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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-5

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा

''समाज का आर्थिक ढाँचा ही असली नींव हैं जिसके ऊपर आईना और राजनीति के महल खड़े किये जाते हैं और जिसके अनुसार ही विचारों के निश्चित सामाजिक रूप बनते हैं। संक्षेप में, उत्पादन प्रणाली ही सामाजिक, राजनीतिक और औद्योगिक जीवन के स्वरूप को आम तौर से निर्धारित करती हैं।''   -कार्ल मार्क्स
 

भूमिका


 

यह यों हुआ


भारत की आजादी की चर्चा के साथ ही क्रान्ति और संयुक्त मोर्चे की बात भी आज हवा में फैल रही हैं। खासकर जो लोग अपने आप को वामपक्षी (leftists) कहते हैं उनकी तो जबान पर हम इन दो शब्दों को बराबर ही पाते हैं, चाहे उनमें शायद ही कोई इनका अर्थ ठीक-ठीक समझता हो। नतीजा यह हैं कि इन दोनों ही का प्रयोग अधिकांश ऊल-जलूल ही होता हैं। क्रान्ति की रट लगानेवाले बहुतेरे तो ऐसे हैं जो इसे सुलभ और सुगम वस्तु समझते हैं ! हमारे मुल्क में जो आजादी की लड़ाई चल रही हैं उसी के सिलसिले में, उनकी समझ से, एक ऐसी भी स्थिति आयेगी जब क्रान्ति खुद हमारे चरण चूमेगी ! ऐसी मनोवृत्ति से मुझे आश्चर्य हुआ हैं। मेरे भीतर रह-रह के यह प्रश्न पैदा हुआ हैं कि ''क्या क्रान्ति सचमुच ही ऐसी आसान चीज हैं?'' मेरे अब तक के अन्वेषण ने जो उत्तर इस प्रश्न का दिया हैं वही आगे की पंक्तियों में मिलेगा।
संयुक्त मोर्चे की भी कम फजीती नहीं की गयी हैं। मुझे ताज्जुब हुआ हैं यह जान के कि क्रान्तिकारी कहे जानेवाले नेताओं के हाथों भी यह दुर्दशा की गयी हैं। संयुक्त मोर्चे (United front) का यह अर्थ मेरी समझ में कभी नहीं आया हैं कि राष्ट्रीय कांग्रेस में विभिन्न विचारों के जितने दल हैं उनका वहाँ संयुक्त मोर्चों हैं। संसार के इतिहास में चीन, स्पेन, फ्रांस आदि देशों में संयुक्त मोर्चे से काम लिया गया हैं जरूर। मगर वह तो कोई और ही चीज हैं, रही हैं। जितने दलों का वह मोर्चा बना हैं उनकी आपस में कुछ खास शर्तें उस बारे में तय पायी हैं। तभी वह चीज बन सकी हैं। यह कहीं नहीं देखा कि एक दल बहुमत में हो और बाकियों पर अपनी मनमानी शर्तें लादता रहे। फिर भी हम उसे ही संयुक्त मोर्चा कहते जाये। यह तो एक निहायत ही अहम मसला हैं, जहाँ तक जनता के हकों की लड़ाई का इससे ताल्लुक हैं। आगे जो कुछ लिखा गया हैं उससे इस पर भी पूर्ण प्रकाश पड़ेगा।
फागुन के महीने में जैसे छोटे-छोटे बच्चे गालियाँ बकते रहने पर भी उसका मतलब कुछ समझते ही नहीं। वह तो उनके लिए निरी दिल बहलाव की चीज होती हैं। ठीक वैसे ही 'क्रान्ति', 'बुर्जुवा क्रान्ति' 'प्रोल्तारियन क्रान्ति', 'डेमोक्रेटिक क्रान्ति' आदि शब्दों का प्रयोग आज अकसर पाया जाता हैं। लोगों ने इन्हें एक प्रकार की पारिभाषिक चीज समझ रखा हैं और इतना ही मानते हैं कि यह चीजें होती हैं। बस, खत्म। इसके बाद वे आगे बढ़ना जानते ही नहीं। वर्तमान काल की अनेक शगलों में ही ये भी हैं। हमने यह ताज्जुब के साथ देखा और जाना हैं कि क्रान्तिकारी दलों के नाम से प्रसिद्ध पार्टियों के कुछ नेता तक इन क्रान्तियों का कोई समुचित कार्यक्रम नहीं रखते ! फिर भी क्रान्ति की दुहाई देते रहते हैं ! हमने इस प्रोग्राम के बताने की भी कोशिश आगे की हैं।
मगर यह तो हम शुरू में ही साफ कह देना चाहते हैं कि हम जो कुछ लिख रहे हैं उसका खास मतलब सिर्फ एक हैं, और वह यह हैं कि अपने विचारों को लिपिबद्ध (कलमबन्द) करने में वे न सिर्फ क्रमबद्ध हो जाते हैं, बल्कि उनमें जो कमी रहती हैं वह पूरी हो जाती हैं। बिना लिखे गये विचारों में यह बात नहीं रहती हैं। हमें इन ख्यालों को ठीक करने में बहुत परेशानी हुई हैं। फिर भी खतरा था कि कहीं बेसिर-पैर के या अधूरे न रह जाये। इसीलिए इन्हें लिख लेना हमने मुनासिब समझा। ताकि इनकी सही सूरत खड़ी हो जाये। दूसरी तरह यह बात मुमकिन न थी। बीच-बीच में यदि कुछ खण्डन-मण्डन मिलेंगे तो सिर्फ इसीलिए कि वे अनिवार्य थे।  

-स्वामी सहजानन्द सरस्वती
सेण्ट्रल जेल, हजारीबाग
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी (14-8-41)

क्रान्ति और उसकी किस्में

1.
जिसे अंग्रेजी में रेवोल्यूशन (revolution) और अरबी-फारसी में इनकिलाब कहते हैं क्रान्ति से हमारा मतलब उसी चीज से हैं। इसे ही संस्कृत में विप्लव और राज्यक्रान्ति भी कहते हैं। यों तो क्रान्ति शब्द बहुत ही व्यापक अर्थवाला हैं। लोग इसे आमतौर से अनेक मानी में इस्तेमाल करते हैं। मगर राजनीति और सियासत में, पालिटिक्स में जिस क्रान्ति शब्द का प्रयोग होता हैं वह यही विप्लव या राज्यक्रान्ति हैं। हम यहाँ विचार भी उसी का करने चले हैं। इस बात को शुरू में ही हम साफ कर देना इसलिए चाहते हैं कि 'क्रान्ति' और 'क्रान्तिकारी' शब्द आजकल हिन्दी साहित्य में बहुत आया करते हैं। दुनिया में अगर किसी चीज या व्यवस्था में आमूल परिवर्तन करके कोई नई प्रणाली जारी की जाये तो उसे भी क्रान्तिकारी परिवर्तन कहते हैं और 'क्रान्तिकारी परिवर्तन हो गया' 'इसमें क्रान्ति हो गयी' ऐसा अकसर बोला जाता हैं। जर्मनी में मार्टिन लूथर नामक एक बहुत बड़ा धार्मिक सुधारक मध्य युग में-सन 1483 ई. से 1546 ई. तक-हो गया हैं। उसी ने ईसाई धर्म के पुराने पंथ-रोमन कैथोलिक-के विरुद्ध बगावत का झण्डा खड़ा करके प्रोटेस्टेंट पंथ जारी किया। उसे भी क्रान्तिकारी ही कहा जाता हैं। हालाँकि आर्थिक और राजनीतिक मामलों में वह बड़ा ही दकियानूस और पुराण-पंथी था। गरीबी और अमीरी के बारे में उसका कहना था कि ये तो कुदरती चीजें हैं। इनके बिना दुनिया का काम चल ही नहीं सकता। इसीलिए गरीबों को भूखों मरने देना चाहिए !
हमसे अगर कोई पूछे, तो हम तो साफ कहेंगे कि लूथर को हम क्रान्तिकारी कहने और मानने को हर्गिज तैयार नहीं हैं। कारण, हमारी नजर तो राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक हैं और उस मामले में वह वैसा था ही नहीं। फिर भी यह तो सभी मानते हैं कि ईसाई धर्म में उसने क्रान्ति कर दी थी। इसी प्रकार कला, विज्ञान, खेती, कल-कारखाने आदि के सम्बन्ध में भी क्रान्ति का प्रयोग होता हैं। चित्रकारी आदि में, विज्ञान के क्षेत्र में और खेती-बारी के तरीकों में, जो पहले से जारी हैं, अगर जड़-मूल से कोई परिवर्तन (change) हो जाये तो कहेंगे कि उनमें क्रान्ति हो गयी। न्यूटन ने जब आकर्षण शक्ति का पता लगाया तो विज्ञान में, फोटोग्राफी के करते चित्रकारी में और ट्रैक्टर एवं वैज्ञानिक खादों के प्रचार से खेती में क्रान्ति हो गयी, ऐसा सभी मानते हैं। भाप और बिजली के सहारे जब मशीनें चालू हो गयीं और इंग्लैंड में कल-कारखानों की बेतहाशा तरक्की अठारहवीं सदी के मध्य में शुरू हुई तो उसे इण्डस्ट्रियल रेवोल्यूशन कहने लगे। यह इण्डस्ट्रियल रेवोल्यूशन (Industrial Revolution) तो एक ऐतिहासिक चीज मानी जाती हैं। उसी के चलते आज संसार में सारी उथल-पुथल मची हैं।
इसीलिए आरम्भ में ही हमने स्पष्ट कह देना मुनासिब समझा हैं कि हमें दुनिया की सभी तरह की क्रान्तियों से कोई वास्ता नहीं हैं। जो हमारी बातें समझना और सुनना चाहते हैं वह यह समझ लें कि हम जो कुछ यहाँ कहने चले हैं वह केवल उसी क्रान्ति से ताल्लुक रखता हैं जो राजनीतिक क्षेत्र में होती हैं और जिसे राज्यक्रान्ति भी कहते हैं। बेशक, हमारी राजनीति संकुचित नहीं हैं। हम इसे व्यापक अर्थ में लेते हैं, जैसा कि आमतौर से आज पालिटिक्स, राजनीति और सियासत शब्दों का इस्तेमाल होता हैं। इसीलिए हमारी राजनीति के भीतर आर्थिक और सामाजिक (Economic and Social) मसले भी आ जाते हैं। बल्कि सांस्कृतिक (Cultural) बातें भी अब राजनीति के अन्तर्गत ही मानी जाती हैं।
अच्छा, तो जरा अब देखें कि इस विप्लव या राज्य क्रान्ति का मतलब क्या हैं। यह जान लेना होगा कि अंग्रेजी के रेवोल्यूशन के अर्थ में जो राज्यक्रान्ति या क्रान्ति शब्द बोला जाता हैं उसका अर्थ वही होगा जो रेवोल्यूशन का। मूल शब्द रेवोल्यूशन ही हैं। क्रान्ति के अर्थ को यही बता सकता हैं। पहले इसी का प्रचार हुआ हैं और क्रान्ति वगैरह शब्द इसी के मानी में पीछे से ढूँढ़ निकाले गये हैं। सच्ची बात तो यह हैं कि हमने तो रेवोल्यूशन का ही अर्थ अच्छी तरह जाना हैं। उसी का प्रचार करना हम चाहते भी हैं। इसीलिए क्रान्ति शब्द को अपनाया हैं। अगर हमें यह मालूम हो जाये कि क्रान्ति या इनकिलाब शब्द रेवोल्यूशन को ठीक-ठीक जाहिर कर नहीं सकते, तो हम इन्हें छोड़ के कोई और शब्द ढूँढ़ेंगे, जो रेवोल्यूशन के अर्थ को सही तौर कह सके। इस बात में किसी को भ्रम नहीं होना चाहिए। इसीलिए यदि क्रान्ति का कोई दूसरा अर्थ कहीं से लाके कोई शंका करे और रेवोल्यूशन शब्द को वही मानी पिन्हाना चाहे तो वह भूलेगा। यह बात हो नहीं सकती। इसके उल्टा रेवोल्यूशन शब्द जो मानी पन्हायेगा वही विप्लव और क्रान्ति शब्दों को पहनना होगा।
इस दृष्टि से अंग्रेजी के कोश वगैरह में जब हम ढूँढ़ते हैं तो रेवोल्यूशन के कई मानी दीखते हैं। मगर दरअसल जड़ में सब एक ही हैं। फर्क इतना ही हैं कि एक मानी की कमी को दूसरा पूरा करता हैं और इस प्रकार सबको मिला के पूरा मतलब निकल आता हैं। तलाश करने पर हमें ये मानी उसके मिलते हैं-
(1) ''हालत को उलट देना, बुनियादी (मौलिक) रद्दोबदल करना, या प्रजा के द्वारा पुरानी सरकार या पुराने शासक के स्थान पर बलपूर्वक नई सरकार या नये शासक का कायम किया जाना''।
2) ''सोलहों आना परिवर्तन, जड़ से उलट-पुलट, परिस्थितियों में बहुत भारी उलटफेर, फिर जड़-मूल से नये-सिरे से बनाना, या शासितों के द्वारा पुरानी प्रणाली की जगह बलपूर्वक नई प्रणाली का कायम किया जाना''।
(3) ''शासन व्यवस्था में एकाएक बहुत बड़ा उलट फेर''।
(4) ''हुकूमत में बहुत भारी रद्दोबदल''।
(5) ''किसी मुल्क की सरकार में बुनियादी परिवर्तन या तब्दीली''।
अगर हम गौर से देखेंगे तो पता चलेगा कि हमने नमूने के तौर पर क्रान्ति या रेवोल्यूशन के जो पाँच लक्षण ऊपर लिखे हैं वे कुछ व्यापक हैं। तीसरे, चौथे और पाँचवें लक्षण तो सिर्फ राजनीतिक विप्लव या राज्यक्रान्ति को ही लक्ष्य करके लिखे गये हैं। पहले और दूसरे लक्षणों में भी जो आखिरी वाक्य हैं और जो 'प्रजा के द्वारा,' या ''शासितों के द्वारा' (By subjects) से शुरू होते हैं वे भी सियासी इनकिलाब या राज्यविप्लव के ही मानी में हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि सबों में राष्ट्रीय क्रान्ति का उल्लेख पाया जाता हैं- पाँचों ही राष्ट्र विप्लव को बताते हैं। मगर पहले तथा दूसरे लक्षणों में शुरू-शुरू में जो कई वाक्य हैं वह क्रान्ति के व्यापक और कुशादा अर्थ को बताते हैं। पहले लक्षण में जो 'हालत को उलट देना' और 'बुनियादी रद्दोबदल करना' ये दो बातें कही गयी हैं वह व्यापक हैं और राज्यक्रान्ति से बाहर की भी बातों को अपने भीतर ले लेती हैं; जैसे औद्योगिक क्रान्ति (Industrial Revolution) वगैरह। इसी प्रकार दूसरे में शुरू के चार वाक्य भी, जो 'या शासितों के द्वारा' वाले वाक्य के शुरू होने के पहले आये हैं, व्यापक रूप में क्रान्ति को समझाते हैं। इसीलिए सभी प्रकार की क्रान्तियाँ उनके भीतर आ जाती हैं। यही इनकी मोटी बातें हैं।
मगर अब जरा विशेष रूप से इनके भीतर घुस के देखना होगा। तभी हमें कुछ और भी जरूरी जानकारी क्रान्ति के स्वरूप के बारे में हो सकेगी। पाँचों में जो राष्ट्र-विप्लव का रूप बताया गया हैं उससे पहली बात यह साफ होती हैं कि जब तक किसी मुल्क की सरकार के ढाँचे को जड़ से बदल न दिया जाये, उसमें ऐसा उलट-फेर न कर दिया जाये कि उसकी पहली सूरत लापता हो के एक नई शक्ल खड़ी हो जाये, तब तक उसे क्रान्ति हर्गिज नहीं कह सकते। थोड़ा-बहुत परिवर्तन या ईधर-उधर की मरहम पट्टी को विप्लव कभी नहीं कहेंगे। हमें तो क्रान्ति की सफलता के लिए सरकार की नींव और बुनियाद को ही उलट देना होगा। इसीलिए अंग्रेजी में ‘Fundamental change’, 'Fundamental reconstruction’, ‘Sweeping change’, ‘Complete change’, ‘Reversal of conditions’, ‘Great reversal’, ‘Turning upside down’, ‘Substitution’ आदि शब्द आये हैं। क्रान्ति नाम तो तभी दिया जायेगा जब पहली सरकार के ढाँचे या शासन-प्रणाली को उलट के उसकी जगह एकदम नई बनायी जाये। पहली हुकूमत का नामोनिशान मौजूद रहने पर यह कहना कि क्रान्ति हो गयी, सरासर झूठ हैं। इसीलिए लेनिन ने लिखा हैं-
''शोषित और पीड़ित वर्ग का त्राण तब तक गैरमुमकिन हैं जब तक बलपूर्वक क्रान्ति नहीं की जाये और जब तक पुराने शासन यन्त्र को, जिसे पहले के शासकों ने तैयार किया हैं, मटियामेट और तहस-नहस न कर दिया जाये।''
मार्क्स और एंगेल्स ने भी 'फ्रांस का गृह-युद्ध' (Civil war in France) में साफ ही लिखा हैं कि ''मजदूर वर्ग के लिए यह कथमपि सम्भव नहीं कि पहले से ही बने-बनाये शासन यन्त्र को हथिया लें और उसे अपने काम में इस्तेमाल करें।''
इतना ही नहीं। श्री क्यूगलमान नामक एक सज्जन को सन 1871 ई. में लिखते हुए मार्क्स ने और भी साफ लिखा हैं कि ''जैसा कि पहले समझा जाता था कि सरकार के नौकरशाही और फौजी यन्त्र (ढाँचे) को कुछ लोगों के हाथ से छीनकर दूसरों के हाथ में सौंप देना ही मजदूर (सर्वहारा) क्रान्ति का लक्ष्य हैं, वह बात अब रह नहीं गयी हैं। अब तो क्रान्ति का काम हैं उस यन्त्र को चूर-चूर कर देना। यूरोप में जनता की किसी भी सच्ची क्रान्ति की सफलता के लिए यह बात अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं।''
मार्क्स के इस पूर्वोक्त कथन का भाष्य करते हुए लेनिन ने साफ़ कहा हैं कि ''विशेष ध्यान देने की बात हैं मार्क्स का वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कथन ''कि नौकरशाही और फौजी शासन यन्त्र को धूल में मिला देना जनता की क्रान्ति का अनिवार्य मूल आधार हैं।'' ...जो जनता की क्रान्ति दरअसल जनता के बहुमत को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती हैं उसे वैसा नाम तभी दे सकते हैं जब कि उसमें बहुमत मजदूरों और किसानों का ही हो। कारण, उस जमाने (1871) में भी जनता का अर्थ होता था किसान और मजदूर यही दो वर्ग। क्योंकि इन दोनों वर्गों में यह समानता हैं कि नौकरशाही और फौजी शासन यन्त्र इन दोनों को ही सताता हैं, बर्बाद करता हैं, इनका शोषण करता हैं। इस यन्त्र को तोड़ देना, चौपट कर देना यही तो जनता का असली लक्ष्य हैं, जनता के बहुमत का ध्येय हैं, मजदूरों और किसानों में अधिकांश का मकसद हैं और मजदूरों एवं अत्यन्त गरीब किसानों के बीच स्वेच्छापूर्वक मैत्री स्थापित होने के लिए यही जरूरी और पहली शर्त हैं। और जब तक ऐसी मैत्री कायम नहीं होती तब तक न तो मजबूत जनतन्त्र शासन की स्थापना ही हो सकती हैं और न समाज का पुनर्निर्माण ही।''
मार्क्स का जो उदाहरण क्यूगलमान को लिखे पत्र से दिया गया हैं उसे और उसी सिलसिले में उसी पत्र में लिखी और बातें पढ़ के और खास कर उसमें जो ‘on the continent’ (यूरोप में) लिखा गया हैं, खासतौर से उसे देखकर कुछ लोगों ने यह सोचना शुरू कर दिया था कि मार्क्स के विचार से भी यद्यपि यूरोप में पुरानी शासन व्यवस्था को चकनाचूर किये बिना राज्यक्रान्ति को सफलता मिल नहीं सकती, फिर भी यूरोप के बाहर, विशेषत: इंग्लैंड और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में, इस बात की जरूरत न होगी और शायद उसके बिना भी काम चल जायेगा। वे लोग कहीं से 1872 ई. में दिये गये मार्क्स के एक व्याख्यान का यों हवाला भी देते हैं।
इसका अभिप्राय यह हैं कि सन 1872 ई. में एक लेक्चर में मार्क्स ने कहा था कि ''बेशक मेरे कहने का यह मतलब हर्गिज नहीं हैं कि इस लक्ष्य की प्राप्ति का साधन सर्वत्र एक ही तरह का होगा। हम जानते हैं कि विभिन्न मुल्कों की संस्थाओं, रीति-रिवाजों और परम्पराओं का भी खास ख्याल करना ही होगा और हम यह इन्कार नहीं करते कि संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देश भी हैं जहाँ श्रमजीवी लोग अपना लक्ष्य शान्तिपूर्ण उपायों से प्राप्त करने की आशा कर सकते हैं''। इसीलिए सन 1917 ई. में लेनिन को खासतौर से लिखना पड़ा कि ''आज प्रथम साम्राज्यवादी युद्ध के युग में मार्क्स का यूरोपवाला अपवाद खत्म हो गया। क्योंकि ब्रिटेन और संयुक्त राष्ट्र (अमेरिका) भी जिनमें नौकरीशाही और फौजी ढंग की शासन-प्रणाली अब तक न रहने के कारण वे ऐंग्लो सैक्सन (अंग्रेजी) स्वतन्त्रता के प्रतीक स्वरूप रहे हैं, और मुल्कों की ही तरह आखिरकार गन्दे और खूनी नौकरशाही और फौजी ढाँचे की कीचड़ में लथ-पथ हो चुके हैं, और इस प्रकार उनमें भी, विश्व-व्यापक जुल्म और अत्याचार की स्थापना हो रही हैं। इसलिए आज तो दूसरे मुल्कों की ही तरह इंग्लैंड और संयुक्त राष्ट्र में भी पहले से मौजूद शासन यन्त्र को चकनाचूर और मटियामेट कर देना वास्तविक जन-क्रान्ति की सफलता के लिए अनिवार्य रूप से जरूरी हैं। क्योंकि सन 1914-1917 ई. में उन दोनों के उस शासन-यन्त्र को ठीक उसी तरह की साम्राज्यवादी पूर्णता मिल गयी हैं जैसी कि यूरोपीय महाद्वीप के और मुल्कों के शासन को।'' दोनों देशों के श्रमजीवियों की आशा की शान्ति से ही क्रान्ति होगी लेनिन ने खत्म कर दी। एक तो मार्क्स ने ही दबी जबान से सिर्फ आशा करने की ही बात कही हैं-‘may hope’, यदि वह उदाहरण सही माना जाये। दूसरे, लेनिन ने उसे भी मिटा दिया और वैसी आशा बेबुनियाद बता दी।
इन सभी उदाहरणों से संक्षेप में यह बात साफ हो जाती हैं कि पुरानी व्यवस्था और हुकूमत के ढाँचे को जड़-मूल से उल्टे और चौपट किये बिना क्रान्ति को कामयाबी मिल नहीं सकती- जो ऐसा न करे उसे क्रान्ति कही नहीं सकते। अगर पहले, जबकि साम्राज्यवाद का प्रसार नहीं हुआ था और उसका नग्न रूप लोगों को दीखा न था, ऐसा ख्याल कभी शायद किया जा भी सकता था कि बिना शासन उल्टे ही क्रान्ति हो सकती हैं, तो अब तो इसकी रत्ती भर भी गुंजा हीश नहीं रही। इस बात में जरा भी आगे-पीछे न किया जाये, इसीलिए लेनिन ने साफ लिख दिया हैं। मगर यहाँ पर एक और बात जान लेने की हैं। बाहरी उलट-फेर और तबाही तो हुई। लेकिन उससे भी जरूरी हैं भीतरी परिवर्तन और रद्दोबदल, जिसे अंग्रेजी में स्पिरिट (spirit) कहते हैं और जिसे रंग-ढंग या असलियत भी कहते हैं। बाहर से देखने पर पता लग सकता हैं कि पुरानी बातें और पुराने तौर-तरीके सबके-सब खत्म हो गये हैं, बदल गये हैं, उनका नामोनिशान भी नहीं हैं। मगर शासन-प्रणाली की जड़ और भीतरी बात-स्पिरिट-ज्यों की त्यों हैं। स्पिरिट का पता लगना, पता लगाना आसान नहीं हैं। आम लोगों के लिए तो यह बात गैर-मुमकिन हुई। पढ़े-लिखे और चतुर लोगों में भी बिरले ही इसे जान पाते हैं कि शासन की असलियत ज्यों की त्यों हैं या बदल गयी हैं।
बात यों होती हैं कि उथल-पुथल और क्रान्ति के समय में पुराने शासक और शोषक काफी सजग हो जाते हैं। वह भरसक इस बात की कोशिश करते हैं कि जनता उन्हें परख न पाये कि वे पहले जैसे ही हैं। वे पूरे बगुला भगत बन बैठते हैं। ताकि जनसाधारण उनकी ओर से चिहक न सकें- वे समझ जाये कि वे अब पूरे महात्मा बन गये ! ऐसा भी होता हैं कि जो लोग क्रान्ति का नेतृत्व करते हैं वे सबके-सब शोषित जनता के पक्के आदमी होते ही नहीं। इसके उल्टा उनमें शायद ही कोई-इक्के-दुक्के-ऐसे होते हैं। बाकी लोग तो मध्यम श्रेणी और पूँजीवादी मनोवृत्ति के या इसी प्रकार के होते हैं। हाँ, क्रान्ति की लड़ाई में जूझने वाली जनता तो खुद शोषित एवं पीड़ित होती हैं-शोषितों तथा पीड़ितों के लिए मर मिटनेवाली होती हैं। मगर नेतृत्व की गड़बड़ी से ही उसका मनोरथ पूरा हो पाता नहीं। शोषण और लूट-खसोट को हमेशा के लिए उखाड़ फेंकरनें का कस्द और प्रण करके भी वह जनता नेताओं की धोखेबाजी से घपले में पड़ जाती हैं। क्योंकि नेता लोग अपनी बाघ की शक्ल छिपा के गधो की खाल ओढ़ लेते हैं। फिर उन्हें वह समझे तो क्यों करे? और अगर नेताओं के समझ जाने की यह शक्ति ही उसमें होती तो फिर वह खुद नेतृत्व क्यों न कर लेती?
संसार में अब तक जानें कितनी क्रान्तियाँ हो चुकी हैं। सबों के शुरू में नेता लोग ऐसा नकली आँसू बहाते और गला फाड़ते थे कि गाय गरीबों की तकलीफों से उनके कलेजे पिघल के पानी-पानी हो रहे हों। कमानेवालों-किसानों और मजदूरों-की तकलीफों को जड़ से सदा के लिए उखाड़ फेंकरनें के वादे उनने बराबर किये-लाखों किये ! मगर नतीजा कुछ न हुआ ! जब जनता ने उनपर विश्वास करके सारा भार सौंप दिया और वह उन पर शक न करके अपने पुराने काम-खेती-गिरस्ती वगैरह-में जा लगी तो नेताओं ने धीरे-धीरे अपनी गधो की खाल उतार फेंकनी शुरू की, इस चालाकी से कि जनता को इसका पता न चले। नहीं तो सजग हो जायेगी और हमारी टिक्की उखाड़ फेंकेगी। कुछ जमाना गुजर जाने के बाद जब इन नकली नेताओं ने अपनी टिक्की काफी जमा ली और अपने जाल चारों ओर बिछाकर अपने को पूरा मजबूत कर लिया, तब एकाएक हमने अपनी खाल उतार फेंकी ! यह देख के जनता अवाक् रह गयी। उसने चाहा भी कि इन्हें भी उठा फेंके। क्योंकि इनकी धोखेबाजी से उसे हद से ज्यादा रंजिश हुई। मगर अब यह बात नामुमकिन थी। क्योंकि पुराने शासकों की ही तरह ये नये नेता-नये शासक-भी जड़ जमा चुके थे। इसलिए भयंकर दमन के द्वारा इस बार जनता के उभड़ते जोश को उनने ठण्डा कर दिया ! वह भी कलेजा मसोस के रह गयी! कभी-कभी तो ऐसा भी हुआ हैं कि नये और पुराने शासकों ने आपस में ही समझौता कर लिया हैं, या और नहीं तो किसी जबर्दस्त ताकत से ही 'आधा तुम, आधा हम' के तरह की शर्तों पर ही सन्धि कर ली हैं। इसीलिए पुनरपि जनता के सफल हो जाने पर भी कुछ ही दिनों में उसे फिर पछाड़ दिया हैं।
फ्रांस में-पेरिस में-सन 1789 ई. से लेकर जानें कितनी बार क्रान्तियाँ हुईं। भूखे-नंगे किसानों की बात लेके- बादशाह 16वें लुई और उसके पूर्ववर्ती 15वें तथा 14वें लुई की निर्दयता, उच्छृंखल पामरता और निरंकुश लूट से ऊब कर ही-सन 1789 वाली क्रान्ति शुरू हुई थी और उसी का ताँता सैकड़ों साल तक चला गया। बीच-बीच में चन्द दिनों के लिए कमानेवालों - श्रमजीवियों के- हाथ में शासन की बागडोर आयी भी। एक बार वहाँ पेरिस कम्यून के नाम से उनकी सच्ची सरकार बनी भी। मगर वह टिक न सकी। पहली सफलता के बाद ही, जबकि बादशाहत का खात्मा हो गया, क्रान्ति के संचालकों ने रंग बदलना शुरू कर दिया। उनके आपसी स्वार्थ के झगड़े भी शुरू हो गये। इसीलिए नेपोलियन को मौका लगा कि शासन सूत्र को दस साल बाद 1799 ई. में हथिया ले। उसके हट जाने पर फिर एक गुट ने सन 1814 और सन 1815 में आखिरी बार 18वें लुई को उस गद्दी पर बिठाया। सन 1830 ई. में बोर्बन वंश की बादशाहत हटा के ओर्लीयन्ज के लुई फिलिप को गद्दी दी गयी। ये लोग भी बोर्बन लोगों की ही तरह शाही वंश की छोटी शाखा माने जाते थे। यह परिणाम था सन 1830 ई. की क्रान्ति का ही। उसके बाद पुनरपि नेपोलियन के ही वंश के एक शख्स तीसरे नेपोलियन (लुई नेपोलियन) को सन 1849 ई. में अध्यक्षता और सन 1851 ई. में बादशाहत मिली जो सन 1870 ई. की क्रान्ति में छिन गयी। फिर सन 1871 ई. की कम्यूनवाली सरकार को खत्म करके अन्तिम बार जो पूँजीपतियों का राज्य कायम हुआ वही आज तक फ्रांस में जारी हैं।
इस प्रकार अगर सिर्फ फ्रांस की राज्यक्रान्ति पर गौर करें तो पता लगता हैं कि मानो शासन व्यवस्था के प्लेटफार्म पर नाटक खेला गया था। लड़नेवाले तो किसान, मजदूर और निम्न-मध्यम वर्ग के लोग ही वहाँ थे। मगर चतुर यारों ने कभी एक दल को अपनी ओर मिला के दूसरों को मिटाया, कभी किसानों को मजदूरों के खिलाफ भड़काया, कभी किसानों के साथ ही शहर के निम्न-मध्यवर्गीयों और पढ़े-लिखों को मिला के मजदूरों के हाथ से या तो शासन छीना या उन्हें पस्त किया। सन 1871 ई. में तो मजदूरों में ही दो दल हो गया। शाही खानदान के नाम पर बोर्बन और और्लीयंज वाले-यही दोनों-दावेदार थे फ्रांस की गद्दी के। इनमें बोर्बन लोगों के समर्थक पुराने जमींदार घराने थे- फ्रांस के बड़े जमींदार थे। और्लीयंज वालों के मददगार पूँजीवादी या नया-नया बुर्जुवा वर्ग था। नेपोलियन और उसके वंशवाले तीसरे दावेदार थे और फौज को अपनी ओर मिलाये रखते थे।
इस प्रकार इन तीन नाटक के पात्रों में किसी-न किसी के शिकंजे में कमानेवाली जनता फँसी ही रहती थी, जिसे लड़ा के इनमें एक-न-एक कामयाब हो ही जाता था। अन्त में पूँजीपतियों ने शाही वंश के प्रति जनता की तीव्र घृणा का ख्याल करके उससे नाता तोड़ लिया भी। क्योंकि ऐसा किये बिना जनता उनसे भड़क उठती। उन्हें राजवंश से कोई खास मुहब्बत तो थी नहीं। उस खानदान के प्रति पहले जमाने में कुछ ऊँची और श्रद्धा की भावनाएँ पायी जाती थीं, जैसा इंग्लैंड और जापान में आज भी हैं। इसीलिए अपने मतलब के ही लिए वे लोग दोनों राजवंशों के नारे लगाते और इस प्रकार भोली जनता की भावनाओं से फायदा उठाते थे। मगर जब उनने यह फायदा न देखा तो उसे ताक पर रख दिया। उन्हें तो पूँजीवाद को आबाद करना था। सो बात तो सन 1871 ई. के बाद उनने खूब ही कर ली। इसमें पीछे जमींदार पार्टी ने भी उनका साथ दिया। क्योंकि दोनों का स्वार्थ अन्ततोगत्वा एक ही था। जमींदार लोग भी पूँजीवादी रंग में रँग चुके थे। इसीलिए सन 1852 ई. में लिखी गयी 'फ्रांस का गृह-युद्ध' (Civil war in France) पुस्तक में मार्क्स ने साफ ही लिखा हैं कि ''जमींदार तो अब उद्योग-धन्धों में रुपये लगा के पूँजीपतियों के सोथ साझीदार बन गये हैं।''
इसीलिए सबसे पहले जरूरत इस बात की हैं कि पुराने शासन की जड़ को ही उखाड़ दिया जाये। तभी उसकी स्पिरिट बदलने की आशा की जा सकती हैं। मगर फ्रांस की क्रान्तियों की तरह जड़ उखाड़ने के बाद भी पुरानी स्पिरिट कायम न रह जाये, या घूम-फिर के वापस न आ जाये इसके लिए क्रान्तिकारियों को फूँक-फूँक के पाँव देना पड़ेगा। जरा भी विश्वास किया कि पुराना भूत आ बैठेगा। इसीलिए दिन-रात पहरा देना और चौकसी करना पड़ेगा। जिन लोगों की कड़ी जाँच हो चुकरनें पर वे साबित हो चुके हैं कि पीड़ितों के ही लिए मर-मिटने के सिवाय वह कुछ और जानते ही नहीं, ऐसे ही लोगों को चुन-चुन के शासन-प्रबन्ध में रखना होगा। केवल गर्म लेक्चर देनेवालों और क्रान्ति की दोहाई देने वालों को पास फटकरनें देना भी नहीं होगा। इतने पर भी बीच-बीच में छटैया (Purging) की आवश्यकता हो ही जाया करेगी।
हमें इस बात से आश्चर्य हैं कि ऐसी बात होने पर भी कितने ही लोग जो अपने को और अपनी पार्टी को भी, क्रान्ति का अग्रदूत मानते हैं, उसी हस्तान्तरित होने की बात को सिद्धान्त के रूप में मानते हैं। वे कहते हैं कि शासन सूत्र को वर्तमान शासकों के हाथ से अपने हाथ में-जनता के हाथ में-लाना हैं-'पाँवर को ट्रान्सफर' करना हैं ! यह 'ट्रान्सफर' शब्द उसी 'हस्तान्तरित' शब्द के अर्थ में बोला जाता हैं। हमने जो कुछ कहा हैं वह तो थोड़ा ही हैं। मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के जितने लेख और ग्रन्थ हमें पढ़ने को मिल सके हैं और दूसरे ग्रन्थों में उनके वाक्यों के जो उदाहरण हमें मिले हैं उनमें एक भी ऐसा नहीं हैं जहाँ यह 'ट्रान्सफर' शब्द ऐसे मौके पर आया हो। हमने इस बात की खासतौर से छान-बीन की। हम इसके लिए काफी परेशान भी रहे हैं। मगर जहाँ देखा वहीं हमें 'कैप्चर' और 'सीजर' यही दो शब्द मिले हैं। इनका तो साफ मानी हैं 'हथिया लेना', 'छीन लेना'। शासकों के हजार न चाहने और विरोध करने पर, सारी ताकत लगा के लड़ने पर भी उन्हें मजबूर करके शासन सूत्र को, हुकूमत की बागडोर को जबर्दस्ती अपने कब्जे में कर लेना ही 'सीजर' या 'कैप्चर' हैं। अगर हम लेनिन के उस महत्त्वपूर्ण वाक्य का विचार करते हैं जो उसने अक्टूबर वाली क्रान्ति की सफलता के बाद उसका मतलब बताते हुए लिखा था कि ''क्रान्ति उस वर्ग युद्ध को कहते हैं जो उबलता हुआ और बहुत ही कड़वा होता हैं।'' तो साफ ही ट्रान्सफर की बात गलत और 'सीजर' की बात सही साबित होती हैं।
इसीलिए क्रान्ति के मानी बताने के लिए जो पाँच वाक्य हमने पहले लिखे हैं उनमें दूसरी बात ध्यान देने की यह हैं कि दूसरे और पहले में 'फोर्सिबुल सब्स्टीच्यूशन' शब्द आये हैं। इनका अर्थ हैं बल प्रयोग पूर्वक दूसरी व्यवस्था की स्थापना। और यह बल प्रयोग हमेशा वहीं होता हैं जहाँ पहले के अधिकारी या मालिक या शासक जम के मुकाबिला करते हैं, जिसे अंग्रेजी में 'सस्टैंड रेजिस्टेन्स' कहते हैं। जब एक ओर से मुकाबिला होगा तो दूसरी तरफ से बल प्रयोग भी जरूरी हैं। नतीजा होता हैं जबर्दस्त भिड़न्त। फिर वहाँ हस्तान्तरित करने का सवाल उठ सकता हैं कैसे? यह तो वहीं मुमकिन हैं जहाँ बातचीत, पंचायत या दबाव डाल के पहले के अधिकारियों को इस बात के लिए, चाहे अनिच्छापूर्वक ही क्यों न हो, ऐसा मानने के लिए राजी किया जाये कि उस वस्तु या हुकूमत को हमें सौंपने को तैयार हों। यही बात कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका आदि में हुई हैं। अंग्रेजी सरकार को मजबूरन इन मुल्कों की हुकूमत वहीं के लोगों को सुपुर्द करने के लिए राजी होना पड़ा हैं। ट्रान्सफर या हस्तान्तरित करने में असली चीज यह रजामन्दी ही हैं। इसके बिना ट्रान्सफर हो सकता हैं नहीं। जो लोग समझते हैं कि पूँजीवादी बिना सारी शक्ति लगा के लड़े ही शासन सूत्र छोड़ देंगे वे संसार के राष्ट्रों की उलट-फेर का और खासकर क्रान्ति का इतिहास जानते ही नहीं। पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ी जानेवाली लड़ाई कितनी भीषण और खूनी होती हैं, यह बात आगे लिखी गयी हैं।
यही कारण हैं कि उन वाक्यों में तीसरे में आकस्मिक (sudden) परिवर्तन की बात लिखी गयी हैं। जो उलट-फेर एकाएक हो जाता हैं उसे ही राज्यक्रान्ति कहते हैं। यह तीसरी विशेषता भी इस सिलसिले में ख्याल रखने की हैं। बल प्रयोग से जो काम होगा वही तो एकाएक होगा। पॉवर (शासन शक्ति) को ट्रान्सफर करने का प्रश्न तो धीरे-धीरे की बात हैं। दबाव डालने और राजी करने में समय लगता ही हैं। इस बीच में पुराने शासक हुकूमत के नये रंग-ढंग को भी अच्छी तरह समझ और सोच-विचार लेते हैं। राजी होने के पहले अपना नफा-नुकसान भी बखूबी सोच लेते हैं। जब तक सब मिला के, उन्हें हुकूमत दूसरों को सौंपने में, आखिरकार फायदा न सूझे तब तक वे राजी भी कैसे हो सकते हैं? उदान्त स्वार्थ (enlightened self interest) से उस समय वे लोग काम लेते हैं-दूरदृष्टि (long range view) उस समय उन्हें रास्ता सुझाती हैं कि शासन-सूत्र को नये दावेदारों को सौंप देने में ही भलाई हैं। इसलिए खूब सोच-साच कर ही वे लोग ऐसा होने देते हैं। अंग्रेजी सरकार ने कनाडा वगैरह के बारे में ऐसा ही किया था।
चुनावों के जरिये जो लोग शासनाधिकार अपनाने की बात मानते और ख्याल करते हैं उनकी भी हालत धीरे-धीरे-वालों की ही हैं। अपने सिद्धान्तों को वे लोग आम जनता और मतदाताओं के सामने रखते और उन्हें समझाते हैं। इसमें ख़ामखाह मुद्दत लगती हैं। यह दो-चार या दस-बीस वर्षों का सवाल नहीं हैं। इसीलिए वहाँ भी ट्रान्सफर की बात लागू होती हैं। इंग्लैंड का मजदूर-दल और दूसरे मुल्कों की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियों या उन जैसों की भी यही हालत हैं। इसीलिए वे क्रान्तिकारी नहीं माने जाकर सुधारवादी माने जाते हैं। वे लोग क्रान्ति से भड़कते और खतरा खाते हैं। वे लोग इसके नजदीक जाना तक नहीं चाहते। अगर उनमें कुछ इसका नाम लेते भी हैं तो केवल जनता को फाँसने और धोखा देने के ही लिए। उनकी नीयत तो दूसरी ही हैं।
लेकिन जब एकाएक रद्दोबदल होगा तो पुराने गद्दीधारियों को सोचने-विचारने का मौका लगेगा कैसे? वे तो जब तक ईधर ख्याल दौड़ायेंगे तभी तक सारा मामला ही वारा-न्यारा हो जायेगा। इसीलिए अपने फायदे की कोई बात करने या शर्तें लगाने का उन्हें मौका ही न मिल सकेगा। फिर कालान्तर में अपनी ताकत आजमाने की उम्मीद भी वे कैसे कर सकेंगे? इसीलिए तो क्रान्ति को समुद्र की आकस्मिक लहर कहते हैं। उसे प्रलय भी इसी मानी में कहा जाता हैं। क्योंकि समुद्र की जो तूफानी लहर अचानक आके सभी चीजों को बहा ले जाती हैं, या प्रलय जो सभी चीजों को पल में मटियामेट कर देती हैं, किसी को भी सँभलने-सँभालने का मौका ही नहीं देती। एकाएक (sudden) हो जाने का मतलब यही हैं कि सुधार की तरह किस्त-किस्त करके क्रान्ति नहीं होती। क्रान्ति के सफल होने में बेशक हफ्तों या महीनों लग जाते हैं ! घण्टे या मिनट में ही वह हो जाये सो बात नहीं हैं। मगर यह भी ठीक हैं कि उसमें किस्तबन्दी की गुंजा हीश नहीं होती। पूरी चीज एक ही बार आ खड़ी होती हैं। पुरानी व्यवस्था सोलहों आने उलट जाती हैं, उलट दी जाती हैं और उसकी जगह एकदम नई और ताजी व्यवस्था ले लेती हैं। यही हैं क्रान्ति की खूबी और यही हैं उसमें, रेवोल्यूशन में और सुधार में, रिफार्म में बुनियादी फर्क।
अचानक कहने का यह भी मतलब होता हैं कि पुराने शासकों को जिस ढंग और तरीके की आशा भी नहीं होती उसी तरीके से उन्हें उठा फेंका जाता हैं। यह तो यह भी सूचित करता हैं कि शासक लोग जिस बात का स्वप्न में भी ख्याल नहीं करते वही बात हो जाती हैं और वे अचानक कहाँ से कहाँ उठा फेंके जाते हैं। रूस का अन्तिम जार निकोलस द्वितीय और उसकी स्त्री जारिना को-दोनों को ही-इस बात की जरा भी उम्मीद नहीं थी कि उनके हाथ से शासन की बागडोर छिन जायेगी, सो भी जनता के द्वारा। उनके दिमाग में यह बात समाती ही न थी। इसीलिए जब कभी जार किसी वजह से जरामरा झुकना भी चाहता था तो जारिना उसे बार-बार यही कहती थी कि हर्गिज-हर्गिज ऐसा मत करो-Do not yield. उसे विश्वास ही न था कि तख्त उलट जायेगा। यहाँ तक कि जिस दिन जार कैद हो गया उस दिन भी जारिना ने यही सन्देश भेजा था ! मगर सन 1917 ई. की फरवरी के अन्त में और आज के नये हिसाब से 13, 14 मार्च को उसके हाथ से सरकार छिनी गयी जरूर। सन 1789 ई. की जुलाई में फ्रांस के शासक 16वें लुई की भी यही हालत हुई। हालाँकि वह भी बेफिक्र था कि उसकी गद्दी छिन सकती नहीं। इंग्लैंड में सन 1688 ई. के अन्तिम महीने, दिसम्बर में स्टुआर्ट वंश के महाराजा जेम्स द्वितीय को भी एकाएक अपनी गद्दी छोड़नी पड़ी और उस पर पीछे तृतीय विलियम और मेरी को अभिषिक्त किया गया। और तो और, क्या अंग्रेजी सरकार यह सोचती भी थी कि अमेरिका उसके हाथ से निकल जायेगा? यदि ऐसा समझती तो कनाडा की ही तरह उसे भी-संयुक्त राष्ट्र अमेरिका को भी-औपनिवेशिक स्वराज्य दे ही देती। मगर यह न हुआ और सन 1776 ई. की 4 जुलाई को अमेरिका पूर्ण स्वतन्त्र हो गया !
इस तरह यदि हम देखते हैं तो क्रान्ति का मोटा-मोटी लक्षण कुछ इस ढंग से करना पड़ता हैं। क्रान्ति कहते हैं शासितों के द्वारा पुरानी शासन-प्रणाली की जगह पर बलपूर्वक सोलहों आना नई शासन व्यवस्था का कायम किया जाना। हम यह कह देना चाहते हैं कि यह लक्षण ऐसा नहीं बताया गया हैं कि कोशिश करने पर इसमें दोष न दिखाया जा सके। हमारा यह मतलब हुई नहीं। हमने तो इतनी दूर तक किये गये विचारों की बिना पर ही इसे लिखा हैं। इसका मतलब सिर्फ इतना ही हैं कि जो लोग क्रान्ति को मोटी तौर पर समझना चाहते हैं उन्हें मदद मिल जाये। वे गलत चीज न समझ के ठीक रास्ते पर आयें और समझें। ताकि उसके बाद उसकी बारीकियों का विचार पीछे वे खुद कर सकें। उनकी जानकारी का रास्ता साफ कर देना ही हमारा मतलब हैं।
राज्यक्रान्ति की रूपरेखा का जो कुछ वर्णन अब तक किया गया हैं उसी सिलसिले में एक-दो बातें और भी कह देना हैं। फ्रांसीसी भाषा में एक शब्द हैं कू (coup)। इसका अर्थ हैं सफल धक्का-ऐसा धक्का जो कामयाब हो जाये और जिस पर लगे वह खत्म हो जाये। इसी कू या सफल धक्के के बारे में एक खास बात यह हैं कि अगर वह एकाएक और अचानक दिया जाये तो उसे 'कू द मैं' (coup de main) कहते हैं, जैसा कि क्रान्ति का सामान्य रूप बताते हुए शुरू में भी तीसरे वाक्य में कहा गया हैं। और अगर लगातार कई धक्के लगें तो जो आखिरी होगा और जिसके बाद कामयाबी हो जायेगी उसे 'कू द ग्रास' (coup de grace) कहते हैं। मगर खासतौर से बलपूर्वक अचानक शासन-प्रणाली में परिवर्तन ला देने को 'कू दि ता:' (coup de etal) कहते हैं। यही 'कू दि ता:' हैं। राज्यक्रान्ति या राष्ट्रविप्लव। दोनों का एक ही अर्थ हैं-जरा भी भेद नहीं। कभी-कभी प्रयोग या बोलचाल में 'कू दि ता:' की जगह केवल 'कू' भी बोलते हैं। मगर उसका अर्थ 'कू दि ता:' ही होता हैं। इस तरह देखते हैं कि क्रान्ति के ही विभिन्न अर्थों में 'कू द ग्रास', 'कू द मैं' या केवल 'कू' बोले जाते हैं। मगर राज्यक्रान्ति का ठीक अर्थ 'कू दि ता:' ही बताता हैं। 'कू द ग्रास' को ही अंग्रेजी का 'इंजरेक्सन' (insurrection) शब्द बताता हैं।
एक बात और हैं। क्रान्ति के ही सिलसिले में उसके विरोधियों के कामों को क्रान्तिविरोधी या प्रतिगामी काम (Reaction) और प्रतिगामीक्रान्ति, या प्रतिक्रान्ति (Counter-revolution) कहते हैं। ऐसे कामों के करनेवालों को या उनके दलों को प्रतिगामी या दकियानूस या प्रतिक्रियावादी (Reactionary) और प्रतिक्रान्तिकारी (Counter-revolutionary) कहते हैं। गो कि ऊपर से देखने से ये दोनों ही एक से मालूम होते हैं और आम तौर बोल-चाल में कोई विभेद इनमें किया नहीं जाता। फिर भी दरअसल दोनों दो हैं। जो प्रतिगामी या प्रतिक्रियावादी हैं वह हर तरह की क्रान्ति से डरता हैं। शोषितों की राष्ट्रक्रान्ति की तो बात ही छोड़िये। उसको मिटाने या उलटने के लिए जो क्रान्ति की जायेगी उससे भी वह थर्राता हैं। वह तो घबराता हैं कि जानें क्या हो जाये। वह सदा शान्तिपूर्ण परिवर्तन की ही बात सोचता हैं। उसके दिल और दिमाग की बनावट ही ऐसी होती हैं कि दूसरी बात सोच ही नहीं सकता। उसे नरमदली कहिये या जी हुजूर कहिये।
मगर जो प्रतिक्रान्तिकारी होता हैं वह जरा हिम्मतवाला होता हैं। वह जनता की क्रान्ति को उलट देने के लिए क्रान्ति तक कर देने की हिम्मत रखता हैं। उसे क्रान्ति के नाम से घबराहट नहीं होती हैं। वह तो केवल शोषितों की क्रान्ति से ही घबराता हैं-उसी का दुश्मन होता हैं-उसे ही मिटाना चाहता हैं। नेपोलियन बोनापार्ट और तृतीय नेपोलियन या लुई नेपोलियन को फ्रांस में और कौर्निलोक को रूस में प्रतिक्रान्तिकारी (counter-revolutionary) कहते हैं। मगर फ्रांस में जो 18वाँ लुई या उसके दोस्त थे वह पहले दल में थे। उन्हें उल्टी क्रान्ति की हिम्मत न थी। सारांश यह हैं कि जहाँ सभी प्रतिक्रान्तिवादी ख़ामखाह प्रतिगामी होते हैं, वहाँ सभी प्रतिगामी प्रतिक्रान्तिवादी नहीं होते।


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अब हमें इस राज्यक्रान्ति की किस्मों को, उसके भेदों को देखना हैं। जब तक हमें यही पता ठीक-ठीक चल न जाये कि क्रान्तियाँ कितनी तरह की होती हैं तब तक हमें कब क्या करना चाहिए इसका निश्चय हो ही नहीं सकता। यह मामला कुछ ऐसा पेचीदा हैं और ईधर लोगों ने कुछ ऐसा घपला मचा दिया हैं कि उसके सम्बन्ध में ठीक-ठीक कार्यक्रम बनाना गैर-मुमकिन हो जाता हैं। असल में क्रान्तियाँ कितनी तरह की होती हैं यही तो मुख्य प्रश्न हैं और इसी बात की जानकारी पर हमारे सारे कामों का दारोमदार हैं। यों कुछ किये जाना तो दूसरी बात हैं। जिन्हें इतने से ही सन्तोष हो जाता हैं, जो इतने से ही एतत् सम्बन्धी अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं उनकी तो बात ही जुदी हैं। उनके लिए हमें न तो कोई फिक्र हैं और न यह कोशिश ही की जा रही हैं। यह तो सिर्फ उन लोगों के लिए हैं जो इस बात के भूखे हैं कि उन्हें क्रान्ति में सफलता मिले। इसीलिए अपनी शक्ति का सोलहों आने सदुपयोग करने की लालसा जिन्हें हैं उनके लिए इस मामले की सफाई और क्रान्ति का ब्योरा जान लेना निहायत जरूरी हैं। इसके न जानने से सबसे बड़ा नुकसान यह होता हैं कि हमारी बहुत-सी मेहनत बेकार और जाया हो जाती हैं। क्योंकि अनजान में हम बहुत-सी बेजरूरत की बातें कर डालते हैं।
हमें शुरू में ही यह जान लेना चाहिए कि आजादी, स्वराज्य और फ्रीडम या इण्डिपेण्डेण्स का जो अर्थ हैं उसी मानी में अब क्रान्ति शब्द का प्रयोग प्रगतिशील लोग करने लगे हैं। खासकर मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के मत को जो मानते हैं वह तो अब स्वराज्य वगैरह न बोल के क्रान्ति ही बोलते हैं। असल में मार्क्स की भाषा में क्रान्ति शब्द ही उस अर्थ को यक्त करता हैं। स्वराज्य, आजादी, पूर्ण स्वतन्त्रता आदि शब्द तो गोल-गोल बातें बताते हैं। उनसे किसी खास मतलब की सफाई नहीं हो पाती। स्वराज्य का अर्थ हैं अपना राज्य। मगर अपना तो एक नहीं हैं। हमारे देश में या और मुल्कों में भी, जहाँ स्वराज्य की लड़ाई लड़ी जाती हैं या जाती रही हैं, जितने आदमी होंगे उनका 'अपना' एक कैसे हो सकता हैं? यदि वर्गों का 'अपना' 'अपना' एक मान भी लें, तो भी वर्ग तो अनेक होते हैं। इसीलिए 'अपना' भी अनेक होने के कारण स्वराज्य एक न होकर अनेक हो गया। किसी बड़े जमींदार या मिलवाले को ही लीजिए। उन दोनों का जो अपना राज्य (स्वराज्य) होगा। वही उन किसानों या मजदूरों का अपना (स्व) राज्य कैसे हो सकता हैं? जब दोनों के स्वार्थ-शोषकों और शोषितों के स्वार्थ-परस्पर विरोधी हैं, तो फिर उनका स्वराज्य एक कैसे होगा? जो एक का स्वराज्य होगा वही दूसरे के लिए यमराज्य हो जायेगा।
आखिर हम यह तो मानते ही हैं कि स्वराज्य होने से हुकूमत हमारे अपने हाथ में आ जायेगी। मगर अपना हाथ होगा कौन? वह तो जमींदार और किसान का, या पूँजीपति और मजदूर का जुदा-जुदा होगा न? ऐसी हालत में यदि 'अपना' का अर्थ जमींदार का या पूँजीपति का, ऐसा मान लें तो स्वराज्य का मतलब यह हुआ कि जमींदारों और मालदारों के हाथ में हमारे देश की हुकूमत आ गयी। तब नतीजा क्या होगा, सिवाय इसके कि किसानों और मजदूरों को वे लोग चूँ करने न देंगे? वे लोग मनमाने ढंग से लगान वगैरह वसूलेंगे और काम करायेंगे। और अगर इस पर किसान या मजदूर चूँ करें तो जेल, जुर्माना, फाँसी, कालापानी, गोली आदि के जरिये वे दुरुस्त कर दिये जायेगे ! आतंक राज्य कायम के दिया जायेगा। क्योंकि यह काम सरकार ही करती हैं और वह हैं अब जमींदारों और पूँजीपतियों की ही।
लेकिन विपरीत इसके यदि अपना राज्य का अर्थ किसानों और मजदूरों का राज्य हो तो सभी बातें उल्टी होंगी। वे जमींदारों को या तो लगान देंगे ही नहीं, या नाममात्र को ही देंगे-जितना चाहेंगे उतना ही देंगे। उसी प्रकार मजदूर अपने आराम के अनुसार काम करेंगे न कि कारखानेवालों की मर्जी के मुताबिक। फिर भी तनख्वाह काफी लेंगे। यहाँ तक भी करेंगे कि कारखानों और मिलों को अपने कब्जे में करके पूँजीपतियों को धाकिया देंगे! किसान भी जमींदारी को ही मिटा देंगे और जमीनें हथिया लेंगे। मजा तो यह होगा कि जमींदार या पूँजीवाले जबान भी हिला न सकेंगे। नहीं तो वही भयंकर दमन होगा और उनकी जिन्दगी हराम हो जायेगी। सरकार मजदूरों और किसानों की जो ठहरी। वह जैसा चाहेंगे वैसा ही सरकार करेगी।
ऐसी हालत में स्वराज्य एक कैसे होगा? फिर भी यदि एक माना जाये, तो यह धोखे की बात होगी। मगर होता हैं ऐसा ही। स्वराज्य, आजादी आदि शब्दों को देख के सीधे लोग यह मान बैठते हैं कि वह एक ही चीज हैं और सबके लिए समान हैं। जो लोग पूँजीवादी, जमींदार या उनके मित्र और दलाल हैं वह तो इस बात का निरन्तर प्रचार करते ही रहते हैं कि जो स्वराज्य होगा, जो आजादी होगी, वह सबों के लिए होगी। वह यह भी कहते रहते हैं कि आखिर विदेशी सरकार का हटाना तो धनी गरीब सबों के लिए बराबर ही हैं और स्वराज्य के भीतर यह हटाने वाली बात भी आती ही हैं। मगर वे यह बात नहीं बताते कि विदेशी हुकूमत का हटाना असल चीज नहीं हैं। किन्तु उसके बाद किसकी सरकार होगी और कैसी होगी यही स्वराज्य का असली अर्थ हैं। क्योंकि ऐसा कहने पर किसानों और मजदूरों की आँखें जो खुल जायेंगी और वे सवाल करने लग जायेगे कि हम दूसरों के स्वराज्य के लिए क्यों लड़ें? इस तरह स्पष्ट हो जाता हैं कि स्वराज्य आदि शब्द गोल-मोल अर्थों को बता के शोषकों का मतलब साधते हैं।
इसीलिए इनके मतलब की सफाई करने की जरूरत होती हैं, जैसा कि अभी-अभी नमूने के तौर पर हमने बताया हैं। यही सफाई, यही विश्लेषण हमें क्रान्ति की ओर ले जाते हैं। जब हमें जानकारी होने लगती हैं तो हम स्वराज्य के बारे में खोद-विनोद शुरू करते हैं और ऐसा करते-कराते ही क्रान्ति के असली अर्थ की ओर पहुँचते हैं। जैसा स्वराज्य के मानी में केवल विदेशी या बेगाने लोगों की हुकूमत को हटाना मात्र बता के मालदार और उनके दोस्त अपना काम निकाल लेते हैं वह बात क्रान्ति के मानी में नहीं हैं। यहाँ तो साफ ही हैं कि पुराने शासन को उलट के उसकी जगह नया शासन बनाना होगा। इसीलिए शुरू से ही यह विचार करने का मौका आ जाता हैं कि वह नया शासन कैसा होगा। हम अपनी नादानी से इस बात का विचार चाहे भले ही न करें। मगर मौका तो इसका बराबर रहता ही हैं। यही एक खास खूबी हैं जिससे स्वराज्य के बदले क्रान्ति का प्रयोग हमारी दृष्टि से-शोषितों और पीड़ितों की नजर में-ज्यादा महत्त्व रखता हैं। इस महत्त्व को न जानने के कारण ही पुराने समय के-फ्रांस, इंग्लैंड, अमेरिका, इटली आदि के-राष्ट्रविप्लव विफल हो गये हैं और वहाँ की कमानेवाली जनता वैसी-की-वैसी ही दुखिया आज भी बनी हैं।
हम आगे बढ़ने के पहले यह भी साफ कह देना चाहते हैं कि स्वराज्य और आजादी का मतलब सिर्फ यह नहीं हैं कि विदेशी शासन हटाया जाये और अपना कायम किया जाये। हकीकत तो यह हैं कि शासितों और शोषितों के लिए जो शासन बेगाना हो वही हटाया जाना चाहिए। फिर चाहे वह स्वदेशी हो या विदेशी। यही कारण हैं कि जहाँ अमेरिका से विदेशी (अंग्रेजी) शासन हटा के वहाँ के लोगों का शासन कायम किया गया, वहाँ फ्रांस, इंग्लैंड, चीन, रूस आदि देशों में स्वदेशी शासन ही हटाया गया और उसकी जगह नया शासन यन्त्र बना। क्योंकि फ्रांस का 16वाँ लुई, इंग्लैंड का दूसरा जेम्स, चीन का मंचू वंश या रूस का जार स्वदेशी होने पर भी वहाँ के लोगों के लिए, जिनमें पूँजीपति भी शामिल थे, बिलकुल ही बेगाना था। वे शासक न तो पूँजीवादियों को आगे बढ़ने देने को तैयार थे और न किसानों, मजदूरों आदि को ही। यही कारण हैं कि सभी उनके विरोधी हो गये। केवल स्वेच्छाचारी जमींदार, तालुकेदार और छोटे-बड़े सामन्त लोग ही उन अत्याचारी शासकों के मददगार रह गये थे। वह भी इसीलिए कि उन शासकों के रहते उन्हें स्वेच्छाचार करने और लूट-खसोट का पूरा मौका था।
इन सभी बातों को ख्याल में रख के अब हमें क्रान्ति के भेदों की ओर नजर दौड़ाना हैं और देखना हैं कि वह कितनी तरह की होती हैं। इस सम्बन्ध में सबसे पहले एंगेल्स के ही कथन की तरफ हमारा ध्यान जाता हैं, जो उसने सन 1895 ई. में मार्क्स की किताब 'फ्रांस में वर्ग युद्ध' की भूमिका में जाहिर किया हैं। वह लिखता हैं-''अब तक जितनी क्रान्तियाँ हुई हैं, उनका नतीजा यही हुआ हैं कि एक खास वर्ग का शासन हटा के उसकी जगह वैसे ही दूसरे वर्ग का शासन कायम हो गया हैं। शासित जन-समूह के मुकाबिले में अब तक का शासक-वर्ग केवल अल्पमत में ही (अल्पसंख्यक ही) रहा हैं। इस तरह देखते हैं कि एक अल्पसंख्यक शासक वर्ग उठा फेंका गया और उसकी जगह शासन की बागडोर दूसरे अल्पसंख्यक वर्ग के हाथ में आ गयी, और उसने अपने स्वार्थों के अनुसार शासन के ढाँचे को बना लिया। देश की आर्थिक व्यवस्था के विकास के अनुसार ही हर मौके पर एक नन्हे से गुट के हाथ में हुकूमत सौंपी गयी और उसने उसे हथिया भी लिया। इसीलिए, न कि किसी और वजह से, ऐसा होता रहा कि बहुत बड़ी तादाद वाले जो शासित लोग थे उनने या तो नये शासकों की ही तरफ से क्रान्ति में भाग लिया, या चुपचाप नई परिस्थिति के सामने सिर झुका लिया। लेकिन अगर ऐसे हर मौकों की खास-खास बातों को हम ख्याल में न लायें तो अब तक के सभी विप्लवों की समानता इस बात में पायी जाती हैं कि वे मुट्ठी भर लोगों के ही विप्लव थे। जहाँ इन क्रान्तियों में जनता के बहुमत ने भाग भी लिया वहाँ भी, जान में या अनजान में, उन मुट्ठी भर लोगों की मदद में ही ऐसा किया-उनके भाड़े के टट्टू का ही काम किया। लेकिन चाहे भाग लिया, या वे लोग यों ही चुपचाप टुकुर-टुकुर देखते रहे। इसका एक नतीजा यह हुआ कि नये शासकों का वह नन्हा-सा गुट समस्त जनता का प्रतिनिधि जैसा प्रतीत होने लगा।''
इस लम्बे अवतरण से साफ हो जाता हैं कि एक प्रकार की क्रान्ति, जो उन्नीसवीं सदी के अन्त तक होती रही हैं, अल्पमत या मुट्ठीभर लोगों की ही क्रान्ति कही जाती हैं। इसके विपरीत बीसवीं सदी में, जो रूस में क्रान्तियाँ हुई हैं सन 1905 ई. से लेकर सन 1917 ई. तक, और खासकर यह आखिरी, वे बहुमत या बहुसंख्य की क्रान्तियाँ कही जाती हैं। इस तरह अल्पमतक्रान्ति (minority revolution) और बहुमतक्रान्ति (majority revolution) के भेद से क्रान्ति दो तरह की होती हैं। रूस की क्रान्ति बहुमतक्रान्ति थी यह बात लेनिन ने जाने कितनी बार लिखी हैं। वह कहता हैं-
1. ''अगर क्रान्तिकारी पार्टी का मददगार और समर्थक, क्रान्तिकारी वर्गों के प्रगतिशील दलों का, बहुमत न हो और समूचे देश के प्रगतिशील लोग भी उसके साथ न हों तो क्रान्ति का प्रश्न उठी नहीं सकता हैं।''
2. ''श्रमजीवी श्रेणी के बहुमत के विचारों में, अगर क्रान्ति के पक्ष में, परिवर्तन न हुआ हो तो कोई क्रान्ति हो ही नहीं सकती। लेकिन आम लोगों के भीतर इस तरह के ख्याल सिर्फ राजनीतिक अनुभव और जानकारी के ही करते होते हैं।''
3. ''यह तो बड़ी-से-बड़ी भूल होगी, यह जुर्म होगा कि जब तक श्रमजीवी वर्ग समूचा का समूचा-आम लोग,-साथ देने को तैयार न हो, या कम-से-कम विजय की शुभकामना न करे और दुश्मन का साथ किसी भी हालत में न देने के लिए बद्ध परिकर (कमर बन्द) न हो, उसके पहले ही नेता और पथदर्शक (अग्रदूत) क्रान्तिकारी युद्ध के मोर्चे पर चले जाये। लेकिन सिर्फ आन्दोलन और प्रचार के ही बल पर हमें यह यकीन कभी भी नहीं कर लेनी चाहिए कि सबके-सब श्रमजीवी, कमानेवाली जनता का वह विराट् समूह, जिसका शोषण पूँजीवाद कर रहा हैं, हमारा साथ ख़ामखाह देंगे। यह बात तो तभी होगी जबकि जनता को राजनीतिक अनुभव के आधार पर इस बात की पूरी शिक्षा मिल जाये कि (क्रान्ति में साथ देने के सिवाय दूसरा चारा हैं नहीं)।''
4. ''साथ ही, यह बात भी हैं कि मजदूरों के अग्रसर दल में इस बात की योग्यता हैं कि वह कमानेवाले अपार जनसमूह में सबसे पहले आम श्रमजीवियों के साथ और उसी के साथ-साथ उनके अलावे कमानेवाले दूसरे सभी जनसमुदाय के साथ, अपने को संसर्ग में ला सकता हैं, उनसे घनिष्ठता स्थापित कर सकता हैं और कुछ हद तक उनके साथ घुल-मिल जा सकता हैं।''
एक जगह लेनिन और भी लिखता हैं कि ''सर्वहारा (मजदूर) वर्ग का जो एकतन्त्र शासन होगा वह एक नये ढंग का मजदूरों और अन्य शोषितों का प्रजातन्त्र शासन होगा। साथ ही पूँजीवादियों के विरुद्ध वह एक नये प्रकार का एकतन्त्र शासन होगा।''
स्तालिन ने 'लेनिनिज्म' में इस बात का स्पष्टीकरण यों किया हैं-''पूँजीवादी व्यवस्था में जो प्रजातन्त्र शासन होता हैं वह सिर्फ मुट्ठी भर शोषक पूँजीपतियों का ही प्रजातन्त्र होता हैं। उसमें बहुसंख्यक शोषितों के अधिकार छीन लिये जाते हैं, संकुचित कर दिये जाते हैं और यह शासन उन शासितों को दबाने के ही लिए होता हैं। सिर्फ श्रमिकों के एकतन्त्र शासन में ही शोषित जनता को सच्ची स्वतन्त्रता मिलती हैं और उसी के अन्दर किसान और मजदूर पूरी तौर पर मुल्क की हुकूमत में हिस्सा लेते हैं। श्रमजीवियों के एकतन्त्र शासन में जो जनतन्त्र शासन होता हैं वह पीड़ित और शोषित जनता की बहुत बड़ी तादाद का ही होता हैं। उसमें शोषकों के अधिकार संकुचित कर दिये जाते हैं और वह शासन उन शोषकों के दबाने के लिए होता हैं।''
अब तक जो उदाहरण हमने दिये हैं उनसे यह बात अच्छी तरह साफ हो जाती हैं कि बहुमत-क्रान्ति (Majority revolution) किसे कहते हैं। अल्पमत-क्रान्ति के ठीक उल्टा इस क्रान्ति में शोषितों एवं पीड़ितों का बहुत बड़ा समूह न सिर्फ भाग लेता हैं, बल्कि जान-बूझकर उसकी सफलता के लिए हाथ बँटाता हैं। क्रान्ति की सफलता होने पर जो शासन कायम होता हैं उसमें भी किसान, मजदूर और अन्यन्य कमाने वाले सभी पूर्ण रूप से भाग लेते हैं-उन्हीं की आवाज वहाँ सुनाई पड़ती हैं। इस तरह किसी देश के निवासियों का जबर्दस्त बहुमत न सिर्फ इस क्रान्ति को सफल बनाता हैं, प्रत्युत उसका फल भी भोगता हैं। इसके उल्टा अल्पमत-क्रान्ति में मुल्क के लोगों की यह लम्बी तादाद हिस्सा तो बँटाती हैं। मगर उसे ठीक-ठीक समझ नहीं पाती। उसके नेता उसे धोखा देते हैं। नेताओं की चालों को वह समझ सकती नहीं। इसीलिए क्रान्ति के बाद भी जनता दुखिया की दुखिया ही बनी रह जाती हैं। क्रान्ति का मजा लूटते हैं मुट्ठी भर मालदार और एकतन्त्र शासक। इसीलिए बहुमत क्रान्ति की पूरी सफलता के लिए बार-बार कहा गया हैं कि किसानों, मजदूरों, और दूसरे कमानेवालों के विचारों में ऐसा परिवर्तन हो जाना चाहिए कि वह उसके लिए तत्पर हो जाये।
बहुमत-क्रान्ति की सफलता के सिलसिले में लिखते हुए, शोषित जनता के ख्यालों में किस तरह का परिवर्तन निहायत जरूरी हैं, यह बात लेनिन ने अपने 'वामपक्षी साम्यवाद-बच्चों की गड़बड़ी' (Leftwing Communism, an infantile disoder) में यों लिखा हैं, ''हरेक क्रान्तियों ने और खास कर बीसवीं सदी वाली रूस की तीन क्रान्तियों ने जिस पर मुहर लगा दी हैं वही हैं हर क्रान्ति की सफलता के लिए बुनियादी तौर पर जरूरी नियम-कानून। वह ऐसा हैं। क्रान्ति की सफलता के लिए सिर्फ इतना ही काफी नहीं हैं कि शोषित एवं पीड़ित जनता यह बात समझ चुकी हो कि वह अब पुराने तरीके से काम चला नहीं सकती और इसीलिए वह उन तरीकों को बदलने की माँग पेश करे। यह तो चाहिए ही। मगर इसके लिए यह बात भी जरूरी हैं कि शोषकों और शासकों को भी मालूम हो जाये कि वे लोग पुरानी धाँधली अब मचाने न पायेंगे। क्रान्ति को तब तक सफलता मिल नहीं सकती जब तक ऐसी हालत न हो जाये कि नीचे के (शासित) वर्ग क्षण भर के लिए भी पुराने शासन को बर्दाश्त करने को तैयार न हों, और ऊपर के (शासक) वर्ग के लिए शासन करना गैर-मुमकिन हो जाये। इसका साफ मतलब यह हैं कि विप्लव की पूर्णता के लिए दो बातें अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं। सबसे पहली बात यह हैं कि कमानेवालों का बहुमत, या कम से कम उनमें जो वर्ग-चेतना युक्त, समझदार और राजनीति में सक्रिय भाग लेने वाले हैं उनका बहुमत इस बात को पक्का-पक्की माने बैठा हो कि क्रान्ति के बिना अब काम नहीं चलने का। इसीलिए वह क्रान्ति की सफलता के लिए ख़ामखाह जान हथेली पर लिये कमरबन्द तैयार हो। दूसरी बात यह हैं कि शासक वर्ग के सामने शासन की उथल-पुथल का ऐसा बवण्डर खड़ा हो कि जनता का सबसे पिछड़ा और मुर्दा हिस्सा भी उसके चलते राजनीतिक क्षेत्र में खिंच जाये और इस तरह सरकार इतनी कमजोर बन जाये कि क्रान्ति का पहला ही धक्का उसे खत्म कर दे।''
यहाँ एक बात और भी विचारने की हैं। इस बहुमत क्रान्ति की तैयारी में जो यह कहा गया हैं-कि शोषित जनता का, कमानेवालों का बहुमत इस बात की अनिवार्यता को महसूस करने लगे, उसके लिए उतावला हो जाये, बाहरी क्रान्ति के पहले उसके ख्याल में ही क्रान्ति हो जाये कि पुरानी हुकूमत और व्यवस्था को मटियामेट केर देना ही होगा-उसका यह मतलब हर्गिज नहीं हैं कि शोषित जनता का बहुमत इस बात की घोषणा कर देगा कि हम लोग मजदूरों के साथ हो के पुरानी शासन-प्रणाली और तन्मूलक शासन-व्यवस्था को मिटा देना चाहते हैं। यह बात तो बिना क्रान्ति के सफल हुए और पुरानी व्यवस्था तथा हुकूमत को चकनाचूर किये कथमपि सम्भव नहीं। जब तक पूँजीपतियों और जमींदारों का प्रभुत्व हैं और जब तक उनकी तरफ से दुम हिलानेवाले टुटपुँजिये बाबुओं (petty-bourgeoisie) की चलती बनती रहती हैं तब तक यह बात हो ही कैसे सकती हैं? तब तक शोषित जनता को इतनी हिम्मत कहाँ कि घोषणा कर दे? अगर हिम्मत भी करे तो शोषक लोग तरह-तरह के दबाव और प्रचार से उसे रोक न देंगे? इसीलिए पूर्व में लिखे लेनिन के उदाहरणों में यह साफ लिखा गया हैं कि ''कम-से-कम वर्ग-चेतना युक्त, समझदार और राजनीतिक क्षेत्र में काम करनेवाले श्रमजीवियों का बहुमत'' इस बात को मानता हो। इसमें सभी शोषितों का जिक्र नहीं हैं। फिर भी खूबी यह हैं कि घोषणा करने की बात उनके बारे में नहीं कही गयी हैं। किन्तु वे इस बात को मानने लगें, यही कहा गया हैं। इसमें टुटपुँजिये बाबुओं वगैरह का नाम भी नहीं हैं। किन्तु काम करनेवालों, मजदूरों (Workers) का ही जिक्र हैं। इसके पहले भी श्रमजीवी जनता (Labouring masses, Those who labour) यही लिखा गया हैं।
इसी सम्बन्ध में यह भी जान लेना होगा कि जिन किसानों और मजदूरों के बहुमत की बात कही गयी हैं उनमें यह योग्यता होती हैं कि बाकियों को क्रान्ति के पक्ष में करें। क्योंकि वही तो समझदार और वर्ग-चेतना युक्त होते हैं। बाकियों पर इसीलिए वही असर डाल सकते हैं। हाँ, यह ठीक हैं कि जमींदारों और मालदारों को हटाने के लिए जब मजदूर क्रान्ति का झण्डा बुलन्द करेंगे उस समय बिचले तब के वाले जो टुटपुँजिये या फटेहाल बाबू लोग हैं उनका असर ऐसा खत्म हो गया रहना चाहिए कि लोग उनकी भूलभुलैया में न पड़ सकें-उनका राजनीतिक दिवाला आम जनता की नजरों में निकल गया रहना चाहिए। श्रमजीवी जनता जब साफ-साफ समझ जाये कि ये बाबू किसी काम के नहीं हैं, इनसे हमारी तकलीफें दूर हो नहीं सकती हैं, तभी वह उनके भुलावे में पड़ नहीं सकती और तभी क्रान्ति की आखिरी लड़ाई छेड़ देना ठीक होता हैं। तभी यह हालत होती हैं कि जनता अगर किसी वजह से क्रान्ति का साथ न भी दे सके तो इतना तो जरूर हैं कि क्रान्ति के शत्रुओं का भी साथ तो नहीं ही देगी। इसी बात को लेनिन के पहले लिखे उदाहरण में एक स्थान पर कहा गया हैं कि ''कम से कम विजय की शुभकामना करे और दुश्मन का साथ किसी भी हालत में न देने के लिए कमरबन्द हो''।
इस सिलसिले में लेनिन उसी पुस्तक में और भी कहता हैं कि ''अन्तिम धावा बोलने का परिपक्व समय हम तभी मान सकते हैं-
1. जब कि हमारी विरोधी सभी ताकतें गड़बड़ घोटाले में पड़ी हों, अच्छी तरह परस्पर एक-दूसरे के साथ गुत्थमगुत्थे में फँसी हों और परस्पर की ऐसी लड़ाई में पड़ के उनने एक-दूसरे को काफी कमजोर कर दिया हो जिसके लिए उनके पास पहले से ही पूरी ताकत न थी;
2. जबकि सभी आगा-पीछा करनवाले (Vacillating) कमजोर और अविश्वसनीय दलों ने जो पूँजीपतियों और मजदूरों के मध्य में आ जाते हैं-जैसे कि टुटपुँजिये बाबू और पढ़े-लिखे लोग, जनता की नजरों में अपना असली रूप प्रकट कर दिया हो और अपने राजनीतिक दिवालियेपन का काफी सबूत दे दिया हो;
3. जबकि सर्वहारा-वर्ग में पूँजीपतियों के खिलाफ निश्चित रूप से जबर्दस्त और हिम्मत के साथ आखिरी क्रान्तिकारी मोर्चा लगाने के पक्ष में जबर्दस्त भावना उपजी और चारों ओर फैल गयी हो। वही क्रान्ति के लिए परिपक्व घड़ी मानी जानी चाहिए। अगर हमने पूर्व बतायी सभी शर्तों की पूरी पाबन्दी की हो और धावा बोलने की घड़ी ठीक-ठीक तजवीज की हो तो विजय निश्चित हैं''।
यहाँ सवाल उठता हैं कि अगर शोषित जनता के अग्रगामी दलों का बहुमत भी खुली घोषणा इस बारे में नहीं करेगा तो पता कैसे चलेगा कि वह क्रान्ति के पक्ष में हैं? यही जानकारी होने के लिए तो घोषणा की बात करते हैं। आखिर क्रान्ति का नेतृत्व करने वाले सर्वज्ञ तो हैं नहीं कि सभी के दिल-दिमाग की बात जान जाये। और बिना जाने लड़ाई छेड़ने में खतरा ही हैं। तो फिर काम कैसे चलेगा?
असल में क्रान्ति का प्रश्न कुछ ऐसा पेचीदा हैं कि इसमें बहुमत का अपने पक्ष में निर्णय करना आसान हैं नहीं। यही कारण हैं कि रूस में जब लेनिन ने नवम्बर के शुरू में उसके लिए उपयुक्त समय पूर्वोक्त नियमानुसार ही ठहराया था तो उसके साथी ही राजी नहीं थे। वे मानते थे कि अभी वक्त नहीं आया हैं। आवश्यक बहुमत उनके साथ हैं इस बात को जहाँ लेनिन की सूक्ष्मदर्शी आँखें देख सकती थीं, तहाँ उसके साथियों को इसका पता ही न था। इसलिए उसे धमकाना पड़ा और अन्त में बोल्शेविक पार्टी की सेण्ट्रल कमिटी से इस्तीफा तक देने का सवाल उसने उठाया। तब कहीं जाकर नेता लोग लड़ाई छेड़ने को तैयार हुए। इसीलिए रूसी क्रान्ति का इतिहास लिखते हुए त्रात्स्की ने लिखा हैं कि ''जिस प्रकार और उत्पादक कामों के लिए स्फुरण शक्ति और अनुभव जरूरी हैं, ठीक उसी प्रकार क्रान्तिकारी नेतृत्व के लिए भी।''
इस सिलसिले में हम और कुछ न लिख के त्रात्स्की की ही उक्ति को जरा विस्तार से उध्दृत करते हैं। यह उक्ति बहुत ही मौजूं और सुन्दर हैं। 'रूसी क्रान्ति का इतिहास' (History of the Russian Revolution) नामक ऐतिहासिक पुस्तक में उसने एक खास प्रकरण क्रान्ति के ही विवेचन के लिए बनाया हैं। उसने उसमें मार्क्स के शब्दों में क्रान्ति को कला कहा हैं ‘Insurrection is an art.’ जैसे कला की बात सब नहीं जानते। उसे तो केवल कलाविद् ही जानता हैं। यह भी नहीं कि सभी लोग कलाकार हो जाये। ऐसे तो विरले ही होते हैं। यही बात क्रान्ति के नेताओं के सम्बन्ध में भी लागू हैं। वे विरले ही होते हैं। क्योंकि जनता की मनोवृत्ति की परख सबको होती ही नहीं। त्रात्स्की लिखता हैं कि-
''उसके (सितम्बर-अक्टूबर के) बाद क्रान्ति के बारे में सफलता का विश्वास इसी से किया जा सकता था कि जनता के बहुमत पर इसके लिए भरोसा किया जा सकता था। लेकिन इसका मतलब बाकायदा राय लेने से हर्गिज न था। अगर क्रान्ति के बारे में बाकायदा राय ली जाती तो नतीजा बहुत ही संदिग्धा और परस्पर विरोधी होता। (क्योंकि दिल से विप्लव की सहायता के लिए मुस्तैद रहना और उसकी जरूरत के बारे में साफ-साफ बोलने-कहने की योग्यता-ये दोनों एक चीज हर्गिज नहीं हैं।) इसके सिवाय राय लेने में क्या जवाब मिलता इस बात का दारोमदार इस बात पर था कि सवाल किस तरह रखा गया, या किस संस्था के द्वारा मत लिया गया-या यों कहिये कि उस समय शासन की बागडोर किस वर्ग के हाथ में थी (क्योंकि शासन सूत्र का दबाव मतदाताओं पर पड़ता ही हैं)।
''लोगों की राय किस प्रकार जानी जाये इस बात के लिए कुछ सीमाएँ निर्धारित हैं। ट्रेन में चलनेवाले सभी मुसाफिरों से हम यह बात आसानी से पूछ सकते हैं कि वे किस गाड़ी में बैठना चाहते हैं। लेकिन जब ट्रेन खूब तेजी से चली जाती हो और एकाएक कोई खतरा सिर पर सवार हो जाये तो उस समय ट्रेन ठहराने की मशीन (ब्रेक) का इस्तेमाल करें या न करें, उनसे यह सवाल करना असम्भव हैं। अगर घटना से बचाने का काम ठीक वक्त पर और होशियारी से कर लिया जाये तो यह मान लेना होगा कि इस बारे में लोगों की सम्मति पहले से ही थी।
''पार्लिमेण्टरी (चुनाव की) प्रणाली को लोग एक निश्चित समय पर ही काम में लाते हैं। लेकिन क्रान्ति की तो यह हालत हैं कि विभिन्न दलों और तबकों के लोग एक के बाद दीगरे एक ही नतीजे पर पहुँचते हैं जरूर। मगर एक ही साथ नहीं। किन्तु बीच-बीच में समय का अन्तर देकर। गो वह अन्तर कभी-कभी बहुत ही थोड़ा होता हैं। ऐसा भी होता हैं कि जब अग्रसर दल लड़ाई छेड़ने के बारे में जल्दी करने के लिए उतावला रहता हैं, ठीक उसी समय पिछड़े हुए लोगों की इस पर सिर्फ नजर पड़ती हैं। पेट्रोग्राड और मास्को में जनता की सभी संस्थाओं का नेतृत्व पहले से ही बोल्शेविक पार्टी ही करती थी। लेकिन तम्बोफ प्रान्त में, जिसकी जनसंख्या तीस लाख से ज्यादा थी और पेट्रोग्राड तथा मास्को-दोनों-की सम्मिलित जनसंख्या से कुछी कम थी, सोवियत में पहले पहल बोलशेविकों का एक दल अक्टूबर वाली क्रान्ति के थोड़ा ही पहले कायम हुआ था।
''बाहरी दुनिया की घटनाओं में जैसी निश्चित क्रमबद्धता होती हैं कि एक के बाद दूसरी आती ही हैं वही बात लोगों के विचार परम्परा में हर्गिज नहीं होती, सो भी रोज-रोज। कभी-कभी तो ऐसा होता हैं कि घटना चक्र के सिलसिले में जिस समय बहुत ही महत्त्वपूर्ण कदम बढ़ाने की बात रोकना असम्भव हो जाता हैं, ठीक उसी समय उसी बात के लिए लोगों से राय लेना गैर-मुमकिन रहता हैं। जनता के विभिन्न तबकों और दलों के विचार और उनकी मनोवृत्ति में जो पार्थक्य होता हैं वह तो काम के सिलसिले में खत्म हो जाता हैं (और सभी एक साथ हो जाते हैं)। जो दल प्रगतिशील हैं वही आगा-पीछा करनेवालों को काम के दौरान में अपने साथ घसीट लेता और इस प्रकार विरोधियों को अकेले छोड़ देता हैं। असल में बहुमत की गिनती नहीं होती हैं। वह तो अपने काम के बल से अपने पक्ष में कर लिया जाता हैं। क्रान्ति का अन्तिम कदम उसी समय उठाया जाता हैं जबकि परिस्थिति की उलझन को सुलझाने का और कोई उपाय होता ही नहीं।
''किसानों ने जमींदारों के विरुद्ध जो जेहाद बोल दिया था उसका आवश्यक राजनीतिक परिणाम क्या हैं यह बात समझने में वे लोग यद्यपि स्वयं असमर्थ थे। तथापि वे किसान क्रान्ति के लिए जो काम उस समय कर रहे थे उससे ही उनने शहरों में होनेवाली क्रान्ति पर मुहर लगा दी थी, उसकी पुकार मचा दी थी, और उसकी माँग पेश कर दी थी। वे इस सम्बन्ध की अपनी राय कागज के सफेद टुकड़ों के जरिये जाहिर करने के बजाये जमींदारियों में किये जानेवाले अग्निकांडों के जरिये ही जाहिर कर रहे थे और यह तरीका बहुत ही पक्का और मुस्तैदी का था। जिस सीमा के भीतर समाजवादी एकतन्त्र शासन की स्थापना के लिए किसानों की सम्मति जरूरी थी उस सीमा के भीतर वह सम्मति पहले से ही प्राप्त थी। जैसा कि लेनिन ने आगा-पीछा करनेवालों से भी कहा था कि ''मजदूरों का एकतन्त्र शासन किसानों को जमीन और स्थानीय किसान-कमेटियों को पूरा अधिकार दे देगा। तब आप लोग ईमानदारी से इस बात में शक कैसे कर सकते हैं कि किसान लोग उस एकतन्त्र शासन का समर्थन न करेंगे? बोल्शेविकों के द्वारा शासन सूत्र हथियाये जाने की जरूरत इसीलिए थी कि फौजी सिपाही, किसान और सताये गये राष्ट्रों के जनसमूह, जो चुनाव के बर्फीले तूफान के बीच ठोकरें खा रहे थे, बोल्शेविकों के कामों से ही उनकी कीमत समझें।''
इस लम्बे उदाहरण ने यह बात खोल दी हैं कि बहुमत का क्या अर्थ हैं, वह कैसे प्राप्त किया जाता हैं। जो लोग जनता की जरूरतों और उसकी मनोवृत्ति को ठीक-ठीक समझते हैं, या यों कहिये कि लेनिन के पूर्व बताये आदेश के अनुसार जो बहुत अंशों में जनता में घुलमिल गये हैं और इसीलिए उसकी जरूरत और मनोवृत्ति को समझ पाते हैं; जो लोग मुल्क की घटनाओं और अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं को और राजनीति को भी अच्छी तरह जानते हैं और उसका पूरा अध्ययन करते रहते हैं उन्हें फौरन पता लग जाता हैं कि जनता क्या चाहती हैं, उसके विचार कैसे हैं और वह कब किसके साथ होगी। वह यह भी जानते हैं कि कब कौन सा काम करने से जनता ख़ामखाह साथ देगी। इसीलिए त्रात्स्की ने लेनिन का वाक्य किसानों के बारे में, यही जनाने के लिए, उध्दृत किया हैं। लेनिन ने ठीक ही कहा हैं कि किसानों को जमीन की भूख हैं और हम उसे पूरा करेंगे ही। फिर वे हमारा साथ देंगे क्यों नहीं?
यह भी बात इस उदाहरण में हैं कि जनता की तो मूक सम्मति, या ''कर दिखाऊँ'' वाली बात ही ज्यादा काम की हैं। रूस के किसानों ने जमींदारियों की लूट-पाट करके और उनमें आग लगा के अमली तौर से यह साफ कह दिया था कि क्रान्ति का झण्डा बुलन्द करो। इस प्रकार इस काम के लिए उनने औरों को मजबूर किया। फिर सम्मति और चाहिए ही क्या?
सबसे बड़ी बात यह हैं कि जनता का बहुमत चुनाव के जरिये जानना चाहे दूसरे कामों के लिए लाभदायक भले ही हो, मगर क्रान्ति के लिए तो कभी भी फायदेमन्द हैं नहीं। क्रान्ति में मदद मिलती हैं उसी बहुमत से जो चुनाव के जरिये न जाना जाकर अपने कामों के द्वारा प्राप्त किया जाता हैं-"is won over." इसीलिए अन्त में त्रात्स्की ने कहा हैं कि चुनाव के बवण्डर में धक्के खानेवालों को अपनी ओर करना बोल्शेविकों के लिए सिर्फ अमली तौर से, अपने कामों से ही, सम्भव और उचित था। जब शासनसूत्र वे अपने हाथ में ले लेते तभी तो पता चलता कि वे क्या करते हैं। तभी मालूम होता कि और दलों की तरह वे भी केवल ''कह सुनाऊँ'' वाले ही हैं, 'डपोरशंख ही' हैं, या कि ''कर दिखाऊँ'' वाले हैं। बाकी दलों और नेताओं से तो शोषित लोग ऊब ही चुके थे। इसीलिए बातों पर तो उन्हें किसी के विश्वास रही नहीं गया था। वे तो अब काम ही देखना चाहते थे और शासन की बागडोर हाथ में लेके ही बोल्शेविक उन लोगों को अपने कामों के द्वारा ही दिखा सकते थे, कि वे बात बनाने वाले न होकर सच्चे जनसेवक हैं। फिर तो बहुमत धारा हुआ था।
इससे यह भी सिद्ध हैं कि शुरू में ही सभी लोगों का बहुमत मिल नहीं सकता। वह तो क्रान्ति की सफलता के बाद ही मिलता हैं। हाँ, बहुमत अपना विरोधी तो ख़ामखाह नहीं ही रहना चाहिए। साथ ही, समझदार और वर्गचेतनायुक्त कमानेवालों (श्रमजीवियों) का बहुमत साथ में होना भी चाहिए, या कम से कम विरोधी नहीं होना चाहिए। इसीलिए तो कहा गया हैं कि जनता के अनेकों तब के धीरे-धीरे काम देख के ही आगे पीछे साथ देने के लिए चले ही आते हैं।
इसीलिए लेनिन ने ऐसे लोगों की हँसी उड़ायी हैं जो पहले से ही सोलहों आना बहुमत का निश्चय करके ही क्रान्ति की लड़ाई लड़ना चाहते हैं। लेनिन कहता हैं कि ऐसे लोग पक्के अवसरवादी और पूँजीवादियों के दलाल हैं। वह लिखता हैं-
''देखिये न, फटेहाल और पढ़े-लिखे बाबू लोग, (Social revolutionaries and Mensheviks) जो अपने आपको सोशलिस्ट कहते हैं, क्या फरमाते हैं? वे कहते हैं कि 'जब तक मजदूर दल का साथ देने की घोषणा किसी देश के निवासियों का बहुमत न कर दे' (खूबी तो यह कि वे ऐसी घोषणा तभी करवाना चाहते हैं जबकि व्यक्तिगत सम्पत्ति का बोलबाला ही हैं, जब तक पूँजीवाद गद्दीनशीन ही हैं और जब तक जनता उसी के नीचे पिस रही हैं !) 'तब तक बहुमत अपने हाथ में शासन ले नहीं सकता'।''
''लेकिन हमारा तो कहना हैं कि क्रान्तिकारी मजदूर पहले पूँजीवादियों को गर्दनियाँ दे के दूर करें, पूँजीवाद के जुए को तोड़ फेंके और पूँजीवादी शासन व्यवस्था को तहस नहस के दें। उसी के बाद विजयी मजदूर दल को मजदूरों से भिन्न श्रमजीवी जनता की सहानुभूति और सहायता फौरन ही मिल जायेगी। क्योंकि तब उस जनता की जरूरतें शोषकों को दबा के पूरी की जा सकेंगी।''
''यदि मजदूर लोग देशवासियों के बहुमत को अपनी ओर करना चाहते हैं तो सबसे पहले उन्हें पूँजीपतियों को शासन से हटाना और उसका सूत्र खुद हथियाना पड़ेगा। फिर उन्हें सोवियत का अधिकार स्थापित करना और इस तरह पुराने शासन के ढाँचे को तोड़ के एक ही धक्के में पूँजीपतियों और वर्ग सामंजस्यवादी फटेहाल बाबुओं के उस प्रभाव के विरुद्ध असर डालना होगा, जिसे वे लोग मजदूरों के सिवाय अन्य कमाने वाले लोगों पर फैलाये रखते हैं। इसके बाद उनका तीसरा काम यह होगा कि उनके इस प्रभाव को जड़मूल से सदा के लिए मिटा दें। यह बात वह एक ही तरीके से कर सकते हैं यह और वह हैं कि शोषकों को मिटा के जनता की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति क्रान्तिकारी ढंग से कर दें।''
इससे साफ हैं कि यदि हम आम जनता को अपने पक्ष में करना चाहते हैं, क्योंकि समाजवाद के निर्माण के लिए यह जरूरी हैं, तो सबसे पहले समझदार श्रमजीवियों के बहुमत के बल से या कम से कम उनका विरोध हटाकर हम शासनसूत्र हथिया लें। उसके बाद सोवियत या पंचायती सरकार कायम करके उसके द्वारा विरोधियों की मोहनी के और उनके असर के विरुद्ध जनता में वायुमण्डल पैदा करें। अन्त में जनता की जरूरतों को पूरा करें, इसके लिए शोषकों के अधिकारों को छीन लें और इस प्रकार उनके असर को लोगों के ऊपर से सोलहों आने मिटा दें।
जो लोग बहुमत की घोषणा क्रान्ति की लड़ाई के शुरू करने के लिए अनिवार्य मानते हैं वह लोग होते हैं असल में पूँजीपतियों और मालदारों के दलाल ही। हालाँकि वे यह बात छिपाते हैं। फ्रांस वगैरह की क्रान्तियों में ऐसा देखा गया हैं कि मौजूदा शासनप्रणाली से ज्वलन्त घृणा, उसके प्रति तीव्र क्रोध और क्षोभ के करते मौका पाते ही एकाएक समूची जनता उबल पड़ती हैं और ऐसी हड़ताल, ऐसा प्रदर्शन और ऐसी मुठभेड़ हो जाती हैं कि पुराने शासक बम बोल जाते हैं। फिर तो नये गुरुघण्टाल शासक आसानी से उनकी जगह जा बैठते हैं। जनता की इस आकस्मिक उबाल को ही अंग्रेजी में (spontaneous insurrection) कहते हैं। जनता आवेश में काम तो कर देती हैं। मगर उसका मतलब और नतीजा ठीक-ठीक समझ पाती नहीं। फलत: मालदारों के ही हाथ में हुकूमत जाती हैं और जनता दुखिया की दुखिया ही रह जाती हैं। इसलिए मालदारों के दलाल जब जनता के बहुमत की बात बोलते हैं तो उनका मतलब इसी अन्ध बहुमत से होता हैं-क्योंकि समझ-बूझ वाला बहुमत तो पूँजीवाद के रहते मुमकिन नहीं। इसीलिए त्रात्स्की ने इसके बारे में रूस के इतिहास में लिखा हैं कि-
''इतिहासकार और राजनीतिज्ञ लोग क्रातिन्कारी आकस्मिक उभाड़ नाम जनता के उस आन्दोलन को देते हैं जो पुराने शासन के विरुद्ध सार्वजनिक विद्रोह के फलस्वरूप संगठित रूप धारण के लेता हैं। लेकिन विजय के लिए जिस स्पष्ट लक्ष्यज्ञान, लड़ाई के निर्धारित उपाय, या विज्ञ नेतृत्व की आवश्यकता होती हैं वह उसमें नहीं रहती। इस क्रान्तिकारी उभाड़ को सनातनी इतिहास लेखक, और खासकर उनमें जो जनतन्त्र शासनवादी लोग होते हैं वे, अनिच्छित, पर अनिवार्य, बुराई के रूप में कबूल करते हैं और कहते हैं कि इसकी जवाबदेही पुरानी शासनप्रणाली के ही माथे हैं। मगर उनके द्वारा उसके प्रति ऐसी रिआयत दिखाने में असली कारण यह होता हैं कि दरअसल ऐसी क्रान्ति पूँजीवादी शासन व्यवस्था के दायरे से बाहर जा ही नहीं सकती।''
ऐसी मनोवृत्ति वस्तुत: सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियों के नेता और सदस्य ही दिखलाते हैं, जिन्हें रूस में मेनशेविक और सोशल रेवोल्यूशनरी कहा जाता था। इसके सम्बन्ध में तो उनने लम्बे-चौड़े मन्तव्य तैयार किये हैं और इस प्रकार अपनी असली कमजोरी को छिपाने की कोशिश उनने की हैं। यही कारण हैं कि लेनिन ने इसे पूँछ पकड़ के चलने का सिद्धान्त (tailism) कहा हैं और इसकी तीव्र आलोचना की हैं। स्तालिन ने भी 'लेनिनिज्म' में इस सिद्धान्त की बड़ी थुक्कम फजीती की हैं।
इस प्रकार जो कुछ हमने लिखा हैं उससे यह बात तो साफ हो जाती हैं कि क्रान्तियाँ दो तरह की मानी गयी हैं। जिन्हें अल्पमत क्रान्ति और बहुमत क्रान्ति कहते हैं। यही पुराना तरीका हैं क्रान्ति के ब्योरे के बारे में। अल्पमत क्रान्ति को ही पूँजीवादी क्रान्ति, बरूज्वा क्रान्ति और जनतन्त्रवादी क्रान्ति भी कहते हैं। इसी प्रकार बहुमत क्रान्ति को ही सर्वहारा क्रान्ति, मजदूर क्रान्ति और समाजवादी क्रान्ति के नामों से भी पुकारते हैं। मगर इन सबों के बारे में कुछ विशेष विवरण देना जरूरी हैं; क्योंकि अब यही प्रचलित नाम हैं। इनमें किनका कौन-सा स्थान हैं, इन सबों की जरूरत क्या हैं आदि बातें जानना भी जरूरी हैं।

रचनावली 5  : भाग - 2
 

 

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