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सहजानंद समग्र/ खंड-6

 स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-6

12. केन ग्रोवर्स कोऑपरेटिव कॉनफ्रेंस, पटना 7-8 अप्रेल,1947
 

मुख्य सूची खंड-1 खंड-2 खंड-3 खंड-4 खंड-5 खंड-6

साथियो,

इस बिहार प्रान्तीय कोआपरेटिव ऊख सम्मेलन के मौके पर मैं आपका स्वागत तहेदिल से करता हूँ। मेरा यकीन है कि आप यहाँ न तो किसी खास आराम के ख्याल से पधारे हैं और न किसी इज्जत या स्वागत के लिए। ऊख की खेती और चीनी के कारबार की जो बुरी हालत हमारे सूबे में हो रही है और होने जा रही है उसी ने आप को यहाँ घसीटा है। आप यही सोचने-विचारने और इसी का कोई रास्ता निकालने आये हैं कि वह कैसे सम्भले और तरक्की करे। इसलिए उसी के मुतल्लिक दो-चार बातें यहाँ कह देना मैं अपना फर्ज समझता हूँ। यकीन है, आप उन पर पूरा गौर करके किसी नतीजे पर पहुँचेंगे। मेरे जिम्मे यही काम सौंपा गया है-मैं इसी के लिए जिम्मेवार ठहराया गया हूँ( हालाँकि 24 घण्टे की नोटिस में मैं यह काम करने चला हूँ जो करीब-करीब गैरमुमकिन है। काम ठहरा पेचीदा। इसलिए समय चाहता है-काफी समय। फिर भी जल्दी में जो कुछ भी हो सका, लेकरे हाजिर हो रहा हूँ। आशा है, इससे सिर्फ दिग्दर्शन होगा कि हमें क्या करना है। फैसला तो आपको अपने दिमाग और मँजे-मँजाये खयालों के बल पर ही करना है। मैं सिर्फ दो-चार अहम मसलों की याद दिलाने और उस ओर आप लोगों का ध्यान ले जाने की कोशिश इस छोटे से बयान के जरिये करे रहा हूँ। न कि और कुछ।

आज से करीब 15 साल पहले जब हमारे देश में चीनी के नये ढंग के कारखाने और मिलें खोलकरे काफी चीनी पैदा करने का रास्ता निकाला गया था और इसीलिए विदेशी चीनी पर काफी डयूटी लगाकरे उसको यहाँ रोक देने की तरकीब की गयी थी, तो बड़ी उम्मीदें बँधी थीं, न सिर्फ चीनी के कारबार के बारे में, बल्कि ऊख की खेती और उससे होने वाले किसानों के फायदे के बारे में भी। टैरिफ बोर्ड ने ऐसा करते हुए साफ ही कहा था, 'हमारे सामने प्रधान समस्या है खेती से सम्बन्ध रखने वाली और हमें सबसे पहले किसानों के स्वार्थों की रक्षा करनी है।'

‘And since, as we have seen, the problem before us is mainly agricultural and the interests to be served are primarily those of the cultivating classes.’ First Tariff Board Report, page 54.लेकिन क्या सरकार, चीनी के मिल वाले और इन दोनों के साथी-सलाहकार ईमानदारी से कलेजे पर हाथ रखकरे कह सकते हैं कि उनने इस दृष्टि से काम किया है, काम करे रहे हैं? क्या यह सही नहीं है कि उनके दिमाग में सिर्फ एक ही ख्याल काम करे रहा है कि चीनी कैसे सस्ती बिक सके?

मैं मानता हूँ कि सस्ती चीनी यहाँ पैदा न होने पर ये कारखाने विदेशियों की सस्ती चीनी के सामने टिक न सकेंगे और आज वही नौबत आ पहुँची है। मगर क्या इस बात में उन्हें सफलता मिली है? क्या इस कोशिश के बावजूद भी हमारी ये चीनी की मिलें एक दिन भी टिक सकती हैं, यदि सरकारी संरक्षण आज हट जाये? एक साल के लिए वह और भी बढ़ा दिया गया है, किसलिए? उसकी मीयाद तो पूरी हो चुकी है। इसीलिए न कि संरक्षण हटाते ही विदेशी सस्ती चीनी से हमारे बाजार पट जायेंगे और यहाँ की चीनी कोई न पूछेगा? इसी से सरकार और मिल वालें-दोनों की आज तक की इस सम्बन्ध की अक्‍लमन्दी का अन्दाज लग जाता है।

यहीं ठीक है कि सस्ती चीनी के लिए सस्ती ऊख का होना जरूरी है। मगर सस्ती ऊख के लिए किसान का गला रेतना कोई रास्ता नहीं है। अगर मिल वालों के लिए जरूरी है कि अपने छोटे-मोटे सभी खर्चों और उनके लिए मुनासिब सूद के अलावे उचित मुनाफा भी मिले तभी वे अपने कारखाने चला सकते हैं, तो यही उसूल ऊख उपजाने वाले किसान के बारे में भी क्यों नहीं लागू किया जाता है? कहने वाले कहने से नहीं हिचकते कि लागू तो होता ही है। मगर बात सरासर गलत है यदि ऐसा होता तो गुजश्ता चार साल के भीतर तेरह आने से लेकरे पूरे बीस आने तक एक मन ऊख की कीमत क्यों मुकर्रर की गयी? तुर्रा यह कि शुरू में फी मन दो आने की कटौती के लिए आसमान और जमीन को एक किया गया, जब कि कीमत कम थी। मगर जब पन्द्रह और बीस आने हो गयी, तो कटौती तो दरकिनार, पहले की कटौती वापस तक की गयी! पार साल पन्द्रह और इस साल बीस आना भी क्यों रखा गया? क्या इस साल एकाएक किसान का खर्च पूरे तैंतीस फीसदी बढ़ गया? दरअसल बात तो दूसरी है। किसान का खर्च-वर्च और नफा-नुकसान तो कोई देखने जाता नहीं कि किस कीमत में उसे क्या मिलेगा? यहाँ तो सिर्फ सट्टेबाजी और जुआ होता है और अन्दाज से ही ऊख की कीमत तय करके देखा जाता है कि शायद इतने पर ही किसान काफी ऊख दे डाले। जब उसमें सफलता नहीं होती, तो बहुत पछता करे कुछ आगे बढ़ा जाता है। यही रवैया बराबर जारी है। मगर याद रहे, किसान वैसा गधा नहीं रह गया, जैसा समझा जा रहा है और मंसूबे बाँधे जा रहे हैं अभी तक कि चाहे जो भी कीमत उसकी पीठ पर जबर्दस्ती लादी जा सकती है। वह भी हिसाब-किताब समझने लगा है और बिना अपने हिसाब के पूरा हुए वह काफी ऊख बोने को हर्गिज तैयार न होगा। यों किसी मजबूरी से कभी ज्यादा रोप ले, यह बात दूसरी है। मगर मिलों की जरूरत के मुताबिक बराबर काफी ऊख वह बोएगा तभी, जब उसके ही हिसाब के मुताबिक उसे ऊख की कीमत मिलेगी। अगर चीनी के मिल-मालिकों को उन्हीं के हिसाब से चीनी की कीमत मिलने पर ही वे अपनी मिलें चालू रखने को राजी हैं, तो किसान से दूसरी उम्मीद क्यों की जाती है? वह दूसरे का हिसाब क्यों मानेगा? हाँ, अगर मिल वाले किसान के हिसाब के मुताबिक ही उसे चीनी देने को तैयार हों, तो शायद वह भी दूसरों का हिसाब मानने को तैयार हो सके। चमड़ी और खून को जलाकरे, काला करके ऊख उपजायेगा वह और उसकी कीमत तय करेंगे बाहरी लोग, यह होने का नहीं, याद रहे। अपना खून जलाने वाला ही उसके दर्द को समझ सकता है, न कि बिजली के पंखे के नीचे महलों में बैठे बाबू लोग, बेअदबी माफ हो।

सवाल होगा कि तो फिर सस्ती ऊख मिलेगी कैसे और महँगी ऊख से बनी चीनी विदेशी चीनी के सामने टिक सकेगी कैसे? इसका उत्तर सीधा है। यदि नहीं टिकेगी, तो किसान क्या करे? वह क्यों घाटे में ऊख बोये? मिलवाले ही घाटे में सस्ती चीनी क्यों नहीं बनाते? आखिर किसान ने ही क्या ठेका ले रखा है कि खून देकरे चीनी के कारखानों की फुलवारी हरी-भरी और सर-सब्ज करे? उसने बहुत किया है, जबकि औरों ने कुछ नहीं। फलत: अब दूसरे ही करें। वह नहीं करने का। और अगर दूसरे तैयार नहीं हैं, जिसका नतीजा होगा यहाँ से इन कारखानों का मिट जाना, तो हो। यहाँ रह करे भी इन कारखानों ने न तो उसे भरपूर चीनी दी और न पैसे, खासकरे इधर सात-आठ सालों से। ऐसी हालत में जाते हैं तो उसकी बला से। आखिर वह कितनों की फिक्र करके मरेगा?

और, अगर सचमुच ये कारखाने रहना और जगमगाना चाहते हैं, तो इन्हें किसानों की कब्र पर अपने महल सजाने का रास्ता छोड़ दरअसल ऊख की खेती की तरक्की real cane development को दिलोजान से ईमानदारी के साथ अपनाना होगा। अब तक यह बात नहीं हो सकी है, यही हकीकत है। अब तक तो सिर्फ इसकी नकल जैसी ही हुई है, जहाँ तक समूचे सूबे और देश का सवाल है। आधा मन से बेगार के तौर पर यह काम होने का नहीं, क्षमा हो। ऊख की उपज की तरक्की के मानी हैं। उसकी घनी खेती intensive cultivation, जिससे कम-से-कम जमीन में अधिक-से-अधिक तौल में ऊख पैदा हो। साथ ही, चीनी भी अधिक-से-अधिक निकले। इसके दो रास्ते हैं। सबसे पहले मिल वाले किसानों से सौदा करें और कहें कि हम तुम्हें नया बीज और उसके लिए जरूरी खाद मुफ्त ही देंगे, बशर्ते कि तुम हमारे बताये ढंग से खेती करो। दूसरी शर्त यह कि इस तरह खेती करने पर मामूली उपज से जितनी अधिक उपज होगी, उसकी आधी तुम्हारी और आधी हमारी। अगर तुम अपने ही पैसे से वह बीज और खाद लो तो सभी तुम्हारी। बस, इसी ढंग से अच्छी ऊख की उपज बढ़ाई जा सकती है और मिल वाले ऊख की उपज को बढ़ा करे उसका हिस्सा भी ले सकते हैं। पीछे तो फायदा देख करे किसान खुद करेगा।

दूसरा रास्ता है ज्यादा और पूरी कीमत देने का पक्का वादा करके किसान से शर्त करना कि वह किस खेत में कौन-सी ऊख किस तरह रोपेगा और तैयार करेगा। ज्यादा दाम पाने पर किसान सभी शर्तें मानने को तैयार होगा और अपना खून पसीना करे डालेगा। दुनिया का कायदा ही यही है। इस प्रकार जब थोड़े ही खेत में ज्यादा उपज होगी, तो वह और भी चसकेगा और उपज बढ़ाता जायेगा। फिर तो आगे चलकरे जब वह उसका मजा बखूबी चख लेगा, ऊख की कीमत काफी घटाने पर भी उसे फायदा ही रहेगा, जिससे खेती छोड़ने या कम करने को रवादार न होगा। काफी कीमत दीजिए और जैसा चाहिए वैसा माल लीजिए, यही संसार का नियम है और ऊख की खेती इसका अपवाद नहीं हो सकती है। 'केन डेवलपमेण्ट' करने का तरीका यही है।

साथ ही, चीनी बनाने के खर्च में कमी भी करनी होगी। बहुत-सी चीजें यों ही नुकसान हो जाती हैं या उनसे निहायत ही कम फायदा उठाया जाता है। खोइया जलाने के बजाय मोटा कागज या ऐसी ही कीमती चीज बनाने के काम में लाई जाये। मोलासेज molasses या चोट्टे से स्पिरिट तैयार की जाये। प्रेस-मड press mud- और गन्दे पानी की सफाई हो और उनसे खाद का काम लिया जाये। इसी तरह की और भी चीजें हैं, जिनके करने से आमदनी होगी और चीनी बनाने का खर्च घटेगा। यह काम सख्ती और बेमुरव्वती से किया जाना चाहिए। फिजूलखर्च औरयों ही नुकसान Waste को खत्म करना होगा। मिल के मजदूरों को सन्तुष्ट रखकरेबहुत बड़े नुकसान Colossal waste को बचाया जा सकता है, बचाया जाना जरूरी है।

कहा जायेगा कि मिल वाले खुद जमीनें हासिल करके ऊख की निजी खेती करें, तभी आसानी से सस्ती ऊख और काफी सस्ती चीनी बना सकते हैं। दूसरा उपाय नहीं है। बात तो ठीक है। रास्ता आसान है। मगर तब चीनी के व्यवसाय को चमकाने के लिए विदेशी चीनी पर भारी डयूटी लगाने की सिफारिश करते हुए टैरिफ बोर्ड ने जो ख्याल जाहिर किया था कि किसानों की हितरक्षा की बात ही प्रधान रूप से इसमें मानी गयी है, वह कैसे पूरा होगा? तब तो इस संरक्षण की सारी बुनियाद ही खत्म हो जायेगी और किसानों के प्रति भारी विश्वासघात होगा।

मगर यह बात जाने दीजिए और मान लीजिए कि चाहे जैसे हो, इस व्यवसाय को फूलने-फलने देना है और एतदर्थ चीनी की मिलों की अपनी ही ऊख की खेती निहायत जरूरी है। फिर भी क्या यह मुमकिन है? क्या किसान यों ही अपनी जमीनें मिलों को देंगे, सो भी जल्द-से-जल्द? आखिर देर होने से तो काम चलेगा नहीं। तब तो ये मिलें विदेशी चीनी के सामने अण्टाचित ही हो जायेंगी। याद रहे, इसमें बड़े-से-बड़े संघर्ष और काफी समय लगेगा। इसलिए डॉक्टर सर टी. एस. वेंकटरमन ने, जो इस बात के विशेषज्ञ माने जाते हैं, पर साल इसी के मुतल्लिक बिहार सरकार को जो सलाह दी थी और वक्तव्य तैयार किया था उसमें लिखते हैं कि छोटे-छोटे किसान ही युग-युगान्तर से ऊख की खेती करते आये है और अभी बहुत दिनों तक कायम रहेंगे। इसीलिए उन्ही की दृष्टि से काम करने के लिए मुनासिब तरीका ढूँढ़ निकालना एवं वैसा ही अमल करना पड़ेगा, ‘The small grower has been on the land for ages, and will continue to exist as such for a long time to come. Suitable machinery has to be devised and brought into existence to bring him in to the picture.’ Page 3

वही वजह है कि उनने इस बात पर बार-बार जोर दिया है कि छोटे-छोटे किसानों की सहूलियत और अनुभव को सामने रख करे ही ऊख की नयी-नयी किस्में खेती के लिए पेश की जानी चाहिए। यहाँ होता यह है कि बड़े-बड़े फार्मों में जाँच करके ही ज्यादा चीनी देने वाली ऊख की किस्में किसानों को दी जाती हैं खेती के लिए, चाहे उनकी उपज फी एकड़ कम ही क्यों न हो और चाहे उनके तैयार करने में किसानों को हजार दिक्कतें क्यों न हों। मिसाल के लिए दक्षिण बिहार में चालू की गयी 453 नम्बर की ऊख को ले सकते हैं। यह खूब फैलती नहीं, इसकी पत्तिायाँ बड़ी सख्त और काँटेदार होती हैं जो किसानों की देह से खून निकाल लेती हैं और इसका हरा सिरा मवेशियों के चारे के लायक नहीं होता( क्योंकि बड़ा ही सख्त होता है। फिर भी मिल वाले इसी का प्रचार चाहते हैं, क्योंकि इसमें चीनी ज्यादा निकलती है और बहुत सख्त होने से किसान गुड़ के लिए इसे पेर नहीं सकते। यह बात बुरी है। इसीलिए सर वेंकटरमन ने अपने वक्तव्य के पृष्ठ 2 में लिखा है कि 'इस मामले में छोटे किसानों का, जिनकी संख्या सबसे ज्यादा है, ख्याल नहीं किया जाता है। ऊख की किस्मों को मंजूर करने के लिए जो कमिटी है उसके सामने जिन नयी ऊखों का लेखा और बयान पेश किया जाता है वह छोटे किसानों के खेतों में हासिल जानकारी के आधार पर नहीं होता। यह एक ऐसी कमी है जो फौरन दूर की जानी चाहिए जिससे किसानों और अन्ततोगत्वा चीनी के व्यवसाय का भी हित है। छोटे किसानों के अनुभव से मदद न लेने का ही नतीजा होता है कि ऐसी नयी ऊखें खेती के लिए दी जाती हैं जिनसे चीनी भले ही ज्यादा हो, मगर जिनकी उपज ज्यादा नहीं होता'-‘The small grower—and the majority of the growers are of this class—is not in the picture. The data presented to the committee do not include the conditions of the small growers. This, I consider, is an omission which should be rectified early in the interests of the growers and in the ultimate interests of the industry as a whole. The absence of data from the small growers is, I consider, the basis of quality instead of on both quality and yield per acre.’

इसलिए मिल वाले जमीनें खरीद करे निजी ऊख इतना जल्द उपजा नहीं सकते कि वह बहुत सस्ती पड़े। इसमें खतरा ही खतरा है। इसी के साथ एक जरूरी बात है। मिलें अगर अपनी जमीन में खेती करें तो, या ऐसा न करके छोटे-बड़े किसानों से ही ऊख लें, हर हालत में ऊख की घनी खेती intensive cultivation निहायत जरूरी है। इसके बिना यह व्यवसाय टिक नहीं सकता। और ऐसी खेती का नतीजा यह होगा कि क्रमश: घटते-घटते कम जमीनों में, जहाँ आज ऊख की खेती हो रही है-और ऐसी जमीनें बहुत ज्यादा हैं-वहाँ उसकी गुंजाइश न रह जायेगी। लेकिन आमतौर से साधारण समय में यह ऊख किराना खेती money crop मानी जाती है जो किसानों की पैसे की जरूरतें पूरा करती है। मगर जब यह न होगी तो किसान कोई दूसरी ही किराना खेती चाहेंगे। इसलिए सरकार का फर्ज है कि वह जल्द-से-जल्द हर ऐसे इलाके के लिए, जहाँ किराना फसल केवल ऊख है, दूसरी दो किराना फसलों मसलन-मूँगफली, लाल मिर्च आदि का प्रबन्ध करे। नहीं तो आगे चलकरे भारी होहल्ला मचेगा और तूफान बरपा होगा, जब ऐसी फसलों के अभाव में किसान अपने माथे का देन-लगान, कर्ज, टैक्स आदि चुका न सकेंगे।

एक बात और। गुड़ बनाने पर खुलके या घुमा-फिराके रोक लगान और इस तरह चीनी के कारखाने को चालू रखने की कोशिश मौत के नजदीक पहुँचे हुए आदमी को ऑक्सिजन के इंजेक्शन के बल पर जिन्दा रखने की कोशिश के बराबर ही है। अगर गुड़ बनाने में ही किसान को फायदा है तो वह क्यों न बनाए? और अगर उसे रोका जाए तो बगावत क्यों न करें? आखिर इस रोक का नतीजा भी क्या हुआ है? यही न कि ऊख की खेती और चीनी की उपज दिनों दिन घटती ही जा रही है? एक दिन वह भी था जब 1939-40 में करीब साढ़े बारह लाख 12443200 टन चीनी समूचे देश में तैयार हुई थी। मगर आज? आज तो उसकी दो-तिहाई भी शायद ही हो। उस साल बिहार में 3331500 टन ऊख मिलों में पेरी गयी थी। उससे पहले 1936-37 में तो 3579520 टन तक पहुँची थी मगर आज बिहार की सब मिलें उसकी आधी भी ऊख पा नहीं सकी हैं! पार साल सिर्फ 1684113 टन और इस साल तो उससे बहुत ही कम का अंदाज है, सिर्फ 1380000 टन का ही! यह तो एक-तिहाई से कुछ ही ज्यादा है! चीनी भी पार साल अगर 177052 टन हुई तो इस साल सिर्फ 138000 टन ही होने का अन्दाज है। अगर 1936-37 वाली 329260 और 1939-40 वाली 308000 टन चीनी के साथ इस साल की मिलान करें तो पता चलेगा कि हम कहाँ-से-कहाँ जा गिरे( हालाँकि इस साल ऊख का दाम एकाएक 15 आने से 20 आना फी मन करे दिया गया! इसी से पता चलता है कि यह बीस आना भी आज कुछ नहीं है और पूरे चालीस आने के बिना काम चलने का नहीं। कितनी जमीन में ऊख बोयी गयी यह ऑंकड़ा भी यही साबित करता है! 1936-37 में बिहार में जहाँ 491000 एकड़ में खेती थी तहाँ इस साल घटकरे 391000 में रह गयी! 'मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की' का अच्छा नमूना है! पार साल से इस साल दाम ज्यादा हुआ। मगर जहाँ पार साल 397000 एकड़ में खेती थी तहाँ इस साल और घटी! कीमत बढ़ाने का फल अगले साल होगा यह भी सिर्फ आशामात्र ही है। क्योंकि मिलों में ऊख तो कम ही दी गयी( हालाँकि पार साल से बहुत ज्यादा दाम एकाएक दिया गया! इसलिए सर वेंकटरमन ने लिखा है, 'हाल-साल में ऊख की खेती बहुत कम होने लगी है ऐसा बताया गया है, क्योंकि किसान को इसमें फायदा नहीं नजर आता। किसानों ने यह भी प्राय: एक राय से बताया कि ऊख की फी एकड़ पैदावार भी घट गयी है! कुछ मिलों ने भी इसे माना है।' ‘In recent years, it is said, there has been a decrease in the area under sugarcane, as this crop has ceased to be attractive to the grower. The cane growers almost unanimously mentioned a drop in acre-yield in recent years and certain of the factory management also endorsed this experience.’

सन् 1944 के सितम्बर में ऊख के विशेषज्ञों Sugar Technologists की जो सभा कानपुर में हुई थी उसके अध्यक्ष श्री लालचन्द हीराचन्द ने माना था कि जहाँ जावा और हवाई द्वीप में 1930-31 तथा 1934-35 में क्रमश: 1446 और 1515 मन ऊख फी एकड़ पैदा हुई थी तहाँ भारत में सिर्फ 388 मन! इस स्थिति की भयंकरता तो तब और बढ़ जाती है जब हमें पता चलता है कि यह औसतन वजन बराबर घटता ही जा रहा है-

"Whereas in java and Havai the average yield per acre was 1446 mds and 1515 mds respectively during 1930-31 and 1934-35, India produced only 388 mds per acre! The seriousness of the situation is further aggravated when we note that the average yield of cane has been constantly falling.’

सर वेंकट ने अपने वक्तव्य के शुरू में ही जो यह कहा है कि 'हाल-साल में बिहार की चीनी मिलों को ऊख मिलने में बड़ी कमी हो रही है और जो साल अभी बीता है। उसमें बहुतेरी मिलों को आधी ही ऊख मिली और कभी-कभी सिर्फ तिहाई ही' ‘In very recent years the suger factories in Bihar have been experiencing a shortage in supply of raw material, and during the crushing season just completed many of the factories crushed hardly 50 percent of their total crush sometimes only a third of their full capacities,’ उसका भी यही आशय है कि एक तो दाम बहुत ही कम होने से किसान मिल में ऊख देना नहीं चाहते दूसरे, ऊख की उपज फी एकड़ धीरे-धीरे घटते जाने के कारण एक दूसरा खतरा भी स्वदेशी मिलों के लिए पैदा हो गया है और अगर यह दूर न किया गया तो विदेशी चीनी यहाँ एक-न-एक दिन पट के ही रहेगी। यही भी इशारा करता है उसी केन डेवपलमेण्ट की ओर जिसका जिक्र पहले ही किया जा चुका है। यह भी बात इसी से साफ हो जाती है कि गुड़ पर रोक लगान इस मर्ज की दवा नहीं है। उससे तो उलटे ऊब करे किसान ऊख की खेती ही घटाते और बन्द करते हैं। गुड़ बनाने में एक तो उन्हें पैसा काफी मिल जाता है दूसरे खेत को जल्द खाली करके उसमें गेहूँ, चना आदि भी अच्छा पैदा करे लेते हैं। फिर वे क्यों न गुड़ बनावें? गुड़ के बारे में चोर बाजार की बातें करने वालों को शर्म आनी चाहिए जो किसान डेढ़ सौ से लेकरे दो सौ रुपये बोरे चीनी खरीद करे ही आमतौर से अपने विवाह, श्राध्दादि की जरूरतें पूरी करता है उससे ही यह चोर बाजार की बात करना सिर्फ जले पर नमक छिड़कना है। जब गुड़ से ज्यादा गल्ला पैदा करने में मदद मिलती है और वह खुद भी खुराक है, तो फिर गल्ले की कमी की चीख-पुकार मचाने वाली सरकार उस पर घुमा-फिरा के क्यों रोक लगाती है कौन बतावेगा? इसमें अक्ल भी क्या है?

कुछ लोगों के दिमाग में यह भय का भूत सवार है कि ऊख का दाम ज्यादा होने से उसकी उपज बेतहाशा बढ़ेगी जो बेकार होगी। पहले का अनुभव भी वे इसी तरह का पेश करते हैं मगर वे भूल जाते हैं कि चीनी की पैदावार भी इसी तरह बेतहाशा पहले बढ़ी थी और मिल वाले रोते थे। तो क्या आज चीनी की कीमत इसीलिए इतनी कम करे दी जानी चाहिए कि मिल वालों को घाटा हो और वे उसे ज्यादा पैदा न करें? अगर नहीं, तो सिर्फ ऊख के दाम के बारे में ही यह बेसिर-पैर की बेहूदी दलील क्यों पेश की जाती है? अगर आज चीनी की बेतहाशा उपज नहीं है तो ऊख की भी न होगी। यकीन रहे मिल वालों की सिंडिकेट व उनका संगठन अगर उन्हें रास्ते पर ले चल सकता है तो ज्यादा दाम देकरे भी किसानों का वैसा ही संगठन उन्हें भी रास्ते पर ले चलेगा। आखिर जब सभी बातें में स्कीमों और योजनाओं Schemes and plannings की जरूरत महसूस हो रही है, जब उनका जमाना माना जाने लगा है, तो ऊख की खेती में भी वही योजना planning क्यों न की जाये कि कौन कितनी ऊख बोयेगा। अब तो ऐसा करना ही होगा। तभी मुल्क को भोजन मिल सकेगा। अन्धी नीति के दिन लद गये।

ऊख वालों की सोसाइटियों का संगठन भी इसमें पूरा मददगार होगा अगर वह सच्चा और जानदार हो। अभी तो वह करीब-करीब नाममात्र का और मुर्दा-सा ही है। इसकी वजह भी है। सोसाइटियों के पास पैसे नहीं कि वैतनिक मन्त्री आदि रखे जा सकें और उन्हें जानदार बनायें। पढ़े-लिखे लोगों को इस काम में बराबर लगाने के लिए उन्हें काम लायक वेतन चाहिए। दूसरे खर्च भी चाहिए जब तक फी मन कमीशन एक आना न करे दिया जाये, एक-दो पैसे से कुछ होने-जाने का नहीं। यह कठोर सत्य है और जितना जल्द इसे सरकार कबूल करे ले उतना ही अच्छा।

इसी सिलसिले में सरकारी अहलकारों का भी सवाल आ जाता है। तीस-चालीस रुपये महीने की तनख्वाह देकरे जो सुपरवाइजर और कुछ ऐसी ही तनख्वाह पर जो ऑर्गनाइजर बहाल किये जाते हैं वह निरी मखौल है, इस अहम मसले के सम्बन्ध में घोर उपेक्षा और बुरी लापरवाही का सूचक है। भला ऐसे रद्दी वेतन पर कौन भला आदमी काम करने को राजी होगा जब तक उसे मजबूरी न हो? राजी होकरे भी लगन के साथ काम करना गैर-मुमकिन है और यह ऐसी बात है जिसे सरकार अब तक भी न समझ सकी यह भी ताज्जुब ही है। कम-से-कम दूनी तनख्वाह तो फौरन ही होनी चाहिए अगर बेशी न भी हो सके और यह नौकरी स्थायी हो। उन्हें आगे तरक्की करने का पूरा मौका भी रहे जो इसमें आयें। नहीं तो यों ही पढ़े-लिखे जवानों को जलील करना बुरा है। काम तो चौपट होता ही है।

एक ही बात और कहनी है। अगर चीनी का कारबार चालू रखना और बढ़ाना है तो मजदूरों तथा किसानों का चीनी की मिलों के साथ पूरा सहयोग होना जरूरी है। वे दिल से मिल करे काम करें तो बेड़ा पार हो । इसके लिए सबसे पहले मिलवाले अपना रवैया बदलें और इन दोनों को अपने हिस्सेदार की तरह मान करे ही सलूक करें और सन्तुष्ट रखें। इसी सिलसिले में गेट-सेल की चीनी का सवाल भी आता है। हर मिल को इतनी चीनी हर महीने मजदूरों तथा किसानों को देने का पक्का इन्तजाम होना चाहिए जिससे उनकी जरूरतें पूरी हो जाया करें। आज यही नहीं हो रहा है। किसान को तो शायद ही चीनी मिल पाती है, सोसाइटियाँ भी ताकती ही रह जाती हैं झगड़े की जड़ यही कड़वा सत्य है। इसी से किसान जल-भुन उठता है। अगर मिल वाले कभी कुछ चीनी देते भी हैं तो एक तो जैसे मजबूरन देते हैं। दूसरे गोया किसानों पर भारी उपकार लादते हैं। तीसरे दौड़ाते-दौड़ाते परेशान करे डालते हैं। ये बातें फौरन खत्म होनी चाहिए और उस चीनी पर किसानों का वैसा ही हक ऐलान किया जाना चाहिए जैसा ऊख की कीमत पर। फर्क इतना ही रहे कि चीनी का दाम सरकारी निर्ख से देना होगा।

बातें तो बहुत हैं। कहना भी ज्यादा है। मगर समय की कमी बेतरह खटकती और मजबूर करती है। इसीलिए इतने से ही सन्तोष करके बैठ जाना पड़ता है। आशा है, आप लोग इन बातों को इशारे के रूप में लेकरे सभी मसलों पर अच्छी तरह गौर करेंगे और ऐसे नतीजे और फैसले पर पहुँचेंगे जिससे ऊख के किसानों का, चीनी के कारबार का, आम जनता का और सूबा तथा मुल्क का भी फायदा होगा।

इनकिलाब जिन्दाबाद!

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