    इधर, सभी किसानों में आत्मविश्वास पैदा हो गया कि हम लोग आसानी से जमींदारों को पछाड़ सकते हैं। कुछ दिनों बाद दशरथ सिंह ने मुझसे मिल कर यह खुशखबरी सुनाई। मैंने उन्हें बधाई दी।
    मगर अब उन्होंने मुझसे यह कहा कि जमींदारों से कहकर उस अस्सी बीघे जमीन की रसीद हमारे नाम से कटवा दें क्योंकि जमीन तो नीलाम थी और जमींदार लोग किसानों से इधर जो गल्ला पाते थे उसकी रसीद देते न थे।
    असल में, रसीद देने से उस जमीन पर किसानों का दखल साबित हो जाता और जमींदार यही बचाते थे; इसलिए दशरथ सिंह की यह प्रार्थना थी।
    मैंने उत्तर दिया कि जमींदारों को आपने पछाड़ा है, न कि मैंने, आप लोगों को यह खूब समझना चाहिए। किसानों की भारी भूल यही है कि सबकुछ करते
हैं खुद, मगर उसका श्रेय गैरों को, नेताओं को, भगवान को या तकदीर को, देते हैं। आप इस भूल को सुधारें। असल में हम लोग तो निमित्त मात्र हैं। करने वाले आप ही हैं। इसलिए आप ही जमींदारों से कहिए। वे डर कर रसीद जरूर देंगे। ...मगर रसीद की जरूरत क्या है? जब रसीद मिलती थी तभी तो यह जमीन
चली गई। आज तो आपने, अपने संगठन से, जमींदारों को हरा कर उसे पुन: प्राप्त किया है। अब, जब तक जमींदार शरारत न करें, उन्हें भी उचित भाग दीजिए और शेष स्वयं खाइए। लेकिन यदि वे गड़बड़ करें तो सब खा जाइए। वे कुछ न कर सकेंगे। जमीन आपके नाम पर अब है नहीं कि नालिश करेंगे। फिर नाहक रसीद क्यों चाहते हैं?
    वे चले गए और तब से यही कर रहे हैं।
 
 
 
(3)
 
पटना जिले के सिलाव थाने में दरमपुरा नाम की एक छोटी-सी बस्ती है। वहाँ कुछ ब्राह्मण और कुछ दूसरे किसान बसते हैं। वे गरीब हैं और जमीन जोत-बोकर ही गुजर करते आ रहे हैं। उस गाँव के जमींदार मुहम्मद इद्रिस साहब दूसरे मौजे में बसते हैं, जो वहाँ से कुछ दूर है।
    इद्रिस मियाँ ने उस गाँव की अधिकांश जमीन नीलाम करवा कर बकाश्त बना ली थी। मगर उन्हीं किसानों को फिर बँटाई पर दे दी थी। खुद तो खेती कर सकते न थे। उसमें बँटाई की अपेक्षा फायदा भी न था। बँटाई में आसानी यह थी कि जब खुशी हुई, एक से छीन कर दूसरे को दे दी। ज्यों ही किसान जरा भी खुशामद में चूका कि उसकी जमीन गई।
    कानून के अनुसार वह जमीन एक बार देकर फिर नहीं छीन सकते थे क्योंकि बकाश्त जमीन यदि उसी मौजे का किसान (Settled raiyat) एक बार जोत ले, तो बिहार काश्तकारी कानून की 21वीं धारा के अनुसार उस जमीन पर उसका कायमी हक हो जाता है; अत: अगर जमींदार उसे छीने तो अपराधी है। मगर किसान को कानून-फानून का क्या पता? और जमींदार को उसकी परवाह भी क्यों हो, जब किसान ही अन्‍धा ठहरा और अपना हक ही नहीं जानता?
    इसलिए इद्रिस मियाँ की यह छीना-झपटी और तुम्बा-फेरी बराबर जारी रही। जो ज्यादा से ज्यादा रुपए या गल्ला देता, उसे ही जमीन देते थे।
    इधर जब किसान सभा का जमाना आया और उसके करते किसानों की ऑंखें खुलीं, तो उन्होंने अपने हक पहचाने। खासकर बकाश्त जमीन वाली बात उन्हें खूब समझाई गई। उन्हें तैयार भी किया गया कि वे बकाश्त जमीनों को हर्गिज न छोड़ें। जगह-जगह किसान डटने भी लगे।
    फिर तो इद्रिस मियाँ के कान खड़े हो गए। फलत: उन्होंने सभी बकाश्त जमीन दरमपुरा के किसानों से छीन ली। उन्होंने यह भी सोचा कि या तो खुद खेती करें या दूसरे गाँवों के (पाही) किसानों को दें। पाही किसान के बारे में तो काननू है कि बिना लगातार बारह वर्ष उस गाँव में खेती किए वह देही किसान (Setted raiyat) बन नहीं सकता और बिना देही बने बकाश्त जमीन पर कायमी हक हो ही नहीं सकता। उन्होंने यह भी सोचा कि न किसी पाही किसान को बारह वर्ष लगातार खेती करने देंगे, और न वह कायमी हक का दावेदार होगा।
    उधर दरमपुरा वालों की तो भूखों मरने की नौबत आई। वे हजार रोए-चिल्लाए और वचन देते रहे कि हम कोई दावा न करेंगे, मगर मियाँ जी सुनने वाले कब थे? वह तो जमाने की हवा देखते थे और काफी सजग थे।
    यद्यपि जमीन छीनने का हक तो उन्हें नहीं था और अगर किसान डट जाते, तो वह मश्किल में पड़ जाते, मगर किसानों में हिम्मत कहाँ थी कि डटें ? सो भी, उस इलाके के किसान बहुत पिछड़े हुए थे। जमींदारों ने उन्हें काफी दबा रखा था। उधर छोटे जमींदार ज्यादा हैं। वे और भी ज्यादा जुल्म करते हैं। लोगों का खयाल है कि छोटे-छोटे जमींदासर तो गरीब होते हैं, वे जुल्म भी नहीं करते या नाम मात्र का ही करते हैं, इसलिए उनके ऊपर खास तौर से रहम होना चाहिए। मगर यह बात सरासर गलत है। मैंने तो देखा है कि छोटों का जुल्म अपेक्षाकृत कहीं ज्यादा है। यह ठीक है कि बड़े जमींदार हजारों और लाखों किसानों पर जुल्म करते हैं और अगर उनका सब जुल्म जमा कर दिया जाए, तो उसका पहाड़ बन सकता है। लेकिन यदि व्यक्तिगत किसानों को अलग-अलग देखा जाए, तो आम तौर से छोटे जमींदारों का अत्याचार कहीं बढ़ा-चढ़ा है। बड़े तो शायद ही ऐसे हों, जो लगान लेकर रसीद न देते हों। मगर छोटे तो शायद ही कोई रसीद देते हों। सो भी, यदि कोई देता है तो बाजारू रसीद खरीद कर ही, जो कानूनन गलत है।  मौके पर काम भी नहीं करती।
    लेकिन भावली जमीन की रसीद तो कोई छोटा जमींदार देता ही नहीं। अगर भूल से किसी ने कभी दी भी, तो पाँच मन गल्ले की जगह पचीस मन उस पर लिख कर देता है। कुछ जमींदारों ने एक बार दलील दी की कि भावली की रसीद रहने पर जब किसान उसे नकदी (cash) करने का दावा करेगा, तो लगान बहुत कम होगा। वह गल्ले की रसीद पेश कर देगा और उसी के अनुसार नकद लगान तय होगा, इसी से हम रसीद नहीं देते क्योंकि मौका आने पर हम कहेंगे कि हमें ज्यादा गल्ला मिलता है। जमीन बहुत अच्छी है। ज्यादा गल्ला लिख कर रसीद देने का भी यही मतलब है ।
    हरी, बेगारी, दूध, दही, घी आदि की बात तो पूछिए मत। यह तो छोटे जमींदारों का सनातन धर्म ही ठहरा। असल में छोटी लाल मिर्च जितनी कड़वी होती है, उतनी बड़ी नहीं। जितना तेज कुटकी या पिस्सू काटता है, उतना तेज मच्छर नहीं। मुहम्मद इद्रिस भी छोटे ही जमींदार हैं। इसीलिए किसानों को उन्होंने काफी तबाह किया है। जमीन नीलाम भी इसी तरह करवाई थी।
    रसीद तो कभी देते न थे और जब भी जरा भी रंज होते तो चट चार साल के लगान की नालिश ठोंक कर जमीन ही नीलाम करवा लेते । जब मौरूसी और खतियानी (सर्बे खतियान में दर्ज) जमीन की ही रसीद देना उन्होंने नहीं सीखा, तो फिर बकाश्त की रसीद की क्या बात ? इसीलिए उन्होंने सोचा कि यदि जबर्दस्ती यह जमीन छीन लें, तो किसान करेंगे ही क्या । उनके पास सबूत तो कोई है नहीं कि वे जमीनें जोतते थे।
    उधर पुलिस और सरकार के घर में अन्धेरखाता ऐसा है कि वह कागजी सबूत और रसीद ही ढूँढ़ती है। वह तो इस मामूली अक्ल से भी काम लेना नहीं जानती कि जमींदार रसीद देकर बेवकूफी क्यों करेगा ? यह सभी जानते हैं कि मौरूसी जमीनकीभी रसीदें जब नहीं मिलती हैं, तो बकाश्त की कैसे मिलेंगी ? मगर फिर भी रसीदें ढूँढ़ते और नहीं रहने पर किसान को दुरदुराते हैं कि हटो, तुम्हारा दखल उस जमीन पर नहीं है।
    जिसे रसीद लिखने और देने का हक और इल्म है, वह तो देता नहीं। तो किसान क्या करें? क्या अपना सिर फोड़ें?...उस पर भी तो सुनवाई नहीं।
    मगर पास में रसीद न होने पर भी रसीद के बाप-दादे तो उसके पास हैं ही, जिन्हें हल, बैल, कुदाल आदि कहते हैं। हाकिम का काम है असलियत का पता लगाना। इसलिए उसे उचित है कि किसान के घर जाकर हल, बैल आदि देखे और पता लगाए कि इनसे वह कौन सी जमीन जोतता है। आखिर अपना घर, जमींदार और सरकार की कचहरी या पुलिस का थाना तो जोतता न होगा। और जब दूसरी जमीन उसके पास है नहीं, तो खामख्वाह वह बकाश्त जमीन ही जोतता होगा। बैलों से तो दूध भी नहीं दुहा जा सकता कि उसी वास्ते पाले गए हों। वह खुफिया गवाही भी ले सकता है।
    मगर ये मोटी और साफ बातें छोड़, उसे केवल रसीद की फिक्र रहती है। पाँच हाथ का हल और हेंगा (चौकी) छोड़ कर चार अंगुल का कागज ही उसके लिए भारी सबूत है। यह भी खयाल नहीं होता कि रसीद पर न तो हल ही चलता है और न खेती ही होती है। खेती तो खेत में होती है। सो भी हल-बैलों से ही। फिर रसीद के लिए परेशानी क्यों?
    इस प्रकार जब किसानों को कोई आसरा न रहा, तो हार कर किसान सभा के कार्यकर्ताओं के पास पहुँचे। उन्हें सारा दुखड़ा कह सुनाया। उनका तो काम ही था किसानों का पथ-प्रदर्शन करना और जहाँ तक हो सके उनकी सहायता करना।
    उन्होंने किसानों को राय दी कि जमीन पर डट जाओ। शान्तिपूर्वक वहीं मरो-मिटो। दूसरा उपाय है नहीं। अगर तुम लोगों ने यह तय कर लिया कि जब तक तुम्हारी और तुम्हारे बाल-बच्चों की छाती पर से जमींदार या उसके आदमियों का या गैर किसानों का हल गुजर नहीं लेगा, तब तक खेत न जोतने दिया जाएगा, तो विजय तुम्हारी होगी। केवल चुपचाप खेत में सपरिवार पड़ जाना और किसी भी हालत में न हटना; यही तुम्हारा काम होना चाहिए। अच्छा है, सभी वहीं मर जाएँगे तो खाने-पीने का प्रश्न सदा के लिए जाता रहेगा। जमींदार से भी कह देना चाहिए कि खून की खाद सबसे अच्छी बताई जाती है; इसलिए हमारा खून खेत में बहा कर चलते-चलाते उसे पैदावार बना लीजिए। मगर सभी लोगों को, स्‍त्री, पुरुष, बच्चों को, ऐसा करना होगा। तभी जीत होगी। अगर फसल तैयार हो, तो काटने के समय ही छेंक कर पड़ जाओ।
    किसानों के पास भी दूसरा रास्ता न था। अत: बातें मान कर चले गए।
    किसानों की बोई धान की फसल तैयार थी। जमींदार ने उसे अपनी बता, काटना शुरू किया। जब किसान रोकने गए, तो दफा 144 की नोटिस उन पर करवा दी। जब उसे न मानकर खेत पर धरना देने गए, तो पुलिस के द्वारा पकड़वा कर सबों को, मर्दों को, जेल भिजवा दिया और फसल काट कर खलिहान में जमा की।
    अब औरतों और बच्चों की बारी आई। औरतें तो ब्राह्मण कुल की ठहरीं। उनमें सबसे समझदार औरत को सीताराम कहते हैं। उसने ही औरतों का नेतृत्व किया। सभी औरतें, बच्चे-बच्चियों के साथ, खलिहान में जा बैठीं। धान के पास ही पुआल की पलानी (छप्पर) डाल कर रहने लगीं। वहीं से धान निकाल कर सुखातीं, उसका चावल कूटतीं, पकातीं और खाती थीं। ओखली, बर्तन, सभी सामान वहीं ले गईं, और उसे ही घर बना लिया। कुछ दिन यही चलता रहा।
    जमींदार घबराया कि क्या करे। पुलिस का दरवाजा खटखटाया। और, वह जमींदार की मदद को आ धमकी।
    पूस-माघ के दिन और कड़ाके का हड्डी-तोड़ जाड़ा पड़ता था। गरीबों के पास वस्‍त्र कहाँ? चिथड़े लपेट कर पुआल और पलानों के भीतर घुस कर किसी प्रकार दिन काटती थीं।
    पुलिस ने सबसे पहले उनकी भात पकाने की हंडिया तोड़नी और फेंकनी शुरू की ताकि भूखों मर कर भाग जाएँ। बड़ी भीषण परिस्थिति थी। धान तो खाया नहीं जा सकता। और अगर किसी प्रकार चावल बना भी, तो कच्चा कैसे खाया जाए? सो भी रोज-रोज? पीछे तो चावल कूटने का सामना भी छीन लिया गया।
    मगर औरतें हिम्मत के साथ डटी रहीं। और, बच्चे-बच्चियाँ भी। उफ्! कैसी नृशंसता पुलिस कर रही थी। उधर, हमारे कार्यकर्ता भी सजग थे। खाने की चीजें, बनी बनाई उन्हें दे आने लगे।
    इस पर पुलिस ने सभी को पकड़ने की धमकी दी। बिहारशरीफ वालों को और सिलाव वालों को भी हुक्म सुना दिया गया कि किसी किस्म की सहायता नहीं कर सकते, नहीं तो केस चलाया जाएगा। तब रात में चुपके से खाना पहुँचाया जाने लगा।
    इस प्रकार, काम जारी रहा और पुलिस तथा जमींदार का मंसूबा पूरा होता न दीखा। औरतों को गिरफ्तार करने की हिम्मत उनकी होती न थी। चाहते थे कि वे यूँ ही हार कर भाग जाएँ। मगर सो तो हुआ नहीं। अब क्या किया जाए, यह सोचा जाने लगा।
    इतने में मघबदरिया शुरू हुई और लगातार हवा के साथ थोड़ी-सी बूँदा-बाँदी कई दिनों तक पड़ती रही। बस, पुलिस को शैतानियत सूझी। उसने उन औरतों की झोंपड़ियाँ उजाड़ कर फेंक दीं और हजार कोशिश करने पर भी फिर बनने-बनाने नहीं दीं।
    अब तो बड़ी आफत थी। एक तो पास में अन्न-वस्‍त्र नहीं। इस पर वह भयंकर हवा और बदली। जाड़ा तो था ही। मगर वाह रे हिम्मत। आखिर सीताराम के नेतृत्व ने कमाल किया और उन औरत-बच्चों ने ऐसा किया जो किसान आन्दोलन के इतिहास में अमर रहेगा।
    उसने सबकुछ सहा। मगर वहाँ से हटने का नाम न लिया।
    पुरानी पुस्तकों में लिखा है कि मर्दों की अपेक्षा स्त्रियों में दो-गुनी मर्दानगी और छह गुनी तत्परता रहती है। इसकी सच्चाई हमने प्रत्यक्ष रूप से वहीं देखी। सभी हैरत में थे। पुलिस भी दंग थी। जमींदार और उसके पिट्ठू हक्का-बक्का थे।
    अन्त में मजिस्ट्रेट साहब के सामने चल कर तय कराने के बहाने वे औरतें और बच्चे-बच्चियाँ पुलिस के जरिए बिहारशरीफ लाई गईं। मगर वहाँ भी धोखेबाजी की गई और, बच्चे-बच्चियों को किसी प्रकार अलग करके, औरतों को गिरफ्तार कर लिया गया। बच्चे-बच्चियाँ धर्मशाला में लाई गईं। मगर पुलिस की ताकीद थी कि उन्हें कोई खाना न दे।
    लेकिन सभी लोग उसी तरह पत्थर के तो होते नहीं। फलत: लोग उन्हें खिलाते-पिलाते रहे। पुलिस चाहती थी कि ये बच्चे-बच्चियाँ घर जाने को राजी हो जाएँ; इसीलिए खाना-पीना रोकती थी।
    मगर उन बच्चों की हिम्मत तो देखो। उनमें सबसे बड़ी थी एक लड़की, जो आठ-दस वर्ष की होगी। बाकी छोटे थे। वही लड़की सबका नेतृत्व करती थी। उनमें कोई कभी रोने का नाम तो लेता न था। पूछने पर सबों ने यही उत्तर मिलता था,हम लोग भी जेल ही जाएँगे।
    इसे ही कहते हैं माता-पिता की अमली शिक्षा। उन बच्चों ने न तो स्कूल में और किसान सभा में ही जेल जाने की बात सीखी थी। जिस प्रकार पक्षी का बच्चा माता-पिता का उड़ना देख कर ही उड़ना और बत्तख का बच्चा तैरना देख कर तैरना सीख जाता है, ठीक वही बात यहाँ थी। लोग दंग थे। दिन-रात मेला लगा रहता था। अत:, अन्त में बच्चों को भी माँ-बाप के पास भेजना ही पड़ा।
    जेल में रहने पर भी औरतों की हिम्मत न टूटी और वैसा ही उत्साह बना रहा। वहाँ से लौटते ही फिर खेत पर आ डटीं।
    फिर तो जमींदार साहब निराश होकर वहाँ से हट ही गए। यहाँ तक कि कई वर्षों तक लगान वसूल करने की भी उन्हें हिम्मत न रही। वह वहाँ आने की हिम्मत कर ही न सके। इसी बीच मैंने वहाँ जाकर देखा और सीताराम के नेतृत्व में उन स्त्रियों के दल से बातें भी कीं।
    जमींदार की कचहरी ही किसान सभा का आश्रम बन गई थी। उसी पर लाल झण्डा उड़ रहा था।
    उस समय गाँव का ही एक आदमी जमींदार का अमला था। इस आन्दोलन से दब कर वह भी किसानों के साथ हो गया था।
    अब सुना है, कई साल के बाद वह फिर अपनी पुरानी चाल चलने लगा है; धीरे-धीरे किसानों को फोड़ रहा है। इधर स्वच्छन्द होकर किसानों ने ऊख वगैरह की खेती की। एक-दो ने कुछ पैसे भी बचाए थे। बस, अब उस अमले के साथी बन उन पर सनक सवार है कि सभी जमीन हम लोग ही जमींदार से लिखवा लें और जोतें। ठीक है, 'घर फूटे गँवार लूटे।' जमींदार तो यह चाहता ही है।
    मगर यह होने न पाएगा। पुराने दिन सदा के लिए चले गए, यह याद रहे।
   
 
(4)
 
गया जिले के टेकारी थाने में सांढ़ा मौजा है। उसके जमींदार अमावां-टेकारी के राजा श्री हरिहरप्रसाद नारायण सिंह हैं।
    उस गाँव में किसान सभा के सबसे जबर्दस्त कार्यकर्ता ब्रह्मचारी रंगनाथ जी हैं। वे गठीले जवान, बिलकुल नई उम्र के, निडर आदमी हैं। लाठी-वाठी से जराभी नहीं डरते। हिम्मत काफी रखते हैं। अब तक कई बार जेल जा चुके हैं,सो भी किसानों की ही लड़ाई में। कांग्रेस से उनका कोई ताल्लुक नहीं रहा है। जहाँ किसानों का संघर्ष छिड़ा वहीं जा डटे। सौभाग्य से उनकी बहन भी उन जैसी ही हिम्मत वाली हैं।
    सांढ़ा गाँव तो बड़ा है। मगर उजड़ा-जैसा ही प्रतीत होता है। जमींदारी ऐसी जोंक और ऐसी पिशाची है कि किसानों का रक्त बूँद-बूँद करके चूस लेती है और उन्हें मरणासन्न छोड़ देती है। जमींदारों के अमले प्लेग के कीटाणुओं की तरह जहाँ पहुँचे कि उसे उजाड़ छोड़ा। इनके नाम पर किसानों का कलेजा काँपता है।
    सांढ़ा में हजारों बीघा जमीन नीलाम होकर किसानों के हाथ से निकल चुकी थी। मगर जमींदार आखिर क्या करता? जमीन तो पन्हाई गाय नहीं कि चट दुह ले। वह रुपया-पैसा या चावल-गेहूँ भी नहीं कि नीलाम करके कहीं उठा ले जाए। वह तो नीलाम होने के बाद भी जहाँ की तहाँ पड़ी रहती है। वह किसान को छोड़ना नहीं चाहती, छोड़ती नहीं। असल में उसी की जो ठहरी। फिर कहाँ जाए कैसे?
    इसीलिए तो अब किसान सभा के प्रताप से किसानों ने यह बात समझ ली है। उन्होंने जमींदारों से कहना भी शुरू कर दिया है कि जब तक जमीन को आप उठा नहीं ले जाते, जब तक वह जहाँ की तहाँ पड़ी रहती है, तब तक हम उसे जोतना-बोना न छोड़ेंगे चाहे कागजी नीलामी और दखल-दिहानी हजार हो जाए। आखिर जमीन रहते भी भूखों क्यों मरें? जाड़े में क्यों ठिठुरें और दवा के बिना मौत के मुख में क्यों चले जाएँ?
    कुछ लोग कहने लगे हैं कि किसान ज्यादती करते हैं। वे कानून नहीं मानते। मगर ज्यादती जो जमींदार और हाकिम करते हैं। वे चाहते तो हैं कि खेत नीलाम करवा कर उसके मालिक बन जाएँ, मगर भूख, बीमारी, जाड़ा, शर्म, आदि किसानों के पास ही छोड़ देते हैं। यह कैसे होगा?
    आखिर इन भूख, बीमारी आदि के लिए कोई कानून है? क्या ये किसी कानून को मानते हैं? यदि नहीं, तो किसान बेचारा क्या करे? उसे तो यही भूख, रोग आदि मजबूर करते हैं कि या तो वह खेत जोते या चोरी-डकैती करे। मगर चोरी-डकैती की तो हिम्मत उसे तब तक होती नहीं जब तक जमीन पड़ी है। हाँ, वह चली जाए तो चोरी-डकैती भी करनी ही पड़ेगी। लाचारी जो ठहरी।
    यह भी तो ताज्जुब ही है न, कि चोर-बदमाशों को पक्के मकानों में रखकर सरकार खुद खाना, कपड़ा और दवा देती है? मगर गेहूँ, बासमती, दूध, घी, पैदा करके गैरों को लुटाने वाले किसान भूखों मरते हैं और सरकार को जरा भी फिक्र नहीं। क्या इसका यह तात्पर्य नहीं कि सरकार अप्रत्यक्ष रूप से किसानों तथा गरीबों से इशारा करती है कि यदि जीविका का उपाय न हो, तो चोरी-डकैती करो?
    सरकार और जमींदार यह क्यों नहीं करते कि जमीन के साथ ही किसान परिवार की भूख, बीमारी, शर्म, जाड़ा आदि भी नीलाम करवा दें? तब कोई दिक्कत न होगी। फलत: बकाश्त जमीन का झमेला खड़ा ही न होगा।
    इसलिए सांढ़ा की जमीन भी उन्हीं किसानों के पास पड़ी थी। उसे वे ही जोतते थे। मगर तरह-तरह से तंग किए जाते थे। कभी पैदावार में से सिर्फ चौथाई उन्हें देकर तीन भाग जमींदार ले लेता, लेकिन उस चौथाई से तो खेती का खर्च भी सधाना असम्भव था। कभी प्रति बीघा दो-चार रुपए पहले ही लेकर उन्हें खेत दिया जाता, बाद में पैदावार में से भी आधा या दो-तिहाई लिया जाता। कभी पूरे खेत का लगान इतना ज्यादा बाँध दिया जाता कि उसे चुकाना किसान के लिए असम्भव हो जाता। सरकार मौजूद। उसकी सर्वशक्तिशालिनी पुलिस मौजूद। अमन और कानून के ठेकेदार भी मौजूद। मगर कोई देखने वाला नहीं कि यह लूट और अन्‍धेरखाता क्यों हो रहा है। जमींदार किस तमीज और किस अक्ल से ऐसा कर रहा है।
    जमींदार के दिमाग का भी दिवाला ही निकला समझिए। नहीं तो वह खामख्वाह सोचता कि जब थोड़ा-सा लगान रहने पर किसान चुकता न कर सके और अन्त में जमीन नीलाम हो गई, यह भी नहीं कि रुपए छिपा कर उन्होंने महल बनवाए, तवायफें नचवाईं या रासरंग किए, तो फिर यह कमरतोड़ खूनी लगान वे कैसे चुका सकेंगे और जिन्दा भी कैसे रहेंगे? यों तो जमींदार, उसके हिमायती, साथी और वकील तथा सरकार का दावा है कि वे सभी बड़े ही दिमागदार हैं। मगर दिमाग के दिवाले का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है?
    और तो और। सुनते हैं कि कोई सर्वशक्तिमान भगवान है। वह दीनबन्धु और दयालु भी है। तो क्या वह भी सोया है? या कि मर गया? या जमींदारों का घूस उसने भी खा लिया? नहीं तो ऐसा होने क्यों देता? क्या जमींदारों और पुलिस से वह भी डरता है? तो क्या ये किसान दीन-दुखिया और दया के पात्र नहीं हैं? क्या भगवान चाहता है कि ये लोग भी उसे हलुवा का भोग लगाएँ तब ही इनकी सुनेगा? मगर इन्हें हलुवा कहाँ मिलेगा? यहाँ तो सत्तू भी मयस्सर नहीं।
    जमींदार और सरकार दोनों ही पानी पी-पीकर कोसा करते हैं केवल किसान सभा वालों को। वे कहते हैं कि किसानों में क्रान्ति का भाव ये लोग ही भर रहे हैं, शान्ति एवं कानून भंग करने का पाठ उन्हें ये ही पढ़ाते हैं, मगर जमींदारों और उनके नौकरों की, उनके मैनेजरों, सर्किल अफसरों, तहसीलदारों, बराहिलों की, ऊपर लिखी जल्लादाना हरकतें ही असल में क्रान्ति और कानून तोड़ने की प्रवृत्ति के लिए क्षेत्र तैयार करती हैं। मरता क्या न करता? 'अतिशय रगड़ करै जो कोई, अनल प्रकट चन्दन ते होई।' सूखी घास और आग एक जगह रख देना और फिर उम्मीद करना कि आग न जले, सबसे बड़ी नादानी है।
    क्रान्ति की आग भूखे पेट और नंगे तन से पैदा होती है। पेट की ज्वाला पेट और शरीर को जलाने के बाद संसार को जला कर ही दम लेती है। दुनिया का इतिहास बतलाता है। आप पूर्वोक्त हृदयहीनता और शैतानियतें बन्द कीजिए और देखिए कि फिर भी क्रान्ति की बात कितने किसान करते हैं। भूख संसार में सबसे बड़ी है, यहाँ तक कि भगवान से भी। भगवान से मिलने और बैकुंठ जाने के लिए कोई चोरी नहीं करता। मगर भूख के लिए सभी करते हैं। गुरु जी महाराज चिल्लाते रहें कि, बच्चा, चोरी करो तो भगवान मिलेंगे। फिर भी चेले एक न सुनेंगे। मगर चोरी का उपदेश किसी भी भुक्खड़ को नहीं देना पड़ता।
    लेकिन किसान सभा का जमाना आया देख, जमींदार ने उस तरह भी जमीन देने से इनकार कर दिया। एक बार ले लेने के बाद किसान दावेदार हो जाएँगे और छोड़ेंगे नहीं, यह भय उसे भूत की तरह सताने लगा। जमीन से स्वयं कुछ पैदा कर सकता नहीं और किसान को देने में यह दिक्कत। अजीब पहेली थी। पाही किसान को दी जाए तो ठीक। मगर जो किसान सभा देही किसानों को सजग और संगठित कर सकती है, वह क्या उन्हें नहीं कर सकती? तब? फिर इस झमेले से क्या फायदा?
    मगर जमींदार यह सोचे तब न। उसकी तो बुद्धि ही मारी जा चुकी है। वह ऑंखों से देखता है कि धड़ाधड़ किसान संगठित हो रहे हैं। फिर भी वह वही मुंशी जी वाला हिसाब लगाए जा रहा है, हालाँकि मुंशीजी की ही तरह बहुत जल्द उसे कहना पड़ेगा कि 'नापेजोखे थाहे, लड़के डूबे काहे?' मगर ऐसा कौन पाही किसान था जो बला में पड़े? 'जहाँ साँप का बिल वहाँ पूत का सिराहना?' हजारों किसानों के बीच बाहर का आदमी जाकर किसी प्रकार खेती कर पाएगा? किसान लोग मुट्ठी-मुट्ठी करके नोच न लेंगे? यह बड़ा सवाल था। इसलिए सोचा गया, पहले जमींदार की ओर से उसमें खेती की जाए और कुछ दिनों के बाद सांढ़ा वाले जब ठण्डे पड़ जाएँ तो बाहरियों को वह जमीन दी जाए।
    आषाढ़ का महीना था। जमींदार के दलालों और अमलों ने सोचा कि खेत जोता जाए। मगर उसके पास इतने हल-बैल कहाँ? और, पास वाले किसान तो हल देंगे नहीं। किसान सभा का जमाना ही तो ठहरा। पहले की बात होती तो हरी, बेगारी, आदि से काम चल जाता। इसलिए बहुत दूर से बैलगाड़ियों पर लाद कर हल लाएगए। बैल भी आए। पुलिस को पहले ही खबर दे दी गई थी। गाँव वाले अस्सी प्रमुखलोगों पर दफा 144 की नोटिस भी तामील कर दी गई थी कि खेत के नजदीकन जाएँ।
    इधर हमारे किसानकर्मी पं. यदुनन्दन शर्मा भी तैयार थे। सांढ़ा जाकर गाँव के स्‍त्री-पुरुष सभी किसानों से बातें करके उन्हें ठीक कर आए थे। औरतें तैयार थीं और कहती थीं कि मर्द खेतों पर न जाएँ। आखिर सीधी लड़ाई तो थी ही। सत्याग्रह के नाम पर यश और वाहवाही थोड़े ही लूटनी थी। सोचा गया,किसान जेल क्यों जाएँ; वे बाहर ही रहें और घर-गृहस्थी सँभालें।
    उधर शर्मा जी को ही गिरफ्तार करने के लिए भी पुलिस तुली बैठी थी। मगर वह तो चुपके से रात में बीसियों मील साइकिल पर चल कर वहाँ जाते और काम करके भाग आते। पुलिस भी हैरान थी। कोई ऐसा वारंट तो था नहीं कि जहाँ पाए वहीं पकड़ लें। सांढ़ा में ही रोक थी और वहाँ उन्हें वह न देख पाती थी।
    खैर, उधर मर्दों की बुलाहट तो मजिस्ट्रेट साहब ने उस नोटिस के सम्बन्ध में कचहरी में की, और इधर बैलों के झुण्ड के साथ बैलगाड़ियों पर लदे-लदाए हल वगैरह लेकर जमींदार की यम-सेना ठीक उसी समय सांढ़ा पहुँच गई। पहले ही से सब ठीक-ठाक था।
    पुलिस के कई दरोगा, इंस्पेक्टर, कांस्टेबुलों का दल और सैकड़ों चौकीदार, दफादार भी साथ ही जा धमके। आखिर जमींदार की खेती करवानी जो थी। भलेमानसों को यह भी तमीज नहीं कि इतनी तैयारी से खेती नहीं की जा सकती। इसमें तो 'नौ की लकड़ी, नब्बे खर्च' की बात थी। और रोज-रोज यह यम-सेना और ये वानर-भालू मिलेंगे भी तो नहीं। तब क्या होगा? और ये जाएँगे भी कहाँ-कहाँ? पुराना जमाना भी नहीं कि किसान दब जाएँगे, डर जाएँगे। यह तो यदुनन्दन की गया में उनका और उनकी, हमारी, सभा का जमाना है।
    अन्त में हुआ भी ऐसा ही और 'नदिया नीचे गई, मगर दादा को डुबा कर।' जमींदार का और पुलिस का भी गर्व चूर होना था। और कुछ बात न थी।
    हाँ, तो पुलिस की सेना ने खेत को चारों ओर से घेर लिया और बीच में जमींदार के भाड़े वाले हल चलने लगे। वे लोग समझते थे कि मर्द लोग नोटिस के डर से कोई बाधा न डालेंगे। वे यहाँ हैं भी नहीं। जो हैं भी, वे पुलिस की तैयारी देख कर हिम्मत न करेंगे। चारों ओर सिर्फ हजारों तमाशबीन खड़े थे। नई चीज और पहले-पहल लड़ाई इसी प्रकार की थी। इसलिए कौतूहल भी था।
    इतने में ही गाँव से औरतों का एक झुण्ड, याद रहे बूढ़ी, जवान, सभी प्रकार की ब्राह्मण औरतें थी, आता दीखा और यह आया, वह आया, अब पहुँचा, तब पहुँचा करते-करते धड़ाम से उसी खेत पर आ ही तो गया। औरतों ने न कुछ सोचा, न विचारा। वे सीधे
सांढ़ा टिकारी के पास गया सम्पादक
पुलिस के घेरे को फाड़ कर हलों के पास चली गईं और उनके सामने लेट गईं।
    फिर, हल चलें तो कैसे? हल बन्द थे। और उसी के साथ पुलिस और जमींदार के आदमियों की बोलती भी बन्द थी। सभी हक्के-बक्के थे। कुछ सूझता न था। उन्होंने स्वप्न में भी न सोचा था कि ऐसा होगा और साड़ी एवं चूड़ी वालियों के सामने धोती तथा मूँछ वालों को झुकना होगा।
    फिर थोड़ी देर बाद राय-सलाह करके पुलिस ने उपाय सोचा और दूसरे खेत को जाकर मजबूती से घेर लिया। सभी पुलिस वाले एक-दूसरे की लम्बी बाँह पकड़े हुए खेत के चारों ओर छेंक कर खड़े हो गए ताकि औरतें उसके भीतर न जा सकें। मगर हल तो वहाँ था नहीं और औरतें उसे जाने देती न थीं। इसलिए एक-दो पुलिस अफसरों ने कुछ औरतों से मीठी-मीठी बातें शुरू कर दीं। इस प्रकार उन्हें फँसा लिया। कहने लगे, तुम लोग रईस घरों की बहू-बेटियाँ हो, यह काम ठीक नहीं, जेल जाना पड़ेगा, आदि-आदि। इसी बीच सभी हल पुलिस के घेरे में जाकर चलने लगे। तब एक औरत ने पुकार का बाकियों से कहा, यहाँ हमें बातों के धोखे में डाल कर, देखो, वह खेत जोता जा रहा है। चलो-चलो, नहीं तो सब खत्म हुआ।
    बस, फिर क्या था? सब की सब दौड़ पड़ीं और चण्डी की तरह पुलिस की बाँहों को मरोड़ कर अलग हटाती हुई हल के सामने जा जमीं। फिर तो न सिर्फ हल चलना ही बन्द हुआ, बल्कि हलवाहे और जमींदार के आदमी भी सब कुछ छोड़छाड़ कर भाग गए, हालाँकि उन्हें पुलिस ललकारती ही रही।
    इस पर पुलिस काफी बेवकूफ बनी। रंज होकर पुलिसवालों ने जमींदार के कारपरदाजों से यहाँ तक कह दिया कि जब तुम्हीं लोग भागते हो और कुछ करने को तैयार नहीं, तो हम नाहक क्यों मरें? बाद में वे अपना-सा मुँह लेकर चलने की तैयारी करने लगे।
    मगर यह काम भी आसान न था। जिस बस (लौरी) में लदकर वे लोग सदलबल आए थे, जब लौटने के लिए उसमें बैठने लगे तो औरतें उस पर जा चढ़ीं और कहने लगीं, हमने कानून तोड़ा है इसलिए हमें जेल ले चलिए। यों ही क्यों लौटे जाते हैं?
    अब तो आफत थी। जो औरतें भीतर न जा सकीं, वे बस के बाहर ही उस पर लटक गईं। पुलिसवाले हैरान थे। कहाँ तो आतंक फैलाने और जमींदार का खेत जुतवाने आए थे और गिरफ्तारी की धमकी देते थे, और कहाँ अब दुम दबा कर यदि भागते हैं तो यह भी असम्भव। औरतें खुद जेल जाना चाहती हैं। मगर वे ले जाने को तैयार नहीं। मगर वे तो तुली बैठी हैं, और बिना ले गए गुजर नहीं। लौरी चल जो नहीं सकती।
    कोई रास्ता सूझता न था। आखिर बड़ी दिक्कत से गाँव वालों ने समझा-बुझाकर रोका। तब कहीं 'रोजा को आए, नमाज गले पड़ी' से जान बची और रवाना हो सके।
    यह सारी दास्तान जब मेरे पास पहुँची, तो मेरा कलेजा बाँसों उछल पड़ा। मैंने माना कि बिना मातृशक्ति के पड़े हमारी और किसानों की जीत नहीं हो सकती।
    याद रहे कि कांग्रेसी लड़ाई में जिस प्रकार पढ़ी-लिखी औरतें उपदेश और गर्म लेक्चर सुन कर थोड़ी बहुत कूदी थीं, सो बात यहाँ न थी। यहाँ तो अपनी रोटी का सवाल उन्हें खुद-ब-खुद हल करने की सूझी। उन्होंने यह भी स्पष्ट देखा कि मर्दों से यह काम होने का नहीं, इसी से इसमें कूदीं। इसलिए ऐसी मुस्तैदी थी, क्योंकि जीवन-मरण का प्रश्न था।
    इसके बाद तो मजिस्ट्रेट, पुलिस और जमींदार की ऑंखों की पट्टी खुली। उन्होंने समझा कि यह मसला ऐसा आसान नहीं, जैसा कि पहले समझते थे। यह तो बहुत ही पेचीदा है।
    इसलिए सुलह-सपाटे की बात शुरू हुई। मजिस्ट्रेट साहब ने किसानों से कहा कि यदि आप लोग तैयार हो जाएँ तो समझौता करवा दिया जाए। किसान तो तैयार थे ही। मगर शर्मा जी से भी उन्होंने पूछ लिया और उनके 'हाँ' कहने पर वे लोग सुलह के लिए तैयारी की बात कह आए।
    अब बात चली कि किस आधार पर सुलह-सलाहियत हो। सोच-साच कर यह बात निकाली गई कि फी किसान केवल एक बीघा जमीन दी जाए। किसानों ने इसे भी मान लिया, हालाँकि एक बीघे से एक आदमी की साल-भर गुजर असम्भव थी। फलत: उन्होंने यही कहा कि जमीन जरा अच्छी रहे तो शायद किसी प्रकार काम चले। लेकिन सुलह तो ठीक-ठीक तभी होती है जब दोनों दल उसकी उपयोगिता के कायल हों। और यहाँ हालत यह थी कि अभी तक जमींदार इसका कायल न था। कुछ मजबूरी और कुछ मजिस्टे्रट के दबाव से ही उस पर राजी हुआ था। मजिस्टे्रट बेचारे भी अपनी हैरानी और सारा तूफान बचाने के लिए ही परेशान थे। इसलिए दूसरी तरफ बेमन की और 'आय फँसे' वाली बात थी। हमने यह सब जानते हुए भी किसानों को तैयार होने को कहा। इसका नतीजा भी अच्छा ही हुआ।
    खैर, जमीन मिली सो तो मिली ही। हमें इससे अनुभव बहुत कुछ हुआ। इसके करते प्रारम्भिक दशा में घोर दमन की आग में जलने से बचा कर किसानों में हमने हिम्मत भी ला दी।
    अब इस बात की जाँच शुरू हुई कि गाँव में कितने आदमी बिना जमीन और जीविका के हैं। मगर यह काम भी जमींदार के उन्हीं अमलों को सौंपा गया जो न सिर्फ हृदयहीन और बेदर्द थे, बल्कि जिन्हें केवल किसानों को पीसने की आदत थी।
    उन लोगों ने फिर वही मुंशी जी वाला हिसाब लगाकर रिपोर्ट तैयार की कि केवल पचास आदमी ही बिना जीविका के हैं, हालाँकि थे असल में उससे कई गुने। उसी के बल पर हाकिम ने भी सिर्फ पचास बीघे जमीन देने का निर्णय किया।
    किसान घबराए। मगर शर्मा जी की और मेरी राय से मान गए। सिर्फ यही चाहा कि खैर, पचास बीघे अच्छी जमीन तो मिले। मगर वह भी नहीं होने को था। जमींदार ने सबसे खराब जमीन चुनी और उसे ही देने को कहा। दूसरी जमीनों के बारे में न जाने क्या-क्या दिक्कतें बता डालीं और मजिस्टे्रट ने मान लिया। खैर, पचास बीघे भी एक जगह हो तो खूब परिश्रम करके खेती हो। इसलिए अन्तत: उसे भी किसानों ने मान लिया।
    मगर जब हजार टुकड़ों में पचास बीघे पूरे करने की बन्दिश की गई तब मामला बेढंगा हुआ। और, औरतें बिगड़ उठीं। उन्होंने साफ कह दिया, मर्द हट जाएँ, हम सभी जमीन लेकर ही दम लेंगी?
    अब तो गजब हुआ। मजिस्टे्रट को भी मालूम हो गया। मर्द तैयार भी थे, तो औरतें सुनने को तैयार नहीं। मेरे पास खबर पहुँची। मैंने कहा कि काम बिगड़ा। मैंने जाकर उन्हें समझाना चाहा। मैं ताड़ गया कि जमींदार किसी प्रकार चालबाजी करके किसानों के माथे सुलह से भाग जाने का दोष थोप-थाप कर मजिस्ट्रेट को भड़काना और अपना काम बनाना चाहता है।
    मगर पुलिस इतनी चौकन्नी थी कि मेरा जाना असम्भव था। मेरे खिलाफ 144 की नोटिस तो थी ही और मैं उसे तोड़ने को तैयार न था। फलत: शर्मा जी को खबर भेजी और उन्होंने चुपके से कुछ लोगों को सांढ़ा से बहुत दूर मखदूमपुर बुलाया। मैं भी रात में चुपके से वहाँ जाकर एक सुनसान मैदान में उन्हें समझा आया कि वे हर्गिज इनकार न करें, औरतों को भी समझा दें कि ऐसा करने में खतरा है।
    मजिस्टे्रट तो समझते थे कि किसान अब न मानेंगे। मगर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब किसानों ने जाकर उनके सामने स्वीकार कर लिया कि इतने पर भी वे तैयार हैं। बस, इतना होना था कि पासा पलटा। अब तो मजिस्ट्रेट के दिल पर पूरा असर हो गया कि किसान और उनके नेता जरूर झगड़ा बचाना चाहते हैं, जमींदार ही झगड़ा लगाना और बढ़ाना चाहता है; किसानों और किसान लीडरों पर झगड़े का इल्जाम गलत है। इसके बाद उसने निश्चय कर लिया कि सबसे अच्छी जमीन ही दिलवाई जाए। सो भी एक ही जगह। हुआ भी यही।
    इतना ही नहीं। उसके करते, सांढ़ा के सम्बन्ध में मजिस्ट्रेटों का कुछ ऐसा रुख हो गया कि जो ही आया किसानों का खयाल बराबर करता रहा।
    फलत: उसके बाद जब पचास बीघे के अलावा 16 बीघे ऊख पर किसानों का दावा हुआ और जमींदार ने समझौते के बल पर ही उन्हें बेदखल करना चाहा, तो पुलिस और मजिस्ट्रेट के अच्छे रुख के फलस्वरूप किसान जीत गए क्योंकि ऊख पर किसानों का ही अधिकार मजिस्ट्रेट ने बता दिया। फिर तो धीरे-धीरे और जमीनों पर भी किसानों का दावा हो गया और वे जमीनें भी उनके कब्जे में ही रह गईं।
    आज तो सांढ़ा की सब जमीन फिर किसान ही जोतते-बोते हैं। जमींदार के बराहिल ने जो पचास बीघे अपने नाम से पहले से ही लिखवा ली थी, उसे भी छोड़ कर वह भाग गया और किसानों ने उस पर दखल कर लिया।
    सुलह के बारे में मेरा एक सिद्धान्त रहा है और उससे किसानों को अन्त में फायदा ही हुआ है। सुलह तो हम करते हैं अपनी कमजोरी के करते दाँवपेंच से ही। और जब एक बार हमने उसके लिए वचन दे दिया, तो फिर अन्त तक भागना नहीं चाहिए। उसमें डटना चाहिए। बात कहें तो खूब नीचे-ऊपर सोच कर और एक बार जब कह दी तो चाहे जान जाए, मगर उस पर अन्त तक डटे रहें। इसका प्रभाव दूसरों पर और अन्ततोगत्वा सरकारी हाकिमों पर भी पड़ता है, जैसा कि सांढ़ा मेंही देखा गया है। फलस्वरूप हमारा पक्ष हर प्रकार से दृढ़ हो जाता है। इससे हममें कमजोरी तो कभी आई नहीं है। यह दूसरी बात है कि हमारी दिक्कतें बढ़ी हैं। मगर जब हम काफी बलवान न थे, तभी तो सुलह की बात मानी। फिर तो दिक्कतें जरूरी थीं।
    हाँ, अब हम बलवान हो गए और सुलह में आम तौर से न पड़ेंगे, यह बात दूसरी है। मगर जिस दशा में हमने सुलह की बात मानी थी, उसमें वही ठीक था।
    मैं जब सन् 1939 ई. में सांढ़ा में गया, तो यह जान कर बड़ी खुशी हुई कि किसान खूब मुस्तैद हैं। वे खुश भी हैं। प्राय: ग्यारह सौ बीघे जमीन में राजा अमावां-टेकारी की बँटाई से करीब एक हजार मन धान उस साल मिला था, मुझे ऐसा बताया गया। यदि किसानों से लड़ते नहीं तो इससे कहीं ज्यादा उन्हें बिना तरद्दुद मिला करता। मगर जमींदारी की ऐंठ भी तो ठहरी। चलो, अच्छा ही हुआ।
 
 
(5)
 
अनुवां नाम से प्रसिद्ध एक बस्ती गया जिले के अरबल थाने में है। उस गाँव की जमींदारी कुछ ही दिन पहले पुराण नामक गाँव के एक सज्जन ने खरीदी है। ये हजरत नए जमींदार बने हैं। पहले इनकी हालत अच्छी न थी। मगर जैसे-तैसे रुपया जमा करके अब चलते-पुर्जे जमींदार बन गए। कहते हैं कि नया मुसलमान बहुत ज्यादा नमाज पढ़ता है। वही हालत इनकी है। जमींदारी का नया रंग इन पर चढ़ा है, इसलिए दिन-रात इसी नशे में चूर रहते और किसानों को चैन नहीं लेने देते।
    अनुवां के किसानों की बात तो कहिए मत। वे लोग जाति के कोइरी हैं। मैंने अनुभव किया है, यह जाति गौ है। इतनी सीधी और दबने वाली कि कुछ पूछिए मत। मगर कसाई तो आखिर गाय को भी नहीं छोड़ता, वह तो उसका भी वधा करता ही है।
    ठीक ऐसा ही हुआ अनुवां वालों के साथ। वे क्या जानें रसीद किस चिड़िया का नाम है। वे लोग जैसे सीधे, वैसे ही परिश्रमी भी होते हैं। खून को पानी करके गई-गुजरी जमीन में भी साग-तरकारी वगैरह पैदा करते एवं जमींदार की सख्त से सख्त माँग और कड़े से कड़ा पावना भी चुका ही देते हैं, हालाँकि इसके करते स्‍त्री और बच्चों तक को कलेजा फाड़कर कमाना पड़ता है। लेकिन सब कुछ करने पर भी अनुवां वालों की जमीन नीलाम होकर जमींदार की बकाश्त बन चुकी थी। जहाँ तक याद है, पहले ही जमींदार ने इसे बकाश्त बना लिया था। फिर भी वे ही किसान उसे जोतते थे।
    जब पुराण वाले महाशय का जमाना आया, तो इन्होंने चाहा कि किसानों से सभी जमीन छीन लें क्योंकि इनके सिर तो किसान सभा और बकाश्त-संघर्ष के भय का भूत सवार था जो चैन से न रहने देता था। इसलिए धीरे-धीरे इन्होंने अपना विकराल रूप दिखाना शुरू किया। चाहा कि कल, बल, छल से उन गरीबों को बेदखल कर दें। एकाएक जोर-जुल्म करने में खतरा था कि कहीं तूफान खड़ा न हो जाए। बेचारे कोइरी गिड़गिड़ाए, हाथ-पाँव पड़े। मगर कौन सुनता है?
    यदि बाघ भक्त हो तो खाए क्या? वह तो फलाहारी बन नहीं सकता। फिर तो मर ही जाएगा। ठीक यही बात जमींदारों की है। वे यदि ईमानदार बनें और जोर-जुल्म न करें तो धीरे-धीरे जमींदारी ही खत्म हो जाए।
    यही तो उसकी भीतरी कमजोरी (inherent weekness) है कि बिना जुल्म के टिक नहीं सकती। अगर किसानों पर आतंक न जमाया जाए और तरह-तरह से वे दबा न रखें जाएँ तो एक दिन उभड़ जाएँ और लगान देना बन्द कर दें। नालिश करके वसूली में चाहे किसान भी भले ही तबाह हों, मगर जमींदार के लिए भी तो 'नौ की लकड़ी और नब्बे खर्च' की बात होती ही है। कचहरियों के नाजायज खर्च पूछिए नहीं। फलत: उसकी जमींदारी ही बिक जाए। इससे बचने के लिए जोर-जुल्म, गैर-कानूनी दबाव, और चार-चार पाँच-पाँच रुपए के नौकर रखकर उनके द्वारा किसानों की छाती पर कोदों दलते रहना जरूरी है। इसीलिए यह जमींदारी खत्म होने वाली चीज है। दुनिया से खत्म होकर अब केवल भारत में ही टिकी है। इंग्लैंड में भी है सही, मगर वहाँ तो उसका रूप ही दूसरा है।
    किसान निराश्रय थे और सैकड़ों स्‍त्री, पुरुष, बच्चों के भूखों मरने की नौबत आई। क्या करें, कहाँ जाएँ, किसे पुकारें? भगवान भी बहरा हो गया मालूम पड़ता है।
    ऐसा सोचते-सोचते उन लोगों ने सोचा कि चलें किसानों के नेता और किसान सभा के संचालक पं. यदुनन्दन शर्मा के पास; सुना है, वह सिर्फ गरीब-दुखियों के लिए ही मरते रहते हैं; उनको दूसरा काम है ही नहीं।
    बस, वे लोग चल पड़े और शर्मा जी से मिल कर सबने अपनी राम कहानी सुनाई। शर्मा जी ने पूछा कि तुम्हारे मकान संगमर्मर या ईंट पत्थर के बने तो नहीं हैं? खपरैल से छाए गए भी शायद ही हों। उत्तर मिला, फूँस की झोंपड़ियाँ ही तो हैं।
    तब उन्होंने कहा कि क्यों नहीं उन्हीं झोपड़ों को उठा कर अपने-अपने खेतों पर लगा लेते और वहीं पशु, मवेशी, बकरी, बर्तन वगैरह भी रख लेते? गाँव में नाहक पड़े रहने से न तो स्वर्ग ही मिलेगा और न खाना-पीना ही, जमीन तो मिलेगी कहाँ, उलटे छिन ही जाने को है। मगर खेतों पर झोंपड़े डाल कर रहने का सबसे बड़ा नतीजा यह होगा कि अन्‍धों तक को मानना पड़ जाएगा कि खेतों पर कब्जा तुम्हारा ही है। यों तो दुनिया में अधिकार वाले और बड़े कहे जाने वाले आम तौर से ऑंख के अन्‍धे और कान के ही पक्के होते हैं, लेकिन पुलिस और हाकिम-हुक्काम तो खास करके ऐसे ही होते हैं। वे तो सुनी-सुनाई बातों पर दूर से ही विश्वास कर लेते हैं। किसान की तो उन तक पहुँच भी नहीं। इसलिए वे धनियों को ही सुनते हैं। मगर जब तुम्हारी झोंपड़ियाँ खेतों पर ही होंगी, तो आखिर पुलिस को जाकर देखना तो पड़ेगा ही। अगर फिर भी गलत रिपोर्ट दे, तो उसे ललकारा तो जा ही सकता है। इस प्रकार खेतों पर कब्जा साबित होने से कानूनन उनसे किसान हटाए नहीं जा सकते। बकाश्त जमीन की हालत ही ऐसी है।
    किसानों के मन में यह बात बैठ गई और उन्होंने खेतों पर ही जा बसने का संकल्प खुशी-खुशी कर लिया।
    उन्हें इससे आसानी भी होगी, ऐसा सोचा गया। सब बाल बच्चे वहीं रहेंगे, तो फसल की रखवाली भी अच्छी होगी। दौड़-दौड़ कर गाँव में जाने तथा व्यर्थ हैरान होने की नौबत भी न आएगी। शर्मा जी के उपदेश का उन पर पूरा प्रभाव पड़ा।
    लेकिन यदि वे 'अशराफ' कहे जाने वाले लोग, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि, होते, तो बहुत ननुनच करते और खेतों पर जाकर शायद ही बस सकते। उनकी शान में फर्क जो पड़ जाता। उनकी इज्जत जो बिगड़ जाती। इसे ही कहते हैं कि 'रस्सी तो जल गई, मगर ऐंठन बाकी ही है।' भूखो मरने की नौबत है। नंगे फिरें यह हालत है। फिर भी ऐंठ ज्यों की त्यों। लेकिन जमाना बदल गया। किसानी भी करें और झूठी शान भी रखें, यह बात अब चलने की नहीं।
    शर्मा जी ने उन लोगों को यह भी समझा दिया कि इतने पर भी पैसे के बल से जमींदार दिक करना चाहेगा और तुम लोगों को जेल में ले जाने की कोशिश करेगा। समन, नोटिस और वारंट भी आ सकता है। मगर खबरदार, अपने खेत से हर्गिज न हटना। भुलावे में न पड़ना और कचहरी जाने की गलती न करना। पुलिस और हाकिमों से साफ कह देना, इन्हीं खेतों को जेल बना दीजिए। हम यही पड़े रहेंगे। भागेंगे नहीं। मगर दूसरी जेल में हम नहीं जा सकते। यह भी कह देना कि जब तक कि हमारे स्‍त्री, बच्चे, बूढ़े, बकरी, मवेशी वगैरह सभी उस दूसरी जेल नहीं पहुँचाए जाते, तब तक इन्हें यहीं छोड़ कर सिर्फ कुछ लोग उस जेल कदापि न जाएँगे। हाँ, यदि सबको ले चलने का इंतजाम करें, तो देखा जाएगा।
    मगर जेल से लौटने के बाद फिर हमारे लिए जीविका का प्रबन्ध क्या होगा, यह अभी से पक्का-पक्का तय हो जाना चाहिए नहीं तो पीछे धोखा होगा और हम लोग लावारिस पशु की तरह छोड़ दिए जाएँगे। उस समय हम क्या करेंगे? पशु तो दूसरे के खेत में चर कर पेट भर लेगा। उस पर न तो दफा 379 का केस चलेगा और न 107, 108, 144 की नोटिस ही होगी। मगर हमारे लिए तो आफत है। जब सदा से जोते जाने वाले अपने खेत पर ही हल चलाने से जेल की नौबत है, तब गैरों के खेत के पास जाने पर तो शायद फाँसी ही होगी। अत: हमसे तो पशु ही अच्छे।
    लेकिन यदि पुलिस वाले जोर-जुल्म करें और खामख्वाह पकड़ ले जाना चाहे, तो सभी बाल-बच्चों को एक-दूसरे को अच्छी तरह पकड़ कर पड़ जाना होगा और कहना होगा कि हम यों भेड़-बकरी की तरह चले न जाएँगे, सारी शक्ति लगा कर यही रुकेंगे। सौ आदमियों को ले जाने के लिए हजारों आदमी और सैकड़ों लौरियाँ चाहिए; सो भी यहाँ से देखें हमें कौन कैसे उठा ले जाता है। हमने तो तय कर लिया है कि न जाएँगे। जाइए, जो मन में आए कीजिए।
    शर्मा जी ने कहा, अगर तुम लोगों ने मेरी ये बातें मान लीं और ऐसा ही निश्चय कर लिया, तो फिर तुम्हारे खेतों पर से तुम्हें कोई हटाने वाली ताकत इस दुनिया में नहीं है। जमींदार, सरकार, पुलिस, गुण्डे वगैरह सभी थक कर बैठा जाएँगे, यह ध्रुव सत्य है।
    किसान लोग अनुवां लौट गए और शर्मा जी के उपदेश का उन्होंने अक्षरश: पालन किया। रातोरात घर-द्वार उजाड़ कर खेतों पर ही जा बसे। खेती-बारी का काम भी लगातार चलने लगा।
    अचानक रात-भर में ही खेतों पर उन्हें आबाद देख सभी को आश्चर्य हुआ। इसका रहस्य कोई समझ न सका,गो जमींदार को घबराहट हुई। मगर करता ही आखिर क्या? फलत:, किसानों का काम चालू रहा।
    उधर अन्धे कानून की अन्धी कार्यवाही भी जारी हुई और किसानों पर 144 की नोटिस आ ही तो गई। मगर बेकार। खेतों पर ही तो उनका घर था। फिर वे जाते कहाँ? न जाने किस अक्ल से ऐसी नोटिस जारी की गई। ऐसा करने वालों को पहले देख तो लेना था कि किसानों के घर कहाँ हैं।
    फिर उन पर हुक्म उदूली का केस भी दफा 188 के अनुसार चलाया गया। मगर किसानों को उससे क्या मतलब? उनकी तो खेती चलती रही। कभी पुलिस का दल धर-पकड़ करने आया, तो कभी दरोगा साहब धमकाने आए। मगर परवाह किसे थी और सुनता कौन था?
    जबर्दस्ती की नौबत देख, सभी किसान आपस में लिपट कर बैठ गए और पुलिस की सेना अवाक् थी। आखिर करती भी क्या? अत: वापस आ गई।
    एक बार यों ही धक्का-मुक्की भी किसी कांस्टेबुल के साथ हो गई। वह बहुत शेखी बघारने और नवाबी जो करने लगा था। इस पर बलवे का केस भी उन गरीबों पर चला। पीछे दफा 108 का भी वार हुआ। मगर सब बेकार।
    कहते हैं कि 'सौ वक्ताओं को एक चुप्पी साधने वाला हरा देता है।' ठीक अनुवां में भी जमींदार, सरकार और पुलिस की हजार कोशिशों को मुट्ठी-भर गरीब और निस्सहाय किसानों के दृढ़ संकल्प, उनकी धुन, आपसी एकता और निर्भीकता ने निष्फल कर दिया और किसी की एक न चली।
    किसान लोग बीच-बीच में एक लीला भी करते थे। जमींदार तो मरा जा रहा था खर्च के भार और परेशानी से। उसका काम भी कुछ होता न था। नया धनी था। इसलिए रुपए की भी ममता उसे काफी थी। मगर किसानों का काम बेखटके चलता था। एक कौड़ी का भी खर्च न था। इसलिए जहाँ जमींदार पस्तहिम्मत था, वहाँ किसानों को हिम्मत थी। फलत:, कभी-कभी अपने खेतों की साग-तरकारी तोड़कर अपने लड़कों के द्वारा उसी हाकिम के पास भेजवा देते, जिसके यहाँ इनका केस था। लड़के लोग जाते और चुपके से वहाँ साग-तरकारी आदि रखकर सिर्फ इतना ही सुना देते कि यह उसी खेत की है जिसके बारे में झगड़ा है और जिसके सम्बन्ध में जमींदार का दावा है कि उसका कब्जा है, न कि हमारा। मगर हम तो उन्हीं किसानों के बच्चे हैं।
    इस प्रकार अपने कब्जे के विषय में वे जीता-जागता सबूत पेश कर आते। यह भी कह आते कि शक हो, तो चल कर देख लीजिए न।
    इस तरह सबकुछ करके जमींदार, पुलिस और सरकार थक गई, मगर किसानों को टस से मस न कर सकी। कभी-कभी जो जोर-जबर्दस्ती की जाती, तो उसका विरोध हम लोग बाहर से भी करते। जब मामला बहुत दिनों तक यों ही टलता रहा, तो किसान सभा की ओर से गया के कलक्टर को लम्बा तार दिया गया कि किसानों का खेतों पर कब्जा है, जिसे कोई भी देख सकता है और जिससे इनकार नहीं किया जा सकता, फिर भी लगातार बहुत दिनों से उन्हें परेशान किया जा रहा है। यह चीज बहुत बुरी है। इसका नतीजा किसी के लिए भी अच्छा न होगा। बस, उसके बाद अधिकारियों ने देखा कि अब इस मामले को और टालना ठीक नहीं, शायद और भी गड़बड़ी हो। इसलिए उस समूची जमीन, एक सौ पन्द्रह बीघे पर, किसानों को कब्जा दे दिया गया।
    जो लोग ऐसे संघर्षों में नहीं रहे या जिन्होंने इनका अनुभव नहीं किया है, उन्हें शायद विश्वास न हो। मगर बात तो पक्की है। किसी से छिपी नहीं है। कोई भी वहाँ जाकर जाँच सकता है।
 
 
(6)
 
कोपाखुर्द, या छोटा कोपा, नाम से पुकारा जाने वाला एक मौजा, पटना जिले के नौबतपुर थाने में है। जैसी कि उस इलाके की दशा है, वहाँ भी छोटे-छोटे जमींदार बसते हैं। उनकी हालत पहले चाहे अच्छी रही हो, मगर इस समय तो वे तबाह हैं। फिर भी, जमींदारी शान तो तो रहती ही है। यह नहीं कि किसानों से मिल-जुलकर रहें और व्यर्थ के झमेले में न फँसे। वैसे तो जमींदारों के विरुद्ध किसान सभा ने कोई संगठित आवाज अब तक नहीं उठाई,खास कर जब बिना खेती के उनका काम चल ही नहीं सकता। मगर जमाना ही कुछ ऐसा है। जब एक बार किसानों में जागृति हो गई और जमीन सम्‍बन्‍धी अपना हक उन्होंने समझा, तो फिर वे यह देखने थोड़े ही जाते हैं कि खेतिहर जमींदार हैं या लगान वसूलन वाले पूरे बाबू।
    विशेषत: जो किसान स्वयं भूखा है, वह दूसरे की भूख और गरीबी की परवाह कतई नहीं कर सकता। यह भी बात है कि कोपा के जमींदारों के विरुद्ध यद्यपि किसान सभा ने कोई काम नहीं किया था, तथापि किसान सभा को गाली देना उनका सनातन धर्म था। इसलिए स्वभावत: ही हमारे कार्यकर्ता उन लोगों से चिढ़ते जरूर थे। यह ठीक भी था। हम कुछ करें भी न, और आप हमें बदनाम करते जाएँ, यह कब तक चलने का?
    बात हाल की ही है। इस मामले में किसानों को अन्ततोगत्वा सफलता तो नहीं मिली, यह बात ठीक है, मगर जिस तरह उन्होंने काम किया वह मार्के का है और उससे काफी शिक्षा मिलती है। और, अगर सफलता न मिली तो केवल इसलिए कि किसानों को लड़ाई की खुद जानकारी न होने और किसान सभा से मदद न लेने के कारण ही वे गुमराह हुए। उन्होंने बेवकूफी में आकर जिद भी कर ली और समझौता करने पर राजी नहीं हुए। वे समझते थे कि उनका पक्ष मजबूत है, फलत: जरूर जीतेंगे। इसीलिए गड़बड़ी हुई। अगर थोड़ी-सी दूरअंदेशी से वे लोग काम लेते, तो जमीन उन्हें मिल कर रहती। यह शिक्षा भी इस घटना से मिलती है। सिर्फ 25-30 बीघे जमीन का ही सवाल भी था।
    हाँ, तो बात यह है कि छोटा कोपा में कुछ ग्वाले किसान गत सर्वे सेटलमेंट के पहले से ही बसते थे। इसीलिए सर्वे के समय उनके नाम से पचीस-तीस बीघा जमीन खतियान में दर्ज हो गई थी। उसके बाद भी वे कुछ समय वहाँ रहे। मगर पीछे वहाँ से कई जगह जा बसे। जमींदारों के अत्याचार को वे लोग बर्दाश्त न कर सके। छोटे जमींदार लोग तो ज्यादा दिक करते भी हैं। सो भी यदि पड़ोसी हों, तो जुल्म और भी बढ़ जाता है।
    जैसा कि आज तबाही की हालत में भी उनका मिजाज आसमान पर चढ़ा मालूम होता है, उससे अन्दाज लगता है कि पहले खूब खुल कर खेलते होंगे। तब गरीब किसानों का कोई पुर्सांहाल था नहीं, फिर खटका ही क्या था?
    इसीलिए आए दिन घी, दूध, हरी, बेगारी आदि से ऊब कर भागने में ही उन गरीबों ने खैरियत समझी। किसान लोग ग्वाले ठहरे और आज की तरह पहले न तो उनकी यादव सभा ही थी और न उनके समाज में जागरण ही, जिससे किसान सभा के अभाव में उसी से कुछ कर सकते। सारांश, कोई त्रण न था। इसलिए घर-बार छोड़ कर भाग निकले और जहाँ-तहाँ जा बसे।
    इधर जब बकाश्त की लड़ाई स्थान-स्थान पर शुरू हुई और किसानों को उसमें सफलता भी मिलने लगी, तो किसान संसार में स्वभावत: ही आशा का संचार हुआ कि अब जमीन मिलेगी। यही आशा उन गरीबों में भी जागी। फिर उन्होंने सर्वे की खतियान देखी। अब क्या था ? कुछ लोगों ने राय दी कि उस जमीन पर अगर जा बैठो, तो तुम लोगों का दखल हो जाए।
    कसर यही रही कि राय देने वाले पूरे जानकार न थे। बिहटा-आश्रम पड़ोस में रहने पर भी, न जाने वहाँ मुझसे या मेरे आदमियों से पूछने भी क्यों न आए? यही नहीं। मुझे ताज्जुब है कि अन्त तक भी मैंने उनमें एक का भी चेहरा न देखा। हारते-हारते भी वे मेरे पास न आए। ऐसा अन्दाज है कि समझ तो उनमें कम थी ही, साथ ही उनकी जाति के लीडरों ने शायद उन्हें विश्वास दिला दिया था कि वहाँ मत जाओ, जमीन तो आसानी से हम ही दिला देंगे। कई घटनाओं से इसकी पुष्टि भी होती है। जातीय नेता लोग आजकल बोर्डों और कौंसिलों में जातीयता के नाम पर ही पहुँचना चाहते हैं और किसान सभा से इस बात में उन्हें खतरा मालूम होता है। इसीलिए, स्वभावत: उन्होंने ऐसी राय दी होगी।
    जो कुछ भी हो। बात तय पाई गई और किसान लोगों ने उस जमीन पर दखल जमाने का निश्चय कर लिया। बसते थे तो 4-5 ही मील पर, मगर जमींदार और उसके आदमियों के सामने वहाँ जमना आसान न था। अगर लाठी और गिरोह लेकर जाते, तो पकड़े जाते और पुलिस फौरन उन्हें जेल में ठूँस देती। कब्जा भी सिद्ध न होता। बड़ी कठिनाई थी। कोई अक्ल सूझती न थी। मगर पीछे तो ऐसी सूझी कि जब मुझे मालूम हुआ, तो मैं भी दंग रह गया।
    मैंने पहले-पहल वहीं लेनिन के इस कथन की सत्यता पाई कि हमें किसानों और जनता से अनेक बातें सीख कर औरों को सिखानी चाहिए और इसी प्रकार उनकी लड़ाई चलानी चाहिए।
    उन्होंने खूब सोच-साच कर एक रास्ता बहुत अच्छा निकाला, जिससे जमींदार, पुलिस और अधिकारी भी दंग रह गए। सौभाग्य से उनकी वह जमीन कोपा से कुछ हट कर एकान्त में पड़ती थी, जहाँ रात में सुनसान रहता था, न कोई गाँव से आता, न जाता। उन्होंने सोचा कि एक ही रात में दखल का पूरा-पूरा प्रबन्ध और प्रमाण एकत्र कर देना चाहिए, दूसरे दिन तो मौका ही न लगेगा।
    इसके लिए अँधोरी रात में, रातोरात वहाँ फूस के कुछ छप्पर, बैलों के खाने के लिए कुछ नादें, भूसा और नेवारी (पुआल) आदि, और एक कुऑं बन जाना जरूरी था। कुछ ही घंटों में ये सारी बातें हो जाएँ तो ठीक। मगर यह तो वैसे ही था, जैसे कि समुद्र को सोखना, या हिमालय को उठा लेना। वे लोग 4-5 मील के फासले पर रहते भी थे। अगर अपने घर पर हजार-दो हजार आदमी इसके लिए जमा करते, तो शोहरत हो जाती। फिर तो पुलिस शक करती और वहाँ जा पहुँचती। अनायास जमावड़ा देख कर खामख्वाह लोगों को शक होता ही। बात भी फूट जाती।
    एक बहुत जरूरी बात और थी। नए छप्पर, नया कुऑं और बैलों के लिए खाने की नई नादें धोखा देतीं। पुलिस और हाकिम लोग खामख्वाह ताड़ जाते कि ये तो फौरन बनी चीजें हैं। यदि ये लोग पहले से बसते रहते, तो सभी चीजें नई कैसे रहतीं? यह खतरा तो ऐसा था कि सब किए-कराए पर पानी ही फेर देता।
    इसलिए मामूली दिमाग का काम न था कि इन सब कठिनाइयों का हल निकाले। मगर मैंने देखा है कि जब किसान अपना दिमाग किसी काम के लिए ठीक कर लेता है और उसमें आगा-पीछा नहीं रखता, तो न जाने कितने नए-नए रास्ते और उपाय उसके तूफानी दिमाग से बाहर आते रहते हैं। तब तो वह कमाल करता है। यही बात कोपा में भी हुई। किसानों ने खूब सोच-विचार कर इन सभी दिक्कतों को सुलझाते हुए एक सुन्दर रास्ता आखिर निकाल ही लिया।
    उन किसानों ने तय कर लिया कि यहीं से पुराने छप्पर ज्यों के त्यों,उनके खम्भों वगैरह के साथ, उठा कर कोपा पहुँचाए और खड़े किए जाएँ। ऐसा भी किया जाए कि इन छप्परों पर जो कद्दू वगैरह की लत्तियाँ फैली हों, वे ज्यों की त्यों रहें। उनकी जड़ों के थल्ले ही खोद लिए जाएँ, तो ये लताएँ हरी-हरी ही वहाँ पहुँचा कर जमीन में छप्पर पर फैली ही गाड़ दी जाएँ। यदि कुऑं भी जरूरी है तो उसके लिए रातोरात खाँखर खोदा जाए। फिर पुरानी ईंटें यहाँ से ही ले जाकर उन्हीं से कुऑं तैयार कर डालें। पुआल की पुरानी ढेर जैसी की तैसी जमी-जमाई ही वहाँ पहुँचा दी जाए।
    मगर यह काम पूरा करने के लिए तो कई हजार लोगों की फौज चाहिए जो हाथोहाथ लेकर चीजें पहुँचा दे और वहाँ भी पल मारते सब काम कर डाले।
    इसलिए कोशिश करके प्राय: दो हजार लोगों को उस जगह तैयार कर दिया गया। उन्हें ठीक वक्त पर पहुँच कर काम में लग जाने का आदेश भी दे दिया गया। यदि घड़ी की सुई की तरह ठीक समय पर काम न हुआ तो सब किए-कराए पर पानी ही फिर जाएगा, इसलिए काफी मुस्तैदी के साथ सभी तैयारी की गई। ऐसा हिसाब लगा कर सब प्रबन्ध हुआ कि जरा भी कसर और किसी बात की कमी न रहने पाई।
    फिर, निश्चित तारीख की रात में लोग जमा हो गए और हवा की तरह सभी चीजें कोपा में पहुँच गईं। पुरानी पलानी (छप्पर) कद्दू, कुम्हड़ा, नेनुआ, वगैरह की हरी या सूखी लताओं के साथ ही वहाँ पहुँचा दी गई। लताएँ जमीन में ज्यों की त्यों गाड़ दी गईं जिससे मालूम हो कि यहीं पर जमी थीं। पलानियों के छप्पर हू-ब-हू पुराने रहे, उनके खम्भे वगैरह भी। उन्हें ऐसे खड़ा किया गया कि पता ही न लगता था कि कहीं बाहर से आई हैं, वहीं बहुत पहले ही बनी थीं, ज्यों की त्यों पड़ी है, ऐसा ही मालूम होता था। कुएँ के लिए पानी के सोते तक, पल मारते गढ़ा खोद कर टूटी-फूटी और मैली-कुचैली पुरानी ईंटों से ही उसे बाँध कर तैयार कर दिया गया। मालूम होता था कि बहुत पुराना है। बैलों के लिए नादें बन गईं। बैल उन्हीं पर बँधे-बँधाए खाने भी लगे। भूसा जमा कर दिया गया। पुआल की ढेर हू-ब-हू पुरानी ही वहाँ लाकर रख दी गई।
    खाना-पकाना शुरू हो गया। बर्तन-भाँडे धो-धा कर जगह ऐसी बना दी गई कि जैसे पुरानी हो। कहीं उपलों के ढेर जमा थे, तो कहीं बैलों के बाँधने की जगह में उनके मूत्र और गोबर का ढेर देख कर कोई भी कह सकता था कि वे यहाँ बहुत दिनों से बाँधे जाते हैं। राख-वाख के काफी ढेर भी गढ़े में कर दिए गए। सारांश, कोई भी कसर नहीं रहने पाई। जहाँ तक सूझा, पूरी तैयारी कर दी गई।
    जब कोपा वालों ने सुबह देखा कि वहाँ एक छोटा-सा टोला बसा है तो दौड़े-दौड़ाए तमाशा देखने आए। वहाँ तो थोड़े से ही लोग मिले। बाकी तो अपना काम करके अंधेरे में ही चलते बने थे। जो थे, वे अपनी घर-गिरस्ती के काम में लगे थे। जो ही देखता उसे ही पूछने की हिम्मत न होती क्योंकि बस्ती तो कुछ भी नई न मालूम होती थी। सभी चीजें मुद्दतों की साफ-साफ दीखती थीं। मगर कल बस्ती थी नहीं, और आज पुरानी बस्ती यहाँ हो गई। लोगों के ताज्जुब का ठिकाना न था।
    अगर किसी ने पूछ भी दिया, कहाँ से आए हो और कैसे? तो हँस कर उत्तर मिलता था, सूझता नहीं है क्या? हम तो यहीं के पुराने बाशिन्दे हैं। आप लोग ही कहीं दूर-दराज के रहने वाले मालूम पड़ते हैं।
    अजीब बात थी। वहीं के रहने वाले दूर-दराज के हो गए और दूर वाले वहाँ के। मगर चीज तो कुछ ऐसी ही थी। समाँ तो कुछ इसी ढंग का था।
    जमींदारों को भी घबराहट हो गई। उन्होंने उन खेतों में हल चलते देख रोक-टोक भी शुरू की। मगर ग्वाले लोगों ने डाँट दिया, यह कह कर कि यदि सर्वे वाले हमारे खेतों पर रोक-टोक करेंगे तो ठीक न होगा।
    चारों ओर शोहरत मची। जमींदार थाने पर गए। रुपए खर्चे गए। पुलिस भी फौरन पहुँची। मगर करती क्या? यह निराला दृश्य देख कर हैरत में थी। कुऑं, पलानी, वगैरह सभी पुरानी चीजें थीं।
    पूछने पर किसानों ने कहा कि हम तो यहीं के पुराने बाशिन्दे हैं। सर्वे के समय से ही हम लोग यहाँ पड़े हैं। चुपचाप खेती करते आते हैं। यह है खेत की खतियान और उसका नक्शा जिसमें यह गाँव और हमारे खेत दर्ज हैं। अब जमींदार को नाहक जबर्दस्ती करने की सूझी है। वह हमें खेतों से बेदखल करना चाहता है, इसलिए जाल-फरेब कर रहा है। आखिर सर्वे के कागज तो गलत नहीं हो सकते। और क्या हम लोग पक्षी हैं कि रातो रात उड़ कर यहाँ आ गए हैं? अगर आए भी तो ये पुरानी पलानियाँ, पुराना कुऑं वगैरह कहाँ से उड़ कर आ गए? क्या जादू-मंतर के बल से कोई करामात हो गई? लोग पागलों की-सी बातें करते रहते हैं जो समझ में नहीं आतीं।
    दारोगा साहब ने सभी कागज-पत्र देखे और पूछताछ भी की। उन्होंने देखा कि बातें तो सही हैं। उन्होंने चौकीदारी का सवाल किया कि तुम लोग चौकीदारी की रसीद लाओ।
    बोले, यदि यहीं रहते हो तो चौकीदारी तो लगती ही होगी।
    किसानों ने कहा, हम क्या जानें चौकीदारी-फौकीदारी? हमसे न तो कभी किसी ने चौकीदारी माँगी और न हमने दी। हम निहायत गरीब हैं। शायद ऐसा ही समझकर चौकीदारी हम पर नहीं लगी।
    दारोगा भी चुप हो गए। आखिर करते क्या? चौकीदारी सरपंच यदि चौकीदारी किसी से न वसूले, तो दोष किसका? बिना माँगे क्यों कोई देगा?
    उस दिन तो पुलिस अपना-सा मुँह लेकर चली गई। मगर वह हैरान थी कि थाने के पास ही यह पुराना गाँव और हमें पता तक नहीं। चौकीदार भी नहीं बता सकता था। सचमुच कमाल की बात थी। सभी की अक्ल गुम। यह तो विचित्र सृष्टि थी। गोया दूसरे ब्रह्मा ने तैयार की। या कि स्वयं विश्वामित्र की ही यह रचना थी।
    पुलिस की बदनामी भी थी कि उसकी जानकारी के बाहर यह टोला कैसे था। जमींदार को भी पूरी घबराहट थी, खासकर पुलिस के बैरंग लौट जाने और उसका रुख देखने से। उसने सोचा, जमीन तो हाथ से निकली। इसलिए उसने काफी रुपए खर्चे। जिसकी-जिसकी पूजा-प्रतिष्ठा से काम चलने वाला था, भरपूर की गई।
    एक तरकीब सोची गई कि इन खेतों में नहर का पानी आता है और उसका महसूल बराबर देना पड़ता है। उसकी रसीद तो हमारे ही पास है। उन लोगों के पास तो है नहीं। यदि वे जोतते थे तो नहर की रसीद दिखाएँ और लगान देने की रसीद भी पेश करें। पुलिस के सामने यह दलील पेश की गई। साथ ही जो कुछ शिष्टाचार था, पूरा किया गया।
    इधर किसान लोग तो फूले थे कि अब खेत तो हमारा हो ही गया, हमें कोई हटा नहीं सकता। इसलिए चुपचाप बैठे थे। न तो दौड़-धूप करते थे और न पैसा खर्च कर रहे थे। लोगों के समझाने पर भी उन्हें इसकी परवाह जरा भी न हुई। आखिर इस दुनिया में पैसे से बढ़ कर शक्तिमान कोई नहीं। पैसे से सब कुछ हो सकता है। मगर वे लोग पैसे की यह अपरम्पार महिमा समझ न सके। भोले-भाले ग्वाले ही तो ठहरे।
    आखिरकार पुलिस और अधिकारियों की गहरी छान-बीन शुरू हुई। उधर जमींदारों ने घबराकर सुलह कर लेनी चाही क्योंकि उनका पक्ष कमजोर नजर आता था। किसानों को हमने खबर भी भेजवाई कि सुलह कर लें, क्योंकि हम तो उनकी कमजोरी जानते थे। मगर उन्होंने एक न सुनी।
    निदान, अधिकारियों की छानबीन में उनसे कहा गया कि अगर खेत जोतते थे, लगान की रसीद पेश करो, क्योंकि यह जमीन तो बेलगान है नहीं। उन्होंने उत्तर दिया कि जमींदार लोग कभी रसीद देते ही नहीं। बात तो ठीक ही थी।
    तब नहर की रसीद माँगी गई।
    अब तो मामला बेढब था। लगातार इतने दिनों से नहर का पानी आता रहे, तो उसके महसूल की रसीद तो चाहिए ही। उसके बारे में यह तो कह नहीं सकते कि नहर वाले देते ही नहीं, ठीक जमींदार की तरह।
    इसलिए किसान लोग घबराए और सहसा कोई उत्तर न दे सके। उधर जमींदारों ने नहर की रसीद पेश कर दी, जिससे पुलिस को विश्वास करने का मौका मिला कि जरूर जमींदार ही यह खेत जोतते-बोते हैं। किसानों ने पीछे इसका उत्तर देने का विचार किया कि सोच-विचार कर कहेंगे। मगर पुलिस ने तो अपना हथकंडा पा लिया।
    असल में किसानों ने नादानी की, जिससे सबकुछ किया-कराया चौपट हुआ। सुलह कर लेनी थी। मगर राजी न हुए। पहले भी, पूछताछ कर यह काम किया न था। यह भी भारी भूल थी। नहर के महसूल के बारे में ऐसा होता है कि बहुतेरे किसानों के खेतों का महसूल उन्हीं के देने पर भी जमींदार लोग अपने ही नाम से रसीद कटवा लेते हैं। मगर यह बात वे किसान समझते न थे, नहीं तो यही उत्तर देते। लेकिन यह उत्तर साधारणत: काफी नहीं समझा जाता और जमींदार का कब्जा सिद्ध हो जाता है, भले ही उन खेतों को जमींदार सपने में भी न जोतता रहा हो। ऐसे मौके अनेक आए हैं। पुलिस और हाकिम कागजी सबूतों पर पूरा यकीन करते हैं। इसी से जमींदार फायदा उठाते हैं।
    कोपा में तो बात भी यही थी कि जमींदार ही असल में जोतते थे। मगर न भी जोतते रहते, तो भी नहर वाली रसीद ही काफी थी।
    नतीजा यह हुआ कि पुलिस ने जमींदारों के पक्ष में ही खूब कस कर रिपोर्ट लिखी और किसानों को जबर्दस्ती करने वाला साबित किया। फलत: खेत मिलना तो दूर रहा, वे लोग गिरफ्तार हुए और उन पर मुकदमा चलने लगा। वे लोग अब कचहरी में खूब दौड़े, रुपए भी उन्होंने काफी खर्चे और परेशानी भी खूब ही उठाई। मगर अब होता क्या? 'समय चूकि पुनि का पछिताने' यही बात यदि पहले की जाती और वे लोग दूरअंदेशी से काम लेते, तो और ही बात होती।
    अन्त में वे लोग हारे और उन्हें जेल की सजा भोगनी पड़ी।
    मुझे इस बात की खास तकलीफ थी कि इतनी खूबी के साथ सब कुछ करके भी, वे लोग सफल न हो सके। खुद-ब-खुद रास्ता सोच निकालना, जिसे अंग्रेजी में initiative लेना कहते हैं, सो भी बहुत खूबी के साथ, मैं यही चीज किसानों में सर्वत्र देखना चाहता हूँ क्योंकि बिना इसके वे लोग स्वावलम्बी और विजयी न होंगे और नेता लोग उन्हें बराबर ठगते रहेंगे।उन किसानों ने यह बात तो की, और खूब ही की। फिर भी हारे, इसी का दु:ख मुझे सदा रहेगा।
लेकिन यदि आगे के लिए किसान इससे सीख जाएँ कि एक तो नाहक फूल जाना ठीक नहीं, दूसरे ऐसे मौके पर बिना किसान सभा से पूछे कुछ नहीं करना चाहिए, तो सन्तोष की बात होगी।

(7)
सहबाजपुर नाम का गाँव, नियामतपुर आश्रम के नजदीक ही बेला थाने, गया जिले, में है। प्रधानतया वह क्षत्रियों की बस्ती है। जमींदार वही राजा अमावां-टेकारी हैं। ये किसान पहले तो सम्पन्न थे। मगर अब तो गरीबी की मूर्ति बन गए हैं। न नैनीताल-शिमला की सैर करते रहे, न बड़ी-बड़ी पार्टियाँ दीं, न नाच-मुजरे और महफिलों में रुपए गँवाए और न ठाठ-बाट या साज-सामान में ही। कम से कम इस बात का सबूत तो है नहीं। बूढ़े लोगों के स्मरण में भी यह बात नहीं है, जिसके मानी हैं कि कम से कम साठ-सत्तर साल से उनमें कोई ऐसी बात न हुई। फिर गरीब हुए क्यों?
    क्या जमींदार और उनके दोस्त इस बात पर कभी ठण्डे दिल से सोचने का कष्ट करते हैं? जिस प्रकार गैरों की कमाई से ऐश उड़ाने का हक वे लोग अपने लिए समझते हैं, क्या उसी प्रकार यह भी सोचते है कि उन किसानों को भी आदमी की तरह जीने का हक है? अगर उन्हें लगान वसूलने का कानूनी हक है, तो किसानों को भी इनसान की तरह जिन्दा रहने का कानूनी और नैतिक, दोनों ही तरह का, हक है। क्या यह बात वे लोग मानते हैं? यदि मानते, तो उनकी निर्दयतापूर्ण लूट जारी न रहती। और, जो हृदयहीन हरकत उनके अफसरों ने सहबाजपुर में की, वह कभी न होने पाती।
    उन्हें याद रखना चाहिए कि मनुष्य की तरह जीवनयापन करने का हक सभी कानूनी, नैतिक या लाठी के हकों से कहीं बड़ा है। मौका आने पर उन हकों को मिटा कर भी इसे कायम रखना जरूरी है क्योंकि उनका भी आधार यही है। यदि किसान जीवित ही न रहें, या हैवान बन जाएँ, तो फिर जमींदारों को कानूनी हक हासिल कैसे होगा? जो मुर्गी सोने के अंडे एक-एक करके बराबर देती रहती है, अगर लोभवश उसका पेट फाड़ दिया जाए, तो सभी अंडे गायब हो जाएँगे। क्या यह बात उन्हें याद है?
    नहीं। यदि याद होती तो किसानों में यह हाहाकार न मचने पाता। हाँ, तो जमीन भी वहाँ की अच्छी और उपजाऊ नहीं है। ऊसर है। किसान लोग मर-जी कर कुछ पैदा करते थे, सही। मगर बहुत ज्यादा लगान चुकता करने के बाद गुजर के लिए कुछ भी बचता ही न था। वैसी जमीन का लगान तो रहना ही न चाहिए था। अगर होता भी, तो सिर्फ दो-चार आना बीघा।
    नतीजा यह हुआ कि किसानों की जमींनें, सारी की सारी, लगान की डिग्री में नीलाम हो गईं। मगर ऐसी जमीनों को आखिर पूछे कौन? अगर अच्छी हों तो जमींदार उनमें अपनी खेती भी करवाएँ। परन्तु ऊसर लेकर क्या करें। ऊसर में तो सारा खर्च बेकार जाए और पता भी लगे कि किसान क्यों लगान न दे सके। दूसरे गाँव के किसान भी वह गले की फाँसी लेकर क्या करें? उस गाय को कौन खरीदे जो न ब्याई हो और न गाभिन होने के योग्य?
    इसलिए मजबूरन उन्हीं किसानों के पास वे जमीनें रह गईं। वे जोतते-बोते थे। जमींदार फसल में ही बँटवारा कर लेता था और उसके अमले लोग जब चाहते, एक किसान से छीन कर दूसरे को दे देते थे। फलत: किसानों को जमींदार से ज्यादा उसके अमलों की ही खुशामद करनी पड़ती थी।
    मगर किसान आन्दोलन को देख कर जमींदार के आदमी चिहुँके। उन्होंने सोचा कि कानून की ऑंख में धूल झोंक कर और बेईमानी करके जो किसानों की जमीनें वे छीनते रहते हैं, वह अब न चलेगा। अब तो किसान डटने लगेंगे। अपना हिस्सा लेकर भी रसीद तो देते नहीं, यह बात सही है। इससे उनके कब्जे का कागजी सबूत तो है नहीं। मगर अगर वे छोड़ने से इनकार करें, तो मामला बेढब हो सकता है। इसलिए आफत आने के पूर्व ही उसका उपाय कर लिया जाए तो ठीक।
    फिर तो सारा प्रोग्राम तय हो गया। उन्होंने सोच-साच कर सब तय किया। सोचा गया कि धान की फसल कटकर जब खलिहान में पहुँच जाए, तो एकाएक दावा ठोंक दिया जाए कि यह गल्ला जमींदार का है, उसके नजदीक कोई न जाए।
    गाँव के ही कुछ लोगों को फोड़ कर जमींदार अपने नौकर और लठधार भी रखते हैं और उन्हीं के बल पर किसानों को सर करते रहते हैं। वही हिसाब यहाँ भी लगाया गया। ठीक ही है, हाथी को हाथी ही फँसाता है।
    ठीक यही हुआ। जब समूची फसल काट कर किसानों ने खलिहान में जमा कर दी, तो राजा अमावां के लठधार दूत वहाँ जा डटे। उन्होंने किसानों को डाँट कर कहा, नजदीक न आओ। खबरदार यह तो मालिक (जमींदार) की फसल है। तुम्हारा इसमें क्या है?
    बड़ी अजीब बात थी। किसान आश्चर्य में थे। दिन में जगे-जगाए स्वप्न कैसे होने लगा? वे मन ही मन कहते कि यह क्या बला हुई। हम तो बराबर जमींदार का हिस्सा, उसके अमलों की पूजा, नजर के साथ, चुका ही देते थे, फिर यह क्या बात हुई?
    मगर पूछने पर उत्तर कौन दे? लठधार लोग तो सिर्फ लाठी की बात कह सकते थे।
    अत: जमींदार की कचहरी, बेला, तक दौड़धूप हुई। मगर सब बेकार। किसी-किसी ने कहा, तुम लोगों को किसान सभा सूझी है। जाओ न, किसान सभा में? यहाँ क्यों आए हो? नियामतपुर आश्रम तो नजदीक ही है। अब क्यों नहीं वहाँ जाते? खबरदार, खेत पर गए तो दफा 188 और 107 की कार्यवाही हो जाएगी और बड़े घर (जेल) की हवा खानी होगी।
    असल में पुलिस को भी सभी प्रकार से पहले ही तैयार कर लिया गया था। तब वह हमला हुआ।
    लाचार किसान लोग पंडित यदुनन्दन शर्मा के पास आश्रम में गए और सब दुखड़ा सुनाया। शर्मा जी ने पूछा, डटोगे? बाल-बच्चों के साथ खलिहान में जा कर पड़ोगे? या कि झूठी राजपूती शान आकर खड़ी होगी और 'स्‍त्री कैसे पर्दे के बाहर जाए, बहू कैसे जाए, लड़की जवान है, वह कैसे जाए' आदि आगा-पीछा की बातें होंगी? साफ बोलो। यदि सारा गाँव परिवार के साथ घर-बार छोड़ कर खलिहान को ही घर बनाने और वहीं पशु, बकरी आदि रखने को तैयार हो, तो अभी जीत हो जाएगी। नहीं तो तैयार फसल जाएगी, खेत जाएगा और भूखों मरने की नौबत होगी। इतना ही नहीं। 'बुढ़िया के मरने का डर नहीं, मगर यम का रास्ता जो खुल जाएगा।' सहबाजपुर वाले हार जाएँ तो हार जाएँ। हमें उतनी परवाह नहीं। मगर इसके चलते जमींदार की जो हिम्मत बढ़ेगी, उसका भयंकर दुष्परिणाम, दूसरे किसानों को भी भोगना होगा। फिर तो न सिर्फ अमावां-टेकारी के जमींदार का, बल्कि सभी जमींदारों का, तांडव-नृत्य शुरू हो जाएगा। इसलिए अच्छी तरह सोच लो, तब उत्तर दो।
    किसानों ने आगा-पीछा जरूर किया,क्योंकि वे तो बिना परिश्रम कोई जादू-मंतर की तरह रास्ता चाहते थे जैसी कि उनकी सदा, सर्वत्र, आदत होती है। किसान समझते हैं कि किसान सभा वाले स्वयं कुछ कर-करा कर जमीन और फसल दिला देंगे। वे यह भी समझने की नादानी करते हैं कि हम लोग जमींदारों से कह-सुन कर ही दिलवा देंगे। उन्हें इतनी समझ नहीं कि एक ओर तो हम जमींदारों से बराबर लड़ते और जमींदारी मिटाने पर तुले बैठे हैं, दूसरी तरफ वे हमारी ही बात मानें यह कैसे हो सकता है जब तक यह न हो कि हमारा सारा आन्दोलन और जमींदारी मिटाने की बात केवल ऊपरी और धोखे की टट्टी हो? आखिर जमींदार बेवकूफ तो होते नहीं। वे तो गुरु-घंटाल और पूरे चालाक होते हैं। वे अपना स्वार्थ खूब जानते हैं।
    लेकिन अन्त में दूसरा रास्ता न देख, वे तैयार हो गए। शर्मा जी को वचन दे दिया कि, हाँ डटेंगे।
    फिर तो हुक्म हो गया कि जाइए और अभी से शुरू कर दीजिए।
    उधर जमींदार ने जिले के बड़े-से-बड़े अफसरों तक को उलटा-सीधा समझा कर अपने पक्ष में ठीक कर रखा था। उनके लिए तो केवल किसान सभा का हौवा ही काफी था। अधिकारी वर्ग के कान तो इतने से ही खड़े हो जाते थे।
    एक बात और थी। राजा अमावां के एक सर्किल आफिसर बाबू शिववचन सिंह बड़े तेज और चालाक अफसर माने जाते हैं। समझा जाता है कि अतरी परगने के सरगना और जोरावर राजपूत-किसानों को उन्हीं ने सर किया था। वह वहीं रहते भी थे। सहबाजपुर के किसान भी तो राजपूत ही हैं। इसलिए वही यहाँ के लिए भी जवाबदेह बनाए गए।
    वह कांग्रेसी और खादीधारी भी माने जाते हैं। जमींदार और उसका बड़ा अफसर यदि सिर्फ खद्दर पहन ले, तो भी पक्का कांग्रेसिया माना जाता है। फलत: 'एक तो डाइन, दूसरे हाथ में जलती लुकाठी'। उन्होंने इसकी काफी तैयारी भी कर ली थी कि सहबाजपुर को सर करके नामवरी और भी लूटूँगा।
    जब किसानों का परिवार घर से निकल कर खलिहान की ओर चला, तो अजीब दृश्य था। किसान सभा (गया) ने उसके कई फोटो ले रखे हैं, उनसे उस संग्राम का पूरा चित्र सामने आ जाता है।
    औरतें, खासकर नई और जवान औरतें, बाहर आने में हिचकती थीं। वह काफिला आगा-पीछा करता हुआ खलिहान में पहुँचा सही, मगर औरतें पास के पेड़ों में छिप कर ठहरीं। किसी का पर्दे में मुँह था और किसी का पेड़ की ओट में।
    यह क्या?
    आवाज हुई, यह ठीक नहीं; सारे खलिहान को घेर कर बैठ जाना होगा, जिससे जमींदार के आदमी उसे छू न सकें और अगर छूना भी चाहें तो मर्दों, स्त्रियों और बच्चों की छाती पर से ही उन्हें गुजरना पड़े। आखिर यही हुआ और घेरा पड़ गया। न जाने पुराने जमाने में कैसे घेरे पड़ते थे। मगर यह तो बीसवीं शताब्दी के चतुर्थ दशक का घेरा था।
    वही पास में बैल आदि बाँधे गए। ओखली, मूसल, चूल्हा, चक्की, बर्तन, भांडे सभी वहीं लाए गए। धान से पुआल जुदा करके पशुओं को खिलाया जाता। धान का चावल बना कर खाना पकता था। ठीक जिस प्रकार खानाबदोश और बराबर घूमने वाले कंजर और नट लोग करते हैं, वही हालत वहाँ हो गई। लड़ाई में सब कुछ करना ही पड़ता है।
    अब तो जमींदार के घर में खलबली मची। वह तो और ही हिसाब लगा रहे थे। मगर अब क्या करें? किसे-किसे पकड़ें और जेल भेजें?
    और पकड़े भी कौन? औरतों और बच्चों पर हाथ कौन डाले? बड़ी परेशानी थी। कुछ सूझता नहीं था। लगातार हफ्तों यह घेरा पड़ा रहा।
    उधर पुलिस के छोटे-बड़े सभी अफसरान और दूसरे अधिकारी, मजिस्ट्रेट तक, आते-जाते और बराबर समझाने की कोशिश करते रहे। मगर सुने कौन? सुनने वाला तो नियामतपुर आश्रम में बैठा था। किसान तो पूरे बहरे बन बैठे थे। कभी-कभी बहरा बनना भी लाभदायक होता है।
    यह भी पता लगा कि बाबू शिवबचन सिंह अतरी से बेला तक घोड़े की पीठपर चढ़ कर न जाने कितनी बार आए-गए, खास कर रातोरात। लठधारों और मुस्तण्डों को भी जमा किया। पुलिस की सेना भी आई कि सारा गल्ला उठवा कर बात की बात में दूसरी जगह पहुँचवा दें और किसान मुँह ताकते रह जाएँ। यह भी मालूम हुआ कि दौड़-धूप और तैयारी में जमींदार के दो हजार रुपए स्वाहा हो गए। मगर नतीजा कुछ न हुआ।
    शर्मा जी ने तो पहले ही यह खतरा समझा था, इसलिए पूरा-पूरा घेरा डालने की राय शुरू में ही दे दी थी। किसानों को सजग भी कर दिया था। इसीलिए किसी की एक न चली और किसान जीते।
    पहले तो, न तो पुलिस ही कुछ सुनने को तैयार थी और न हाकिम-हुक्काम ही। वे लोग नीलाम और दखल-दिहानी के कागजों को देखकर यही कहते थे कि जमींदार की ही जमीन है और फसल भी। मगर अब हार कर सुनने को तैयार हुए और मजिस्ट्रेट ने वचन दिया कि समझौता करवा देंगे। तब कहीं जाकर शर्मा जी की आज्ञा से घेरा उठा, नहीं तो बराबर हमारे कार्यकर्ता वहीं रहते थे और किसानों को प्रोत्साहित करते रहते थे।
    आखिरकार जब जमींदार और उसके अफसरों का मद चूर्ण हुआ, सरकार भी परेशान हुई, तभी समझौते की बात चली।
    पहले चलती तो जमींदार की फजीती तो न होती।
    फिर तो अधिकारियों ने माना कि अगर जमींदार की फसल होती, तो बीसियों ढेरें क्यों लगाई जातीं? तब तो एक ही जगह एक प्रकार की फसल जमा रहती। उसी प्रकार, ऊख की खेती छोटे-छोटे खेतों में सैकड़ों जगह क्यों रहती? एक ही जगह या दो-चार जगह ही रहती। यह भी पता लगाया गया कि इतने खेतों के लिए बैल, हल और खेती के सामान जमींदार के पास कहाँ हैं? बैलों के खाने की नादें और उनके लिए काफी भूसा, पुआल, वगैरह भी कहाँ है?
    अगर उन्हें यह अक्ल पहले ही आ जाती तो क्या बुरा होता? यही नहीं। क्या उसके बाद भी उन्होंने ऐसे मौके पर इस अक्ल से काम लिया? हर्गिज नहीं।
    खैर, सहबाजपुर के किसान तो जीते। यही नहीं कि उन्हें उनकी फसल और जमीन मिली, उनसे छीनी न गई, बल्कि हाकिम ने भावली की नकदी, सो भी काफी कम, लगान करवा दी।
   
 
(8)
 
गुजरात प्रान्त के पंचमहल जिले में गोधरा के नजदीक गुसर नाम का एक गाँव है। वहाँ किसान बसते हैं। गुजरात, काठियावाड़ और महाराष्ट्र में सूदखोर साहूकारों ने आतंक फैला रखा है। किसान उनसे ठीक उसी प्रकार थर्राते हैं जैसे हैजे और प्लेग से।
    पता नहीं, बाहर के लोग क्या समझते हैं। मगर मुझे तो कई बार गुजरात में जाना और उसके हर जिले में दौरा करना पड़ा है। कहते हैं, गुजरात में तो क्या, बम्बई प्रान्त में ही, जमींदारी प्रथा नहीं है। वहाँ रैयतवारी है, जिसका अर्थ है कि किसान सीधे सरकार को ही जमीन का कर, लगान, या मालगुजारी देते हैं। मगर यह तो कहने मात्र की बात है। वहाँ तो असली किसानों के पास जमीनें रह ही नहीं गई हैं। उनकी सारी जमीनें साहूकारों ने ले ली हैं और किसानों की जगह वे ही बैठ गए हैं।
    वे खुद तो खेती करते नहीं। उन्हीं किसानों को अर्द्ध भाग या बँटाई पर खेतों को देते हैं, जिनके पास पहले वे खेत थे। बँटाई की हालत यह है कि किसान अपने हल, बैल, परिश्रम से खेती करते हैं। साहूकार लोग खेती में जरा भी मदद नहीं करते। मगर फसल पकते ही आधा हिस्सा लेते हैं। खूबी तो यह कि सिर्फ ज्वार, बाजरा वगैरह गल्ले में ही नहीं, बल्कि रुई और मूँगफली आदि किराना पैदावार में भी आधा हिस्सा लेते हैं। यहाँ तक कि बड़ौदा राज्य में, जहाँ फसल में बँटवारा न करके नकद लगान लेने का ही उन्हें हक है, वहाँ भी बँटाई ही करते हैं।
    इसीलिए तो गुजरात प्रान्तीय किसान सभा की ओर से श्री इन्दुलाल याज्ञिक और श्री पंगारकर आदि को वहाँ किसानों की सीधी लड़ाई चलानी पड़ी। फलत:किसानों ने फसल बाँटने से इनकार कर दिया। मांगरौल तालुके आदि के संघर्ष का यही रहस्य है।
    यही नहीं। जब फसल किसी कारण से मारी जाती या अच्छी नहीं होती तो साहूकार किसान से नकद रुपए ही वसूल करता है।
    किसान सभा की स्थापना से पूर्व, वहाँ किसी ने यह प्रश्न उठाया तक नहीं और न बाहरी दुनिया को इसका पता ही था कि वहाँ, गांधी जी के प्रान्त में, दिन-दहाड़े कैसी लूट जारी है।
    लोग अभी तक यही समझते हैं कि बारदौली में जो लड़ाई या सत्याग्रह हुआ और जिसके चलते श्री वल्लभ भाई सरदार तथा किसान हितैषी ख्यात हुए, वह किसानों की लड़ाई थी। मैं भी तो यही समझता था। मगर वहाँ जाने पर पता चला कि वह लड़ाई तो उन्हीं साहूकारों और धनियों की थी, जिनकी संख्या प्रतिशत दस-पन्द्रह से ज्यादा नहीं। ये ही जमीन के मालिक बन बैठे हैं।
    वहाँ का असली किसान तो आज मजदूर और बँटाईदार बन गया है। वही गुजरात का हाली, दुबला और रानीपरज है, जो असल में पहले जमीन का मालिक और किसान था, मगर जिसकी सारी जमीनें इन्हीं लुटेरे साहूकारों ने छल-प्रपंच से छीन लीं और नकली किसान बन बैठे।
    आज तो वे हाली, दुबला और रानीपरज उन्हीं के गुलाम हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे पुराने जमाने में गुलाम (Slave and Serf) होते थे। स्‍त्री और पुरुष दोनों ही जिन्दगी भर के लिए उनके पास बिक गए हैं। उनकी सन्तानों की भी यही हालत रहती है।
    यदि ये गुलाम किसी मालिक (साहूकार) को छोड़ कर भागें तो कहीं रहने नहीं पाते। कोई उन्हें नौकर भी नहीं रख सकता। सभी पूछते हैं, तुम कहाँ से आए, किसके यहाँ रहते थे आदि-आदि। जिसके पास से वह भागता है, उसके मुस्तण्डे पठान फौरन दौड़ पड़ते हैं और दस-बीस मील के भीतर ढूँढ़-ढाँढ़ कर पशु की तरह पकड़ लाते हैं।
    हाँ, अब हमारी किसान सभा ने उन्हें बहुत-कुछ निर्भीक बना दिया है। अब तो मारे-पीटे जाने पर, साहूकारों को ठोंक कर वे चले आते हैं।
    यह गुलामी धीरे-धीरे मिट रही है। उनके दिमाग में एक गलत खयाल था, इसी से गुलामी करते थे। अब समझ गए कि वह भूल थी; हम आजाद हैं। बस, वह तो निरा सपना था। अब जागने पर मिट गया।
    हाँ, तो उस गुसर मौजे को भी साहूकारों ने तबाह कर रखा था। एक रुपए के दस रुपए लिए, फिर भी उनके हिसाब में बीस बाकी रहे। शैतान की अँतड़ी की तरह वह हिसाब कभी खतम होता ही नहीं। जब किसान सभा का जमाना आया, तो सन् 1938 ई. के शुरू से ही, क्योंकि गुजरात में पहले किसान सभा थी नहीं, किसान अपना हक समझने लगे और जागने लगे। उनमें हिम्मत और मुस्तैदी भी आने लगी।
    मैंने अपनी ऑंखों से देखा है कि वे किसान सभा से कितना प्रेम करते हैं, किस उमंग से उसे अपनाते हैं। उनके इस अगाध प्रेम और उत्साह ने मुझे बार-बार मुग्ध किया है। फलत: वे लोग साहूकारों से जहाँ पहले चूँ भी न कर सकते थे, प्रत्युत थर्राते रहते थे, वहाँ अब सवाल-जबाव करने लगे हैं। हक की बातें करते हैं। कभी-कभी फटकार भी सुना देते हैं कि, जाओ, जो करना है करो।
    उस गुसर के किसानों में एक बूढ़े श्री जबेर भाई भी हैं। दुबले-पतले आदमी। कद भी मझोला। सिर तथा दाढ़ी के बाल एकदम सफेद। सिर पर हलकी-सी पगड़ी बाँधते हैं। यद्यपि उम्र काफी हो गई, तथापि शरीर में फुर्ती है।
    मैं एक बार उनका लेक्चर गुजराती में सुन कर गद्गद हो गया। बाईं हथेली पर रह-रह कर दाहिनी को ठोंकते जाते और देहात की भाषा में किसानों के दिलों में चुभ जाने वाली बातें इस ढंग से कहते थे कि सभी किसान मस्त होकर सुनते थे। उस भाषण ने मेरे दिल पर बड़ा असर किया। मैंने कहा कि ऐसे ही किसान जब पैदा हों, तभी किसानों के कष्ट दूर होंगे। हमारा काम सिर्फ उन्हें पैदा कर देना या ढूँढ़ कर बाहर ले आना-भर है।
    जबेर भाई के सिर पर भी कर्ज का भार बहुत था। बेचारे ने बहुत कोशिश की कि उससे पिंड छूटे और साहूकार उन्हें बख्शे। जिन्दगी-भर देते-देते मरे। मगर साहूकार को राजी न कर सके, उसका पावना चुकता न कर सके।
    भला मौत को भी कोई राजी कर पाता है? क्या उसका पावना कभी चुकता होता है? उसे तो जितना ही मिले, हजम करती जाती है। फिर भी आगे हाथ बढ़ाती ही रहती है। उसका पेट तो कभी भरता नहीं। यदि भरे तो फिर दुनिया खाली कैसे हो? इसलिए कर्ज को पुराने लोगों ने आग बतलाया है, जो जलाती जाती और तेज होती   रहती है।
    फिर तो श्री जबेर भाई ऊब गए। कोई रास्ता उन्हें सूझता न था। वह इसी उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार इस पाप से पिंड छूटे, कि किसान सभा का पैगाम आ गया। इससे किसानों एवं पीड़ितों में नव-जीवन तथा आशा का संचार हो गया। उन्होंने भी सूरत और बड़ौदा राज्य में साहूकारों के विरुद्ध किसानों की लड़ाई का समाचार जाना।
    खुद श्री इन्दुलाल जी से जबेर भाई की मुलाकात और बातें भी हुईं। उनके यहाँ सभा भी हुई। वह बड़ी मुस्तैदी से सभा के काम में जुट गए। यहाँ तक कि जब श्री इन्दुलाल जी और उनके साथी इधर आजादी की लड़ाई की बात लेकर जेल जाने की सोचने लगे, तो खास जबेर भाई ने उन्हें बेमुरव्वती से रोक कर कहा कि अभी तो हमारी किसान सभा की प्रारम्भिक दशा है, अभी किसान उठने लगे हैं, तब तक इस बीच में ही जेल की क्या बात?
    आज जबेर भाई को रास्ता मिल गया। फलत: उन्होंने साहूकार से आखिरी बार निपट लेने की ठान ली। साहूकार लोग अकसर गाँवों में फेरी लगाते रहते हैं। इसी तरह उनकी कर्ज की वसूली चलती है। जिस गाँव में आते हैं, उसके किसान पहले से ही तैयार रहते हैं। वे किसी प्रकार या तो उन्हें खुश करते या चुपके से कहीं चले जाते हैं। मगर साहूकार लोग तो अपने दूतों के द्वारा पहले से ही खासतौर से खबर करवा देते हैं ताकि किसान उस दिन हाजिर रहें। न रहने पर उनसे जवाब-तलब किया जाता है।
    गुसर में भी एक दिन खबर आई कि हजरत आने वाले हैं। जबेर भाई को तो विशेष रूप से खबर दी गई थी। इसलिए वह भी तैयार बैठे थे। जब उन्होंने समझ लिया कि अब वह आने वाले ही हैं, उनका समय हो रहा है, तो दाएँ हाथ में एक दाब, जिसे गुजरात में धरिया कहते हैं और जो काफी तेज और बड़ा होता है, और बाएँ में एक मजबूत रस्सी लेकर अपने दरवाजे पर बैठ गए। धरिया खूब ही तलवार जैसा चमचमाता था। रस्सी भी रगड़ कर फाँसी वाली रस्सी की तरह बना दी गई थी। पास में ही थोड़ी सी सूखी घास तथा फूस पड़ी थी और एक दियासलाई भी।
    जब उन्होंने साहूकार को आते देखा तो खुद ही उस रस्सी से सवाल किया: 'बोल रस्सी, तू क्या चाहती है?' नजर भी रस्सी पर ही थी। साहूकार को देखते न थे। फिर स्वयं ही रस्सी की तरफ से उत्तर दिया, 'मैं चाहती हूँ कि आज जब साहूकार आए तो उसे कस कर बॉंध दिया जाए, मेरी ही मदद से।' फिर धरिया की ओर देख कर बोले : 'अच्छा, धरिया, अब तू बोल, क्या चाहता है?' उसकी ओर से भी अपने आप बोल उठे, 'मैं यही चाहता हूँ कि रस्सी से बाँधे जाने के बाद साहूकार के टुकड़े-टुकड़े मेरी ही सहायता से कर दिए जाएँ।' अन्त में घास, फूस और दियासलाई की तरफ देख कर पूछने लगे : 'तुम लोग भी बता दो कि क्या चाहते हो।' आवाज निकली, 'साहूकार के टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर हमारी ही मदद से वह यहीं पर जला दिया जाए, ताकि 'न रहे बाँस, न बजे बाँसुरी।'
    अब तो साहूकार को चीरिए तो खून नहीं। वह तो डर के मारे दूर ही खड़ा रहा। नजदीक आने की उसे हिम्मत ही न हुई। और जो वहाँ से भागा तो फिर गुसर में आने का उसने नाम तक नहीं लिया।
    उसे खयाल हुआ कि जबेर भाई पागल हो गया है और ठिकाना क्या, कि एक दिन वह सचमुच वही कर दे जो कहता था। फिर तो कुछ न होगा। रुपए-पैसे तो आते-जाते रहते हैं, मगर जान तो फिर मिलने की नहीं। और जान से ही तो सब कुछ है।
    उसे यह भी हिम्मत न हुई कि पुलिस के पास कोई रिपोर्ट करे। असल में साहूकार लोग तो डरपोक होते हैं। केवल बन्दरघुड़की से ही उनका काम चलता रहता है। फलत: यदि जरा भी हिम्मत की जाए और बन्दरघुड़की की परवाह न की जाए, तो वे बुरी तरह घबरा उठते हैं।
    यही बात वहाँ भी हुई और जबेर भाई की हिकमत एवं हिम्मत काम कर गई। साहूकार के आदमियों ने उसे हजार हिम्मत दिलाई कि चलिए, गुसर में आपका बाल भी बाँका न होगा मगर वह वहाँ नहीं आया तो नहीं आया। घर से ही तकाजा करके जो कुछ वसूल कर सका वही किया।
    मगर जबेर भाई के पास तो तकाजा भेजने की भी हिम्मत उसे न हुई। उसे रह-रहकर उनके शब्द, उनका चेहरा, और धरिया वगैरह चीजें याद आती थीं। फिर तो घबरा जाता था। कभी-कभी सोने के समय सपने में भी वही चीजें देखता होगा और यह भी देखता होगा कि जबेर भाई उसकी छाती पर सवार हैं। असल में भय ऐसी ही चीज है। इसी से उसने उनसे रुपए माँगने की बात ही छोड़ दी, ताकि उस कांड को वह भूल जाएँ। फलत: जबेर भाई अनायास ही ऋण-मुक्त हो गए।
   
 
(9)
 
गया जिले के मझवे मौजे में मैंने किसान स्‍त्री-पुरुषों की जो जवाँमर्दी और जो लगन देखी, उसे भूल नहीं सकता। जब तक वही बात सभी किसानों में नहीं आ जाती तब तक उनका उद्धार नहीं होगा, मैं ऐसा मानता हूँ।
    बकाश्त का संघर्ष बहुतों की दृष्टि में नामवरी का साधन है। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि इससे हमारा और किसान सभा का जमींदारों पर और अधिकारियों पर भी दबदबा बैठ जाएगा।
    मगर असल में यह तो किसानों के जीवन-मरण का प्रश्न है। यदि किसान इसमें जीतें तो वे रह सकते हैं, नहीं तो उनकी इंच-इंच जमीन छिन जाएगी और उन्हें भूखों मरना होगा। बिना इस दृष्टि के काम चलने का नहीं,अब तक किसान यह न समझ लें कि इसी बकाश्त के संघर्ष में हम मर भी जाएँ तो कोई चिन्ता नहीं, हमारे बाल-बच्चे तो खाएँ-पिएँगे और जिन्दा रहेंगे; लेकिन अगर हमने प्राणों से मोह किया और लाठी से डर कर हम भागे तो हमारे लड़के-बच्चे जरूर भूखों मरेंगे।
    मैंने यही लगन और यही धुन, मझवे के किसानों में पाई। मेरे दिमाग में तभी से यह बात घुस गई कि बिना इस धुन के बकाश्त-संघर्ष बेकार है। यदि धुन होगी, तो हम हार कर भी जीतेंगे और जमीन लेकर ही रहेंगे। मगर इसके बिना मिली-मिलाई जमीन भी चली जाएगी, छिन जाएगी।
    मझवे मौजा बहुत ही जालिम जमींदारों का है। गया-क्मूल लाइन पर ही वहाँ फ्लैग (नन्हा-सा) स्टेशन भी है। गया से नवादा जाने वाली पक्की सड़क मझवे से होकर ही गुजरती है। वहाँ तीन-चार बड़े-बड़े जमींदारों के सिवाय सभी किसान ही बसते हैं। उनकी संख्या काफी है। उनमें अधिकांश वे ही हैं जिन्हें समाज ने नीचे गिरा रखा है और बदकिस्मती से हम जिन्हें 'रैयान' और 'नीच' कहते हैं।
    मैंने किसान आन्दोलन के सिलसिले में न सिर्फ बिहार में, प्रत्युत अन्‍यत्र भी देखा है कि ये 'नीच' और 'रैयान' नामधारी असली किसान बात ठीक-ठीक समझ जाने पर मौका पड़ते ही कितना डटते हैं। बड़हिया टाल की लगातार तीन वर्षों की लड़ाई केवल इन तथाकथित 'रैयानों' की ही रही है। उसमें उन्होंने कमाल किया है। उन्हीं की लड़ाई में सरकारी अफसरों को खामख्वाह कहना पड़ा कि सचमुच यह शान्ति सेना है। दूसरी किसी जगह यह सर्टिफिकेट हमें नहीं प्राप्त हो सका।
    बड़हिया टाल में जब हमारे एक कार्यकर्ता पर जमींदारों के आदमियों की लाठियाँ बरस रही थीं और वह बेहोश पड़ा था, तो इन्हीं 'रैयानों' की एक औरत ने उसके ऊपर लेट कर लाठियाँ स्वयं अपने सिर एवं देह पर ले लीं। और उसे मरने से बचाया।
    ऐसी घटना हमें और जगह नहीं मिली कि अपनी जान पर खेल कर एक किसान औरत हमारे कार्यकर्ता का, जो बाहर से गया था और निस्सन्देह रैयान जाति का नहीं था, बचाए। उसे विश्वास था कि यह कार्यकर्ता उसको और उसके परिवार को रोटी दिलाने वाला है, इसी से अपनी जान से भी ज्यादा उसकी कीमत उसने की।
    जब बड़हिया गाँव में इन्हीं 'रैयानों' का जुलूस वहाँ के 'अशराफ' जमींदार रोकना तथा लाठी के बल से कानून अपने हाथ में लेना चाहते थे, तो ये लोग डट गए। और सिर तथा देह से खून की धार बहते रहने पर भी, जुलूस निकाल कर ही छोड़ा।
    हमें सचमुच इसका गर्व हुआ जब हमने श्री पंचानन शर्मा के नेतृत्व में इनकी बहादुरी का वृत्तान्त सुना कि लाठियाँ बरसती थीं और ये बराबर बढ़ते चले जाते थे। पुलिस खड़ी तमाशा देखती थी। वह जमींदारों के डर से चूँ न कर सकी।
    उसके बाद फौरन ही किसान-सम्मेलन के मंच पर इन काले-कलूटे 'रैयानों' को बैठा कर हमने और हमारी सभा ने अपने को कृतकृत्य माना जबकि इनके शरीर और कपड़े खून से लथपथ थे; इनके सिर पर पट्टी बँधी थी। इन 'रैयानों' ने ही किसान सभा को अजर-अमर और श्री कार्यानन्द शर्मा को बड़हिया टाल का योद्धा बना दिया।
    ऐसे ही रैयान मझवे में हैं। वे आषाढ़ के महीने में बरसात में अपने खेत पर जा डटे जबकि खद्दरधारी और कांग्रेसी जमींदारों ने लाठी के बल से उन्हें बेदखल करना चाहा। एक जमींदार साहब न सिर्फ नई प्रान्तीय कौंसिल (अपर चेम्बर) के कांग्रेसी मेम्बर हैं, बल्कि एक प्रसिद्ध कांग्रेसी और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के मेम्बर एवं किसान कार्यकर्ता के ससुर भी हैं। गया की अजीब हालत है। शुरू से ही कांग्रेस नेताओं की बिहार में नीति यही रही है कि दो-एक जमींदारों को जैसे-तैसे जेल पहुँचाकर और बाकियों को खद्दर पहना कर कांग्रेसी घोषित कर देना। फिर तो वे लोग साँड़ बन कर खुले चरते और निर्भय रहते हैं। वे जितना भी जुल्म करें, सब छिप सकता है।
 
कार्यानन्द शर्मा,बड़हिया टाल संघर्ष के नायक थे।
    बड़हिया, तेउस वगैरह गाँवों में यही हुआ। मझवे में भी यही हो रहा है। इसीलिए वहाँ दिक्कत बढ़ गई। मगर जब किसान लोग डटे तो एक बार तो हैरत में आना पड़ा। अधिकारियों एवं जमींदारों तक को दातों तले उँगली दबानी पड़ी। उन्होंने सुलह और पंचायत की बात की, कमिश्नर ने कहा कि पंचायत से तय करा दिया जाएगा। इस पर संघर्ष तो रुका। मगर पंचायत में और-और कांग्रेसी जमींदारों के साथ मिलकर, उन लोगों ने ऐसी लीपा-पोती की कि वह बात न कहना ही उचित है।
    घटना के दिन जब मैं वहाँ गया, तो देखता हूँ कि कई किसान मर्द और दो-चार औरतें खेत में मौजूद हैं। औरतें ज्यादा उम्र की थीं; जवान शायद ही थीं। उनके हाथों में झण्डे थे। चोट तो उन्हें भी लाठियों की लगी थी। मगर मर्दों को सख्त चोट थी। उनके सिर फूटे थे। शरीर में दूसरी जगह भी मार पड़ी थी। वे टूटी-फूटी खाटों पर पड़े थे। धीरे-धीरे बूँदें पड़ रही थीं। उनसे बचने का कोई भी उपाय न था। गाँव के स्‍त्री-पुरुषों में उत्साह की बिजली दौड़ रही थी।
    जब हमारे आदमियों ने उन्हें उठा कर घर में या छाया में ले चलने की इच्छा प्रकट की तो उनका उत्तर मिला कि हम लोग तो यहीं पड़े रहेंगे। मरेंगे तो क्या? जमीन तो मिलेगी और बाल-बच्चे तो जिन्दा रहेंगे। यों भी तो भूखों मरना ही है। फिर यहीं क्यों न मरें? यहाँ से हटे, तो जमींदार का हल चलेगा और पुलिस कहेगी कि उसी ने जोता-बोया है। फिर हाकिम उसी के पक्ष में फैसला देगा। मगर यहाँ पड़े रहने पर यह बात होने की नहीं। हमने इसीलिए मार भी खाई है। यदि हटे तो यह मार खाना बेकार होगा।
    मैंने जब उनकी यह बात सुनी, हाँ, उन अपढ़ 'रैयानों' की, और स्वयं उनसे बातें कीं, उनकी हालत देखी, तो जी भर आया। मेरे मन में आया कि कैसे जमींदारी को खोद कर इतना नीचे गाड़ दूँ कि वह हमेशा के लिए खत्म हो जाए। मेरा सिर उन स्‍त्री-पुरुषों के सामने सहसा झुक गया। मैंने दिल में कहा, तुम्हीं लोग, तुम्हारे जैसे 'रैयान' और 'नीच' स्‍त्री-पुरुष ही, किसान सभा को बल देंगे। मुझे यह भी कहना पड़ा कि पापी समाज को तुम्हें 'रैयान' और 'नीच' बनाने के महापाप का प्रायश्चित्त भी शीघ्र ही करना पड़ेगा, यदि उसे और किसानों को अपना उद्धार करना है।
    मेरा दिल उस दिन कचोट गया, हाय, मैं भी 'रैयान' क्यों न हुआ ताकि अपने को कृतकृत्य मानता।
    उसके बाद पाँच-छह मील दूर डिस्पेंसरी से दवा के साथ डॉक्टर बुलाए गए। उन्होंने सबों की मरहम-पट्टी की। मगर जब उन्होंने हठ किया कि यहाँ मत रहो वहीं अस्पताल में, दवाखाने में, चलो तो ठीक दवा होगी यहाँ खतरा है, खासकर पानी पड़ने की हालत में, तो उन लोगों ने पहले की ही तरह कहीं भी जाने से साफ इनकार कर दिया।
    हजार कोशिश की गई और डॉक्टर ने बार-बार कहा कि यहाँ मर जाओगे, मगर कौन सुनता था? मरने को तो वे लोग तैयार बैठे थे। वे अपने संकल्प से विचलित न हुए और डॉक्टर को बैरंग वापस जाना पड़ा।
    ठीक है, जब तक किसान इसी प्रकार मौत का भय छोड़ उससे प्रेम करने को तैयार न हो जाएँगे, तब तक न तो जमींदारी मिटेगी, न किसान राज्य कायम होगा और न उनके कष्ट दूर होंगे। उन्होंने अमली तौर से बता दिया कि 'जीना है, तो मरना सीखो।'
 
 
(10)
 
गया जिले में मझियावां नाम की एक बहुत बड़ी बस्ती है। हमारे श्री यदुनन्दन शर्मा को जन्म देने का गौरव इसी गाँव को प्राप्त है।
    यहाँ के जमींदार वही प्रसिद्ध राजा बहादुर अमावां-टेकारी हैं। यह गाँव जमींदार का ऐसा खैरख्वाह और भक्त रहा है कि कहा नहीं जाता। टेकारी-अमावां की जमींदारी बहुत बड़ी है। गया में उतनी बड़ी जमींदारी दूसरी कोई नहीं। प्राय: समूचे जिले में और बाहर भी फैली हुई है।
    मझियावां को आज जब शर्मा जी का फक्र है और उन्हीं के द्वारा जमींदार से मुठभेड़ करने और उसे पछाड़ने का भी, वहाँ पहले जमींदार के हुक्म मानने की ही उसकी प्रसिद्धि थी। अकेले उस गाँव ने राजा अमावां को इतने अमले (गुमास्ता और बराहिल वगैरह) दिए कि चारों ओर जिले-भर में वे पाए जाते हैं। उनके ही द्वारा किसानों का शोषण होता है।
    उस बेहूदी भक्ति, उस किसान-द्रोह और गद्दारी का ही परिणाम है कि गत वर्ष वहाँ जब बकाश्त संघर्ष छिड़ा तो, गाँव के कुछ नवजवानों को जो शर्मा जी और किसान सभा के प्रभाव में हैं, छोड़ कर, प्राय: सभी के सभी मर्द हिम्मत हार बैठे। बहुत ही थोड़े से साथ देने को तैयार हुए।
    श्री रामदेवदास जी महन्त वहीं ठाकुरबाड़ी बना कर रहते हैं। वह छह महीने के लिए जब जेल गए, तो उनके साथ देखा-देखी कुछ लोग आगे बढ़े सही, मगर सब मिला कर मर्द लोग नामर्द ही रहे।
    फिर भी लड़ाई तो चलती रही।
    जब मैं एकाएक शाम को अँधेरा होने पर, पन्द्रह-सोलह मील बरसात में पैदल ही चल कर, वहाँ एक दिन पहुँचा तो मर्द भी जमा हुए जरूर, मगर औरतों में मैंने जो उमंग देखी, वह भूलने की नहीं। वे किसानों के गीत गाती तथा क्रान्तिकारी नारे लगाती हुई मेरे 'दर्शन' के लिए, गिरोह बॉंध कर, बात की बात में आ पहुँचीं।
    अजीब दृश्य था। एक ओर अन्धेरे में, गोया मुँह छिपा कर, मर्द लोग बैठे थे, दूसरी ओर आगे बढ़ कर औरतें जमी हुई थीं, गोया मर्दों से बाजी मारने को उतारू हों। उन्होंने साफ कह भी दिया कि ये मर्द लोग गड़बड़ करेंगे, इनके लक्षण अच्छे नहीं; यहीं पर पुलिस की छावनी पड़ी है और बहार से आ-आकर लोग गिरफ्तार होते हैं, मगर ये लोग तमाशा देखते हैं। औरतें लड़ रही हैं और ये बैठे हैं।
    मैंने मर्दों से पूछा भी कि बात क्या है? यों तो, मुँह बचाने के लिए उन्होंने उत्तर दिया कि वे भी मुस्तैद हैं, मगर आवाज से, और काम से भी, साफ था कि उनमें वह हिम्मत नहीं, वह जोश नहीं। वहाँ तो मर्दानगी औरतों में ही थी। मालूम होता था साड़ी और चूड़ी ने अपना स्थान बदल लिया है। लड़ाई तो पहले से ही चल रही थी। बहुतेरे लोग जेल में थे।
    मुझे जरूरी काम से उसी दम वापस जाना था। फिर रातोरात पन्द्रह-सोलह मील चल कर टेकारी आया। वहाँ से मोटर से गया जाकर ट्रेन पकड़ी। घोर देहात में वर्षा में सवारी क्या मिलती? पालकी थी भी, तो एक तो उस पर चलने की हिम्मत नहीं, कैसे आदमी, पर चढ़ कर चलूँ यही खयाल मारे डालता था, दूसरे, उसकी तैयारी में देर होती और गया में ट्रेन छूट जाती। इसलिए मर-जी कर पैदल जाना और ट्रेन पकड़ना ही उचित समझा।
    लेकिन मझियावां में जो संघर्ष चला, वह अपने ढंग का निराला था। उसे समझने के लिए कुछ बातें जान लेना जरूरी है।
    जिस कुर्था थाने में वह गाँव है वह गया जिले में, किसान सभा की दृष्टि से, सबसे अच्छा माना जाता है। वहाँ कार्यकर्ताओं का एक बड़ा दल है, जो और कहीं नहीं है। वहाँ के कार्यकर्ता गया के हर कोने में फैल कर किसानों में काम करते हैं। यह बात न सिर्फ जमींदारों को खटकती है प्रत्युत कांग्रेस के उन दोस्तों को भी, जो ऊपर से किसान-हितैषी बन कर भीतर ही भीतर किसानों को ठगते और धोखा देते हैं, जो किसान सभा को फूटी ऑंखों भी नहीं देख सकते क्योंकि किसान सभा उनका कपटी-मुनि वाला रूप किसानों में प्रकट कर देती है।
    इसी के साथ एक बात और हो गई। मझियावां के पास के ही मौजे खटांगी के जालिम जमींदार के जुल्म के खिलाफ वहाँ के एक (कोइरी) किसान श्री वाल्मीकि जी ने एक प्रकार का जेहाद बोल दिया और सिर झुकाने से साफ इनकार कर दिया। इस पर जमींदार ने उन्हें तबाह करने में अपनी सारी शक्ति लगा दी। इधर यदुनन्दन शर्मा ने भी अपना बल वाल्मीकि जी की मदद में लगाया। मुझे भी वहाँ जाना पड़ा। नतीजा यह हुआ कि जमींदार सबकुछ करके भी हारा तथा भयभीत हुआ। उसका पहला प्रताप जाता रहा। जहाँ उसके सामने जाने की किसी को हिम्मत न होती थी, वहाँ वाल्मीकि जैसे सदा पाँव तले रौंदे कोइरी जाति के आदमी भी सीना तान कर खड़े हो गए। यह उसके लिए मौत से भी बुरा था। इसीलिए तो वाल्मीकि जी पर ज्यादा कोप था।
    फलत: जब वाल्मीकि जी का गल्ला उसने खलिहान में रोकवाना चाहा, तो कई सौ किसान आसपास के गाँवों से जमा होकर उनकी मदद में आए और कंधो पर लाठी तथा सिर पर टोकरी में खलिहान से गल्ला उठा कर जुलूस के साथ, जमींदार के दरवाजे से होते, वाल्मीकि के घर पहुँचा आए। जमींदार को घर से बाहर निकलने तक की हिम्मत न हुई, बल्कि शर्म के मारे वह सपरिवार गया चला गया।
    इसलिए, जब सन् 1939 की गर्मियों में वहाँ डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का चुनाव हुआ और किसान सभा वाले कांग्रेस की ओर से वहाँ खड़े हुए, तो कांग्रेसी दोस्तों ने बेहयाई से जमींदारों और प्रतिगामियों के साथ गुट करके हमारे आदमी का सख्त विरोध किया।
    उन्होंने जाति-बिरादरी का भयंकर बावेला खड़ा कर दिया। कोइरी जाति के एक आदमी को विरोध में खड़ा करवा कर कोइरी, कुर्मी और अहीर, आदि का गुट त्रिवेणी संघ और दलित संघ के नाम से करना चाहा। ऐसा तूफान खड़ा किया कि लाठी-राज्य और गुंडा-राज्य बना दिया।
    पुलिस का भी कुछ अजीब-सा ढंग रहा। ऐसा अन्‍धेर था कि हमारे आदमी वोट देने जाने भी न पाते। हमारे लोग निराश थे। शर्मा जी भी लाठियाँ खा आए। खुलेआम शराब पीकर लठधार घूमते और पीटते थे। हमारे लोगों ने समझा कि हमारा आदमी जरूर हारा।
    मगर आखिर में, जो विरोधी की ओर से गए उन्होंने ही हमारे आदमी को वोट देकर जिताया। और इस प्रकार किसान सभा की सेवा को स्वीकार कर लिया। जमींदार और उनके अखबार जो होली मना रहे थे, उन्हें मुहर्रम मनाने को बाध्‍य किया। उनकी आशाओं पर पानी भी फेर दिया।
    मगर घृणित और गन्दे प्रचारों से सारा वायुमण्डल विषाक्त जरूर हो गया। मालूम होता था कि वहाँ किसान सभा की जगह जाति-पाँति वालों का ही बोलबाला है।
    ऐसी ही परिस्थिति में वर्षा शुरू होते ही मझियावां का बकाश्त सत्याग्रह छिड़ गया। चारों ओर से कार्यकर्ता जुटे। काम चालू हुआ। चुन-चुन कर गिरफ्तारियाँ जारी हुईं। ऐसे समय में देखा गया कि आस-पास के गाँवों के कोइरी, अहीर आदि आ-आकर उसमें शामिल हुए। इस प्रकार वायुमण्डल का जहर धुल गया। मझियावां वाले किसान तो ब्राह्मण ठहरे और उनकी सहायता औरों ने की, यही खूबी थी।
    मगर सोचा गया कि यह लड़ाई औरतें ही चलाएँ तो ठीक। उन्हें उत्साह भी था और, जैसा कि पहले कहा गया है, उन्होंने मर्दों से कह भी दिया था कि आप लोग बैठे रहें; हमें लड़ने दें।
    असल में दो-एक बार पहले मर्द लोग उभड़ कर भी बीच में ही बैठ गए थे। इससे अंदेशा था कि कहीं इस बार भी न बैठ जाएँ। इसलिए औरतों ने जिम्मेदारी ली। उन्होंने उसे जिस खूबी से अन्त तक निबाहा वह प्रशंसनीय है। पूर्ण विजय भी उन्हीं के चलते हुई भी।
    खेत जोतने और धान रोपने का काम था। पुलिस का कैम्प कुछ हट कर वहीं पड़ा था। हमारा कैम्प भी वहीं मौके पर था। खा-पी कर पूरी तैयारी के साथ लोग दस-ग्यारह बजे खेतों पर जाते थे। बिगुल बजता था। बस, पुलिस समझती थी कि अब काम शुरू हुआ। अत: वह भी सदल-दल गिरफ्तारी के लिए मौके पर जा धमकती थी। फिर दो-तीन बजे काम बन्द हो जाता था। यही तरीका बराबर चला।
    पुलिस को भी चौबीस घंटे की नाहक की हैरानी न थी और किसानों को भी। यह बात वहीं हुई और कहीं नहीं। यह भी वहाँ की विशेषता थी।
    लड़ाई में मर्द भी जाते थे और स्त्रियाँ भी। जब पुरुष पकड़ लिये जाते, तो हल चलाने और रोपने का काम औरतें करती थीं। औरतों को पुलिस पकड़ती न थी।
    पहले तो मर्दों को पकड़ कर पुलिस 18-20 मील पैदल रेलवे स्टेशन पर ले जाती थी। मगर पीछे लोगों ने पैदल जाना अस्वीकार कर दिया। तब क्या करे? वहीं रखने लगी। न तो कोई सवारी मिल सकती थी और न उसका रास्ता ही था। इसलिए मजबूरन वहीं रखना पड़ता था। फलत: धर-पकड़ रस्म मात्र ही थी। पकड़े गए लोग घूमते-फिरते थे। हाँ, वे लड़ाई में शामिल न होते थे। पुलिस का सलूक अच्छा रहा। इसलिए लोगों ने उसे दिक भी नहीं किया।
    यही नहीं कि मझियावां की ही बांभनी और दूसरी औरतें आतीं और हल चलाती थीं, बल्कि पास के गाँवों की भी ग्वालिनें और दूसरी जाति वालियाँ आकर ठीक समय पर शामिल होती थीं। ठीक हल चलाने का काम वे ही करती भी थीं।
    ब्राह्मण लोग कहते हैं कि हम हल नहीं चला सकते, मगर उनकी औरतों ने वह काम करके ही तो विजय पाई, नहीं तो मर्द पकड़े जाते, हल बन्द हो जाता और खेती रुक जाती; फिर तो जमींदार की ही जीत होती। किसानों को तो औरतों ने ही जिताया।
    एक बात और भी थी। रोपने के बाद जमींदार के गुण्डे आते और सब उखाड़ कर फेंक देते थे। मर्द तो वहाँ रहते थे नहीं; वे या तो पकड़ लिए जाते या घर में रहते थे। फलत: औरतों ने ही उन गुण्डों से खेत की रक्षा की और उन्हें भगाया।
    एक बार तो अंधेरे में कुछ बदमाश ऐसा ही कर रहे थे कि एकाएक औरतें पहुँची और वे लोग भागे। मगर औरतों ने एक ओर तो शोर किया, और दूसरी ओर खदेड़ कर दो-तीन ने एक मुस्तण्ड को पकड़ ही तो लिया। बाद में उसकी कमर पकड़ कर बैठ गईं। इस प्रकार, उसे पुलिस के हवाले किया। फिर तो गुण्डों का उत्पात बन्द ही हो गया। औरतें न लड़तीं, तो यह कैसे होता।
    उसके बाद जमींदार ने एक दूसरा रास्ता सोचा क्योंकि न तो पुलिस की धर-पकड़ से खेती रुक सकी और न भाड़े के बदमाशों की शरारत से ही। कुछ गरीब और भिखारिन औरतें उसने, उसके अमलों ने, जमा कीं। फिर उन्हें यह लोभ देकर भेजा कि जाकर वहाँ रोपा हुआ धान उखाड़ फेंको और लौटो तो फी औरत एक-एक रुपया दिया जाएगा। उसने सोचा कि यदि उधर औरतें हैं, तो इधर भी औरतें रहेंगी; पुलिस भी हस्तक्षेप न करेगी क्योंकि उन्हें नहीं छेड़ती तो इन्हें क्यों छेड़ेगी?
    फलत: भाड़े वाली औरतें वहाँ गईं। वे अपना काम शुरू करना ही चाहती थी कि मझियावां की औरतों को खबर लगी। बस, फिर क्या था। गिरोह बॉंध कर वे दौड़ पड़ीं और भाड़े वालियों को झाड़ से मारते-मारते भगा दिया । उन बेचारियों को क्या पता था कि झाड़ से सत्कार होगा। उन्हें यह बात बताई तो गई थी नहीं, नहीं तो शायद ही आतीं। उसके बाद जब वापस गईं तो शायद बड़ी दिक्कत से रुपए के स्थान पर दो-दो आने पैसे मिले।
    इस प्रकार जब पुलिस, अधिकारी और जमींदार आजिज आ गए, फिर भी वहाँ का काम न रोक सके, तो कलक्टर साहब खुद वहाँ पहुँचे।
    उन्होंने जाँच-पड़ताल की। फिर यदुनन्दन शर्मा से कहा कि लड़ाई बन्द करें, मैं तय-तमाम करवा दूँगा। उन्होंने बात मान कर लड़ाई रुकवा दी।
    तब जमींदार के मैनेजर इधर-उधर करने लगे। आखिर में हार कर उन्हें भी मान ही लेना पड़ा। जमींदार के लाखों रुपए बाकी थे। शायद दस हजार में चुकती हुई और लगान का पुराना दर काफी कम करके फिर सभी खेत किसानों को ही मिल गए।
 
 
(11)
 
रेवड़ा का नाम तो मुल्क में ही नहीं, उसके बाहर भी प्रसिद्ध हो चुका है। उसकी लड़ाई को भी लोग बहुत जानते हैं। मगर उसकी कुछ जरूरी, और काम की बातें शायद ही जानते हों। भविष्य के लिए इनको जान लेना अत्यन्त आवश्यक है। इसीलिए इन्हें लिखना पड़ता है।
    रेवड़ा गया जिले के नवादा सब-डिवीजन के वारिसलीगंज थाने में काशीचक स्टेशन से तीन मील उत्तर-पश्चिम पड़ता है। वहीं पर गया, पटना, और मुंगेर जिले की सीमाएँ मिलती हैं। घोर देहात और पिछड़ी जगह है, ऐसी पिछड़ी कि कहिए मत। किसान सभा का काम तो वहाँ पर सत्याग्रह से पहले कुछ भी न था। सभा का एक मेम्बर भी वहाँ न था।
    ऐसे गाँव में ऐसी सुन्दर लड़ाई हुई जिसने जमींदार और सरकार दोनों का ही मद चूर किया और दुनिया का ध्‍यान अपनी ओर आकृष्ट किया। यह क्या कम ताज्जुब की बात है? बाहरी दुनिया समझती है कि वहाँ किसान सभा पहले से काफी मजबूत थी, इसीलिए हम लड़े और जीते। मगर बात उलटी है और जानने की है।
    प्रश्न हो सकता है कि तो फिर लड़ाई हुई कैसे और जीते भी लोग कैसे? यही तो खूबी है। इतना ही नहीं कि वे किसान संगठित न थे, बल्कि इतने गरीब और तबाह थे कि एक पैसा नहीं खर्च कर सकते थे; एक कार्यकर्ता या स्वयंसेवक को, किसान सेवक को, एक दिन खिला भी न सकते थे। चिथड़े-चिथड़े और दाने-दाने को मरते थे।
    फिर भी कई महीने तक बराबर सैकड़ों आदमी प्रतिदिन यहाँ खाते रहे। हजारों रुपए नकद खर्च हुए। असल में इसी तबाही और गरीबी में उस लड़ाई और उसकी सफलता का रहस्य छिपा है, यों तो पंडित यदुनन्दन शर्मा की लगन, धुन और कार्यपरता कारण है ही।
    जमींदार ने किसानों का खून चूस लिया था। उनकी हड्डियाँ भी घिस डाली थीं। ब्राह्मणों की लड़कियाँ बिकवा कर उनके दाम का आधा पैसा वह जमींदाराना हक में लेता था और शेष आधा बाकी लगान में। जवान और अधेड़ मर्दों के हाथ बच्चियाँ बिकती थीं ताकि वे लोग आतुर होने के कारण ज्यादा पैसे दें, इसलिए जब तक लड़कियाँ सयानी होतीं, वे मर जाते थे। फिर तो उन्हें विधवा जीवन बिताना पड़ता था।
    ऐसी औरतों ने रो-रोकर मुझे अपनी रामकहानी सुनाई है।
    वे ही रणचण्डी और दुर्गा की तरह क्रुद्ध होकर इस लड़ाई में न सिर्फ औरतों का नेतृत्व करती रही हैं, प्रत्युत मर्दों को भी फटकार कर दुरुस्त करती रही हैं। यह पहला कारण है विजय का।
    गरीबी की बात तो कह ही चुके हैं। जमींदार ने समूचा खेत, प्राय: हजार बीघा, नीलाम करवा लिया और लड़कियाँ तक बिकवा दीं, केवल यही बात न थी। गाँव में बकरी के दो बच्चे हों, तो एक जमींदार के हिस्से का माना जाता था। न देने पर आफत।
    यदि छप्पर पर बरसात में या दूसरे समय दो नेनुआ, कद्दू या कुम्हड़े फलें, तो उनमें से एक जमींदार का होता था। गाय, भैंस के दो सेर दूध में एक सेर उसके हिस्से का हो गया।
    एक बार जरूरत पड़ी कि गाय या भैंस का दूध चाहिए। मगर वहाँ ढूँढ़ने से दूध न मिला। जमींदार खामख्वाह दूध चाहता था। कोई ऐसा ही कारण था। बस वह क्रोध में आकर बोला : 'यदि गाय-भैंस नहीं हैं, तो क्या औरतें भी ब्याही नहीं हैं? फिर उन्हीं को क्यों नहीं दुह लाते?'
    किसानों से वह जमींदार बेगार करवाता था, सभी जाति के लोगों से। मौजूदा जमींदार के दादा बा. शुक्कन सिंह का जुल्म वहाँ प्रसिद्ध है। वह शक्स मुंगेर के सिकन्दरा थाने में अपनी जमींदारी में ऐसा जुल्म करता था कि सर्वे तक में उसने बाधा डाली। मुझे बताया गया कि बिहार सरकार को उसी के लिए खासतौर से काश्तकारी कानून की 112 धारा लगा कर कार्यवाही करनी पड़ी।
    यदि रेवड़ा के किसान बैलगाड़ी रख कर किराए पर चलाते और किसी प्रकार गुजर करते, तो उनकी गाड़ियाँ मुफ्त में ही जमींदार के घर कई-कई दिन काम में रखी जाती थीं। न तो उन्हें और न बैलों को खाना तक दिया जाता था। शाम को वे छोड़ दिए जाते थे। सुबह फिर बुलाए जाते। न आने पर आफत। जमीन यदि उन्हें जोतने को दी जाती तो सैकड़ों बहाने से प्राय: सारी पैदावार ले ली जाती। बहुत ही कम उन्हें छोड़ा जाता। इसी से किसान हद से ज्यादा ऊब चुके थे। उनके भीतर असन्तोष की आग जलती थी। यह दूसरा कारण था सफलता का।
    मगर जब तक किसान को आशा रहती है कि उसका मामला निपट जाएगा और जमींदार मान जाएगा, तब तक वह लड़ने का नाम भी नहीं लेता। वह स्वभावत: ऐसा ही दकियानूस होता है। इधर जब किसान आन्दोलन चला तो जमींदार ने अपनी मनमानी शर्तों पर भी किसानों को खेत देने से साफ इनकार कर दिया। सस्ती का जमाना था। नौकरी-चाकरी के लिए भी कहीं पूछ नहीं। जीविका का कोई दूसरा रास्ता न था। इसलिए किसान दौड़े-धूपे। जमींदार तथा उसके नादिरशाह अमलों की लाख खुशामदें कीं। मगर फल कुछ न हुआ। रोने-गिड़गिड़ाने और आरजू-मिन्नत से कोई पत्थर को नहीं पिघला सकता। जमींदार सोचता यदि इन्हें खेत दिया, तो इनका कानूनी हक स्पष्ट हो जाएगा; और अगर इन्होंने दावा कर दिया कि न छोड़ेंगे, तो?
    वे लोग मजिस्ट्रेट के पास गए। मिनिस्टरों के दरवाजे भी उन्होंने खटखटाए। मगर बेकार। नेताओं में किसी-किसी ने कहा कि किसान सभा और यदुनन्दन शर्मा के पास क्यों नहीं जाते? यहाँ क्यों आए हो? फलत: वे लाचार होकर निराश हो गए। अब वे जी-जान पर खेलने को तैयार (desperate) थे, यदि कोई रास्ता सूझता। यह तीसरा कारण था उनकी कामयाबी का।
    इसी बीच शर्मा जी एक बार उनकी खबर लेने वहाँ एकाएक पहुँच गए। आषाढ़ का पानी पड़ा था। थोड़ी-बहुत मक्की या सावां वे बो चुके थे। फिर जमींदार ने दफा 144 के जरिए रुकवा दिया था। खेत परती पड़े थे। खेतों में बीज बोया न गया था। खेत में धान का बीय यों ही पड़ा रह गया था। बहुत ही नाम मात्र को रोपा जा सका था। जो रोपा गया था, उस पर भी जमींदार का दावा हो गया था। किसानों ने अपनी दु:ख-दर्द-गाथा उन्हें सुनाई।
    शर्मा जी पिघल गए। उनका हृदय मानो विदीर्ण हो उठा। उन्होंने किसानों को समझाया-बुझाया और आश्वासन दिया। अन्त में कहा कि पुलिस, नोटिस, जमींदार की धामकी और जेल या लाठी की परवाह न करके धान काट लो और खेत जोत लो। पीछे देखा जाएगा।
    किसानों ने बात सुन ली, मगर उनकी समझ में न आई।
    वे समझते थे कि यह किसान नेता है, कोई आसान रास्ता बताएगा। मगर यह तो वही लेक्चर देता है जो दूसरे देते हैं। हमसे जेल जाने और लाठी खाने को कहता है। मगर खुद न लाठी खाएगा और न जेल जाएगा। यह तो खूब है। किसानों का नेता ऐसा ही होता है?
    फिर उन्होंने शर्मा जी को साफ सुना दिया, जाइए, जब हमें ही जोतना और मरना है तो जो समझेंगे, करेंगे। यह तो बराबर सुनते ही थे। हमने समझा था, आप कुछ नया और सीधा उपाय बताएँगे, जो आसान हो। यह तो वही पुरानी बात है। हाँ, यदि आप अपनी बात मनवाना चाहते हैं तो यही ठहरिए, हमारे साथ मरिए और आगे-आगे हँसिया तथा हल लेकर चलिए। पीछे-पीछे हम जरूर चलेंगे। नहीं तो हमें मरने दीजिए। हम ऐसा नेता नहीं चाहते।
    शर्माजी¹ के दिल में यह बात धँस गई और वहीं ठहरने का निश्चय करके फौरन बोले, हाँ, मैं आगे-आगे हँसिया लेकर जरूर काटूँगा और हल जोतूँगा।
    फिर तो दुनिया पलटी। किसानों का चेहरा खिल गया। यह चौथा कारण था जिसने रेवड़ा को जितवाया।
    उसके बाद फौरन ही उन्होंने मुझे अचानक तार दिया कि मैं फँस गया। जेल जाने की नौबत है। आप काम सँभालेंगे क्योंकि 144 की नोटिस खेतों पर लगी है।
    शर्मा जी ने उधर स्वयंसेवकों की टे्रेनिंग के लिए कैम्प खोल दिया। बाकायदा काम होने लगा। चारों ओर प्रचार भी होने लगा। इधर किसानों के साथ जाकर तैयार धान काट लिया। थोड़ा तो था ही, कुछ फौरन कटा और कुछ धीरे-धीरे पीछे कटा।
    इस पर सरकार के घर में तूफान मचा। कांग्रेसी मत्रिमंडल का जमाना था। जिले के जवाबदेह पुलिस के अफसर पहुँचे और अन्त में कलक्टर साहब भी पधारे। वह तो गया जिले को ही सर करने के लिए आए थे।
    किसानों ने उनसे बातें करने से इनकार किया और कहा, शर्मा जी से पूछिए।
    वह घर में थे। मजिस्ट्रेट वहीं पहुँचा। वे मिलना न चाहते थे, मगर जब घर में आया तो निकल कर मिले और बातें कीं। उसने पूछा कि धान किस खेत का है? जवाब मिला, उन्हीं खेतों का। उसने कहा कि इसका काटना तो मना है। खैर, काटा तो काटा। हमें दे दीजिए। उत्तर मिला कि यह नहीं हो सकता, चाहे जो हो जाए, यह तो खाने के लिए काटा है और जब तक जेल में रखकर सरकार खिलाने-पिलाने का प्रबन्ध नहीं करती तब तक यदि दे ही देंगे तो खाएँगे क्या?
    और बातें भी हुईं। फिर वह चला गया। उसने कहा कि यह तो हमारा कानून साफ ही टूट गया।
    शुरू से ही यह तैयारी और पूरी मुस्तैदी भी सफलता का साधन बनी।
    इसके बाद शर्मा जी ने हल लेकर बचे-बचाए खेतों में, जिनमें नमी थी और बीज उग सकते थे, रबी स्वयं बोई। किसान भी साथ रहे। बीच में लोगों ने सुलह की बातें शुरू कीं, तो उन्होंने कहा, कीजिए। स्वयं भी जमींदार श्री रामेश्वर बाबू से उन्होंने कहा कि सुलह कर लें, तो अच्छा होगा।
    किसान लोग फी बीघा तीस रुपए देकर सुलह करना चाहते थे, जिसके मानी नकद तीस हजार रुपए एक मुश्त। मगर वह न माना। उन्होंने यह भी कहा कि किसान सभा यह सुलह नहीं कर सकती। किसान कर रहे हैं। हाँ, सभा उन्हें रोकती भी नहीं। जब सभा इसमें पड़ जाएगी, तो बुरा होगा।
    पर कौन माने?
 
यदुनन्दन शर्मा मझियावाँ, कुर्था, गया,सम्पादक
    उसके बाद देहातों में बिगुल आदि के साथ वालंटियरों का मार्च शुरू हो गया। इससे खूब ही बिजली दौड़ी। मैंने खुद कई मीटिंगें वहाँ रह-रह कर कीं। उनमें स्‍त्री-पुरुष 20-25 हजार से कम जमा न होते थे। बाहर भी मीटिंगें करके उस लड़ाई का महत्त्व समझाया और किसानों से कहा कि रेवड़ा को तीर्थ समझ, आज्ञा पाते ही, जो जहाँ हो, वहीं से दौड़ पड़े। अन्न-धन की यथाशक्ति सहायता भी करें, यह भी अपील की। स्वयं मैंने वक्तव्य दिया कि अब मौका आ गया है कि किसान सभा को मजबूरन सीधी लड़ाई लड़नी होगी, नहीं तो वह मिट जाएगी। उसके बाद ही सभा की ओर से बाकायदा वही पहली लड़ाई रेवड़ा में छिड़ी।
    उधर रेवड़ा में पंचायत बना कर निश्चय हो गया कि जो कुछ तय-तमाम करना हो, वही करेगी। और पंचायत ने तय करके सभी स्‍त्री-पुरुषों के दिल में यह बैठा दिया कि शर्मा जी के रहते, जो करें वही करेंगे। इसीलिए जेल में जाने पर भी उन्हीं पर बात टाली जाती थी।
    अधिकारियों ने हजार कोशिश की कि किसान खुद मिलें और समझौता करें। मगर सब बेकार।
    इसलिए पहली बार ऐसी अपूर्व एकता और शर्मा जी के एकच्छत्र नेतृत्व को देख शत्रु लोग घबरा गए। सिर मार कर हार गए। मगर वे एकता और नेतृत्व का गढ़ तोड़ न सके। विजय की यह कुंजी थी।
    हमने सिखला दिया था कि पुलिस वगैरह को गाली सुनाना और बदनाम करना ठीक नहीं। उनमें भी तो किसानों के ही 99 फीसदी बच्चे हैं। उन पर भी इस युद्ध का असर होगा, क्योंकि उनके भी ऐसे ही खेत हैं। उनके घर वालों एवं माता-बहनों की भी यही दशा है। उसका चित्र उनकी ऑंखों के सामने इस लड़ाई में जरूर आएगा और उनका दिल पसीजेगा। फलत: स्त्रियों ने पुलिस के सिपाहियों के सिर पर चन्दन और अक्षत चढ़ाया और उन्हें भाई कह कर पुकारा, हालाँकि वे धर-पकड़ करते थे। इससे उनका दिल जरूर रोता था।
    अन्त में 'शर्मा जी की जय' के नारे लगाते हुए ही वे लोग वहाँ से गए। एक चीज यह भी निराली ही थी।
    औरतों ने मर्दों के साथ-साथ पूरी सहानुभूति और मुस्तैदी दिखाई, यहाँ तक कि गिरफ्तारी के लिए हठ तक किया। आखिरी दिन जब पुलिस कच्चे कुओं को गिरा देने और उन पर चलने वाली लाठा-कुंडी को जब्त करने गई तो औरतों ने जम कर मुकाबला किया।
    साठ-सत्तर पुलिस के जवान, कई अफसर, मजिस्ट्रेट वगैरह साथ ही गए थे। मगर जहाँ पहले एक ही औरत लाठी चलाती थी, वहाँ उसने जैसे ही पुकारा, उनका झुण्ड जमा हो गया। एक चलाती और बाकी नारे लगातीं, 'जमींदारी का नाश हो। अंग्रेजी राज का नाश हो। किसान राज कायम हो। इनकिलाब जिंदाबाद।' आदि-आदि। जब उस कुएँ पर, जहाँ वे थीं, पुलिस न पहुँची, किन्तु दूसरे ही पर जाकर अपना काम करना चाहा, तो दौड़ कर औरतें वहाँ भी पहुँचीं और उन्हीं नारों के साथ लाठा चलाना शुरू किया। पुलिस भक्कू बन कर खड़ी थी। उससे कुछ बन न पड़ता था।
    प्रान्तीय किसान कौंसिल के सभी सदस्य उस दिन वहाँ थे। हम लोग पहले तो दूर से ही यह दृश्य देखते थे। पीछे निकट चले गए। पुलिस कुछ न कर सकी और अपना-सा मुँह लेकर बैरंग लौट गई। अजीब समाँ था। हमारे कलेजे बाँसों उछल रहे थे। शर्मा जी तो जेल में थे। असल में खेती का दिन था नहीं। सत्याग्रह होता कैसे? इसी से उन्हीं खेतों में कच्चे कुएँ खोदे गए। उन्हीं से साग-तरकारी तथा ऊख बोने के लिए जमीनें सींचते थे, ताकि नर्म होने पर जोती जा सकें। पुलिस वही काम बन्द करना चाहती थी। मगर औरतें तैयार थीं कि लाठी और कुंडी पुलिस को न ले जाने देंगी, पकड़ कर लिपट जाएँगी।
    औरतों से मुकाबला होने से पहले एक और घटना भी हुई, जिसमें पुलिस मर्दों से हार चुकी थी। पहले तो उसने कुछ लोगों को, जो हल वगैरह चलाते थे, पकड़ा। किसान भी पकड़े गए और उनके हलवाहे भी। याद रहे कि खुशी-खुशी ये हलवाहे वगैरह जेल गए। वहाँ भी खुश थे। रेवड़ा में सभी का सहयोग था। सभी तैयार थे,फिर चाहे वे किसान हों या नहीं। यही खूबी थी। इसीलिए पीछे थोड़ी-बहुत जमीन सभी को, विजय होने पर, दी गई। जिनके पास पहले न थी, उन्हें भी दी गई।
    परन्तु जब पुलिस ने देखा कि धार-पकड़ से कुछ होने-जाने का नहीं, जितने पकड़े जाते उनसे कई गुना हाजिर थे, तो हल, कुदाल आदि खेती के औजार भी छीनना शुरू किया। उससे गरीब किसानों की बड़ी हानि थी। कहाँ से बार-बार लाते?
    इसलिए हमने तय किया कि चाहे जो हो मगर खेती के औजार पुलिस न ले जाने पाए। एक-एक औजार को दस-दस आदमी पकड़ कर लटक जाएँ। इसलिए उस दिन जब हल चलाने का समय आया, तो दो ही चार हलों के साथ सैकड़ों आदमी गए। हल चलता था और वे वहीं बैठ कर नारे लगाते थे। जब पुलिस के सैकड़ों का दल कैम्प से चला, तो गाँव में घण्टा बजा। बस, सब सजग हो गए और दौड़ पड़े।
    घण्टे का मतलब था, खतरा या बुलाहट है। ऐसा ही संकेत था। इसे सुन कर सभी को हमारे कैम्प, डीह, पर दौड़ आना पड़ता था। इस घन्टे से बड़ी आसानी थी। यह पक्के संगठन की निशानी थी।
    उस दिन जब पुलिस आई और हल वगैरह छीनने लगी, तो हम लोग भी दौड़ कर देखने गए कि क्या होता है। पुलिस ने हजार चाहा कि हल और कुदाल ले ले, मगर लोगों ने नहीं छोड़ा तो नहीं छोड़ा। थोड़ी देर तक कोशिश करके पुलिस हार गई। तब औरतों की ओर गई। मगर वहाँ भी कुछ न कर सकी। उसने यह न सोचा था कि हम औजारों को रोकेंगे तो औरतें भी इस प्रकार भिड़ेंगी। अत: शर्म के मारे पुलिस रास्ता (सड़क) छोड़ कर खेतों में भटकती फिरी। जाने क्या सोचती थी। पीछे रास्ता छोड़ कर ही टेढ़े-बाँके मार्ग से डेरे पर पहुँची। हम लोग हँसते रहे। असल में हँसी रोकी जा नहीं सकी। वह पुलिस की आखिरी हार थी।
    वह तो फिर कभी पकड़ने न आई।
    हाँ, इसी बीच किसानों की जो 10-12 बीघे ऊख थी, उसे हम मिल में देकर चटपट रुपया बना लेना चाहते थे। मगर सरकार के इशारे पर मिल वालों ने लेने से इनकार किया। इस पर एक भी ऊख न जाने देने और पिकेटिंग करने की धमकी देते ही मिल वाले सीधे हो गए और ऊख ले ली। इस प्रकार, किसानों को हजारों रुपए मिल गए। ये रुपए और तरह कभी न मिलते।
    रेवड़ा की तैयारी का एक अच्छा सबूत देखिए। एक स्‍त्री के एक नन्हा-सा बच्चा गोद में था। एक बच्ची भी थी। उसके घर में दो ही मर्द थे और दोनों ही जेल में थे। हमने उसका हाल पुछवाया कि शायद कोई तकलीफ हो या कम से कम उसे मानसिक वेदना ही हो। पता लगा कि वह तो खुश है और कहती है कि मर्दों के रहने पर तो खर्च की फिक्र थी, मगर अब तो कोई फिक्र नहीं है, क्योंकि खर्च घटा था। यह बात भी थी कि जो जेल में हो, उसकी खेती-गिरस्ती, या पशु आदि की हिफाजत सब मिल कर करते थे। ऐसे लोगों के घर वालों को खाने-पीने का कोई कष्ट न हो, इसकी भी फिक्र बराबर की जाती थी।
    उस लड़ाई के सिलसिले में ही लोगों ने बिना टिकट उस लाइन में रेल में आना-जाना सीख लिया। हजारों आदमी बराबर ऐसा करते थे। जब पं. यदुनन्दन शर्मा का केस गया में चला, तो बिना टिकट के किसानों से भरी ट्रेनें जाने और आने लगीं । पीछे, तारीख के दिन, हर टे्रन के प्रत्येक खाने में लट्ठबन्द पुलिस और पुलिस अफसर जाने लगे। वे चढ़ने से रोकते थे। मगर फिर भी लोग पहुँच ही जाते थे। गया से चलने में तो खामख्वाह चढ़ लेते थे।
    एक बार सारी ट्रेन ऐसों से ही भर गई और टिकट वाले मुँह ताकते खड़े रह गए। फिर बड़ी दिक्कत से मैंने जाकर उन्हें उतारा क्योंकि कलक्टर वगैरह थक चुके थे (किसान उनकी बातें सुनते थे, फिर उन्हें देखकर बोल उठते थे, 'भूखे हैं, रोटी दो। शर्मा जी छोड़े जाएँ।' आदि-आदि)।
    रेवड़ा में अन्त में जीत हुई। जिला कांग्रेस कमिटी की बकाश्त कमेटी ने जो 150 बीघे पर जमींदार के कब्जे की रिपोर्ट दी थी, वह मजबूरन उसे देकर बाकी किसानों ने ली। करते क्या? अपनी ही कमेटी की रिपोर्ट जो थी। लाचारी थी।
 
 
(12)
 
जनता की लड़ाइयों में वे ही जीतते हैं जिन्हें न केवल अपने में पूरा विश्वास होता है, वरन् अपने लक्ष्य और जनता में भी। बिना इन तीन विश्वासों के विजय असम्भव है और अगर ये विश्वास हों तो उसे कोई रोक भी नहीं सकता। ऐसे विश्वास का सुन्दर नमूना बिहटा में मिला।
    वहाँ वाली चीनी की मिल के जुल्म से ऊब कर हमारे साथियों ने, जो मजदूरों में काम करते हैं, मजदूरों की हड़ताल की बात सोची। उसकी तैयारी भी की।
    मैं तो उस तैयारी से पूरा वाकिफ इसलिए न था कि उस काम से मेरा खास ताल्लुक न था; वह उन्हीं लोगों के जिम्मे था। पर, यह मालूम था कि वे लोग काम ठीक-ठीक न कर रहे थे, कुछ ढिलाई थी इसलिए मजदूरों का सुन्दर संगठन बिगड़ रहा था और मिल वाले अनेक ढंगों से उनमें फोड़-फाड़ कर रहे थे। उन्हें हिम्मत भी जुल्म करने की इसलिए हुई थी। वे चाहते थे कि मजदूरों की सभा रहने न पाए। इसलिए उनकी यूनियन में जिन मजदूरों ने काफी दिलचस्पी ली, या जिन्होंने उससे पहले वाली अत्यन्त सफल और पूर्ण हड़ताल में पूरा भाग लिया था, उन्हें या तो निकाल चुके थे, या किसी न किसी बहाने से निकाल रहे थे। इसीलिए घबराहट थी।
    और हड़ताल की बात सोची गई। मुझे क्या? जब उनके नेता और मेरे साथी चाहते थे, तो मैं और करता ही क्या?
    हाँ, मैंने यह जरूर कहा कि जरा अच्छी तरह जाँच कर देखें कि सफलता होगी या नहीं। उन्होंने प्रान्त के एक मजदूर नेता को, जो साथी ही है; बुलवा कर सब बातें कहीं और सारी हालत की जाँच करवाई। नेता ने भी कहा कि आधा इधर, आधा उधर की बात है। अगर मौका लग गया तो हम जीत जाएँगे।
    फिर तो शाम को हड़ताल की घोषणा हुई। एक ही दो घंटे में वह होने वाली थी। मैं आश्रम चला गया। वे लोग वहीं थे। रात में जय-जयकार और शोरगुल दूर से सुनता रहा। सोचा, काम बना। मगर सुबह आया तो सुना कि हिसाब गलत निकला। केवल सौ-डेढ़ सौ मजदूर ही हड़ताल कर सके। नेता लोग मनहूस थे। कहने लगे कि विफल रहे,अन्दाज सही न था। मैंने पूछा, तब? उत्तर मिला, कोई चारा नहीं, दिन-भर यहीं मुँह छिपा कर पड़े रहेंगे और शाम को अंधेरे में यहाँ से चले जाएँगे। अजीब बात थी। मैंने कहा कि आखिर रहिएगा कहाँ; रास्ता चलना असम्भव हो जाएगा। लेकिन आप लोग चाहे जो भी करें, मैं क्या करूँ? मैं तो यहीं रहूँगा। जब तक राजनीति से हट न जाऊँ मेरे लिए तो दूसरा चारा ही नहीं, सिवाय इसके कि मिल वालों को धार दबाऊँ। बोले, यह तो गैर-मुमकिन है। मैंने पूछा, गैर-मुमकिन क्यों? आखिर मेरे किसानों की ऊख से ही मिल चलती है और अगर उनसे कहूँ तो एक भी ऊख न आए। यद्यपि अभी-अभी मिल चालू हुई है और जाड़ा शुरू है इसलिए किसानों को पैसे की सख्त जरूरत है, मगर मेरा पूरा विश्वास है कि मेरी बात मानेंगे और हड़ताल कर देंगे। उन्होंने ऐसा कई बार किया है। तब वे बोले, सो तो होगा; मगर बाहर से रेल में जो ऊख आएगी उसका क्या होगा? मिल वाले तो सब ऊख बाहर से ही मँगा सकते हैं। ऊख इस साल ज्यादा है भी। मैंने उत्तर दिया, किसान ही रेल पर पिकेटिंग भी करेंगे और भीतर न जाने देंगे। सवाल हुआ, कितने लोग पिकेटिंग करेंगे और जेल जाएँगे। जितने की जरूरत होगी उतने, मैंने कहा।
    इस पर हँस कर बोले, नहीं-नहीं, ज्यादा से ज्यादा पचीस-पचास आदमी जाएँगे, और कुछ न होगा। हाँ, आपकी भी बची-बचाई प्रतिष्ठा जाएगी, यही होगा। मैंने हजार दलीलें दीं और उन लोगों के दिल से यह धारणा हटानी चाही। मगर कुछ न हुआ। मेरे भीतर अजीब महाभारत मचा था।
    मेरे सामने तो वे बातें मान लेते। मगर ज्यों ही मैं तैयारी के लिए हटता कि फिर वही बातें चलने लगतीं और कहते कि कुछ न होगा। फलत: दिन में तीन बार मैंने उन्हें मनाया और वे पीछे फिसल गए। आखिर में शाम को ऊब कर मैंने तय कर लिया कि ये लोग चाहे कुछ सोचें और करें, मैं तो किसानों को हड़ताल और पिकेटिंग के लिए पुकारूँगा ही।
    जब मेरा रंग बेढंगा देखा, तब कहीं वे लोग राजी हुए,सो भी और साथियों के जोर देने पर, मजबूरन।
    बस, फिर तो पुकार हुई और उसी रात में, जबकि कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था, तीन-चार हजार किसान सारी रात मिल के फाटक और लाइन पर नारे लगाते पड़े रहे और एक भी गाड़ी भीतर न जाने दी। पुलिस का दल भी तैनात था। जब निराश होकर और धर-पकड़ न देख कर सुबह तीन बजे अधिकांश लोग चले गए, और थोड़े ही रहे, तब पुलिस ने सैकड़ों को पकड़ कर बड़ी दिक्कत से कुछ रेलें भीतर मिल में पहुँचवाई।
    इसके बाद तो मेरे दोस्तों की ऑंखें खुलीं और उन्होंने माना कि मेरा ही कहना ठीक था।
    फिर, दिन-भर शान्ति रही। लोग पिकेटिंग पर डटे रहे। देहात की ऊख भी रोकी गई। शाम को फिर वही भीड़ और कई हजार लोगों का वही हंगामा। पुलिस, मजिस्टे्रट, मिल वाले सभी हैरान थे कि यह क्या हो गया। रात में भी कुछ न हुआ। और फिर, उसी प्रकार सुबह सैकड़ों को पकड़ कर कुछ रेलें भीतर की जा सकीं।
    मगर वे लोग घबरा गए। हमने सोचा कि अब आगे एक भी रेल न जाने देंगे, चाहे जितनी धर-पकड़ हो।
    इससे मिल वालों को बड़ी बेचैनी हुई और मेरे पास पैगाम पर पैगाम आने लगे कि मैनेजिंग एजेंट मिलना चाहते हैं। मुझे क्रोधा तो बहुत था। मगर काम करना था। इसलिए कह दिया, मिल सकते हैं।
    फिर क्या था। मोटर दौड़ाए सीधे आश्रम आए और पास के ही डाक-बँगले में बैठ कर घंटों बातचीत के बाद हमारी माँगें उन्होंने मान लीं। इस तरह हम विजयी हुए। बेशक, मेरा तो किसानों पर पूरा विश्वास था। मगर मैं भी जितनी सोच न सका था, उससे कहीं ज्यादा उन्होंने मुस्तैदी दिखाई। ठीक ही है, पीड़ित जनता उग्रतम नेताओं से भी हजार गुना उग्र होती है।
    इस प्रकार, हमारे अटल विश्वास ने पासा पलटा और विजय दिलाई।
   
 
(13)
दरभंगा जिले के पड़री परगने में बिथान एक मुकाम है। रोसड़ा थाने में पड़ता है। महाराजा दरभंगा की जमींदारी है। वहाँ उनका सर्किल ऑफिस पास में ही गजपति मुकाम में है। सर्किल के पास ही सीही मौजा है, जहाँ बहादुर किसान सेवक श्री पंचलाल (पाँचा) रहता है।
    सारा इलाका साल-भर प्राय: जलमग्न ही रहता है। समुद्र के टापुओं की तरह कहीं-कहीं गाँव हैं जिनमें तथाकथित 'रैयान' और खेत-मजदूर ही रहते हैं।
    पाँचा कोइरी जाति का है। वहाँ की सभी की सभी जमीनें जमींदार की बकाश्त मानी जाती हैं। उस पानी में निराले ढंग का धान होता है। न तो नीलामी के कागज हैं और न सर्वे के कागजों से ही पता चलता है कि कब कैसे बकाश्त की रचना हो गई।
    असल में जमींदार जबर्दस्त ठहरा। उसने जैसा चाहा कर लिया। वे गरीब सदा के दबे-दबाए कब बोलते? वहीं की एक औरत ने कांग्रेस की जाँच-कमिटी के सामने कहा था कि तहसीलदार ने हुक्म दिया था कि इसे नंगी करो और इसके ससुर की जाँघ में इसकी जाँघ बॉंध दो।
    वहाँ अन्न तो दुर्लभ है। जमीन में अथाह पानी रहता है। कुछ भी पैदा नहीं होता। फिर भी लगान वसूल होता है। गरीब लोग मछली मार कर खाते-पीते हैं। मगर वह भी करने नहीं देते ये जमींदार के दूत।
    पानी में जो धान होता है उसे रात में एक प्रकार की चिड़िया खा जाती है। इसलिए रात में नाव पर बैठ कर किसान रखवाली करते हैं। जमींदार के गुण्डे रात में आकर नाव बलात् उलट देते और किसान को पानी में डूबा छोड़, नाव ले भागते। किसानों के हाथ-पाँव पीठ की ओर बॉंध कर उलटा डाल देते। मार-पीट का तो कोई ठिकाना नहीं। गोइठा (उपला) और दूध-दही तो उनकी अपनी चीज थी। डर के मारे किसान पहुँचाते रहते।
    वहाँ सभा कौन करे? और अगर कभी कोई गया भी, तो सीधे स्वराज्य दिलाने का ही वादा कर आया। देह पर चिथड़ा नहीं और न पेट में अन्न, मगर ठेठ स्वराज्य ही दिलाएँगे; जले पर नमक छिड़कना इसे ही कहते हैं। यदि जमीन और जुल्म हटाने की बात करें तो महाराज रंज जो हो जाएँगे। म्याऊँ की ठौर कौन पकड़े? फिर तो स्वराज्य मिलने में महान विघ्न हो जाएगा। महाराजा ही तो उसे लाएँगे न? किसान, जमींदार के मामूली नौकरों की जूती से भी बदतर थे और उनकी छाती वे लोग बराबर रौंदते थे। मगर उनका पुर्सांहाल कोई न था।
    मैं जब पहले पहल सन् 1937 ई. में वहाँ गया, तो नाव से ही हसनपुर रोड स्टेशन से जाना पड़ा। वहाँ देखा कि 20-25 हजार स्‍त्री-पुरुषों की भीड़ है। सभी प्राय: नंगे, गन्दे और फटे चिथड़े पहने, काले-कलूटे, दरिद्रता की मूर्ति नजर आते थे। मैं रो पड़ा। मुझे पता चला कि बहुतेरे तो खबर सुन कर एक दिन पहले से ही आए हैं। दस-पन्द्रह मील से पानी में आना।
    खैर, मैंने सभा की और उनके हृदय की ही बात बोलता रहा। वे मुग्ध हो गए। उनका चेहरा खिल गया। जमींदार ने कोई विघ्न न डाला। उसे और उसके अमलों को असल में विश्वास ही न था कि यहाँ सभा होगी और इतने लोग आएँगे।
    मगर यह सफलता देख वे लोग भी घबरा गए। मेरे लेक्चर ने तो उन्हें भयभीत कर डाला। उन्होंने सोचा कि उनके सदा के पालतू जानवर, ये गरीब, कहीं हाथ से निकल न जाएँ। मैंने जीवन-भर वैसा दृश्य नहीं देखा है, और न वैसी पागल भींड़।
    दूसरी बार, एक वर्ष बाद, जब फिर मीटिंग हुई तो जमींदार की सारी ताकत लगी और उसने चाहा कि सभा न हो सके। जब गन्दे और झूठे प्रचारों एवं धमकियों का नतीजा कुछ न हुआ, क्योंकि किसान तो पहली सभा से ही जान चुके थे कि बात क्या है,तो सभा के लिए जमीन नहीं मिले, यही किया गया। एक के बाद दीगर, तीन-चार जगह तैयारी हुई। मगर अन्त में सभी जगहों से हटना पड़ा। जिस किसान की जमीन में शामियाना जाता, वही आकर रोने लगता कि हम उजड़ जाएँगे। आखिरकार ऊब कर हमने पहली सभा की ही जगह तैयारी कर ली। सोचा, यह तो जमींदार की खास जमीन है; अगर वह रोकेगा तो सत्याग्रह होगा। खैर सभा हुई और लोग खूब जमे।
    अब सभा में ही उनके गुण्डे विघ्न करने लगे। कोई इधर बोलता, कोई उधर सवाल करता ताकि काम न हो सके। वहाँ पुलिस भी थी; पर चुप थी। अन्त में किसानों का रुख बिगड़ा। तब गुण्डे लोग सटक सीताराम हुए।
    मगर फिर दूसरा उत्पात किया। बड़ा-सा हाथी सीधे सभा में घुसाना चाहा, ताकि भगदड़ मच जाए। पुलिस ने न रोका। उसे हिम्मत ही न थी। मगर किसान कब बर्दाश्त करते? कई हजार खड़े हो गए और ईंटों से मारते-मारते हाथी को भगा दिया। फिर तो सभा का काम पूरा हुआ और खूब ही हुआ।
    इस बार जमींदार की जो एक न चल पाई और सीधे किसानों ने ही उसको पछाड़ा, इससे उनमें हिम्मत हुई। फलत: दूध, घी, दही, गोइठा, बेगार, मारपीट,सब बातें बन्द हो गईं। वे लोग तन गए। पूर्वोक्त पंचलाल ने उन्हें तैयार किया और सब चीजें रोक दीं। जब तक किसानों के बीच से ही उनके नेता पैदा न हों, उनका उद्धार नहीं हो सकता। पड़री वालों की यह दशा न होती यदि पंचलाल, उसका भाई और उसके साथी तैयार न होते।
    पंचलाल बड़ा ही बहादुर और मजबूत जवान है। सीही में जो खेत जबर्दस्ती जमींदार जोतता था, उसे उसने खुद जोता और उसमें फसल लगाई। जब काटने गया, तो जमींदार के आदमी बन्दूक लेकर रोकने आए। पंचलाल सीधे छाती तान कर उनके सामने खड़ा हो गया और कह दिया, मुझे गोली मार कर मेरी लाश भले ही ले जा सकते हो; मगर जीते जी यह फसल न जाने दूँगा। आखिर वे लोग हारकर चले गए।
    इसी प्रकार उसने न जाने कितने अत्याचार रोके।
    तीसरी बार खास गजपति में, ऑफिस के बगल में ही हमारी सभा हुई। वहाँ लम्बा सा लाल झंडा फहरा रहा था। सर्किल अफसर वगैरह शर्म और डर के मारे भाग कर कहीं चले गए। जिनकी छाती पर बैठते थे, वे ही आज उलटे बैठना चाहते हैं। भला, यह बर्दाश्त हो? मगर करते क्या? इसलिए हट जाना ही उचित समझा।
    पड़री में युगान्तर हो गया। अब पुराने दब्बू किसान न रहे। अब तो वे सेर के लिए सवा सेर हैं। 'पैसा देकर बाजार दर से गोइठा लो, नहीं तो जाओ', ऐसा साफ ही सुना देते हैं। छाती ऊँची करके चलते हैं।
 
 
(14)
 
दरभंगा जिले के बहेरा थाने में देकुली धाम मौजा है। वहाँ के हमारे सबसे जबर्दस्त और धुनी कार्यकर्ता श्री सत्यदेव राय हैं। गाँव बड़ा है। वहाँ ज्यादातर मैथिल ब्राह्मण बसते हैं। मगर सब मिला कर दूसरे लोग भी काफी हैं। उन्हीं ब्राह्मणों में एक हजरत वहाँ के जमींदार हैं।
    जमींदारी तो छोटी ही है। मगर कर्ज पर उनके कई लाख रुपए लगे हैं, ऐसा बताया जाता है। पुराने आदमी हैं और नीम टर अंग्रेजी भी जानते हैं। कहा जाता है, पुराने जमाने के मैट्रिक्युलेशन तक पढ़े हैं।
    जो हो, कर्ज पर रुपए देकर उन्होंने गरीब किसानों को पागल कर दिया है। उनकी सारी जमीनें लिखा ली हैं। वहाँ गरीबी बहुत ज्यादा है, इतनी कि कह नहीं सकते। एक बार मैं भूकम्प के बाद उसी इलाके में, खास देकुली नहीं, सभा करने गया था। सभा में बहुत लोग तो सिर्फ इसलिए आए थे कि कुछ रिलीफ खाना, कपड़ा बँटेगा। वहाँ बागमती नदी की कई धाराएँ हैं। उनने उस इलाके को तबाह कर रखा है। मगर देकुली उस धारा से बचा है।
    फिर भी, गरीबी ऐसी है कि पास ही के एक किसान ने मुझे सुनाया कि उसने सकरकंद की खेती की थी और गरीब लोगों ने उखाड़ कर खा ली, मैं कुछ न कर सका। करने की हिम्मत ही न हुई। खेत में चना लगा था। वह तो खड़ा ही रहा, पर उसके दाने निकालकर किसान खा गए।
    वैसे ही इलाके में देकुली का जालिम साहूकार-जमींदार आतंक राज्य कायम किए बैठा है। इसके करते वहाँ किसानों को जबर्दस्त संघर्ष करना पड़ रहा है, जो बराबर जारी है।
    एक बार मैं वहाँ जब सभा करने गया, तो किसानों की अपार भीड़ पाई। असल में पाप का घड़ा भरा है और फूटने वाला ही है, ऐसा मालूम हो गया। बात की बात में वैसा भारी जमाव मैंने शायद ही कहीं पाया हो।
    वहाँ जाने का रास्ता ऐसा बीहड़ और सड़कें ऐसी खराब कि कुछ पूछिए मत। इसीलिए तो जुल्म करने वालों को आसानी होती है। फरियाद भी कौन सुने? वहाँ कौन जाए? परवाह किसे?
    मगर मैंने देकुली को जितना तैयार पाया, पुलिस की ऑंखों के ही सामने जमींदार के लट्ठधारों ने जिस प्रकार हमारे कार्यकर्ताओं को वहाँ पीटा फिर भी किसान भयभीत न हुए, वह निराली चीज है। अकेले देकुली से कई सौ किसान जेल गए। आज भी पचासों जेल में हैं। सैकड़ों पर केस चल रहे हैं। फिर भी, हिम्मत में जरा-सी भी कमी का नाम नहीं। वाह रे मर्दानगी और वाह रे तैयारी। राघोपुर और पंडौल सागरपुर के सत्याग्रह संघर्ष में भी वहाँ के बहादुर किसान गए और उसे चलाया।
    लोग कहते हैं कि खूब आन्दोलन होने से और सभा का काम बराबर होने से ही किसान और मजदूर तैयार हो सकते हैं। मगर जुल्म और तबाही ऐसी पाठशालाएँ हैं, जो पीड़ितों को अपनी ऑंच में तपाकर पक्के बना देती हैं।
    देकुली में हम कोई ज्यादा काम नहीं कर सके हैं। फिर भी, उसकी मुस्तैदी और उसकी धुन हमारी उक्त बात के पक्के प्रमाण हैं। वास्तविक स्थिति (objective condition) यों ही तैयार होती है। यह ठीक है कि अकेले श्री सत्यदेव राय की लगन और धुन ने मस्ती ने सबों में बिजली दौड़ा दी है। वह जवान भी चेहरे-मोहरे से खाँटी किसान मालूम पड़ता है। है भी अत्यन्त सीधा-सादा। मगर उसके भीतर जो आग छिपी है, वह जमींदारी को जला कर ही दम लेगी।
    उस जमींदार के दोस्त उस जिले के कुछ प्रमुख कांग्रेसी नेता हैं। वे उसके कानूनी सलाहकार और वकील भी हैं। वह इलाका छोटे जमींदारों का है। यह भी एक बाधा है क्योंकि ऐसे जमींदार आसानी से किसान सभा के खिलाफ भड़काए जा सकते हैं?
    सरकार का क्या कहना? वह तो जमींदारों और श्रीमन्तों की पीठ पर सदा रहती ही है। अमन और कानून उन्हीं के लिए हैं न? गरीबों के लिए तो कानूनी न्याय ऐसी महँगी चीज है कि अप्राप्य है। वे उसमें पड़े कि तबाह हुए और घर का भी आटा गीला करके लौटे।
    यदि कानून, पुलिस और कचहरियाँ न होतीं, जेल और फाँसी का तख्ता न होता, तो किस जमींदार की ताकत है कि लगान वसूल कर लेता? इनने किसानों के हाथ-पाँव बाँध रखे हैं।
    देकुली¹ का जमींदार इन साधनों से सम्पन्न है, इसीलिए हिम्मत करके लड़ता चला आ रहा है, हालाँकि काफी रुपए खर्च करने के कारण उसकी भी बुरी गत है।
    किसानों का मुकाबला वहाँ जमींदार और सरकार ने दो प्रकार से किया अलावा मार-पीट के। एक तो कानून तोड़ने के लिए उनकी गिरफ्तारियाँ कीं। दूसरे, सामूहिक रूप से उन पर दूसरे-दूसरे केस खड़े किए। इस तरह किसान हैरान किए गए और जेल पहुँचाए गए।
    किसानों ने भी सत्याग्रह, यानी बकाश्त जमीन के जोतने, बोने और फसल काटने के सिवाय जमींदार का घोर एवं सफल बायकाट किया। यह अस्त्र सफलतापूर्वक वहीं प्रयुक्त हुआ।
    फलत:, जमींदार परेशान हो गया। उसकी खेती-गिरस्ती के लिए हलवाहे-चरवाहे की कौन कहे, उसे पानी देने और उसका भोजन बनाने वाले नौकरों तक का मिलना असम्भव हो गया। मेहतर या और काम करने वालों की भी यही दशा रही। इस प्रकार, रुपया-पैसा देकर सबको बॉंध रखने वाले चलता-पुर्जा जमींदार का ऐसा सफल बायकाट किसी और जगह नहीं हुआ।
    दूसरी खूबी वहाँ यह है कि सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं के जेल चले जाने पर भी, किसान लोग स्वयं यह काम चलाते रहे। इस प्रकार उनमें स्वावलम्बन आया, खासकर संघर्ष चलाने के मामले में।
    सरकार के एक विशेष अफसर के द्वारा सुलह का प्रश्न उठा कर हमारे किसान संघर्ष को रोकने और पीछे सुलह में टाल-मटोल करते-कराते परेशान करने की नीति वहाँ भी बरती गई। उसका पर्याप्त कटु अनुभव हमें वहाँ भी हुआ। इसलिए हम लोग उस झमेले में अब पड़ना नहीं चाहते, चाहे वहाँ हो या और कहीं।
   
 
(15)
 
किसानों में हमने यह देखा है कि स्वावलम्बन और सामूहिक रूप से मिल कर काम करने की पुरानी आदत खत्म-सी हो गई है। पहले ऐसा अकसर होता था; गाँव का पंचायती काम सभी मिल कर करते थे। इसे बिहार में बहुत जगह गुवाम कहते हैं। हमने देखा है कि दक्षिण बिहार में आबपाशी के लिए जवाबदेही, कानून के जरिए, जमींदार पर हो जाने के कारण किसान ऐसे परमुखापेक्षी हो गए हैं कि इधर जमींदार कुछ करता नहीं, उधर वे भी उसी की आशा पर फसल खो देते हैं। खुद पैन और
 
देकुली उत्तरी विहार सम्पादक
आहार का प्रबन्ध नहीं करते कि धान के लिए पानी वर्षा में जमा हो और खेतों में पहुँच सके। नदियों की धाराएँ रुक गई हैं, ज्यादा बालू आ जाने से उनका मुँह बन्द हो गया, और धारा का रुख पलट गया। नदी से खेत में पानी लाने की पैन (नाली) भर गई है। इससे पानी नहीं पहुँच सकता।
    जमींदार तो नालिश करके पूरा लगान वसूल करता ही है, आबपाशी का कानून भी ऐसा रद्दी है कि किसान कुछ कर ही नहीं सकता और जमींदार साफ बच जाता है। अजीब हालत है। फसल मारी गई किसानों की और लगान भी देना पड़ा। मगर फिर भी होश नहीं कि खुद कुछ करें।
    पटना जिले के बिहारशरीफ के इलाके में राजगिर से एक नदी आती है जिसे पंचाने कहते हैं। उससे लाखों बीघा धान आबाद होता है। मगर उसकी धारा में ज्यादा बालू और छोटे-मोटे पत्थर भर जाने से उसका मुँह बन्द हो गया था। धारा दूसरी ओर चली गई थी। किसान रोते थे।
    हमने अपने कार्यकर्ताओं को समझाया कि बकाश्त का सत्याग्रह किसान क्या करेंगे, यदि पंचाने का सत्याग्रह नहीं कर सकते? यहाँ तो फौरन फल मिलेगा और जेल-वेल का खतरा भी नहीं। उनके दिल में बात आ गई।
    बस, बीसियों गाँवों में सभाएँ करके किसानों को तैयार किया गया और कई हजार किसानों का जत्था 8-10-12 मील से आकर, ठीक मुकाम पर जमा हुआ। अपनी-अपनी खुराक और जलाने के लिए लकड़ी वगैरह सभी लोग साथ लाए; कुछ यों भी जमा की गई। खोदने की कुदालें भी घर से ही लेते आए। मगर मजबूत टोकरियों की जरूरत थी और वे उनके घर कहाँ? इसलिए कुछ चन्दा करके टोकरियाँ जमा की गईं।
    फिर, काम चालू हो गया। एक साथ हजारों कुदालें और टोकरियाँ बराबर चलती थीं। अजीब समाँ था। लगातार हफ्तों काम चालू रहा। मालूम होता था, जैसे पुराने समय में राजा सगर के लड़के समुद्र खोदते हों, या यों कहिए कि गंगा की धारा लाने के लिए भगीरथ का प्रयत्न हो। अन्त में धारा खुल गई। कुछ-कुछ कसर थी जो दूसरी बार के यत्न से साफ हुई। लाखों बीघा जमीन बेखटके आबाद होने लगी। बाढ़ से औरों की जो तबाही होती थी, वह भी बची।
    पीछे सरकार ने नाप-जोख की और खुद खुदवाने का वचन दिया। देखें वह क्या करती है। हमें तो उससे कतई आशा नहीं, सो भी शीघ्र। पीछे चाहे जो हो।
    इस प्रकार, जमींदारों का अभिमान चूर हो गया कि उनके बिना आबपाशी का प्रबन्ध असम्भव है। किसानों की यह एक महत्त्वपूर्ण विजय है।
 
 
 
(16)
 
गंगा के उत्तर, मुंगेर और भागलपुर जिलों में, गोगरी से लत्तीपुर तक; एक बहुत पुराना बॉंध था। वह गंगा की बाढ़ से उत्तर के सैकड़ों गाँवों की रक्षा करता था। मगर अब वह खत्म हो गया है। सिर्फ कहीं-कहीं उसका निशान मात्र है। फलत:, गंगा और छोटी लाइन के बीच के सैकड़ों गाँव प्राय: हर साल डूबते हैं। उनकी फसल बर्बाद हो जाया करती है।
    सभाएँ हुईं। सरकार से प्रार्थना की गई। प्रस्ताव पास हुए, गर्मागर्म स्पीचें हुईं कि वह बॉंध बनवा दिया जाए। मगर कौन सुने? सरकार तो वज्र की बहरी है। अत: उसे सुनाना आसान नहीं है।
    मैं भी एक बार ऐसी सभा में बुलाया गया। मैंने कहा यदि सरकार नहीं सुनती तो न सुने; हम खुद-ब-खुद क्यों नहीं सुनते? आखिर सरकार तो डूबती नहीं, डूबते तो हम किसान हैं। फिर हम क्यों न उपाय करें?
    लोगों को यह बात जँची तो। उनकी ऑंखें भी खुलीं। मगर एक-दो मील नहीं, बीसियों मील लम्बे और पहाड़ जैसे ऊँचे बॉंध के बनाने का सवाल था। अत: कुछ आगा-पीछा हुआ। लेकिन फिर सब लोग तैयार हो गए।
    सबने तय किया कि बाकी गाँवों को भी खबर दी जाए और सब मिल कर इसे बना ही डालने का तय कर लें। यही हुआ भी। दस-पन्द्रह गाँवों के एक-एक दल बने और तय पाया गया कि अपने-अपने सामने का बॉंध ये ही दल पूरा करें।
    लोग हैरत में थे कि लाखों रुपए खर्च करके बन सकने वाली चीज ये लोग कैसे बना लेंगे? मगर आखिर समूह का निश्चय ही तो ठहरा। सामूहिक काम करने का संकल्प भी कोई चीज है।
    काम शुरू हो गया बरसात आने से पहले ही। और, ऐसी तेजी हुई कि मालूम पड़ा कि केवल दस-पन्द्रह दिनों में ही उतना लम्बा बॉंध पूरा हो जाएगा। मालूम हो रहा था कि भीम का बल किसानों में आ गया है। मैंने कहीं-कहीं जाकर देखा तो सचमुच पहाड़ जैसा ऊँचा, और कई गाड़ियाँ साथ चलें इतना चौड़ा, बॉंध बन रहा था। ऐसी मुस्तैदी थी कि अब लिया, तब लिया हो रहा था।
    इतने में ही सरकार की महारुद्र वाली तीसरी ऑंख खुली और उसने मदद करने के बदले प्रहार किया। रेलवे लाइन को न जाने इस बॉंध से क्या खतरा मालूम हुआ? अत: उस कम्पनी ने सरकार पर दबाव डाला।
    उधर जमींदारों को मछली का नुकसान सूझा। बाढ़ से पानी आ जाने पर जगह-जगह रुकता था और उसमें मछलियाँ होती थीं। उनकी बिक्री से जमींदारों को काफी पैसे मिलते थे। अब बॉंध होने पर, पैसे न मिल सकेंगे।
    ठीक है, बाढ़ आने पर पहले किसान और उनके पशु, आदि मछलियों की ही तरह मरें। पीछे मछली मारी जाएँ। यही है व्यक्तिगत अन्‍धा स्वार्थ।
    मगर सरकार को तो ऐसे व्यक्तियों की रक्षा खामख्वाह करनी थी। इसलिए कानूनी दाँव-पेंच ढूँढ़े गए और प्रमुख लोगों पर नोटिस हुई कि आप लोगों पर केस क्यों न चले। फिर भी परवाह न करके काम जारी रहा। पर, जब धर-पकड़ की नौबत आ गई तो मजबूरन छोड़ देना पड़ा।
    अब तक वह यों ही पड़ा-पड़ा वर्तमान शासन प्रणाली को भर पेट कोसता है।
    मगर क्या वह सुनने वाली है?

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